साक्षात्कार
काम करते रहना महत्त्वपूर्ण है
हिन्दी रंगमंच में बहुत कम ऐसे व्यक्तित्व हैं, जो नाट्य–लेखन और निर्देशन दोनों स्तरों पर रंगकर्म कर रहे हैं । नाट्य लेखिका और निर्देशिका त्रिपुरारी शर्मा एक ऐसी ही शख्सियत हैं जिन्होंने अपने नाटकों के माध्यम से समकालीन समय और समाज की चिन्ताओं को शिद्दत से उठाया है ।
(त्रिपुरारि शर्मा से संजय कुमार की बातचीत)
तेजी से बदल रही दुनिया में रंगमंच का स्थान और असर क्या है ?
अभिनय रंगमंच का सबसे पुराना हिस्सा है । यह आदिकाल से चला आ रहा है । समय के साथ रंगमंच में भी बदलाव आया है । समय के साथ रंगमंच में गीत, संगीत, पेंटिंग जुडी । फिर लाइट और साउण्ड जैसी तकनीक भी जुड़ी । एक ही तरह के काम को रंगमंच नहीं कह सकते । कभी करतब करना थिएटर था, फिर इसमें लेखन का तत्व जुड़ा । रंगमंच में यह क्षमता है कि वो अलग–अलग कलाओं को अपने में जोड़कर आगे बढ़ता है । इसका सूत्र कहीं न कहीं व्यक्ति के अपने जीवित रहने से जुड़ा है । बच्चे दूसरों को देखकर ही आगे बढ़ते हैं । क्योंकि नाटक जीवन्त माध्यम है इसलिए जीवित रहेगा । फिर समय की चुनौतियों के कारण क्लास रूम में जीवित रहे या कोई और रूप निकाल ले । नाटक ने अपने में इतनी क्षमता और लचीलापन रखा है ।
भूमंडलीकरण के दौर में रंगमंच की चुनौतियाँ क्या हैं ? इन चुनौतियों के सन्दर्भ में हिन्दी रंगमंच की तैयारी कैसी है ?
सबसे पहली चुनौती है – कैसे जीवित रहे ? रंगमंच एक जीवन्त माध्यम है इसको दिक्कत आ रही है । हर कोई सिनेमा को महत्त्व दे रहा है । आज के इस समय में यदि कोई कहीं भी थिएटर करता है तो बड़ी बात है । प्राइवेटाइजेशन के कारण काम का जोर बढ़ रहा है हालत व्यक्ति को रचनात्मक नहीं रहने दे रहे ।
दूसरी बात है कि कोई भी स्थानीय कलाकार को लेकर नाटक नहीं करना चाहता । सभी प्रसिद्ध को लेकर शो करना चाहते है इससे थिएटर तो जीवित हो रहा है । लेकिन स्थानीय कलाकार उपेक्षित हो रहे हैं । ऊँचाई तक पहुँचने का रास्ता बड़ा कठिन है । यह स्थिति एक बड़े स्टोर की तरह है जिसमें बहुत सारी चीजें आपको मिल जाएँगी पर आपकी पसन्द वाली चटनी जो कि स्वादिष्ट थी, वो खत्म हो जाएगी । इसको कॉलेज स्तर पर भी जोड़ा जा सकता है । दर्शक पैदा करने की कोशिश की जा रही है लेकिन इस प्रक्रिया में कलाकार पीछे छूटता जा रहा है । कहीं भी बैलेंस नहीं है ।
तकनीक के विकास के कारण रंगमंच के स्वरुप में परिवर्तन आया है ? यह परिवर्तित रंगमंच अपने समय के साथ कितना चल पा रहा है ?
जब पहले पहल लाइट आई तो हमने उसे स्वीकारा । जहाँ लाइट नहीं है वहां व्यवहारिक रंगमंच काम नहीं करता । तकनीक भी सब जगह समान रूप से नहीं आ रही है । स्टैण्डर्ड किसको मानें ? तकनीक के आने से थिएटर आगे बढ़ा है, जैसे इतिहास के बारे में इसके माध्यम से बताया जा सकता है, सड़क, नदी आदि को दर्शाया जा सकता है । ब्रेख्त ने रंगमंच को व्यक्तिगत से सामाजिक बनाया । तकनीक को रंगमंच में शामिल करते जाना चाहिए । दूसरा नाटक के जीवन्त पक्ष को उभारें, जीवंत पक्ष को बनाए रखना मुश्किल काम है । आजकल तकनीक सस्ती होती जा रही है जबकि कलाकारों का जीवन मंहगा । थिएटर में कलाकारों को पैसे नहीं देते । तकनीक को शामिल करते हुए रास्ता बना सकते हैं । तकनीक की खूबियाँ निखारकर पकड़ें । ये एक फेज है । तापस सेन ने कलकत्ता में लाइटिंग इफेक्ट का प्रयोग किया । यह चुनौती कदम–कदम की है । इसका कोई बन्धा– बन्धाया फार्मूला नहीं हो सकता ।
ऐसे समय में जब बाजार की तानाशाही विचार को नियन्त्रित कर रही है, हिन्दी के नाट्यालेखों की स्थिति क्या है ? हिदी के नाट्यालेख अपने समय के यथार्थ को आत्मसात करने में कितने सक्षम हैं ?
तेजी से बदलाव को आत्मसात करना हर व्यक्ति के लिए मुश्किल है । नाटककार के लिए भी ऐसा ही है । इस समय मंच और नाटककार के बीच गैप बढ़ता जा रहा है । इसलिए नाटककार या तो अकेला महसूस कर रहा है या नाट्यकर्म को अधूरा छोड़ रहा है । नाटक की यात्रा मंचन होने पर ही पूरी होती है । निर्देशक तो अपनी बात तकनीक के माध्यम से भी कह सकता है पर नाटककार को जो भी कहना होता है वह नाटक के माध्यम से ही कहता है । अभी भी अच्छे नाटक लिखे जा रहे हैं । लेकिन हर अच्छा नाटक मंचित नहीं होता क्योंकि बाजारवाद का दबाव मंचन पर अधिक है लेखन पर कम । थिएटर पर जो भी अखबारों में छपता है मनोरंजन के पृष्ठ पर छपता है, एजुकेशन के पृष्ठ पर नहीं । वर्तमान में थोड़ा नाटक की परिभाषाओं में फर्क आया है ।
चाक्षुष माध्यमों की चमक–दमक और संचार के अराजक और अश्लील विस्तार ने रंगमंच को कितना प्रभावित किया है ?
सीरियस थिएटर आज भी अपने आप को बहुत सी चीजों से बचाए हुए है । कॉमेडी पॉपुलर होती जा रही है । इसको दर्शक भी मिल गये हैं । इस चमक–दमक का प्रभाव लोक फॉर्म पर ज्यादा पड़ा है । इसका कारण भी है । क्योंकि उनको अपने दर्शक का पता है कि वो फिल्म देखकर आ रहा है । फिर वहाँ इसलिए भी यह सब हो रहा है क्योंकि उनकी जीविका का प्रश्न है । यहाँ ऐसी स्थिति नहीं है । विचार का रंगमंच बेशक कम हुआ हो पर वो अपनी जगह है जरूर । समय के साथ–साथ बहुत–सी परिभाषाएँ बदल रही हैं, जिसमें अश्लीलता की भी है । पहले जिसको अश्लील मानते थे आज उसमें से बहुत कुछ को ऐसा नहीं मानते । आपको श्लीलता और अश्लीलता का मूल्यांकन कदम–कदम पर करना पड़ता है ।
रंगकर्मियों के सामने आजीविका की समस्या है ?
मैं कहती हूँ कि थिएटर वाले अपना काम कर रहे हैं । यह दूसरे लोगों और समाज का भी काम है और उन्हें करना चाहिए सरकार का काम है कि वो देखे कि वो इस चीज को कैसे आगे लेकर जाए । लोग कहते है थिएटर लोगों तक नहीं पहुँच रहा । मैं उल्टा कहती हूँ लोग थिएटर तक नहीं जा रहे । ये उन लोगों का भी दायित्व बनता है जो समाज के लिए शोध करते है कि इसके लिए जगह बनाएँ, दर्शक तैयार करें ताकि लोग इसको देख सकें क्योंकि जो प्रतिभा होती है वह एक व्यक्ति की तो होती है लेकिन व्यक्ति के माध्यम से पूरे समाज को ‘एनरिच’ करती है । समाज को सम्पन्न करती है समाज को अपनी इस बड़ी मूल्यवान चीज के लिए ‘रेस्पेक्ट’ होना चाहिए । इसको बढ़ावा देना चाहिए । अब मिटटी है, मिटटी उड़ रही है हम उसको पानी देते है । ऐसी ही प्रतिभा तो है पर उसको पानी देने वाला,उसको रप्चर करने वाला काम कम हो रहा, होना चाहिए । ये सरकार का भी काम है और ये समाज का भी काम है । ये शैक्षणिक संसथाओं का भी काम है । आज दुनिया का कोई ऐसा राष्ट्र नहीं है जहाँ बिना राज्य के संरक्षण के नाटक हो रहे हों । नहीं तो ये बिलकुल बाजार के हवाले हो जाएगा और ये बाजार के हवाले हो गया तो इसका भी वही हश्र हो जाएगा जो अन्य लोक कलाओं का हुआ है । या तो खत्म हो जाएँगे या समझौता कर लेंगे । नाट्य कर्मीं भी तो मनुष्य हैं, परफोर्मिंग आर्ट तो रहती ही कलाकार में है यदि आपको परफोर्मिंग आर्ट को बचाना है तो कलाकार को बचाना होगा ।
बार–बार यह बात उठ रही है कि पिछले लगभग 30 वर्षों से अच्छे नाटक बहुत ज्यादा नहीं लिखे जा रहे, मंचन भी अनुदित नाटकों का ही हो रहा है ।
कोई भी कृति क्लासिकल बनती है समय के बाद । शेक्सपियर को नहीं मालूम था कि वो इतने साल तक चलेंगे । उनके जमाने में लोग उनको कितना सीरियसली लेते थे हमें नहीं पता! क्लासिक लम्बे समय बाद होती है, आज की तारीख में हम यह तय नहीं कर सकते कि ये क्लासिकल है पर ये जरूर है कि नाटक जो लिखे जा रहे हैं उनको मंच नहीं मिलता । दिक्कत यह आ रही है कि नाटककार जो कहना चाह रहा है निर्देशक जो दिखाना चाह रहा है उसके बीच अन्तर है वो अन्तर सुलझाना चाहिए । मतलब जैसे प्रकाशक भी नाटक नहीं छापते । वो कहते है कि नाटक कोई पढ़ता नहीं है । हमारा यह कहना है कि नाटक कोई नहीं पढ़ता तो ये तो संस्कृति का संकट है । इसको कैसे हैंडल करेंगे क्योंकि आप ग्रीक साहित्य पर बात करें तो ग्रीक नाटक ‘एंटीगोनि’ के बिना नहीं चलते, संस्कृत साहित्य की बात करें तो अभिज्ञान शाकुन्तलम आ जाता है । तो उस तरह नाटक किसी भी संस्कृति के कोर लेखन में आते हैं । आज जो हम यह सोचें कि नाटक को ही हम पीछे कर दें तो यह नाटक से ज्यादा संस्कृति का संकट है । यदि आप के यहाँ लोग नाटक नहीं पढ़ रहे और आप कुछ नहीं कर रहे वो उससे भी बड़ा संकट है । मुझे लगता है कि इस पर भी कहीं न कहीं बाजार हावी है कि जो चीज ज्यादा बिक रही है उसे कम छापेंगे और जो चीज कम बिक रही है उस पर आप मेहनत करें तो हो सकता है वो थोड़े दिन बाद ज्यादा बिकने लग जाए । वह जो मेहनत वाला पक्ष है वह थोड़ा कम है । किताबें भी कितना कम पाठक तक पहुँच रही है । सब कुछ बदल गया है पूरी तरह से यह कहना कि नाटक नहीं है, सही नहीं है लेकिन मंच नहीं मिल पा रहा है ।
पिछले 30 साल के महत्त्वपूर्ण नाटकों में आप किन नाटकों को शामिल करेंगी ?
बलराज पंडित के नाटक, आचार्य नन्द किशोर के नाटक, मणिमधुकर के नाटक हैं, मेरे भी हैं । प्रभाकर श्रोत्रिय, असगर वजाहत, मीरा कान्त, हबीब तनवीर । कहीं न कहीं लोग लगे तो हुए हैं । कठिनाई का दौर है इसमें अपने आप को क्रिएटिव रख पाना, सृजनात्मक रख पाना एक चुनौती हैं । आप फेमस नहीं हैं फिर भी आपका कार्य जारी है वह अपने आप में महत्वपूर्ण है ।
आप नाटककार भी हैं, निर्देशक भी हैं तो क्या आपके ये दोनों रूप समानान्तर चलते हैं या कहीं ओवेरलपिंग भी होती है ?
जब आप लिखते है तो दिमाग में रहता है कि इसे ऐसे मंच पर लेकर जाना है और जब आप निर्देशन कर रहे होते हैं तो यह आता है कि इसे ऐसे लिखना चाहिए था तब आप लालच में 10 पंक्तियाँ और जोड़ देते हैं या निकाल देते हैं तो दोनों खिचड़ी–सा चलता है । काम तो पूरा परफोर्मेंस के बाद ही होता है । कुछ प्रोडक्शन को छोड़ कर जिसमें आप तय कर लेते है कि इसमें कुछ नहीं जोड़ना वर्ना दोनों पक्ष लड़ते रहते हैं जो परफोर्मेंस के हित में होता है वो निर्णय लिया जाता है ।
आप बाल रंगमंच से भी जुडी रही हैं । बाल रंगमंच और वयस्क रंगमंच में क्या अन्तर है ?
बाल रंगमंच में फ्रीडम ज्यादा रहती है और बाल–दृष्टि से चीजों को देखने का एक सुख है वो ज्यादा मिलता है । क्योंकि बच्चों के लिए कर रहे हैं तो नेगेटिव से नेगेटिव चीजों में भी सम्भावना खोजते हैं । मैं अपने एटीट्युड में ही फर्क पाती हूँ बच्चों की क्रिएटीविटी के साथ खुद क्रिएटिव होना । यह एक अलग किस्म की दुनिया को देखने का तरीका भी हो जाता है और उसमे आनन्द बहुत आता है ।
त्रिपुरारि शर्मा – जन्म 31 जुलाई, 1956 । दिल्ली विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में ऑनर्स । राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से स्नातक का डिप्लोमा । अनेक नाटकों का निर्देशन करने के साथ ही नाट्य–लेखन में भी सक्रिय । देश–विदेश में रंग–कार्यशालाओं के आयोजन का अनुभव । राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में अभिनय के सह–प्राध्यापक के पद पर कार्यरत हैं । सम्पर्क – 919917689582