संवेद्य
कविता विरोधी समय में कविता के पक्ष में कुछ बातें
- किशन कालजयी
बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक ने भारतीय व्यवस्था के साथ यहाँ के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन को पूरी तरह प्रभावित ही नहीं किया है, बदल भी डाला है । 1990 के बाद आई आर्थिक उदारीकरण की नीति ने जिस तरह से समूचे भारत को बाजार में बदल दिया है यह इस शताब्दी की एक बड़ी सांस्कृतिक दुर्घटना है ।
इस व्यवस्था ने हमारे स्वदेशी उद्योगों को नष्ट कर दिया, बैंकों से कर्ज लेना बहुत आसान हो गया, विदेशी वस्तुओं के लिए बाजार सुलभ हो गए, बहुराष्ट्रीय निगमों के व्यापारिक हितों की रक्षा में देशी निगमों की कुर्बानी दी गयी । अर्थापेक्षी समाज में एक ऐसी संस्कृति विकसित होने लगी जिसमें केवल खरीद– फरोख्त यानी खरीदने और बेचने की नीति ही महत्त्वपूर्ण हो गयी । भारतीय भाषाओं के संकुचन, बेपनाह बेकारी और गरीबी का प्रसार, समाज में गहरी पैठती गैरबराबरी और हिंसा, असहनशीलता, व्यक्तिवाद, धार्मिक उन्माद और धन की प्रभुता पर आधारित अमानवीय कुकृत्यों को बढावा देने में इस अर्थनीति का बहुत बड़ा हाथ है ।
भूमण्डलीकरण के दौर ने हमें एक ऐसे रास्ते पर धकेल दिया है जहाँ से पीछे लौटने का कोई विकल्प हमारे पास नहीं है, खीजते–झखते, गिरते–लड़खड़ाते हम उसी रास्ते पर आगे बढ़ते रहने के लिए विवश हैं ।
समय की जटिलता और विद्रूपता भी मोहक शब्दों के सुन्दर आवरण से इस तरह ढंका होता है कि लगता है सब कुछ सही है । ‘आधुनिकता’ को हम ठीक से समझते, उसके आँगन में उतरते, उसके साथ सांस्कृतिक तालमेल की कोशिश करते तब तक वह ‘आधुनिकता’ ‘उत्तर आधुनिकता’ में तब्दील हो गयी । ‘उदारीकरण’ का ढोल जिस तरह से पीटा जा रहा है, लगता है यह मानवीय गुणों से लैश बाजार का कोई नया चेहरा है, लेकिन हकीकत में यह उदारीकरण सांस्कृतिक बर्बरता का श्रोत है । बाजारवाद ने ‘विश्व उपभोक्ता’ तैयार करने की ऐसी आक्रामक अन्तर्राष्ट्रीय मुहिम चला रखी है जिसके सामने दुनिया के बड़े बड़े लोकतान्त्रिक देश घुटने टेक चुके हैं । जब लोकतन्त्र को कारपोरेट चलाएगा तो फिर नागरिक कहाँ बचेंगे,उन्हें उपभोक्ता ही होना पड़ेगा ।
लोकतन्त्र के चारो खम्भे (कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका और खबरपालिका) इस तरह हिले हुए हैं कि पूरा तन्त्र लूट, अन्याय और भ्रष्टाचार पर ही टिका हुआ है । ऐसे में मनुष्य विरोधी परिवेश की व्याप्ति लगातार बढ़ती जा रही है । मानव सभ्यता के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि मनुष्य की सामूहिकता संकट में है । शहरों, महानगरों के भीड़ भाड़ वाले इलाके में रहते हुए भी मनुष्य इतना अकेला इसके पहले कभी नहीं हुआ था । अकेलेपन के ही विरुद्ध हम साहित्य रचते हैं और साहित्य पढ़ते हैं । साहित्य से हमेशा यह अपेक्षा रही है कि सामाजिक सांस्कृतिक अवमूल्यन के दौर में वह मोर्चा ले और समाज को बौद्धिक नेतृत्व प्रदान करे । साहित्यकारों की निजी रचनात्मक ईमानदारी के बावजूद आज यदि यह सम्भव नहीं हो पा रहा है तो इसलिए कि साहित्य की सामाजिक भूमिका लगभग असरहीन हो गयी है । साहित्य की रचना बड़े पैमाने पर हो रही है । ढेर पत्र–पत्रिकाएँ निकल रही हैं । कविता, कहानी, आलोचना और लेख खूब प्रकाशित हो रहे हैं, किताबें प्रकाशित हो रही हैं, साहित्यकारों को सम्मान और पुरस्कार मिल रहे हैं, लेकिन इनका समेकित असर कहीं नहीं दिख रहा है । एक रचनारत समय का यह रचनाविरोधी माहौल अत्यन्त ही दुर्भाग्यपूर्ण है ।
यह दुर्भाग्य कविता के मामले में थोड़ा ज्यादा ही है । आज के समय में कवि बाहर और भीतर से दोहरी चुनौती का सामना कर रहा है । उसकी बाहरी चुनौती यह है कि वह समकालीन यथार्थ की जटिलताओं को पहचानने और उसे अपना काव्यतत्त्व बनाकर एक प्रभावशाली कविता रचने में कामयाब हो । उसकी अन्दरूनी चुनौती यह है कि वह अपनी हैसियत और सामाजिक असर को बनाये रखे । डॉलर के मुकाबले रुपया जिस तरह लगातार गिरता जा रहा है, साहित्य में कविता के बाजार भाव को भी कम करके बताया जा रहा है । यह कहना बेहतर होगा कि साहित्यिक परिदृश्य में आज पूरी तैयारी के साथ कविता विरोधी माहौल बनाया जा रहा है । बेहद बेशर्मी से ये बातें प्रचारित की जा रही हैं कि ‘यह समय कविता का नहीं है’, ‘लोग कविता पढ़ते नहीं’, ‘कविता की किताबें बिकती नहीं’ । मिलाजुला कर कविता के सन्दर्भ में कोई उत्साहजनक दृश्य नहीं है और नये लोगों को आकर्षित और प्रेरित करने की इसकी क्षमता लगभग क्षीण हो गयी है । आज के सौ युवाओं में से एकाध ही ऐसे मिलेंगे जो कवि बनने की इच्छा रखते हों । कभी–कभी तो कविता लिखने वालों का जिस तरह से मजाक उड़ाया जाता है वह बहुत ही अश्लील और अमर्यादित लगता है । जबकि कविता के विरोध में जिस तरह की जितनी बातें की जा रही हैं सच वही नहीं है । अन्य साहित्यिक विधाओं की तुलना में कविता ज्यादा सम्प्रेषणीय है । कम शब्दों में ज्यादा असर करने की क्षमता जितनी कविता में है वह अन्य विधाओं में दुर्लभ है । पिछले 150 वर्षों में सबसे ज्यादा कविता ही पाठकों के जुबान पर रही है ।
स्वतन्त्रता आन्दोलन के दिनों में कवियों की बड़ी इज्जत थी । औपनिवेशिक शासन के खिलाफ अपनी रचनाओं से साहित्यकारों ने पूरे समाज को उद्वेलित किया था । वह चाहे 1857 का विद्रोह हो या हिन्दी का नवजागरण या फिर स्वाधीनता आन्दोलन हो या 1974 का जन आन्दोलन, हिन्दी कविता ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है । शायद इसलिए तब सिर्फ आन्दोलनकारी ही नहीं हमारे साहित्यकार और पत्रकार भी हमारे नायक हुआ करते थे । उस दौर की एक विशेषता यह थी कि साहित्य के लोग राजनीति को और राजनीति के लोग साहित्य को प्रभावित करते थे । माखनलाल चतुर्वेदी, सियारामशरण गुप्त, बालकृष्ण शर्मा नवीन और सुभद्रा कुमारी चैहान की देशभक्ति रचनाओं ने न जाने कितने देशभक्त आन्दोलनकारियों को तैयार किया । राजनीतिज्ञों का साहित्यिक समाज पर यह असर था कि 8 फरवरी 1921 को प्रेमचन्द ने महात्मा गाँधी का भाषण सुना और 12 फरवरी को उन्होंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया । फिर उन्होंने ‘स्वराज्य के फायदे’ शीर्षक से पैम्फलेट प्रकाशित कराया । प्रेमचन्द के साहित्य में अनेक जगह गाँधी जी का प्रभाव देखा जा सकता है । जवाहर लाल नेहरू और राम मनोहर लोहिया से भी कई साहित्यकार प्रभावित दिखते हैं । एक समय वह था जब राजनीति साहित्य को प्रभावित करती थी । और आज––– ? आज के पढ़े–लिखे सांसदों से भी अगर यह सवाल किया जाए कि वे अपनी भाषा की कितनी कविताएँ और कितने कवियों को जानता है ? तय मानें जवाब बहुत ही निराशाजनक आएगा । इसके उलट कविता से यदि यह सवाल किया जाए कि राजनीति पर उसका क्या असर है तो कोई आशाजनक उत्तर नहीं आएगा ? यानी साहित्य और राजनीति के बीच की आवाजाही और परस्परता स्थगित है । तो क्या इसका मतलब यह लगाया जाना चाहिए कि साहित्य और राजनीति दोनों अपनी–अपनी भूमिका में असफल हैं ? यहाँ यह कहना ज्यादा सटीक होगा कि बाजार अपनी मंशा में ज्यादा सफल हो गया । उसने राजनीति को लगभग खरीद लिया और साहित्य पर अपना नियन्त्रण मजबूत कर लिया । ऐसे में जो समाज बन रहा है उसे कविता की कोई जरूरत ही कहाँ रहती है ?
कविता की जरूरत को जताना संवेद का बुनियादी उद्देश्य है । इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हमें यह जरूरी लगा कि पिछले बीस वर्षों की कविता पर एक नजर डाली जाए । पिछले बीस वर्षों से हमारा तात्पर्य नयी आर्थिक नीति लागू (1991) होने के बाद के समय से है । इन बीस वर्षों में से बीस कविता पुस्तक को चुनना बेहद कठिन और जोखिम वाला काम था । हमने बीस कविता–पुस्तकों को चुनने का अनिवार्य जोखिम लिया, लेकिन इनके चुने जाने में कहीं यह दावा नहीं है कि हमने बीस सर्वश्रेष्ठ को चुना है । भूमण्डलीकरण का दौर, उस दौर की आन्तरिक जटिलता, उन जटिलताओं से उबरने की जिजीविषा जिन कविता–पुस्तकों में व्यक्त हुई है, वे हमारी प्राथमिकताओं में रहीं । इसलिए जो यहाँ नहीं हैं उनके प्रति कोई नकार का भाव नहीं है, लेकिन जो पुस्तकें यहाँ जिन वजहों से हैं पाठक उन्हें समझने की कोशिश करें । संवेद के इस आयोजन से यह दावा तो नहीं किया जा सकता कि कविता की वापसी हो जायेगी या इसकी हैसियत बढ़ जायेगी । हाँ, कविता को पास बुलाने या कविता के करीब जाने का यह एक उचित माध्यम (सही शुरुआत) हो सकता है । और कविता के करीब जाने का मतलब जीवन के करीब ही तो जाना है ।
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