निराला कृत कुल्ली भाट और समलैंगिकता का प्रश्न
हिन्दी साहित्य में एल.जी.बी.टी. से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण कृति ‘कुल्ली भाट‘ है। सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का सम्पूर्ण साहित्य चाहे वो पद्य हो या गद्य गहरे सामाजिक सरोकारों को प्रतिध्वनित करता है। ‘कुल्ली भाट‘ का प्रकाशन 1939 में हुआ। इसका अद्यतन संस्करण 2004 में राजकमल प्रकाशन द्वारा किया गया। बाबा नागर्जुन ने अपनी पुस्तक ‘निराला एक युग एक व्यक्तित्व‘ में कुल्लीभाट‘ को हिन्दी साहित्य की बेजोड़ कृति माना है।
कुल्ली से निराला की मुलाकात उनकी ससुराल में हुई थी। रायबरेली जनपद से लगभग 25 किलोमीटर दूर दक्षिण में उलगऊ नामक स्थान है। यह स्थान प्राचीन काल से ही साहित्यिक, ऐतिहासिक, आध्यात्मिक, व्यावसायिक राजनीति की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। पराक्रमी राजा डलदेव, चांदायन के रचयिता कवि मुल्ला दाऊद, महर्षि दालभ्य, कवि एवं महात्मा लालनदास प्रभूति महापुरूषों की कार्यस्थली रहा है यह स्थान। यही पर निराला का जब प्रथम बार आगमन हुआ तब उनकी भेंट कुल्लीभाट से हुई। उसी के तांगे से वे अपनी ससुराल पहुँचे थे। कुल्ली का असली नाम पंडित पथवारीदीन भट्ट था अर्थात् वे जाति से ब्राह्मण थे लेकिन गाँव के लोगों द्वारा उनके साथ अछूतों जैसा व्यवहार होता था। इसी व्यक्ति की जीवनी को आधार बनाया गया है कुल्लीभाट नामक उपन्यास में।
उपन्यास का नायक है पंडित पथवारीदीन भट्ट अर्थात् कुल्ली, जिसे कुल्लीभाट कहा गया है उपन्यास में निराला जी ने आरम्भ में ही अपने चिर अभिप्सित मन्तव्य को इन शब्दों में प्रकट किया है- ‘‘बहुत दिनों की इच्छा एक जीनव चरित्र लिखूँ, अभी तक पूरी नहीं हुई, चरित नायक नहीं मिल रहा था, ठीक जिसके चरित में नायकत्व प्रधान हो।… कितने जीवन चरित्र पढ़े सबने जीवन में चरित ज्यादा।”1
लम्बे समय के हिन्दी साहित्य क्षेत्र के अनुभवों और प्राप्त उपेक्षा के आधार पर निराला आगे लिखते हैं- “मैं हिन्दी के पाठकों को भरसक चरितार्थ करूँगा, पर… मुझे कामयाबी न होगी यह मैं बीस साल से जानता हूँ।”2 इसी उपन्यास में अपने साहित्यिक कुल्लीभाट भूमिका संघर्ष की चर्चा करते हुए निराला लिखते हैं- “अनेक आवर्तन-विवर्तन के बाद मैं पूर्ण रूप से साहित्यिक हुआ।… इस तरह अब तक अनेक लड़ाइयाँ लड़ी।… हिन्दी के काव्य-साहित्यिकी का उद्धार और साहित्यिकों के आश्चर्य का पुरस्कार लेकर मैं गाँव आया।”3
‘कुल्ली भाट‘ अपनी कथावस्तु और शैली-शिल्प के नयेपन के कारण न केवल उनके गद्य-साहित्य की बल्कि हिन्दी के संपूर्ण गद्य-साहित्य की एक विशिष्ट उपलब्धि कहा जा सकता है। प्रस्तुत उपन्यास इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि कुल्ली के जीवन-संघर्ष के बहाने यह निराला के व्यक्तिगत सामाजिक जीवन को भी प्रस्तुत करता है और इस प्रकार से यह महाकवि निराला जी की आत्मकथा कहा जाता है। यही कारण है कि सन् 1939 के मध्य में प्रकाशित यह उपन्यास तत्कालीन प्रगतिशील धारा के अग्रणी साहित्यकारों के लिए एक चुनौती के रूप में उपस्थित हुआ तथा इसने समाजोद्धार तथा देशोद्धार का राग अलापने वाले राजनीतिक परिदृश्यों को दर्पण दिखाने का कार्य किया।
कुल्ली के साथ इस प्रकार के व्यवहार के कारण की ओर संकेत निराला ने किया है जिसके आधार पर यह रचना और भी समकालीन हो जाती है। कुल्ली एक समलैंगिक व्यक्ति था। विदित ही है पारम्परिक भारतीय समाज में समलैंगिकता आदि को कोढ़ से कम नहीं माना जाता है। आम जनता की राय में अप्राकृतिक यौनाकांक्षा वाला व्यक्ति सामाजिकों के साथ सामान्य व्यवहार नहीं कर सकता और उसकी यही मानसिक विकृति उसके शारीरिक लक्षणों में भी झलकती हैं। इस विकृति के कारण उसे कभी भी समाज में सम्मानजनक स्थान तो दूर सामान्य स्थान भी प्राप्त नहीं होता है। समाज ऐसे व्यक्ति को पूरी तरह से हाशियाकृत कर देता है और उसका जीवन नर्क से भी बदत्तर हो जाता है।
‘कुल्लीभाट’ का प्रारम्भ ही एक विचित्र समर्पण से किया गया है निराला ने-“इस पुस्तिका के समर्पण के योग्य कोई व्यक्ति हिन्दी साहित्य में नहीं मिला, यद्यपि कुल्ली के गुण बहुतों में हैं, पर गुण के प्रकाश में सब घबराए।”4 निराला के मन में बहुत दिनों से एक जीवन चरित लिखने की इच्छा थी लेकिन कोई मिल नहीं रहा था- “जिसके चरित में नायकत्व प्रधान हो।”5 निराला जी बहुत ही तीक्ष्ण दृष्टि के साथ परिवेश का अवलोकन करते थे, उन्हें सामान्यतः ऐसे लोग अधिक मिले जिनमें ‘जीवन से चरित ज्यादा’ था तथा जिनके जीवन का उन्होंने अवलोकन किया उनमें ‘भारत पराधीन है, चरित बोलते है’ अधिक थे और अंतः उन्हें बोध हुआ कि जीवन में अगर कमजोरी है तो उसका बखान अतिश्योक्तिपूर्णता के साथ वास्तविकता से परे बढ़-चढ़ कर दिया जाता है, जो कि व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को प्रस्तु नहीं करता है बल्कि अधिकांशः सबल पक्षों का ही प्रस्तुतिकरण करते हुए निर्बल या बुराईयों को छिपा लिया जाता है।
सत्य से परे प्रस्तुतिकरण अज्ञानता की ओर ले जाना ही कहा जा सकता है। सोची समझी रणनीति के तहत यदि साहित्यकार सिर्फ आदर्शमूलक प्रस्तुतिकरण ही करता है। तो वह साहित्य कालजयी नहीं हो सकता, क्योंकि सत्य को कुछ काल के लिए छिपाया जा सकता है परंतु मिटाया नहीं जा सकता है। हिन्दी साहित्य में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है जिनमें सत्य को छुपाकर जनसामान्य को गुमराह करने का कार्य किया गया। परंतु आज वो सत्य उजागर होते जा रहे हैं। इन्ही सत्यों के उजागर होने की प्रक्रिया में अस्मितामूलक साहित्य का प्रादुर्भाव माना जा सकता है। परंतु निराला ऐसे साहित्यकार हुए जिन्होंने जातिगत ब्राह्मणत्व को दरकिनार कर सत्य को प्रस्तुत करने का कार्य भी किया, जो कि अपने आप में एक सच्चे व्यक्ति की प्रतिबद्धता होना कहा जा सकता है।
‘कुल्लीभाट’ में निराला ने कुल्ली के समलैंगिक होने को छुपाया नहीं बल्कि खुलकर बताया है। कुल्ली न केवल समलैंगिक है बल्कि वह बाएसेक्सुअल भी है, जिसका पता तब चलता है जब वह एक मुसलमाननी से विवाह कर लेता है। निराला को एक सच्चा नायक चाहिए था, निराला के जीवन में कुल्ली की यही भूमिका पुस्तक का विषय है। कुल्ली के और निराला के बीच हुए संवाद कुल्लीभाट के पहले समलैंगिक व बाद में बाएसेक्सुअल होने का प्रमाण देते हैं। जैसे-
“कुल्ली एकाएक उचके, अबके भरसक जोर लगाकर, यह कहते हुए, मैं जबरदस्ती… मैं जबरदस्ती…”
मुझे हँसी आ गई, खिलखिलाकर हंसने लगा। कुल्ली जहाँ थे, वहीं फिर रह गए। और, वैसे ही कुएँ में डूबे हुए जैसे कहा, “मैं तुम्हे प्यार करता हूँ।”
मैनें कहा, ‘‘प्यार में भी तुम्हें करता हूँ।”
कुल्ली सजग होकर तन गए। कहा, ‘‘तो फिर आओ।”6
तो वही एक अन्य संवाद में कुल्ली एक स्त्री से प्रेम की बात निराला से करते है। निराला लिखते हैं- “एक मुसलमाननी है। मैं उससे प्रेम करता हूँ। वह भी मेरे लिए जान देती है। ले चलने को कहती है, पर यहाँ के चमारों से डरता हूँ।”7
निराला ने हिंदू-मुस्लिम विवाद के साथ-साथ पुरोहितों की भी पोल कुल्लीभाट में व्यंग्य के माध्यम से खोली है। कुल्ली की पत्नी मुसलमानिन है जिस कारण कुल्ली ने उन्हें हिन्दू धर्म के अनुसार शुद्ध भी किया किन्तु उसके बावजूद समाज उसे उनकी पत्नी को हिन्दू नहीं मानता और अपना दोगला चरित्र दिखाता है।– “उस आदमी ने कहा, ‘आपको धोखा दिया गया है, मुसलमानिन है।’ गुरूजी के मठ में खलबली मच गई। उनके चेले बिगड़ जाएँगे, तो आमदनी का क्या नतीजा होगा, और फिर अयोध्याजी है, जहाँ रामजी की जन्मभूमि पर बाहर की बनाई मस्जिद है- हिन्दू-मुसलमान वाला भाव सदा जाग्रत रहता है सोचकर, समझकर चेले ने कहा-‘आप जाइए, हम उसे छल करने की शिक्षा देंगे।’ उलटे मंत्र से उलटी माला जपकर अपना दिया मंत्र वापस ले लेंगे।”8
आरम्भ में ही निराला ने स्पष्ट कर दिया कि इस उपन्यास का प्रधान तत्व हास्य है। हास्य के साथ-साथ व्यंग्य का प्रयोग करते हुए निराला ने समाज के कई पक्षों को अत्यंत बेबाकी से दिखाया है हिन्दी के विद्वानों पर व्यंग्य करते हुए वह लिखते हैं- “श्रीमतीजी मेरे अधिकार में पूरी तरह नहीं आ रही थी अर्थात् शिल्यत्व स्वीकार नहीं कर रही थी। वह समझती थीं, मैं और जो कुछ जानता होऊँ, हिन्दी का पूरा गँवार हूँ, हिन्दी का वैसा गँवार नहीं, जैसा पढे-लिखे सैकड़ों पीछे निन्यान्वे होते हैं- बिल्कुल ठोस मूर्ख।”9
ससुराल पहुँचने के विवरण के माध्यम से निराला जी ने समाज में प्रचलित जाति, लिंगभेद आदि पर व्यंग्यात्मक प्रहार किया है। “जब निराला कुल्ली के इक्के से ससुराल पहुँचते हैं तो पत्नी एवं सास उसके इक्के से आने का कारण पूछती हैं तो निराला उत्तर में कह देते हैं कि आजकल सब चलता है।”10 इस कथन से बहुत से अनकहे और कहे सत्य प्रस्फुटित होते हैं। निराला ब्राहमण थे इसलिए वे सोचते हैं शायद पत्नी और सास को दलित के इक्के में जाने से ऐतराज हुआ है और इसी से पूंछ रहीं है। निराला को पता नहीं था कि कुल्ली समलैंगिक है जिस कारण सास और पत्नी पूछ रही हैं। ये सम्पूर्ण प्रसंग ही इशारों में होने वाली बातचीत और निराला की उससे ही अनभिज्ञता के जीवंत विवरण से परिपूर्ण है। अंततः निराला की जिद्द दर उनकी सास झल्लाकर कहती हैं ‘तुम लड़के हो, माँ-बाप की बात का कारण नहीं पूछा जाता।‘
शिक्षा के प्रसार के साथ जातिगत सोच को कम होना चाहिए था परंतु यहाँ लोग जितना अधिक शिक्षित होते हैं जातीयता उतनी ही बढ़ती जाती है। एक सवर्ण व्यक्ति भी उतना ही शिक्षित होता है जितना कि कोई दलित वर्गीय शिक्षक परंतु उच्च शिक्षित दलित को उस कार्यालय या संस्थान का सबसे छोटा कर्मचारी अर्थात् सवर्ण चपरासी भी अपने बराबर मानने को आज भी तैयार नहीं होता है। अन्य शिक्षक भी जातिवादी दुर्भावना से वशीभूत होकर ही उनके साथ व्यवहार करते हैं। जब तक हिन्दी जाति सामाजिक भेदभाव के बंधन को तोड़कर आगे नहीं बढ़ती तब तक उनमें जातीय चेतना का विकास संभव ही नहीं है। इस संबंध में डॉ. रामविलास शर्मा का कथन है- “गरीब जनता को आधार बनाकर जब तक समाज में हिन्दू-मुसलमान का भेदभाव नहीं मिटाया जाएगा तब तक हिन्दी भाषी जनता भीतर से सुदृढ़ नहीं हो सकती, इसी तरह जब तक समाज में जाति -बिरादरी का भेद बना हुआ है, तब तक हिन्दी जाति भीतर से कमजोर बनी रहेगी।”11
कुछ समय के बाद जब निराला अपने ससुराल आते है तो उन्हें पता चलता है कि कुल्ली बीमार हो गए है। अब तक कुल्ली समाज विरोधी भावना से ही सही लेकिन काफी प्रसिद्ध हो चुके थे। जो लोग पहले उनको देखना भी पसंद नहीं करते थे। वे अब उनकी तारीफ भी कर देते है। ससुराल वाले कुल्ली के काम की तारीफ करते हुए कहते है।– “कुल्ली बड़ा अच्छा आदमी है, खूब काम कर रहा है, यहाँ एक दूसरे को देखकर जलते थे, अब सब एक दूसरे की भलाई की ओर बढ़ने लगे है।, कितने स्वयं सेवक इस बस्ती में हो गए हैं।”12
कुल्ली आज़ादी के पहले के नेताओं को कठघरे में खड़ा कर देता है। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को भी लिखा। निराला लिखते हैं “पहले तो सीधे-सीधे लिखा-लेकिन उनका उत्तर जब न आया-तब डॉटकर लिखा। अरे, अपने राम को क्या, रानी रिसाएँगी, अपना रनवास लेंगी। यहाँ अग्रणी या प्रसिद्ध नेताओं में श्रेष्ठता का दम्भ स्पष्ट दिखाई देता है।”13
उपन्यास के अंत में कुल्ली की मृत्यु हो जाती है और उसके दाह-संस्कार के लिए भी कोई तैयार नहीं होता। स्वयं निराला इसका बीड़ा उठाते है और इस प्रकार कुल्लीभाट जैसे संवेदनशील मनुष्य का अंत अत्यंत दर्दनाक होता है।
उपन्यास निराला को प्रेमचंद की परम्परा में स्थापित करने का कार्य करता है। एक नगण्य समलैंगिक व्यक्ति बहुत ही गौण स्थिति से अपने चरित्र को सदाचार की अनंत ऊंचाईयों तक ले जाता है। इतना ही नहीं बल्कि वह अपने साथ ही कथाकार को भी उच्चता प्रदान करने में सहायक होता है। यह उपन्यास निराला की अपनी रामकहानी का एकमात्र प्रामाणिक स्रोत है। इसमें उनकी विद्रोही चेतना तो अभिव्यक्त हुई ही है कुल्ली के बहाने उनकी सामाजिक सचेतना, राजनीतिक के प्रति सोच आदि भी स्पष्ट रूप से उजागर हुई है। निराला ने उपन्यास में पात्रों का चयन अपने आस-पास के सामाजिक वातावरण से किया है। सास, साला, उनकी पत्नी हो या कुल्लीभाट सभी उनके जीवन से जुड़े हुए पात्र हैं। विदित है कि भारतीय समाज अनंत काल से विभिन्न वर्गों में विभाजित हैं। ‘कुल्लीभाट‘ निराला जी की सर्वश्रेष्ट कृतियों में से एक है। कथा का नायक समाज से परिव्यक्त और उपेक्षित हैं, किन्तु उसमें निराला जी की सर्वश्रेष्ठ कृतियों में से एक है। उसमें सदृचरित्रता और मानवता कूट-कूटकर भरी हुई है। ऊपर तौर पर कमजोर चरित्र प्रतीत होने के बावजूद कुल्लीभाट में समाज से संघर्ष करने की अपार क्षमता है।
निराला ने कुल्लीभाट को नायक के रूप में चयन ऐसे ही नहीं किया। उन्होंने कुल्ली के चरित्र की विशेषता उनकी सहिष्णुता में देखी। वह विचारशील आदमी थे। छोटी जगह एवं अल्पशिक्षा के बावजूद समाज के प्रति उसकी जागरूकता समाज को वास्तव में चरित्र नायक प्रदान करती है। कुल्ली का महत्त्व लोगों को बाद में समझ आया। निराला ने इस कथा के माध्यम से उच्च समाज पर व्यंग्य किया है। यह व्यंग्य सकारात्मक है। निराला ने नागार्जुन की तरह जवाहरलाल नेहरू की भी आलोचना की है। निराला और नागार्जुन दो ही ऐसे कथाकार हैं, जिन्होंने नेहरू की सीधी आलोचना की है। रविभूषण लिखते हैं- “निराला और नागार्जुन कभी संघर्ष विमुख नहीं हुए। उन्होंने समझौतों को महत्त्व नहीं दिया। नेहरू समझौतों के साथ रहे। यह ‘ट्रांसफर ऑफ पावर’ था। नागार्जुन को यह आजादी नकली लगी थी कि ‘कुछ ही लोगों ने स्वतंत्रता का फल पाया।‘ नेहरू की जब तक प्रगतिशील दृष्टि थी, निराला ने प्रशंसा की। दृष्टि के बदलने के साथ कवि दृष्टि भी बदली।”14
निराला रचनात्मक क्षेत्र में अपने परिवेश से पूरी तरह संबंध थे। तत्कालीन भारतीय नवजागरण की गहरी छाप उनके रचना कर्म में द्रष्टव्य है। आलोचक गोपाल राय का मानना है कि- “हिन्दी उपन्यास का भारतीय नवजागरण से गहरा संबंध है। बंगाल और महाराष्ट्र की तुलना में हिन्दी क्षेत्र में नवजागरण की प्रक्रिया कुछ बाद में आरम्भ हुई, इसलिए हिन्दी में उपन्यास का आरम्भ भी, बंगला और मराठी की अपेक्षा, तनिक बाद में हुआ। यहाँ तो राजनीतिक दृष्टि से हिन्दी क्षेत्र में पुनर्जागरण का आरम्भ 1857 ई. के प्रथम स्वाधीनता संग्राम से माना जाता है, पर सामाजिक क्षेत्र में पुनर्जागरण का आरम्भ मुख्यतः आर्य समाज की स्थापना और उसके आन्दोलन के साथ हुआ। बंगाल से आरम्भ हुए पुनर्जागरण की लहर 1860 के आसपास हिन्दी क्षेत्र को छूने लगी थी। स्त्री शिक्षा का आन्दोलन, विधवा-विवाह का समर्थन बाल और बुद्ध विवाह का विरोध आदि इसी के परिचायक थे।”15
कुल्लीभाट की कथावस्तु का विस्तार हो सकता था, किन्तु तब उसके प्रभाव पर असर पड़ सकता था और शायद तब उसका व्यंग्य भी इतना धारदार नहीं होता। डॉ. रामविलास शर्मा ने ठीक लिखा है- “कुल्लीभाट का व्यंग्य एक पूरे युग पर है। एक ओर बंगाल की मध्यवर्गीय संस्कृति है, रहस्यवाद की बातें हैं, साहित्य और संगीत की चर्चा है, दूसरी ओर समाज के अछूत हैं, उच्च वर्गों की असहनशीलता है, हिन्दू-मुसलमान का तीव्र भेदभाव है, बड़े-बड़े नेताओं में सच्ची समाज सेवा के प्रति उपेक्षा है, कल्पना की उड़ान भरने वाले कवियों में क्रांति का दम्भ है। कुल्ली की पाठशाला की ठोस जमीन पर मनोहर कल्पनाएं चूर हो जाती है। यहाँ वह सत्य दिखाई देता है, जिससे साहित्य और समाज के नेता आँख चुराते हैं। जल के ऊपर संतोष की स्थिरता जान पड़ती है, लेकिन नीचे जीवन का नाश करने वाला कर्दम छिपा हुआ है।”16
‘कुल्लीभाट‘ उपन्यास में चरित्र कम जीवन तत्वों की अधिकता है, जिसका प्रमाण पूरे उपन्यास में परिपूर्ण है। निराला ने बड़े उद्देश्य को लेकर इस छोटे से उपन्यास की रचना की है। इस उपन्यास को ध्यान में रखकर नागार्जुन ने एक महत्त्वपूर्ण बात कही है- “बड़े नगरों में रहकर आधुनिकता और प्रगतिशीलता का निर्वाह बड़ी आसानी से किया जा सकता है। सनातन रूढ़ियों से जकड़े हुए ग्रामतंत्री समाज के बीच रहते हुए क्रांतिकारी निराला का वह जीवन चौमुँहे संघर्ष का जीवन था। यहाँ इलाहाबाद जैसे शहर में हम उस संघर्ष का आभास नहीं पा सकेंगे और अब पच्चीस-तीस वर्ष हो रहे हैं, बैसवाड़े के ग्राम्यांचल का वह समाज भी अवश्य बदला होगा।”17
निराला कुल्ली के चरित्र का वर्णन करते हैं तो उसके पीछे उनकी मंशा साफ जाहिर है- व्यक्ति को उसकी सम्पूर्णता में समझना, सिर्फ उसकी कमियों को ही न देखना बल्कि उसके सामक्ष्य में भी रेखांकित करना। निराला के व्यक्तिगत जीवन की उपेक्षा, उनकी शक्ति को न पहचाना जाना भी उपन्यास में व्यक्त हुआ है-“संसार में साँस लेने की भी सुविधा नहीं, यहाँ बड़ी निष्ठुरता हैं, यहाँ निश्चल प्राणों पर ही लोग प्रहार करते हैं, केवल स्वार्थ है यहाँ।”18
राजकुमार सैनी का मानना है- “कुल्लीभाट निराला के व्यक्तित्वांतरण की प्रक्रिया को उद्घाटित कर देता है। सन् 1937 में कुल्लीभाट की रचना हुई और यही वह समय है जब निराला अभिजात्य सौंदर्य और तत्संबंधी अभिरूचियों के मोहपाश से मुक्त होकर जनवादी मूल्यों और अभिरूचियों की ओर तेजी से आकृष्ट हुए।‘’19
आलोचक डॉ. राजेंद्र कुमार का मानना है- ‘स्व’ और ‘पर’ को परस्परता में इस तरह साधना कि जीवन दोनों तरफ से खुलता चला जाए, न इधर के पूर्वाग्रह उससे आँख चुराएँ- यह कला निराला के यहाँ परवान स्वीकार करने को तैयार न थे। पिता के लाख मना करने के बावजूद निराला ने पं. भगवानदीन की पतुरिया के यहाँ खाना न छोड़ा।
अंत में यही कहा जा सकता है कि ‘कुल्लीभाट‘ उपन्यास एकाधिक पक्षों का साहित्य निराला जी की रचनाशीलता, सामाजिक प्रतिबद्धता, साहित्य कौशल का बहुत ही उत्कृष्ठ नमूना है। यहाँ यह उनके जीवन का वृतांत कहता है वहीं समलैंगिकता को भी बहुत ही सशक्त रूप से प्रस्तुत करता है। एक समलैंगिक व्यक्ति में जीव वैज्ञानिक दुर्बलताओं के होने के बावजूद उसके व्यक्तित्व में राष्ट्रीयता, चारित्रिक उत्कृष्टता को उद्घाटित करता यह उपन्यास जहाँ निराला के व्यक्तिगत जीवन का एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है। वहीं समलैंगिकता की बहस की दृष्टि से भी उत्कृष्ट कृति कहा जा सकता है।
- कुल्ली भाट – सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ (राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, पाँचवा संस्करण-2019)(पृष्ठ सं० – 11)
- वहीं पृष्ठ सं० –13
- वहीं पृष्ठ सं० –57
- वहीं पृष्ठ सं० – 7 (समर्पण से)
- वहीं पृष्ठ सं० –11
- वहीं पृष्ठ सं० – 49
- वहीं पृष्ठ सं० – 72
- वहीं पृष्ठ सं० – 83
- वहीं पृष्ठ सं० – 53
- वहीं पृष्ठ सं० – 21
- रामविलास शर्मा, 2012
- वहीं पृष्ठ सं० – 75
- वहीं पृष्ठ सं० – 85
- नागार्जुन: सबके दावेदार, फरवरी 2011, पृष्ठ सं० – 7
- हिन्दी उपन्यास का इतिहास – गोपाल राय, पृष्ठ सं० – 23
- डॉ रामविलास शर्मा, 1997
- नागार्जुन: सबके दावेदार, फरवरी 2011
- नंदकिशोर नवल रचनावली, 1997
- राजकुमार सैनी, 1981