साक्षात्कार
सबसे बड़ा तय करने वाला दर्शक है
(देवेन्द्रराज अंकुर से अनिल शर्मा की बातचीत)
तेजी से बदल रही दुनिया में रंगमंच का क्या स्थान है और रंगमंच पर इस बदलती दुनिया का क्या असर पड़ रहा है ?
देखिए, रंगमंच का स्थान तो शुरू से रहा है । रंगमंच एक जीवन्त कला है । इसीलिए उसका स्थान कोई दूसरी कला नहीं ले सकती, न टेलीविजन ले सकता है न फिल्म ले सकती है । लेकिन अगर देखें कि इसके ऊपर असर पड़ रहा है तो ये पड़ रहा है कि पिछले सौ साल में जितने भी तकनीकी आविष्कार हमारे सामने आये हैं जिसमे वीडियो उसके बाद टेलीविजन उसके बाद मोबाइल और फिल्में आदि उनमे जिस तरह की तकनीक का इस्तेमाल हो रहा है, अब रंगमंच भी कई बार इनके मोह जाल में जाता दिखाई पड़ता है उसके कारण उसमे जो जीवंत अभिनेता है वो पीछे छूट जाता है तो ये आज की बदलती दुनिया में असर पड़ रहा है । लेकिन मै समझता हूँ कि बदलती दुनिया मे रंगमंच ऐसा माध्यम है जिस पर पिछले तीन–चार हजार साल के इतिहास में ऐसा अतिक्रमण या ऐसा आक्रमण बार–बार हुआ है और हमेशा कुछ समय बाद वह फिर अपने ही स्वरूप में वापस लौट आता है । ऐसा अब भी होगा, अभी नहीं तो कुछ वर्षों बाद हम रंगमंच को अपने उसी रूप मे जीवन्त तत्त्वों के साथ देखेंगे ।
भूमण्डलीकरण के दौर में रंगमंच की क्या चुनौतियाँ है और क्या हिन्दी रंगमंच उसके लिए तैयार है ?
अब ये तो भूमण्डलीकरण में देखने वाली बातें है । उससे फायदा भी हुआ है कि हिन्दुस्तान का रंगमंच दुनिया में घूम रहा है । इससे पहले हिन्दुस्तान के रंगमंच के जाने की बहुत कम सम्भावनाएँ होती थी । लेकिन अब वे बननी शुरू हुई हैं । 1975 से आगे ये काम शुरू हुआ है । दुनिया भर का रंगमंच एक दूसरे के नजदीक आ रहा है । हम सब एक–दूसरे से सीख रहे हैं । वो हमसे चीजें ले रहे हैं हम उनसे बहुत सी चीजें ले रहे हैं । और अपनी – अपनी विशेषताएँ कायम रखते हुए हम एक दूसरे के रंगमंच को एपरिसियेट करते है । इससे पहले तो एक दूसरे के लिए एक्सपोजर ही नहीं था । हम फिर भी पश्चिम के रंगमंच से बहुत–बहुत परिचित थे लेकिन पश्चिमी दुनिया को तो हमारे आधुनिक रंगमंच के बारे में कोई जानकारी नहीं थी । उनके लिए भारतीय रंगमंच का अर्थ था – सिर्फ लोक नाटक । और लोक नाटक भी क्या, लोक संगीत, लोक नृत्य । पारम्परिक भाषा में कहे तो उनके लिए तो ये सांप–सपेरे का देश, बीन और मदारी का देश था । आज इस सारे परिवर्तन के बाद, पिछले 25–30 वर्षों के अन्दर सब वस्तु स्थिति स्पष्ट हो गयी है । अब दुनिया के सामने आज रंगमंच में जितनी भी नयी तरह की चीजें हिन्दुस्तान के रंगमंच में हो सकती हैं उनसे उनका आमना–सामना हो रहा है तो मै समझता हूँ कि ये उसका पोजिटिव इफेक्ट हुआ है ।
लेकिन भारत में तो रंगमंच भरत मुनि के काल से ही उन्नत अवस्था में था ?
बीच में तो खत्म हो गया ना! बीच में एक हजार इसवी से लेकर एक लम्बा इतिहास है । इस दौरान जो लोग भारत पर शासन करने के लिए आये, उनके अपने धर्म में, अपने पूरे रहन–सहन में रंगमंच का कोई कांसेप्ट ही नहीं था । यानी की लीला का कोई कांसेप्ट नहीं था, दृश्य का कोई कांसेप्ट नहीं था तो उसकी वजह से सेटबेक हुआ लेकिन ऐसा नहीं कि रंगमंच उस दौर में खत्म हो गया । हाँ, जो शहरों में रंगमंच हो रहा था, उसको धक्का लगा । लेकिन छोटे–2 कस्बों में, गाँवों में बाकायदा अपनी स्थानीय बोलियों में लोक रंगमंच तब भी हो रहा था और इस तरह से वो धारा कभी टूटी नहीं । लेकिन ये सही है उस धारा से फिर जो शहरी रंगमंच था, मतलब एक हजार इसवी तक उससे कोई सम्पर्क नहीं रहा । इसलिए हमें बार–2 लगता रहा कि रंगमंच खत्म हो गया है, कहीं दिखाई नहीं दे रहा है, इस वजह से ये गलत फहमी पैदा हो जाती है । आज भी हम तो सिर्फ दिल्ली जैसे शहर में बैठकर सोचते हैं कि रंगमंच सिर्फ दिल्ली में हो रहा है और कहीं नहीं हो रहा है । लेकिन स्थिति बिलकुल इसके विपरीत है । रंगमंच दिल्ली से बाहर भी हो रहा है और दिल्ली से ज्यादा हो रहा है । जैसे बेगूसराय जैसा एक छोटा सा टाउन है, साल में इतने फेस्टिवल होते हैं आप कल्पना नहीं कर सकते । अभी मैं पटना से लौटा हूँ । वहाँ एक सप्ताह का महोत्सव था एतिहासिक नाटकों का । और उसमे हम लोगों ने भी 23 फरवरी को अपना प्रदर्शन किया । पूरा हाउस फुल था । लोग इतनी संख्या में आये जो शायद पटना के लोगों ने कभी देखे भी नहीं थे । फिर उससे पहले हम लोगों ने गया में एक प्रदर्शन किया था । गया जैसे शहर में रंगमंच का होना अपने आप में एक उपलब्धि है । ये तो मैं दो–तीन शहरों का जिक्र इसलिए कर रहा हूँ कि अभी–अभी वहाँ आने जाने का अवसर मिला है । लेकिन आप कहीं भी देख लीजिए बहुत काम हो रहा है । लेकिन चूँकि जब तक वो दिल्ली में नहीं होता तो हम लोग ऐसा मान लेते हैं कि यहाँ से बाहर कुछ नहीं हो रहा है । और वे लोग भी बेचारे कुण्ठित रहते हैं कि हम इतने साल से काम कर रहे हैं इसके बावजूद हमें राष्ट्रीय स्तर पर पहचान नहीं मिल रही है । लेकिन भारत रंग महोत्सव जैसा आयोजन जो 1999 में गणतन्त्र के पचासवें साल को मनाने से शुरू हुआ था, इसमें हम लोग देखते हैं कि छोटी–छोटी जगह से लोग दिल्ली में नाटक करने आते हैं और ये उनके लिए भी विशिष्ट अनुभव होता है । और हम, जो दिल्ली में बैठकर सोचते हैं कि बस यहीं से रंगमंच की शुरुआत होती है और यहीं खत्म होती है, तो हमें भी एकदम ताजापन महसूस होता है । छोटी– सी जगह से एक प्रस्तुति आकर अपनी सहजता में अपनी सादगी में और बेशक अपनी अनगढ़ता में इतना ज्यादा असर कर जाती है, जिसे रेखांकित किया जाना चाहिए । हिन्दुस्तान में दस हिन्दी प्रदेश है अब जाहिर है कि बाकी सारी भाषाओं के रंगमंच को हम एकदम पहचान देते है कि एक ही जगह पर हो रहा है । बंगाल का रंगमंच बंगाल में, महाराष्ट्र का महाराष्ट्र में, तमिल का रंगमंच तमिलनाडु में, कन्नड़ का रंगमंच कन्नड़ में । लेकिन हिन्दी के साथ ये समस्या है कि हम कहाँ के रंगमंच को हिन्दी का रंगमंच मानें । अब वो सब जगह पर हो रहा है, इसलिए उसकी कोई संगठित शक्ल दिखाई नहीं दे रही है और लोग दिल्ली को राजधानी होने के कारण कहिये या जो भी एतिहासिक कारण हैं उनके कारण कहिये ,जो दिल्ली में हो रहा है उसी को राष्ट्रीय रंगमंच मान लेते है । दिल्ली का तो जिसे कहना चाहिए कोई अपना रंगमंच है ही नहीं! यहाँ तो सारे बाहर के लोग है ज्यादातर पंजाबी लोग हैं पाकिस्तान–पार्टीशन के बाद जो यहाँ आये या फिर नौकरी की तलाश में जो लोग यहीं पर आकर बस गये । हिन्दी प्रदेशों को केन्द्रित करके अगर कोई समारोह किया जाए और इसके लिए शायद किसी बड़ी संस्था को ही ये पहल करनी पड़ेगी । दस–बारह जो हिन्दी प्रदेश भारत में हैंµउत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, बिहार, हरियाणा कुछ हद तक दिल्ली को भी शामिल कर सकते हैं छतीसगढ़ है झारखण्ड है, इन सबको इसमें शामिल किया जा सकता है । कम से कम नौ–दस दिन का समारोह होगा तो यह समस्या ही खत्म हो जाएगी कि हिन्दी में रंगमंच नहीं है, हिन्दी में नाटक नहीं है और हिन्दी में दर्शक नहीं है । क्योंकि हम लोगों को तो जगह–जगह, कम से कम मुझे व्यक्तिगत रूप से हिन्दुस्तान के चाहे वो हिन्दी के प्रदेश हों, चाहे दूसरे भाषा–भाषी हों – सब जगह जाने का अनुभव रहा है मुझे नहीं लगता कि दर्शक नहीं है, नाटक नहीं है और रंगमंच नहीं हो रहा है, थोड़ा–सा हमें अपनी दृष्टि को लेकर जाना होगा । और फिर समस्याएँ रहेंगी ही नहीं कि यहाँ पर बैठकर हम लोग नाटकों की कमी के उपर बहस करें ।
यानी कि रंगमंच को देखने की हमारी सीमाएँ दिल्ली तक ही सीमित हैं ।
यही तो समस्या है । इसी वजह से जब हम देखते हैं कि पिछले सोलह साल से हम भारंगम में लोग ठण्ड के दिनों में, जनवरी महीने में खूब तादाद में उस फेस्टिवल के नाटको को देखने आते हैं और टिकट खरीदकर देखने आते हैं, लाइनों में खड़े होकर टिकट लेते हैं तो अब ये उत्साह देखने वालों का ही तो है । साहित्य कला परिषद् के इतने नाट्य–समारोह होते हैं उसमे लोग भर–भर के आते है । मुफ्त में देखने के लिए भी आदमी अपने घर से नाटक देखने तो निकला! इससे एक नयी तरह की दर्शक संख्या से हमारा साक्षात्कार हो रहा है । बाहर बैठे दर्शकों के किए स्क्रीन लगानी पडती है, जगह की कमी हो जाती है । पिछले साल हिन्दी अकादेमी ने भी चार कहानियों की प्रस्तुति से शुरुआत की है । और चारों दिन बारिश थी इसके बावजूद खूब दर्शक आये । मजे की बात ये है कि कार्यक्रमों में वे दर्शक आये जो बिलकुल नये दर्शक थे, ताजे दर्शक थे, पढ़े लिखे कालेजों में पढने–पढ़ाने वाले दर्शक थे । तो ये एक क्रास सेक्शन देखने को मिला ये बहुत अच्छा लक्षण है । फिर इसका कारण भी समझ में आता है कि दिल्ली विश्वविद्यालय में और सारे हिन्दुस्तान के विश्वविद्यालयों में धीरे–धीरे नाटक को प्रमुखता मिलनी शुरू हुई है । हम लोगों ने जब 1964 में दिल्ली विश्वविद्यालय में पढाई शुरू की, तब नाटक पढ़ाया जाता अवश्य जाता था लेकिन वो सन्दर्भ सहित व्याख्या करने तक सीमित था । कॉलेजों में भी इक्का–दुक्का नाट्य–संस्थाएँ होती थीं । लेकिन आज गतिविधियाँ बहुत बढ़ गयी हैं । उनको देखकर हम सोचते हैं कि हमारे समय में ये होता तो हमारा एक्सपोजर और भी ज्यादा हो जाता । किरोड़ीमल कोलेज की नाट्य संस्था को ले लीजिये, फिल्म इंडस्ट्री के बहुत सारे लोग वहीं की देन है । चाहे अमिताभ बच्चन, कुलभूषण खरबंदा, सतीश कौशिक जैसे अभिनेता हों या राजेन्द्र नाथ जैसा निर्देशक ।
कैम्पस में तो पहले भी था लेकिन अब कैंपस से बाहर भी कई जगह नाटक हो रहे हैं ।
वही तो । ये चीजें असर डाल रही हैं । अब तो स्कूल लेवल पर भी थियेटर है । एक–दो साल में नियम भी लागू होने जा रहा है कि 11वीं–12वीं में दो साल के लिए यह सब्जेक्ट आएगा और स्टूडेंट इलैक्टिव सब्जेक्ट के रूप में रंगमंच ले सकता है । उसके पास चॉइस होगा जब दो साल कर लेने के बाद अपना आप्शन चुन सकता है वो इतिहास ऑनर्स चुनता है या मेडिकल के लिए जाता है तो ये प्रक्रिया शिक्षा के लेवल पर भी शुरू हो चुकी है । ये सारी चीजें धीरे–धीरे नाटक को प्राथमिकता के स्तर पर ला रही हैं ।
तकनीकी विकास के कारण रंगमंच के स्वरूप में परिवर्तन आया है । यह परिवर्तित रंगमंच अपने समय के साथ कितना चल पा रहा है ?
वो तो आना ही था क्योंकि समय के साथ नयी–नयी तकनीक आ रही हैं शुरू में ही मैंने कहा कि तकनीक बहुत महत्त्वपूर्ण है लेकिन हमेशा ध्यान ये रखना है कि हमें नाटक देखते समय सिर्फ तकनीक ही न दिखाई दे । अन्तत: जो एक जीवित अभिनेता हमारे सामने खड़ा है, तकनीक उसके लिए होनी चाहिए न की वो तकनीक के लिए । अगर इस सारी चकाचैंध में, इस सारे ताम–झाम में आपको न तो अभिनेता दिखाई पड़ रहा है, न नाटक ही आपके पल्ले पड़ रहा है, न नाटक की कहानी ही आपके दिमाग में पहुँच रही है – तकनीकी जटिलताओं के कारण चाहे वो लाइटिंग के माध्यम से, चाहे साउंड के माध्यम से चाहे फिल्म, वीडियो के माध्यम से तो फिर मुझे लगता है कि ये जो स्थिति है वो बिलकुल ही अलग है । और फिर हम किसी दूसरे माध्यम में ही क्यों न काम करें । तकनीक का इस्तेमाल होना है तो फिल्म में इस्तेमाल करो जो उसका सही माध्यम है ।
तकनीक से नाटक का नाटकपन दब जाता है ।
तकनीक नाटक के हिसाब से आये तो कोई समस्या नहीं है लेकिन दर्शक क्या देखने आता है ? दर्शक देखने आता है – ह्यूमन संवेदना, ह्यूमन एलिमेंट, ह्यूमन स्टोरी – और वह यदि ये सारी चीजें लेकर नहीं जा रहा है तो मै समझता हूँ कि तब उस तकनीक का कोई फायदा नहीं है ।
आज के समय में बाजार की तानाशाही हर क्षेत्र में विचार को नियन्त्रित कर रही है, तो ऐसे में नाट्यालेखों की क्या स्थिति है ?
मैं समझता हूँ कि लेखक के ऊपर कोई इतना असर पड़ना नहीं चाहिए और शायद पड़ भी नहीं रहा है । क्योंकि ये एक दूसरा मुद्दा है कि हमारा लेखक अपनी ही दुनिया में जी रहा है, वो रंगमंच से बहुत हद तक कटा ही हुआ है । तो इसलिए बाजार की स्थति हो सकता है उसके कथ्य पर कुछ असर डाल रही हो, लेकिन ऐसा कोई कथ्य अभी नहीं आया है सामने, जो सचमुच में बाजार के दबाव से उपजा हो क्योंकि अभी हमारा नाटककार ज्यादातर पारिवारिक कथ्यों के इर्द–गिर्द ही बन्धा रहता है । बहुत हुआ तो थोड़ा राजनीति, व्यवस्था और व्यक्ति के बीच के अंतर्विरोध तक चला जाता है । ऐसा नाटक अभी तक तक तो आया नहीं जिसने सचमुच में बाजार ने जो दस–बीस सालों में हमारे लिए चुनोतियाँ प्रस्तुत की हैं उनको कथ्य में भी पिरोया हो । हाँ, बाजार के दबाव में हमने प्रस्तुतियों को ज्यादा से ज्यादा तकनीक प्रधान, ज्यादा से ज्यादा आकर्षक और ज्यादा से ज्यादा चका–चैंध वाला बनाना तो शुरू कर दिया है ।
संवेदना के स्तर पर कुछ बदलाव दिखाई दिये हैं क्या ?
संवेदना के स्तर पर तो हम शून्य ही होते जा रहे हैं । यह एक सही स्थिति नहीं है ।
चाक्षुष माध्यमों की चमक–दमक और संचार के अराजक और अश्लील विस्तार ने रंगमंच को कितना प्रभावित किया है ?
रंगमंच में भी ये चीजें आयी हैं लेकिन सबसे बड़ा तय करने वाला दर्शक होता है । दर्शक बहुत दिनों तक इन चीजों को नहीं देख पाता । किसी भी चीज की अति जो है हम फिल्मों को देख सकते है – कितनी फिल्मों में हिंसा होती थी, अब आज भी हिंसा हैं लेकिन उसका स्वरुप बदल गया है । क्योंकि दर्शक ने केवेल और केवल हिंसा को रिजेक्ट कर दिया । अश्लीलता वाले दौर की बात करें तो ऐसी फिल्मों का दौर आ गया था जैसे दादा कोंडके की फिल्में । अब आप बताइये वो फिल्मे कहाँ गायब हो गयीं ? उनके कोई नाम सुनता है ? अति पहला मुद्दा है । दूसरा आप एक चाक्षुष माध्यम में जब चीजों को प्रस्तुत कर देते हैं चाहे वो रंगमंच हो चाहे फिल्म हो तो उसका जो सौन्दर्यशास्त्र है, उसका जो सौन्दर्य–बोध है, उससे हम अलग नहीं हो सकते । हम कहें जीवन में तो ऐसा ही होता है तो मै फिल्म देखने क्यों जाता हूँ ? मैं जीवन में देख लूँगा लड़ाई – और ये और वो! मुझे फिर रंगमंच में देखने की क्या जरुरत है ? रंगमंच जैसे माध्यम में, दूरदर्शन जैसे माध्यम में जीवन को प्रस्तुत कर रहे हैं तो आलरेडी उसका एक रूपान्तरण कर लिया है यानी कि वो उस रूप में नहीं आ रहा है । तो उस माध्यम की अपनी जो प्रकृति है, उस हिसाब से उसको यदि हम तैयार नहीं करेंगे तो मुझे नहीं लगता कि उसका कोई असर पड़ेगा । वरना दर्शक तो रिजेक्ट कर देगा! क्योंकि हमारे दिमाग में एक गलत धारणा बनी हुई है कि हम रियलिटी को रियलिटी की तरह प्रस्तुत करें । इस तरह के दृश्यों रियलिटी की बात करते हैं तो फिर हत्या के दृश्यों में रियलिटी की बात क्यों नहीं करते ? मंच पर कर दीजिए हत्या! यानी कि हम उस जैसा दिखाते हैं वो तो कर ही नही सकते! जब वो कर ही नही सकते तो उसकी कोशिश ही क्यों करना! और रंगमंच हमें यह विकल्प देता है कि हम एक नए रास्ते से चीजों को कर सकते है । उसका एक सीधा–सी व्याकरण भी है, उसकी तकनीक भी है और उसकी पूरी प्रकृति भी है । करने वाले लोग और देखने वाले लोग इस बात को अच्छी तरह से समझते हैं और अगर नही समझते तो उनको समझना होगा और तब दोनों के बीच एक हारमोनीयस सम्बन्ध स्थापित होगा और तभी मै समझता हूँ कि कोई अच्छी प्रस्तुति हमारे अन्दर तक अपनी जगह बनाती है । हमारे नाट्यशास्त्र में या हमारी अपनी परम्परा में उसको साधारणीकरण कहा गया, आज वो काफी हद तक कम होता जा रहा है । अगर वो फिर से वापस आ जाए तो दुविधा बची नहीं रहेगी और हम लोग एक ही धरातल पर होंगे । फिर दर्शक और नाटक करने वाले– हम लोग अभी बातचीत में जो चिन्ता कर रहे है शायद इसकी कोई जरूरत भी नहीं रहेगी ।
बार–बार ये बात उठ रही है कि पिछले 30 वर्षों में अच्छे नाटक बहुत ज्यादा नहीं लिखे जा रहे मंचन भी अनुदित नाटकों का ही हो रहा है ।
मैंने तो आजादी के 50 साल की यादगार नाट्य – प्रस्तुतियों को गिनाते हुए एक लेख भी लिखा है । बहुत नाटक लिखे गए हिन्दी में । ‘महाभोज’ हिन्दुस्तान में सबसे ज्यादा खेला गया । दूसरा नाटक है ‘कोर्ट मार्शल’ । दूसरी भाषाओं में भी अनुवाद हुआ है तीसरा ‘जिस लाहौर नई देख्या’ – आज तक चल रहा है और उतना ही पोपुलर है । जहाँ तक सीरियस या साहित्यिक नाटकों की बात करें तो अन्धायुग सबसे ज्यादा खेला गया नाटक है । राकेश का आषाढ़ का एक दिन भी बहुत खेला गया ।
भारत दुर्दशा, कोणार्क, अन्धायुग, आधे–अधूरे जैसे नाटक आज के दिनों में लिखे ही नहीं जा रहे है ?
लिखने की कहें तो आज की जिन्दगी बदल गई है, आज का स्वर बदल गया है ।
आपने कहानियों का मंचन अधिक किया है क्या कारण है ?
हर आदमी को ऐसा ही लगता है । ये मेरा अपना काम है । क्योंकि मैं साहित्य का विद्यार्थी था । एम–ए– के दौरान मेरा लघु शोध प्रबन्ध साठोतरी कहानियों पर था । तभी मैंने सोचा था कि क्या कोई ऐसा बिन्दु हो सकता है जहाँ रंगमंच और साहित्य दोनों मिल जाए! फिर तो ये दौर शुरू हो गया । लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मैंने नाटक नहीं किये । अब कोई ऐसा डायरेक्टर हिन्दी रंगमंच में नहीं बचा है जिसने कहानियों का मंचन न किया हो ।
ये नाटक की अपेक्षा चुनौतीपूर्ण नहीं है ?
चुनौतीपूर्ण है एक रचना को दूसरी फॉर्म में करना, अब अच्छे नाटक छप नहीं रहे । प्रकाशक भी क्या करें, नाटक कोई खरीदता ही नहीं! नाटक हमारे पढ़ने की आदत में शामिल ही नहीं है । टेक्स्ट बुक में लगने लगे इसलिए थोड़े बहुत छपने लगे हैं ।
देवेन्द्रराज अंकुर : जन्म 4 जून 1948, सिरसा, हरियाणा । राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से निर्देशन में विशेषज्ञता के साथ डिप्लोमा । दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम–ए– । 45 वर्ष का रंग–अनुभव । ‘कहानी के रंगमंच’ के प्रणेता । अब तक लगभग दो सौ कहानियों और कई उपन्यासों का मंचन, इसके साथ ही अनेक नाटकों का निर्देशन । देश विदेश में रंग–शिविरों का व्यापक अनुभव । राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के भूतपूर्व निदेशक । रंगमंच से सम्बंधित कई पुस्तकों का लेखन । सम्पर्क 919810143606
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