हिन्दी में छायावाद : संक्षिप्त तुलना
पिछले लेख से पाठक ‘छायावाद’ का स्थूल-रूप समझ गये होंगे। अब उसी के आधार पर संक्षिप्त तुलना द्वारा यह स्पष्ट कर दिया जाता है।
- साहित्य की जो प्राचीन प्रणाली है उसमें शब्द और अर्थ का अविच्छिन्न सम्बन्ध रहता है। हमारे प्राचीन कवि ‘ वागर्थप्रतिपत्ति ‘ के लिए प्रार्थना किया करते थे। पर ‘छायावाद’ वालों की गति ठीक इसके विपरीत है। वे वागर्थ का सम्बन्ध काट देने में ही अपनी काव्य-कला की पराकाष्ठा समझते हैं।
- प्राचीन प्रणाली में सरलता, स्पष्टता, सम्बद्धता और समता का विशेष ख्याल रखा जाता है ; पर इसमें जटिलता, अस्पष्टता, असम्बद्धता और विषमता आदि विपरीत गुणों का ही प्राधान्य रहता है।
- पहली प्रणाली के काव्य-पाठ से एक विशेष-प्राप्ति होती है, पर इसमें प्राप्ति के विषय में पाठक को संशय बना ही रहता है।
- पहले प्रकार में ‘ प्रासादिकता ‘ का बड़ा आदर है ; पर ‘छायावाद’ के साथ उसका नाम तभी लिया जा सकता है जबकि उसका सम्बन्ध अर्थ की स्पष्टता से तोड़ा जाकर केवल एक तरह के भावावेश की सनसनाहट अथवा हृदय के आनन्द-स्पन्दन से ही जोड़ दिया जाये।
- वर्तमान प्रणाली में रूपक का अभाव नहीं है। ‘छायावाद’ का तो वह शरीर ही है। पर इन दोनों के रूपक में बहुत अन्तर है। प्रथम प्रकार के रूपक वस्तु-संगति और पूर्वापर-र-सम्बन्ध की पूर्ण रक्षा करते हैं ; पर दूसरे प्रकार के रूपक को ‘तूफान’ से कम न समझिए।
अच्छा, अब ‘छायावाद’ के गुण-दोषों पर आइए। इस विषय पर श्रीयुत शशांकमोहन सेन ने अपने ‘यूरोपेरवीन्द्रनाथ’ नामक प्रबन्ध में विद्वत्तापूर्ण विवेचन किया है। एक अंश का मर्म यहाँ दिया जाता है।
छायावाद एक श्रेणी के पाठकों को जिस प्रकार प्रिय है, उसी प्रकार वह दूसरी श्रेणी के पाठकों को अप्रिय भी हो सकता है। भाव, भाषा और विषय-वस्तु की सुदृढ़ संगति ही साहित्य का सनातन लक्षण है। रचना के मर्म का आभास मात्र पाने से काम नहीं चल सकता। पाठक के चित्त पर जो भाव अंकित होता है पदों और वाक्यों से उसकी सामंजस्य-रक्षा होने से जो विरक्ति हो सकती है, वह केवल ‘साधारण अर्थ-बोध’ के आनन्द से दूर नहीं की जा सकती। बड़े-बड़े काव्यों में यह दोष उतना खटकने पर भी छोटी-छोटी रचनाओं के पक्ष में वह घातक हो सकता है। लेखक की साधुता पर ही निर्भर रहना अवश्य विराग उत्पन्न करने वाला है। अतएव ‘छायावाद’ के आदर्श-माहात्म्य को देखते हुए भी उसे एक प्रकार ‘चरम-पन्थी’ कहने में कुछ भी संकोच नहीं होता। आगे चलकर यह ठहर सकेगा या नहीं यह बात भी अभी संशयात्मक ही है। यथार्थ में अलंकार-शास्त्र का दोषाध्याय काल्पनिक नीति-नियमों की समष्टि मात्र नहीं है। उसकी नींव शिल्प-तत्व और मनुष्यों के मनस्तत्त्व के अलंघनीय नियमों पर रक्खी गयी है। न्याय-शास्त्र का अतिक्रम करके कोई कार्य विद्वानों की सहानुभूति नहीं प्राप्त कर सकता, चाहे वह कार्य कितना ही बड़ा क्यों न हो। छायावादियों का कहना है कि तर्क (Logic) के पीछे-पीछे चलने से सब समय अच्छी कविता नहीं बनती। किन्तु इसके अनुसार ही भला वे कब कार्य कर सकते हैं। मनुष्यों का मन सदैव एक ही अवस्था में नहीं रह सकता। कौन कह सकता है कि आज जो पदार्थ, एक कवि के हाथ में, उसकी भाषा और प्रणाली की विवशता से अपरिहार्य रूप से अस्पष्ट बोध हो रहा है, वही कल किसी दूसरे समर्थ कवि द्वारा वागर्थ के राज्य में स्थैर्य लाभ कर पाठकों के प्राप्ति-भण्डार की वृद्धि कर दे। कहने का मतलब यह है कि साहित्य अथवा प्रतिभा की कोई सीमा नहीं है। सीमा है तो कवि की शक्ति की। इस स्थान पर बड़े-से-बड़े साहित्यिक की सम्मति भी अग्राह्य हो सकती है। कौन कह सकता है कि इस दुर्बलता को लेकर ही साहित्य का अन्त है? हमारे ही यहाँ ‘छायावाद’ के विषय में लोगों के दो दल हो रहे हैं, एक समर्थक और दूसरा विरोधी। इस देश के इतिहास में दोनों ही दल विस्तार की दृष्टि से तुलना-रहित हैं। मनुष्यों के सनातन मनस्तत्त्व के भीतर ही इसका रहस्य छिपा है। मनुष्य चिरकाल से अपनी शिक्षा-दीक्षा, कथोपकथन, कार्या-कार्य आदि जीवन की सब बातों में न्याय-नीति की संगति साधित करता आ रहा है। समाज में भी मनुष्य-मनुष्य में जो पारस्परिक अन्तर है, अच्छे-बुरे, छोटे-बड़े, सुबोध-अबोध इनमें जो प्रकृत पार्थक्य हैं, उनका ज्ञान हमें अपने वाक्य और अर्थ, आलाप और चिन्ता के द्वन्द्व-क्षेत्र में से होकर न्याय-साधना से ही प्राप्त होता है।
मनुष्य जान-बूझकर न्याय-आदर्श को अस्वीकार करके केवल अस्पष्टता-जीवी बनकर कदापि नहीं रह सकता। केवल काव्य-उपभोग के लिए वह अपने चिर-जीवन के न्यायादर्श को कदापि अस्वीकार नहीं कर सकता। साहित्य यदि स्पष्ट रूप से तर्क को अस्वीकार कर दे तो जन-समाज में उसका माहात्म्य बहुत कम पड़ जाये। फिर तो पाठकों पक्ष में उसका ‘ प्रसादोपि भयंकरः ‘ हो जाये तथा मनुष्य समाज के शास्त्रकार अथवा हितचिन्तकों को उनकी ‘ काव्यालापांश्च वर्जयेत्’ नीति को सुदृढ़ करने के लिए एक और साधन मिल जाये। छायावादी इस अस्पष्टता के आदर्श को समाज के सामने कभी प्रतिष्ठित नहीं कर सके हैं और न धर्म के क्षेत्र में ही। अव्यक्त लोक के विषय में भी मानव-भाषा की अस्पष्टता यथार्थ में अपरिहार्य अथवा न्याय-संगत है। क्या मनुष्यों की यह जिज्ञासा चिरदिन बनी रहेगी?
हाँ, अब आइए, दूसरे पहलू से देखें। मनुष्य की दृष्टि के सामने इस समय चारों ओर एक सीमा बोध हो रही है। यह सीमा चिरकाल बनी रहेगी, इसमें भी संशय नहीं। विज्ञान की परम-प्राप्ति के बाद भी अनन्त अज्ञान बना ही रहेगा। मनुष्य इस अस्पष्टता को कभी दूर नहीं कर सकता। अतएव मनुष्य-जीवन में अस्पष्ट कविता का एक सम्भव-क्षेत्र सदैव विद्यमान समझना चाहिए। आज जो बात अस्पष्ट है, वह कल स्पष्ट हो सकती है। पर इतना होने पर भी, इस अनन्त-गतिशील भूत चक्र की रंगभूमि मनुष्यों की दृष्टि में उसके आदि-अन्त के विषय में चिरकाल अव्यक्त ही बनी रहेगी। इस विषय में प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं। गीता के ‘ अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ‘ आदि वाक्य सृष्टि के प्रारम्भ में जिस प्रकार सत्य थे, उसी प्रकार यदि कभी सृष्टि का अन्त सम्भव हो तो उस समय भी उसी प्रकार सत्य बने रहेंगे। जिस प्रकार पूर्वोक्त विषय की मीमांसा के लिए चिरकाल तक अभिज्ञ-व्यक्ति की अपेक्षा बनी रहेगी उसी प्रकार मनुष्यों के भाव-राज्य की इस अव्यक्त-विलासिता तथा छायावादिता की प्रवृत्ति को भी अमर समझना चाहिए। अतएव साहित्य में वह एक तरह अपरिहार्य है।
इस स्थल पर यह स्वीकार करना पड़ता है कि इन चरम-पन्थों का उपार्जन सर्व-सम्मत और सनातन-प्राप्ति है या नहीं। इस विषय में संशय बने रहने पर भी अब उसके प्रचार को अधिकांश लोग विद्वेष अथवा घृणा की दृष्टि से नहीं देखते। संसार के बड़े-बड़े साहित्य-मर्मज्ञ विद्वान इस सिद्धान्त पर आ उतरे हैं कि भविष्यत् में इस मार्ग से साहित्य की एक स्थायी प्राप्ति घटित होगी।
अब हम यह देखते हैं कि भारतीय दृष्टि से ‘छायावाद’ का क्या गौरव है। हम कह आये हैं कि ‘ आध्यात्मिकता ‘ और ‘ धर्म-भावुकता ‘ छायावाद के अभिन्न अंग हैं। सांसारिकता (Materialism) के दृढ़-पाश से जकड़े हुए पश्चिमीय-हृदय को वे नवीनता-पूर्ण भले ही मालूम हों ; पर भारत की तो वे एक तरह चिरन्तन वस्तुएँ हैं। अतएव ‘छायावाद’ के स्वागत करने में हमारी राय में, उसे कोई आपत्ति नहीं हो सकती। उसके धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक जीवन की नितान्त सामान्य घटनाएँ भी भावुकता से भरी हुई हैं। बहुत से लोग कहते हैं कि उसकी वर्तमान दैन्य-दुर्बलता का भी मूल कारण यह भावुकता ही है। पर धन्य उसका आध्यात्म-प्रेम कि वह इन बातों की कोई परवाह न कर सांसारिक अधिकारों को एक तरह अन्य जातियों के हवाले कर आप प्रकृति देवी की पुण्य-गोद में-शान्त तपोवन में समाधिस्थ होकर-अव्यक्त-चिन्ता में ही मग्न रहा। आज उसका सर्वस्व हरण हो चुका है। इस समय यह भावुकता ही उसका एकमात्र गर्व है। वही उसके पंगु-जीवन की निर्भर-यष्टि है।
जिस हिन्दू-जाति के सैकड़ों मनुष्य बीसवीं सदी की सभ्यता और विज्ञान के आलोक में भी घर-द्वार और संसार से मुख मोड़कर अरण्य में चले जाते और अकिंचन-भाव से अध्यात्म-चिन्ता में जीवन बिताते हैं उस जाति का साहित्य भी यदि ‘ शीतल पवन और चटक चाँदनी ‘ का उपभोग करके ही जीवन धारण कर सके अथवा उस अव्यक्त की ओर कुहेलिकापूर्ण दृष्टि डालकर ही वर्द्धित हो सके तो इसमें कोई विचित्रता नहीं।
हमारी इच्छा है कि कोई सुयोग्य व्यक्ति उसकी स्वतन्त्र और विस्तृत आलोचना प्रकाशित करा के साहित्य-प्रेमियों पर यह स्पष्ट प्रकट कर दे कि उसके प्रचार से हानि-लाभ की कहाँ तक सम्भावना है। इसके लिए यही उपयुक्त समय है। अभी तक वह हमारे साहित्य-मन्दिर की सीढ़ियों पर ही है। भीतर प्रवेश प्राप्त कर लेने पर उसे बाहर निकालने का आयास व्यर्थ होगा। हममें से अनेक ऐसे होंगे, जिन्हें उसके सीढ़ियों पर के इस आरोहण-प्रयास का कुछ भी ज्ञान न होगा। पर सूक्ष्मदर्शी व्यक्तियों की दृष्टि में यह बात अवश्य आ गयी होगी। सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में इन दिनों जो पद्य प्रकाशित होते हैं उनमें से अधिकांश में रूपकों की भरमार रहती है। एक अर्थ प्रकट करते हुए अन्य अर्थ की ओर इशारा करना ही इनका मुख्य काम होता है। हम इसे ‘छायावाद’ के आगमन की पूर्व सूचना समझते हैं।
यद्यपि हिन्दी में इस रीति के मौलिक ग्रन्थों का क्षेत्र अभी एकदम शून्य पड़ा है, तथापि कल्पना की चोटी से भावा-राधन का ‘ प्रसाद ‘ स्वरूप एकाध ‘ झरना ‘ बह चला है। सम्भव है, शीघ्र ही उसकी निर्जलता दूर होकर वह हरा-भरा हो उठे। हमारे काव्य-सागर में भी भावुकता की हलकी तरंगें उठने लगी हैं। वृद्ध नाविक ने एक ओर से अपनी जीर्ण तरी छोड़ दी है और उस पर से बंशी की क्षीण स्वर-लहरी आती हुई सुन पड़ने लगी है। किन्तु किनारे पर के लोगों का कान उस ओर अभी तक नहीं गया है और वे और-और बातों में ही उलझे हुए हैं। वह स्वर-लहरी अपना माया-जाल अवश्य विस्तार कर रही है। लोगों का ध्यान उस ओर बिना आकर्षित हुए नहीं रह सकता। पर ऐसा होने में अभी बहुत विलम्ब है। ‘छायावाद’ का प्रचार साहित्य की चरम उन्नति पर अवलम्बित है।
साहित्य के क्रम-बद्ध अध्ययन से मालूम होगा कि जिस प्रकार किसी एक कवि की रचना-धारा क्रमशः प्राकृतिक, सांसारिक और आध्यात्मिक भूमि पर से प्रवाहित होती है उसी प्रकार सम्पूर्ण साहित्य के प्रवाह को भी उक्त तीनों स्थितियों में से जाना पड़ता है। अन्तिम स्थिति में उसमें ‘छायावाद’ आकर मिलता है। हिन्दी-साहित्य का एक पैर अभी दूसरी स्थिति पर ही जमा हुआ है। अतएव ‘छायावाद’ के सम्पूर्ण आगमन में स्वभावतया कुछ विलम्ब समझना चाहिए। साहित्य के संचालक समाज की साधारण योग्यता का सदैव ध्यान रखते हैं। हिन्दी में ‘छायावाद’ के पाठकों की संख्या इस समय कितनी होगी? यदि इस समय उसका साहित्य तैयार भी हो जाये, तो उसके पाठ से कतिपय शिक्षित लोगों के सिवा साधारण लोग बहुत कम आनन्द-लाभ कर सकेंगे, यद्यपि इस प्रकार का साहित्य शिक्षित पाठकों के लिए ही होता है और उनकी संख्या सब कहीं परिमित ही होती है, तथापि हिन्दी में वह अत्यन्त ही परिमित कही जायेगी। ‘झरना’ जैसी ‘मीष्टिक’ रचना का आदर जैसा चाहिए वैसा हिन्दी-जनता में न हो सकने का कारण और क्या हो सकता है? जहाँ हमसे उसकी ‘ अस्पष्टता ‘ दोष का उल्लेख अनेकों ने किया वहाँ उसके ‘रत्न’ और ‘एकतारा’ आदि पद्यों की तारीफ सिर्फ दो-एक के मुख से ही सुनी गयी।
जो लोग ‘छायावाद’ को अनावश्यक और हानिकर समझते हैं उनसे हमारा कहना है कि गुण-दोषमयी तो यह सृष्टि ही है। यदि प्राचीन प्रणाली हृदय को आनन्दित कर बुद्धि को प्रखर करती है, तो वह भी कुछ उसे उदास और मन्द नहीं बनाती, प्रत्युत् जैसा कि कहा गया है, उसे मन-बुद्धि के परे एक अज्ञात प्रदेश में ले जाती है। यद्यपि यह प्रदेश मेघाच्छन्न होता है, तथापि उस पर विद्युल्लता की अपूर्व छटा होती है। उसके दर्शन से जो आनन्द-बोध होता है वह अनिर्वचनीय है, यह प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं। इसके सिवा, ‘छायावाद’ काव्य-कला का एक अपूर्व निदर्शन है। कवि की लेखनी का चातुर्य और सूक्ष्मातिसूक्ष्म चमत्कार देखना हो तो छायावाद पढ़िए। हम इस विषय पर आलोचना और सम्मति-प्रदान करने की प्रार्थना पहले कर आये हैं। हमारी व्यक्तिगत क्षुद्र सम्मति तो यह है कि ‘छायावाद’ को हिन्दी-साहित्य में अवश्य स्थान मिलना चाहिए। हिन्दी में ‘आध्यात्मिक-साहित्य’ का एकदम अभाव न होने पर भी वह कदाचित् पर्याप्त नहीं। ‘छायावाद’ से उसकी अभिवृद्धि अवश्यंभावी है। दूसरी किसी दृष्टि से नहीं तो केवल इस विचार से ही उसका प्रचार वांछनीय होना चाहिए कि वह आन्तरिक गूढ़ भावों के प्रकाशन की एक नवीन और विलक्षण रीति है। हम यह नहीं चाहते कि वागर्थ-प्रतिपत्ति की सरल, सुन्दर, प्रासादिक रचना-प्रणाली को इससे कुछ हानि पहुँचे। यथार्थ में इस विचार से ‘छायावाद’ का प्रचार करने वाले कुछ थोड़े गरमदल वालों को छोड़ बहुत कम होंगे। पन्हें यदि साहित्य-शत्रु कहा जाये तो अनुचित न होगा। ‘छायावाद’ अध्यात्म-जगत् को लेकर खेलने की वस्तु है। जीवन-यात्रा में उसका बहुत कम हाथ रहता है अतएव केवल उसे ही लेकर जो जीना चाहते हैं वे अवश्य भूलते हैं वह मुट्ठी-भर लोगों की क्रीड़ा-भूमि है। उसमें साधारण जगत् का निर्वाह नहीं। यदि पृथ्वी पर स्वर्ग भी उतर आवे, तो भी ऐसा समय नहीं आयेगा कि छोटे से लेकर बड़े तक सब लोग ‘छायावाद’ से आत्म-तृप्ति लाभ कर सकें। तात्पर्य यह कि प्राचीन प्रणाली को किसी तरह हानि पहुँचाए बिना छायावाद के योग से साहित्य को परिपुष्ट करना ही अभीष्ट होना चाहिए। प्रासादिक-रचना के महत्त्व से विज्ञ पाठक अवश्य सुपरिचित होंगे। अभी उस दिन जब हम श्रीमद्भागवत् का दशम स्कन्ध पढ़ते-पढ़ते रो पड़े थे तब हमने सोचा कि ऐसी सरल, सरस एवं स्वाभाविक रचना का भी तिरस्कार क्या किसी हृदय से स्म्भव है? नहीं, कदापि नहीं। तो फिर जैसा कि ऊपर लिखा गया है, ‘छायावाद’ की आवश्यकता हम इसीलिए समझते हैं कि उससे कवियों को भाव-प्रकाशन का एक नया मार्ग मिलेगा। इस प्रकार के अनेक मार्गों-अनेक रीतियों का होना ही उन्नत साहित्य का लक्षण है।
हिन्दी के लिए छायावाद का समय दूर है। पर यदि इनके कवि और पाठक कुछ ध्यान दें तो थोड़े ही समय में उसका मार्ग साफ हो सकता है। पाठकों को चाहिए कि वे अपनी रुचि का कुछ संस्कार करें। यह सत्य है कि उन्हें ‘छायावाद’ का मर्म समझने के लिए श्रम करना पड़ेगा। कदाचित् श्रम करने पर भी शीघ्र सफलता प्राप्त न हो। पर स्मरण रखना चाहिए कि जो चीज अनायास मिल जाती है उससे श्रम-प्राप्त वस्तु अधिक स्थायी होती है। जिस वस्तु के प्राप्त करने में जितना अधिक समय लगेगा उसका मूल्य भी उतना ही अधिक होगा। इस प्रकार छायावाद उन्हें अपनी बुद्धि, कल्पना और अनुमान विस्तार करने के लिए उत्तम क्षेत्र का काम देगा। कवियों को और अधिक सावधान रहने की आवश्यकता है।
‘छायावाद’ की कविता करना, जैसा कि बहुत लोग सोचते हैं, सहज नहीं ; प्रत्युत् अत्यन्त कठिन है। सबसे ऐसी रचना अच्छी बनती भी नहीं। बहुत से लोग इधर-उधर से बे-सिर-पैर की बातें लाकर जुटा देने को ही ‘छायावाद’ की रचना समझते हैं। यह सच है कि बाह्य दृष्टि से उसमें असम्बद्धता पायी जाती है ; पर कवि के अन्तर्जगत् से जरूर उसका सामंजस्य रहता है। अतएव वह पागल का प्रलाप-मात्र नहीं है, वह एक उच्च कला है। उसमें सफलता प्राप्त करने के लिए भाषा और छन्द पर पूर्ण अधिकार के साथ-साथ कुछ अध्यात्म-ज्ञान रहना भी आवश्यक है।
‘छायावाद’ के प्रचारेच्छुक कवियों को चाहिए कि वे अपनी रचना को प्रारम्भ में अत्यन्त जटिल न बनाकर पाठकों की योग्यता और रुचि के विचार से कुछ सरल और सम्बद्ध रखने की चेष्टा करें। इस उपाय से ही पाठकों का चित्त उसकी ओर आकर्षित होगा।