स्वप्न-भंग और लोक संस्कृति की विदाई
दशकों पूर्व की ही नहीं, सौ वर्ष पहले की भी कुछ कहानियाँ बार–बार अपने पाठकों–आलोचकों से पुनःपाठ, गम्भीर पाठ की माँग करती हैं। हम जितनी बार उन कहानियों को पढ़ते हैं, उनका मर्म उतना ही अधिक पकड़ में आता है, उद्घाटित होता है। हिन्दी में ऐसी कहानियाँ पाँच–दस हैं, जिनमें फणीश्वरनाथ रेणु (4 मार्च 1921–11 अप्रैल 1977) की कहानी ‘तीसरी कसम अर्थात् मारे गये गुलफाम’ (1956 में लिखित, 57 में संशोधित, ‘अपरम्परा: पटना, 1957 में प्रकाशित, ‘ठुमरी’ में संकलित) भी है। कुछ ‘प्रसिद्ध’ कथाकारों और ‘आलोचकों’ ने बिना ‘अर्थात्’ और ‘उर्फ’ का अन्तर समझे ‘अर्थात’ के स्थान पर अपने लेखन और वाचन में ‘उर्फ’ का प्रयोग किया है, जो गलत है। सम्भवतः पहली बार धनंजय वर्मा ने इस कहानी पर स्वतन्त्र रूप से लिखा और बाद में कुछ और आलोचकों और कहानीकारों ने भी, पर क्या कहानी को किसी ने समग्रता में समझा? बेशक, कथाकार स्वयंप्रकाश का 12 पृष्ठों का लेख ‘तीसरी कसम:एक अलग–सा पुनर्पाठ’ (‘रंगशाला में दोपहर’, 2002 में संकलित) और आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी का 16 पृष्ठों का लेख ‘रेणु की कहानी-तीसरी कसम’ (कुछ कहानियाँ, कुछ विचार, 1999) आज भी इस कहानी को समझने के लिए महत्त्वपूर्ण है, सुरेन्द्र चौधरी के विचार भी, पर यहाँ भी बहुत कुछ छूटा हुआ है। जो कहानी एक महत्त्वपूर्ण कहानीकार और आलोचकों को इतनी ‘हाण्ट’ करती हो कि उन्होंने इस पर स्वतन्त्र लेख लिखा, अवश्य ही उस कहानी में ऐसा ‘कुछ’ है (‘वह चितवन औरे कछु जिहि वश होत सुजान’) जो बहुत कुछ है। इसलिए बेहतर यह है कि सबसे पहले हम रचना में प्रवेश करें। तभी उसकी बन्द और अधखुली खिड़कियाँ पूरी तरह खुलेंगी। कोशिश करनी चाहिए।
कहानी की पहली पंक्ति है-‘‘हिरामन गाड़ीवान की पीठ में गुदगुदी लगती है….’’ और कहानी की अन्तिम पंक्ति है-‘‘हिरामन गुनगुनाने लगा- अजी हाँ, मारे गये गुलफाम…!’’ जहाँ तक कहानी के पहले और अन्तिम शब्द की बात है, वह है ‘हिरामन’ और ‘गुलफाम’। हिरामन कहानी का मुख्य पात्र है और कहानी के आरम्भ का ‘हिरामन’ कहानी के अन्त में ‘गुलफाम’ बन जाता है। कौन है यह ‘गुलफाम’ ? हिरामन को यह पंक्ति कहाँ से हाथ लगी- ‘मारे गये गुलफाम’। ‘गुलफाम’ से पहले हिरामन को जानें। रेणु लिखते हैं ‘‘चालीस साल का हट्टा–कट्टा, काला–कलूटा, देहाती नौजवान अपनी गाड़ी और अपने बैलों के सिवाय दुनिया की किसी और बात में दिलचस्पी नहीं लेता। घर में बड़ा भाई है, खेती करता है। बाल–बच्चेवाला आदमी है। हिरामन भाई से बढ़ कर भाभी की इज्जत करता है। भाभी से डरता भी है”। हिरामन की शादी बचपन में हुई थी, पर ‘‘गौने के पहले ही दुलहिन मर गयी। हिरामन को अपनी दुलहिन का चेहरा याद नहीं।’’ उसकी भाभी की जिद है कि वह अपने देवर की शादी किसी क्वाँरी लड़की से ही करवायेगी। ‘‘कुमारी का मतलब हुआ पाँच–सात साल की लड़की। कौन मानता है सरधा–कानून ?’’ कहानी में इस बाल–विवाह प्रसंग पर किसी आलोचक ने ध्यान नहीं दिया है और न ‘सरधा-कानून’ को समझने की चेष्टा की है। क्या है यह ‘सरधा–कानून’? भारतीय जज एवं राजनीतिज्ञ राय साहब हरविलास सारदा (3 जून 1867 –20 जनवरी 1955) के नाम पर यह कानून 29 सितम्बर 1929 को ‘बाल–विवाह निषेध अधिनियम’ शाही विधान परिषद् (इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउन्सिल) में पास होकर लागू किया गया था। कानून के रूप में यह छह महीने बाद 1 अप्रैल 1930 से लागू हुआ। यह कानून सामाजिक सुधार आन्दोलन का परिणाम था। इस कानून के अनुसार लड़कियों के विवाह की उम्र 14 और लड़के की 18 वर्ष तय की गयी थी, जिसे बाद में सुधार कर 18 और 21 वर्ष किया गया। कानून तो बन गया, पर उस कानून को मानने वाले कम थे। ‘‘कौन मानता है सरधा–कानून’’ ? ‘सारदा’ कहानी में ‘सरधा’ बन गया है, जिसमें एक अर्थ–ध्वनि भी है कि ऐसे कानून के प्रति लोगों में ‘सरधा’ (या श्रद्धा) नहीं है। हिरामन की ‘‘भाभी के आगे भैया की भी नहीं चलती।’’ एक प्रच्छन्न संकेत भी देखा जा सकता है। शादी के बाद खेती–बारी में हिरामन की सन्तानों का भी हिस्सा होगा। इस दृष्टि से भी हिरामन की भाभी की व्यावहारिक बुद्धि का अनुमान किया जा सकता है। हिरामन शादी नहीं करने का निश्चय कर लेता है। ‘‘कौन बलाय मोल लेने जाये। ब्याह करके फिर गाड़ीवानी क्या करेगा कोई! और सब कुछ छूट जाये, गाड़ीवानी नहीं छोड़ सकता हिरामन!’’
हिरामन एक विधुर गाड़ीवान है, जो कहानी के अन्त में ‘गुलफाम’ बन जाता है। उसे न तो ‘गुलफाम’ का अर्थ मालूम है, न उसकी कथा। उसने नौटंकी के ‘स्टेज’ पर हीराबाई को रोकर गाते हुए सुना था-‘‘अजी हाँ, मारे गये गुलफाम’’ हिरामन को इस गीत की यह कड़ी हाथ लग गयी। कहानी के अन्त में ‘‘हिरामन गुनगुनाने लगा’’-‘‘अजी हाँ मारे गये गुलफाम’’ इस ‘गुलफाम’ पर भी तीसरी कसम के आलोचकों का ध्यान नहीं गया है। थोड़ा ध्यान देना जरूरी है। क्या अमानत लखनवी (1815–1858) की ‘इन्दर–सभा’ के पहले यह ‘गुलफाम’ कहीं उपस्थित है? उन्नीसवीं सदी के इस उर्दू कवि, लेखक और नाटककार अमानत लखनवी, जिनका वास्तविक नाम आगा हसन अली था, की ख्याति उनके द्वारा रचित ‘इन्दर–सभा’ जो काव्य–रूप में लिखित एक परी और एक राजकुमार की प्रेम–कथा है, के कारण विख्यात हैं। वे लखनऊ में वाजिद अली शाह के दरबार, जिसे ‘अवध दरबार’ भी कहा जाता है, से जुड़े थे। वाजिद अली शाह (30 जुलाई 1822–21-सितम्बर 1887) के दरबार में सबसे पहले 1853 में ‘इन्दर-सभा’ की प्रस्तुति हुई थी। उनके दरबार में बार–बार इसका मंचन होता था। ‘इन्दर-सभा’ की कहानी स्वर्ग में राजा इन्द्र के दरबार की है, जहाँ परियाँ गाती और नृत्य करती हैं। इन्द्र के दरबार की चार परियों (पुखराज परी, नीलम परी, लाल परी और सब्ज परी) में सब्ज परी सर्वाधिक सुन्दर है। अन्य तीनों परियों के बाद उसका आगमन अन्त में होता है। सब्ज परी को मर्त्यलोक का एक राजकुमार गुलफाम देखकर मोहित हो जाता है। गुलफाम सुन्दर युवक है। फारसी में ‘फाम’ प्रत्यय है, जिसका अर्थ ‘समान’ या ‘रंगवाला’ है। ‘सब्ज’ के साथ ‘फाम’ जुड़कर जैसे ‘सब्जफाम’ (हरे रंगवाला) बनता है, उसी प्रकार ‘गुल’ के साथ ‘फाम’ जुड़ने पर ‘गुलफाम’ बना अर्थात् गुल (फूल) जैसा। ‘गुलफाम’ शब्द संज्ञा और विशेषण दोनों हैं। संज्ञा रूप में यह ‘इन्दर-सभा’ की कहानी में सब्ज परी का प्रेमी पात्र है और विशेषण रूप में यह ‘सुन्दर’ है। गुलफाम के सौन्दर्य पर रीझकर सब्ज परी उसे अपने महल में ले आती है। वहाँ यह जानकर कि वह परी है इन्द्र के दरबार की, गुलफाम उससे दरबार का उत्सव देखने की इच्छा प्रकट करता है। इन्द्र के दरबार में मर्त्यलोक के किसी भी प्राणी का प्रवेश वर्जित है। दरबार के कर्मचारी की शिकायत पर गुलफाम को बन्दी बनाकर जेल में डाल दिया जाता है। सब्ज परी के प्रेम का यह परिणाम है अर्थात् ‘मारे गये गुलफाम’। ‘तीसरी कसम’ फिल्म (1966) में ‘मारे गये गुलफाम’ गीत हसरत जयपुरी (15–4–1922––17–9–1999) का है जिसे लता मंगेशकर ने गाया है। पूरा गीत यह है- ‘‘मारे गये गुलफाम/ अजी हाँ, मारे गये गुलफाम/ उल्फ”त भी रास न आयी/ अजी हाँ मारे गये गुलफाम/ इक सब्ज परी देखी और दिल को गँवा बैठे/मस्ताना निगाहों पर फिर कोश लुटा बैठे/ फिर होश लुटा बैठे/ काहे को मैं मुस्कुरायी/अजी हाँ, मारे गये गुलफाम/अबरू की कटारी से, नैनों की दुधारी से/वो हो के रहे जख़्मी/इक वाद–ए बहारी से/ इक वाद–ए बहारी से/ ये जुल्फ क्यों लहरायी/अजी हाँ, मारे गये गुलफाम/इस प्यार की महफि”ल में/वो आये मुकाबिल में/ वो तीर चले दिल पर/हलचल–सी हुई दिल में/हलचल–सी हुई दिल में/चाहत की सजा पायी/अजी हाँ, मारे गये गुलफाम’’।
‘तीसरी कसम’ कहानी में दो स्थलों पर हीराबाई के लिए ‘परी’ शब्द प्रयुक्त है। उसके मुखड़े पर जब चाँदनी पड़ी थी, तो हिरामन चीखते–चीखते रुक गया-‘‘अरे बाप! ई तो परी है!’’ बाद में भी उसने देखा-‘‘परी की आँखें खुल गयीं।’’ ‘परी’ अर्थात सुन्दर। कहानी में केवल ‘परी’ का उल्लेख है। वहाँ किसी विशेष परी या ‘सब्ज परी’ का कोई जिक्र नहीं है। ‘कोहिनूर’ फिल्म (1960) के एक गीत में एक साथ ‘गुलफाम’ और ‘सब्ज परी’ है-शकील बदायूँनी (3–8–1916–20–4–1970) के इस गीत में, जिसे मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर ने गाया है-‘‘कोई प्यार की देखे जादूगरी/ गुलफाम को मिल गयी सब्ज परी’’। ‘गुलफाम’ और ‘सब्ज परी’ का प्रेम लैला–मजनूँ, शीरी–फरहाद तथा हीर–राँझा की तरह है। अमानत के काव्य–नाटक ‘इन्दर-सभा’ पर ‘इन्द्रसभा’ नामक फिल्म 1932 में मदन थियेटर ने बनायी थी, जिसमें 71 गीत थे। भारतीय सिनेमा के इतिहास में यह पहली सवाक फिल्म थी। 211 मिनट मिनट की इस फिल्म का आज कुछ भी उपलब्ध नहीं है। उन्नीसवीं सदी में अमानत की ‘इन्दर सभा’ काफी मशहूर थी। उस सदी के अस्सी के दशक में फ्रेडरिक रोजेन (30–8–1856–27–11–1935) ने ‘इन्दर-सभा’ का जर्मन भाषा में अनुवाद किया था-लिपजिग विश्वविद्यालय के एक ‘डाक्टरल थीसिस’ के रूप में, जिसका प्रकाशन 1892 में हुआ। भारत से बाहर जर्मनी तक यह ‘इन्दर-सभा’ काव्य–नाटक चला गया था, जो इसकी अपार ख्याति का प्रमाण है। इसकी रचना के समय से ही पारसी थिएटर का जन्म हुआ। हिन्दी रंगमंच के विकास में पारसी थिएटर का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इस थिएटर में हिन्दी, गुजराती और उर्दू में नाटक खेले जाते थे। इस रंगमंच में व्यावसायिक दृष्टि से कई नाट्य मंडलियों का जन्म हुआ था। पारसी थिएटर मनोरंजन का एक लोकप्रिय माध्यम था। एक लम्बे समय तक ‘मारे गये गुलफाम’ लोगों की जुबान पर रहा है। सम्भव है, नौटंकियों में गुलफाम से जुड़े नाटक खेले जाते रहे हों। ‘तीसरी कसम’ की हीराबाई नौटंकी कम्पनी में काम करती है। वह गायिका, नर्तकी और अभिनेत्री है। हिरामन की बैलगाड़ी से वह रौता नौटंकी कम्पनी में, फारविसगंज के मेले में जाती है। वहाँ उसके आगमन के बाद कहानी में रौता संगीत नाटक कम्पनी प्रचार करती है-‘‘भा–इ–यो, आज रात! दि रौता कम्पनी के स्टेज पर/ गुलबदन देखिये, गुलबदन! आपको यह जानकर खुशी होगी कि मथुरा मोहन कम्पनी की मशहूर एक्ट्रेस मिस हीरा देवी, जिसकी एक अदा पर हजार जान फिदा है, इस बार हमारी कम्पनी में आ गयी हैं…मिस हीरा देवी गुलबदन…’’ श्री कृष्ण खत्री पुस्तकालय ने नौटंकी की जो कई पुस्तकें प्रकाशित की थीं, उनमें एक पुस्तक ‘गुलबदन उर्फ जन्नत की शादी’ भी थी, जिसका 61वाँ संस्करण 1997 में प्रकाशित हुआ था।
कहानी में हीराबाई ‘स्टेज’ पर पहले ‘गुलबदन’ के रूप में है। ‘‘गुलबदन दरबार लगाकर बैठी है। एलान कर रही है। जो आदमी तख़्त हजारा बनाकर ला देगा, मुँहमाँगी चीज इनाम में दी जायेगी…अजी, है कोई ऐसा फनकार, तो हो जाये तैयार, बनाकर लाये तख़्त हजारा-आ!” कहानी के आलोचकों ने इसकी चर्चा जरूरी नहीं समझी। क्यों ‘तख़्त हजारा’ को नहीं देखा– समझा जाना चाहिए ? क्या है यह ‘तख़्त हजारा,’ जिसकी बात कहानी में हीराबाई अपने अभिनय के दौरान करती है ? ‘तख़्त हजारा’ पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के सरगोधा जिला का एक छोटा गाँव है, जिसका नाम ‘खाजियानवाला’ था। इस छोटे गाँव के पूरब दो किलोमीटर की दूरी पर चनाब नदी बहती है। यह ‘राँझा’ का जन्म–स्थान है। मुगल शासक ने यह स्थान देखकर इसे बहुत पसन्द किया। उनकी यहाँ ठहरने की इच्छा हुई और यहाँ उनका सिंहासन स्थापित हुआ। लगभग 80 किलोमीटर के वृत्त में इसके सात दरवाजे बनाये गये, जिनमें दो प्रसिद्ध दरवाजे या ‘गेट’ ‘तख़्त हजारा’ और ‘तख़्त महल’ थे। ‘तख़्त हजारा’ में हीर–राँझा का मकबरा भी है। एक पात्र–विशेष के रूप में हिन्दी–उर्दू में ‘गुलफाम’, ‘इन्दर-सभा’ के पहले कहीं दिखाई नहीं देता और ‘हीराबाई’ ? कैथरीन ब्राउन ने नवम्बर 2004 में खुदा बख़्श लायब्रेरी, पटना में एक ‘एक्सटेंशन लेक्चर’ दिया था- ‘डिड औरंगजेब बैन म्यूजिक ?’ अपने उस लेक्चर में उन्होंने औरंगजेब (3 नवम्बर 1618–3 मार्च 1707) की बुरहानपुर में रहने वाली मौसी का जिक्र किया है, जहाँ एक गायिका और नर्तकी हीराबाई जैनावरदी को देखकर उनका दिल आ गया था। 1653 में पहली बार हीराबाई के औरंगजेब से मिलने का उल्लेख है। हीराबाई का जन्म बुरहानपुर के जैनाबाद में हुआ था। बुरहानपुर में हीराबाई या जैनावादी महल भी है। इतिहास में इसके पहले हीराबाई नाम की किसी गायिका और नर्तकी का उल्लेख फिलहाल ज्ञात नहीं है।
‘तीसरी कसम’ की पहली पंक्ति के बाद कहानीकार ने लगभग दो पृष्ठों तक फ्लैशबैक तकनीक में हिरामन और उसकी बैलगाड़ी से जुड़ी विगत घटना–स्मृतियों को प्रस्तुत कर पूर्व की दो कसमों के कारण–चर्चा की है। कथा–साहित्य में यह शैली प्रमुख रही है। जिसका हिन्दी कहानी में पहला सशक्त उदाहरण ‘उसने कहा था’ कहानी है। फिल्म एवं कथा–साहित्य की यह महत्त्वपूर्ण तकनीक है। फ्रेंच फिल्म निर्माता, निर्देशक, अभिनेता और पटकथा लेखक फ”र्दिनान्द जेक्का (19–2–1864-23–3–1947) ने 5 मिनट की फ्रेंच मूक फिल्म ‘द हिस्ट्री ऑफ क्राइम’ में इस तकनीक का उपयोग किया था। ‘रामायण’, ‘महाभारत’ और ‘ओडिसी’ के अतिरिक्त ‘अरेबियन नाइट्स’ में भी इस तकनीक या शैली विशेष की बात की गयी है। ‘तीसरी कसम’ कहानी के आरम्भ में दो कसम–सन्दर्भों का जिक्र है। बड़ी बात यह है कि हिरामन स्वयं अपने ऊपर ‘प्रतिबन्ध’ लगाता है। जब ‘समाज’ और ‘राज्य’ लोगों पर प्रतिबन्ध लगा रहे हैं, एक लम्बे समय से, उस समय एक गाड़ीवान द्वारा अपने पर ‘प्रतिबन्ध’ लगाना उसके स्व–विवेक का बड़ा उदाहरण है। रेणु के यहाँ संकेत बिखरे पड़े हैं, जिन पर अक्सर पाठकों का ही नहीं, आलोचकों का भी कम, बहुत कम ध्यान गया है। कहानी के आरम्भ में भारत–नेपाल की सीमा पर ‘कण्ट्रोल के ज“माने में चोरबाज“ारी का माल इस पार से उस पार पहुँचाने’ का जिक्र है। कण्ट्रोल के ज“माने को हिरामन कभी भूल नहीं पाता। उसके इस ‘कौशल’ के कारण ही ‘‘फारबिसगंज का हर चोर–व्यापारी उसको पक्का गाड़ीवान मानता’’। कहानी के दो बैल भी कहानी के प्रमुख पात्र हैं। हिरामन का अपने बैलों के साथ आत्मीय रिश्ता है, जो उससे बोली गयी उसकी भाषा में कई स्थानों पर दिखता है। उसके बैल प्रेमचन्द की ‘दो बैलों की कथा’ के बैलों से भिन्न है। विश्वनाथ त्रिपाठी ठीक कहते हैं कि ‘‘हिरामन के बैल कमासुत और यशस्वी हैं––– बैल मानो हिरामन के की व्यक्तित्व के रूप हैं–––वे हिरामन के किसानी जीवन के सहचर और प्रतीक हैं। इसलिए उसके सर्वाधिक आत्मीय हैं–––बैलों से हिरामन का प्रेम ‘साहचर्य–सम्भूत’ है–––उसके सरल, निश्छल ग्रामीण मन के प्रतीक हैं।’’ हिरामन को अपने से अधिक अपने बैलों की चिन्ता है। ‘‘हिरामन को जेल का डर नहीं। लेकिन उसके बैल ? न जाने कितने दिनों तक बिना चारा–पानी के सरकारी फाटक में पड़े रहेंगे-भूखे–प्यासे। फिर नीलाम हो जायेंगे।’’ बैलों का भूखा–प्यासा रहना और उसकी ‘नीलामी’ हिरामन नहीं देख सकता। कहानी के आरम्भ में हिरामन ने ‘‘दोनों के कानों के पास गुदगुदी लगा दी’’ और ‘‘रात–भर भागते रहे थे, तीनों जन।’’
कहानी में शब्द–विशेष के प्रयोग पर हमारा अधिक ध्यान नहीं जाता। ‘तीसरी कसम’ में ऐसे कुछ शब्द हैं, जिन पर हमें रुकना चाहिए। ‘गुदगुदी’ लगायी जाने पर ही लगती है। ‘गुदगुदाना’ एक क्रिया है। अक्सर काँखों में और कभी–कभार पेट के कुछ हिस्सों मेंे भी गुदगुदी लगायी जाती है। बिना क्रिया–व्यापार के हिरामन की पीठ में गुदगुदी लगती है। वह गाड़ीवान है और बैलगाड़ी के भीतर हीराबाई है। उसके और हीराबाई के बीच गाड़ी में परदे की एक ओट है। फिर पीठ में गुदगुदी कैसे ? यह व्यवहार में नहीं, अनुमान में है। कल्पना और स्वप्न में है।
कहानी के आरम्भ में ही नहीं, बाद में भी यह ‘गुदगुदी’ है। ‘‘बाघगाड़ी की गाड़ीवानी की है हिरामन ने। कभी ऐसी गुदगुदी नहीं लगी पीठ में’’ गुदगुदी का यह सौन्दर्य उस खिलखिलाहट से एकदम भिन्न है, जो किसी के द्वारा लगाये जाने पर लगती है। गुदगुदी का सम्बन्ध स्पर्श से है, पर कहानी में स्पर्श नहीं है। एक स्पर्शहीन, काल्पनिक और रोमैंटिक अनुभव। रेणु के यहाँ ‘महसूस’ करने और किये जाने का अपना एक अलग अर्थ है। कहानी में जिस शब्द–विशेष का सर्वाधिक प्रयोग हुआ है, वह शब्द ‘इस्स’ है। कहानियों में बीज“ शब्दोें (की–वर्ड्स) की खोज और उन पर विचार हिन्दी में नहीं के बराबर है। सम्भवत% विजयमोहन सिंह अकेले हिन्दी कथालोचक हैं, जिन्होंने प्रसाद की कहानियों पर लिखते हुए ‘बीज शब्दों’ की बात की है। ‘‘प्रसाद उन कहानीकारों में हैं, जिनकी कहानियों से यदि ‘बीज शब्द’ एकत्र किये जायें, तो उनके माध्यम से ही उनके अन्तस्तता में प्रवेश किया जा सकता है। उनके द्वारा प्रयुक्त ‘छाया’ शब्द से समझा जा सकता है। उनके बीज शब्दों की अनेकार्थी ‘छायाएँ’ उनकी प्रत्येक कहानी पर पड़ती रहती हैं। ‘तीसरी कसम’ में ‘इस्स’ 16 बार प्रयुक्त हुआ है। 15 बार हिरामन द्वारा और केवल एक बार केवल एक पात्र धुन्नी राम द्वारा-‘‘इस्स! तुम भी ख़्ाूब हो हिरामन। उस साल कम्पनी का बाघ, इस बार कम्पनी की जनानी।’’ ‘इस्स’ शब्द कोश में नहीं है। यह हिरामन के भाव–कोश का अपना शब्द है। संयुक्त शब्द, सामान्यत% अर्थहीन, पर पूर्णत% ध्वनि–युक्त। ध्वनि संगीत का गुण है और रेणु संगीतधर्मी कथाकार हैं। ‘इस्स’ भाव युक्त, अप्रचलित, सहज प्रकट और अन्तर्मन से उत्पन्न यह विशिष्ट शब्द है-विविध भावयुक्त शब्द, जिसमें एक साथ लज्जा, आश्चर्य और प्रसन्नता का सुमेल है। कहानी में वर्णित और कथित से कहीं अधिक महत्त्व अकथित का है।
‘इस्स’ में एक साथ भाव–सौन्दर्य और ध्वनि–सौन्दर्य है। वह आन्तरिक–आत्मीय लययुक्त शब्द है। हिरामन द्वारा कहानी में अनेक स्थलों पर 15 बाद उच्चरित इस शब्द से उसके उस भाव–संसार में प्रवेश कर यह जाना जा सकता है कि विशिष्ट भाव–दशाओं में उच्चरित शब्द के कोशगत अर्थ नहीं होते। इसे रेणु के शब्द–मोह के रूप में भी समझा जा सकता है क्योंकि यह कहानी में 16 बार प्रयुक्त है। कहा जाता है कि ‘तीसरी कसम’ फि”ल्म की ‘शूटिंग’ के समय राजकपूर इतनी बार ‘इस्स’ बोलने लगे थे कि उनकी पत्नी परेशान हो गयी थीं। रेणु को कथा–संगीत उनके शब्द–संगीत, विशेषत: ध्वनि–संगीत से जुड़ा है। ‘इस्स’ में ‘स’ संयुक्त रूप में है। हिरामन के अवचेतन में क्या हीराबाई से जुड़ने, संयुक्त होने की एक सहज, सरल, प्रेममयी इच्छा से इसका कोई सम्बन्ध–भाव स्थापित नहीं किया जा सकता ? हीराबाई से बतियाने और उसे देखने के बाद हिरामन का भाव–प्रदेश भिन्न और विशिष्ट हो जाता है, बन जाता है। हीराबाई द्वारा उसका नाम पूछने और जानने के बाद हीराबाई उसे ‘मीता’ कहती है-‘‘तब तो मीता कहूँगी, भैया नहीं-मेरा नाम भी हीरा है।’’ यह सुनने के बाद ही ‘हिरामन’ ने कहा ‘इस्स’! कहानी के अन्त में हीराबाई ट्रेन में सवार होने के पहले हिरामन के ‘दाहिने कन्धे पर’ हाथ रखकर उसे ‘एक गरम चादर खरीदने’ के लिए रुपये देती है। हिरामन की बोली फूटती है-‘‘इस्स! हरदम रुपैया–पैसा। रखिये रुपैया। –––क्या करेंगे चादर ?’’ और इसके बाद एक बार और ‘इस्स’, ‘जब हीराबाई ठीक सामने वाली कोठरी में चढ़ी। ‘‘इस्स! इतना टान! गाड़ी में बैठकर भी हिरामन को देख रही है, टुकुर–टुकुर ?’’ ‘इस्स’ का सौन्दर्य उसकी अर्थविहीनता में है, हिरामन के मन, मर्म और उसके भाव–संसार में है यह हिरामन के अपने भावकोश का अपना शब्द है, जो दूसरों के यहाँ नहीं है। हीराबाई एक बार भी ‘इस्स’ नहीं बोलती।
‘तीसरी कसम’ कहानी द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1956–61) के पहले वर्ष में लिखी गयी थी। कहानी में ‘महाजन’, ‘सौदागर’, ‘व्यापारी’ और ‘कम्पनी’ का जिक्र है। पहली योजना में जहाँ ‘कृषि’ पर ध्यान था वहाँ दूसरी योजना में सार्वजनिक क्षेत्र के विकास और ‘तीव्र औद्योगिकरण’ पर बल था। यहाँ यह आवश्यक है कि प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक एवं सांख्यिकीविद प्रशान्त चन्द्र महालनोविस (29 जून, 1893–28 जून, 1972) का स्मरण किया जाय, जिन्होंने द्वितीय पंचवर्षीय योजना का मसौदा तैयार किया था। उस समय भारत की द्वितीय पंचवर्षीय योजना को विश्व में ‘एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज!’ के रूप में जाना गया था। रेणु का बदलते समय और भारत पर पूरी दृष्टि भी। उनके रचना–संसार में उस समय हो रहे परिवर्तनों के स्वर मौजूद हैं। कहानी के अन्त में हिरामन हीराबाई से ‘हरदम रुपया–पैसा।’ की बात क्यों कहता है ? ‘हरदम’ रुपया को रुपैया’ कहने की अर्थ–ध्वनि में एक प्रकार की हिकारत भी है। रुपया–पैसा जीवन में महत्त्वपूर्ण है, पर ‘हरदम’ नहीं। हीराबाई ने पहले भी खाने के लिए हिरामन को रुपया–पैसा देना चाहा था। हिरामन का जवाब था-‘‘बेकार मेला–बाजार में हुज्जत मत कीजिये। पैसा रखिये। हिरामन को रुपये–पेसे से अधिक मोह नहीं है। वह बदले जमाने के साथ नहीं है। द्वितीय पंचवर्षीय योजना के बाद भारत में कृषि–संस्कृति का ह्रास और औद्योगिक या अर्थ–संस्कृति का ‘विकास’ आरम्भ हो रहा था। हिरामन बदल रहे जमाने के साथ नहीं है। कहानी में वह कई बार ‘जा रे जमाना!’ कहता है। ‘तीसरी कसम’ कहानी में एक युग की विदाई और एक युग का आगमन भी है। कहानी के आरम्भ में ‘महाजन’ का ‘मुनीम’ है। यहाँ हमें ‘महाजन’ को नहीं, ‘मुनीम’ को देखते हैं। कहानी के अन्त में ‘सौदागर’ है। हीराबाई हिरामन से कहती है-‘‘महुआ घटवारिन को सौदागर ने जो खरीद लिया है।’’
‘महाजन’ और ‘सौदागर’ ऐसे मुख्य रूप से ‘महाजन’ रुपये का लेन–देन करने वाला साहूकार है और ‘सौदागर’ तिजारत करने वाला व्यापारी है। भारत में ‘सौदागरी प्रथा’ से पूर्व की है ‘महाजनी प्रथा’ कहानी में ‘महाजन’ नहीं ‘सौदागर’ स्त्री को खरीद रहा है। महुआ घटवारिन की कथा लोककथा है। महुआ घटवारिन को उसकी सौतेली माँ से ‘सौदागर’ ने खरीदा। स्त्रीवादी आलोचकों का इस कहानी पर बोलते–लिखते हुए इस ओर ध्यान नहीं जाता कि यहाँ एक स्त्री ही लड़की को बेच रही है। स्त्री पण्य पदार्थ हो रही है। वह पहले भी थी, आज कहीं अधिक है। महुआ घटवारिन की कथा में सौदागर ने महुआ को ‘बाल पकड़कर घसीटा’ था। ऐसी निर्दयी मानसिकता सदैव नहीं बनी रह सकती थी। समय–परिवर्तन के बाद स्वभाव और व्यवहार में बदलाव आना स्वाभाविक है। महुआ घटवारिन का सौदागर पहले के समय का है, हीराबाई का ‘सौदागर’ या नौटंकी कम्पनी का मालिक आज का है। आज के ‘सौदागर’ का मैनेजर कम्पनी की देखभाल करता है। कहानी में स्पष्ट रूप से महाजन औरउसके मुनीम और सौदागर (नौटंकी कम्पनी का मालिक) और उसके मैनेजर में अन्तर है स्त्रीवादी आलोचकों का ध्यान महुआ घटवारिन के प्रतिरोध पर नहीं जाता। वह ‘महुआ असल घटवारिन की बेटी थी।’’ महुआ में प्रतिरोध है, पर हीराबाई में कहीं प्रतिरोध नहीं है। वह एक नौटंकी कम्पनी छोड़कर दूसरी नौटंकी कम्पनी में जाती है, आज के लड़के–लड़कियाँ भी एक नौकरी छोड़कर दूसरी नौकरी में आर्थिक लाभ के कारण चले जाते हैं।
‘तीसरी कसम’ में तीन ‘कम्पनियों’ का जिक्र है। दो नौटंकी कम्पनी है और एक सर्कस कम्पनी है। सर्कस कम्पनियों और नौटंकी कम्पनियों में अन्तर है। हिरामन अकेला गाड़ीवान है, जो सर्कस कम्पनी की बाघगाड़ी की अपनी बैलगाड़ी में चम्पानगर से, फारबिसगंज मेला ले जाता है।’’ बाघगाड़ी की गाड़ीवानी की है हिरामन ने–––नकद एक सौ रुपये भाड़े के अलावा बुताद, चाह–बिस्कुट और रास्ते–भर बन्दर–भालू और जोकर का तमाशा देखा सो फोकट में।’’ उसने पहली बार सर्कस कम्पनी में काम करने वाली औरत को देखा है। ‘‘सरकस–कम्पनी की मालकिन, अपनी दोनों जवान बेटियों के साथ बाघगाड़ी के पास आती थी, बाघ को चारा–पानी देती थी, प्यार भी करती थी खूब। हिरामन के बैलों को भी डबलरोटी– बिस्कुट खिलाया था बड़ी बेटी ने,’’ सर्कस कम्पनी और नौटंकी की कम्पनी में अन्तर है दोनों कम्पनियाँ मेले में एक समय आया करती थीं। कभी मेले में दोनों कम्पनियाँ होती थीं और कभी एक। थोड़ा इनके इतिहास को भी देखें। भारत में पहली सर्कस कम्पनी ‘द ग्रेट इंडियन सर्कस’ महाराष्ट्र के कुर्दवंडी रियासत के राजा ने बनायी थी। उनकी रियासत के विष्णुपन्त छत्रे घोड़े पर करतब दिखाकर राजा को प्रसन्न करते थे। सर्कस कम्पनी 1880 के पहले तक भारत में नहीं थी। कम्पनी–निर्माण का श्रेय विष्णुपन्त छत्रे को जाता है।
पहली बार 20 मार्च, 1880 को यहाँ सर्कस देखा गया। सर्कस कम्पनी और नौटंकी में अन्तर है। नौटंकी में एक अभिनेत्री, गायिका और नर्तकी प्रमुख होती हैं। सर्कस में ऐसा कुछ नहीं होता। वहाँ हैरतअंगेज करतब दिखाये जाते हैं, जो नौटंकी में नहीं होते। सर्कस में कोई ‘बाई’ नहीं होती। ‘हीराबाई’ के नाम में ही बाई है। भारत में सर्कस कम्पनी की तुलना में स्वाँग–नौटंकी का इतिहास पुराना है। अबुल–फजल (1556–1602) कृत ‘आइने–अकबरी’ में लोक प्रदर्शन, परम्परा, रूप का वर्णन है। मथुरा और वृन्दावन की भगत–रासलीला और राजस्थान के ‘खयाल’ में इसके पूर्व रूप देखे गये हैं। स्त्री के नाच–गाने के कारण गाँव में भी नौटंकी को बहुत कम अच्छी निगाह से देखा जाता था। हिरामन ‘छोकरा–नाच’ (लौंडा नाच) देखता था। ‘‘हिरामन ने छोकरा–नाच के चलते अपनी भाभी की न जाने कितनी बोली–ठोली सुनी थी। भाई ने घर से निकल जाने को कहा था। ‘‘नौटंकी कम्पनी की औरत को सब एक निगाह से नहीं देखते थे। हिरामन सुनकर ही सही, पूरब और पश्चिम की औरत का अन्तर समझता है। स्थान और भूगोल का रेणु के यहाँ महत्त्व है। हिरामन पूर्वी क्षेत्र का है और हीराबाई ‘पच्छिम की औरत’ है, ‘‘तिस पर कम्पनी की’’ पलट दास ने ‘‘सीता महारानी के चरण टीपन की इच्छा प्रकट की’’ तो हीराबाई तमक कर बैठ जाती है-पलट दास को लगा गुस्सायी हुई कम्पनी की औरत की आँखों से चिनगारी निकल रही है-छटक–छटक’’ एक ओर नौटंकी कम्पनी की औरत को ‘पतुरिया’ और ‘रंडी’ कहने वाले लोग हैं और दूसरी ओर उसे ‘सिया–सुकुमारी’ समझने वाले भी। कम्पनी एक, औरत एक, पर उसके सम्बन्ध में पुरुष–दृष्टि अलग–अलग है यह बहुत हुई उसी तरह है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के स्वागत में ‘रेड कार्पेट’ बिछाने वाल शासक–वर्ग है, तो दूसरी ओर इसके आगमन के बाद भारत के गुलामी के एक दूसरे दौर में प्रवेश की चिन्ता करने वाले कई लोग भी हैं। कम्पनी एक है, एक समान है, पर उसे देखने वाले एक तरह के नहीं हैं।
रेणु की स्त्री–सम्बन्धी दृष्टि को हम देख सकते हैं। ‘तीसरी कसम’ में अगर एक ओर ‘पैसे–पैसे का हिसाब जोड़ने वाला’ पलटदास है तो दूसरी ओर पैसे को सब कुछ न समझने वाला हिरामन भी। यह नोट करना चाहिए कि कहानी में धुन्नीराम और लहसनवाँ ने पलटदास को ‘छोटा आदमी’ और ‘कमीना आदमी’ कहा है। उसे ‘कमीना’ कहना पूरी पूँजीवादी व्यवस्था को दी गयी गाली है। हमेशा रुपये–पैसे में जीने वालों को भारतीय समाज में कभी ‘बड़ा आदमी’ नहीं माना गया। रेणु एक संस्कृति की विदाई और दूसरी संस्कृति के आगमन को भी देख रहे थे। हिरामन विदा होती संस्कृति का पात्र है, और हीराबाई आती हुई संस्कृति के साथ है। कहानीकार में बदलते जमाने के प्रति किसी प्रकार का आकर्षण नहीं है। कहानी में ‘बक्सा ढोने वाला आदमी कोट–पतलून पहनकर साहब बन गया है।’’ जहाँ आर्थिक लाभ हो, वहाँ सब जा रहे हैं-संस्कृति बदल रही है। व्यवहार में बदलाव का आना स्वाभाविक है। हीराबाई मथुरा कम्पनी छोड़कर रौता कम्पनी में फारबिसगंज के मेले में बैलगाड़ी से आयी है। वह अब ट्रेन में बैठकर पुन% अपनी पुरानी मथुरा कम्पनी में लौट रही है। कहानी में एक कम्पनी छोड़कर दूसरी कम्पनी में और फिर पूर्व कम्पनी में हीराबाई के जाने का कारण अज्ञात है। पाठक अनुमान कर सकता है। कहानी सब कुछ स्वयं नहीं कहती। वह पाठकीय–चेतना और मानस को भी सक्रिय करती है। हीराबाई ने हिरामन से यह कहा-‘‘मैं फिर लौटकर जा रही हूँ मथुरा मोहन की कम्पनी में। अपने देश की कम्पनी है।’’ यहाँ ‘देश’ का अर्थ ‘कण्ट्री नहीं ‘स्थान’ है, रेणु के यहाँ यह ‘स्थान’ और ‘स्थानीयता’ प्रमुख है। कहानी में अन्य कई स्थलोंे पर ‘देश’, ‘मुलुक’ का जिक्र है-‘‘इसी मुलुक को भी महुआ’ और सर्कस कम्पनी में जोकर के बन्दर की तरह दाँत किटकिटाकर किकियाने’ के बारे में हिरामन का अपने बैलों से यह बातचीत ‘‘न जाने किस–किस देश–मुलुक के आदमी आते हैं।’’
गाँव की औरत भी नौटंकी को अच्छा नहीं मानती। सिनेमा के पहले उत्तर भारत में नौटंकी सर्वाधिक लोकप्रिय कला माध्यम थी। थोड़ा इस कला–माध्यम पर विचार किया जाय। कहानी को समझने के लिए यह आवश्यक नहीं है, पर अब जब मेले पहले की तरह नहीं लगते और न नौटंकी कम्पनियाँ ही पहले की तरह हैं, इस कला–माध्यम के गौरवशाली इतिहास पर एक दृष्टि डालनी चाहिए। हीराबाई कानपुर की है और नौटंकी के प्रमुख केन्द्र कानपुर, लखनऊ और हाथरस रहे हैं। कानपुर नौटंकी शाखा के संस्थापक श्री कृष्ण खत्री पहलवान थे, जिनका जन्म 1891 में उन्नाव में हुआ था। 16 वर्ष की उम्र में उन्होंने पहली नौटंकी आर्य समाजी नेता हकीकत राय पर लिखी थी। इसी वर्ष उन्होंने श्रीकृष्ण संगीत कम्पनी की स्थापना की। 250 से अधिक नौटंकी नाटक लिखे। एक समय पूर्णिया के विविध हिस्सों में काफी मेले लगते थे और उन मेलों में नौटंकी की कई कम्पनियाँ आती थीं। रेणु ने अवश्य कई नौटंकी देखी होगी और निश्चित रूप से वहाँ के मेलों में अपनी कम्पनी के साथ गुलाब बाई आती रही होगी। गुलाब बाई (1926–1996) ने कानपुर घराना के उस्ताद त्रिमोहन लाल से गायन सीखा था और 13 वर्ष की उम्र में उनके नौटंकी ग्रुप में शामिल हुई थीं। बाद में उन्होंने त्रिमोहन लाल की इच्छा के विरुद्ध अपनी कम्पनी ‘ग्रेट गुलाब थिएटर कम्पनी’ की स्थापना की। वे नौटंकी की ‘क्वीन’ मानी गयीं। दीप्ति प्रिया मेहरोत्रा ने उन पर किताब लिखी-‘गुलाब बाई’ द क्वीन ऑफ नौटंकी थिएटर’ (2006) रेणु ने, अनुमान ही है कि गुलाब बाई की नौटंकी अवश्य देखी होगी। अगर न देखी हो, तो उनकी शोहरत से अवश्य वाकिफ” रहे होंगे। हीराबाई पात्र की रचना मेें, सम्भव है, उनके सामने गुलाब बाई रही हों, पर कहानी में यह सब गौण है।
‘तीसरी कसम’ कहानी के दो हिस्से हैं। पहला हिस्सा बैलगाड़ी से हीराबाई के फारबिसगंज मेले में आने तक का है और दूसरा हिस्सा उसके बाद का है। कहानी मेले में हीराबाई के पहुँचने तक जो है, वह उसके मेले में पहुँचने के बाद नहीं है। पूर्ण भाग में वास्तव संसार के साथ हिरामन का अपना भाव–संसार है जो प्रमुख है आरम्भ का एकान्त बाद में नहीं है। इस आरम्भिक हिस्से के स्वप्न–संसार में ही चम्पा फूल की सुगन्ध है। हीराबाई के बैलगाड़ी में बैठते ही हिरामन की पीठ में गुदगुदी लगती है और ‘रह–रहकर उसकी गाड़ी में चम्पा का फूल महक उठता है। पीठ में गुदगुदी लगने पर वह अँगोछे से पीठ झाड़ लेता है। ‘‘वह सोचता है ‘‘औरत है या चम्पा का फूल। जब से गाड़ी मह–मह कर रही है।’’ यह हिरामन का स्वप्न–लोक है। वस्तु–संसार से अधिक प्रबल भाव–संसार है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने चम्पा के फूल पर कविता लिखी, अज्ञेय को प्रिया की देह चम्पा की कली’ की तरह लगी थी-‘‘तुम्हारी देह मुझको कनक–चम्पे–सी कली है। दूर ही से स्मरण में गन्ध देती है।’’ समकालीन हिन्दी कवि गीत चतुर्वेदी भी। चम्पा के फूल को नहीं भूलते-‘‘एक अविश्वसनीय सुगन्ध मेरे सपने में आती है’’ और ‘‘चम्पा के फूल’’ पर कोई भँवरा क्यों नहीं बैठता है ?’’ चम्पा, जिसे संस्कृत में ‘चम्पक’ ओर अँग्रेजी में ‘प्लूमेरिया’ कहते हैं, पर कविताएँ कम नहीं हैं, ‘हाइकू’ तक लिखी गयी है, पर कहानी में रेणु ने ही ‘तीसरी कसम’ में चम्पा के फूल की सुगन्ध फैलायी। बैलगाड़ी चल रही है और हिरामन को लगता है कि उसमें बैठी औरत औरत नहीं, ‘चम्पा का फूल’ है। पाठक को यह नहीं पता कि चम्पा निकारागोवा और लाओस का राष्ट्रीय फूल है या दक्षिण और पूर्व एशिया का फूल है, यह केवल चम्पा फूल की सुगन्ध को हीराबाई से जोड़ेगा या हिरामन के प्राणेन्द्रिय से। जो है, वह हिरामन के स्वप्न–लोक में है। हिरामन विधुर है। उसे किसी युवती का स्पर्श–सुख भी प्राप्त नहीं है। चालीस वर्ष के इस गाड़ीवान का मन सरल, निष्कपट और निश्छल है। हीराबाई का गाड़ी में होना यथार्थ है और पीठ से गुदगुदी लगाना या चम्पा के फूल की सुगन्ध स्वप्न है। यह एक प्रकार का यथार्थ–स्वप्न है। रेणु के कथा–संसार में ये पात्र अप्रतिम हैं, अविस्मरणीय हैं। हीराबाई और हिरामन के नामों में समानता है जिससे हीराबाई ने हिरामन को ‘मीता’ कहा। ‘मीता’ के पहले उसने उसे भैया कहा था-‘‘भैया तुम्हारा नाम क्या है ?’’ यह सुनकर कि उसका नाम ‘हिरामन’ है, हीराबाई ने कहा-‘‘तब तो मीता कहूँगी, भैया नहीं-मेरा नाम भी हीरा है’’ कविता में पन्त ने कहा था-‘‘बालिका मेरी मनोरम मित्र थी’’, यहाँ स्त्री पुरुष को ‘मीता’ कह रही है। जहाँ तक नामकरण का प्रश्न है, रेणु ने बहुत सोचकर ये नाम रखे हैं। ‘हिरामन’ का एक अर्थ हीरा जैसा मूल्यवान ‘मन’ भी है। जो अब बिला रहा है। रेणु किन्दी कहानी के ‘मिरदेत्रिया’ ही नहीं ‘हिरामन’ भी हैं। आधुनिकता में आधुनिक सभ्यता के विकास में इस सरल, निष्कपट ‘मन’ का कोई महत्त्व नहीं है।
कहानी में कहीं भी न तो चम्पा का वृक्ष है, न चम्पा पुष्प। पहले गाँवों में चम्पा का वृक्ष होना सामान्य बात थी। वहाँ कई प्रकार के सुगन्धित पुष्प–पेड़ होते थे, जिससे पूरा वातावरण मह–मह करता था। वह हिरामन की स्मृति में है। चम्पा की गन्ध मादक है। कोरेन मेट्ज ने ‘द स्वीट स्मेल ऑफ प्लूमेरिया’ पर लिखा है। इस पुष्प का महत्त्व भारतीय परम्परा में है। यह विष्णु और भगवती का प्रिय पुष्प है। कहानी में चम्पा के फूल की ‘महक’ के पहले ‘देवी मैया’ का जिक्र है और बाद में भी–‘‘हिरामन को लगता है, दो वर्ष से चम्पा नगर के मेले की भगवती मैया उस पर प्रसन्न हैं’’ क्योंकि उसकी ‘कमाई’ अच्छी हो रही है। पिछले साल बाघगाड़ी से हुई थी और इस बार ‘जनानी सवारी’ से। चम्पा फूल आयुर्वेद में मस्तिष्क और हृदय दोनों के लिए गुणकारी और सौन्दर्यवर्धक माना गया है। डॉ. राकेश कुमार प्रजापति ने अपने लेख ‘अद्भुत फूल चम्पा’ में इस पुष्प पर विस्तार से विचार किया है। यह पारिजात, चमेली, रात रानी, मोगरा, कमल, गुलाब, रजनीगन्धा आदि सुगन्धित फूलों से भिन्न हैं। चम्पा फूल की मादक गन्ध से हीराबाई के तन की सुगन्ध भी जुड़ी है। लोक– कथा रूढ़ि में गन्ध से बेहोश होने के जिक्र हैं। कामदेव के पाँच पुष्प बाणों-नील कमल, मल्लिका, आम्र पौर और शिरीष कुसुम के साथ चम्पक भी है। इस फूल की उत्कट गन्ध के कारण ही इसके पास भौंरे नहीं जाते हैं-‘‘चम्पा तुझमें तीन गुण-रंग रूप और वास/अवगुण तुझमें एक ही भँवर न आये पास।’’ तितली और मधुमक्खी भी यहाँ नहीं जातीं। यह सुगन्धित पुष्प वासना रहित है। जहाँ तक स्त्री–तन से उत्पन्न गन्ध का प्रश्न है, उसे न्यूरोसाइंटिस्ट ने ‘एण्डोस्टेडिएनोने’ कहा है। स्त्री–देह की सुगन्ध पर ‘न्यूरो साइन्स’ में विचार किया गया है। गन्ध संवेद स्तनधारी प्राणियों में सर्वाधिक प्राचीन है, जो हमारे मस्तिष्क को गहरे रूप से प्रभावित करता है। हिन्दी आलोचना में अब तक स्त्री और स्त्री–गन्ध पर विचार के क्रम में स्त्री शरीर–शास्त्र की दृष्टि से कम विचार हुआ है। हार्मोन्स (ग्रंथि रस या अन्तस्राव) और पुनरुत्पादक हार्मोन्स (रिप्रोडक्टिव हार्मोन्स) पर ध्यान देकर ही स्त्री–शरीर से एक वय–विशेष और बाद में भी उत्पन्न गन्ध पर विचार किया जा सकता है। सामुद्रिक शास्त्र में चित्रिणी, पद्मिनी, हस्तिनी और शंखिनी स्त्रियों में पद्मिनी स्त्री अपनी शारीरिक गन्ध के कारण दुर्लभ है। सामुद्रिक शास्त्र में कमल पुष्प गन्धिनी स्त्रियाँ जितनी महत्त्वपूर्ण हों, ‘तीसरी कसम’ में तो चम्पा का फूल ही सब कुछ है। कहानी में चम्पा के फूल की गन्ध का नहीं, उसके खिलने, का उल्लेख है। गन्ध तो वहाँ उस फूल की है, जो ‘दो कोस दूर तक’ जाती है और जिसे ‘खमीरा तम्बाकू में डाल कर पीते भी हैं लोग’। हिरामन ने हीराबाई को यह जानकारी ‘परदे को जरा सरकाते हुए’ ‘तेगछिया’ दिखाकर दी है-‘‘आपके कुरते पर जैसा फूल छपा हुआ है, वैसा ही; खूब महकता है; दो कोस दूर तक गन्ध जाती है।’’ कहानी में कई प्रकार की गन्ध है, पर चम्पा की गन्ध कुछ और है। हीराबाई हिरामन के लिए ‘औरत’ कम, ‘चम्पा का फूल’ अधिक है। यहाँ ‘स्वप्न’ ‘यथार्थ’ से बड़ा ही नहीं, प्रभावशाली भी है।
सुरेन्द्र चैधरी ने हिरामन के ‘इन्द्रिय बोध’ को ‘उसके विश्वबोध का भी हिस्सा’ कहा है, जो ‘‘किताबी नहीं है, वह तीसरी दुनिया के तमाम–तमाम निरक्षरों में एक है। मगर आखर तो ध्वनि में भी है, गन्ध और स्पर्श में भी है। मन की भाषा तो इन सब में साथ–साथ प्रकट होती है। यह पूरी यात्रा एक गन्ध–स्वर–स्पर्श–सन्धान ही तो है।’’ यह सब हीराबाई द्वारा हिरामन को ‘मीता’ कहने के बाद ही घटित होता है। रेणु की कहानियों को उसके ‘गन्ध–परिवेश’ के बिना नहीं समझा जा सकता। पहली बार किसी हिन्दी कहानीकार ने अपनी कहानियों में एक गन्ध–संसार रच दिया। रेणु की लोकप्रियता का यह एक बड़ा कारण है। हम अपने दुर्गन्धित समय से निकलकर इस गन्ध–लोक में प्रवेश करते हैं और नये गन्ध–संसार से परिचित होते हैं।
रेणु का इन्द्रिय–बोध अन्य किसी कहानीकार में नहीं हैं। यह इन्द्रिय–बोध स्थान–बोध और युग–बोध से जुड़ा है। वह सर्व स्वतन्त्र नहीं है। कहानी में सबसे पहले बैलों की घ्राणेन्द्रिय पर कहानीकार का ध्यान है-‘‘दोनों बैल सीना तानकर फिर तराई के घने जंगलों में घुस गये। राह सूँघते, नदी–नाला पार करते हुए भागे पूँछ उठाकर।” कहानी में कई प्रकार की गन्ध है। गाड़ी में चम्पा का फूल महकने के पहले ‘बघाइन गन्ध’ का जिक्र है। “बड़ी गद्दी के बड़े सेठ जी की तरह नकबन्धन लगाये बिना बघाइन गन्ध बरदास्त नहीं कर सकता कोई।” एक ओर बघाइन गन्ध और दूसरी ओर चम्पा की गन्ध! फिर बीड़ी की गन्ध भी है। हिरामन हीराबाई से पूछता है-बीड़ी पीयें ? आपको गन्ध तो नहीं लगेगी ?’’ उसकी चिन्ता में केवल हीराबाई है। एक गन्ध उस तकिये से भी निकल रही है, जिस पर सर रखकर हीराबाई लेटी थी। हीराबाई के हाथ–मुँह धोने घाट पर जाने के बाद हिरामन गाड़ी के भीतर उसके तकिये पर झुका ‘‘खुशबू उसकी देह में समा गयी। तकिये के गिलाफ पर कढ़े फूलों को उँगलियों से छूकर उसने सूँघा, हाय रे हाय! इतनी सुगन्ध! हिरामन को लगा, एक साथ पाँच चिलम गाँजा फूँक कर वह उठा है।’’ रेणु के यहाँ केवल पुष्प–सुगन्ध नहीं है, वहाँ मुस्कुराहट की अपनी एक अलग सुगन्ध है। ‘‘उसकी सवारी मुस्कुराती है। मुस्कुराहट में खुशबू है।’’ ‘तीसरी कसम’ कहानी में ‘गुदगुदी’ और ‘खुशबू’ का अपना सौन्दर्य है। स्पर्श की सुगन्ध ‘तीसरी कसम’ में ही है। ‘‘हीराबाई ने हिरामन का कन्धा धर लिया एक हाथ से। बहुत देर तक हिरामन के कन्धे पर उसकी उँगलियाँ पड़ी रहीं,’’ इसके बहुत बाद भी ‘‘हिरामन की देह से अतर–गुलाब की खुशबू निकलती है।’’ पहले चम्पा की खुशबू, बाद में ‘अतर–गुलाब की खुशबू’। हिरामन की देह से ही नहीं, गमछी से भी ‘खुशबू’ निकलती है। लाल मोहर हिरामन को ‘गमछी सूँघ कर बोलता है-‘‘ए–ह!’’ रेणु में गन्ध–मोह कुछ अधिक है। लहसनवाँ ‘‘रह–रहकर वातावरण में कुछ सूँघता है, नाक सिकोड़कर’’ कन्धे का स्पर्श हीराबाई ने क्या किया, हिरामन एक प्रकार से रह–रहकर एक गन्ध–लोक में चला जाता है, लाल मोहर से कहता है- ‘‘जरा मेरे इस कन्धे को सूँघो तो। सूँघकर देखो न!’’ लाल मोहर कन्धा सूँघकर आँखें मूँद लेता है-‘‘ए–ह!’’ हिरामन ने उससे कहा ‘‘जरा–सा हाथ रखने पर इतनी खूशबू!’’ खुशबू हिरामन के मन में है। नाम यहाँ सार्थक है। कहानी के मर्म की पकड़ कठिन है। यह तभी सम्भव है जब हम कहानी के कुछ शब्द, शब्द–युग्म, वाक्य और वाक्यांश पर ठहरे ‘तीसरी कसम’ कहानी में रेणु भाषा को बदल देते हैं। उनके ‘अगद्यात्मक गद्य’ की बात कही गयी है। उनका गद्य कथात्मक नहीं, गीतात्मक है। यह कहानी का ‘भावात्मक स्तर’ है, जिसमें प्रवेश किये बिना कहानी समझी नहीं जा सकती। हिरामन और हीराबाई हमारी स्मृति में रचे–बसे पात्र हैं, पर हिरामन के वे गाड़ीवान साथी, जिनकी कहानी में एक जगह है, अविस्मरणीय भले न हो, पर किसी भी अर्थ में उपेक्षणीय भी नहीं है। नौटंकी कम्पनी में भर्ती हो जाने के बाद लहसूनवाँ हिरामन को बताता है-‘‘हीराबाई की साड़ी धोने के बाद कठौते का पानी अतर गुलाब हो जाता है। लो, सूँघोगे?’’ कहानी के अन्त में हीराबाई ने जाते समय हिरामन के दाहिने कन्धे पर हाथ रखा, पर इस बार कहीं कोई गन्ध, सुगन्ध नहीं है। हिरामन की भाव–दशा पहले की भाव–दशा से भिन्न है। यह हाथ कम्पनी की औरत का हाथ है। वह हाथ हीराबाई का था, स्मृति में चम्पा का फूल है-‘‘आज भी रह–रह कर चम्पा का फूल खिल उठता है गाड़ी में’’।
कहानी में नदी किनारे धन–खेतों से फूले हुए धान के पौधों की पवनिया गन्ध भी है। धान के पौधों की गन्ध जहाँ जल और हवा से जुड़कर विशिष्ट हो जाती है। ‘‘पर्व पावन के दिन में गाँव में ऐसी ही सुगन्ध फैली रहती है’’ कहानी का परिवेश गन्धमय है। सुरेन्द्र चैधरी ने रेणु की कहानियों के गन्ध–परिवेश (1987) पर लिखते हुए इस ‘प्रश्न’ को ‘उल्लंग खड़ा’ देखा था-‘‘नि:स्पृह यथार्थ से यह गन्ध–परिवेश कैसे पैदा होता है?’’ हिन्दी और भारतीय कथा–साहित्य में ही नहीं, सम्भवत: पश्चिमी, यूरोपीय कथा–साहित्य में भी ऐसी ऐन्द्रियता कहाँ है? कहाँ है ‘रूप–रस–गन्ध–स्पर्श नादमय’ ऐसी कहानियाँ? ‘तीसरी कसम’ का एक अध्ययन ज्ञानेन्द्रियों के आधार पर भी किया जा सकता है। रेणु जैसी इन्द्रिय ग्राह्यता और किसी में नहीं है। वे ‘इन्द्रियार्थवादी’ हैं। ‘इन्द्रियार्थवाद’ (सेंसैसनैलिज्म) पर चर्चाएँ कम हैं। किसी कहानी में सुगन्ध की शक्तिशाली उपस्थिति और उसका वर्णन कठिन है। रेणु असम्भव को सम्भव करते हैं, कठिन को सुगम। उनकी कहानियों से सुगन्ध से जुड़े शब्द तलाशे जा सकते हैं। जहाँ तक स्पर्श से उत्पन्न सुगन्ध का प्रश्न है, यह त्वरित होता है। स्पर्शानुभव को रेणु शब्द प्रदान करते हैं। उनके यहाँ यह त्वचीय अनुभूति भी है। सुगन्ध का सम्बन्ध ‘स्मृति’ और ‘नास्टेलजिया’ से है। फ्रैंच उपन्यासकार मार्सल ग्रस्त (10–7–1871-18–11–1922) सुगन्ध को स्थिर, निश्चल नहीं मानकर उसकी पहचान करते हैं। उनके अनुसार यह हमारे चारों ओर फैलता है, बढ़ता है और हमारे साथ इसकी अन्योन्यक्रिया होती है। यह तरल ‘सेंस’ है जिसे बाँधना कठिन है। रेणु का वर्णन कहीं भी सपाट नहीं है। उनके यहाँ ‘एक आदिम रात्रि की महक’ भी है। गन्ध और ध्वनि की अधिक प्रमुखता है। उनका सौन्दर्य–बोध पूँजीवादी सौन्दर्य–बोध से एकदम भिन्न है। ग्रामीण सौन्दर्य–बोध के साथ रचनाकार का अपना सौन्दर्य–बोध पूँजीवादी सौन्दर्य–बोध से एकदम भिन्न है। ग्रामीण सौन्दर्य–बोध के साथ रचनाकार का अपना सौन्दर्य–बोध जुड़कर एक नवीन सौन्दर्य–बोध उत्पन्न करता है। उनका इन्द्रिय–बोध स्थान–बोध और समय–बोध से जुड़ा है। वहाँ कुछ भी खण्डित नहीं है। जो है, वह संश्लिष्ट है। ‘तीसरी कसम’ का दृश्य–संसार उनका गन्ध–ध्वनि संसार है, जिसमें रूप, स्पर्श सब आपस में घुल–मिल जाते हैं। नतीजा एक संगीत का बजना। ‘ठुमरी’ संग्रह (1959) की भूमिका ‘स्वरलिपि’ है। जिसमें रेणु ने अपनी कहानियों को ‘ठुमरी धर्मा’ कहा है और ‘सभी कथाओं का अन्तर्मार्ग’ एक माना है। वे अपने को ‘ठुमरी का कथा गायक’ कहते हैं। ‘तीसरी कसम’ कहानी रेणु के इसी पहले संग्रह में है।
‘तीसरी कसम अर्थात मारे गये गुलफाम’ के पहले रेणु ने 16 कहानियाँ लिखीं और बाद में 46, पर उनकी 63 कहानियों में यह निर्विवाद रूप से सर्वोत्तम है, श्रेष्ठ है। ‘रसप्रिया’ का स्थान इसके बाद ही आएगा। यह कहानी आंचलिक ‘कहानी नहीं है। कहानी के प्रमुख पात्र-हिरामन और हीराबाई अविस्मरणीय पात्र हैं किन्तु इन दो पात्रों के अतिरिक्त हिरामन के गाँव के चार अन्य गाड़ीवान-‘लालमोहर, धुन्नीराम और पलटदास वगैरह’ भी हैं। ये सभी पात्र एक–दूसरे से हिले–मिले हैं। पलटदास ‘दास–बैस्नव है, कीर्तनिया’ है, पर ‘‘पैसे–पैसे का हिसाब जोड़ता है।’’ अन्य गाड़ीवानों के लिए हिरामन की बैलगाड़ी में एक औरत का होना आश्चर्यजनक है। सभी अपनी–अपनी बैलगाड़ियों में अब तक सामान और माल–असबाब ढोते रहे हैं। बैलगाड़ी में एक ‘जनाना’ का होना नयी बात है। लाल मोहर ‘टप्पर के करीब’ आकर हीराबाई को ‘सलाम’ करते हुए कहता है-‘‘चार आदमी के भात में दो आदमी खुशी से खा सकते हैं। बासा पर भात चढ़ा हुआ है, हें–हें–हें! हम लोग एकहि गाँव के हैं। गौवाँ–गरामिन के रहते होटिल और हलवाई के यहाँ खाएगा हिरामन? ‘‘इस ‘गरामिन’ अपनापे से हीराबाई अपरिचित है। कहानी में इस पर ध्यान नहीं दिया गया कि हीराबाई कानपुर की रहने वाली है। कानपुर एक औद्योगिक शहर था। हीराबाई उस शहर के प्रभाव से शायद ही वंचित रही हो। रेणु की विशेषता संकेतों में है। ‘कानपुर’ का उल्लेख कहानी में बस एक बार है। ‘तीसरी कसम’ लोक–संस्कृति के क्रमश: लुप्त होते जाने की कहानी है। ‘ठुमरी कहानी–संग्रह उन्होंने अपने अंचल के लोगों को समर्पित किया है, जिन्हें अपने कथा–साहित्य में प्रस्तुत और प्रतिष्ठित करने के लिए उन्होंने ‘लाखों के बोल सहे।’ रेणु ने ‘ठुमरी’ की सभी कहानियों, जिनमें ‘तीसरी कसम’ भी है, का मूल स्वर ‘मानवीयता की तलाश’ माना है। पचास के दशक में, द्वितीय पंचवर्षीय योजना के बाद भारत जिस प्रकार औद्योगिकरण और नगरीकरण की ओर बढ़ने लगा था। स्वाभाविक रूप से उस कारण लोक–जीवन और लोक–संस्कृति अपने वास्तविक रूप में बनी नहीं रह सकती थी। हिरामन अन्य गाड़ीवानों की नजर में इसलिए ‘खास’ है कि उसने पिछले साल ‘बाघ की लदनी’ की थी और ‘इस बार कम्पनी की जनानी!’ कहानी में ‘नौटंकी’ से कहीं अधिक ‘कम्पनी’ का उल्लेख है। ये मात्र दो शब्द नहीं हैं। दो संस्कृतियों के प्रतीक भी हैं। नौटंकी की संस्कृति और ‘कम्पनी’ की संस्कृति में अन्तर है।
आज के भारत में कम्पनियों की जैसी भरमार है और उसके प्रति जिस प्रकार का आकर्षण है, वह अलग से कम्पनी या कम्पनियों की अपनी विकास–कथा है। कहानी में कम्पनी यद्यपि नौटंकी कम्पनी के लिए प्रयुक्त है, पर कम्पनी के प्रति हिरामन में कोई आकर्षण नहीं है। कहानी में ‘स्थान’ का अपना महत्त्व है, स्थान के बदलने से बहुत कुछ बदल जाता है। हिरामन धुन्नीराम को ‘दबी आवाज में’ कहता है ‘‘भाई रे, यह हम लोगों के मुलुक की जनाना नहीं कि लटपट बोली सुनकर भी चुप रह जाए। एक तो पच्छिम की औरत, तिस पर कम्पनी की’ यह सामान्य वाक्य नहीं है। हिरामन वास्तविक संसार से पूर्णत: परिचित है। उसने अनुभव से बहुत कुछ जाना–सीखा है। ‘तीसरी कसम’ केवल प्रेम–कथा नहीं है। जो पाठक–आलोचक इसे किसी एक खाँचे या कैटेगरी में रखकर देखना चाहेंगे, यह कहानी उनसे छूट जाएगी। स्वयं प्रकाश इस कहानी के सम्बन्ध में सात सवाल करते हैं कि आखिर यह कहानी है क्या?’’ क्या यह एक देहाती गाड़ीवान को आए दिन दरपेश झमेलों की कहानी है? क्या यह एक नौटंकी कम्पनी में नाचने–गाने वाली बाई जी की सहृदयता अथवा व्यावसायिकता की कहानी है? क्या यह एक प्रेम–कथा है? या यह देहाती सामाजिकता की बाजार संस्कृति के साथ मुठभेड़ की कहानी है? या आंचलिक परिदृश्य में व्यापक रूप से परिव्याप्त दमित यौन–पिपासा का वृत्तान्त है? या अकेली कामकाजी नारी द्वारा अस्तित्व-रक्षा के लिए आत्मदान की करुण दास्तान? या एक उजड़ते हुए कला–रूप की शास्त्रीय भव्यता की अन्तिम झाँकी?’’ ‘तीसरी कसम’ उस बहुरंगी माला की तरह है, जिसमें एक साथ कई आकर्षक, सुन्दर, सुगन्धित फूल हों। यह दूसरी बात है कि कहानी में केवल दो फूलों-चम्पा और सूरजमुखी की मौजूदगी है। ‘तीसरी कसम’की विशिष्टता उसकी संश्लिष्टता में है। कहानी में इतनी अधिक बन्द और अधखुली खिड़कियाँ हैं कि उन्हें पूरी तरक खोलना एक निबन्ध में शायद सम्भव नहीं है। कोशिश अवश्य की जानी चाहिए क्योंकि ऐसे अनेक स्थल हैं, जिन पर अभी तक आलोचकों की दृष्टि नहीं गयी है।
कहानी में हीराबाई पहली बार तब बोलती है, जब ‘‘हिरामन ने दाहिने बैल को दुआली से पीटते हुए कहा, ‘साला! क्या समझता है, बोरे की लदनी है क्या?’’ बैलों का अनुभव ‘बोरे की लदनी’ का है, इसी कारण ‘‘कच्ची सड़क के एक छोटे–से खड्ड में गाड़ी का दाहिना पहिया बेमौके हिचकोला खा गया।’’ हिरामन हीराबाई को ‘हिचकोला’ न लगे, इस कारण बैल को पीटता है। हीराबाई बोलती है––‘‘अंहा! मारो मत!’’ जब तक हमें ‘मार’ का अनुभव न हो, हम किसी दूरे को मारे जाने से कैसे रोक सकते हैं? हीराबाई को देखने के पहले हिरामन उसकी बोली सुनता है-बच्चों की बोली जैसी महीन, फेनूगिलासी बोली’’ हिरामन और हीराबाई में, दोनों के स्वभाव–व्यक्तित्व में अन्तर है। हिरामन और हीराबाई का भाव–बोध और जीवन–बोध एक समान नहीं है। यथार्थ–बोध ही नहीं, परिवेश भी भिन्न है। हिरामन का जीवन लोकजीवन है। हीराबाई का जीवन नागर–जीवन है, वह जिस मेले में जाती है, वह मेला गाँव न होकर कस्बा होता है। हिरामन विधुर है और गाड़ीवान है। हीराबाई के बारे में पता नहीं चलता कि वह ब्याही है या अनब्याही? हिरामन में एक नैतिक मर्यादा है, जो उसे ग्रामीण संस्कार से प्राप्त है। वह ‘‘नौटंकी कम्पनी की औरत को बाई जी नहीं समझता है।’’ कहानीकार ने उसे ‘होशियार’ कहा है। कहानी में हिरामन पहले स्वप्न–संसार में है, बाद में यथार्थ–संसार में। हिरामन के ‘झूठ’ का अपना सौन्दर्य है। उसने एक गाड़ीवान को बताया ‘‘उसकी गाड़ी पर ‘विदागी’ (नैहर या ससुराल जाती हुई लड़की) है।’’ जो गाँव कहीं नहीं है, वह उसका नाम बताता है। दूसरे का पूछना कि वह कहाँ जा रहा है, क्या लेकर जा रहा है, उसे अच्छा नहीं लगता, पर स्वयं साइकिलवाले से पूछता है-‘‘कहाँ जाना है? मेला? कहाँ से आना हो रहा है? बिसनपुर से? बस, इतनी ही दूर में भसभसाकर थक गये?….जा रे जवानी!’’
गाँव में राहगीरों से उसके बारे में पूछना गाँवों की लोकतान्त्रिकता है। भारतीय गाँव आज की तुलना में कहीं अधिक लोकतान्त्रिक समाज था। पचास के दशक के मध्य की इस कहानी में क्या हम लोकतान्त्रिक जनमानस को नहीं देख सकते? देहात में पेड़–पौधों से, जीव–जन्तुओं से मनुष्य का जो एक ‘सहजात सम्बन्ध’ होता था, वह कहानी में कई स्थलों पर है। हिरामन गाड़ीवानों से झूठ बोलता है। वह हीराबाई को सबसे छुपाना चाहता है, छुपाता भी है उसके बारे में यह सच न बोलकर कि उसकी गाड़ी में नौटंकी कम्पनी में जाने वाली एक औरत बैठी हुई है। वह यह गीत भी गुनगुनाता है-‘‘सजन रे, झूठ मति बोलो, खुदा के पास जाना है।’’ कहानी में गाँव के कई गीत हैं। छोकरा नाच का गीत ‘‘सजनवा बैरी हो गये हमारो! सजनवा…!’’, गाँव के बच्चों द्वारा गाया गया गीत ‘‘लाली–लाली डोलिया में/लाली रे दुलहनिया/ पान खाये…!’’ “सजन रे झूठ मति बोलो’’, ‘‘हे अ–अ–अ–अ सावना–भादवा के–र–उमड़ल नदिया-गे मैं ––यो–ओ–ओ’’ ‘‘हूँ–ऊँ, ऊँ–रे डाइनिया मैया मोरी–ई–ई’’। तीन गीत हिरामन गाता है, एक गीत गाँव के बच्चे गाते हैं और कहानी के अन्त का गीत नौटंकी का है-‘‘तेरी बाँकी अदा पर मैं खुद हूँ फिदा’’, ‘तीसरी कसम’ के 10 गीतों में से कई गीतों के मुखड़े कहानी से लिये गये हैं, जिसे आधार बनाकर शैलेन्द्र ने गीत–रचना की। कहानी में केवल एक वाद्य-यन्त्र है। ‘नगाड़ा’, जो नौटंकी में बजता है-‘नौटंकी शुरू होने के दो घण्टे पहले ही नगाड़ा बजना शुरू हो जाता है। और नगाड़ा शुरू होते ही लोग पतंगों की तरह टफटने लगते हैं।’’ रेणु के कथा–संसार में संगीत–संसार और ध्वनि–संसार का अपना महत्त्व है। नगाड़े की आवाज ‘‘किर्र–र्र–र्र–र्र–––कडड़ड़ ड़ड़र्र–र्र–घन धड़ाम।’’ सुनकर ‘हर आदमी का दिल नगाड़ा’ हो जाता है। कहानी में नगाड़े की ध्वनि उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितनी वह संगीत ध्वनि है, जो हीराबाई के कारण हिरामन के भीतर बजती रही थी।
‘तीसरी कसम’ एक बदलते समय की कहानी है। यह अपने वृहत्तर अर्थ में एक संस्कृति–कथा है। लोक–संस्कृति के साथ जैसे लोकमन, लोकराग, लोक–जीवन सबकी विदाई हो रही है। रेणु ने पचास के दशक में यह अच्छी तरह पहचान लिया था कि अब लोक पहले की तरह नहीं रहेगा। लोक–संस्कृति की विदाई के साथ यह कहानी का मुख्य भाग है। यहाँ हिरामन और हीराबाई के बीच कोई नहीं है। पहले हीराबाई परदे की ओट में थी, परदे से बाहर आते ही हिरामन की उससे बातचीत बढ़ जाती है। हिरामन–हीराबाई के संवाद में एक क्रमिकता है। हीराबाई का अनुभव पहले के सभी अनुभवों से भिन्न है। ‘‘हीराबाई ने हिरामन के जैसा निश्छल आदमी बहुत कम देखा है।’’ वह जिस संस्कृति से आती है। वहाँ ‘निश्छलता’ कम है। उस समय की यह ‘ग्रामीण निश्छलता’ या हिरामन की निश्छलता ‘आधुनिकता’ पर एक प्रश्न भी है। क्या ‘आधुनिकता’ का मनुष्य की सरलता सहजता और निश्छलता से कोई सम्बन्ध है? नेहरू भारत को ‘आधुनिक’ रूप प्रदान कर रहे थे। हिरामन ने पहले हिराबाई की आवाज सुनी। उसके बाद ‘‘हीराबाई के कान के फूल को गौर से देखा’’ फिर नाक को। ‘‘नाक की नकछवि के नग देखकर सिहर उठा-लहू की बूँद”। फिर हीराबाई के दाँत। “छोटी–छोटी, नन्हीं–नन्हीं कौड़ियों की पाँत’’ कुछ समय बाद हिरामन गाड़ी के परदे को ‘जरा सरकाता’ है। एक साथ दो काम। हीराबाई बाहर का दृश्य देखे और हिरामन रुक–रुककर उसे देखे। परदा सरकाने के बाद ही दोनों में संवाद बढ़ता है। केवल बैलगाड़ी का ही परदा नहीं सरका। दोनों के मन के परदे भी सरके। अब संवाद–भाषा पहले से भिन्न है। संक्षिप्तता कम रही है। ‘हीराबाई की दन्तपंक्ति’ हिरामन देखता है और हीराबाई उससे ‘नाम डगर ड्योढ़ी के जमाने’ के बारे में जानना चाहती है। ‘‘ठुड्डी पर हाथ रखकर साग्रह बोली’’, दुरियाँ मिट रही हैं। हीराबाई पूछती है- ‘‘तुमने देखा था वह जमाना?’’ हिरामन ने कभी हीराबाई को ‘तुम’ नहीं कहा।
इसके पहले हिरामन के सामने एक सवाल उपस्थित हुआ था-‘‘वह क्या कहकर ‘गप’ करे हीराबाई से? ‘तोहें’ कहे या ‘अहाँ?’ उसकी भाषा में बड़ों को ‘अहाँ’ अर्थात् आप कहकर सम्बोधित किया जाता है”। हीराबाई के लिए हिरामन एक साथ कई रूपों में है-‘‘भैया…मीता…हिरामन…उस्ताद…गुरु जी!” और हिरामन के लिए हीराबाई? वह ‘परी’ है, ‘भगवती मैया’ है और और….बच्चों द्वारा ‘तालियाँ बजा–बजाकर’ ‘लाली–लाली डोलिया में’ गीत सुनकर हिरामन को लगा कि कई दिनों का उसका हौसला पूरा हुआ है। क्या है वह हौसला? ‘‘ऐसे कितने सपने देखे हैं उसने! वह अपनी दुलहिन को लेकर लौट रहा है। हर गाँव के बच्चे तालियाँ बजाकर जा रहे हैं। हर आँगन से झाँककर देख रही हैं औरतें। मर्द लोग पूछते हैं ‘कहाँ की गाड़ी है, कहाँ जाएगी? उसकी दुलहिन डोली का परदा थोड़ा सरकाकर देखती है। और भी कितने सपने…’’ सपने कभी पूरे नहीं होते। यहाँ हम स्वाधीन भारत के उस स्वप्न का भी स्मरण कर सकते हैं, जो स्वाधीनता की लड़ाई में लोगों ने देखे थे। ‘तीसरी कसम’ एक साथ ‘स्वप्न–यथार्थ’ की कहानी है। पहले हिरामन का स्वप्न है, फिर वास्तविक यथार्थ कहानी में हिरामन–हीराबाई की कथा आधिकारिक है और महुआ घटवारिन की कथा प्रासंगिक। महुआ घटवारिन का गीत कहानी का प्राण है। यह कथा मूल–कथा से अलग नहीं है। उससे एकरूप हो गयी कथा है। विश्वनाथ त्रिपाठी इसे कहानी में ‘अन्तर्भुक्त’ मानकर इसके कारण ‘कहानी की प्रकृति मध्यकालीन कथा–काव्यों’ अर्थात् ‘रोमांचक आख्यान’ की तरह मानते हैं। इससे केवल ‘पश्चिम से लिया हुआ कहानी का प्रचलित ढाँचा ही नहीं टूटता बल्कि भारतीय कथा–परम्परा का श्रवण–पक्ष आधुनिक कहानी के लिखित रूप के साथ एकाकार हो जाता है। कहानी पहले सुनी–सुनाई ही जाती थी। रेणु की कथा–पद्धति आधुनिक कहानी की प्रचलित और मान्य कथा–पद्धति से भिन्न है। महुआ घटवारिन ‘सौ सतवन्ती’ में एक थी। नारीवादी आलोचकों ने इस कहानी में यह नहीं देखा कि यहाँ एक औरत ही दूसरी औरत (या लड़की) के साथ अत्याचार कर रही है। महुआ की ‘‘सौतेली माँ साक्षात राकसनी थी।’’ कुमारी महुआ से ‘‘काम कराते–कराते उसकी हड्डी निकाल दी थी राकसनी ने’’ हिरामन महुआ का गीत तड़पकर गाता है, उसे लगता है गाड़ी में बैठी हीराबाई ही महुआ है। महुआ ने सौदागर को खरीदा और इस कथा–गीत का हीराबाई पर इतना असर है कि वह जाते समय हिरामन से कहती है-‘‘तुम्हारा जी बहुत छोटा हो गया है। क्यों मीता? महुआ घटवारिन को सौदागर ने खरीद जो लिया है गुरु जी!’’ पहले ‘मीता’, बाद में ‘गुरु जी!’ कहानी में हिरामन को कही गयी हीराबाई की यह अन्तिम पंक्ति है।
विजय मोहन सिंह ने अपने एक लेख में ‘प्रेम’ को कहानी का ‘ओरिजनल सिन’ कहा है। उनके अनुसार ‘‘कहानी की शुरुआत ही ‘ओरिजनल सिन’ से होती है, रचना और प्रेम का चोली–दामन का सम्बन्ध है।’’ और “प्रेम करना बहिष्कृत होना है।’’ मुख्य सवाल यह है कि हमारे सहज–आत्मीय सम्बन्धों के बाधक तत्त्व कौन हैं? प्रेम अपने युगबोध की अभिव्यक्ति भी है और यह युग–बोध सामाजिक मूल्यों द्वारा निर्धारित होता है। समय बदलने से सामाजिक मूल्य बदलते हैं, जिससे हमारे भाव भी पूर्ववत नहीं रह पाते। गाड़ीवान हिरामन और नौटंकी की अभिनेत्री हीराबाई का समाज भिन्न है। ये दोनों दो समाज के हैं। कहानी में कई बार हीराबाई के लिए हिरामन ने ‘कम्पनी की औरत’ कहा है-पहले उसके लाल तलुवे को देखकर वह सोचता है-‘‘कौन कहेगा कि कम्पनी की औरत है…औरत नहीं लड़की…शायद कुमारी ही है।’’ घाट की ओर जाती हुई हीराबाई उसे ‘गाँव की बहू–बेटी की तरह’ लगी थी, जो ‘सिर नीचा करके धीरे–धीरे’ जा रही थी। बाद में यथार्थ–भूमि आने के बाद हिरामन ने हीराबाई को ‘कम्पनी की औरत’ माना–उसे लगता है कि कम्पनी की औरत को सब नहीं जानते। ‘‘कम्पनी की औरत को जानता है वह, सारा दिन घड़ी–घड़ी भर में, याय पीती रहती है। चाय है या जान!’’ यह कथन हीराबाई से है। कहानी में कई बार हिरामन ने ‘कम्पनी की औरत’ कहा है। कहानी में महाजन, सौदागर, कम्पनी सबका अपना अर्थ है। इनमें से किसी के प्रति आदर या सम्मान भाव नहीं है। ‘कहानी के अन्त में ‘परी…देवी…मीता…हीरादेवी…महुआ घटवारिन’ सब एक साथ हिरामन की स्मृति में हैं। उसकी तीसरी कसम का सन्दर्भ पहले की दो कसमों से भिन्न है। तीनों कसमों की परिस्थितियाँ भिन्न हैं। पहली कसम का सन्दर्भ चोरबाजारी के माल से है, पुलिस–दारोगा से है, दूसरी कसम का सन्दर्भ पहले की तरह खतरनाक नहीं है। वह शहर में ले जाने वाली बाँस लदी गाड़ी से है। तीसरी कसम ‘कम्पनी की औरत की लदनी’ से जुड़ी है। पहली बार और अन्तिम बार ‘कम्पनी की ओरत की लदनी’ का प्रयोग है। हीराबाई न तो परी रही, न मीता, न देवी। वह कम्पनी की औरत है। यह यथार्थ है, जहाँ हिरामन का स्वप्न भंग होता है। ‘औरत’ और ‘कम्पनी की औरत’ में अन्तर है। औरत घर में रहती है। कम्पनी की औरत कम्पनी में अपने पेशे से जुड़ी है। फारबिसगंज आने के पहले के भाग में स्वप्न है। फारबिसगंज जब बैलगाड़ी पहुँचती है, कहानी एक दूसरे यथार्थ में जो वास्तविक है, प्रवेश करती है।
“फारबिसगंज तो हिरामन का घर–दुआर है।’’ फारबिसगंज का मेला प्रसिद्ध है। कहानी में दो नौटंकी कम्पनी और तीन मेलों का जिक्र है। रोता नौटंकी कम्पनी में भरती होने के लिए मथुरा मोहन कम्पनी छोड़कर हीराबाई आती है। मथुरा मोहन कम्पनी छोड़ने और फिर उस कम्पनी में वापसी का कारण अज्ञात है। हीराबाई ने इसी ‘अपने–अपने देश की कम्पनी’ कहा है। तीन मेलों में चम्पानगर मेले के बाद हीराबाई फारबिसगंज के मेले में आयी है और यहाँ से बनैली मेला जाती है। हिरामन से कहती है ‘‘बनैली मेला आओगे न?’’ हिरामन के लिए मेले का महत्त्व नहीं, हीराबाई का महत्त्व है। नौटंकी का नगाड़ा बजते ही “हीराबाई की पुकार कानों के पास मँडराने लगती-भैया….मीता…हिरामन…उस्ताद…गुरु जी! हमेशा कोई–न–कोई बाजा उसके मन के कोने में बजता रहता दिन–भर। कभी हारमोनियम, कभी नगाड़ा, कभी ढोलक और कभी हीराबाई की पैजनी। उन्हीं साजों की गत पर हिरामन उठता–बैठता, चलता–फिरता”। यहाँ भाव-दशा और मनोदशा का सम्बन्ध यथार्थ से है। कल्पना से उसे गाढ़ा कर दिया गया है। नौटंकी के बहादुर को हीराबाई ने समझा दिया है कि वह भीतर हिरामन को आने से न रोके। ‘‘यह मेरा हिरामन है। समझे!’’ नौटंकी में हिरामन को ‘हीराबाई का आदमी’ समझा जाता है। नौटंकी में काम करने वाली स्त्रियाँ अच्छी नजर से नहीं देखी जाती थीं। पहले वहाँ महिला की भूमिका में पुरुष ही होते थे। गुलाब बाई पहली महिला थी, जो ‘स्टेज’ पर उतरी थी। हिरामन सभी गाड़ीवान साथियों को नौटंकी देखने की बात गाँव न पहुँचने की हिदायत देता है-‘‘एक रात नौटंकी देखकर जिन्दगी–भर बोली–ढोली कौन सुने?’’ दर्शकों को ‘कमेंट’ करने से कोई रोक नहीं सकता। हीराबाई को एक दर्शक ‘हिरिया’ कहता है, तो दूसरा दर्शक ‘नेम वाली रण्डी’, ‘पुतुरिया’ और ‘खेलाड़ी औरत’। यह सब सुनकर “हिरामन की आवाज कपड़घर को फाड़ रही है-आओ, एक–एक की गदरन उतार लेंगे।’’ सबके सामने हीराबाई का नाचना हिरामन को अच्छा नहीं लगता। उसे ‘छोकरा–नाच’ प्रिय है पर हीराबाई का नाचना नहीं। यहाँ नृत्य से अधिक पात्र का, व्यक्ति का महत्त्व है, जिससे हिरामन का भावात्मक रिश्ता है। यह रिश्ता उसने स्वयं बनाया है और इसके बनने देने में हीराबाई की भी भूमिका है। ‘‘हर रात, किसी–न–किसी के मुँह से सुनता है वह-हीराबाई रण्डी है। कितने लोगों से लड़े वह!…आज वह हीराबाई से मिलकर कहेगा नौटंकी कम्पनी में रहने से बहुत बदनाम करते हैं लोग। सरकस कम्पनी में क्यों नहीं काम करती?’’ लोक–संस्कृति में नृत्य से अधिक महत्त्व गायन, ‘कत्था-गायन’ का है। ‘तीसरी कसम’ कथानक और घटना विहीन कहानी है। कहानी का वातावरण बाहरी ही नहीं, भीतरी भी है। भीतर यह निर्मित होता है, जिसका बाह्य वातावरण से सम्बन्ध है।
कहानी के सभी स्थान फारबिसगंज के आस–पास के हैं। नगनपुर हाट और फारबिसगंज की दूरी तीन कोस की है। चम्पानगर की दूरी भी बहुत अधिक नहीं थी। नगनपुर हाट पर ही ‘हिरामन ने अपना सफरी लालटेन जलाकर पिछवा में लटका दिया।’’ गाँव का शहर पर नहीं, शहर का गाँव पर प्रभाव पड़ रहा है-
‘‘आजकल शहर से पाँच कोस दूर के गाँववाले भी अपने को शहरू समझने लगे हैं।’’ रेणु देख रहे थे कि गाँव को पिछड़ा माना जा रहा है। कहानी में फारबिसगंज शहर की रोशनी झिलमिलाती है। रेणु ने जब यह कहानी लिखी, पूर्णिया एक बड़ा जिला था। ब्रिटिश जिला कलक्टर अलैक्जेण्डर जॉन फौर्ब्स (1749–1819) के नाम पर फारबिसगंज नाम पड़ा। पहले इसका नाम फोरबेसाबाद था। आजादी के बाद यह फारबिसगंज हुआ। ‘‘तीसरी कसम’ कहानी–लेखन के समय यह पूर्णिया जिला में था। अब यह अररिया जिला में है। हिरामन कई बार मेले की लदनी लादकर फारबिसगंज आया है। एक बार अपनी भाभी के गौने में आया था। अब की बात दूसरी है। फारबिसगंज आने के पहले की मन:स्थिति भिन्न थी। बैलगाड़ी की यात्रा के साथ एक भाव–यात्रा भी थी। फारबिसगंज में मेला है। मेले में नौटंकी है। नौटंकी में हीराबाई है। नौटंकी का कोई एक सुनिश्चित स्थान नहीं है। आज इस मेले में, कल उस मेले में। मेलों के साथ हीराबाई भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाती है। हिरामन का स्थान निश्चित है। फारबिसगंज के आस–पास का स्थान। मेला स्थायी नहीं है। वह लगता है और टूटता है।‘‘लालमोहर बोला…हीराबाई चली गयी, मेला अब टूटेगा।’’ सभी गाड़ीवान वहीं रहते हैं। ‘‘यही तो भाड़ा कमाने का मौका है।’’ हिरामन के लिए ‘भाड़ा कमाना’ सब कुछ नहीं है। बाहर के मेले के टूटने के साथ उसके भीतर का मेला भी टूट चुका है। ‘‘अब मेले में क्या धरा है! खोखला मेला!’’ हिरामन काल्पनिक–स्वप्निल संसार से यथार्थ–संसार में है। वह बाजार में नहीं है। कहानी एक साथ भाव–संसार और वास्तविक संसार की है। भाव–संसार, वास्तविक संसार या यथार्थ–संसार से अलग नहीं है। कहानी की तरलता भाव–जगत की तरलता है। रेणु की विशेषता कहानी के पाठकों को हिरामन के भाव– जगत में ले आने की है। पाठक की और हिरामन की भावना एक साथ। हिरामन और हीराबाई की लैंगिक भिन्नता ‘मीता’ बन जाने के बाद दूर हो जाती है। कहानी का वातावरण बाहरी और मानसिक दोनों है। यह वातावरण स्थिर नहीं। गतिशील है। हीराबाई के जाते ही जैसे वातावरण ठहर जाता है।
‘तीसरी कसम’ कहानी का सौन्दर्य उसकी स्वर–विविधता में है। किसी स्वर को ‘मूल स्वर’ और अन्य स्वरों को गौण स्वरों के रूप में देखना हमारी अपनी मानसिक संकीर्णता है। संकीर्ण मानस के आलोचकों की पकड़ में ‘तीसरी कसम’ कभी नहीं आ सकती। किसी एक स्थान, दृश्य, गीत–संगीत पर रुका नहीं जा सकता। ध्वनि–संसार, शब्द–संसार, गन्ध–संसार सब एक साथ हैं। यह अविच्छिन्नता ही कहानी की सबसे बड़ी विशेषता है। कहानी में सब कलाएँ भी एक साथ घुल–मिल रही हैं-संगीत कला, नृत्य कला सब केवल हिरामन और हीराबाई एक दूसरे से नहीं मिल पाते। दोनों का मिलन भाव–जगत में सम्भव है, यथार्थ–जगत में नहीं। खरीदने की बात कहानी में हीराबाई कहती है, हिरामन नहीं। उसने तो पहले केवल ‘घोड़लदे बनियों’ से पटुआ खरीदने का भाव पूछा है। हिरामन ने महुआ घटवारिन की कहानी में महुआ के सौदागर द्वारा खरीदने की नहीं, ‘दाम चुकाने’ की बात कही थी। खरीदने की बात हिरामन से केवल हीराबाई कहती है। पहले थैली से रुपया निकालकर ‘एक गरम चादर खरीद’ लेने की बात, फिर महुआ घटवारिन को सौदागर द्वारा खरीदे जाने की बात। वह अपने को महुआ घटवारिन भी समझती है। ‘तीसरी कसम’ कहानी का लगभग प्रत्येक शब्द अर्थवान है। एक साथ चादर और स्त्री को खरीदने में फैलते जाते बाजार का उल्लेख है। बाजार में सब कुछ बिक रहा है, ‘चादर’ के साथ स्त्री भी। चादर का बिकना ‘दुकान’ में है। स्त्री ‘दुकान’ में नहीं, पर बाजार में है। ‘तीसरी कसम’ सब कुछ के बिकते चले जाने की कहानी भी है। इसे केवल प्रेम–कहानी के रूप में नहीं देखा जा सकता। कहानी में महाजन, सौदागर, मुनीम, सिपाही, दारोगा, भाड़ेदार सब हैं। हीराबाई और नौटंकी कम्पनी के साथ कम्पनी का मैनेजर भी है। केवल हिरामन और हीराबाई की कहानी नहीं है ‘तीसरी कसम’। बैलगाड़ी और रेलगाड़ी दोनों हैं कहानी में। बैलगाड़ी प्रमुख है। पर रेलगाड़ी गौण नहीं है। बैलगाड़ी की गति रेलगाड़ी की तुलना में बहुत–बहुत कम है। रेलगाड़ी की सीटी के बाद ‘‘हिरामन को लगा उसके अन्दर से कोई आवाज निकलकर सीटी के साथ ऊपर की ओर चली गयी-‘कू–उ–उ–इ–स्स–…।’’ गाड़ी के हिलने ‘–छि–ई–ई–छक्क!’ के बाद ही ‘‘हिरामन ने अपने दाहिने पैर के अँगूठे को बायें पैर की एड़ी से कुचल लिया। कलेजे की धड़कन ठीक हो गयी।’’ कहानी में रेलगाड़ी है, मालगाड़ी नहीं, फिर रेलगाड़ी के आखिरी डब्बे के गुजरने के बाद हिरामन को ऐसा क्यों लगा-‘‘सब खाली…खोखले…मालगाड़ी के डब्बे! दुनिया ही खाली हो गयी। ‘माल’ की खरीद–बिक्री होती है। आदमी की खरीद–बिक्री के बाद सारा जीवन खोखला हो जाता है। कहानी में हिरामन का जीवन ‘खोखला’ होता है और अब हमारा जीवन इस बाजार–युग में कितना समृद्ध है, कितना खोखला, यह कहने से अधिक समझने की बात है। ‘तीसरी कसम’ यह समझाती है कि हम सब एक खोखले जीवन की ओर बढ़ रहे हैं। मनुष्य की ‘खरीद’ होने के बाद फिर बच क्या जाता है! ‘‘मालगाड़ी के डब्बे’ यों ही नहीं कहा गया है, लोक–जीवन और संस्कृति बाजार का जीवन और उसकी संस्कृति नहीं है। ‘तीसरी कसम’ एक संस्कृति (लोक–संस्कृति) की विदाई और बाजार–संस्कृति के आगमन की कहानी है। कहानी के अन्त में हीराबाई ‘कम्पनी की औरत’ है। इसी के बाद हिरामन (गुलफाम) मारा जाता है-“हिरामन गुनगुनाने लगा-अजी हाँ, मारे गये गुलफाम!’’
‘हिरामन की ट्रैजेडी’ अपनी आँखों के सामने बदलते जमाने को देखते रहने की ट्रैजिडी है। कहानी में दो बार उसने ‘जा रे जमाना’ कहा है। एक जमाना उसकी आँखों से गुजर चुका है।उस जमाने में कहीं ‘भोंपा–भोंपू’ नहीं था। ‘‘अब तो, भोंपा में भोंपू–भोंपू करके कौन गीत गाते हैं लोग! जा रे जमाना।’’ अब जवानी भी पहल जैसी नहीं रही। कहानी में एक बार ‘जा रे जवानी’ भी हिरामन’ कहता है। तेगछिया पर एक साइकिलवाले को बैठकर सुस्ताते देखकर उसने कहा, ‘‘कहाँ से आना हो रहा है? बिसुनपुर से? बस, इतनी ही दूर में घसघसाकर थक गये?…जा रे जवानी!’’ समय के बदलने से ‘नाच’ भी बदला। पहले ‘छोकरा–नाच’ होता था। “कहाँ चला गया वह जमाना? हर महीने गाँव में नाच वाले आते थे।’’ रेणु का भाव–बोध युग बोध से जुड़ा है। ‘तीसरी कसम’ एक साथ भाव–जगत और वास्तविक जगत की कहानी है। भाव–जगत की रसमयता, गन्धमयता से पाठक तुरत निकल नहीं पाता। ‘अर्थतन्त्र की भावना–हीन दुनिया’ तुरत पकड़ में नहीं आती। हिरामन की दुनिया भावना की दुनिया है। उसका संसार भाव–संसार है। उसके सामने एक दूसरी दुनिया-‘भावमोल’, व्यापार की आकर खड़ी हो चुकी है। रेणु की कथा–विधि अपनी है। वे कई रंग एक साथ मिला देते हैं। वे हीराबाई के ‘कान के झुमके’ ही हिलते नहीं देखते, बैलों को सम्बोधित कर जब वह बोली थी ‘‘अच्छा, मैं चली भैयन!’’ तब ‘‘बैलों ने, भैया शब्द पर कान हिलाये।’’ हिरामन और हीराबाई के बाद हिरामन के ‘दो बैल’ कहानी के प्रमुख पात्र हैं। हिरामन- हीराबाई संवाद के बाद हिरामन-बैल संवाद प्रमुख है। कहानी में रेणु केवल हिरामन के साथ नहीं है। कहानी कहने की प्रमुख विधियों में एक प्रमुख विधि ‘सर्वज्ञ कथावाचक की विधि’ है, जो ‘प्रथम पुरुष कथावाचक की विधि’ से भिन्न है। ‘सर्वज्ञ कथावाचक की विधि’ के सम्बन्ध में सुरेन्द्र चैधरी ने लिखा है कि कहानी लिखने वाला ‘‘पूरी कहानी का दृष्टि बिन्दु स्वयं बना रहता है, इसलिए वह सभी पात्रों, परिस्थितियों, अन्तर्क्षेपों, संक्रमणों से परिचित रहता है।’’
कहानी केवल हिरामन की नहीं है। उसकी जीवन–दृष्टि और अन्य लोगों की जीवन–दृष्टि एक नहीं है। रेणु का ध्यान केवल एक पात्र पर न रहकर सब पर रहता है। कहानी को उसकी समग्रता, संश्लिष्टता में न देखना कहानी को खण्डित और इकहरी दृष्टि से देखना है। ‘तीसरी कसम’ के ‘कथा–प्रवाह’ में सबका कमोबेश महत्त्व है। लहसनवा गाड़ीवान नहीं है। वह लालमोहर का आदमी है, जिसकी भूमिका कहानी में अन्य गाड़ीवानों की तुलना में अधिक है। रेणु का ध्यान इस पात्र–विशेष पर कम नहीं है। कहानी में हिरामन ‘यौगपदिक संक्रमण’ के साथ है। विश्वनाथ त्रिपाठी की दृष्टि हीराबाई का बक्सा ढोने वाले आदमी पर पड़ती है। उन्होंने उसे ‘हीराबाई का कोई अन्तरंग’ कहा है। वह अन्तरंग नहीं है। त्रिपाठी जी उसे ‘एजेण्ट’ भी कहते हैं। एजेण्ट कभी किसी का अन्तरंग नहीं होता। उसका एक व्यावसायिक रिश्ता–भर है। हीराबाई के व्यक्तित्व और हिरामन के व्यक्तित्व का मुख्य अन्तर यह है कि हीराबाई के व्यक्तित्व के जहाँ दो पक्ष हैं, वहाँ हिरामन के व्यक्तित्व का मात्र एक पक्ष है। स्त्री होने के कारण हीराबाई का जो ‘सहज नारी रूप’ है। वह उसके पेशे के रूप से अलग है। पेशे का रूप प्रमुख है। हम चाहें तो इसे खण्डित व्यक्तित्व, विभाजक व्यक्तित्व भी कह सकते हैं। ‘नयी कहानी’ के जिन कथाकारों के पात्रों में हम इस विभाजित व्यक्तित्व को देखते हैं, उससे सर्वथा भिन्न है हीराबाई का व्यक्तित्व क्योंकि यहाँ कोई द्वन्द्व, अन्तर्द्वन्द्व नहीं है। उसने पेशे को स्वीकार लिया है। पेशे को स्वीकारना उसकी इच्छा नहीं विवशता है, जहाँ हम बाजार और व्यवसाय को सबके जीवन में प्रमुख होते देखते हैं। जीवन की सहजता, सरलता, तरलता यों ही लुप्त नहीं हुई है। हमारा पेशा हमारे व्यक्तित्व में प्रमुख हो गया है। ‘हिरामन’ में ‘मन’ प्रमुख है और हम ‘मन’ के अनुसार जीवन नहीं जी सकते। ‘तीसरी कसम’ कहानी ‘अर्थ–संस्कृति’ (मनी कल्चर) को हमारे समक्ष प्रस्तुत करती है। जो लोक–संस्कृति और जन–जीवन की संस्कृति को लील रही है। रेणु उसे विस्तार नहीं देते। उनकी निगाह लोक–जीवन की संस्कृति पर इसलिए है कि वहाँ आडम्बर और किसी प्रकार की प्रदर्शन प्रियता नहीं है। नौटंकी में हीराबाई का गायन–नर्तन प्रदर्शन नहीं तो और क्या है! हिरामन के मन में हीराबाई की जो छवि बनी है, वह टूट जाती है। इस छवि का टूटना उस तरल, सहज भाव का टूटना है। जिसे ‘टूटना’ कहानी के कहानीकार ने भी शायद ही समझा हो। हिरामन कई बार कहता है कम्पनी की औरत कम्पनी में गयी, कहानी में एक जगह हीराबाई के लिए केवल ‘कम्पनी’ कहा गया है। धुन्नीराम और लहसनवा ने हिरामन से कहा-‘‘बहुत देर से खोज रही है कम्पनी’’ हीराबाई कम्पनी में नहीं है। स्वयं ‘कम्पनी’ भी है। मात्र एक शब्द के सटीक प्रयोग से कहानी अर्थ के उस व्यापक–संसार में प्रवेश कर जाती है, जो बहुत, बहुत–बहुत कम कहानीकारों के यहाँ हम देखते हैं। जिस कहानीकार में ध्वनि, स्पर्श, गन्ध का इतना महत्त्व होगा, उसके लिए ‘शब्द’ कितने अर्थवान और महत्त्वपूर्ण होंगे, समझा जा सकता है।
रेणु ने ‘तीसरी कसम’ जितना अधिक डूबकर गहरे मन से लिखा है, क्या उतना ही डूबकर, गहरे मन से इस कहानी पर लिखा भी गया है? कथारस पाठकों को इतना अधिक डूबो देता है कि कहानी में उन अनेक स्थलों पर हमारी दृष्टि नहीं जाती और जाती तो टिकती नहीं है। जिसका कहानी के वातावरण, हिरामन और हीराबाई से भी गहरा सम्बन्ध है। विचार इतनी महीनी और बारीकी से, कहीं भाषा, कहीं संकेत में व्यक्त हैं कि उन पर हमारी दृष्टि नहीं ठहरती। रेणु की कहानी तनिक भी विचार–बोझिल नहीं है। ‘तीसरी कसम’ में ‘विश्वास’ और ‘ईमानदारी’ भी है। जो हिरामन का हीराबाई के प्रति और हीराबाई का हिरामन के प्रति है। हिरामन अपनी थैली हीराबाई के ‘जिम्मे’ करता है। ‘‘मेले का क्या ठिकाना। किस्म–किस्म के पॉकिटकाट लोग हर साल आते हैं। अपने संगी–साथियों का भी क्या भरोसा! हीराबाई मान गयी।’’ अपने साथी गाड़ीवानों के प्रति अविश्वास और हीराबाई के प्रति विश्वास में हीराबाई के प्रति हिरामन का भाव–सम्बन्ध प्रमुख है। हीराबाई ‘प्रैक्टिकल’ है। वह हिरामन को गाड़ी–भाड़ा के साथ ‘बख्शीश’ भी देती है। ‘‘आ गये हिरामन! अच्छी बात, इधर आओ…यह लो अपना भाड़ा और यह लो अपनी दच्छिना! पच्चीस–पच्चीस, पचास।’’ हिरामन तथाकथित पिछड़ी जात का है। ‘दच्छिना’ तो ब्राह्मणों को दी जाती है। हिरामन ब्राह्मण नहीं है, पर ‘गुरु’ तो है। ‘गुरुदक्षिणा’ का प्रयोग और व्यवहार सामान्य है। हिरामन के मना करने पर कि हीराबाई उसे ‘गुरु’ न कहे, हीराबाई कहती है ‘‘तुम मेरे उस्ताद हो। हमारे शास्तर में लिखा हुआ है। एक अक्षर सिखाने वाला भी गुरु और एक राग सिखाने वाला भी उस्ताद।’’ पहले यह लिखा जा चुका है कि हीराबाई कानपुर की है और नौटंकी की ‘महारानी’ गुलाब बाई को। जिन्हें ‘कलयुग की सरस्वती’ कहा गया है, की आवाज विशुद्ध थी और वे पूरे गले से गाती थीं। उन्होंने अपने गायन का कानपुर घराना के उस्ताद त्रिमोहन लाल और हाथरस घराने के उस्ताद मोहम्मद खान से औपचारिक प्रशिक्षण 1931 में लिया था। ध्यान रहे, हिरामन को हीराबाई ने ‘उस्ताद’ कहा है, जिसका प्रयोग संगीत और नृत्य घराने में होता है। क्या रेणु ने गुलाब बाई को ध्यान में रखकर ही हीराबाई की सृष्टि की है? और हिरामन के रूप में? पर यह सब अनुमान–भर है। उस्ताद को दक्षिणा देना चलन में है। यह गुरु–ऋण चुकाना है। अब हिरामन, ‘मीता’ नहीं ‘उस्ताद’ है।
‘तीसरी कसम’ की विशेषता यह है कि वहाँ विचार अलग नहीं है। वह कहानी के भीतर है। रेणु की कहानियाँ न तो विचारहीन हैं, न विचार–विमुख। जिस प्रकार महुआ घटवारिन की कथा हिरामन–हीराबाई की अधिकारिक कथा में ‘अन्तर्भुक्त’ है, उस प्रकार तो नहीं, पर यहाँ विचार भी अनुभव में मौजूद है। हीराबाई की दुनिया में वास्तविक प्रेम का अभाव है। वह नौटंकी में ‘प्रेम का अभिनय’ करती है। उसका जीवन प्रेम–विहीन है। हिरामन के जीवन से भी प्रेम अनुपस्थित है। अनुपस्थिति प्रेम की कुछ समय के लिए ही सही, उपस्थिति कहानी में रस–रंग घोल देती है। प्रेम–वंचित पात्र ही नहीं, प्रेम-वंचित समय भी है। जिसमें डूबना सहज नहीं है। समाज अनात्मीय हो रहा है। यहाँ आत्मीय क्षण दुर्लभ हैं। हीराबाई को अभी तक अपने जीवन में हिरामन जैसा व्यक्ति नहीं मिला। ‘हिरामन सचमुच हीरा है’’ कबीर ने बहुत पहले लिखा था-‘‘तोहर हीरा हेरायल बा कचरे में’ दाम्पत्य जीवन दोनों में से किसी का नहीं है। हिरामन और हीराबाई दाम्पत्य–सुख से वंचित पात्र हैं। हिरामन के मीता दाम्पत्य की जो चाह है वह उसके स्वप्न में घटित होती है। स्वप्न बैलगाड़ी में घटता है, जिससे कहनी में बैलगाड़ी और बैलों का महत्त्व बढ़ जाता है। हिरामन का प्रेम सात्त्विक है। उसने हीराबाई को पहले ‘परी’ समझा, फिर भगवती मैया भी। ‘‘हिरामन ने देखा, भगवती मैया भोग लगा रही है’’। कहानी बाद में यथार्थ–भूमि पर उतर जाती है। रेणु कलाकार कथाकार हैं, दृष्टि–सम्पन्न विचारवान, भाव–प्रवण कथाकार हैं। कहानी की आलोचना इस सबकी उपेक्षा नहीं कर सकती। सब एक साथ उपस्थित हैं। ट्रैजेडी यही कि हिरामन–हीराबाई एक साथ नहीं होते। ‘तीसरी कसम’ फिल्म का अन्त राजकपूर मिलन में चाहते थे। रेणु असहमत रहे। फिल्म का अन्त भी वैसा ही रहा, जैसा कहानी में था। कहानी में हिरामन का स्वप्नभंग ही उसे ‘तीसरी कसम’ खाने को बाध्य करता है। मेले में पहुँचने के बाद ही स्वप्न–भंग आरम्भ हुआ था, पर वहाँ मेले से पहले का कुछ समय के लिए ही सही, भावोन्माद भी है। हीराबाई मेले में हिरामन की बैलगाड़ी में आयी, पर मेले से गयी ‘लाल मोहर की गाड़ी पर’। वह स्टेशन जाने से पहले हिरामन से मिलने के लिए रुकती नहीं, उसे ढूँढ़कर चली जाती है। लाल मोहर ने बताया ‘‘तुमको ढूँढ़ रही है हीराबाई, इशटीशन पर’’ हीराबाई हिरामन के अपने प्रति विश्वास की रक्षा करती है। ‘कुरते के अन्दर से थैली निकाल कर’ हिरामन को दे देती है। ‘थैली’ पर अगर रुकें तो अर्थ और खुलेगा। इसके पहले ही जब हीराबाई ने उसे ‘भाड़ा’ और ‘दच्छिना’ दिया था। ‘‘हिरामन को लगा, किसी ने आसमान से धकेलकर धरती पर गिरा दिया। किसी ने क्यों, इस बक्सा ढोने वाले आदमी ने। कहाँ से आ गया?’’ बक्सा ढोने वाला आदमी कहानी के अन्त में ‘‘कोट–पतलून पहनकर बाबू साहब बन गया है।’’ अब उसकी भाषा भी बदली हुई है-“लाटफारम से बाहर भागो। बिना टिकट के पकड़ेगा तो तीन महीने की हवा…!” रेणु एक तरह की पोशाक पहनने वाले से उसकी भाषा का सम्बन्ध जोड़ते हैं।
कहानी का भाषा–सौन्दर्य विविध रूपी है। एक भाषा उस सेठ की है जो ‘अपनी भाषा’ में हिरामन के ‘बैलों की बड़ाई’ करते हैं। एक भाषा सिपाहियों की है। एक सिपाही ने दूसरे सिपाही से ‘अपनी भाषा’ में पूछा-‘‘का हो? मामला गोल होखी का?’’ सिपाही की भाषा और दारोगा की भाषा में अन्तर है। बैलगाड़ी रोक कर दारोगा ‘पिशाची हँसी’ हँसता है-‘‘हा–हा–हा! मुड़ीम जी ई–ई–ई–! ही–ही–ही–!…ऐ–य, साला गाड़ीवान, मुँह क्या देखता है रे ए–ए–––!’’ सरकस कम्पनी के मैनेजर की भाषा कुछ और है। हीराबाई की बोली पहले हिरामन को ‘बच्चों की बोली जैसी महीन, फेनगिलासी बोली’ लगी थी। यथार्थ के धरातल पर आते ही यह बोली बिला जाती है। कहानी में कई स्थलों पर ‘कचराही बोली’ की बात है। सभी गाड़ीवान कचराही बोली नहीं बोलते। हिरामन की बोली गाँव की बोली है-‘‘कचराही बोली में दो–चार सवाल–जवाब चल सकता है। दिल खोल गप तो गाँव की बोली में ही की जा सकती है किसी से।’’ महुआ घटवारिन की कथा जिस आत्मीय बोली में कही जा सकती है, वह क्या सबसे कही जा सकती है? रेणु ने एक जगह लिखा है-‘‘कलम से नहीं, काया से भी लिखना जरूरी है।’’ ‘तीसरी कसम’ में बैल भी हिरामन की भाषा समझते हैं। हिरामन के संसर्ग में आने के बाद हीराबाई ने जाते समय बैलों को कहा-‘‘अच्छा, मैं चली भैयन!’’ बैल ‘भैया’ शब्द पर कान हिलाते हैं। रेणु की भाषा ध्वनिमय, रंगमय, गन्धमय है। उसमें अर्थ की कई छटाएँ हैं। ऐसा भाषिक सौन्दर्य अन्य किसी कहानीकार में नहीं है। यह भावमयी भाषा है। कहानी में ‘श्रद्धा’, ‘सरधा’ है ‘जय’ ‘जै’ है, ‘जिला’ ‘जिल्ला’ है, ‘नागपुर’ ‘नाकपुर’ है, ‘मृत्यु भवन’ ‘मिरतू भवन’ है, ‘सरस्वती’ ‘सरसोती’ है, ‘मुल्क’ ‘मुलुक’ है, ‘चाय’ ‘चाह’ है, ‘धन्य’,‘धन्न’ है, ‘डॉक्टरनी’ ‘डागडरनी’ है, ‘राक्षसी’‘राकसनी’ है, ‘दुर्दिन’ ‘दुरदिन’ है, ‘भाषा’‘भाखा’ है, ‘उपटन’ ‘उटगन’ है, ‘प्रतीत’ ‘परतीत’ है, ‘आश्विन’ ‘आसिन’ है, ‘शास्त्र–पुराण’ ‘शास्तर–पुरान’ है, ‘अक्षर’‘अच्छर’ है, ‘घर–द्वार’‘घर–दुआर’ है, ‘होटल’ ‘होटिल’ है, ‘ग्रामीण’ ‘गरामिन’ है, ‘वैष्णव’‘वैस्नव’ है, ‘फार्म’ ‘फरहम’ है, ‘रामायण’ ‘रमैन’ है, ‘प्लेटफार्म’ ‘लाटफारम’ है, ‘संवाद’ ‘समाद’ है, ‘शारदा कानून’ ‘सरधा–कानून’ है आदि…कितने उदाहरण दिए जाएँ। यह शब्द–विकृति, नहीं, शब्द–समृद्धि है। ‘तत्सम’ शब्दों का परिवर्तन बेहद महत्त्वपूर्ण है।
‘तीसरी कसम’ में कथानक, घटना, वर्णनात्मकता महत्त्वपूर्ण नहीं है। उनकी कथा–भाषा मौलिक, नवीन और विशिष्ट है। यह रेणु की अपनी, स्वनिर्मित कथा–भाषा है। कथा–भाषा भाव–बोध से जुड़ी है और भाव–बोध समय–बोध से, मूल में संवेदना है। वास्तविकता से जुड़ी कथाकार की संवेदना। ‘तीसरी कसम’ कहानी एक कल्चर के रूप में है। एक ‘कल्चर’ की विदाई और एक कल्चर का आगमन!
रविभूषण
मार्क्सवादी आलोचक एवं स्तम्भ लेखक। राँची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष और प्रोफेसर। लगभग चालीस वर्षों का अध्यापकीय अनुभव तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय और राँची विश्वविद्यालय का। लगभग तीस वर्षों तक प्रभात खबर के लेखक, स्तम्भ लेखक रहे और बीस बाईस वर्षों तक दीपावाली विशेषांक के अतिथि सम्पादक रहे। सम्प्रति: लखनऊ से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र ‘जनसन्देश टाइम्स’ में साप्ताहिक तथा दिल्ली से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘सबलोग’ में नियमित स्तम्भ लेखन। दो पुस्तकें ‘रामबिलास शर्मा का महत्त्व’ और ‘भारत की तलाश’ प्रकाशित। विविध विषयों पर लिखे लेखों की चार पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष। सम्पर्क: मो– 9431103960
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