लेख
स्मृतियों के पुल पर यथार्थ का आख्यान
(‘जानकी पुल’ : प्रभात रंजन)
- नीरज खरे
हिन्दी कहानी में सक्रिय युवा पीढ़ी ने अपने समय को पहचानने–परखने की यथार्थ दृष्टि विकसित की है। अपने समय को ‘कथा–बिम्ब’ बनाने वाली कहानियाँ अक्सर याद रहने वाली कहानियाँ होती हैं। इक्कीसवीं सदी के पहले दशक की युवा पीढ़ी में प्रभात रंजन की ‘जानकीपुल’ ऐसी ही कहानी है। बीसवीं सदी का आखिरी दशक भूमण्डलीकरण और सूचना–क्रान्ति से प्रतिरोध और संवाद करती उल्लेखनीय कहानियों का दौर रहा। तब कहानी में समय के बड़े परिवर्तनों को कहानीकार प्रतिबद्ध दृष्टि से उपस्थित कर रहे थे। भूमण्डलीय प्रक्रिया के उत्तर समय यानी इक्कीसवीं सदी के पहले दशक की नयी युवा पीढ़ी की कहानी में ‘समय’ के प्रति कहानीकार का बर्ताव कैसे आकार लेता है, इसकी एक बानगी ‘जानकीपुल’ है। ‘सहारा समय कथा चयन 2004 प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कृत होने से ही नहीं! लगभग, दशक के भीतर कहानी पर हुई चर्चाओं में प्राय: इस कहानी का उल्लेख किया जाता रहा है। इसकी ख्याति का कारण उसमें निहित समकालीन समय के गहरे विरोधाभास को कहानी के बहुप्रचलित फ्लैश–बैक के छोटे फार्म की एकरेखीयता में समो लेने की कला है। यह कहानी जब आयी थी, तब खासतौर से पूर्व पीढ़ी अपने समय के यथार्थ को बहुत वाचालता और महाआख्यान की तरह कहानियों में उपस्थित कर रही थी। यथार्थ की समकालीन चेतना को कहानी के औपन्यासिक विस्तार वाली लंबी कहानियों का प्रभाव असाधारण हो सकता है। पर कहानी के सहज लागू फार्म का आकर्षण पाठकों में सदैव प्रिय रहा है। ‘जानकीपुल’ ने विवरण शैली की चलताऊ–उबाऊ कहानियों से अलग हटकर रोचक और अपने समय के विडम्बनाबोध को बयाँ कर सकने वाला कथात्मक बयान सम्भव किया।
प्रेम और यथार्थ के युगपत समीकरण पर कहानी कहना नया नहीं है। सिनेमा से लेकर कथा–साहित्य तक यह फार्मूलों की तरह भी खूब चला है। पर इसकी रचनात्मक सम्भावनाएँ हमेशा बनी रही हैं। हिन्दी कहानी के बहुत अतीत में न भी जायें तो इधर की नयी युवा पीढ़ी के ठीक पहले और वर्तमान समय के भी महत्त्वपूर्ण कहानीकार उदय प्रकाश ने प्रेम और यथार्थ के मेल पर ‘कहानी’ सम्भव की हैं। पर वे यथार्थ को आख्यानात्मक कौशल से अपनी अलग ‘कहन पद्धति’ विकसित करने वाले कहानीकार हैं। कहानी के कथ्य और रूप में असाधारण बदलाव की चेष्टा का मुकम्मल प्रस्थान उनकी कहानियों में मिलता है। यहाँ उनके उल्लेख की वजह केवल ‘प्रेम और यथार्थ’ के मेल से कहानी रचना की सम्भावनाओं की ओर इशारा करना है। उनके अगले दौर के कहानीकार ने ‘जानकीपुल’ में इसे सम्भव करने की कोशिश की है। प्रभात रंजन ने कहानी को अधिक वाचाल और अत्याधिक विवरणों से बचाकर कहानी के लागू फार्म का पुनर्आविष्कार किया। यहाँ कहानीकार यथार्थ छवियों के उद्घाटन में अधिक नहीं रमा और न पात्रों से ज्यादा उलझा। पर आख्यान की रोचकता और कथानक का छोटे फार्म में गठन बड़ी कुशलता से हुआ। कथा होने के रोचक तत्त्वों की उपस्थिति और कहने की कला, इसे हिन्दी कहानी की पारम्परिक, ऐतिहासिक विरासत के पक्ष में खड़ा करती है। कहना ना होगा कि ऐसी कहानियों को अनदेखा करके ही नयी युवा पीढ़ी पर उनकी ‘जवाबदेही’ प्रश्नांकित की गयी। इस कहानी में समय बेहद परिचित और जाना–पहचाना है। भूमण्डलीकरण, बाजारवाद, संचारक्रान्ति और इनकी प्रक्रिया में औद्योगिकीकरण, वैज्ञानिक प्रकृति और पूँजीवाद का हिंसक मेल जो धरती पर मनुष्य के विरुद्ध अपना साम्राज्य निरन्तर फैला रहा है। एक दशक पहले आया यह विकट संकट अब तो जीवन में रच–बस गया है, इक्कीसवीं सदी भूमण्डलीय प्रक्रिया और सूचनाक्रान्ति के गहरे मेल–मिलाप से आरम्भ हो रही सदी है। शहर ही नहीं, गाँवों तक संचारक्रान्ति ने अपनी दस्तक दे दी है। मोबाइल और इंटरनेट अब हाथों के खिलौने हैं। इनने कहने को भौतिक दूरियाँ जैसे ढहा दी हैं। क्या इन्हें ढहाकर ही ‘विकास’ का मानव सुलभ मानक पाया जा सकता है? ‘जानकीपुल’ का कथ्य इस बड़ी चुनौती से दरपेश होता है। समय के इन बेहद आह्लादित करने वाले बदलावों से परे उनमें निहित विसंगतियों और विरोधाभासों का यह कहानी नैतिक विरोध करती है।
यहाँ कहानीकार समानान्तर दो विरोधाभासी यथार्थ–पक्षों को दृष्टिगत करता है। वह भूमण्डलीय विकास और सूचनाक्रान्ति से उपजी चरम ऊँचाइयों के बरक्स राजनीति और प्रशासन के कथित जनहितैषी चरित्र के दिखावों का खुलासा करता है। साथ ही, उनके पीछे छुपे निहायत काहिल और गैरजिम्मेदार चरित्र की व्यंग्यपूर्ण शिनाख्त भी। यानी उदासीन और बेपरवाह व्यवस्था में बेहद जरूरी किस्म की जन समस्याओं का जस का तस पड़े रहना। इन दो सच्चाइयों को जोड़ने वाला बागमती नदी पर ‘जानकीपुल’ बनने का प्रस्ताव है, जो गाँव को शहर से जोड़कर विकास की मुख्यधारा में ले आएगा। पर हर बार सरकारी बहानों के चलते पुल का निर्माण टलता ही रहा। कहानी में पुल बनना पूरे गाँव का सपना है या कहानी के मुख्य कथा–व्यापार का बिम्ब है, जो धीरे–धीरे प्रतीक में बदल जाता है। इसके साथ–साथ कहानी में सूचना प्रौद्योगिकी के बड़े दावों और सुविधाओं के मायालोक की गहरी तफतीश है। यहाँ विकास के इन विरोधाभासों और विडम्बनाओं को साथ–साथ उभारा गया है। शिलान्यास के बाद नदी पर बीस साल से पुल न बन सका। पर गाँव के लागों को आज भी इस सपने के पूरे होने की उम्मीद बाकी है। पुल का बनना भौतिक रूप से इन्सान से इन्सान के जुड़ने का एक मात्र साधन है, सुदूर कटे, एक ग्रामीण इलाके को मुख्यधारा में लाने के लिए भी। इन बीस सालों में टेलीविजन, फोन, इंटरनेट और मोबाइल ने हर तरफ दस्तक देकर सम्पर्क और सम्पर्क के अनगिनत पुल बना डाले हैं, सुदूर गाँव देश–भर से ही नहीं विदेशों से जुड़कर कथित ‘सार्वभौमिक गाँव’ जरूर बन गये हैं। आवाजें और ई–मेल पहुँचने–पहुँचाने के ‘इन पुलों’ के समानान्तर इन्सान के नदी के इस पार से उस पार पहुँचने की समस्या ज्यों–की–त्यों है। कहानी ‘पुल’ को सपने की तरह सामने रखकर सूचना प्रौद्योगिकी पर इठलाने वाले सूचना–समाज की वास्तविक विसंगतियों पर भी व्यंग्य करती है। कहानी के इस लागूफार्म में बड़े सवाल को उठाना, कहानी की बड़ी सफलता है। कहानी यह भी दिखलाने का प्रयत्न करती है कि गाँवों की उपेक्षा के चलते शहरों का विकास असाधारण रूप से कहीं ज्यादा हुआ है। दिल्ली जैसे महानगर में सैकड़ों फ्लाईओवर बन गये पर गाँव की नदी पर एक छोटा पुल तक न बन सका!
अब यह देखें कि कहानी में आये ‘समय–बोध’ के प्रति कहानी के पात्रों और स्वयं कहानीकार का कुल मिलाकर रवैया कैसा है! कहानी के नैरेटर को भूली हुई कहानी अपने रिश्ते के भाई नन्दू भाई के ‘ई–मेल’ से आयी। नैरेटर आदित्य मिश्र का लगभग किशोरावस्था में ‘जानकीपुल’ से सम्बन्ध विशेषत: ईला चतुर्वेदी से प्रेम के कारण है। उस पर ही चढ़कर प्रेम परवान चढ़ना था! पुल ना बनने से उसके प्रेम का पुल भी ना बन सका। प्रेम से परे पुल का यथार्थवादी विस्तार नैरेटर को बीस साल बाद या बीस साल के भीतर ही विकसित हुआ, जब वह किशोर से क्रमश: परिपक्व युवापन की ओर अग्रसर हुआ। इस प्रकार कहानी का कथा–व्यापार उसकी स्मृति और चेतना में, दो भिन्न समयों में विकसित हुआ है। बीस साल पहले ‘पुल’ प्राय: प्रेम की विफलता के रूप में किशोर–मन की स्मृति में रह गया। पुल को लेकर जन–विमर्श की ध्वनियाँ कुछ दबी–सी रह गयी थीं। ई–मेल पढ़कर उसे याद आयीं तो पहले कोमल मन का प्रेम–दंश याद आया ही, लगे हाथ ‘जानकीपुल’ की चर्चा में पुल का समस्यामूलक समूचा वृतान्त भी याद आया और वही कहानी का मुख्य कथा–व्यापार बना। इन बीस सालों के बीच पूरे देश–भर में सूचना–क्रान्ति के उपकारणों का असाधरण विस्तार और वर्चस्व बढ़ा। गाँव से बिखर कर लोग शहरों, महानगरों और विदेशों तक में जा पहुँचे पर सूचना–क्रान्ति के उपकरणों से लैस होकर उनके बीच सम्बन्धों के ‘नये पुल’ बन गये। नाते–रिश्तेदार सभी टेलीफोन या ई–मेल के पुलों से रिश्तेदारी निभा लेते हैं। समाज के इन बड़े परिवर्तनों के प्रति कहानीकार ने नॅरेटर के द्वारा दी गयी सूचनाओं से पाठकों को भली–भांति परिचित कराया है। जन की मूल आकांक्षा और आवश्यकता को दरकिनार कर विकास के असन्तुलित नजरिये को यह कहानी समानान्तर पेश करती है। बीस सालों से गाँव में पुल की समस्या ज्यों–की–त्यों पड़े रहने की राजनीतिक–प्रशासनिक उदासीनता कहानी की ज़द में आया दूसरा यथार्थ है।
प्रेम से शुरू हुआ पुल न बनने का क्षोभ बड़ी जनसमस्या के रूप तक यात्रा करता है। पर कुल मिलाकर कहानी के पात्रों और उनके जरिये कहानीकार का भी गाँव और ग्राम्य–बोध या जनसरोकारों के प्रति भाव कुछ–कुछ मध्यवर्गीय नगरीय–वैदेशिकपन से आक्रान्त है। नन्दूभाई अपने रिश्ते के भाई नैरेटर को इण्डोनेशिया के सुमात्रा से भेजे ई–मेल में गाँव और गाँव में मनायी दीपावली की याद इसी भाव से कर रहे हैं। आदित्य मिश्र शुरू से ही गाँव में रहने को अपना पिछड़ापन मानता है और पुल बन जाने को इससे निजात पाने का जरिया। इला और आदित्य का संवाद किशोर–मन के अबोध किस्म के ग्राम्य–बोध का सूचक है। पुल बन जाने से गाँव की अस्मिता को खत्म कर वहाँ पूँजीजनित विकास की फसल लहलहाएगी, इसके संकेत जरूर दिये हैं। आदित्य पढ़ाई और कैरियर के सिलसिले में गाँव से दिल्ली आ चुका है, नन्दू भाई तो इंडोनेशिया के रमणीय द्वीप सुमात्रा में नौकरी करते ही हैं। बाकी नाते–रिश्तेदार भी परिस्थितियों वश गाँव छोड़ चुके हैं। भारतीय युवकों को विदेशों में अच्छी नौकरी के अवसर मिलना, लोगों का गाँवों को छोड़कर शहरों की ओर आकर्षण–यह भूमण्डलीकरण के दौर में उपजी स्थितियाँ हैं, जब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और निजीकरण का विस्तार हुआ। इन बीस सालों में बुजुर्ग पीढ़ी विदा हो चुकी है पुल बनने का सपना लिये! दादा जी पुल बनने तक जमीन ना बेचने की नसीहत पिताजी को दे गये हैं और वे अभी भी (एक मध्यवर्गीय परिवार के गाँव में रहने वाले आखिरी व्यक्ति जैसे) गाँव में पुल बनने का सपना लिए टिके हैं। पर कहानी में जितने मुख्य पात्र हैं, उनका गाँव के प्रति लगाव बहुत ‘अपना’ नहीं रह गया है। इसलिए उनके द्वारा व्यक्त ‘यथार्थ’ का तनाव कहानी में एक किस्म की मनोरंजक स्मृतिमूलकता से आच्छादित है। कहानी बड़ी सफाई से ‘कथ्य’ को आत्मसात किये जाने की व्यापक पाठकीय स्वीकृति के चलते अपनी इस सीमा को छिपा लेती है। इसे भी कहानीकार की सफलता ही कहा जाएगा।
देखें तो पुल के प्रति एक बड़ी जनसमस्या के उन्मूलन के रूप में किसी का भी सम्बन्ध नहीं है। जनता की इस चाह के लिए कलेक्टर द्वारा प्रयत्न होता जरूर है जिसकी मूल प्रेरणा उनकी पत्नी की इच्छा है जो पुल पार कर माँ जानकी की तपस्थली में पूजा–पाठ करने की सुगमता चाहती हैं। सिंचाईमन्त्री द्वारा पुल का शिलान्यास अपनी राजनीतिक लोकप्रियता का हथकंडा है। नैरेटर तो दिल्ली जाकर पुल की बात लगभग विस्मृत ही कर चुके हैं वह तो नन्दू भाई के ई मेल से याद आ पड़ी। वरना नहीं भी आती! गाँवों में बीस सालों के बदलावों की सूचनाएँ नैरेटर ने दिल्ली में रहते यदा–कदा मधुवन जाकर अर्जित की हैं, जिन्हें कहानी में दर्ज–भर कर दिया है। पर गाँव छोड़ चुकी आजीविकावादी युवा पीढ़ी का जन सरोकारों के प्रति अब जैसा उत्तरदायित्व या लगाव है, कहानी के पात्र वही नुमाइन्दगी करते हैं। इसके बावजूद ‘जानकीपुल’ अपनी समय–चेतना की कथात्मक परिणति में युवा पीढ़ी की उल्लेखनीय उपलब्धि है। (सहारा समय, जून–2004)
नीरज खरे : सुपरिचित युवा आलोचक, कवि। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ और आलोचनात्मक लेख विपुल मात्रा में प्रकाशित। सम्प्रति : काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्यापन। सम्पर्क : मो.– +919450252498