फणीश्वर नाथ रेणु

नित्य लीला का गाथाकार 

 

सागर मेरा घरू शहर था : वहाँ रहते मुझे पन्द्रह साल से अधिक हो गये थे। मैंने सागर विश्विद्यालय में पहले वर्ष में विज्ञान पढ़ने के लिए दाखिला लिया था। साहित्य तब तक जूनून की तरह दिलोदिमाग पर छाया हुआ था। हम कुछ कवियशः प्रार्थी मित्रगण नये लेखन की एक पत्रिका ‘समवेत’ निकालने का निश्चय कर चुके थे और उसके लिए साधन जुटाने में लगे थे. तभी खबर आयी कि राजकमल से फणीश्वरनाथ रेणु नामक किसी लेखक का उपन्यास ‘मैला आँचल’ प्रकाशित हुआ है और उसकी बड़ी धूम मची है। मैंने तार भेजकर उपन्यास की एक प्रति वीपीपी से भेजने का आग्रह राजकमल से किया और वह कुछ ही दिनों बाद आ भी गया। किसी उपन्यास को लेकर ऐसा रोमांच पहले कभी नहीं हुआ था : यह अप्रत्याशित का रमणीय था। मैंने और मेरे मित्र रमेशदत्त दुबे ने उपन्यास बहुत विभोर होकर पढ़ डाला।

हम पहली बार ऐसी कथाकृति मूल  हिन्दी में पढ़ रहे थे जिसमें लोग, चरित्र तो बोलते ही हैं पूरा अंचल, उसकी लोकस्मृतियाँ, उसकी कहावतें, उसके पक्षी, वनस्पतियाँ, उसकी प्रकृति आदि सब बोल रही थीं। तब तक हम प्रेमचन्द, जैनेन्द्र कुमार, और अज्ञेय के उपन्यास पढ़ चुके थे। यह उपन्यास उनसे बिलकुल अलग था। उनमे एक नयी कथाभाषा ने जन्म और आकार लिया था : उसमें मानो जिजीविषा सारी बाधाएँ, शोषण और अन्याय के बावजूद अप्रतिहत थी और अपने समूचे लालित्य, वैभव और स्थापत्य के साथ चरितार्थ हो रही थी। उसमें गहरे स्तर पर रेणु की एक कहानी का शीर्षक उधार लेकर कहें कि नित्य लीला की गाथा थी। ऐसी गाथा, जो जितनी सतह पर थी उतनी ही अन्तःसलिल भी। उपन्यास के पारम्परिक नायक जैसे अंचल ने अपदस्थ कर दिये थे – स्वयं अंचल नायक हो उठा था। हमारे उस सीमित अनुभव में यह अनोखा था, अभूतपूर्व। खड़ी बोली में दूसरी बोली का रचाव इस कदर स्वतःस्फूर्त लगता था कि हम यह भूल गये थे कि वह एक सुचिन्तित शैली के अन्तर्गत था। कहीं न कहीं यह भी लगता था कि जैसे मानवीय जिजीविषा की नित्यलीला ही उपन्यास की केन्द्रीय थीम है। इस लीला में पीड़ा, दैन्य, शोषण, सम्बन्ध, द्वन्द्व, संघर्ष, विफलता आदि सब थे पर इन्हें संगुम्फित कर रही थी अदम्य जिजीविषा। जीवन का अहरह प्रवाह।

दिसम्बर 1957 में इलाहबाद में आयोजित एक बड़े साहित्यकार समारोह में जाना हुआ। हमलोग जॉर्ज टाउन में रुके थे और पहली शाम को सिविल लाइन्स घूमने गये। वहाँ तब रामाज कैफे नाम  का लेखकों का एक प्रसिद्ध अड्डा था। हम वहाँ गये और एक मेज के गिर्द बैठे ही थे कि नज़र गयी कि दूर की एक मेज के पास एक घुंघराले बालों वाला व्यक्ति बैठा है। हमने पहचाना कि वे रेणु थे। उनके पास जाकर अभिवादन किया पर इससे अधिक कुछ करने की हिम्मत नहीं हुई। लाऊदर रोड पर  स्थित ऐनी बेसेंट हॉल में कई सत्रों में रेणु दीखते रहे। एक बार तो सुखद संयोग से मैं नागार्जुन के बगल में बैठा था और दूसरी ओर रेणु थे। समारोह में मुक्तिबोध भी थे। हरिशंकर परसाई भी थे जिनका कहना था कि शमशेर बहादुर सिंह के यहाँ धुनी रमी हुई है और अखण्ड काव्य कीर्तन चल रहा है।

बाद में यह समझ में आया कि रेणु को लेकर प्रगतिशील तबके में संकोच है। वहाँ दूसरी ओर समाजवादी राजनीति से संवादरत तथाकथित ‘परिमल’ के खेमे में उनका बहुत स्वागत हुआ है। धर्मवीर भारती द्वारा सम्पादित महत्त्वपूर्ण पुस्तक-पत्रिका ‘निकष’ में रेणु के अगले उपन्यास ‘परती परिकथा’ का एक अंश छपा था और उनकी एक कहानी ‘रसप्रिया’ भी। यह तो और बाद में पता चला कि रेणु समाजवादी आन्दोलन में सक्रिय रहे  थे और उनका स्वागत और बचाव करने वालों में अज्ञेय और निर्मल वर्मा प्रमुख थे। दोनों ही प्रगतिशील कट्टरता से त्रस्त, मोटे तौर पर, समाजवादी मानसिकता से सहानुभूति रखने वाले लेखक थे। यह भी उल्लेखनीय है कि हिन्दी के प्रगतिशील आन्दोलन ने राजनैतिक सजगता फैलायी थी पर उसके बड़े लेखकों में से नागार्जुन के अलावा किसी और ने राजनैतिक आन्दोलन में भाग नहीं लिया था। रेणु इस मामले में अज्ञेय के समानधर्मा थे जिन्होंने अपनी क्रान्तिकारी राजनीति के कारण जेल की सजा काटी थी और वहीं अपना कलैसिकल  उपन्यास ‘शेखर एक जीवनी’ लिखना शुरू किया था। बाद में, आपातकाल से पहले जयप्रकाश नारायण के समग्र क्रान्ति आन्दोलन में नागार्जुन और रेणु दोनों ने भाग लिया और जेल गये थे। उस दौरान प्रगतिशील और अन्य वामपन्थी दल इस आन्दोलन के विरुद्ध थे। परती परिकथा : एक आम पाठक की नजर में ...

मदन सोनी ने इसका विश्लेषण किया है कि रेणु के यहाँ, ‘परती परिकथा’ में, भारतीय उपन्यास असाधारण रूप से अपने उपन्यास होने पर भी विचार करता है। ऐसी आत्मचेतना हिन्दी उपन्यास के परिसर में पहली बार सक्रिय और मुखर हुई थी। यह और बात है कि स्वयं अपन्यास जिस आधुनिकता के दबाव को सहता-झेलता है, वह उसे पूरी तरह से प्रश्नांकित नहीं कर पाता। रेणु के यहाँ वैसे आधुनिक होने या दिखने की आतुरता नहीं है जैसे कि अन्य कहीं कई लेखकों में, समकालीनों में थी। पर वे जिस जिजीविषा का उत्सव अपनी कथाओं में मना रहे थे उसमें आधुनिकता का दबाव कहीं न कहीं दुनिर्वार था और आधुनिकता जिजीविषा से पूरी तरह अतिक्रमित नहीं होती – खण्ड-खण्ड सृजनात्मकता में बदल जाती है। यह व्याख्या किसी  गहरे आत्मप्रश्नांकन के अभाव का संकेत करती है। स्वयं जिजीविषा सम्भवतः अपने को वैध्य नहीं बनाती। पर मैं यह किसी आश्वस्त भाव से नहीं कह रहा हूँ : कई बार लगता है कि नित्य लीला का यह अप्रतिम गाथाकार दृष्टि की जिस समग्रता का आकांक्षी था उस दृष्टि के अन्तर्विरोधों से वह सीधे  मुठभेड़ कथा की काया में, बखान के अपने बेजोड़ स्थापत्य में नहीं  करता। उस स्थापत्य में जो दरारें वह छोड़ता है वे उसे स्वयं याद नहीं रहतीं और वे स्थापत्य का हिस्सा बनकर अलक्षित रह जाने को अभिशप्त हैं।

बैसाख और जेठ महीने में शाम को ‘तड़बन्ना’ में जिन्दगी का आनन्द सिर्फ तीन आने लबनी बिकता है। चने की घुघनी, मुढ़ी और प्याज़ और सफ़ेद झाग से भरी हुई लबनी। … खटमिट्ठी, शक्कर-चिनियों और बैर-चिनियों ताड़ी के स्वाद अलग-अलग होते हैं। वसंती पीकर बिरले पियक्कड़ ही होश दुरुस्त रख सकते हैं। जिसको गर्मी की शिकायत है, वह पहर-रतिया पीकर देखे। कलेजा ठण्डा हो जाएगा, पेशाब में जरा भी जलन नहीं होगी कफ प्रकृति वालों को संझा पीनी चाहिए, रातभर देह गरम रहता है.  [मैला आँचल]

आम जे कटहल, तूत जे बड़हल

नैबुआ अधिक सुरेब!

मास असाढ़ हो रामा! पन्थ जनि चढ़िह

दूरहि से गरजत मेघ रे मोर!

बाग़ में आम, कटहल, तूत और बड़हल के अलावा कागजी नींबू की डाली भी झुकी हुई है और दूर से ही मेघ कह रहा है – आ पन्थी! अभी राह मत चलना! ..लोग दूर के साथी को अपने पास बुलाते हैं, बिरह में तड़पते हैं, मेघों के द्वारा सन्देश भेजते हैं और घर आया हुआ परदेशी बाहर लौट जाना चाहता है। नहीं, नहीं। …   [मैला आँचल]कौन है चुगिला? क्या है सामा और चकेवा ...

‘केंकू-केंकू। कें-एं-केंकू। केंकू-केंकू। शामा-चकेवा की बोली दुलारीदाय के किनारे सुनाई पड़ती है – आ गयी आ गयी शामा-चकेवा की जोड़ी देखो, कहा था न! शामा-चकेवा से ठीक एक दिन पहले ही आ जाती है शामा-चकेवा की जोड़ी। कोई पर्व मनावे या न मनावे’।… ‘पूर्णिमा से दो रात पहले से शामा-चराई की रात शुरू होती है। घर-घर से डालियाँ लेकर आती हैं लड़कियाँ। डालियों में चावल, फल, फूल पान-सुपाड़ी के साथ पंक्षियों के पुतले। लम्बी पूँछ वाली खंजन, पूँछ पर सिन्दूरी रंग का टीका वाला पंछी, ललमुनियाँ। बिनरा …वृन्दावन। जहाँ, शामा-चकेवा की जोड़ी चरेगी। छोटे-छोटे कीड़े-पतंगे। बरसात के जन्मे। असली कीड़े-पतंगे नहीं, मिटटी के ही। वृन्दावन में  चुगला आग लगा देगा। जली-अधजली चिड़ियाँ बृन्दावन की आग को अपने छोटे-छोटे डैने से बुझावेगी। धान, दही, दूध और मिटटी के ढेले खिलाकर, लडकियाँ बिदा करेगी शामा-चकेवा को – जहाँ का पंछी तहाँ उड़ी जा, अगले साल फिर से आ। चुगला की चोटी में आग लगाकर लडकियाँ तली बजाकर गवेंगी – ‘तोरे करनवाँ रे चुगला, तोरे करनवाँ ना। रोये परानपुर की बिटिया रे, तोरे करनवाँ ना।’  [परती परिकथा]

…… ‘मेले के चारों ओर छेकी हुई रण्डियों के झुण्ड। जिले के बड़े-बड़े कसबे की कस्बिनों के होश उड़ रहे थे, देहातिनों की क्या बात! अपनी-अपनी ऐंठ-गैंठ, गठरी-पोटरी, हंस-मुर्गी, लटकन-फुँदना, तंबू-कनात के साथ कुछ धनखेतों के पास, कोई पक्की सड़क के पुल के नीचे तीन दिन से पड़ी हुई थीं’। [परती परिकथा ]

‘…. बाकि सब काम तो फूलपत्ती ही करती थी। पिठार के चावल को खूब महीन करके सिलबट्टे पर पीसना। पिठार को दूध में घोलना  थोड़ी देर के बाद, ठीक समय पर जंगली पेड़- ‘मैदाकाठ’ की कोमल पत्तियों को उसमें डालकर मथते रहना, सींकी की काठियों में कपड़े और छोटे-छोटे लत्ते लपेटकर  — अलग-अलग रंग के लिए तैयार करना, रंग घोलना – सब काम तो फूलपत्ती बचपन से ही करती आई है …’ [भित्तिचित्र की मयूरी]

‘अब तुमुल तरंगिनी के तरल नृत्य और वाद्य की ध्वनियों को शब्दों में बाँधना असम्भव है। अब … अब ..  सिर्फ हिल्लोल-कल्लोल-कलकल-कुलकुल-छहर-छहर झहर-झहर-झरझर-अर, र-र-र-ह-ए-ए धिया-ध्रिंग-धतित-धा तिन धा तिन धा –आह- मैया-गे-झाँय-झाँ-रय-फघ-झाँय झिझिना-झिझिना ..। कललकुलल-कुलल बाँ-आँ-य-बाँ-आँ-प-पौ-ऊँ-ऊँ… चेईं-चेईं-छछना-छछना—हहा-हा ततथा-ततथा-कलकल-कुलकुल …!! पानी बढ़ना रुक गया है। बीस मिनट हो  गये। पानी जस का तस, वहाँ- का तहाँ है। कम-से-कम अभी तो रुक गया है।  [पटना-जलप्रलय उर्फ़ घनजल]

phanishwar nath renu

ऊपर उद्धरणों की जो लड़ी दी गयी है वे दो उपन्यासों, एक कहानी और एक रिपोर्ताज से हैं। उनमें जो ध्वनियाँ, जो पक्षी, जो पर्व, प्रक्रियाएँ आदि बखानी गयी हैं वे, मेरे जाने, इन विधाओं में पहली बार हिन्दी में इस तरह अपनी पूरी छटा और ध्वनियों में आयी हैं। रेणु की भाषा चित्रबिम्ब, ध्वनिमय तो है ही – उसमें बखान भी बहुत सूक्ष्म और लालित्य भरा है। उसमें बखान का संगीत है: वर्णमाला और स्वरलिपि एक-दूसरे की हिली-मिली सखी जैसी हैं। यह उल्लेखनीय है कि स्वयं बिहार से आनेवाली समवर्ती कविता में ऐसी बिम्बमालाएँ और अन्तर्ध्वनियाँ कम हैं। रेणु की नित्यलीला में गद्य में जब-तब कविता बहुत सहज ढंग से आती रहती है जैसे वह पड़ोस की सखी हो, जिसे अलग से निमन्त्रण की दरकार नहीं।

यों भी जीवन परिवर्तनशील होता है और हमारे समय में यह परिवर्तन बहुत तेज हो गया है। ऐसे समय में साहित्य को कुछ जो परिवर्तन के सैलाब में हमेशा के लिए बहकर गायब हो जाएगा उसे दर्ज करने, उसका विशद बखान कर उसे भाषा में और इस तरह सामाजिक स्मृति में बचाने की कोशिश करना जरूरी हो जाता है। जीवन की जिस नित्यलीला का बखान रेणु करते हैं, उसमें जो व्यतीत हो जाएगा उसे भाषा में बचाने की कोशिश भी शामिल है। जिस अंचल को रेणु ने अपनी कथा का उपजीव्य बनाया था, वह निश्चय ही एक अधसदी से अधिक समय बीत जाने के बाद अब वैसा नहीं रह गया होगा जैसा तब था। अब वह बचा है रेणु की गाथा में, अपनी अपार रंगतों और प्रसंगों में, अपनी अन्तर्ध्वनियों और बिम्बों में, अपने अविस्मरनीय चरित्रों में। वस्तुस्थिति में हुए अनिवार्य परिवर्तन इस गाथा को धूमिल नहीं कर सकते: वह स्पन्दित जीवन रेणु की कृतियों में सजीव, सार्थक और प्रासंगिक है। यही नहीं, ये कृतियाँ अपने जीवन द्वारा स्वयं अपने रचयिता रेणु को उनके भौतिक अवसान के चार दशकों से अधिक समय बीत जाने के बाद पुनर्जीवन देती हैं। एक तरह से यह साहित्य ही रेणु का अक्षय जीवन है, दूसरा जीवन जो बिरलों को ही नसीब होता है। नित्यलीला का गाथाकार अपनी गाथा में अनित्य है।

एक सच्चा और बड़ा लेखक अपनी कृतियों से अपना यथार्थ कल्पित करता और रचता है: यह रचा गया यथार्थ दिये हुए यथार्थ जैसा लगते हुए भी अपने मर्म और आशयों में उससे अलग होता है– वह दिए हुए यथार्थ में इजाफा भी करता है और पाठकों-रसिकों के यथार्थ-बोध को प्रायः विचलित, परिवर्तित और संशोधित करता है। रचित यथार्थ अन्ततः लेखक का एक संसार गढ़ता है जो कई अर्थों में अद्वितीय और अप्रत्याशित होता है। वह हमें चकित करता है और फिर भी बहुत अपना लगता है – इतने पास अपने जैसा कि शमशेर की एक पंक्ति है। बिना किसी संकोच के यह कहा जा सकता है कि रेणु ने अपनी अनूठी भाषा से जो यथार्थ और संसार रचे, वे भी अनूठे थे, हैं: उन्हें समय और परिवर्तन ने बासा या व्यतीत नहीं किया है। रेणु जैसे लेखक में जो समय है वह नित्य लीला का समय है, अदम्य जिजीविषा का समय है और ऐसा समय कभी व्यतीत नहीं होता, न ही रीतता है।

अशोक वाजपेयी समकालीन हिन्दी साहित्य के एक प्रमुख साहित्यकार हैं। वे जी भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक पूर्वाधिकारी हैं, परन्तु एक कवि के रूप में उनकी प्रसिद्धि अधिक है। ‘कहीं नहीं वहीं’ काव्य संग्रह के लिए सन् 1994 में उनको भारत सरकार द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया तथा महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालयवर्धा के कुलपति भी रह चुके हैं।

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samved

साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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