शख्सियत

साम्प्रदायिक सोच के प्रतिरोध की कहानियाँ

 

साम्प्रदायिकता की समस्या पर हिन्दी साहित्य में विपुल लेखन हुआ है। और लेखन की यह विपुलता विधाओं की विविधता में मुखरित हुई हैं। इस विषय पर कविताएँ ज़्यादा लिखी गयीं हैं। कथा-साहित्य की दुनिया में इस पर विश्वसनीयता और पूर्वग्रह से परे जाकर लिखने वाले कुछ चन्द नामों में एक अब्दुल बिस्मिल्लाह हैं। उत्तर भारतीय समाज की बहुस्तरीय, जटिल बुनावट में पैबस्त साम्प्रदायिकता के रेशे को उन्होंने अलगाकर चिह्नित किया है। प्रस्तुत आलेख में वरिष्ठ लेखक हरियश राय ने अब्दुल बिस्मिल्लाह की ऐसी ही साम्प्रदायिकता विषयक कहानियों पर विचार किया है।

 किसी देश में धर्म, जाति, और नस्ल के हिसाब से लोगों को बाँटकर देखा जाए और शासन की बागडोर किसी एक धर्म को मानने वाले लोगों के हाथ में आ जाये और वह अन्य धर्मों के लोगों की उपेक्षा करे, उनके साथ भेदभाव बरते तो यकीनन समाज में साम्प्रदायिक प्रवृत्तियाँ बढ़ती हैं और धीरे-धीरे एक धर्म के मानने वाले लोगों को अपनी गिरफ़्त में ले लेती हैं। हमारे देश में अलग-अलग धर्मों के मानने वाले लोग हमेशा रहते आये हैं लेकिन राजनैतिक, धार्मिक या आर्थिक हितों के कारण जब एक दूसरे के धर्म के खिलाफ उन्माद, नफरत का प्रचार किया जाता है तो लोग साम्प्रदायिक हो उठते हैं। साम्प्रदायिकता इस धारणा पर टिकी है कि भारतीय समाज अलग-अलग सम्‍प्रदायों में बंटा हुआ है और अलग-अलग सम्प्रदायों के अलग-अलग हित हैं और ये सभी सम्प्रदाय एक दूसरे के विरोधी हैं। साम्प्रदायिकता के मूल में यह विश्वास भी काम करता है कि राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हितों का आकलन धर्म को केन्द्र में रखकर किया जाना।                        

अब्दुल बिस्मिल्लाह ने साम्प्रदायिकता को अपने रचना विधान में प्रमुखता से जगह दी और कई मार्मिक कहानियां लिखीं। इन लेखकों ने साम्प्रदायिकता की विषैली राजनीति को देखा और उसके प्रभाव को महसूस किया। अब्दुल बिस्मिल्लाह ने इसी संदर्भ में पेड़ नाम की कहानी लिखी। साम्प्रदायिकता को हिन्दू और मुसलमान किस तरह अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करते हैं और किस तरह एक आम आदमी इनमें फॅंस कर अपना जीवन त्रासद बना लेता है। साम्प्रदायिक मानसिकता की यह विशेषता है कि उसके लिए न तो धर्म महत्वपूर्ण है और न हीं सम्प्रदाय। कहानी के पंडित जी बकरीदी के मन में यह विश्वास जमा लेने में सफल हो जाते हैं कि उसके बाग के पेड़ में हनुमान जी विराजते हैं और अपनी बात को पुख्ता करने के लिए यह पंडित पेड़ की जड़ में कुछ सिक्के और इस आशय की एक पुर्जी रख देता है कि मत काटो बेज़ुबान जानवरों को। बकरीदी अपने बाग़ के पेड़ में हनुमान जी के विराजने से और इस तरह के सिक्के और चिट्ठी से हैरान-परेशान होकर गोश्त-मछली, अंडा, कलेजी सब खाना बंद कर देता है। यह साम्प्रदायिकता का एक स्तर है कि हिन्दू पंडित उसे अपने धर्म का खौफ दिखाता है। साम्प्रदायिकता का दूसरा स्तर मस्जिद में धर्म की तक़रीरों में देखने सुनने को मिलता है जहाँ उसे दीन का दुश्मन बताकर नमाज़ नहीं पढ़ने दी जाती और उसे गद्दार कह कर हिन्दुओं के कीर्तन में जाने के लिए कह दिया जाता है। बेचारा बकरीदी जब वापस अपने बाग़ में अपने पेड़ के पास आता है कि तो पंडित जी उसे कहते हैं कि देखो बकरीदी, तुम मेरे अपने हो। पवन सुत हनुमान जी के भी हो। पर ये ससुरे कीर्तनिए हैं न, अज्ञानी हैं, कहते हैं बकरीदी तुरक है, उसका यहाँ आना ठीक नहीं, तुम चले जाओ अपने घर। कल यहाँ से मंदिर का निर्माण होगा उसकी दीवाल पर तो नहीं, स्वर्ग पर लिखा जाएगा तुम्‍हारा नाम स्‍वर्णाक्षरों में।

कहानी की खूबसूरती धर्म की आड़ में बकरीदी को अपनी जमीन से बेदखल करके उसके स्थान पर मंदिर का निर्माण करने की सोच को उभारना है। इसकी पृष्ठभूमि में वह साम्प्रदायिकता है जिसके लिए धर्म का कोई अर्थ नहीं है। यह कहानी आज के दौर के एक ऐसे यथार्थ को सामने लाती है जो बेहद क्रूर और हिंसक है। इस यथार्थ को अब्दुल बिस्मिल्लाह जिस तरह पकड़ते हैं और अपनी कहानी में पेश करते हैं, उससे यह कहानी पाठकों की चेतना को उद्वेलित करती है।

अब्दुल बिस्मिल्लाह साम्प्रदायिकता को सिर्फ हिन्दू मुस्लिम दंगों के दौरान बने संदर्भों और घटनाओं के रुप में ही नहीं देखते वे उस सोच पर भी उँगली रखते हैं जिससे साम्प्रदायिकता जन्म लेती है। आजादी के बाद तमाम भौतिक विकास के बावजूद भी साम्प्रदायिक सोच बहुत गहरे तक लोगों के मन में समा चुकी है। अब्दुल बिस्मिल्लाह अपनी कहानियों में साम्प्रदायिक हिंसा के भयानक चित्र नहीं खींचते बल्कि साम्प्रदायिक मानसिकता को उजागर करते हैं जो दोनों समुदायों के मन में गहरे पैठी हुई है ‘नन्हीं-नन्हीं आँखें’ देश में बढ़ती साम्प्रदायिक सोच को दर्ज करने वाली कहानी है। कहानी के सोना और मुन्ना दो मासूम बच्चे जो साथ-साथ पढ़ते हैं, साथ-साथ खेलते हैं, साथ-साथ दुर्गम रास्तों को पार करते हुए स्कूल जाते हैं, साथ-साथ चुपचाप लेटे रहते हैं लेकिन साम्प्रदायिक हवाओं से सहम जाते हैं और अपना घर छोड़कर एक सुनसान जगह पर इस डर से चले जाते हैं कि कहीं वे साथ-साथ लेटने के कारण हिन्दू-मुस्लिम दंगों में वे मारे न जायें क्योंकि जबलपुर में हिन्दू मुसलमान की लड़ाई हो गई है। सोना जब मुन्ना से यह पूछती है कि हम यहाँ क्यों आये है तो वह जवाब देता है कि ‘डिंडोरी के हिन्दू भी आस पास के मुसलमानों को मार रहे है।’ ऐसी खबर है कि हम लोगों को मारने भी आने वाले है। यह पूछे जाने पर कि लड़ाई क्यों हुई वह बताता है कि एक लड़का और एक लड़की आपस में शादी करना चाहते थे और शादी के पहले वे साथ-साथ लेटे थे और लड़की का बच्चा होने वाला था।। मुन्नी द्वारा यह पूछे जाने पर तो क्‍या मुझे भी बच्चा होगा वह जवाब देता है नहीं तुम अभी छोटी हो। साम्प्रदायिक दहशत किस तरह बच्चों के मन में जन्म लेती है अब्दुल बिस्मिल्लाह ने बेहद सूक्ष्मता के साथ इस कहानी में उकेरा है।

अपनी कहानी नया कबीरदास के माध्यम से अब्दुल बिस्मिल्लाह भारतीय संस्कृति की उस सामाजिक संरचना को सामने रखते हैं जिसके मूल में एक लंबी समृद्ध और सांस्कृतिक विरासत रही है। कहानी का कबीरदास इस सांस्कृतिक विरासत की लय को उजागर करता है यह कबीर दास मुहर्रम पर ताज़िया बनाता है और दशहरे पर रावण। ईद-बकरीद पर मुसलमानों के घर जाकर सेंवई खाता है और होली-दीवाली पर हिन्दुओं के घर जाकर गुझियाँ और मिठाइयाँ खाता है। वह हिन्दुओं से भी उतना ही स्नेह और आदर पाता है जितना मुसलमानों से। वह हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों को इंसानियत का पाठ पढ़ाता है क्योंकि यही हिन्दुओं और मुसलमानों के धर्मग्रंथों में लिखा है। वह यह बताने से नहीं चूकता कि दूसरों से वैसा ही व्यवहार करो जैसा व्यवहार तुम अपने प्रति किये जाने व्यवहार की आशा करते हो क्योंकि यही धर्म है। लेकिन उसकी बात न हिन्दू मानते हैं, न मुसलमान। दोनों ही उसका मजाक उड़ाते हैं। अब्‍दुल बिस्मिल्लाह कहानी को एक ऐसे मोड़ पर ले जाते हैं जहाँ हमारी सांस्कृतिक विरासत तहस-नहस होने लगती है, जहाँ रक्षक ही भक्षक बन जाते हैं। ऐसे में कबीरदास के मन में डर समा जाता है।उसे समझ में नहीं आता कि उसका दुश्मन कौन है? उसने तो किसी का नुकसान नहीं किया। कहानी बिना बताये सत्‍ता के उस चरित्र को सामने लाती है जो अपने वर्गीय हितों के लिये समाज में व्‍याप्‍त समरसता, सहिष्णुता और संस्कृतियों के मानवीय सारतत्व को नष्ट करने की कोशिश करती है। कहानी साम्प्रदायिकता के उस भयावह चेहरे को भी सामने लाती है जिसके तहत लुम्पन वर्ग सामने आता है, जिसके शरीर से विचित्र प्रकार की तेज् गंध निकलती है, जिनसे डर कर कबीर को गिड़गिड़ाते हुए कहना पड़ता है ‘सरकार हम न हिन्दू हैं न मुसलमान।’  

इसी सांस्कृतिक विरासत के संकेत अब्दुल बिस्मिल्लाह अपनी कहानी दंगाई में करते हैं। कहानी दंगों की मानसिकता का संकेत करती हुए कई सवाल हमारे सामने रखती है जैसे मुसलमानों के शासन काल में दंगे क्यों नहीं हुए? साम्प्रदायिक भावनाएं एक दल विशेष ने क्‍यों पैदा कीं? औरंगज़ेब और शिवाजी की व्याख्याएँ पूर्वनियोजित ढर्रे पर क्यों की गई? अंग्रेजों द्वारा लिखी गई इतिहास की गलत किताबों ने साम्प्रदायिक सोच को जन्म क्यों दिया, इसके जइ में किसके स्वार्थ निहित थे? इन सवालों के बीच से गुज़रती कहानी यह बताने में सक्षम होती है कि दंगा कोई एक घटना नहीं, यह एक मानसिकता है। सड़कों पर यह बाद में होता है, मस्तिष्कों में सदैव मचा रहता है। अवसर मिलते ही बाहर आ जाता है।’’ इसके समानान्तर ही कहानी उस सांस्कृतिक साझेपन को सामने रखती हैं जिसके तहत रामलीला में मुसलमान अपने मुस्लिम होने को भूलकर रामलीला में बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं और मौलवी जमालुदीन रामलीला में चंदा देते हैं। और बुरकेवाली महिलाएँ रामलीला देखने आती हैं, और कई मुसलमान रामलीला के पात्रों का अभिनय करते हैं। इस कहानी में हिन्‍दू-मुस्लिम भाईचारे के विविध रुपों को उभारा गया है जो सांस्कृतिक बहुलता के प्रति लगाव को व्यक्त करते हैं और दोनों समुदायों के भाईचारे का संकेत करते हैं। कहानी का नायक इतिहास की गलत व्याखायाओं को खारिज कर देता है और पूछता है कि हम अपने देश की निंदा करते समय मुसलमानों को ही दोष क्यों देते हैं। दरअसल पिछले कुछ समय से देश में ऐसा माहौल बनाया जा रहा है जिसके अनुसार देश की हर समस्या की जड़ मुसलमान और उनकी बढ़ती आबादी है। यह कहानी इस सोच को खारिज करते हुए हमारी बहुलतावादी सामासिक संस्कृति की वकालत करती है और प्रेम, सौहार्द जैसे मूल्यों की पुनर्स्थापना पर जोर देती है।

साम्प्रदायिक मानसिकता का एक स्तर दंगाई कहानी में है तो दूसरा स्तर अधर्म युद्ध कहानी में है जहाँ एक मुस्लिम अध्‍यापक से इंटरव्यू में यह सवाल पूछा जाता है कि मुसलमान होते हुए भी आपने हिन्दी में एम ए क्यों किया। अब्‍दुल बिस्मिल्लाह अपनी इस कहानी में इस मानसिकता के प्रतिरोध में आवाज उठाते हैं। कहानी का मैं एक कस्बे के स्कूल में हिन्दी का अध्यापक नियुक्त होकर आया है लेकिन उसे एपाऊटमैंट लैटर नहीं दिया जाता और वह बिना  एपायंटमेंट लैटर के ही पढ़ाने लगता है। बार-बार एपायंटमेंट लैटर के लिए आग्रह करने पर एपायंटमेंट लैटर देने से पहले उससे त्यागपत्र पर दस्तखत करने के लिए कहा जाता है जिससे कि वह पूरे वेतन की मांग न कर सके। लेकिन कहानी का नायक त्यागपत्र पर दस्तखत करने के बजाए नौकरी छोड़ देना ज्यादा उपयुक्त समझता है। यह एक ऐसी विचलित करने वाली कहानी है जिसे पढ़कर शिक्षा जगत की साम्प्रदायिक सोच का एहसास होता है। कहानीकार सवाल उठाता है कि ‘शिक्षा को अशिक्षितों के हाथ में क्यों सौंप दिया गया।’ आजादी के बाद का इतिहास उठाकर देखें तो यह पायेंगे कि प्राइवेट कॉलेज के मैनेजमेंट स्कूल कॉलेजों को शिक्षा-संस्थानों के रुप में नहीं अपनी दुकान के रुप में चला रहे हैं और मैनेजमैंट में ज्यादातर लोग ऐसे हैं जिन्हें शिक्षा जगत से कुछ लेना देना नहीं है्। कहानी के माध्यम से अब्दुल बिस्मिल्लाह शिक्षा जगत की उस सीमा की ओर भी ध्यान दिलाते हैं जिसके रहते पढ़े-लिखे अध्यापकों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ता है। यह हमारे समय की एक ऐसी सच्‍चाई है जिसे अब्दुल बिस्मिल्लाह ने रचनात्मक रुप से हमारे सामने रखा है।

आधा फूल और आधा शव कहानी में समाज में व्याप्त साम्प्रदायिक चेतना का एक दूसरा ही पक्ष सामने आता है। कहानी उत्तर प्रदेश में देवरिया जिले के कस्बे पडरौना की है जहाँ हिन्दुओं के साथ-साथ मुसलमान भी काफी संख्या में रहते हैं। हाफ़िज़ जी से शतरंज में राय साहब से पराजित हो जाते हैं तो उन्हें रह-रह कर यह ख्याल आता रहता है कि अगर वे शतरंज के खेल में राय साहब का घोड़ा न मारते तो उनकी हार नहीं होती या अगर वे शहर न चले गये होते तो बाजार की वसूली का अधिकार उन्हें जरुर मिल गया होता या कि अगर एक बार वे अपनी बोली बढ़ा देते तो इतने बड़े तालाब के मालिक आज होते। अवचेतन में एक गुस्सा उनके मन में राय साहब के प्रति पलता रहता है जिसका प्रत्यक्ष कारण तो राय साहब द्वारा शतरंज के खेल में उन्हें मात देना है भले ही राय साहब उनके दोस्त हैं, भले ही वह उनके साथ शतरंज खेलते हो पर जब दीन का सवाल खड़ा होता है तो हाफ़िज़ जी अपने लोगों के साथ खड़े होते हैं और मानते हैं कि दीन इस्लाम किसी भी दोस्ती से ऊपर है हम अपने कब्रिस्तान पर हिन्दुओं का कब्जा नहीं देख सकते। इसी तरह दोनों समुदायों में तनाव का असली कारण आर्थिक है जिसका संकेत अब्दुल बिस्मिल्लाह अपनी इस कहानी में करते हैं।

इस कहानी में असली लड़ाई कब्रिस्तान की ज़मीन पर कब्जा करने की है। मुसलमानों का कहना है कि कब्रिस्तान की ज़मीन पर अहीरों ने घर बना लिये हैं और राय साहब के इशारे पर आगे की तैयारी हो रही है। पूरी कहानी में हाफ़िज़ जी तो सामने आते हैं लेकिन राय साहब सामने नहीं आते। वे पर्दे के पीछे रहकर पडरौना की गतिविधियों का संचालन करते हैं। पड़रौना में एक कॉलेज है जिसके प्रधानाचार्य बाबू साहब है। वे कविता भी लिखते हैं और मानते हैं यह शहर आधा फूल है आधा शव में आधा जल में है आधा मंत्र में। उनकी यह कविता पडरौना के साम्‍प्रदायिक संदर्भों को बहुत ही सांकेतिकता से बयान करती है।

कब्रिस्तान की जमीन का झगड़ा निपटाने के लिए इलाके का दारोगा दोनों समुदायों की एक बैठक बुलाता है और बैठक में यह तय होता है। दोनों समुदाय अपने-अपने प्रतिनिधि का नाम उसे बतायें और जो भी उस प्रतिनिधि का फैसला होगा वह दोनों समुदायों के लिए मान्य होगा दोनों समुदाय अपने-अपने प्रतिनिधि के रुप में कॉलेज के प्रिसिंपल बाबू साहब का नाम ही आता है। दोनों समुदाय बाबू साहब का नाम जानकर हैरानी से भर उठते हैं। उन्‍हें लगता है कि यह हमारा समर्थन नहीं करेगा। कहानी में अब्दुल बिस्मिल्लाह उस मानवीयता की तरफ दारी करते हैं जिसकी गूंज बाबू साहब की कविता में दिखाई देती है जो कहता है कि यह शहर आधा फूल है आधा शव है। अब्दुल बिस्मिल्लाह की यह सोच ही इस कहानी को मूल्यवान बनाती है। अब्दुल बिस्मिल्लाह अपनी इस कहानी में अपने सामाजिक सरोकारों को गहराई से व्यक्त करते हैं।

दूसरा सदमा कहानी समाज की इस सोच को गहराई से दर्ज करती है कि मुसलमानों की तादाद बढ़ती जा रही है और इसका मतलब यह कि इनकी तादाद घटाई जाये। कहानी के नमाज़ी कभी खाजा खिलाने की दावत देकर तो कभी गंगा जी में जाकर नहाने के लिए कहकर गुलामू चचा का मजाक उड़ाते हैं पर गुलामू चचा उनको कोसते हुए अपनी राह चलते रहते हैं। राह चलते-चलते उन्‍हें सुनाई देता है कि मुसलमानों को इस देश में कहीं नौकरियां नहीं दी जातीं, कि मुसलमान हरिजनों से भी गये बीते हैं, कि एक मोमिन दस काफ़िरों पर भारी होता है। वह इन आवाज़ों को सुनते हैं और परेशान से रहते हैं। कहानी में अब्दुल बिस्मिल्लाह ने एक लोकतांत्रिक देश में मुसलमानों की उपेक्षा तिरस्कार और अपमान के ऐसे संकेत दिये हैं जो समाज की साम्प्रदायिक सोच को दर्शाते हैं। इस अपमान और तिरस्कार के बीच में दूसरा सदमा गुलामू चचा को तब लगता है जब मोहल्ले के लोग उनके साथ मजाक करना भी बंद कर देते हैं और वह अपनों के बीच में ही एक दम अकेले रह जाते हैं। तब उन्हें महसूस होता है कि इस चुप्‍पी से तो बेहतर है कि लोग थोड़ी देर तक उनसे हस लिया करें। अब्दुल बिस्मिल्लाह ने शिद्दत के साथ देश की मुख्य धारा से मुसलमानों के अलग-थलग पड़ते जाने को रचनात्मक स्तर पर दर्ज करने के साथ-साथ, उनकी सोच को बेहद सहानुभूति और मार्मिकता के साथ चित्रित किया है कि कैसे एक मुसलमान का समाज से काटकर एकाकीपन में धकेल दिया जाता है और सबके बीच रहते हुए भी वह अपनों के न होने के सदमे को बरदाश्त करता है। आजादी के बाद का इतिहास देखें तो यह साफ जाहिर हो जायेगा कि साम्‍प्रदायिक सोच के तहत मुसलमानों का सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार किया गया। यह कहानी इस सोच के खिलाफ अपने विरोध को दर्ज करती है।

मुसलमानों के इस एकाकीपन के कई स्तर हैं एक स्तर इस कहानी में है तो दूसरा स्तर ‘जीना तो पड़ेगा कहानी में है जहाँ अब्दुल गफ्फार उर्फ आकिल साहब हैं जिन्हें यूनियन के काम की वजह से नौकरी से निकाल दिया गया है और उनकी बीवी अपने दो बच्‍चों को अपने दादा-दादी के पास छोड़कर किसी और के साथ चली गई। इन आकिल साहब ऊर्फ अब्दुल गफ्फार को इसलिये अपने ही मुस्लिम रिश्तेदारों से उपेक्षा और अपमान सहना पड़ता है क्योंकि उनके पास कोई काम नहीं है। गुड्डन मियाँ की बीवी फर्जाना को यह बरदाश्त नहीं है कि वे उनके घर पड़े-पड़े रोटियां तोड़ें। कहानी में अब्दुल बिस्मिल्लाह ने फंतासी के शिल्प का प्रयोग किया है आकिल साहब से अपनी बेगुनाही का सबूत एकत्रित करने के लिए गांव-गांव से एक कापी पर लोगों के हस्ताक्षर लेते हैं। वे मानते हैं कि जब बहुत सारे हस्ताक्षर इकठठे हो जायेंगे तो वे प्रधानमंत्री को भेजेंगे और प्रधान मंत्री एक पत्र उनके विभाग को लिखेंगे और वे फिर से नौकरी पर बहाल हो जायेंगे। अपनी उपेक्षा और अपमान से अब्दुल गफ्फार इतने डरे रहते हैं कि बीमार पड़ने पर डॉक्टर के पास भी नहीं जाते क्योंकि उनका मानना है कि कोई हिन्दू डॉक्‍टर उन्‍हें जहर की सुई दे देगा और वे मर जायेगे। कहानी का उत्कर्ष गुड्डन के इस वाक्य में निहित है कि आपको पहले जहर की सुई लगा कर मारा गया मगर वह कोई हिन्दू डॉक्टर नहीं, वह एक मुसलमान औरत थी। अपनो द्वारा अपनो की उपेक्षा को अब्दुल बिस्मिल्लाह ने इस कहानी में रचनात्मक आधार पर प्रस्‍तुत किया है। सामाजिक बुराईयां जो कमोबेश हिन्दु समाज में दिखाई देती हैं, लगभग, वैसी ही बुराईया मुस्लिम समाज में भी हैं। कहानी इस हकीकत को दर्ज करती है और मुस्लिम समाज के अंतर्विरोधों को सामने रखती है।

इसी तरह गोटी कहानी भी हमारे समाज में गहरे रुप से धंसी साम्प्रदायिक सोच की ओर इशारा करती है। इस कहानी के माध्यम से अब्दुल बिस्मिल्लाह ने हिन्दू और मुस्लिम दो अलग-अलग वजूदों को रेखांकित किया है कहानी के डाक्टर श्याम किशोर ‘रौनक’ का मानना है कि जब वोट देने का वक्त आयेगा तो वोट तो जनाब जब्बार खां साहब को ही दिया जायेगा क्योंकि मुसलमान को हरवाना अपनी कौम के साथ गद्दारी है और अपनी कौम के साथ मुसलमान गद्दारी नहीं कर सकते। कहानी में कहानीकार चुनावों के वक्त अपने धर्म के उम्मीदवार को जिताने की मानसिकता का उल्लेख कर हमारे समय की त्रासदी को सामने रखता है और यह बताने में सफल होता है कि यह धर्मवाद समाज को किस तरह निष्क्रिय और जड़ बना रहा है ओर यह धर्मवाद ही लोकतंत्र के वास्तविक मूल्यों को छिन्न-भिन्‍न कर देता है जहाँ आदमी का काम नहीं उसका धर्म देखा जाता है। इस विडम्बना पूर्ण स्थिति में वह आदमी अपने आप को उपेक्षित समझता है। इस कहानी में अब्दुल बिस्मिल्लाह एक अलग और यर्थाथ परक परिप्रेक्ष्य सामने रखते हैं।

                            

अब्दुल बिस्मिल्लाह की कहानियों को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि उन्‍होंने इस बात को बहुत शिद्दत से महसूस किया है कि मुस्लिम समाज की उपेक्षा और तिरस्कार से हमारे समाज का सांस्कृतिक ताना-बाना छिन्न‍-भिन्न‍ हो रहा है और इस सांस्कृतिक ताने बाने को बचाये रखने की बेहद जरुरत है यह ताना बाना बचेगा तभी हमारी सामासिक संस्कृति बचेगी और तभी भाईचारा बचेगा। साम्प्रदायिक घृणा किस तरह व्यक्ति के सम्बन्धों को बदल देती है, किस तरह एक समुदाय के प्रति प्रचारित की गई सोच अतिथि को देवता मानकर उसकी आवभगत करने की अवधारणा को नष्ट कर देती है, इसे अब्दुल बिस्मिल्लाह ने बेहद खूबसूरती के साथ अपनी कहानी अतिथि देवो भव में उकेरा है। कहानी में सलमान साहब अपने शिष्य मिश्री लाल का मकान तलाशते हुए उसके घर तक पहुंच जाते हैं लेकिन घर में मिश्रीलाल के न होने से उनके पड़ोस में रहने वाली एक स्त्री उनका आदर सत्कार करती है, उन्हें खाना खिलाती है। उसके इस आत्मीय व्यवहार से सलमान साहब बेहद खुश होते हैं और सोचते हैं कि उनके कस्बे में ऐसा नहीं हो सकता बगैर जाति धर्म की जानकारी किए कोई ब्राह्मण किसी को अपने चौके में बिठाकर खाना नहीं खिलाए। लेकिन जब उस स्त्री को यह पता चलता है कि सलमान साहब एक मुसलमान है तो वह सहम जाती है और उनके प्रति उसका व्यवहार ही बदल जाता है और कुछ देर पहले वह जो आत्मीयता दिखा रही थी,वह आत्मीयता उपेक्षा और तिरस्कार में बदल जाती है।

अब्दुल बिस्मिल्लाह अपनी इस कहानी में दोनों समुदायों के बीच पनप रहे उपेक्षा और तिरस्कार के भाव गहराई से सामने रखते हैं और यह बताने की कोशिश करते हैं इन्हीं उपेक्षा और तिरस्कार के भावों के कारण ही हमारी अतिथि देवो भव की अवधारणा खंडित हो रही है। इस देश में सदियों से हिन्दू और मुसलमान परस्पर मिल जुल कर रह रहे थे, वह मेल-भाव धीरे-धीरे खत्म हो रहा है जो किसी भी सभ्य समाज की नैतिक गिरावट को दिखाने वाला एक आईना है। कहानी इस ओर भी संकेत करती है कि देश का माहौल इस तरह बन रहा है कि दोनों समुदाय परस्पर एक दूसरे से विद्वेष की भावना को अपने में पल्ल्वित करते रहें हैं। वे कहानी में उन परिस्थितियों की ओर भी इशारा करते हैं जिनके तहत एक भारतीय मुसलमान स्वयं को उपेक्षित और अपमानित महसूस करता है। यह विडम्बना नहीं तो और क्‍या है कि अतिथि देवो भव वाले इस देश में उसका जाति और समुदाय देखकर उससे व्यवहार किया जाता है। यहाँ कबीर याद आते हैं जिन्होंने सदियों पहले कहा था कि ‘जाति न पूछो साधु की,पूछ लीजिए ज्ञान।’ कहानी की स्त्री के लिये सलमान का मास्टर होना महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण उसका मुसलमान होना है।

लंठ कहानी में अब्दुल बिस्मिल्लाह एक कम अक्ल आदमी की कारुणिक स्थितियों का बयान करते हैं और यह बयान इस तरह करते हैं कि उसके प्रति सहानुभूति ही पैदा होती है। कहानी का आरिफ कम अक्ल का ऐसा इंसान है जो अपनी भूख मिटाने के लिये कुछ भी करने को तैयार है यहाँ तक कि पंडित दीनानाथ के कहने पर अजुध्या में ईंट ले कर जाने के लिए भी तैयार हो गया उसे यह नहीं पता कि अजुध्या में क्या हो रहा है, उसे तो इतना पता है जब वह अजुध्‍या पहुंचेगा तो उसे नये कपड़े और पूड़ी-तरकारी खाने को मिलेगी। पर मुस्लिम खुर्शीद को स्वीकार नहीं कि आरिफ ईट लेकर अजुध्या जाये। वह उसे रोकने के लिए उसका झूठा निकाह करवा देता है और दुल्‍हन के लाल छींट का कपड़ा देते हुए कहता है,’ यह तुम्हारी बीवी का सूट है अभी सिला नहीं है, खुद अपने मन से सिला लेगी। कम अक्ल आदमी दो दिन तक अभी दुल्हन का इंतजार करता रहता है और मायूस हो जाता है। अजुध्या जी में मंदिर बनने के बाद पंडित दीनानाथ जी उसकी शादी रामकली से करवाने का वादा करते हैं, लेकिन वह शादी नहीं हो पाती और एक दिन आरिफ दुल्हन के सूट के साथ अपने कमरे में मरा हुआ पाया जाता है।

 कहानी में अब्दुल बिस्मिल्लाह ने ऐसी कारुणिक स्थितियों को रचा है जो साम्प्रदायिक सोच को गहरे से दर्शाती हैं। कहानी में साम्प्रदायिक सोच की एक ऐसी लय मौजूद है जो आरिफ जैसे पात्रों का न सिर्फ मजाक उड़ाती है वरन उसका उपयोग अपने धार्मिक मंसूबों के लिये भी करती है। कहानी आरिफ की आरिफ दरिद्रता, भूख और विवाह के प्रति उसकी ललक का एहसास करती हुई यह सवाल हमारे सामने खड़ा करती है कि साम्प्रदायिक सोच के तहत पूरा समाज इतना अमानवीय और इतना बर्बर कैसे हो गया?

अब्दुल बिस्मिल्लाह अपनी कहानियों में साम्प्रदायिक सोच और इस सोच के कारण समाज में हो रहे बदलावों को कई तरह से उजागर करते हैं। नदी किनारे शाम के बूढ़े को जब शहर में पढ़ने वाले परदेसी नाम एक बच्चे से जब यह पता चलता है कि शहर में आतंकवाद आ गया है तो वह परेशान हो उठता है कि कहीं यह आतंकवाद गांव में भी न आ जाये। इसी तरह जब उसे यह पता चलता है मंदिर और मस्जिद की इमारतें आपस में लड़ रही हैं तो उसे यकीन नहीं होता कि भला इमारतें आपस में कैसे लड़ सकती हैं। अब्दुल बिस्मिल्लाह इमारतों के लड़ने के इस प्रतीक के माध्‍यम से उस अतीत को याद करते हैं जो दोनों धर्मों के लोग आपस में मिल जुलकर रहते थे। इसके लिए वह बूढ़े को उसके बचपन में ले आते हैं जहाँ मस्जिद के मौलवी साहब उसे प्यार करते थे। बूढ़े को बचपन के मंदिर की भी याद आती है जहाँ का प्रसाद लेकर वह खाया करता था पर आज साम्प्रदायिक सोच के तहत मंदिर और मस्जिद दोनों वीरान है और दोनों की इमारते आपस में लड़ रहीं हैं। कहानी में अब्दुल बिस्मिल्लाह मंदिर और मस्जिद द्वारा फैलाई गई साम्प्रदायिक सोच का प्रतिरोध बूढ़े आदमी के माध्यम से करते हैं। इस प्रतिरोध के कारण ही अजनबियों द्वारा बूढ़े की उसकी हत्या कर दी जाती है क्योंकि बूढ़े ने उन अजनबियों से यह कहा था कि शायद तुम लोगो का नाम ही आतंकवाद है। कहानी को अब्दुल बिस्मिल्लाह एक सकारात्मक अंत की ओर ले जाते हैं। वे कहानी के अंत में बूढ़े को फिर जीवित करते हैं। कहानी के एक पात्र परदेसी द्वारा यह पूछे जाने पर कि बाबा तुम फिर जिंदा कैसे हो गये बूढ़ा जवाब देता है,’’ मैं फिर जी उठा। वे लोग मुझे हर बार मार चुके है मगर मैं हर बार जी उठता हूं। न जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है परदेसी, कि मैं कभी मरुंगा ही नहीं।

बूढ़े का न मरना समानता, परस्पर भाई-चारे, और सांस्कृतिक साझेपन जैसे मूल्यों को हमेशा-हमेशा के लिये तवज्जो देना है और यही इस कहानी की खूबी भी है।

गाय को केवल हिन्दू ही नहीं पालते हैं, बल्कि दूध के लिए मुसलमान भी पालते हैं लेकिन पिछले कुछ समय से ऐसा माहौल बना कि मुसलमान गायों को पालने से बचने लगे हैं। उन्हें लगने लगा कि यदि वे गाय को पालेंगे तो उन पर गाय की हत्या करने का आरोप लग सकता है और वे मुश्किल में पड़ सकते हैं। गाय को लेकर मुस्लिम समुदाय के प्रति जो एक भावना बनी है उसे केन्‍द्र में रखकर नंदिनी लिखी गई है। कहानी में दो स्थितियां है। एक स्थिति में अतीत है जिसमें मुसलमान गाय को पालते हैं और दूसरी स्थिति में वर्तमान है जहाँ मुसलमान गाय को पालने में संशयग्रस्त हो उठते हैं। कहानी के हफीज की इसलिये भीड़ द्वारा हत्या कर दी जाती है कि वह गाय को भूप सिंह की मां को लौटाने ले जा रहा था। भूप सिंह की मां ने हफीज ने अतीत में गाय भेंट की थी। अब्दुल बिस्मिल्लाह ने इन दो स्थितियों के सहारे आज गाय को लेकर बन रहे साम्रपदायिक सोच को सामने लाते हैं।

गाय को लेकर साम्प्रदायिक सोच को अब्दुल बिस्मिल्लाह ने नये कोण और नये ढंग से सामने रखा है।वर्तमान माहौल में गाय को लेकर मुस्लिम समाज किस मानसिक पीड़ा से गुजर रहा है,लेखक ने इस कहानी में महसूस कर यह सवाल हमारे रखा है कि,’ मुसलमान यदि किसी गाय को अपने साथ ले जाये तो यह क्यों समझ लिया जाता है कि वह गाय को कसाई के हाथों में बेचने के लिये ले जा रहा है।’ यही कहानी की केन्द्रीय भाव भूमि है जो आज के माहौल को लेकर कई सारे सवाल हमारे सामने खड़ा करती है।

हमारे समाज में धर्म प्रधान राजनीति ने साम्प्रदायिकता की आधार भूमि निर्मित की जिसके सूत्र हमें इतिहास में दिखाई देते हैं लेकिन इस राजनीति और साम्प्रदायिकता के प्रतिरोध की भी एक निरंतरता हमें अब्दुल बिस्मिल्लाह की कहानियों में दिखाई देती है। ये कहानियाँ बिना मुखर हुए बेहद सूक्ष्म तरीके से कहानी की संवेदना को पाठकों तक पहुँचाती है। आज धर्म और साम्प्रदायिकता क नाम पर हमारी सामासिक संस्कृति को छिन्न‍-भिन्‍न करने की कोशिशों में इजाफा हुआ है, उसका प्रतिरोध करने की बेहद जरुरत है। अब्दुल बिस्मिल्लाह की इन कहानियों में प्रतिरोध के स्वर दिखाई देते हैं। उनकी ये कहानियाँ साम्प्रदायिक प्रतिरोध के नये गवाक्ष हमारे सामने रखती है

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हरियश राय

जन्म : 05 अप्रैल, 1954; प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश)। शिक्षा : एम.ए., वामो डी.। प्रकाशित साहित्य : ‘ बर्फ होती नदी’, ‘उधर भी सहरा’, ‘पहाड़ पर धूप’, ‘अन्तिम पड़ाव’, ‘वजूद के लिए’, ‘मेरी प्रिय कथाएँ’, ‘हिसाब-किताब’ (कहानी संग्रह); ‘नागफनी के जंगल में’, ‘समुद्र में बादल’ (उपन्यास); ‘सूचना तकनीक बाजार एवं बैंकिंग’, ‘भाषा और लोकहित’, ‘समय के सरोकार’, ‘भारत-विभाजन और हिन्दी उपन्यास’ (विविध)। सम्प्रति : 2014 में बैंक से सेवा-निवृत्ति के बाद भारतीय बैंकिंग के विभिन्न संस्थानों से सम्बद्ध। सम्पर्क: hariyashrai@gmail.com; +919873225505
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