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निकम्मों के कोरस का स्वर

 

निकम्मों का कोरस एक दिलचस्प शीर्षक है, ऐसा कि रूह रश्क करे, कहानी ऐसी कि रूह फना हो जाए। कोई जो इस अफसाने को पढ़ना चाहे, कहानी का एक-एक वाक्य और शुरुआती वाकया रास्ता रोके ऐसा अड़े कि कहे कि अब आगे न पढ़ भाई। मुझे तू छोड़ दे और राहत पा ले। तोता टेर लगाए कि बच ले! बच ले! पाठक का तोता उड़ता जाए। उड़ता जाए।

पंकज मित्र पाठकों को चौंकाने के लिए कुछ ऐसा अवश्य लिखते हैं कि पाठक चौंके मगर पाठक भौंचक … उलटे पांव वापस चल देता है। ठीक वैसे ही जैसे उनकी एक और कहानी की कमरुन्निसा चली गई पहली बार। फिर पंकज मित्र इन पंक्तियों को दोहराते हुए पाए जाते हैं, ‘आखिर क्यों इतने परेशां हो तुम / खुले रख कर तो देखो मन के दरीचे…” इससे आगे की पंक्तियां वे पढ़ते कि इससे पहले ही निकम्मों का कोरस का पाठक अपने-अपने मन और दरवाजों के दरीचों को बंद कर लेते हैं।

निकम्मों का कोरस कहानी पाठक के धैर्य की परीक्षा लेती है। हिम्मत करके कोई मगज़ वर्जिश के लिए पढ़ भी ले तो उसके हाथ लगता है निल बटे सन्नाटा। लेकिन पाठक तब सन्न रह जाता है जब खुलता है रहस्य तलाक का। तलाक होता है तब जब चिकेन लेगपीस मारता है लात निकाह पर (अधिक जानकारी के लिए कहानी निकम्मों का कोरस पढ़ें)। यथार्थ का ऐसा झन्नाटा शायद पहले कभी नहीं लगा पाठक को, कह लें कहानी को।

आज का कहानी-पाठक ऐसे समय में जी रहा है जब उसका किसी मॉल में जाना या रेस्टोरेंट में खाना खाना महज जाना या खाना खाना नहीं होता, बल्कि एक खास अनुभव-यात्रा की मांग होती है उसकी। ऐसे समय में अगर कोई कहानी पाठकों के अनुभव में कुछ नया नहीं जोड़ती है तो कहानी फेल है। निकम्मों का कोरस एक ऐसी ही कहानी है। संयोग या दुर्योग से आज का कथा पाठक मॉल या रेस्टोरेंट में समय-समय पर जाने वाला ही है। पंकज मित्र जिस कथा-कुल के लेखक हैं उसके पाठक तो ऐसे ही हैं।

कहानी निकम्मों का कोरस एक दक्ष इंजीनियरिंग का कमाल है। पंकज मित्र नए जमाने के कथाकारों में कथा-इंजीनियर हैं। इसलिए वे अलग किस्म के समर्थ कथाकार हैं, कथाकार से भी ज्यादा कलाकार हैं। कफन रिमिक्स भी इंजीनियरिंग-कथाकारी और कलाकारी का कमाल है।

पंकज मित्र ने अपने शुरुआती लेखन से ही अपनी ऐसी पहचान बनाई कि कथा-कुल में एक संभावना की तरह देखे जाने लगे। वे संभावना की कसौटी पर खरे भी उतरे और एक स्टार कथाकार बन गए। ऐसा रच दिया कि चरचे हर जुबान पर, कि पाठक हमसफर बन गए।

आमतौर से पंकज मित्र की कहानियों की भाषा ऐसी कि फिल्म में साईकिल से ढलान पर उतरती-लहराती प्रेम-बाला। या फिर कश्मीर की कली की शर्मिला टैगोर और पाठक शम्मी कपूर सरीखा गाता, ‘ … कोई राज है इनमें गहरा, तारीफ करूं क्या उसकी जिसने तुम्हें बनाया’। लेकिन ‘निकम्मों का कोरस’ की भाषा में अलकतरा और गिट्टी की मात्रा कुछ अलहदा ही है कि डगर है मुश्किल चूंकि बंपर है खूब ज्यादा।

ढलान पर उतरती-लहराती प्रेम बाला सी भाषा के कुछ नमूने पेश हैं उनकी अलग-अलग कहानियों से :

“पद का नाम रोजगार सेवक था और यह उसी तरह के सेवक थे,जैसे मंत्री जनता के सेवक होते हैं, प्रधानमंत्री प्रधान सेवक होते हैं।”

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“कैसा समय आ गया, चारों तरफ लुटेरा घूम रहा है। खर्च नहीं करोगे तो सीधे (गरदन पर चाकू चलाने की भंगिमा)… प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री सब बोल रहा है खर्चा कर, खर्चा कर। पता नहीं, देश का वित्तमंत्री है या अंबानी का?”

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पंकज मित्र हल्के-हल्के वाक्यों से बड़की बड़की बातें कहने में माहिर हैं।

एक नमूना और देखें :

“टीआरपी वर्णमाला… ए फॉर अल्माइटी एंड एडवरटाइजिंग, बी फॉर बिजनेस एंड बाजार, सी फॉर क्राइम एंड क्रिकेट, डी फॉर देशभक्ति और दंगा, ई फॉर एक्सक्लूसिव एंड एकता कपूर, एफ फॉर फिल्म एंड फैशन… एफ फॉर फक” यह मात्र किसी टीवी चैनल या मीडिया मात्र का चरित्र-चित्रण नहीं है। निगाह कहीं, निशाना कहीं।

पंकज मित्र किसी पात्र की कहानी नहीं लिखते। पात्रों को वे अपना माउस बनाते हैं और सही जगह पर कर्सर रखते चलते हैं। लिखते वे स्थितियों और परिस्थितियों की कहानियां हैं। स्थितियों और परिस्थितियों का आशिक है यह लेखक और उनकी स्कैनिंग को प्यार से पाठकों के सामने सजाता है। निकम्मों का कोरस ही नहीं, उनकी अधिकांश कहानियों में ऐसा है। कह सकते हैं कि पंकज मित्र कहानी कहने में चित्रकारी भी करते हैं।

पंकज मित्र

पंकज मित्र के पाठक भी स्थितियों और परिस्थितियों से गुजरते हुए उन पात्रों के सहयात्री बन जाते हैं, जिन्हें लेखक अपने साथ लेते हुए परिस्थितियों का राज खोलता है। लेखक राज ऐसे खोलता है जैसे कोई नटवर लाल अपने हुनर का कमाल काट रहा हो।

पंकज मित्र यथार्थ की स्कैनिंग कितनी कुशलता से करते हैं, नजारा देखिए :

“फादर अगस्टीन का वह चमत्कार जब उन्होंने शीशे के दो बड़े बर्तन में पानी भरकर एक में डुबाया एक पत्थर जैसा सख्त माटी का ढेला और दूसरे में प्रभु यीशू की क्रूसविद्ध मूर्ति, थोड़ी देर बाद ही एक छोटी सी लकड़ी चुडरू के हाथ में देकर कहा – तुम लोग इसी पत्थर- पहाड़ की वर्शिप करता, देखो तुम खुद देखो तुम्हारा गॉड कितना वीक — लकड़ी लगते ही फिच्च से रह गया माटी का ढेला और प्रभु यीशु की मूर्ति उसी तरह अटूट…”

यह भी सच है कि पंकज मित्र ने करेला की कहानी भी पूरी तन्मयता से लिखी है। वे बेचू लाल की कहानी भी लिखते हैं। ऐसे लिखते हैं कि रेशा-रेशा खुलता जाए। हालात का खुलासा होता जाए। लेखक के भेदी लोचन ही ऐसे हैं कि पर्दा तार-तार होता जाए। बाजार नंगा होता जाए। बाजार को केंद्र में रख कर लिखी कई कहानियां लाजवाब हैं।

निकम्मों का कोरस की शुरुआत में ही पाठक राहते -जां, रूहे-रवां, हज्जू हटेला, बिज्जू और अज्जू के मकड़जाल में ऐसा फंसता है कि वह कामना करता है कि जान बचे तो लाखों पाए। जैसे किसी ट्रिग्नोमेटरी में फंस गया हो। साथ में कागज कलम लेकर बैठे तो सुलझे। गोया कहानी पढ़ना कहानी पढ़ना नहीं रह गया, त्रिकोणमिति सुलझाना हो।

पाठक के हिस्से अगर पहली बार पंकज मित्र को पढ़ने का अवसर हाथ आया हो और उसे यह कहानी मिली हो तो उसके साथ यह हादसा-सरीखा है। यह केवल पाठक के साथ हादसा नहीं होगा, लेखक के साथ भी हादसा ही माना जाएगा। क्योंकि ऐसे हालात में पाठक गाने लगता है,” मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है।”

संभवतः संपादक ने भी मुझे बिना पढ़े ही यह कहानी भेज दी थी और लिखने का अनुरोध किया था। इसलिए उसे इस हादसे का अंदाजा नहीं था। ऐसी शंका है मुझे, विश्वास नहीं।

पता चला कि यह उपक्रम लेखक की शिनाख्त करने के लिए किया जा रहा है। गोया लेखक लेखक नहीं, अपराधी हो। शिनाख्त पुलिस की ग्लाॅसरी का शब्द है। हर शब्द अपने इस्तेमाल से एक इमेज अख्तियार करता है। पता चला कि हिंदी के बहुत सारे लेखकों की शिनाख्त हो चुकी है। शिनाख्त का दौर भी है।

शिनाख्त किए जाने की अबकी बारी पंकज मित्र की है। संभव है उन्होंने अपनी सहमति भी दी हो। हिंदी में असहमत होने या ना कहने की प्रवृत्ति नहीं बची है। सब तरफ सहमति-सहमति का एपिसोड बन रहा है। हिंदी अब इस मामले में एक उदार भाषा है। भरोसा दिलाती है कि किताबें कभी मरेंगी नहीं कि ऐसी-ऐसी किताबें बनेंगी।

मेमेंटो देने का चलन लाइफ टाइम एचीवमेंट के लिए है तब जब लेखक से और कोई उम्मीद न बची हो। तो क्या पंकज मित्र को अलविदा कहने का वक्त आ गया? क्या पंकज मित्र ‘चलते चलते मेरी कहानियां याद रखना, कभी अलविदा ना कहना, कभी अलविदा ना कहना ‘ गाते हुए हिंदी कहानी के कंपाउंड से बाहर हो जाएंगे अब?

सावधान! अगर ऐसा हुआ तो यह पंकज मित्र की अकाल-मृत्यु की पूर्व भूमिका होगी और हिंदी कहानी का बड़ा नुकसान होगा। इसका कारण यह होगा कि पाठक और पंकज मित्र यह डुएट गाते हुए पाए जाएंगे,’ तुमको भी है खबर मुझको भी है पता हमारे रास्ते जुदा-जुदा’।

‘निकम्मों का कोरस’ के जिन किरदारों के कारण पाठक अपने को उलझा महसूस करता है उन्हीं किरदारों की उंगली पकड़ पंकज मित्र तीन मल्लिकाओं के दरवाजों  में दाखिला ले लेते हैं। लेखक पंकज मित्र उनके दरवाजों के भीतर से जीवन-यथार्थ, सामाजिक-यथार्थ और विसंगत-यथार्थ के दृश्य बरामद कर लाते हैं और उन्हें अपनी कहानी में ऐसे रखते हैं कि लगता है जैसे किसी  अंडरकवर ऐजेंट ने छापामार कर यथार्थ को बरामद किया हो। यथार्थ से टकरा कर पाठक की आंखें फटी की फटी रह जाती है एक ओर तो दूसरी ओर पाठक ठिठका का ठिठका रह जाता है। खासकर तब जब हर किरदार की परिस्थितियां और परिणति जोरों का धक्का मारती है।

इस कहानी के सारे निकम्मे ‘ बड़ी दूर से आए हैं, प्यार का तोहफा लाए हैं ‘ से अपना – अपना इश्क फरमाना शुरू करते हैं और अंत में सभी अपने-अपने ठिकाने से कोरस में गाते हैं, ‘समझौता गम़ों से कर लो, जिंदगी में गम भी मिलते हैं पतझर आते ही रहते हैं…।

एक कहानी में मंगरा भी एक ऐसा कर्सर है जिसके माध्यम से लेखक सही जगह पर नजर टिकाता तो है, पाठक यह महसूस करता है कि मंगरा मन में केवल यह गाकर ही संतोष कर रहा है,’ राही मनवा दुख की चिंता क्यों सताती है, दुख तो अपना साथी है’। क्विजमास्टर कुमार भी यह गाकर ही संतोष कर लेता है,’ एक धनवान की लड़की ने … …’। लेखक पंकज मित्र जब भी प्रेम की आभासी छाया में कहानी लिखते हैं सूफी अंदाज में गाते पाए जाते हैं,’मिलना बिछड़ना ही रीति है ‘। लेकिन इसी मिलने बिछड़ने की रीति में विसंगतियां बां-बां बोलने लगती है। लेकिन किरदार सबके सब निकम्में हैं।

एक कहानी में शिब्बू और निब्बू की जोड़ी है। यह शिब्बू शिव कुमार हैं। बिल्कुल निर्द्वंद्व और निश्छल। किरदार ऐसा कि बहता नीर। इतना बहता नीर कि जिधर ढलान, उधर ही उतरना  मुनासिब। पाठक शिव कुमार से पूछता है, पानी रे पानी तेरा रंग कैसा? शिव कुमार का अंतर गाता हुआ जवाब देता है,” जिसमें मिला दो, लगे उस जैसा “। शिवकुमार रंग जरूर बदलता है, मगर लेखक नए जमाने का रंग-ढंग भी बताता है।

पंकज मित्र ने एक कहानी लिखी पानी की किडनैपिंग और जनता से उसकी फिरौती मांगने की। लेखक एक प्राइवेट डिटेक्टिव की तरह अपराधी और अपराध के तौर-तरीके की शिनाख्त करता है। लेखक को इसका अहसास है कि लेखक पुलिस नहीं होता, इसलिए वह सजा नहीं सुनाता। वह अपराध के तरीके का पर्दाफाश करते हुए अपराधी को लोक के हवाले कर देता है। पंकज मित्र की कहानियां हिंदी समाज के लोकवृत का हिस्सा बनती हैं।

इस कहानी में अफसानानिगार की स्कैनिंग क्षमता बेमिसाल है। आइए देखते हैं :

‘…सुल्तान का बयान आया था कि पानी के इंतजामिया से अब कोई ताल्लुक रखना मुमकिन नहीं उनके लिए …जरूरियात का तकाजा था कि कंपनियां आगे आएं… दूसरे ही दिन से पानी के मीटर लगने शुरू हो गए …एक ही महीना हुआ था कि पानी की कीमतें सीढ़ियां चढ़ने लगीं…मुखालफत शुरू हुई थी लेकिन…सुलतानी फौज के सिपाही ट्रेन में चढ़े थे और सबकी खानातलाशी लेने लगे और सबकी पानी की बोतलें बाहर फेंकने लगे… लोग खामोश थे सिर्फ उसकी लाल-नीले सितारों वाली बोतल चहक रही थी। उसे बख्श जो दिया गया था।’

स्कैनिंग अर्थपूर्ण तब हो जाती है जब लेखक अपने स्कैनर को उस जगह रखता है कि फ्रेम को डेप्थ मिलता है। डिटेलिंग सत्यजित रे के कैमरे की तरह होती है। पंकज मित्र अपनी कहानियों की स्थितियों-परिस्थितियों को यह कहते रहते हैं,’ आप मुस्कराइए कि आप कैमरे की हद में हैं।’

कथाकार पंकज मित्र को इसका अहसास है कि देश ‘न्यु डेस्टिनेशन’ की ओर चल पड़ा है। यह संभव कैसे हो रहा है यह जानने के लिए लेखक का एक सरल-सा वाक्य पढ़ना अनिवार्य है : “टांगी में बेंट लकड़ी का नहीं हो तो गाछ कैसे कटेगा”। अब टांगी से केवल गाछ नहीं काटे जा रहे हैं, गाछी की गाछी काटी जा रही है। लेकिन कहीं कोई प्रतिरोध नहीं है। पंकज मित्र की हर कहानी प्रतिरोध की कहानी है। किरदार निकम्में हैं तो क्या हुआ

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मृत्युंजय

लेखक प्रबुद्ध साहित्यकार, अनुवादक एवं रंगकर्मी हैं। सम्पर्क- +919433076174, mrityunjoy.kolkata@gmail.com
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