आदि-अंत से अनंत… होते गुरु – टी.एन.राय
हमारे गुरुवर असल में तो थे – डाक्टर त्रिभुवन नाथ राय लेकिन जीवन-व्यवहार में बस टी.एन.राय ही रहे। और यह शायद मुम्बई में बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के उस दौर की प्रवृत्ति ही थी, क्योंकि वहाँ सभी गुरुओं के अभिधान ऐसे ही थे – श्रीधर मिश्र हुए – एस.ड़ी.मिश्र और दयाराम पांडेय रहे – डी.आर.पांडेय…।
डॉ. टी.एन.राय से मेरी पहली भेंट औचक ही हो गयी थी…। हुआ यूँ कि मुम्बई में रहते हुए दो साल बीत जाने के बाद जब अपनी उच्चतर माध्यमिक के बाद की छूटी हुई पढ़ाई फिर से शुरू करने की स्थिति बनी, तब तक शहर के कॉलेज…आदि से मैं अनजान था। तो रिश्तेदारी के बड़े भाई श्रीधर तिवारी ने यह काम अपने मित्र को सौंप दिया, जो मेरे हमनाम (सत्यदेव त्रिपाठी) भी निकले। उन्होंने खालसा कॉलेज से पढ़ाई की थी। बस, एक दिन मुझे लेकर विभागाध्यक्ष डा. पी.एन. मिश्र (पारसनाथ मिश्र) के घर (10, तपोवन, मोगल लेन, माहिम) चले गये…। गर्मी के दिन थे और अपराह्न का समय था। मिश्रजी की बैठक वाले कमरे में एक सज्जन और मौजूद थे – नाटे क़द के गोरे-से व्यक्ति, सर पे बाल काफ़ी कम…। सफ़ेद ज़मीन पर लाल-लाल बिंदियों वाला आधी बाँह का नया-सा शर्ट पहने…। दोनो आम खा रहे थे, बल्कि ठीक-ठीक याद है – कि आम चूस रहे थे – याने वह मुम्बई का मशहूर हापुस आम नहीं था और ठीक याद है कि आम बड़ा-था, इसलिए अपना मशहूर दसहरी भी न था। मिश्रजी तो बातें करने लगे, लेकिन दूसरे सज्जन आम खाने में मशगूल रहे…। दो मिनट बाद ही मिश्रजी मेरे बी.ए. में प्रवेश की सहर्ष हामी भरते हुए उस दूसरे सज्जन की ओर मुख़ातिब होकर प्रसन्न स्वर में बोले – ‘ये प्रो. टी.एन. राय हैं…यह भी आपको पढ़ायेंगे’…। और हम उनकी ओर प्रणाम की मुद्रा में मुख़ातिब हुए, तो आम का चूसना पूरा हो गया था, वे आम से बाहर आ गयी गुठली को चाटने में मशगूल थे…इस प्रक्रिया में उनके हाथ व दाढ़ दोनो आम-रस से यूँ सराबोर थे कि प्रणाम का जवाब वे सर हिला के हूँ-हूँ करके ही दे सके…। फिर जल्दी ही हम निकल आये थे…याद नहीं आ रहा कि हमें आम खाने का प्रस्ताव ही नहीं मिला या हम अनिच्छा दिखा के आ गये…।
सो, यह था – गुरुवर टी.एन.राय का नाटकीय-सा प्रथम दर्शन और बिलकुल अशैक्षणिक-सा प्रथम मिलन!! लेकिन तब क्या पता था कि पहली मुलाक़ात में हूँ-हूँ के सिवा जिससे बात न हुई, उसी से आजीवन सर्वाधिक बात होगी…!! तब तो यह भी नहीं पता था कि खालसा कॉलेज का मुंह देखने के पहले ही मिल गये यही राय सर गुरु-मित्र के रूप में सबसे अंत तक साथ रहेंगे…!! जी हाँ, खालसा के सभी सर एक-एक करके दिवंगत हो गये और फिर सालों-साल सिर्फ़ टी.एन. राय ही सुलभ रहे, जिनके यहाँ जाके गुरु-पूर्णिमा सार्थक होती रही…। और वह भी अभी पिछले दो सालों से उनके अभाव में सूनी व रिक्त हो गयी है। और जब अपने विवि में कुछ करने लायक़ हुए, तो हर सेमिनार से लेकर विभाग की विश्वविद्यालयीन समितियों में प्राय: एक अदद नाम डॉ. त्रिभुवन नाथ राय का होता…और फिर उन समितियों के उचित व सही निर्णय तथा सर के सेमिनार-सत्र की सफलता-रोचकता एवं साहित्यिक-समृद्धि की ग़ैरंटी होती…।
इसी तरह असाहित्यिक-सी ही सही, उक्त भेंट हुई तो थी साहित्य-अध्ययन के निमित्त ही, जो आगे चलकर ऐसे फलित हुई कि पढ़ाई के साथ विभाग में होने वाले सभी साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों के सारे गुर इन्हीं से सीखने मिले…। असल में विभाग के सारे कार्य संचालित होते थे टी.एन.सर के द्वारा ही – चाहे भले उनका निर्णय विभागीय बैठकों या अध्यक्ष की योजनाओं-इच्छाओं से होता रहा हो, लेकिन उन सबका पता हमे राय सर से ही चलता था, जो हमसे कराके लेने के रूप में उनकी ज़रूरत भी थी। कारण यह कि ये भी खालसाइट (खालसा कॉलेज से पढ़े) ही थे – इन्हीं गुरु पी.एन. के शिष्य। तो ज़ाहिर है कि विभाग के अतिरिक्त काम इनसे साधिकार कराये जाते रहे और इनकी तरफ़ से कर्त्तव्य पूर्वक किये जाते रहे…। फिर तो उन्हें ये सारे आयोजन अच्छी तरह करने आ जाना ही था। और इसी अधिकार-कर्त्तव्य को ग़ुरु-शिष्य की पारम्परिक प्रक्रिया में टी.एन. गुरुजी से हम तक संतरित होना ही था…। मेरे साथ इसका एक व्यावहारिक पक्ष भी था – छात्रावास में रहने से मैं विभाग के लिए सहज सुलभ था। जब भी स्टाफ़ के सेवक रामजी भाई या कोई भी सेवक मेरे कमरे का दरवाजा खटखटाता, तो मतलब अधिकांशत: यही होता कि राय सर बुला रहे हैं…। कभी कदाचित ही किसी और सर के बुलाये जाने और चार सालों में दो-एक बार प्रिंसिपल के भी बुलाने की याद है। विभाग के कार्य करके मुझे गुरुओं के नज़दीक रहने का एक सुख भी था…। इस तरह हम बी.ए. के दो सालों में ऐसे प्रशिक्षित और एम.ए. के दौरान ऐसे पक्के हो गये कि पढ़ाई पूरी होने के बाद चेतना कॉलेज में पढ़ाते हुए भी विभाग के आयोजनों में पूर्ववत सक्रिय रूप से शामिल होते…राय सर बुला ही लेते, जो मुझे तो अच्छा लगता ही, शायद राय सर को भी हमारे करने पर भरोसा हो गया था…।
गरज यह कि टी.एन. सर के साथ कार्यक्रमों के संयोजन-संचालन का गुर तो मिला ही, जो विश्वविदयालयों में काम करते हुए आजीवन काम आया; हमारे बीच पनपी समझदारी व संगति से एक ऐसा रिश्ता भी बना, जिसे सांस्कृतिक घरेलूपन का रिश्ता कह सकते हैं और वह आजीवन क़ायम रहा…। इसी के साथ पी.एन. मिश्र हम दोनो के गुरु हुए, सो हमारे बीच एक सहज रिश्ता गुरु-भाई का भी रहा, लेकिन फ़र्क़ यह रहा कि उन्हें हम तो आड़ में कभी-कभार ‘पी.एन.मिश्र’, ‘पी.एन.गुरुजी’ या ‘मिश्रजी’ कह भी देते, लेकिन टीएन सर ने आजीवन सिर्फ़ ‘गुरुजी’ ही कहा – कभी कोई अन्य संज्ञा-सर्वनाम-सम्बोधन उनके मुख से कम से कम मुझे सुनायी नहीं पड़ा। शायद यही है पीढ़ियों का संस्कार और कुछ वहीं नौकरी कर लेने से पड़ गयी उनकी आदत भी…। लेकिन अच्छा यह हुआ कि गुरुभाई के इस रिश्ते को अनकहे-अनजाने ही हमने कभी उल्लेख में भी आने नहीं दिया, वरना हमारे गुरुत्व-शिष्यत्व दोनो प्रभावित अवश्य होते…।
और कह दूँ कि हमारे बीच दो समानताएँ क़ुदरती भी थीं…पहली यह कि हम दोनो ने ही विषम परिस्थितियों में भाई-बंधुओं के साथ चाल…आदि के कमरों में रहकर साँसतें झेलते हुए अपनी उच्च शिक्षा पूरी की थी…। दूसरी यह कि हम दोनो ही पढ़ाई करते हुए डाक-तार विभाग में कार्यरत रहे…। इसमें भी सर अधिक श्रेय के हक़दार यूँ रहे कि वे चिट्ठियों के बंडल-बोरे यहाँ से वहाँ पहुँचाने (पोर्टर) का काम अस्थाई तौर पर करते रहे और मैं चिट्ठियाँ छाँटने (सॉर्टर) का काम नियमित-स्थाई सेवा के रूप में करता था…। लेकिन ये रिश्ते भी गुरु-भाई वाले की तरह ही जाने क्यों पूरे जीवन हमारे बीच कभी बात तक में साझा नहीं हुए – जबकि होते, तो रिश्ते के पाट और फैलते…गहराइयाँ और बढ़तीं…!! उनके एक आत्मीय के शब्दों में ‘10 फ़ीट ज़मीन के नीचे से उठकर राय साहब इतने ऊपर पहुँचे – प्रोफ़ेसर के पद तक …’।
पढ़ाई में उनके परिश्रम को मैंने उनकी पीएच.डी. के दौरान अपनी आँखों देखा…। तब मैं एम.ए. कर रहा था, जब उनका शोधकार्य अपने अंतिम चरण पर था…। घर उनका काफ़ी छोटा था। इसलिए हॉस्टल में एक कमरा लिया और सिर्फ़ एक कुर्सी टिन की व एक छोटी-सी मेज़ ही रखा। वरना तो ढेरों किताबें ज़मीन पर ही दीवालों से सट के पड़ी रहीं…। कभी चाय की तलब होती, तो बाहर जाके पी आते। कुछेक बार मुझे भी बुलाते, तो साथ जाते हम…और कभी मैं जाके लाता, ताकि उनका समय बचे…। शायद छुट्टी ली थी या छुट्टियाँ थीं। वे घर से खा-पीके 10-11 बजे आ जाते और रात को दस बजे तक रहते…। कुल मिलाकर जीतोड़ परिश्रम से विद्या पाने वाले टी.एन. ग़ुरु पर वह सूक्ति बिलकुल सही बैठती है – ‘विद्या परिश्रमाधीना’।
आइए, अब कॉलेज चलें…। उस मिलन के बाद जब मुम्बई के माटुँगा उपनगर में स्थित गुरु नानक खालसा महाविद्यालय में पढ़ने पहुँचा, तो विभाग में पाँच अध्यापक मिले, जिनके वरिष्ठता-क्रम में पी.एन., एस.ड़ी., डी.आर. के बाद चौथे नम्बर पर स्थित थे गुरुवर टी.एन. राय…। लेकिन बाद में पता चला कि तीसरे नम्बर वाले श्री दयाराम पांडेय की सेवा में कुछ व्यवधान आ जाने से सेवा-विधान के मुताबिक़ बाद में वे तीसरे नंबर पर पाये गये – याने ‘कानिष्ठिकाधिष्ठित’ से ‘अनामिका सार्थवती’ हो गये…। और इसीलिए समय से विभाग के अध्यक्ष बने, तो तीसरे नम्बर पर आके चौथे हो जाने वाले सर उनकी अध्यक्षता में काम करना सह न सके। उन्होंने नौकरी से ऐच्छिक सेवा-निवृत्ति ले ली…।
उल्लेख्य है कि साहित्य में जिस अहं के विसर्जन से पढ़ाई शुरू होती है – ‘जब मैं था, तब हरि नहीं, अब हरि हैं, मैं नाहिं’, उसी को ये पढ़ाने वाले ही विसर्जित तो क्या, सह तक नहीं पाते। ऐसे संयोग हिंदी शिक्षा जगत में राष्ट्रीय स्तर पर सरनाम हैं। हिंदी के बड़े-बड़े विद्वानों में ऐसे ढेरों वाक़ये हुए हैं…। सुना है कि बीएचयू में रीतिकाल के उद्भट विद्वान आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र कुछ घंटों के कनिष्ठता-क्रम के चलते रुद्रजी के अध्यक्ष बन जाने पर मगध विवि में चले गये थे। इसी प्रकार डा प्रेमशंकर को विभागाध्यक्ष के रूप न सह पाने के कारण प्रसिद्ध मार्क्सवादी चिंतक प्रो. शिवकुमार मिश्र ने सागर छोड़ दिया और कुछ सालों के लिए सरदार पटेल विवि में जाके अपनी पेंशन का भारी नुक़सान कर लिया था। उसी परम्परा में हैं हमारे पांडेयजी भी, जो सिद्ध करता है कि किसी भी शिक्षा-विद्वत्ता से बड़ा है अपना अहम!! बहरहाल,
थोड़े ही दिनों में यह भी समझ में आया कि उस दिन अपने घर में पी.एन.मिश्रजी से बी.ए. में मेरे प्रवेश की सहर्ष स्वीकृति क्यों मिल गयी और वे प्रमुदित भी क्यों दिखे थे। असल में ऐसा अपने उत्तरप्रदेश में जाना-सुना न था, पर मुम्बई का सच यही है कि अर्थशास्त्र के अलावा समाज-विज्ञान व कला संकाय के प्रायः सभी विभागों में छात्रों की क़िल्लत हुआ करती है – भाषा-विभागों में कुछ ज्यादा ही…। संस्कृत में तो ऑनर्स था भी नहीं। सहायक विषय के रूप में हम हिंदी के ही दो लोग अपने समय में संस्कृत पढ़ते थे और हमारे बाद विभाग बंद ही हो गया – याने हम वहाँ पेट-पोंछना निकले। इसका असर अध्यापकों पर भी पड़ता। संस्कृत की शालीन-सुंदर व ठीक-ठाक शिक्षिका श्रीमती आभा गुलाटी, जो हमे भगवद्गीता पढ़ाती थीं, को कॉलेज छोड़कर जाना पड़ा, क्योंकि वे अंशकालिक (पार्ट टाइम) थीं। और शंकराचार्य के दर्शन पर विशिष्ट अधिकार रखने वाले डा. ए.आर. अंतरकर ग़ुरुजी हमे आचार्य मम्मट का ‘काव्य प्रकाश’ पढ़ाते। वे संरक्षित श्रेणी (प्रोटेक्टेड (पी-1)कैटेगरी) में थे, इसलिए उन्हें सेवा में बनाये रखा गया, किंतु नौकरी बनाए रखने के लिए शिक्षकों से जुड़े प्रशासनिक कार्य करते हुए अंतरकर गुरुजी बड़े दयनीय लगते। और उनके जैसे उद्भट विद्वान को उस रूप में देखना हमें बड़ा पीड़ादायक लगता – हम बहुत तड़पते…!! बी.ए. में मैं पूरे विवि में प्रथम रहा, तो विभाग ने एक स्वागत-समारोह किया था, जिसमें अंतरकर सर भी आमंत्रित थे। सारा संयोजन राय सर का था, लेकिन अंतरकर गुरुजी का उल्लेख यादगार रहा – ‘आइ एम हायली प्लीज़्ड दैट बी.ए. टॉपर आवर डीयरेस्ट त्रिपाठी हैज स्कोर्ड हाइएस्ट मार्क्स (८2/100) इन संस्कृत…आइ एम प्राउड ऑफ हिम’। बता दूँ कि अंतरकर गुरुजी अंग्रेज़ी ही बोलते, लेकिन उनके जितनी सरल-शुद्ध व सहज गति में धाराप्रवाह अंग्रेज़ी बोलने वाला भारतीय मैंने दूसरा न देखा। गाँव से आये हम लोगों को भी शत-प्रतिशत समझ में आती। बाद में किसी-किसी साल संस्कृत लेने वाले दो-एक छात्र आ भी जाते…और अंतरकर गुरुजी अकेले पढ़ाते…।
छात्रों की ऐसी स्थिति के चलते सभी विभागों के अध्यापक अपने-अपने स्तर पर छात्रों की टोह में रहते थे और हर कॉलेज की छात्र-संख्या पर सबकी नज़र रहती – एक अनकही होड़ भी होती थी, जिसमें हिंदी में हमारा खालसा कॉलेज अग्रणी हुआ करता, क्योंकि पी.एन.मिश्रजी का औरा ही ऐसा था…कि सबसे अधिक छात्र यहीं होते थे। और इस परम्परा को भी अपनी अध्यक्षीय अवधि में टी.एन. राय ने उतना ही अच्छा निभाया…। और ख़ास अंतर यह आया कि पी.एन.सर का औरा व्यावहारिक-सामाजिक हुआ करता था, लेकिन टी.एन.सर ने अपने अध्ययन-अध्यापन के बल उसे प्रायः शैक्षणिक आधार व स्वरूप दिया…।
ऐसे टी.एन. राय से लगभग पचास साल से अधिक का हमारा साथ रहा…लेकिन पहली मुलाक़ात में जो आधी बाँह का शर्ट दिखा था, वह कभी पूरी बाँह का हुआ ही नहीं। इस अधखुली बाँह से पता लगता था कि उनके चिकने गौर वर्ण पर विरल ही सही, श्याम रोमावलि भी रही, जो पुरुषों में अच्छी मानी जाती है, लेकिन गहन होने से अभिनय-सम्राट दिलीपकुमार कभी आधी बाँह का शर्ट भी न पहन सके – सलमान की तरह खुले बदन होने का तो सवाल ही नहीं और विरल होने से ही अमिताभ बच्चन पर श्याम रोमावलि जैसे सोहती है, वैसे ही टी.एन.जी पर भी सोहती थी। सो, आधी बाँह का शर्ट उन पर ऐसा चस्पा रहा जीवन भर कि पैंट पर वैसी शर्ट के अलावा किसी अन्य पोशाक में राय सर के बाहर रहने की याद नहीं आती – सिवाय एकाध बार किसी अवसर पर सूट पहनने की याद आ रही…। शर्ट-पैंट मैचिंग हों, ऐसा बिलकुल ज़रूरी न था – प्रायः नहीं ही होते थे। गाँव से आने वाले उन्हें या उस समय को यह सेंस ही न था। रायजी व दोनो मिश्रजी को कभी शर्ट अंदर करके पहने नहीं देखा, तो पांडेयजी को कभी बाहर करके पहने नहीं देखा और टीएन सर से बिलकुल विपरीत डीआर व एसडी सर को कभी आधी बाँह के शर्ट में नहीं देखा – हमेशा पूरी बाँह का पहनते…। पांडेयजी मोज़े-बूट व टाई के सिवा कभी न दिखे, तो राय साहब ने इनको छुआ भी नहीं – प्रतिज्ञावत चप्पल-शैंडिल ही पहनते रहे…। पहनावे की ये निश्चितताएं (एकरूपताएँ भी कह लें) क्या यह भी बताती हैं कि तब की पहचानें अध्ययन-अध्यापन के साथ रहन-सहन में भी अपनी-अपनी थाप रखती थीं? लेकिन बी.ए. में ही अंग्रेज़ी के पाठ्यक्रम में एक पाठ था – ‘यूनिफ़ॉर्मिटी : अ डेंजर’। और इसे पढ़ाने वाले प्रो. कमलेश पुरोहित सब कुछ पहनते थे – क्या एकरूपता के ख़तरे से बचने के लिए? जो भी हो, लेकिन मैंने अनजाने ही आपोआप पुरोहित सर वाला ही अपना लिया; बल्कि आधी-पूरी बाँह व चप्पल-बूट के साथ पुरोहितजी से अलग इसमें कुर्त्ता-पाजामा भी जोड़ लिया और तब तो जींस इतना प्रचलित न था, जो हमारे समय में हो गया, तो वह भी साथ हो लिया… – याने सारे गुरुओं व समय के मिश्रण बने हम…। हमे पढ़ाने वालों में पुरोहितजी ही ऐसे थे, जो कार से आते थे – उनका फ़िल्म-निर्माण का पारिवारिक काम भी था। कॉलेज में कुछ और प्रोफ़ेसरों (गणित के भूपेन्द्र जी…आदि) के पास कार थी, लेकिन हमारे हिंदी के सर लोग आजीवन कार-विहीन रहे – काश आज वाली तनख़्वाहें तब हो गयी होतीं!! हाँ, विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. प्रभातजी कार से आते।
अब पुनः राय सर के पहनावे के शेष भाग के लिए थोड़ा उनके घर चलें…! घर में राय सर हवाई चप्पल पर सफ़ेद धोती की दोहरी हुई लुंगी के ऊपर कुर्ता पहनते – कभी सिली हुई बनियान (कट्टी) व आधी बाँह वाले शर्ट भी होते – एकाध बार टीशर्ट पहने देखने की भी याद है…, क्योंकि हम उनके घर बहुत जाते। सबके मुक़ाबले नज़दीक भी था – सेक्सरिया कंपाउंड, परेल। इतना नज़दीक कि अपने चलने की आदत को देखते हुए मैं सोचता – कि काश यह घर व नौकरी मेरी होती, तो साढ़े छह की कक्षा के लिए पौने छह बजे निकल के रोज़ ‘सुबह की सैर’ करते हुए आता और ‘एक पंथ, दो काज’ को सार्थक करता…। लेकिन राय सर का आना रोज़ एक वृत्तांत लिए हुए आता…, जो हमारे लिए मनोरंजन का कारक बनता…। असल में प्रायः हम नीचे ही मिलते, क्योंकि दरबान बता देता – अभी राय सर नहीं आये हैं। सो, उनके आते ही वृत्तांत शुरू होता…भाई, आज तो दूध वाला नहीं आया, तो तुम्हारी ग़ुरुआइन के आदेश पर दूध लेने उतरना पड़ा…, तो कभी बच्चे को छोड़ने जाना पड़ा…आदि के बाद फिर देर होने से टैक्सी लेनी पड़ी…का उपराम होता…। और हम आपस में ‘राय सर के टैक्सी लेने के कारण’ पर निबंध लिखने की चुहल करते…। लेकिन इसी क्रम में एक बार कठिन हादसा सुनने को मिला कि बड़े बेटे अरविंद ने स्कूल जाते हुए छोटे बेटे मनीष को गिरा दिया। उस दिन तो सर को आकस्मिक अवकाश ही लेना पड़ा…। ख़ैर,
अब सर के घर जाने वाली अपनी बात पर आयें…तो बार-बार राय सर के घर जाने का नज़दीक होने से कोई सम्बंध न था, क्योंकि सदाना मैडम तो कॉलेज में ही रहतीं, लेकिन एक बार उन्हीं के द्वारा भेजकर कुछ मंगाने के अलावा उनके घर का मुंह भी न देखा था। एस.डी.मिश्र का घर तो एक बार पिकनिक जाते हुए बाहर से ही देखा। वे इतने तटस्थ व निरपेक्ष रहते कि विभाग या कॉलेज-परिसर में ही बात न होती, तो घर कैसे जाते!! डी.आर पांडेय का घर एस.ड़ी के घर से कम दूर न था – पार्क साइट कॉलोनी, विक्रोली डिपो, फिर भी हम प्रायः पहुँच जाते…। पांडेयजी व राय सर के घर की आवभगत और गुरु-माँओँ के स्नेह तो हमारे जीवन की अक्षय निधियाँ हैं। दोनो ठेंठ गंवई थीं और वहाँ जाके हम गोया अपनी मां को पा जाते थे…वैसा ही खिलाना-पिलाना, वैसा ही नेह-छोह, हाल-चाल। लेकिन राय सर के घर मां का खुला अपनापन व सहार पाकर हम कभी अपने काम को लेकर सर के ख़िलाफ़ उलाहना व शिकायत भी कर देते…। और ऐसे में उनका सर को साधिकार झिड़कते हुए हमारा काम कर देने का ऐसा इसरार भरा आदेश होता…कि सर बेचारे विवशता भरी स्मित के साथ कर भी देते…। पी.एन. ग़ुरु का घर शहरी था – ग़ुरु-मां मराठी थीं, पर ख़ातिर वहाँ भी अच्छी होती – ग़ुरु मां जयश्री मिश्र के बनाए नाश्तों की सुखद यादें आज भी आती हैं…। लेकिन वहाँ माहौल औपचारिक होता। जाना भी ग़ुरु के साथ किसी काम से या फिर फ़ोन पर समय लेकर ही होता…। उनको तत्कालीन जीवन में इतने फ़ोन किये कि तब का उनका नम्बर आज भी याद है – 4613८८। वैसे नम्बर राय सर का भी याद है – 4123653, जिसके पहले मुम्बई टेलीफ़ोंस ने 2 लगा दिया था।
अब पुनः अपनी छूटी बात पर चलें…राय सर के सदा शैंडिल व तरह-तरह के अच्छे चप्पल पहनने का बड़ा जलवा हमें यूँ यादगार हो गया है कि इसी से उनके पैरों की पतली व सुघर (वेल शेप्ड) उँगलियाँ व चिकनी पतली एड़ियाँ साफ़ दिखतीं…। और वे मुझे इतना भातीं (शायद इसलिए कि मेरी बहुत बदसूरत हैं) कि सदा खड़े होकर और प्रायः चहलक़दमी करते हुए उनके पढ़ाने के दौरान कक्षा में आगे बैठा मैं अक्सर उनके पाँव देखते रहता…। उँगलियाँ सर के हाथ की भी सुंदर थीं, पर पाँवों जितनी सुघर नहीं। लेकिन पढ़ाते हुए सर अपने हाथों के संचालन में उँगलियों के भिन्न-भिन्न आकार बनाते, जो गति व भाव-भंगिमा के साथ बात को हम तक पहुंचाने में सहाय तो करते ही, नैन-सुख भी देते…। राय व पांडेय सर को कक्षा में पढ़ाते हुए हमने कभी कुर्सी पर बैठे नहीं देखा…और पी.एन.मिश्र तथा श्रीमती अंतर्ध्यान कौर सदाना को कभी खड़े होते नहीं देखा। छात्र कम होते थे, इसलिए बैठना भी चल जाता था। श्रीधर मिश्र गुरुजी दोनो के बीच में होते – याने कभी बैठ-बैठे अचानक खड़े हो जाते और कभी खड़े-खड़े बोलते हुए औचक बैठ ही जाते – यूँ सानुपातिक रूप से बैठना ही ज्यादा होता। पाँव की उँगलियों के बाद याद आता है – बालविहीन सर होने से रायजी के उभरे हुए चमकते माथे के लिए ‘प्रशस्त ललाट’ सार्थक होता…!! बोलते हुए उनके मुंह के आकार शब्दकी स्थिति व भाव के अनुसार गोल-अधगोल-खुले-खिंचे…आदि रूप लेते रहते और कभी उनकी गरदन व सर भी तदनुसार-सम-विषम पर हिलते होते…। उनकी उपस्थिति उनके होने से नहीं, बोलने से साकार होती, जो आगे चलकर साहित्यिक गोष्ठियों में परवान चढ़ते एवं बहव: आदृत होते हुए देखने को मिलती रही…।
लेकिन कक्षाओं में उनका ज़ोर से बोलना बेतरह भारी पड़ता था…सामने बैठे हों 12-15 छात्र…और आप पूरे गले से चिल्ला रहे हों…कैसा लगेगा? लेकिन यह उनका सेंस नहीं, स्वभाव था। और ज़िक्र इसलिए कर रहा कि मैंने इसका भी ऐसा फ़ायदा उठाया कि वह कहावत सिद्ध हो गयी – ‘पत्थर में से तेल निकाले, उसका नाम सिपाही’। उनका ज़ोर से बोलना हॉस्टल के मेरे कमरे में भी साफ़ सुनाई पड़ता था। दो स्थितियाँ थी… पहली यह कि घर नज़दीक होने एवं खुद उनके आज्ञाकारी होने से टी.एन. राय को सप्ताह में उनके हिस्से के दोनो व्याख्यानों के लिए साढ़े छह बजे की पहली कक्षा ही मिलती और इधर मुझे सप्ताह में तीन दिनों रात भर आर.एम.एस. की नौकरी करनी होती थी, तो सुबह छह बजे के बाद पहुँचता ही था कमरे पर। सो, नहा-धोके तैयार होकर आना हो नहीं पाता था। लेकिन दूसरी स्थिति यह थी कि हॉस्टल की इमारत के एकदम उत्तरी सिरे की दूसरी मंज़िल पर 34 नंबर का मेरा कमरा होता था और विभाग का 214 नम्बर का कक्षा-कक्ष दूसरी इमारत में होते हुए भी ठीक उससे सटा हुआ था – गोकि जाना होता था पूरा घूमके मुख्य द्वार से सीढ़ियाँ चढ़कर। सो, एक दिन मैंने एक प्रयोग किया – नौकरी से आते हुए चाय लिये आया और बिना नहाये हुए सिर्फ़ मुंह धोकर चाय के साथ कमरे में ही नोटबुक खोलकर बैठ गया। सर की बुलंद आवाज़ के चलते पूरा पढ़ाना सुनता व नोट्स लेता रहा…। यह हर तरह से इतना माकूल सिद्ध हुआ कि आ-ए-दिन करने लगा। कुछ ही दिनों में एक दिन उन्होंने पूछा, तो मैंने बता ही नहीं दिया था, उनके पढ़ाये के नोट्स दिखाकर प्रमाण भी दे दिये थे। फिर तो वे निरुत्तर हो गये और मैं निडर। सिलसिला चलता रहा…।
डॉ. राय बी.ए. में हमे उपेंद्रनाथ अश्क़ लिखित नाटक ‘जय-पराजय’ पढ़ाते और ‘आधुनिक कवि’ वाली सरनाम श्रिंखला में छपी नरेंद्र शर्मा की कविताएँ। इसमें मेरी ही ऐसी हानि जग-ज़ाहिर होती है कि राय सर के पढ़ाये का आज मुझे कुछ याद नहीं आता। ‘जय-पराजय’ की कथा का कोई अंश या किसी पात्र के नाम तक याद नहीं। यूँ उसे जाने दे सकते हैं, क्योंकि वह तो पाठ्यक्रम लायक़ था ही नहीं…बाद में इस क्षेत्र से गहरे सम्पर्क में आने पर कयास हुआ कि प्रकाशक के साथ अध्ययन-समिति के मुखिया के गँठजोड़ या किसी अन्य माया-मोह के दबाव वश रख दिया गया होगा। लेकिन नरेंद्र शर्मा की कविताएँ तो अच्छी भी हैं। तमाम तो अद्भुत प्रेम कविताएँ भी रहीं…। कई सारी तो अब तक याद हैं – ‘आज न सोने दूँगी बालम’, ‘आज के बिछड़े न जाने कब मिलेंगे’ और वह ‘फटा ट्वीड का नया कोट भी’ वाली अनुपम कविता…आदि, लेकिन इन पर राय सर की कोई टिप्पणी ख़्याल में नहीं आती…। ऐसी कविताओं की बावत उनका संकट व सलूक मैं समझ सकता था…। कक्षा में हास्य-बोध से वे कोसों दूर रहते और रूमानी बातों की सरसता पर बज्र केवाड़ लगाये रहते…कोई दृष्टांत या सरस उदाहरण कभी लाते न थे। (मुझे पता नहीं कि हमउम्रों के बीच भी हास्य-रूमान…आदि उनमे प्रकट होते या ऐसे ही तटस्थ बने रहते…)। फिर काव्येतिहास के साथ भी कविताओं को जोड़ते न थे। पाठ और विवेचन को मिलाते न थे – सिर्फ़ मीमांसात्मक (थियोरेटिकल भी कह सकते हैं) पढ़ाते रहते, जो थोड़ी ही देर में हमसे छूट जाता था…। और कोरा विवेचन करने में सर इतनी लम्बी उड़ानें भरने लगते कि पाठ तो छूटता ही, हम श्रोता भी अधर में लटके पीछे रह जाते और सर की व्याख्याएँ आसमान की क़ुलाँचे भरते हुए दूर निकल जातीं…। इस प्रक्रिया में भाषा बिचारी भी ऐसे तन-बिन जाती कि उसके लिए अर्थ को वहन कर पाना ख़ासा मुश्किल होने लगता। व्याकरण बेचारा पनाह माँगने लगता – जिस कर्त्ता से वाक्य शुरू होता, वाक्यांत तक पहुँचते-पहुँचते वह बेचारा कहीं औंधे मुंह गिर गया होता और तब सर एक नया कर्त्ता लगा के क़्रिया को बाल-विवाह जैसी पत्नियों की तरह गाँठ जोड़के उसके पास बिठा देते…!!
कभी हमारे ऊपर उनके ग़ुस्सा होने की याद नहीं आ रही – होते ही न थे। उनके आरम्भिक जीवन और बाद में विभाग में उनकी स्थिति -खासकर ग़ुरु व विभागाध्यक्ष पी.एन.मिश्र के कारण टी.एन.सर काफ़ी सहनशील और फिर बेहद संतुलित हो गये थे। लिहाज़ा हमारी ग़लतियों को भी चला लेते…। ग़ुस्सा किसी पर भी कभी करते देखने की याद नहीं आती, तो झगड़ते कैसे होंगे कभी किसी से, की कल्पना नहीं होती।
सर्वाधिक उल्लेख्य यह है कि टी.एन.राय सर ही ऐसे थे, जिनकी लिखी किताब पुस्तकालय में सबसे पहले दिखी – हो सकता है एस.ड़ी.मिश्र लिखित ‘भोजपुरी गीतों के विविध रूप’ पहले रही हो, पर ‘मैं प्रथमहिं पारथ को देखा’ की तरह मुझे पहले सर की यही किताब दिखी थी – ‘मनुष्य के रूप : अध्ययन की दिशाएँ’.। दो प्रतियाँ साथ में ही रैक में लगी थीं…और हमारे मन में हसरत पैदा कर गयी थीं कि क्या हमारी लिखी पुस्तकें भी कभी यहाँ दिखेंगी? याने लिखने की अनकही प्रेरणा आपोआप सबसे पहले राय सर के लेखन से ही मिली। और यह हसरत पूरी हुई लगभग 14 सालों बाद, जब मेरी थीसिस ‘लोकभारती’ से छपकर 19८८ में आयी और 19991-92 में राय सर ने ही अपने ग़ुरु श्रीधर मिश्र की षष्ठि पूर्त्ति पर कार्यक्रम किया, तो मुझे भी गोवा से बुलाया गया…। यह किसी को नहीं मालूम कि खालसा पहुँचते ही सबसे पहले कोने में स्थित पुस्तकालय की सीढ़ियों से चढ़कर आलमारी में लगी अपनी किताब देखने गया था। वहाँ कार्यरत चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी भोंसले ने मुझे ले जाके दिखाया था – उसके साथ मेरे काफ़ी अच्छे आसंग रहे…। उस कार्यक्रम में श्रीधर गुरुजी पर राय सर द्वारा सम्पादित स्मारिका ‘संप्रेरणा’ भी निकली थी, जिसमें उन्हीं के आदेश पर लिखा हुआ मेरा लेख था – ‘ग़ुरु और सिर्फ़ ग़ुरु’ – अनजाने में लिखा मेरा पहला संस्मरण लेख। क्या आज संस्मरण विधा में मौजूद मेरी तीन किताबों की बुनियाद राय सर का लिखाया वही लेख तो नहीं!! ख़ैर, बी.ए. के पाठ्यक्रम में यशपालजी का ही उपन्यास ‘दिव्या’ लगा था, तो साधना की तरह उनके सारे उपन्यास पढ़ने के दौरान ‘मनुष्य के रूप’ सर्वाधिक रोचक लगा। आज तक स्मरण में है और बहव: उद्धृत होता रहता है। इसके बाद राय सर की उक्त किताब पढ़कर पहली बार किसी किताब पर कैसे लिखते हैं, के विचार और तरीक़े अनजाने ही दिमाँग में क्या नहीं बने होंगे…, जो कालांतर में विकसित होते हुए अपनी शैली खोज-बना पाये…कि ‘शिवप्रसाद सिंह का कथा साहित्य’ पर मैने काम किया। याने कैसे-कैसे प्रभावित व शिक्षित करता है एक ग़ुरु, इसकी मेरे लिए मिसाल रहे हैं राय सर…।
और प्रभाव व प्रेरणा ही नहीं, बाद में पता लगा कि हमारे परिणामों पर भी उनके गुरुत्व की एक नज़र हमेशा लगी रहती…। एक ही प्रमाण दूँगा…मेरी पहली कहानी छपी ‘आउटलुक’ में – ‘इसे ख़त न समझना’। 15 दिनों के अंदर सर की चिट्ठी आ गयी। लिफ़ाफ़ा खोला, तो तीन पृष्ठों में कहानी की समीक्षा – उनकी ख़ास लिखावट में, जिसमें घने-घने, छोटे-सुरूप अक्षरों के बीच ‘र’ की निचली रेफ, ‘स’ में छिपे ‘र’ की भी वैसी ही निचली रेफ एवं ह की लटकी हुई टेढ़ी पूँछ तथा ऊपर लगाने वाली ‘ए’ की मात्राएँ, तो कभी ऊपर लगाने वाली ‘ई’ मात्रा की टोपी…आदि को इतनी लम्बी खींच देते कि लिखाई तो रनिंग का रूप ले ही लेती, वे मात्राएँ गुम्बद या बार्जे बन जातीं तथा नीचे की पूँछें ऐसी झबरायी बुनियादें बन जातीं, जो पूरी लिखाई को अनजाने-अनायास ही एक स्थापत्य की विरल शैली बना देतीं…। ख़ैर, उस चुनमुनवें स्थापत्य में ढेर सारी प्रशंसाएँ, कुछ सीमाएँ, कुछ सुझाव व हिदायतें…मिलीं। पढ़के गद्गद मन मैंने फोन किया, तो आधे घंटे कहानी पर बहस करते रहे – खुश बहुत थे और असीसें शब्द-शब्द से छन-छन कर आ रही थीं…।
लेकिन यहीं एक और याद आ रही है, जिसे लिखने का मोह-संवरण न होगा अब…। बी.ए. के पहले साल में ही महाविद्यालय की पत्रिका के लिए पी.एन. ग़ुरु ने ‘दिव्या की ऐतिहासिकता पर एक दृष्टि’ नाम से एक लेख मुझसे लिखवाया और इसके लिए पुस्तकालय से दर्जन भर किताबें निकालीं और उनके साथ ‘लाइब्रेरी इंचार्ज’ के रूप में मिले अपने कमरे में मुझे बिठा दिया। लेख छपा – मेरे जीवन का पहला लेख। सराहा भी गया, लेकिन उस पर दस दिनों तो मैं काम करता ही रहा हूँगा…और इसी दौरान टी.एन. राय ने एक दिन कई लोगों के बीच मज़ाक़ किया – ‘अरे त्रिपाठी, तुम्हारा शोध-प्रबंध पूरा हुआ’? पहले ही वर्ष के अपने छात्र पर यह तंज न सहज था, न अपेक्षित…। मैं मन मसोस कर रह गया, लेकिन इसका रहस्य मुझे दो-एक साल बाद तब समझ में आया, जब पूरे संदर्भ का पता चला…। पी.एन. ग़ुरु ‘दिव्या’ पढ़ाते थे। ‘मार्क्सवाद और उपन्यासकार यशपाल’ नामक उनका शोध-प्रबंध था, जो बाद में छपा। राय सर के ‘मनुष्य के रूप’ वाली किताब इसी का अनुषन्ग थी, जो पहले छप के आ गयी। उस दौरान जिस मानसिक आलोड़न से राय सर गुजरे होंगे, उसी की एक हल्की-सी लहर थी इस तंज में, लेकिन अनुषन्ग वाली बात की अब और गहराई या विस्तार में जाना कटु सत्य तो होगा, लेकिन नैतिक संहिता का उल्लंघन होगा…अस्तु, इत्यलम्।
खालसा महाविद्यालय के अपने गुरुओं में -मेरे देखे में- टी.एन. राय ही थे, जिनमें साहित्य और जीवन के बीच ‘प्यार का वादा फ़िफ़्टी फ़िफ़्टी’ था – बल्कि साहित्य को 60 % कहें, तो ज्यादा सही होगा। वरना शेष चारो में जीवन प्रमुख था – साहित्य व शिक्षा उनके पीछे-पीछे चलते थे – कामचलाऊ भर। उनमें से पी.एन. की तो वृत्ति ही न थी पढ़ने-पढ़ाने की। वे कॉलेज के बाद चक्की व दूध के अपने धंधों की देखरेख करते थे और उनके लिए पढ़ाना भी इसी का एक पूरक हिस्सा था। किसी भी पेशे में रहो, सिर्फ़ पैसे कमाने की यह वृत्ति उनके दूसरे बेटे में ऐसी उतरी कि डाक्टरी जैसे जीवनदायी पवित्र पेशे में रहते हुए उसने ऐसे गुल खिलाए की आयकर के छापे गुरुजी के घर तक पे पड़े। एस.ड़ी. की औक़ात नहीं थी, वरना वे कोशिश तो काफ़ी करते थे। डी.आर.पांडेय अवश्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के पटु शिष्य थे। तब की पायी साहित्य की उनकी समझ और विश्लेषण इतने अच्छे थे कि उनके सामने मोहमयी (मुम्बई) नगरिया के सारे शिक्षक पानी भरें, लेकिन उनके साथ ‘सर मुँड़ाते ही ओले पड़े’ की मानिंद सेवा शुरू करते ही जो हादसा हुआ, उससे वे प्रतिक़्रियावादी होकर सुस्त-विलासी-निरपेक्ष हो गये। 120 व 32 वाले ढेर सारे तम्बाकू का ज़हर पान में खाते हुए कहते – ‘मैं अपना पढ़ा सब भुलवाना चाहता हूँ त्रिपाठी – यहाँ मूर्खों के बीच उसकी ज़रूरत नहीं, उसका अपमान है’। मैं कम समझ पाता कि वह कौन सा ज़हर है, जिसे वे इस ज़हर से मार रहे हैं…। अब बचे अपने प्रिय राय साहब – बेहद नेक और संयमित…अपनी औक़ात से ज्यादा साहित्य की सेवा करते…। यह कहना ग़लत होगा कि उन्होंने साहित्य से कोई स्पृहा नहीं की…। प्रतिदान की आशा मानवोचित है, लेकिन किसी कमजर्फ स्वार्थवश साहित्य में रत न रहे। साहित्य रचना, उसमें रमना उनकी चाहत व संतोष-सुख का सबब था। यही रुचि उनकी वृत्ति बन गयी… और फिर उनकी प्रकृति में समा गयी, जो किसी के लिए भी बड़ी बात है और शिष्य के रूप में हमारे लिए गर्व का सबब। मुम्बई के हमारे दर्जनाधिक गुरुओं में जो तीन-चार ऐसे रहे, उनमे एक आदरणीय नाम डॉ. त्रिभुवन नाथ राय का है, जिन पर हमें फख्र है।
इस प्रकृति से साहित्य में हुए उनके दो तरह के कार्य आज सबके सामने हैं। पहले तरह के उनके कार्यों की दशा व दिशा स्पष्ट है, जो मूलतः भारतीय काव्यशास्त्र की है। उसी से बनी है। सच ही सुबुद्ध एवं दृष्टिसंपन्न है। यह धारा उनके शोध-कार्य ‘धवनि सिद्धांत और हिंदी के प्रमुख आचार्य’ से फूटी। वैसे किस पृष्ठभूमि के साथ और किस प्रेरणा से उन्होंने ध्वनि सिद्धान्त पर अपना शोध-कार्य किया, इसे जानने लायक़ तब हम न थे। जहां तक याद है, उनके पढ़ने-पढ़ाने के क्षेत्रों के साथ कभी ध्वनि …वग़ैरह जैसा कुछ दिखा नहीं। बातचीत में इस तरफ़ उनकी रुचि-प्रवृत्ति के संकेत कभी मिले नहीं थे। कार्य कर लेने के बाद भी बात-व्यवहार में ऐसा कभी जहिराता न था कि ध्वनि या काव्यशास्त्र…आदि की चर्चा कर रहे हों…!! यूँ बात लिखने-पढ़ने की थी, इतना गूढ़-गम्भीर विषय था…फूटना तो बनता था कहीं…कभी!! ख़ैर, इसके के बाद उन्होंने ‘ध्वन्यालोक और आनंद वर्धन’ तथा ‘ध्वनि सिद्धांत : प्रतिपक्ष और विकास’ नामक कार्य किये, जो सचमुच इस अध्ययन की अगली कड़ियाँ हैं। फिर स्वाभाविक रूप से धवनि से आगे जाकर पूरे काव्यशास्त्र पर ध्यान गया और ‘भारतीय काव्य सिद्धांत एवं काव्य मीमांसा’ जैसा महत्त्वपूर्ण कार्य सामने आया, जो पूरे देश के अद्ध्येताओँ में काफ़ी सराहा गया। प्रो. राय साहित्य-क्षेत्र में भारतीय काव्यशास्त्र के विशेषज्ञ के रूप में जाने गये…। फिर इस अध्ययन से प्राप्त निकषों-निष्कर्षों के अनुसार समकालीन के विवेचन में लगे और ‘समकालीन काव्यबोध’, ‘काव्य चिंतन : विविध आयाम’ जैसे जैसे सधे कार्य सामने आये, जो दीर्घजीवी होकर आने वाले समय में अध्येताओं के साथ साहित्य को समृद्ध करेंगे…।
लेकिन उनके कार्य का जो दूसरा पक्ष है, उसके अध्ययन की दिशा का सही संधान मैं नहीं कर पाता – शिष्य-मित्र के रूप में काफ़ी साथ रहने, उन्हें पर्याप्त समझने के बावजूद। वैसे उनकी मूल वृत्ति अंतर्मुखी थी, जो इसका कारण हो सकती है – इस बावत सबसे अधिक आश्चर्य में डालने वाली बात यह है कि ध्वनि पर शोध के साथ इतना सारा कार्य करने वाला विद्वान महावीर अधिकारी पर किताब सम्पादित करने में क्यों व कैसे प्रवृत्त होता है? अधिकारीजी को काफ़ी सुना है मैंने। वे सुबुद्ध व चिंतक पत्रकार बिलकुल न थे – बस, उनमे दबंगई (सोफ़ियाँ नंगई कह लें) भर थी। उनका एक उपन्यास भी मैंने पढ़ा है, जिससे कह सकता हूँ कि साहित्य उनके लिए गौण उत्पादन (पत्रकारिता का ‘बाइ प्रोडक्ट’ कह लें) था। राय सर का उन पर कुछ करना तो सूरदास के शब्दों में ‘जिहि मधुकर अम्बुज रस चाख्यो, क्यों करील फल भावे?’ ही कहा जा सकता है! इसी तरह मुंशीराम शर्मा पर भी किताब सम्पादित की, जो पुनः ऐसा सिद्ध हुई…। इसके लिए जाति व रिश्ते के होने की चर्चा से भी न बच पाये…और मुझे बारहा लगता है कि इससे तो उन्हें बचना ही चाहिए था। ये सब काम, शैक्षणिक-साहित्यिक के नाम पर, दुनियादारी के हैं, जो उक्त 40-60 वाले प्रतिशत को घटाते हैं…!! हाँ, रस सिद्धांत के गहन व स्वतंत्र अध्येता आनंद प्रकाश दीक्षित पर किताब सम्पादित करना… फिर भी थोड़ा समझा जा सकता है, लेकिन ‘व्यक्ति और दृष्टि’ करके उसे फैलाना क्यों? ‘रस-दृष्टि’ पर केंद्रित करके क्यों नहीं? इसी तरह खालसा की संगति में ग़ुरु गोविंद सिंह पर भी हुआ संपादन समझ में आता है।
यूँ राय सर के समग्र लेखन पर दृष्टिपात करें, तो यह भी सच निकलता है कि लेखन तो काव्यशास्त्र पर ही हुआ है – बाक़ी सब लगभग सम्पादन ही है, जिसमें – मीडिया…आदि पर भी बहुत कुछ है, जिसे मैं ‘कुछ भी’ के रूप में उस विद्वत्ता की राह से भटकन मानता हुं, जो काव्यशास्त्र के अध्येता के रूप में उन्हें मिली थी – गोया ‘आये थे हरि भजन को, रूदन लगे कपास!! क्योंकि ध्वनि के विद्वान डॉ त्रिभुवन नाथ राय को न सही रीति-वक्रोक्ति-अलंकार, लेकिन धवनि के चचेर-ममेरे भाई ‘रस सिद्धांत’ पर तो वैसा ही कार्य करना बनता था, जो ध्वनि की संगति में कार्य की सही दिशा होती तथा पूरक रूप में समझी जा सकती थी। वह अनुपम न सही, विरल कार्य होता…!! सम्पादन भी करना था, तो उसी क्षेत्र में करते। वह कठिन क्षेत्र है, जिस तरफ़ राय सर ने अपनी योग्यता सिद्ध की थी। उसे आगे बढ़ाते…वरना उक्त सब सम्पादन तो कोई भी कर सकता था। तो क्या यह सब करना उनकी सामाजिकता-व्यावहारिकता का कोई गँठजोड या तक़ाज़ा था? कौन जाने? इतनी अंदरूनी परतों तक न हमारी पहुँच थी, न हमने पहुँचना चाहा…।
अब इसी शोध…आदि जुड़े एक व्यावहारिक पक्ष की ओर चलें…। शोध-निर्देशक के चयन में उनकी व्यवहार-बुद्धि का लोहा मैं सहर्ष मानता हूँ कि कैसी सफ़ाई से पी.एन. मिश्र के चंगुल से वे अपने को निकाल लाये होंगे…!! वे मुम्बई के इनके आदि गुरु भी थे। उनके मातहत काम भी करते थे। इस तरह जल में रहते हुए मगरमच्छ से अपने को बचा ले जाने के उनके कौशल के प्रति मै नतशिर इसलिए भी हुं कि मैं तो स्वतंत्र था, पर न बचा पाया – गोकि मन से बचाना चाहता था!! लेकिन शामों को गुरुजी मेरे कॉलेज चले आते थे – छुट्टियों के दिन घर चले आते थे और हाल-चाल, चाय-नाश्ते के बाद वही सनातन सवाल – जल्दी से शोध के लिए पंजीकृत हो जाओ…। मैं समोह में आ गया और इसमें मेरी एक मारीच-बुद्धि भी देखी जा सकती है – कि काम तो मुझे करना है – गाइड कोई भी हो। फिर वैसा कोई नामचीन मुम्बई में था भी नहीं, जिसके साथ करने से कोई श्रेय मिले…। और हुआ भी वही। तो क्या राय सर के साथ ऐसा सब न किया होगा? फिर भी वे अपने को बचा ले गये…!!
लेकिन गहरे जाके देखें, तो राय सर का इनसे बचना और मेरा न बच पाना…दोनो में बस, प्रक्रिया का फ़र्क़ रहा – परिणाम दोनो का वही रहा, क्योंकि राय सर ने भी ताड़ को छोड़ा, तो खजूर पर अटक गये – एस.ड़ी. मिश्र को गाइड बना लिया। शायद इस निश्चिंतता के लिए कि वे कुछ दख़ल न देंगे (यह मेरा समझा हुआ सत्य है – जाँचा हुआ नहीं) और काम सुचारु रूप से हो जायेगा। मेरे साथ यही पी.एन. ने भी किया – जो कभी भूले से भी कोई मार्ग-दर्शन देने की कोशिश की हो या लिखे की एक भी पंक्ति पढ़ी हो – सिवाय भूमिका में अपने पर लिखे एक पाँच पंक्तियों के अनुच्छेद के, जिसमें एक पंक्ति और जोडवा दी। मेरा अक्षरश: काम डी.आर. ने न ही सिर्फ़ देखा-पढ़ा, बल्कि सम्बद्ध साहित्य भी पढ़ा और विमर्श किया, जिससे रास्ते बने…। याने वही मेरे अलिखित गाइड रहे…और यह बात पी.एन. जानते भी थे। इस प्रकार मेरे व गुरुवर रायजी के लिए इस मामले पर शैलेश मटियानी का वही शीर्षक सार्थक हुआ – दो दुखों का एक सुख!
गुरुवर त्रिभुवन राय के घर जाने की तो काफ़ी सारी बातें हुईं, लेकिन एक बार मैं उनके गाँव के घर भी गया और मेरे मुम्बई के घर भी वे एक ही बार आये, जो दोनो यहाँ उल्लेखनीय है। एक ही बार इसलिए कि मेरे घर की दूरी भी उनके लिए कम न थी और उधर ऐसा कुछ था नहीं कि आते-जाते आना हो सके…। इस बावत भी कहना होगा कि पी.एन. ग़ुरु के तो डॉक्टर बेटे ने जहू स्कीम जैसे उर्वर इलाक़े में मेरे घर के पीछे दवा-दारू की दुकान खोल दी थी और गल्ले पर पिता को बिठा दिया था। ‘गुरू’ ने सेवाकाल में तो जो किया, सो किया, अंतिम समय में यह भी कर डाला कि हम किसी भले आदमी को बता भी न सकें कि यह दुकान किसकी है। और मेरा बेटा तो तब के अपने धुर बचपन से ही सायकल से बाज़ार करता हुआ दवा के लिए उनका ग्राहक बन गया था, क्योंकि हर बार कुछ चाकलेट घलुआ में मिल जाती। इन सबसे बार-बार उनका आना हो जाता था घर पे…। इसके पहले भी काफ़ी बार आ चुके थे, क्योंकि चक्कर मारते (विज़िट करते) रहना उनका स्वभाव था – पढ़ना-लिखना तो था नहीं। पांडेयजी भी कई बार आ चुके थे – उनसे मेरा रिश्ता ही ‘जिव-जिव आंतर’ का था – वे तो मेरी शादी में भी आये थे, जब सिर्फ़ तीन मित्र ही आमंत्रित थे।
ऐसे में भी टी.एन. सर ही बेहद ख़ास हुए कि अपनी बग़ल में स्थित ‘पृथ्वी थिएटर’ में नाटक देखने का कलात्मक कार्यक्रम बना कर बाक़ायदा उन्हें घर आमंत्रित किया था। बहुत याद आता है – बड़ा-सा घर देखकर बच्चों की-सी निश्छलता से उनका खुश होना, घूम-घूम कर देखना… और आमने-सामने के झूलों पर सिहा-सिहा के झूलना…। खूब प्रशंसाएँ व खूब असीसें अघा-अघा के निकलीं ग़ुरु-मुख से…। और उनका ख़ास शग़ल पढ़ने-लिखने का भी सवार हुआ – इस बार पत्नी कल्पना के लिए…कि वे लिखें…और इस गुजरातन के लिए उनके पास कोई विषय भी था। उनके ना-ना व उस पर मेरे भी सहार का सर पर कोई असर नहीं – ‘तुम लिख कर मुझे दोगी’ के आदेश के साथ विदा हुए…। कल्पना ने उनका मन रखने के लिए कोशिश भी की, लेकिन अकाउंट्स के शुष्क व अंकीय विषय वाली के लिए अक्षरों की साधना असम्भव थी। सर ने फ़ोन पर सीधे उनसे ढेरों तक़ादे किये, कई बार हिदायतें दीं, लेकिन कुछ हुए बिना अंत होना ही था।
उनके गाँव जाने का वाक़या तो उनके घर-संसार की एक अकथ कथा का परत-दर-परत खुलना था। यहाँ भी बता दूँ कि डी.आर.पांडेय के गाँव (बी एच यू से 5 किमी दक्षिण – बालपुर) तो 1980 के दशकांत में ही जाके उनकी बड़ी बेटी चिंता की शादी की तैयारी से लेके बारात विदा कराके लौटा था…और पी.एन. के घर (करणेपुर, जौनपुर) के पास के गाँव डिहँवा में तो मेरी चचेरी बहन (शारदा) व्याही है, जो लोग अपने गूरू के पुरोहित रहे। सो, वहाँ भी 1980 के दशक में गया ही नहीं, बीमार ग़ुरुआइन की जौनपुर के सदर अस्पताल में दवा-सेवा भी कर-करा चुका हूँ…। सो, इसमें भी राय सर ही बचे थे। इधर मैने जब (2010) से बनारस में घर ले लिया है और साल के कुछ महीने वहाँ रहता हूँ…तब से ही 60-65 किमी दूर भदोहीं के उनके गाँव जाने का इरादा कर रहा था, पर कुछ कार्यक्रम बन नहीं पा रहा था। वह बन पाया उनके अवसान के डेढ़-दो साल पहले – यूँ कि मेरे बनारस रहते एक बार सर के बेटे प्रो. मृगेंद्र का फ़ोन आया। पता लगा कि सर गाँव में हैं। मुंबई आना है, पर अकेले आने की हालत नहीं है। बस, मुझे मिल गया मौक़ा…साथ आने की तारीख़ तय कर ली। फिर एक दिन मैं उनसे मिलने व सही रास्ता देखने गया, ताकि उस दिन दिक़्क़त न हो। शैलेश सिंह मेरे साथ थे…। वहाँ पहुँचकर जो दृश्य देखा, ताज्जुब भी हुआ और सर के जीवट, उनके धैर्य व हिम्मत की दाद भी देनी पड़ी। उस उम्र में अकेले रह रहे थे, एक सेवक जैसे ग्रामवासी थे, जो सर की देखभाल करते थे – हमारे लिए भी चाय-पानी का बंदोबस्त किया। मुम्बई से मृगेंद्र हमेशा मोबाइल से जुड़ा रहता – हर इंतज़ाम ऑन लाइन करके देता। और बड़ा बेटा अरबिंद ऐसा संत है कि कहता – जाने दो, ले लेने दो।
वहाँ पहुँच के जो मंजर देखा व जाना, वह मनुष्यता की चिर हानि का वही सनातन सबब है कि भाई के उन बच्चों ने सामने का लगभग पूरा हिस्सा क़ब्ज़ा कर लिया था, जिन्हें पढ़ाने-सम्भालने के लिए सर ने क्या नहीं किया था, जो हमारा कानों सुन के आँखों देखा हुआ है!! तब वे अपनी इकली नौकरी में खुद के चार बच्चों वाला घर चलाने, उन्हें अच्छी शिक्षा देने व शादी-व्याह करने की ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए भी उसी में से कर-कसर करके उन सबकी भी साज-संभार करते थे…। याद आ गया, इसलिए क्षेपक के रूप में बता देता हूँ कि ऐसी स्थिति में भी कॉलेज के बाहर मिलने पर हमे वृं’दावन’, ‘मद्रास कैफ़े’ या ‘आनंद भवन’ में चाय अवश्य पिलाते। साथ में कुछ खिलाने के संस्कार को निभाते हुए टोस्ट मंगाते, ताकि हम चार हों, तो भी एक-एक, दो-दो टुकड़े खाके चाय पीएँ…यह सब निर्वाह अपनी उक्त स्थिति में वे कैसे करते थे, तब समझ में आया, जब वही नौकरी करते हुए हमें अपना घर चलाना पड़ा…। और कह दूँ की उनसे मिले इस संस्कार का निर्वाह महिला विवि की छात्राओं, जिनकी स्थिति तब के हमसे भी कमज़ोर होती थी, को आजीवन खिला-पिला के मैंने जीवन भर किया, जिसकी तस्दीक़ कोई भी बच्ची करेगी…। और हर दिन राय सर की याद में ग़ुरु के समक्ष सर झुकता रहा…। बहरहाल, अपनी बात पर आयें…
उन दिनों सर के भाई के ये बच्चे इन्हें खूब सम्मान भी देते थे। हम खुश व इस तरफ़ से निश्चिंत रहते यह अपनापा देख कर…। लेकिन इधर कुछ सालों से पता चला कि उन सबमें किसी को कोई अच्छा काम मिल गया ठीके का और फिर सबने घर बनाना शुरू किया। बनाते हुए सर के ‘पेटे घिव’ देते रहे कि चाचा/बाबा आप के लिए ख़ास बेड रूम, स्टडी रूम बना रहे हैं…आप आके यहाँ भी रहा कीजिएगा…। और ऐसा सब कह-कह के बना लेने के बाद पूछना तो बंद क्या किया, इनके हिस्से का वह खेत भी बाँटने को तैयार न हुए, जिसकी उपज ज़िंदगी भर खाते रहे…। इसीलिए अब वे इच्छते थे कि सर या उनका परिवार गाँव आये ही न – सब कुछ उनके लिए छोड़ दे…। और लेने आये हैं, तो देंगे नहीं…!! यह कथा घर-घर की है, पर अपने घर होती है, तो सालती बहुत है…!! लेकिन उसी लिए सहना भी हो पाता है…!!
ऐसे में ही सर वहाँ गये थे – उनकी ऐंठ का जवाब देना था। इसमें लाभ की बात उतनी नहीं थी, जितनी अपनी हेठी व बेइमानी किये जाने के विरुद्ध प्रतिकार की शान थी। उनका बना घर तो गिर न सकता था, लेकिन बचे में से अपने हिस्से जितना हासिल किया सर ने और आम तौर पर रहने जैसा घर भी बनवाया। अस्सी पार की जईफ़ी वाली उम्र में, ऐसी विकट स्थिति में सर का वह रौद्र नहीं, दृढ़ रूप देख कर एक और बड़ा पाठ सीखने को मिला – ‘न दैन्यं न पलायनम्’। इस यात्रा में एक नयी बात मालूम हुई, जिसका मेरे लिए कोई मतलब नहीं है, लेकिन एक तथ्य के रूप में कह दूँ – कि ‘राय’ लोग हमारे यहाँ भूमिहार होते हैं, जो मैं सर को समझता था, लेकिन उनके इलाक़े में यह पदवी ब्रह्मभट्ट के लिए होती है जो हमारे यहाँ बोले तो जाते हैं, लेकिन लिखने में सिर्फ़ ‘भट्ट’ होते हैं!
उस बार का सर को लेके आना मेरे जीवन की एक चिस्मरणीय घटना है, जो मेरे लिए अनुष्ठान से कम नहीं, क्योंकि पी.एन. व डी.आर. के साथ बहुत कुछ निजी व पारिवारिक हुआ करता था – आम बात हो गयी थी। लेकिन टी.एन.सर के साथ कभी ऐसा मौक़ा ही न आया था। उड़ान (फ़्लाइट) नौ या साढ़े नौ बजे रात की थी और इस बार भी उन्होंने ‘रात को लेने घर न आओ – मैं भाड़े की कोई गाड़ी लेके बावतपुर (विमानतल) आ जाऊँगा’, की छूट जबरन दे दी – आदेश की तरह, क्योंकि वे जानते थे कि मेरे घर से उनके घर की दूरी मेरे घर से विमानतल की दूरी से दुगुना है। और यह समझ व खुद कष्ट उठाके सामने वाले को कष्ट से बचाने की यह समझदारी भी राय सर के समक्ष नतमस्तक कर देती है, जो अन्य गुरुओं में ‘न’ के बराबर थी। ख़ैर, वे समय से आ गये। कोई रिश्तेदार भी साथ आये थे, जो मेरे लिए संतोष का सबब बना। खाना अपने घर से लाने का आमंत्रण मैंने दे रखा था – नाती-नातिन साथ आ गये थे – मेरे ग़ुरु के दर्शनार्थ। उनको देख के तो सर को जैसे बड़ी हरनामी मिल गयी हो…थोडे से वक्त में इतनी बातें कीं उनसे – सब कुछ उनका पूछा। और तनिक देर में मेरी नातिन को राय सर अपने ऐसे परनाना लग गये…कि ‘हम खिआय देईं’ कहते हुए उसने मटर के पराठे अपने हाथों से खिलाना शुरू किया – फिर निमोना-भात चम्मच से खिलाया…और सर हसरत से उसके मुंह की तरफ़ देखते हुए मगन मन खाने लगे – गोया स्वीटी उनकी सनातन परनातिन हो और उसी के हाथों रोज़ खाते हों…। तब उनकी खुराक तो चिड़िये के चारे जितना रह गयी थी, लेकिन वह त्वरित दृश्य देख मुझे याद आया – गोया ‘चबत-चबाऊ करन लगे चतुरानन त्रिपुरारि’…।
उनसे विदा होके मैंने सर का थोड़ा-सा सामान अपने पहिए वाले बैग पर रख लिया और दूसरे हाथ से उन्हें सहारा देते हुए चला, तो लगा – काश, यह रास्ता कभी ख़त्म न होता…। अंदर जाके सीट की अदला-बदली करके मैं सर के पास आया। उड़ान भरने के थोड़ी ही देर बाद सर सो गये – थक गये थे। मुम्बई उतरे, तो टर्मिनस 2 की लम्बी दूरी को जानते हुए भी जो गलती मैंने की, उसके लिए कभी अपने को माफ़ न कर पाऊँगा – पहिएदार कुर्सी बुक नहीं की…आदत ना थी। और इसका ध्यान आया काफ़ी देर बाद सर की हालत देखकर…लेकिन पुनः उनकी हिम्मत व धीरज की ही बलिहारी कहूँगा कि मेरा हाथ पकड़े-पकड़े यात्रा पूरी करके उन्होंने सिद्ध किया – ‘तितीर्षु: दुस्तरं मोहादुड़ुपेनास्मि सागरम्’।
साढ़े ग्यारह बजे रात को उतरे थे। मृगेंद्र ने फ़ोन पर कहा – टैक्सी पर बिठा दीजिए – आ जायेंगे, लेकिन मेरी चेतना इसे स्वीकार न सकी। गाड़ी थी ही..सीधे सर के घर गये। मृगेंद्र के हाथों में सर का हाथ देके आने का जो संतोष मिला कि सारा रास्ता चंद पलों में जैसे समा गया हो…। दूसरे दिन सर ने फ़ोन करके जो कहा, मेरी ज़िंदगी की नेमत है – ‘तुम शिष्य रूप में बेटे थे – अब तो सच में बेटे हो गये’! उनके इस अपार स्नेह-भाव के लिए मैं तुलसी बाबा को बदल के कह सकूँगा – ‘थोरेहिं काज, ‘गुरिहिं सुख’ भारी’!!
ऐसी दूसरी-तीसरी यात्रा बनाने की हसरत मेरी भी थी और सहमति उनकी भी। इसमें एकाध सप्ताह बनारस वाले अपने घर में साथ रहने की योजना थी। और जो सब मैंने एकल या अन्यों के साथ कई-काई बार किया है, वह सब सर के साथ करने की अपनी योजना भी मैंने उन्हें बतायी थी – अस्सी-गोदौलिया घाटों पर घूमने, नौका पर बैठ के आरती देखने, रामनगर की लस्सी पीने, सारनाथ की सैर करने…आदि-आदि। लेकिन कौन जानता था कि नियति ने तो हम दोनो की उस यात्रा पर ही ‘अंतिम’ की मुहर लगा के भेजा था। उसके बाद सर प्राय: बीमार होने लगे थे…। बड़ा व नामचीन अस्पताल ‘के ईएम’ नज़दीक है। वहाँ से लेकर उस इलाक़े के तमाम अच्छे डाक्टरों से राय सर व मृगेंद्र के अच्छे परिचय भी हैं। इलाज हमेशा माकूल हुआ…। केईएम में भर्ती भी रहे…। और यह सब सुनने पर इस दौरान दो-चार बार कभी उनके गाँव के मेरे परम मित्र जिलेदार राय, तो कभी सर के परम प्रिय व मेरे समय-समय के मित्र गिरिधर बलोदी… आदि के साथ मिलने भी गया था…। एक बार की याद है कि अपने परिसर की सफ़ेद जामुन लेके गया था और हमारी हर छोटी-मोटी बात को जम के तवज्जो देने की अपनी उदारता में उन्होंने बीमारी की हालत में भी निहाल होते हुए फ़ोन पर बताया था कि तुम्हारी स्वादिष्ट जामुन हमने भी खायी और पड़ोस में भी बाँटे…।
लेकिन उम्र व बीमारी से सदा के लिए पार किसने पाया है…? तिल-तिल करके सर भी छीज रहे थे, पर जब तक रहे, उनके स्व-अर्जित उत्साह व लगन को नियति भी कभी कम न कर पायी…!! किंतु अंतिम सत्य तो वही है – ‘तुलसी या धरा को प्रमान यही, जो फरा, सो झरा; जो बरा, सो बुताना…’!! आख़िर तो एक दिन जाने की खबर आनी ही थी। जिस सुबह आयी – पता लगा कि 5 बजे उठकर सर ने सबसे बात की, शायद चाय भी पी…। और कुछ देर बाद ‘थोड़ा सोता हूँ’ कह के सोने गये…और जो सोये, तो वह मुख़्तसर-सी योजित नींद चिरनिद्रा में तब्दील हो जानी थी, कौन जानता था…? कुछ समय बाद ही लोग जान पाये…! भगवद्गीता में आत्मा के शरीर बदलने की क्रिया को ‘वासांसि जीर्णानि यथा विहाय…’ याने ‘वस्त्र बदलने’ जैसा सहज-सरल कहा गया है, जिसे राय सर ने अपने सत्कर्मों से सच कर दिया। गोया तुलसी बाबा ने इन्हीं के लिए लिखा हो – ‘जनमत-मरत दुसह दुःख होई, सो दुःख ‘तोहिं’ न व्यापै सोई’।
सुबह खबर मिलते ही सेक्सरिया कंपाउंड के उसी घर में जानने वालों का हुजूम उमड़ पड़ा…। जानने वाले घर जानते थे और घर सभी आने वालों को जानता था। मुझे सूचना नहीं, मेरा कयास है कि राय सर का अपने नाम का पहला निजी घर यही था। यहीं पहले पहल ग़ुरुआइन को लेकर आये होंगे…। तब से आज तक के सर व परिवार के विकास को जितनी सफ़ाई-गहराई से यह घर जानता है, कोई और जान ही नहीं सकता…। अतः आज मेरा मन हो रहा कि इसी घर की आँखों से सर के घर-परवार को देखा जाये – जितना हम इसे देख-संजो पाये…। इसी घर में इसी घर के साथ सर ने अपने सारे दुःख-सुख झेले…बड़े बेटे अरविंद के अलावा तीनो बच्चों के जन्म, प्रायः सबकी शिक्षा, शादी-व्याह…पोतों-नातियों की किलकारियाँ…सब इसी घर में सुनी-सुनायी गयीं। तमाम बड़े-बड़े साहित्यकार-कलाकार-अधिकारी और हम जैसे विद्यार्थी भी इसी घर में आते रहे – रमते रहे…!! बैठी चाल के चलन की यह इमारत कितनी मज़बूत है कि 50 सालों से तो हम ही देख रहे हैं – वैसी ही बनी है। और ऐसे ही बने हैं इसके रहिवासी…। यूँ तो एक कक्ष, एक बैठक व रसोईंघर वाला यह छोटा-सा घर है, पर राय सर के परिवार को यही बड़े से बड़ा बनाता गया…। कभी बग़ल के कमरे ख़ाली हुए, तो सर ने अपनी सदाशयता व व्यवहार-कुशलता से उसे भी जब तक हो सका, बसेरा बनाया…। अपने कमरे की बग़ल वाली सीढ़ियों की दोपट वाली जगह तो सर ने काफ़ी पहले ही ख़रीद ली थी और वहाँ अपना अध्ययन-कक्ष बनाया था…। इस तरह सर की बुद्धि व युक्ति एवं प्रयत्न से शहर की कोंख में स्थित यह घर महानगरों के आम घरों जितना माकूल भी हो सका…।
इसके रहते सर ने दो मकान और लिये। शिक्षक बड़ा बेटा अवश्य एक में रहने चला गया, जहां सेवामुक्ति के बाद सर भी कुछ-कुछ दिनों के लिए मन बदल आते रहे…। लेकिन शहर के गर्भ में स्थित यह घर इतना सुविधाजनक है कि बड़े घर अपनी दूरी के नाते सर के रहने से वंचित ही रह गये…। सर के कॉलेज के अति क़रीब होने की बात हुई, छोटा बेटा मृगेंद्र भी उसी कॉलेज में लग गया, तो बहू भी यहीं से नौकरी पर जाने में सुविस्ता महसूस करती रही है। इस तरह दूसरी पीढ़ी भी लगभग इसी में निकल रही है…। मेरी जानतदारी में शोक इस घर में अब तक एक ही मना – एक-दो साल ही पहले ग़ुरुआइन का जाना…। इसी घर से उनकी भी अर्थी उठी…और इसी घर से सर की अर्थी उठने वाली है…!!
हम सब इकट्ठा हैं…और पता चलता है कि बेटी जयपुर से आ रही है। तब अर्थी उठेगी…। छोटे घर में आने वालों के तांते को देखते हुए मुझसे बहुत बाद की बैच के सर के दो शिष्यों याने अपने छोटे गुरु-भाइयों -वीरेंद्र सिंह व शैलेंद्र सिंह- के साथ हम बाहर निकल जाते हैं…। दो-तीन घंटे सर-चर्चा के साथ घूमते-चाय-चूय पीते हुए बिताने के बाद लौटे और सर को उठाके नीचे लाया गया…। इमारत के सामने थोड़ी सी ही सही, जगह है – गाँव की भाषा में दुआर, जहां शव को नहलाने-कफ़न पहनाने एवं पिंड़दान की धार्मिक रीतियाँ..आदि सब सम्पन्न होती हैं। इसके बाद ‘राम-नाम सत्य है’ की समूह ध्वनि के साथ शव को दाह-संस्कार के लिए ले ज़ाया जाता है। सर का यह सब उसी दुआर पे हुआ…। हम सबने बारी-बारी से कंधे दिये – कंधे इतने थे कि रास्ता कम पड़ गया (नज़दीक श्मशान भी घर का एक धनात्मक पक्ष सिद्ध हुआ)।
कंधा देते हुए मेरी गुरुओं की बावत मेरी समानांतर गणना फिर दिमाँग में घुमड़ने लगी…। पी.एन. ग़ुरु तो जहां रहते थे, अंत समय वहाँ न रह सके…और हाइ-फ़ाइ बेटों में किसके साथ कब कहाँ रहे…और दिवंगत हुए…, पता ही न लगा – हमारी पहुँच से बाहर चले गये थे। और मेरे प्रियतम डी.आर तो लगभग (और यह लगभग बड़ा मानीखेज है) लावारिस मौत ही मरे…। ऐसे में हर सोपान की तरह यह कंधा देने का सौभाग्य भी टी.एन. सर से ही मिला…। कह सकते हैं कि शिक्षा और जीवन के सभी मुक़ामों पर अपनी गरिमामयी उपस्थिति से कृतार्थ करने वाले ये ग़ुरु आज अपनी अनुपस्थिति से भी हमें एक संपूर्त्ति दे गये…। और अभी इसके आगे भी जो हुआ, सिर्फ़ इन्हीं ग़ुरु के साथ ही हुआ…सो, सर्वांगपूर्ण ग़ुरु तो यही रहे – इकले।
श्मशान पर जब दाह के पहले दोनो बेटे घी-लेप कर रहे थे – ग़ुरु-काया के अंतिम पूर्ण दर्शन हुए…लेकिन इस अहसास से कलेजा उछल-उछल के बाहर आता हुआ महसूस हो रहा था, तो मृगेंद्र-अरविंद के क्या हाल हुए होंगे…अगम्य-अकथ…!! मुखाग्नि तो बड़े के नाते अरविंद को ही देनी थी, उसी को दुनियादारी के अन्य कामों से विरत रहकर तेरह दिनों के सारे कर्म करने थे – प्रबंधन-कौशल में बेहतर मृगेंद्र का दस दिनों के लिए दाग लेकर बंध-बैठ जाना अव्यावहारिक भी था। मुखाग्नि के बाद हम सबने चंदन-काष्ठ के टुकड़े अर्पित किये – यही उस भस्माभिभूत होती देह के लिए अंतिम देय था…। फिर जीते-जागते सर का राख में बदल जाना देख पाने की ताव न रह गयी…निरंतर गतिशील सर की याद को जलती लपटों के रूप में आँखों में बसा के मैं वहाँ से टल गया था…। और अग्नि शांत होने पर सब लौटे…। खड़े होकर वहीं मृगेन्द्र ने कुछ संवेदनात्मक कुछ भावी आयोजन की व्यावहारिक बातें की और पुरोहित पंडितजी की शांति-प्रार्थना के बाद हम सब लौट आये, पर सर के साथ अवश्य गया होगा उनका आजीवन संचित धर्म –
‘मृतं शरीरं उत्सृज्य काष्ठ-लोष्ठ समं छितौ ; विमुखा: बांधवा: यांति, धर्मस्तं अनुगच्छति’
यह स्मृति-कथा यहीं समाप्त हो जाती, पर बारह दिनों के अलग-अलग श्राद्ध-कर्म के साथ हमारे ऋषियों ने तेरहवें दिन बड़े भोज का विधान बनाया है, ताकि मृतक के घर वाले घर में बैठे अकेले तड़पें न…। 12 दिनों घर-ख़ानदान-गाँव-नात-हित-प्रजा-पौनी सब साथ रहते हैं और शोकाकुल परिवार तरह-तरह की गतिविधियों में मुब्तिला रहता है – उसे इन षटकर्मों में दुःख को याद करने, उसमें गर्क़ होने के क्षण बहुत कम मिलते हैं…। फिर तेरहवें दिन के भोज में तो पूरा माहौल जश्न का हो जाता है – यूँ बनारस में तो एक ‘जलसाईं’ घाट का भी उल्लेख मिलता है, जिसमें शव-दाह को जलसा ही माना गया है – उसके आगे लगा ‘ईं’ तो प्रत्यय है – जिसे शायद हमारी मनीषा स्वार्थे (स्वार्थी) प्रत्यय कहती हो…याने यह सब विधान निरे ‘षटकरम’ नहीं, महत् सांसारिक उद्देश्य से सिरजे सुचिंतित विधान हैं। और सर के लिए पूरा परिवार यह सब करता रहा…।
लेकिन त्रयोदशाह (तेरहवें) की शाम तो सबको जुटना ही था…और इस कार्य के लिए मुंबई का कोई भी घर छोटा पड़ता है। सो, शादियों की तरह हॉल लेने या पंडाल बनाने की प्रथा है। लेकिन सर का दूसरा घर रहा – खालसा कॉलेज…, जहां उनका जीवन घर से कम न बीता होगा…और मन-मस्तिष्क का तो ज्यादा हिस्सा वहीं खपा। वहीं से घर और जीवन चला, तो खालसा के चलने में भी सर का योगदान क्या कम है…? उपप्राचार्य होके सेवामुक्त हुए, जो एक ख़ास समुदाय के संस्थान में ग़ैर समुदाय वाले के लिए आसान नहीं था, लेकिन इसके लिए पी.एन. को जोड़-तोड़ करनी पड़ी और सर को कबीर के ‘सहज मिले, सो दूध सम’ के रूप में मिला…। सो, यह सहज ही था – वहीं ग़ुरुआइन का भी भोज आयोजित हुआ था, सर का भी हुआ…। चार साल तो वह मेरा भी 24 घंटे का घर ही था…। सो, मेरी प्रियता का अनुमान लगाया जा सकता है। हिंदू का भोज गुरुद्वारे में सम्पन्न हुआ, तो गंगा-जमुनी संस्कृति का संयोग भी बना…। खूब सारे लोग आमंत्रित थे – आये भी…। खालसा के प्रो. शेषाद्रि…आदि जैसे बड़े पुराने लोग मिले…। उस विरल प्रीतिमयता में हम रुके भी काफ़ी देर…! उस शाम न जल्दी करनी थी, न हुई। सर के साथ जितना जीया था (और कम न जीया था), छक के जीया था, तो उस अंतिम संसक्ति की शाम भी छक के जीया – डट के खाया…।
फिर एक अप्रत्याशित प्रसंग भी बनना था…सर के साथ कई रूपों में जीवन चला – शिष्य-मित्र-बेटा…आदि के उल्लेख हुए, जो कर्मणा बने थे। किंतु नियति को एक रिश्ता और बनाना था – मेरे जन्मना का भी!! उस शाम ब्राह्मणों को वस्त्र-द्रव्य…आदि के दान का भी विधान है, जिसमें कम से कम तेरह की संख्या भी मानक मानी गयी है…जो शायद कम हो रही थी और अचानक सबने मुझे खींचा…और मैं समझूँ, न समझूँ, तब तक अरविंद के हाथों वस्त्र-द्रव्य अपने हाथों में धराये मैंने उसे अपना पाँव छूते हुए पाया…और कभी पूरे समय का पुरोहित रहा मुझे समझने में देर न लगी…। 1975 में बी.ए. के समय आधुनिक चिंतन से भेंट हो जाने के बाद मंदिर-देवता-पूजा-दक्षिणा से कसमन दूर रहने वाला मैं सर के प्रति गहन आस्था के चलते उस क्षण अपने को ब्राह्मण व पूजनीय माने जाने से भी मना न कर सका…!!
और उसी क्षणांश में एक और अजगुत हुआ…कालिदास मेरे प्रपितामह, तुलसी मेरे पितामह और ग़ालिब तो सबके साथ मेरे भी सनातन चचा हैं ही, जिनका कहा मैं त्रिकाल में टाल नहीं पाता…और भला हो कि उसी गाढ़े वक्त में चचा (ग़ालिब) मेरे मन में बुदबुदा उठे – ‘ओ मेरे पिसर, याद करो मुझे – शम्मा हर रंग में जलती है सहर होने तक’ – तो एक रंग़ यह भी – ग़ुरु-पुत्रों के पौरोहित्य का…’!!
लेकिन अपने पाँव छूते अरविंद पर मैं इस स्मृति यात्रा को विराम न दूँगा…ज़िंदगी भर मिलते-छूटते हुए सर को प्रणाम करते-करते ही जीवन बीता है, सो यह स्मृति-यात्रा भी उसी पर उपराम पायेगी…अस्तु, प्रणाम गुरुवर…, पर अंतिम प्रणाम नहीं…! जब तक जीवन है, हर अवसर पर आपकी स्मृति को प्रणाम किये बिना जीवन का कुछ भी कैसे पूरा होगा…!!