सबसे ऊपर लिखी पंक्ति ‘तुम्हें पता है, मेरी माँ है’ एम.ए. में भाषाविज्ञान पढ़ाने वाले मेरे गुरु डॉ. बंसीधर पण्डा की एक कविता का शीर्षक है। वही कविता सुनकर पहली बार मेरे मन में आया था कि कभी ‘अपनी मां’ के जीवन पर लिखूँगा…। तब मां जीवित थी, तो उसके बिना जीने की कल्पना न थी। आज उसको गये 17 साल हो गये हैं…। तब से बार-बार लिखने की सोचता, लेकिन उसके व्यक्तित्त्व की बहुआयामिता और सम्बंध की गहनता से डर जाता – बहुत कुछ ‘लघु मति मोरि चरित अवगाहू’ की तरह – कि उसे कैसे एक लेख में बांध और कह पाऊँगा…!! लेकिन अब मन का आवेग अटाल्य हो गया है…। सो, आज मैं अपने उस स्वर्गीय गुरु को उन्हीं की भाषा में बताने चला हूँ – ‘मुझे पता है, मेरी मां है’। और उनकी स्मृति के आशीर्वाद का आकांक्षी हूँ कि बता सकूँ…।
भोजपुरी गीत की उक्त शीर्षक-पंक्ति ‘रघुवर पहँ जाब, अब ना अवध में रहबै’ मेरी मां के जीवन की सुमिरनी थी। इसका मतलब है कि राम के पास (पंह) जाऊँगी, अब अवध में न रहूँगी…।
माँ 28 साल की उम्र में, जब आज लड़कियों की शादियां होती हैं या आज जब शादियाँ भी नहीं होतीं, विधवा हो गयी थी। शास्त्र-अनुमोदित नियम ‘अष्टाब्दिका भवेत् गौरी नववर्षा च रोहिणी, दशमे तु भवेत् कन्या अंत्य ऊर्ध्व रजस्वला’ के अनुसार दस साल की (कन्या) होने के पहले शादी हो जानी चाहिए, और वह तो बड़े शास्त्रज्ञ ब्राह्मण-ख़ानदान की कन्या थी। तो 9 साल क़ी उम्र में उसकी शादी हो गयी। शादी के पाँचवें वर्ष याने 14वें साल में गवना होके पति-गृह आ गयी। और तब से 14 साल सुहागन रही…। उस दौरान चार बच्चों की मां भी बनी, जिनमे से पहली लड़की चंद दिनों में ही चल बसी और शेष तीन (दो बड़ी बहनें और मैं) मौजूद हैं। लोक की एक धारणा के अनुसार तीन भाइयों पर जन्मी बहन या तीन बहनों पर जन्मा भाई अशुभ होता है – तेतरा-तेतरी कहते हैं, जो या तो मां को खा जाते हैं या पिता को – ‘तेतरा कहे बहेतरा से – माई खांव कि बाप?’ और इस कहावत के अनुसार तेतरा मैं बाप को खा गया। तब से 85 साल की उम्र तक मां ने वैधव्य जीया…। याने बाल-विवाह, असमय मातृत्व, बहु संतति और सुदीर्घ वैधव्य…जैसे सारे शास्त्रीय व रूढ़िगत संस्कारों के अभिशापों की शिकार हुई…लेकिन इन थोप दिये गये संकटों के बीच वैधव्य के उस तबील दौर में भी मनसा-वाचा-कर्मणा सदा पिता को याद करती रही. ..। उसके हर सवाल के जवाब व हर जवाब के सवाल स्वर्गस्थ पिता ही होते थे।
ऐसी याद का एक उदाहरण दूँ…रोज़ की प्रमुख पढ़ाई को मां से बताने की आदत में जब एक शाम दर्जा सात में संस्कृत के पंडितजी स्व. मारकंडेय पाठक के पढ़ाये भर्तृहरि के नीतिशतक से लिया गया वह श्लोक मां को बताने लगा, जिसमें आता है कि विघ्नों के डर से काम शुरू ही न करने वाला नीच पुरुष होता है, शुरू करके विघ्न आने पर छोड़ देने वाला मध्यम पुरुष और बार-बार आते विघ्नों को दूर करके अपने काम को जो पूरा ही करता है, वह उत्तम पुरुष…तो यह अंतिम शब्द सुनते ही मां के मुँह से अनायास निकला था – ‘तोहार बाबू उत्तम पुरुष रहलें’। याने पूरे श्लोक वह पिता के बारे में सोचती रही…। तो जब व्यावहारिक जीवन में हम सबके सामने भी उसे हर बात में इस तरह याद आते थे पिता, तो अकेले में क्या, कितना न याद करती रही होगी…!!
अब आप समझ गये होंगे इस लिखत के शीर्षक ‘रघुबर पहँ जाब…’ का मर्म कि उसके रघुबर कौन थे और उसका अवध कहाँ था…। तो उस रघुबर के बिना ‘अवधा लागे ला उदास…अब ना अवध में रहबै’।
यह पंक्ति वह कभी भी गाती मिल जाती थी – माँज़े हुए बरतनों को रखने के लिए उठाने निहुरी और लेके उठते हुए आह के स्वर में ‘रघुबर पहँ जाब’ टेर देती थी। जाँता पीसते हुए जंतसार के सारे गीत गाती…सबसे छोटी संतान होने के नाते मैं 5-6 साल की उम्र तक तो उसकी जाँघों पर सोते हुए सुनता होता और उसके बाद जागे हुए अपनी खाट पर सोये सुनता रहता, लेकिन कई-कई बार आलाप के सुर में अचानक उठा देती – ‘रघुबर पहँ जाब…’। रोटी बेल रही होती, दही मह (मथ) रही होती, और गुनगुनाने लगती – ‘रघुबर पहँ…’। कभी किसी अवसाद भरी मन: स्थिति में जब यही पंक्ति विलाप बनकर उठती, तो हमारा कलेजा चीर के पार निकल जाती…।
इसकी पूरक व समानार्थी भाव व्यक्त करने वाली पंक्तियां भी थीं और ज़्यादातर ‘रामचरित मानस’ से थीं…। इनमें से मेरी याद में सबसे प्रमुख है – राम के वन जाने के बाद दशरथ की उक्ति, जिसकी पहली पंक्ति मैं बचपन कभी रौ में मैं बोला – ‘हा रघुनंदन प्रान पिरीते’…कि झट से मां ने बोल दिया – ‘तुम्ह बिनु जियत बहुत दिन बीते’। और अब उसके ‘तुम्ह बिनु’ तो पिता ही थे। ऐसी कुछ अन्य उक्तियाँ बताने के पहले यहीं उसकी आदत व याददाश्त की बावत बता दूँ कि रामायण सुनना उसकी अनुरक्ति में शुमार था। सुना कि मेरे पिता शाम को रामायण-पाठ करते…शायद यह रुचि वहीं से बनी थी। पक्के रामायणी व बड़े विद्वान तो उसके पिता (मेरे नाना) भी थे, जिनसे जैविक संस्कार मिले हों शायद, क्योंकि उन्हें देख भी पाने का अवसर मां को न मिला। हाँ, उनकी अपार पुस्तक-सम्पदा में चंचु-प्रवेश का अवसर मेरे बचपन को मिला…। फिर हर पूर्णमासी को मेरे घर में पुरोहित-द्वय (रामसूरत पाठक व रामप्यारे पाठक) द्वारा रामायण-पाठ होता – पूरा गाँव सुनता। मेरे बड़े मौंसा (माँ के प्रिय ‘पाहुन’) स्व. जगदीश मिश्र विद्वान थे। जब आते, तो खाने के बाद उनके लिए पान के साथ रामायण की प्रति और लालटेन लिये माँ प्रकट होती…और वे ‘त तू ना मनबू’ कहते हुए सुनाने लगते। छोटी मौंसी के देवर उमाशंकर मौंसा तो रामायणी थे। वे तो कई दिन रहते और अपनी भौजी को रोज़ शाम को अपनी आदत और मां को सुनाने के निहित उद्देश्य से ‘मानस’ सुनाते – आधा गाँव सुनता। इन सबसे सुन-सुन के ही उसे इतना याद हो गया कि ‘प्रान पिरीते’ जैसी अर्धालियां सुनते ही वह पूरा कर देती…।
घर में होते इतने रामायण-पाठ के बाद मेरी रुचि जगनी स्वाभाविक ही थी – कहावत है – ‘बाढ़हिं पूत पिता के धर्मे’, जो मेरे लिए तो ‘मातु के धर्मे’ ही रहा…। इसी सब से मै बहुत छोटी उम्र में रामायण पढ़ने लगा…। फिर तो मां का अधिकार ही बनता। अपने प्रिय प्रसंगों (अशोक वाटिका में सीता, मुद्रिका-प्रसंग, फुलवारी-प्रसंग, अनुसूया-मिलन, सीता-हरण व उसके पहले ‘तुम्ह पावक मँह करहु निवासा’ वाला दृश्य… आदि) को मुझसे कभी भी सुनती रहती…। केवट-राम संवाद की प्रियता में उसका ख़ास होता – ‘पिय हिय की सिय जाननिहारी, मनि मुंदरी मन मुदित उतारी’। ऐसे सबमें छिपे मां के कुछ निहितार्थ तो मैं संज्ञान होने के साथ धीरे-धीरे ही समझ पाया और ‘रघुवर पहँ जाब’ का मर्म भी खुलता गया…।
तभी इस तथ्य पर भी ध्यान गया कि ‘रघुबर पंह जाब’ की ग़ुन-ग़ुन या टेर में मां की पीड़ा-अवसाद-निराशा तो जीवन की अनुहारि बनकर उसके सनातन संगी होते ही, पर उसकी चेतना में ‘रघुबर पंह जाब’ के बदले कभी ‘रघुबर के आने’ की भी बात बनती, जिसमें किंचित् उत्साह व आशा भी निहित हो जाती…। क्या बड़े होते हम बच्चों से सुख पाने की कोई उम्मीद तो इसका कारक नहीं बनती – और बने भी तो बेज़ा क्या…!! तो इसमें वह मन ही मन सीता बन जाती और तुलसी से पायी अपनी कल्पना को साकार करती हुई हनुमान की तरफ से खुद ही खुद से कहते हुए बड़े हुलास से गाती – ‘कछुक दिवस जननी धरु धीरा…कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा’। और ‘निसिचर मारि तोहिं लेइ जैहैं’ के निसिचर तो उसके जीवन की ढेरों विपत्तियां ही रही होंगी। इसके आगे वो कहती – ‘लंकापुरी के नास करइहैं’। इस तरह लंकापुरी उसके समूचे दुखमय जीवन का वाचक हो जाता…। आपको ख़्याल आया – ‘लंकापुरी के नास करैहें’ जैसी कोई पंक्ति मानस में है ही नहीं। पंक्ति तो है – ‘तिहुँ पुर नारदादि जस गइहैं’। ऐसी पंक्तियाँ बहुतेरी हैं…। एक और उदाहरण देने का मोह मान नहीं रहा…पिता से जंगल जाने की आज्ञा पाकर कौशल्या मां के पास जाके बताते हैं – ‘पिता दीन्ह मोहिं कानन राजू’। सुनकर मां की दशा बताने वाली पंक्ति है – ‘धरम-सनेह उभय मति घेरी’, भइ गति साँप छछूँदर केरी’। इसे मेरी माँ यूँ बोलती थी – ‘भइ गति साँप छछूँदर केरी, लीलत-उगिलत प्रीति घनेरी’। और ऐसा करके उसने अपने हम बच्चों के जीवन में एक इतिहास रच दिया। हम यही गाते रहे। मैंने तो बाद में ठीक कर लिया, लेकिन बार-बार बताने पर भी मां ने ठीक नहीं किया। बड़ी बहन भी यही गाती रही…छोटी वाली तो न पढ़ती, न गाती…।
मेरा कयास है कि ‘तिहुँ पुर नारदादि जस गइहैं’ और ‘धरम सनेह उभय मति घेरी’ जैसी पंक्तियाँ शुरू में माताश्री के पल्ले न पड़ी होंगी…!! तो याद भी न हुई होंगी! ऐसे में खोल के पढ़-जाँच तो सकती न थी, सो उसके अंतस् की आकुलता एवं ‘बड़ी गवैया’ वृत्ति ने भाव की रौ में ऐसी अपनी पंक्तियाँ गढ़ ली होंगी…। इस प्रकार अपने अनपढ़पन को वारकर मां ने श्रवण के ज़रिए अपनी प्रियता का एक मानस-संभार रच लिया था, जिसमें वह रचयिता रामायणी भी हो गयी थी। और एक बार जो पंक्ति जिस तरह मन में रच-बस गयी, तो ‘अन्हरे के गहुआ’ की तरह छूटी नहीं, बदली नहीं…। ऐसे चस्पा हुई पंक्तियों के ख़ास अर्थ भी बाद में मुझे सूझे, जिन पर मन निछावर भी होता रहा…पर अब उसमें जाना नहीं…।
तो फिर उसके रघुबर के पास चलें…अजीब संयोग था कि साँस छोडते हुए मां उन्हें देख भी न पायी थी, जिसका दंश उसके मन से जीवन भर नहीं गया। रोने में विलाप करते हुए ‘निकसत परनवाँ नाहीं देखली रे रमवाँ’ कह-कहके इस पीड़ा को निकालने के मौके तो उसे मिलते ही रहते…। असल में पिताजी को हैजा हुआ था और सन् 1953 में वह लाइलाज़ था। फिर वे बरसात के दिन थे – सावन का महीना। तब तावन (प्लेग) व हैजा के प्रकोप पूरे गाँव पर क़हर बनकर टूट पड़ते थे – गाँव के गाँव रिक्त हो जाते थे। लाशें गाँव के आसपास ही दरहम-बरहम कर दी जाती थीं। मेरे पिता भी बगल की नाले जैसी ‘बेसो नदी’ के किनारे ही जला दिये गये थे। हैजे में दम पर दम होते कै-दस्त से खराब हुए कपड़े साफ करने के लिए कितना पानी कूएं से निकालते…!! उन दिनों नलकूप तो क्या, जलपंप तक न थे। सो, ढेर सारे कपड़े हो जाने पर इकट्ठे सब लेकर माँ पीछे की गड़ही (पोखरी) में धोने जाती…। ऐसे ही एक बार गयी और लौटी…, तब तक उसके रघुबर के प्राण-पखेरू उड़ गये थे…।
तब प्रेम-भाव की यह शिनाख्त उस ठेंठ गाँव में किसी को न थी, जो बाद में एक गीत में बड़ा लोकप्रिय हुआ – ‘चलत की बेरिया नज़र भर के देख लो’। और मुझे मुम्बई में जवान होते हुए पता लगा कि दो-चार दिन के लिए भी जुदा होते हुए अपने सबसे सुंदर पहनावे में पूरी तैयारी के साथ सुरूप धरकर पति-पत्नी व प्रेमी-प्रेमिका एक दूसरे को विदा करने हर हाल में स्टेशन या विमानतल…आदि पर पहुँचते हैं…, ताकि वह लुभावनी छबि लौट आने तक एक दूसरे के मन में बसी रहे…। लेकिन इस प्रेमाचार व विदा-संहिता को जाने बिना भी वह भाव टूट-टूट कर मां के आंसुओं व विलापों में प्रकट हुआ ही…और सिद्ध भी कर गया कि एकनिष्ठ सच्चा भाव किसी अनुकरण, तैयारी या चलन का मोहताज नहीं होता…। और अपने रघुवर के प्रति अंतरिम व चिर समर्पण के भाव की पीर कसकती रही उसके मन में आजीवन…।
मैं अपनी माँ और अपनी देखी बहुतेरी विधवाओं के प्रमाण से ही हिंदू जीवनपद्धति में निहित स्त्री के प्रति तमाम कठोरताओं के साथ कुछ उदारताओं या समझदारियों की दाद भी देता हूँ – वे चाहे शास्त्र-विहित हों या लोक-निर्मित…!! वैसे तो विधवा होते ही स्त्री की चूड़ियाँ फोड़ दी जाती हैं, सिंदूर धो दिया जाता है। सुहाग के सभी निशान हटा दिये जाते हैं। आभूषणादि पहनने, श्रिंगार करने…याने हर सुख-ख़ुशी के अवसर को मनाने से वंचित कर दिया जाता है। यही नहीं, वह किसी मांगलिक कार्य में सक्रिय भागीदारी नहीं कर सकती…आदि-आदि। इन नियमों को न मानने वाली औरतों को लांछित किया जाता…। बाबा तुलसी तक ने तंज किया है – ‘बिधवन के श्रिंगार नवीना’। यह थीम इतनी जड़ होकर पुख़्ता हो गयी थी कि स्त्री खुद भी यह सब सहर्ष मानती थी, ताकि अगला जन्म बन जाये। जयवंत दड़वी के मराठी नाटक ‘बैरिस्टर’ और उस पर इसी नाम से बनी फ़िल्म में विदेश से पढ़ के आये भतीजे के बलपूर्वक रोकने पर भी वह सवर्ण विधवा चोरी से नाई को बुला के अपना मुंडन करा लेती है। फ़िल्म में बैरिस्टर बने हैं अनुपम खेर और विधवा बनी हैं मराठी थिएटर की सरनाम हस्ती विजया मेहता। इस सबका मक़सद सिर्फ़ ‘स्त्री का कुरूप दिखना’ या ‘सुरूप न दिखना’ था, ताकि न कोई पुरुष आकर्षित हो और न ही कोई अयाचित-असामाजिक बखेड़ा खड़ा हो। इस्लाम के बुरके क़ा घटाटोप भी इसी मूल सोच व इरादे से बना होगा, जो नारी मात्र के लिए होकर अतिरंजित व सरेआम नारी विरोधी हो गया है और जलवा ऐसा कि अच्छा पढ़ी-लिखी लड़की के मन में भी विरोध भाव नहीं जगता…।
लेकिन हमारे उत्तर भारत में न जाने कैसे ऐसा होता रहा कि पति के श्राद्ध-कर्म में द्वादशाह (ख़ोरसी) के दिन, जब मृत-देह (प्रेत) से अपवित्र हुआ घर 11 दिनों के दौरान हुए तमाम विधानों से पुनः पवित्र हो जाता है, तो कम उम्र में विधवा हुई स्त्री को पूजा की बेदी पर बिठा के रंगीन वस्त्र व नाक-कान-गले के कुछ सामान्य आभूषणों का स्पर्श करा दिया जाता रहा, जिन्हें वह सदा पहनती…। इसी के तहत हँसुली, नकबेसर, अंगूठी और पैरों में छागल…जैसे गहने मां पहनती। हाथों में काँच की चूड़ियाँ भी स्वीकृत थीं। जब किसी बहन की शादी में हँसुली बेचनी पड़ी, तो उसकी जगह पतली सी चेन आ गयी थी। इसी तरह अंतिम बीस-एक वर्षों में नाक में फ़ुर्की आ गयी थी – शायद नकबेसर का चलन ख़त्म हो गया था। इसीलिए ‘नकबेसर के सब रस लेइ भागा, मोर सैंया अभागा ना जागा’ जैसे गीत फ़ुर्की पर नहीं बने। विधवाओं को मिली इस छूट का लाभ चौदह साल सुहागन रही मेरी मां से अधिक साढ़े तीन साल में ही विधवा हो गयी बहन को भी मिला। लेकिन वह औरत सिंदूर नहीं लगा सकती, मांगलिक कार्यों की कर्त्ता नहीं हो सकती। इसी से बहनों के कन्यादान के सारे कर्मठ मेरे ख़ानदान के चाचा-चाची ने किये – लेकिन बाद में मां को भी कन्या-दान का अवसर मिलता। ध्यातव्य है कि कन्यादान व्रत में पानी भी नहीं पीया जाता और 24 घंटे से ज़्यादा देर तो लग ही जाती है। और मां ने तो सुनियोजित आग्रह पूर्वक दस साल की उम्र तक में व्याही पाँच लड़कियों का ‘फलित कन्यादान’ भी किया था, जिसे अगले जन्मों में वैधव्य न पाने की ग़ैरंटी माना गया है। बहुत सारे कन्यादान दीदी भी करती रहती है…।
इसके सिवा वह लोक-शास्त्र की ऐसी सारी विधियाँ, जो अनगिनत हैं, निभाती रही…बहुतेरी स्त्रियाँ निभाती हैं। नवरात्रों में नौ दिन का निर्जल व्रत, माघ-वैशाख में सूर्योदय से पहले स्नान…आदि से लेकर स्त्री के लिए बने सारे व्रत-उपवास पूरी सन्नद्धता से करने तक…। माघ में नहाने का एक चुहल भी है…भयंकर ठंड के चलते मैं कुएँ से दो बाल्टी पानी ला देता, जो गुनगुना-सा होता है। और बहनें उसका छोड़ा हुआ लुग्गा (साड़ी) साफ़ कर देतीं। इस पर मां विनोद करती – ‘पानी लियाय के, धोती कचार के त आधा पुन्न तुहीं लोगन ले लेया’!! ख़ैर, पढ़ने-लिखने के बाद, लेकिन दड़वी साहब का उक्त नाटक देखने के पहले से ही मां के इन अंधविश्वासों को रोकने में उस ‘बैरिस्टर’ की भूमिका कर-कर के मै भी फेल ही होता रहा… फिर भी उस चरित्र की तरह कुढ़-कुढ़ कर पगलाया नहीं, क्योंकि मै उसकी तरह विदेश में नहीं, अपने देश – बल्कि ठेंठ गाँव में ही पला-बढ़ा, तो उन संस्कारों से अच्छी तरह अवगत था…।
मेरी मां भी अन्य सभी की तरह अपने विधवा होने को सुनी-सुनायी पौराणिक मान्यताओं के विश्वास से पूर्वजन्म की अपनी करनी का फल मानती…। गाँव में बाबा तुलसी सबकी ज़बान पर होते – कर्म प्रधान बिस्व करि राखा, जो जस करइ सो तस फल चाखा’। कवि ने भले वर्तमान जन्म की बात की हो, लेकिन राम-कथा के अधकचरे वाचक इसे पूर्व जन्म के कर्म से जोड़ ही देते। मैंने नींम अंग्रेज़ीदाँ कथावाचक से सुना है – ‘अ मैन इज बॉर्न एकॉर्डिंग टु हिज़ पास्ट थॉट्स ऐंड ऐक्शंस एंड हिज़ बॉडी इज द पार्ट ऑफ हिज़ कर्म’। हमारी मनीषा ने ये ऐसे ‘शापमय वर’ ईजाद कर दिये हैं, जो सच भले न हों, विवश संतोष की तरणी तो बन ही जाते हैं। उसी अनुशासन में पग कर वह ख़ुद को अभागन कहते न थकती…। हर मंगल अवसर पर पूरे गाँव में गीत वही गाती। गाँव के सत्तर प्रतिशत बच्चे अपनी माओं के पेट से उसी के हाथ पर उतरे, तब धरती का स्पर्श किया। जचगी के इस काम में भी वह दक्ष थी। वे दृश्य मेरी आँखों में एकदम साफ़ हैं…गहरी रातों में किसी औरत द्वारा अपना दरवाजा खटकाया जाना, सोते से गरदन उठाकर मेरा देखना और दो खटक के अंदर ही मां की आवाज – ‘आवत हई’…, क्योंकि सम्भावित दिनों का पता होता ही। खटका लगा ही रहता…। सो, दो मिनट में कोई लुगरी (ख़राब हुई साड़ी) पहने मां का तेज क़दमों से आगे-आगे जाना और दो-तीन घंटों बाद आके सीधे नहाने धंसना…देर तक नहाके निकलना और लम्बी साँस खींचते हुए थसमसा के बैठ जाना…। गरज यह कि मां की अगुवाई के बिना किसी बच्चे का जन्म न हुआ। सोहर व विवाह-गीत गाये न गये या पूरे न हुए…।
इसी प्रकार शादी-व्याह, मरनी-करनी…आदि के भोज किसी के घर पे हों, भोजन के भंडार-घर का ज़िम्मा मां को ही सादर सौंपा जाता। सबको उसके व्यवहार-ज्ञान व इंतज़ाम पर अखंड विश्वास होता…। खाद्य-पदार्थ के कम-ज्यादा होने को भाँप लेने और तदनुसार परोसने वालों को हिदायतें…आदि देकर सब कुछ सम्भाल लेने के प्रति मां पर सबको भरोसा होता। मैंने घर के मालिक-मालकिनों को अक्सर कहते सुना है – ‘आजी/काकी/मतवा/बहिनी/दुलहिनियाँ, अब हमार इज्जत तोहरे हाथे…’। और सम्मौपुर की संस्कृति का अलिखित इतिहास गवाह है कि इज्जत किसी की कभी गयी नहीं…। कभी तो इतना बचता कि थालियाँ भर-भर के गाँव में बँटता, बैलों-गायों को भी खिआया जाता…। लेकिन कभी इतना बचता नहीं, तो कम भी नहीं पड़ता…। और ‘इज्जत निभ गयी’ के उछाह से कई-कई दिनों तक मां भरी-भरी रहती …!!
यह सब इतना-इतना करती; लेकिन हर मंगल-विधान के समय कहीं पीछे छिप जाती…। मसलन, शादी के बाद बहू को लेकर आते हुए किसी की अगवानी में मेरी माँ सदर दरवाजे पर सामने नहीं आयी… अगवानी के गीत पीछे से ही गाये…। किसी के कहीं कमाने-पढ़ने या किसी शुभ काम के लिए जाते हुए भी मां कहीं पीछे दुबक जाती, ताकि विधवा के सामने पड़ने से उनके अमंगल न हो जायें…। और इसी को सलीका माना जाता!! मैं स्वयं मुम्बई जाने के लिए घर से निकलने लगता, तो कभी सामने न आती। लेकिन बी.ए. में पढ़ते हुए जब इन सब रूढ़ियों के पार देख पाने की आँखें खुलीं, तो मैं उसे खींच के अपने आगे खड़ा करता और पाँव छू के निकलता…। पहली बार ऐसा करने पर जब तक मेरे पहुँचने की खबर न आयी, मेरे अनिष्ट की आशंका के संत्रास में उसने खाना नहीं खाया था – यूँ तो हर बार ही वह चिंता करती रहती…। और मां को यह कभी न मालूम पड़ा कि उसे जल्दी ही चिंता-मुक्त कर देने के लिए अपने पहुँचने की चिट्ठी मैं इलाहाबाद से ही डाक में डाल देता था। फिर तो हर बार ही मेरे निकलते हुए अपने सामने रहने को धीरे-धीरे उसने मान भी लिया, पर यह सिर्फ़ मेरे साथ अपवाद ही बनकर रह गया…। इस तरह उसके रूढ़िगत विश्वास को न तोड़ पाने का मलाल तो है, लेकिन अपने विश्वास के साथ मां जी पायी, की ख़ुशी भी कम नहीं।
उसके इन्हीं अंधविश्वासों का ही नतीजा रहा कि गाँव में जितने भी तथाकथित साधु-संत-फ़क़ीर …आदि आते, सबसे वह मेरे भविष्य की बावत पूछती और वे सब के सब अपनी रटी-रटायी भाषा-शैली में तयशुदा भविष्य-कथन कह-कह के पैंतीस सालों में जाने कितने कुंतल अनाज व कितने पैसे लूटे होंगे…इसका कोई हिसाब हो नहीं सकता। अजीब है कि ऐसा सब अब तक चल रहा मेरे गाँव में। अभी (अप्रैल, 2023) में जब मैं यह लिख रहा हूँ, पता लगा है कि दस दिन पहले मेरे थोड़ा पढ़े-लिखे पोते अनिल ने अपने पोते होने की भविष्यवाणी करने वाले झोलाछाप को हज़ार रुपये दे दिये हैं। लेकिन मां की बावत संतोष यह है कि उनकी चिकनी-चुपड़ी बातें सुनकर उसी ख़ुशी में वह दो-एक दिन ठीक से खा-पी लेती रही…वरना तो पता चलता कि जब खाने बैठती – कभी तर-त्योहार के दिन पकवान…आदि बनने पर तो ख़ास, थाली सामने रखकर खाती कम, रोती ज्यादा – ‘बचवा न जानी कैसे का खात होइहें’…आदि-आदि!!
इकला बेटा व सबसे छोटी संतान होने के चलते मेरे प्रति मां की अकूत-अतिरिक्त अनुरक्ति को समझा जा सकता है, लेकिन इसका कोई नकारात्मक असर मेरी बहनों पर नहीं पड़ा, क्योंकि इकले भाई और छोटे होने से उन दोनो का भी अकूत प्यार ही रहा मेरे प्रति…और इसी निराबानी प्रेम-विश्वास के सम्बल ने ही सारे आर्थिक अभावों व उससे आती तमाम क़िल्लतों के बीच हमें एक क्षण भी टूटने नहीं दिया…। इन्हीं अनुभूतियों के चलते उस दौरान आये ‘प्यार के लिए मगर पैसा चाहिए’…आदि जैसी बातें मुझे झूठी लगतीं…गोकि इन्हीं अपनों, जिसमें बड़ी बहन तो ख़ास शामिल है, के चलते आज वह पैसा-मोह…आदि सच भी बनकर उतरे हैं…। इसे बदलते जमाने की करतूत कह के निकल सकते हैं, लेकिन तब तो ऐसे लाड़-दुलार-संभार के बीच यदि घर के अभाव अटाल्य न हो गये होते, तो आज़ाद भारत के पहले राष्ट्रपति बाबू राजेंद्र प्रसाद की मां के शब्दों में ‘कलेजे पर पत्थर रखकर पढ़ने भेजने’ की तरह मां ने भी मुझे नौकरी-चाकरी के लिए शहर न जाने दिया होता और यही हाल सारी मांओं का रहा है…।
मेरी मां में जीवन के प्रति असीम अनुरक्ति थी और उसी ने मां को गाना सिखाया था…जिसका परिणाम यह कि कठिन से कठिन काम को गीतों की लहरों में बहाकर ख़ुशी-ख़ुशी कर डालने में न वह कभी थकी, न हारी। जीवन के सभी शास्त्र-सम्मत मांगलिक कार्यों को लोक गीतों से जोड़ दिया गया है या उनमें गीतों को पिरो दिया गया है। बाबा तुलसी का साक्ष्य मौजूद है – ‘गावत गीत सबै मिलि कै, अरु बेद जुवा जुरि बिप्र पढ़ाहीं’। और निरक्षर होते हुए भी सुन-सुन करके सीखने-याद करने, फिर गाने…की मां की वृत्ति, जीवन पर्यंत कभी ख़त्म तो क्या, कम भी नहीं हुई। गाँव की जो भी लड़की अपनी ससुराल से लौटकर आती या जो भी दूल्हन व्याह के गाँव में आती, उनसे वहाँ-वहाँ के गीत सुनती। जो अच्छे लगते, उन्हें याद करती और फिर गाने लगती…। शादी-व्याह के, तर-त्योहारों के, लोकाचारों-व्यवहारों के…ढेरों गीत होते हैं, जो हमारे लोक की सांगीतिक वृत्ति व सदा प्रफुल्लता की प्रवृत्ति के प्रमाण हैं। इन सबमें मां के ऐसे पारंगत होने का कोई उत्स मुझे उसके घर-परिवेश में देखने-जानने में नहीं आया। बल्कि देखें, तो मेरी नानी इस मामले में पूरी औरंगज़ेब थी – और मौंसी थी एकदम कामचलाऊ। ननिहाल के आस-पड़ोस में भी कोई ऐसी स्त्री दिखी नहीं…। तो उसकी यह रुचि व प्रतिभा शायद प्रकृति-प्रदत्त थी। ‘भोर या मंड़वा जगाने’ जैसे कई अवसर होते, जिनके ख़ास गीत सिर्फ़ मां को याद होते – हर घर का मंड़वा सुबह-सुबह उसे ही जगाते देखा है। चर्चा भी सुनी है कि इनके बाद कौन गायेगा यह सब। लेकिन अंतिम दिनों में मेरे सामने की परधाइन काकी और ख़ानदान की एक बहू को मां के साथ सीखते भी देखा और उसके न रहने पर भटक-भटक के गाते भी देखता रहा हूँ…।
लेकिन मां की परम्परा का शुभ व सुखद विस्तार-विकास यूँ हुआ कि अपनी किरन बिटिया ने मां के साथ ही रहने, बड़े होने के दौरान उसके संस्कारों से मुतासिर होते-होते उसके सारे गुण-कर्म हू-ब-हू विकसित कर लिये हैं और घर-गाँव के वे सारे काम-कर्म वैसे ही करती है, जैसे मां करती थी। सारा गाँव कहता भी है – ‘इसने तो आजी की खोल ओढ़ ली है’। लेकिन ठीक उसी परिवेश में उतने ही दिन मां के साथ रहकर दूसरी बिटिया कविता ने संस्कृति-कर्म क्या, एक भी गीत नहीं सीखा। यहीं एक एक बात और कर दूँ बदलते मूल्यों की…। हमारे गाँवों में ये सारे काम सांस्कृतिक सहयोग के साथ बड़े मनोयोग भाव से होते थे। लेकिन अभी हाल-फ़िलहाल में जानने को मिला कि मां के साथ गाके सीखने वाली हमारे ख़ानदान की वह बहू अब ऐसे विरल गीतों को गाने का पैसा लेती है…। ऐसी तुच्छताएँ इस व्यावसायिक युग में पनपी मूल्यहीनताओं के परिणाम हैं…। और भारी वेतन के बावजूद शोधार्थियों से शोध कराने के पैसे लेने के मुक़ाबले तो कमतर ही हैं। लेकिन गाँव में इसका विरोध भी यूँ है कि मां की पीढ़ी की परधाइन काकी ने अपने बुढ़ापे का कारण बताके गाने जाना ही बंद कर दिया है। और मां की खोल बनी किरन उनके साथ गाने नहीं जाती। जहां जाती है, अकेले जाती है। इस तरह मां की संस्कृति का अलख जगाये हुए है – याने मेरे बाद की एक पीढ़ी तक तो मां के अवदान सुरक्षित हैं…।
ख़ास उल्लेख्य है गारी-गीत। जी, आपने ठीक समझा होगा – गाली वाले गीत। शादी में वर-रक्षा या तिलक के बाद जब रिश्ता होना पक्का हो जाता है, गारी गीत शुरू हो जाते हैं। इस तरह रिश्ते की पहचान के शुभ भी होते हैं। खाने के समय कहीं बग़ल में समूह में बैठ के औरतें गालियों भरे गीत शुरू कर देती हैं, जो शुरू में तो सादे गीत होते हैं – यानी शालीन गालियाँ होती हैं, लेकिन जब खाना पूरा होने लगता है, तब से लेकर अँचवाने (हाथ-मुँह धोने) तक तो गाढ़े गीत – याने ख़ासी खुली गालियों वाले ऐसे अश्लील गीत होते हैं…कि क्या कहने!! इसके लिए खाने वाले पाहुनों की तरफ़ से उपहार या गारी-गवाई के रूप में बाक़ायदा पैसे दिये जाते हैं याने यह रस्म का एक हिस्सा है। उस गाढ़ी गाली के तो इस वक्त कोई बोल याद नहीं आ रहे हैं, लेकिन शादी होते हुए मंडप में ‘डाल-प्रतिष्ठा’ (गहने की पूजा) के अवसर पर भी ऐसे गीत होते हैं, जिसका एक टुकड़ा बतौर उदाहरण पेश है – ‘दुलहा हौ छीनारी (छिनाल) के जनमल, अगुआ (मीडीएटर) हौ ललगंडिया रे’। यह खुलापन व छूट हमारे लोक ने शास्त्र की तरह दी है या ली है। होली के अवसर पर खुले तौर पर सरे आम बोले जाने वाले गालीमय कवित्त भी इसी छूट के सामूहिक रूप हैं, जिसमें जाति-उम्र…आदि का भी कोई बंधन नहीं होता। वर्जनामूलक व्यवस्था में ऐसी छूटें वस्तुत: हमारे समाज-निर्माता ऋषियों…आदि द्वारा सोद्देश्य बनायी गयी थीं। देवर-भाभी, साले-बहनोई…आदि के बीच खुले मज़ाक़ के रिश्ते भी यही हैं। मनोविज्ञान के रेचन या मुक्त (रिलीज़) होने आदि के सिद्धांत तो आज बहव: चर्चित है। ये छूटें असल में इसी के सामाजिक रूप हैं…।
वैसे खुले गारी-गीत भी मेरी मां इतनी ठसक से भरी-पूरी आवाज़ में इतने निठुरे मने खुलके गाती थी कि ग़ज़ब ही ढाती थी। और ऐसे खाँटी अश्लील शब्दों से भरे गारी-गीत इतनी बेबाक़ी से गाते हुए मेरी मां अपने अनजानेपन ही कोई और ही हो जाती…। फिर चाहे वहाँ मैं खड़ा रहूँ, चाहे ख़ानदान का कोई बुजुर्ग …, उसे कोई फ़र्क़ न पड़ता – बिलकुल पेशेवर जैसा…। फिर ऐसी गारी गाने के ठीक बाद जब कोई ज़रूरी बात बाबा…आदि बड़ों के साथ करते हुए आधा मुँह ढँके हुए साँय-साँय की आवाज़ में करती, तो हमारे बचपने को बहुरूपिया ही लगती…। लेकिन इतनी ही तल्लीनता से भक्तिगीत या पूजा आदि के समय स्तुति गीत व देवी-गीत (पचरा) भी गाती थी, तब वह देवी-भगवती भी लगने लगती। दैनन्दिन जीवन में नहाने के बाद और कुलदेवता ठाकुरजी को नहलाने के पहले सूर्य-मुख खड़ी होकर दोनो हाथ जोड़कर होठों ही होठों में दो-तीन मिनट तक गुरु-मंत्र बुदबुदाती…। इसे वह ‘गूरू महाराज का नाम लेना’ कहती। ऐसा नानी भी करती थी। सो, मां का यह कर्म नानी की ही देन के रूप में विरासती था। और ऐसा करते हुए वह मुझे पक्की संन्यासिन लगती…। कुल मिलाकर इन तमाम रूपों में मां पंतजी के ‘पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश’ को ही साकार करती हुई पायी जाती…।
जैसा कि कहा गया – जीवन के प्रति गहन अनुरक्ति ने मां को गाना सिखाया और रामायण-श्रवण व धार्मिक आचारों ने पूजा-पाठ-कर्म में पगाया था, तो पिता की मृत्यु से उपजे असमय वैधव्य ने कमसिन उम्र में ही उसे रोना सिखा दिया…। हर मौक़े पर गाने की तरह वह जैसा रोती, वैसा रोते भी मैंने अपने जीवन में किसी अन्य औरत को नहीं देखा-सुना…। बच्चनजी से क्षमा-याचना के साथ कहूँ, तो ‘हँसी हो या हो रुदन, कुछ भी नहीं ‘उसने’ किया था कभी भी आधे हृदय से’!! और जीवन ने उसे दुखों के ऐसे-ऐसे मौक़े भी दिये…। सबसे पहले उसका अफाट रुदन मैंने तब देखा, जब उसकी बड़ी बहन – मेरी बड़की मौंसी मरी। वह मां से बस चार साल बड़ी थी। तब मै दर्जा चार में पढ़ता था। स्कूल अपनी बाज़ार ठेकमा में था। वहीं डाकखाना भी था। लिहाज़ा डाकिया हमें पूरे गाँव की चिट्ठियाँ स्कूल में दे जाता था, जो कभी 10-20 दिनों में एक-दो आती थीं। इस क्रम में उस दिन मेरे घर का ही पोस्ट कार्ड मिल गया। मैंने पढ़ लिया। बड़ी मौंसी के मरने की खबर थी। थोड़ा उसके साथ रहा था ननिहाल में…तो मन व्यग्र हो उठा था। बार-बार रोना आ जाता…। छुट्टी होते ही भागते-पराते घर पहुँचा…।
मां अपने घर से ठीक पहले मेरे भाई के घर ही मिल गयी। तब तक मुझे नहीं पता था कि ऐसी बातें रात को खाने-पीने के बाद बताते हैं, जिसके लिए मुझे बाद में गाँव से खूब डाँट पड़ी…। लेकिन उस वक्त तो मां ज्यों ही बैठके की सीढ़ियों पर खड़ी बात करती दिखी…बस, मैंने कार्ड दिखाते हुए तुरत बता ही तो दिया – ‘माई, बड़की मौंसी त मरि गइल’। सुनते ही खड़ी हुई मां ने ज़ोर से चिल्लाते हुए अनजाने में अपना दाहिना पैर ऐसा पटका कि सीढ़ियों से ज़मीन पर लुढ़क गयी। फ़िर गिरे हुए ही बयान (अपने-उसके सम्बंधों व एक दूसरे के लिए किये-कराये का राग-धुन में उल्लेख) कर-कर के लगी रोने…। दो मिनट में पूरा गाँव वहीं इकट्ठा हो गया, जिसमें अधिकांश औरतें थी, जो खुद अपने आंसू पोंछते-अहकते हुए मां को समझाने लगीं…। आख़िर कोई घंटे भर बाद जब घर जाने के लिए औरतें उठाने लगीं, तो मां से उठा ही न जाये…। पता चला – पैर पटक के गिरने से गुत्थी घुट्ठी (एड़ी के ऊपर) में मोच आ गयी है। तो घर उठाके ले जायी गयी – दसों दिन तक खाट पर रही और सोने के अलावा जागने के दौरान आंसू उसकी आँखों से बहते ही रहे – बीच-बीच में बयान क़ढ़ा के रोना-बिलखना भी चलता रहा…।
दूसरा झटका 1967 के अक्तूबर में लगा, जब हमारे घर के कर्त्ता-धर्त्ता पिता-स्वरूप बड़के काका दिवंगत हुए। उनको दमा था, जो तब तक लगभग असाध्य रोग था। पहलवान काका का बलिष्ठ शरीर धीर-धीरे छीजता रहा…। सो, जाना तो प्रत्याशित था, पर हुआ अप्रत्याशित ढंग से अचानक…। डाक्टर आये ज़रूर, पर साँस बढ़ चुकी थी – कुछ करने को बचा न था। और उनके बेहोश होने से ही मां का चीत्कार-विलाप शुरू हो गया था। बड़ी तरद्दुत से काका के मुँह में उससे गंगाजल डलवाया गया था…। प्रान निकलने के बाद तो उसके विलाप से जैसे धरती फटने व आसमान टूटने लगे थे…। लाश उठते हुए तो ऐसा तड़पी-अफ़रायी – जैसे उसका कलेजा अभी फट पड़ेगा…। फिर शव जाने के बाद लस्त-पस्त होके बेहोश ही हो गयी…। सबको लगा – कहीं मां की अर्थी भी साथ ही न ले जानी पड़े…। किंतु इतने सारे दुखों पर भी ज़िंदगी (हम बच्चों) के प्रति उसका मोह भारी था – ढेरों दुःख देखने-झेलने बाक़ी थे…।
बड़के काका के बाद तो और भी बड़ा सदमा लगा। छोटी दीदी की शादी करने के दो साल बाद काका दिवंगत हुए थे। कौन जानता था कि उनके जाने के बाद साल-डेढ़ साल में ही – याने छोटी दीदी की शादी के चौथे साल में ही उसके पति याने मां के छोटे वाले दुलरुए दामाद चल बसेंगे? उनके सीने में ट्यूमर था, जिसका पता 45-45 दिनों भर्ती रहने के बावजूद जौनपुर शहर के तब के डाक्टरों को चला ही नहीं। और उनका घर मेरे घर से नज़दीक (12 किमी.) ही है, अतः कोई आदमी संदेश लेके आया था। फगुनहट की जाड़ों के दिन थे। दोपहर के खाने के बाद मां घर के पश्चिम तरफ़ बैठी धूप ले रही थी। आदमी के आने पर उठ खड़ी हुई और सहसा खबर सुनते ही खड़े-खड़े ज़मीन पर धड़ाम से ऐसा गिरी कि बायाँ हाथ बुरी तरह घायल हो गया – प्लास्टर तो नहीं लगा, पट्टी बंधी। कुछ न कुछ दवाएँ चलती रहीं, लेकिन हाथ कई महीने तक काम के लायक़ न रहा और मां 24 घंटे में दर्जनों बार रोती पायी जाती…।
नात-रिश्तेदारों के सिवा पूरे क्षेत्र के लोग महीनों तक ‘दुआर करने’ (संवेदना व्यक्त करने) आते रहे और मां रोती रही…। उन्हीं लोगों में मेरे घर से पूरब तरफ़ के तीसरे गाँव अटारपुर के एक खदेरू चौधरी आये थे, जिनका कहा ग़ज़ब का मुहावरा मुझे याद हो गया है – ‘दमाद मरे अभागे कै, बिटिया मरे सुभागे कै’। इसका यथार्थ बड़ा बेधक है – पूरी समाज-व्यवस्था को बेपर्द ही नहीं, कटघरे में खड़ा करता हुआ। याने जिसकी बेटी मरे, वह भाग्यवान; क्योंकि तब रिश्तेदारी चले, न चले, बेटी-बहन की ज़िम्मेदारी तो नहीं रहती…। लेकिन जिसका दामाद मरे, वह अभागा। इस कहावत को आज का आधुनिक युग पुरुषवादी, सामंतवादी-नारी-विरोधी…आदि – चाहे जो कहे, लेकिन तब की व्यवस्था ऐसी थी और हालात आज भी ऐसे ही हैं कि विधवा बेटी चाहे ससुराल में जीवन गुज़ारे या मायके में, उसकी परवरिश मायके वालों पर आ ही जाती है। मेरी वो बहन आज भी हमारे साथ बनारस वाले घर में रहती है – वह घर जो प्राय: उसी के लिए होके रह गया है। ख़ैर, तब तो मां रोयी ही, विधवा बेटी को देख-देख जीवन भर रोती रही…।
सबसे अंत में मरी उसकी माँ…। लेकिन उस वक्त मैं मुम्बई में अपने जीवन-संघर्षों से जूझ रहा था और एम.ए. की परीक्षाओं के चलते अपनी प्यारी नानी के अंतिम संस्कारों में आ ही न पाया, तो मां के अफाट रुदन की दिल को टुकड़े-टुकड़े कर देने वाली पीड़ा से बच गया…। लेकिन तब भी वहाँ सुदूर से मां के रुदन की यादें हृदय-द्रावक संभार रचती हुई उठतीं और मन को भिंगाती-पिघलाती रहतीं…।
अब आगे चलें, तो गाने-रोने की तरह तरह मां के झगड़ने का भी एक आयाम है – गोकि गाने-रोने जैसा जगज़ाहिर नहीं और न ही नानी के झगड़े जैसा अतुलनीय। लेकिन वो जैसा भी था, नानी की याद दिलाता था। उन्हीं की अनुकृति लगता। मामला भी नानी जैसा संगीन न होता। नानी तो उन पट्टीदारों से लड़ी-झगड़ी, जो उसकी सारी जायदाद हड़पना चाहते थे। और कहना होगा कि मां के भी झगड़े की बेकार फूटी (शुरुआत हुई) ज़मीन के मामले से ही। ननिहाल की ज़मीन बहन के लड़कों को देने पर बड़के बाबू ने बहुत झगड़ा क्या, नंगई की। वे थे ही नम्बरी नंगे और दबंग झगड़े वाले। उनके सामने नानी का डीएनए (मां) ही टिक सकता था…। और मां सुन-सुन, सह-सह के इतना थक-ऊब गयी थी कि उस बार चुप न रह सकी – मुंहतोड़ जवाब देना शुरू किया, जो सतत झगड़े में बदल गया। लेकिन बड़के बाबू की तरफ़ से घिन्नी-घिन्नी गालियों के बावजूद न मां की तरफ़ से कोई गाली आयी, न ही कभी पारिवारिक सम्बंध टूटे…। सब बना रहा और वही बने रहना झगड़े को भी बनाये रहा…। उन दिनों झगड़े का आलम यह था कि गाँव के कई घरों में आपसी और कुछ पड़ोसियों में भी झगड़े करने वालों की जोड़ियाँ हुआ करती थीं, जिसमें एक जोड़ी यह (बड़के बाबू विरुद्ध मां की) भी थी, जिनसे आ-ए-दिन गाँव का मंसायन हुआ करता था…।
लेकिन मां के जीवन का सबसे ज्वलंत झगड़ा भी ज़मीन को लेकर ही हुआ और नानी की ही तरह अपने ख़ानदानी पट्टीदार के साथ। असल में हमारा एक बीघा खेत सालाना पड़ताल के दौरान लेखपाल की लापरवाही के चलते दो-तीन पीढ़ियों से उनके नाम हो गया था। और चकबंदी में मौक़ा आया, तो उन्होंने इस्तीफ़ा नहीं दिया, तो मुक़दमा चल गया। झूठ-बेइमानी से मां को यूँ भी बड़ी घृणा थी। सो, यह डकरी (खुली) बेइमानी उससे ज़रा भी बर्दाश्त न हुई – आग लग गयी थी उसके तन-बदन में…। इसमें उन लोगों से पद में ऊँची व उम्र में बड़ी होने ने घी का काम किया। उनके लिए मां ने बहुत कुछ किया भी था… सो, हक़ भी बनता था। लिहाज़ा जब तक मुक़दमा चला, मां साक्षात रणचंडी बनी रही…। जब ताव आता, चढ़कर उनके दरवज्ज़े चली जाती, बुरी तरह डाँटना-लताड़ना शुरू करती…। लेकिन संस्कार ऐसे कि कोई गाढ़ी गाली फिर भी न निकली मुँह से। बस, जगदीश को जगदीसवा, फिर चोरवा-बेइमनवां-लतख़ोरवा-मरकिनवना…जैसे शालीन अपशब्दों से आगे न बढ़ पाती। लेकिन इस दौरान गाने वाली उसकी मधुर आवाज़ नानी जैसी कर्कश होकर इतनी ऊँची हो जाती कि आधा गाँव अपने घर बैठे सुनता…।
इसमें बोलने से ज्यादा खतरनाक होते उसके तेवर व हाव-भाव…। जगदीश भाई की तरफ़ ऐसा झपटती जैसे अभी मार ही देगी या धक्का देके गिरा देगी – और दुबले-पतले भैया के सामने उसकी शख़्सियत ऐसी थी भी। ऐसे में हथेली फैला के, चारो उँगलियों को सटाकर उनके सामने आँखों तक ले जाती, लेकिन छुए बिना वापस ले लेती…और भैया डर के मारे यही कहते – ‘काकी, हाथ जिन लगाया, नहीं त ठीक ना परी – कहि देत हई। उसके मन की जलती आग में घी तब पड़ जाता, जब 11वीं-12वीं में पढ़ते और सारे साधनों से महरूम मुझ अपने बच्चे को मुक़दमे के सिलसिले में परेशान देखती। ऐसे में ही एक सुबह तारीख़ पर जाने के पहले मां ने उनके घर जाकर मोर्चा खोल दिया और उस दिन वह अपने चरम पर थी…। मैं खुद एक दिन लाठी लेकर मारने चढ़ गया था – तीनो बाप-पूतों ने घर बंद करके अंदर से साँकल लगा ली थी। अपने उसी आवेश से मिली नसीहत और बेबसी के चलते मुझे उस दिन इतना आक्रोश आया कि बायीं अंकवार में मां को लेकर दाएँ हाथ से उसका मुँह दबाके अपने घर लेके गया – लगभग खड़े-खड़े घसीटते हुए – वरना उस दिन कुछ अनिष्ट हो जाता…। अनिष्ट से तो बचना हुआ, इसके लिए तब सबसे खुली सराहना भी मिली…लेकिन याद आने पर वह दृश्य आज भी मेरी आँखों में बेहद ज्वलंत होकर दिल-दिमाँग में अंगारे-सा दहकता है…। और तब उस दिन उस तरह उसे खींच लाने पर आज भी इतनी ग्लानि होती है कि अपने को माफ़ नहीं कर पाता…। इस प्रकरण का लिखा जाना भी इसके प्रायश्चित्त स्वरूप ही हुआ है…।
लेकिन ‘अंत भला, सो जग भला’ की तरह मां का आक्रोश व हमारे प्रयत्न सफल हुए। 1306 फ़सली सन् के काग़ज़ात को चकबंदी में मान्यत-प्राप्त थी और उसमें मेरे प्रपितामह पंडित माताचरन का नाम मिल गया…। फिर कचहरी से कुर्सीनामा (वंशावली) निकालकर उस खेत पर अपने स्वामित्व की वैधता पेश कर दी…। अब भाई लोगों को इस अराजी के अपने नाम आने का सबूत देना था, जो वे न दे पाये – था ही नहीं। फिर पवस्त के चार गाँवों में उन्हें कोई गवाह न मिला, जो कहे कि खेत उनका है…। जी हाँ, तब इतनी दियानत थी लोगों में…। पार्टीबंदियाँ ऐसे नहीं थीं कि कोई किसी के ख़िलाफ़ गरल पी जाये…। और ऐसी बेशर्म बेइमानी की हार तथा इतने झगड़े-लड़ाइयों से मिली प्राय: असम्भव-सी जीत के बाद भाई के घर से बोलचाल बंद होना ही था, जो काफ़ी दिन चला…। लेकिन उस दौरान उनके दरवाज़े से गुजरते हुए मां के चेहरे पर ऐंठे हुए लोमहर्षक भाव देखते ही बनते – गोया घर भर को ठेंगा दिखा रही हो…।
‘रघुबर पंह जाब…’ के समानांतर मां की दूसरी प्रिय पंक्ति थी – ‘दुखैं हमार तिनहुं पन बिति गइलें…’ अर्थात् दुःख में ही मेरी ज़िंदगी की तीनो अवस्थाएँ -बालपन-जवानी-बुढ़ापा- बीत गयीं… याने सुख कभी देखा ही नहीं। इसे भी वह उठते-बैठते किसी भी वक्त कई-कई धुनों, विविध आरोहों-अवरोहों में टेर देती – ख़ास कर जब घर का कोई मेहनत वाला काम (जैसे ढेर सारा अनाज बनाना – याने सूप से साफ़ करना… आदि) करके उठती, तो सहज ही यह पंक्ति उसके अंतस् से आत्मालाप की तरह उठती…‘दुखैं हमार तिनहुं पन बिति गइलें’। कितना सच है यह भी…!! 52 साल (के वैधव्य) का समय कम नहीं होता। और इतने दिनो हम तीन बच्चों व इतने ही जेठ-देवरों के कुनबे को सम्भालते हुए जीने के बीच ज़िंदगी भर दुःख ही दुःख उठाने की यह पीर उसके मन में सालती रही…। उसके साथ ही वह इस दुनिया से गयी…। इस दौरान वह इतनी बड़ी घर-गृहस्थी का सारा काम अकेले करती…। तब तो कूटना-पीसना भी अनिवार्य रूप से घर में ही होता – औरत ही करती। लोक कवि ने लिखा है – ‘जब पहिले केहू के परति रही बरही-तेरही औ खान-पान, तब घरहीं मां पिसि जात रहा बोरा के कऊ बोरा पिसान’।
मैं पीसते हुए तो उसकी जाँघों पर होता ही, धान कूटते हुए भी उसकी गोद में सोने के मोह में सामने बैठा रहता…। धान को फ़ोरियाने (खोलराई निकलने) के बाद फिर से चावल को छाँटा (हल्के हाथों मूसल चलाया) जाता। तब उसे पछोरते हुए पशुओं के खाने की खुद्दी (लाल रंग़ की गाढ़ी सी चीज़) निकलती, उसमें तरह-तरह के आकार बना-बनवा के मां मुझे बहलाती रहती…। पशुओं के गोबर तो जब तक रहे, काका ने उठाया – बाद में मां ने वह ज़िम्मा भी ले लिया, लेकिन गोबर पाथने (उपले बनाने) का काम तो स्त्री ही करती। सूखे उपलों को गोलाई में आकार देकर ‘गोहरा’ बनाते मां को देखना नयनाभिराम होता…। ऐसे 5-5, 6-6 गोहरे बनते, जो बारिश के पहले घरों में रख दिये जाते। पूरे साल ईंधन के काम आते। इन सबके साथ भयंकर ठंड में भी बिना नहाये खाना न बनाने और बिना ब्लाउज़ पहने ही बनाने जैसे जड़ ब्राह्मणी नियम-पालन जैसी त्रासदियाँ भी इसी में शुमार होतीं…। स्कूल व बाहर जाने के हमारे कपड़े भी धोती। कुल मिलाकर गाँव की हर औरत से ज़्यादा ही गृहस्थी के कोल्हू में पिसने की अपनी नियति को मां ने परम कर्त्तव्य मान कर तन-मन, प्राण-पण से किया – अनथक!!
लेकिन उसने वे काम भी किये, जो ठाकुर-ब्राह्मण घरों के मर्द भी नहीं करते – औरतों के लिए तो लगभग वर्जित ही हैं। तब तो कोई औरत न करती थी और आज के यंत्र-संचालित युग में करने की ज़रूरत नहीं…। मुम्बई आते हुए तो मै सब खेती अधिया (आधा लेके आधा देने) पर देके आया था, लेकिन जब छह-सात साल बाद रेहन पर रखे खेत छुड़ाये और अपनी हौंस के चलते पूरे समय का नौकर रखकर खेती शुरू की, तो गोसयाँ की तरह मां खेतों में देखभाल करके ठीक से कराने जाने लगी…। फिर धीरे-धीरे कारबारी किसान की तरह खर-पतवार भी बीनने लगी। कभी नौकर छुट्टी चला जाता, तो पशुओं का चारा काट के लाने लगी और खुद चारा काटने वाली मशीन चला के उसे बाल भी लेती। याने मर्द किसान के सारे काम करती – सिर्फ़ फावड़ा-कुदाल चलाना छोड़ के। यही सब काम हमारे गुरु ड़ा. वंशीधर पंडा की कविता की मां भी करती है, जो उद्धृत करना था। कर पाता, तो मैं अपने शब्दों में न लिखता। लेकिन उनका पूरा लेखन लुप्त हो चुका है – तीन-तीन बेटियाँ हिंदी से एम.ए., लेकिन कुछ सुरक्षित न रहा…। बहरहाल, 1970 के दशक में यह सब करना आसान न था। जाति-वर्ण, पुरुष-स्त्री के भेद को लेकर समाज काफ़ी कुंद था। ऐसे में एक मानिंद उच्च वर्ण की स्त्री खेती कराये, खेतों में काम करे…कल्पना से भी परे था। और गाँव के इतिहास का यह दस्तावेज अब तक मां के नाम ही है।
लेकिन मां में तब भी वह विश्वास था, लोकाचार को तोड़ने की कूबत थी और यह साफ़ दृष्टि थी – ‘अपना काम है, अपने हाथ से करने में क्या बुराई है? काम तो काम है – क्या स्त्री, क्या पुरुष? और छोटी जतियों की औरतें करती ही हैं, तो हमे करने में दोष क्या, शर्म क्या और गुरेज़ क्यों’? इसे आज आप मां की प्रगतिशीलता कह सकते हैं, लेकिन उसे तो इस नाम की किसी चिड़िया का पता तक न था। और हर तरह की कर्मठता में प्रवीण होने-करने का उसका ऐसा व्यक्तित्व था कि गाँव ने इसे भी सहज ही लिया। न कभी किसी ने तंज कसा, न नीचा दिखाने का कोई प्रसंग बना। फिर यह एकाएक न होकर धीरे-धीरे मात्रात्मक प्रक्रिया में (‘असन्लक्ष्यक्रम ध्वनि’ जैसा) हुआ, तो ध्यान में भी उस तरह न आया। लेकिन सवर्ण स्त्रियों के काम करने की कोई परम्परा न पहले थी, न ही उसकी कोई उम्मीद बनी…।
ये सब काम मौक़े-मौक़े से कर-करा लेने के अभ्यास और आदत ने मां को वह विश्वास व हिम्मत दी कि दो सालों बाद ही जब वह नौकर भाग गया और पूरे समय का दूसरा आदमी मिल न रहा था, उसने पूरी खेती खुद करायी – जैसे कोई भी आदमी कराता है। फिर तो इतना ही नहीं, अपने औरतपन को सार्थक करते हुए खेती के कामों में इज़ाफ़ा भी करने लगी…। उदाहरण के लिए खेतों में गिरी बालें, चूहों की बिलों में पड़े अनाज, जिन्हें हम छोड़ देते, निकलवाने लगी…। इसी तरह खेतों या परती ज़मीन को छीलकर लीप-पोतकर खलिहान बनते, जहां दाना-भूसा अलग करने का काम होता। अब वह ज़मीन पलस्तर जैसी समतल तो हो पाती नहीं, छोटे-छोटे गड्ढे-छिद्र…आदि रह जाते, जिनमें छिंटा-छिंटा के ढेरों अनाज भर जाता…। तो जब लोग मई-जून की चिलचिलाती दोपहरी में घर चले जाते, मां सारे दाने एक-एक कर बीनती और इकट्ठा करके घर लाती। महीनों चलने वाले खलिहान के काम के दौरान एकाध कुंतल अनाज तो लाती रही होगी!! और यह सब करते हुए भी पूर्ववत न थकी, न हारी…।
उसके इस अनाज बीनने को देखकर एक दिन याद आया क़ि हमारे गाँवों में (और शहरों में भी) खाने के बाद थाली में बहुत सारा खाना छोड़कर लोग उठ जाते हैं…। बस, मन में भाव आया कि यदि एक-एक दाने के लिए मां इतना कष्ट उठा सकती है, तो हमें बने-बनाये अन्न को बर्बाद करने का क्या हक़ है!! फिर तो खाते हुए थाली में एक भी दाना न छोड़ने और अपने लोगों को न छोड़ने देने का ठान लिया, जिसे आज तक निभा रहा हूँ…। इसके लिए कितनों की नाराज़गी मोल ली – बड़ी बहन से ही सालों तक अबोला रहा…। तब 1980 के शुरुआती दिनों में तो काफ़ी दिक्कतें हुईं, पर आस-पास के सब लोगों के ठीक से जान जाने के बाद अब आसान हो गया है। और संतोष है कि वह नियम अब तक निभ रहा है…। घर-गाँव के कई लोगों के अलावा कुछ छात्र भी इसे मानने और लोगों से मनवाने लगे हैं…।
खेती-बारी के कामों में खाद-पानी-बीज-मजदूरी…लेने-देने से लेकर अनाज बेचने…आदि में पैसों के लेन-देन भी करने होते…, जो मेरी निरक्षर मां के लिए कठिन था। उसे तो सौ तक गिनती भी नहीं आती थी, लेकिन बीस तक आती थी। सो, ‘एक बीस’, ‘दो बीस’…कर-कर के पाँच बीस का सौ बनाके अलग-अलग सौ-सौ को रखके, फिर गिन-जोड़ के सारा लेन-देन कर लेती…। और दैवयोग से उसकी स्मृति बहुत अच्छी थी ही, जो इतने सारे गीतों व पूजा-पाठों, व्रत-त्योहारों के विवरणों में हम देख आये हैं…। वह यहाँ भी अपना योग दे देती – काम हो जाता। इस प्रकार पंडितों के ‘अर्धेन कुरुते कार्यं’ से तीन गुना आगे बढ़कर मां ने ‘पंचम भागेन कुरुते’ को सिद्ध कर दिखाया। उसमें समय तो लगता, लेकिन तब लोगों के पास समय था – ऐसी अफ़रा-तफ़री नहीं थी और ऐसे कामों को प्रश्रय देने की वृत्ति थी। श्रेय देने की, आगे बढ़ाने की सदाशयता थी।
आख़िरस काफ़ी उम्र हो जाने पर हम तीनो भाई-बहनों ने मिल के घर में चक्का जाम कर दिया – खाने-पीने की हड़ताल कर दी, तब जाके उससे खेती का यह काम ज़बरदस्ती छुड़वा पाये…। उसके बाद से सारी खेती जो ठीके पर दी गयी, आज तक वैसे ही चल रही है और अच्छी भी चल रही…।
अब एक विरल प्रसंग की तरफ़ चलें…। बात यह थी कि मां के कोई भाई (मेरे मामा) न थे और तीन बहनों में भगवानी-रामरती के बाद सबसे छोटी थी मेरी मां बासमती। बचपन में मैं कविता-पंक्ति की तरह तीनो नाम सरपट बाँचता – भगवानी-रामरती-बासमती। इधर मेरे पिता विद्वान व कर्मठ थे, जिनके तीन-तीन हट्टे-कट्ठे भाई भी थे। इससे नानी ने इस आकलन के साथ कि उसकी बड़ी यजमानी व 6-7 बीघे की ठीकठाक खेती भी अच्छे से होगी…, अपनी चल-अचल सारी सम्पत्ति मां के नाम कर दी थी। लेकिन कुछ ही दिनों में अचानक पिता चल बसे और काकाओँ ने ‘वह ज़मीन दोखी (दोषी–भुतही) है…हमारे सोने जैसे भाई को खा गयी’, कहकर सम्भालना तो क्या, वहाँ आना-जाना भी बंद कर दिया। लेकिन मां को तो नानी की देखभाल के लिए रहना ही पड़ता। छोटी संतान होने से मैं साथ रहता। सो, मेरे बचपन का काफ़ी समय ननिहाल में बीता है। इसी से आज भी वहाँ होना मुझे अपने घर जैसा लगता है।
इसी क्रम में जब मै वहीं रहकर दर्जा छह में पढ़ रहा था, बड़ी मौंसी का बड़ा लड़का, जो नानी के कुल सत्रह नाती-नातिनों में सबसे बड़ा है – हम सोलहो का ‘बड़का भैया’ नर्वदेश्वर मिश्र उर्फ़ नरबदे, वहीं रहके कृषि विज्ञान (एजी) से हाई स्कूल की पढ़ाई करने लगा और नानी के आग्रह-दबाव वश उनकी खेती-यजमानी भी नीमटर (थोड़ी-बहुत) देखने लगा। मां उस मातृविहीन बच्चे को अपने बड़े बेटे जैसा प्यार करती और वह भी इस मौंसी को मां-सी ही मानता। भाई-विहीन मैं भी भैया-भैया करके उसके आगे-पीछे घूमता और वह भी मुझे अपने तीन छोटे भाइयों के साथ चौथा सगा भाई मानता ही नहीं, वैसा करता भी, जो हमारे बहुत बड़े हो जाने तक चला भी…। इसी सब लगाव के चलते और नानी व उनके पूरे संभार के भविष्य को भैया के हाथों सुरक्षित पाके नानी की सम्मति से मां ने सारी सम्पत्ति उन चारो भाइयों के नाम कर दी। और आगे चलकर तीसरे नम्बर के भाई जनार्दन मिश्र सपरिवार वहाँ बस गये। इसे तब की दुनिया ने भी अच्छा नहीं माना और आज तो वैसा करने की कल्पना ही नहीं हो सकती कि लाखों की सम्पत्ति कोई किसी को दे दे, जो आज तो करोड़ों की है। लेकिन वह काम तब भी नितांत बचपने में मुझे बहुत अपना-सा लगा था और आज भी संवेदन व औचित्य के चलते बिलकुल सही लगता है। मां-नानी के इस किये को ग़ैर दुनियादार भले कहा जाये, हमे तो इसके सुफल ही सुफल मिले –
– इससे नानी की परवरिश अच्छी हुई और मां को मुक्ति मिली…।
– मेरे ममेरे व मौंसेरे दोनो भाइयों की भूमिका जनार्दन भैया ने बहुत अच्छी तरह निभायी।
– उनके रूप में मुझे सगा जैसा बड़ा भाई मिला, जो मेरे हर काम में मुझसे आगे खड़ा रहा…।
– बाक़ी लोग भी आते-जाते रहे – सुंदर रिश्ता बना।
– मां का मायका अंत तक बना रहा और मेरा ननिहाल अब भी आबाद है…।
इकला बेटा होने से बना अति सुरक्षा-दुलार का एक दुष्परिणाम ननिहाल में रहने से कार्य रूप में उतरा, जिसे मैं आज तक भोगता हूँ। वहाँ से आज़मगढ़ शहर क़रीब है और सामने के मारकंडेय सिंह मामा आर.एम.एस में काम करने रोज़ शहर जाते भी थे…। तो अच्छे व चुनिंदा सामान मँगवाना आसान था, जो हमारे गाँव से तो दुर्लभ ही था। मां को अति विश्वास था कि पैरों-कानों के रास्ते ही ठंड प्रवेश करती है। सो, जाड़ों में जूते-मोज़े, मफ़लर मंगाके सुबह-शाम देर-देर तक बँधवा के रखने की स्नेहिल हुकूमत ने मेरे कानों-पैरों को इतना नाज़ुक बना दिया है कि वह सब पहनना ज़िंदगी भर के लिए अटाल्य हो गया है…। बोझ तो होता ही है, लेकिन बचपन-किशोरावस्था में साथियों से चिढ़ाये जाना ज्यादा खलता था…लोग टोक तो आज भी देते हैं…।
नानी के यहाँ रहने की एक विरल बात…। कहानियाँ सुनाने के लिए नानी मशहूर है – ‘मां कह एक कहानी। बेटा, समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी?’ लेकिन हमारी नानी को सुनाने वाली कोई कहानी नहीं आती थी। हाँ, उसने अपनी करनी से जीवंत कहानियों का बहुत बड़ा संभार अवश्य खड़ा किया था। तो इस ख़ाली स्थान की पूर्त्ति भी माँ ने की और थोड़ी बड़ी होने पर बड़ी बहन ने। बड़ी बहन को भी वह ज़ख़ीरा मां से ही मिला था, जो उसने हम तक पहुँचाया। लेकिन हम अबोध बच्चों को बहलाने के लिए उँगली का जादू तो मां के ही पास था। तब वह बीमार थी। उठ नहीं पा रही थी। इसे समझने के लिए छोटा मैं उसके साथ खेलने की ज़िद कर रहा था। फिर तो उसने दाहिने हाथ की मध्यमा उँगली के पिछले हिस्से को दीवाल में घिस के मुड़ने वाली गाँठ पर मिट्टी लगा ली और तर्जनी को साथ मिला के बाईं हथेली पर रखके कहा – ‘देखो, मिट्टी वाली उँगली इधर (दाहिने) है न’? मेरे हाँ कहने पर कहा – ‘देखना अभी इसे जादू से उधर (बाएँ) कर दूँगी’, और लगी उसको हथेली पर पीटने…। 4-6 बार पीट के रोका, तो मिट्टी वाली उँगली सचमुच दाहिने से बाएँ आ गयी थी। मैं हैरान – मां को जादू भी आता है। और मुतासिर होके वही खेल बार-बार कराके तृप्त होता…। राज़ बड़ा होने पर समझा कि पीटते हुए तर्जनी को हटा के अनामिका रख देती, लेकिन तब यह जादू-प्रकरण मुझे मातृत्व के जादू का प्रतीक लगता, जो हर मां में अपनी-अपनी तरह होता है…।
घरेलू और खेती-गिरस्ती के इतने सारे कामों के साथ पूरे गाँव के सामाजिक-सांकृतिक कार्यों में प्रमुख भूमिका निभाने वाली मां देखने में तो हट्टी-कट्ठी थी। क़द ज़रूर मंझोला था, रंग़ गोरा नहीं, काला भी नहीं। जो था, उसे हम ‘पक्के पानी’ कहते हैं। पर काठी ख़ासी मज़बूत थी। जाँगर (काम करने की इच्छा-क्षमता) अपार था। इससे वह सब कुछ – याने सब कुछ…कर लेती थी। लेकिन ‘शरीरम् व्याधि मंदिरम्’ से मुक्त तो न थी। बचपन में चेचक की बीमारी से मरते-मरते बची थी, जिसके अत्यंत धूमिल – प्राय: अलक्षित-से निशान उसके चहरे पर विद्यमान रहे। नानी को फ़ाइलेरिया था और मां के पाँव की एड़ी व उँगलियों के ऊपर का चपटा वाला हिस्सा किंचित उभरा था, जिसे देखकर मुझे सदा डर लगा रहता कि मां को भी वो रोग मिलेगा, लेकिन सुदैव से इसे नहीं मिला, पर दुर्दैव से मौंसी को मिला…।
लेकिन हमने होश सम्भालने से ही उसे दमा की बीमारी से पीड़ित देखा। जाने कब से हुई, पर वह मां की चिरसंगिनी थी। और उसका इलाज मां साल में एक बार करती थी – कार्त्तिक के महीने में जौनपुर से दस-एक किमी पश्चिम भेलहिया का मेला लगता है। वहाँ काले रंग़ का सूखा फल जैसा कुछ मिलता है – गुच्छे का गुच्छा, ढेर का ढेर, जिसे भेला कहते हैं। इसी के नाम पर वह भेलहिया है। उस मेले में जाने वाले सभी प्रायः मरीज़ ही होते हैं। भेला पीने ही जाते हैं। उसका रस निकाल के और पका के या गर्म करके एक सुतुही (सीपी) भर ही पीना होता है – बहुत सावधानी से, वरना इतना ज़हरीला कि अंग पे गिर जाये, तो जला ही दे। सिफ़त यह कि वहीं जाके और कार्त्तिक में ही पीना होता है। वहाँ से घर या उस मेले-परिसर से बाहर भी लाके पीने पर वह बिलकुल फ़ायदा नहीं करता…ऐसी मान्यता है। उसे पीने के बाद 21 दिनों तक नमक का परहेज़ करना होता है। गलती से भी नमक खा लिया, तो शरीर का सूजना तय। लेकिन साल में एक बार पीके पूरे साल दमा से बचे रहना महँगा सौदा तो न था। और मां ने इसे साध लिया था। तीन दशकों से ज़्यादा समय तक लगातार भेला पीते, परहेज़ करते और इसी भरोसे दमा को धता बता कर इतनी अनथक ज़िंदगी जीने का मां का कौशल व कमाल देखा है हमने…।
स्त्रियों के अंदरूनी रोगों के नाम पर बेटा भी हमारे समाज में पुरुष हो जाता है। उसे खुलकर बताया नहीं जाता। पूछने पर भी शर्म-हया में टाल दिया गया। लिहाज़ा 1970 के दशक में पहली बार मुझे भनक लगी कि मां को कोई बीमारी है, जिसका कुछ-कुछ इलाज वह अपने तईं कराती रहती है। कालांतर में आख़िर जब रक्त या मद-स्राव अधिक होने लगा, तो 1978 में साफ़ मालूम पड़ा कि ‘धाद गिरने’ की बीमारी है। उन दिनों अजममगढ में मिशन अस्पताल का बड़ा नाम था और वह डाक्टर सूबी के कारण था, जो शल्य-चिकित्सा के सधे मास्टर थे – ‘घास की तरह पेट काटते हैं’, का मुहावरा बना था उनके लिए। स्राव बच्चेदानी से था, सो उसे निकालना ही निदान था। हमारे परिवार में किसी का वही पहला ऑपरेशन था, जिसे मैंने मां का गहना गिरवी रखके कराया था। तीसरे दिन मां घर आ गयी थी – उस रोग से सदा के लिए चंगी होकर। यादगार यह कि बड़के मौंसा देखने आये और अपनी प्रिय छोटी साली को इस दशा में देख के इतना घबराये कि उन्हें चक्कर-सा आने लगा – तुरत वहाँ से हटाना ही पड़ा…।
तीसरी समस्या मां के दांतों की थी, जो आकार के चलते शुरू से ही ख़राब थे। उसी का पौरा मुझे व बड़ी बहन को भी मिला है। तीनो के लगवाये मैंने मुम्बई में ही। मां का तो मुम्बई यूँ ही आने के कारण लगा, वरना दाल में भिंगा के रोटियाँ खाने की अभ्यस्त हो गयी थी और मसूड़ों से खा-खाके संतुष्ट थी – हाय रे ज़िंदगी तब के गाँव की!! इसीलिए मसूड़े इतने कड़े हो गये थे कि कोई डाक्टर दाँत लगाने को तैयार ही न हो रहे थे। आख़िर बड़े अनुनय से एक डाक्टर (मेहताजी) ने जोखम उठाया…। करने, फ़िट होने में मां को इतने कष्ट हुए कि डाक्टर घबरा के मान ही गये उसकी ज़बरदस्त सहन-शक्ति को। क़िस्सा-कोताह यह कि अंतिम 15 साल मां ठीक से खा सकी। लेकिन उन नक़ली दांतों की ऐसी सफ़ाई व सम्भाल करती कि देखते ही बनता – दूसरा सेट बनवाने की नौबत ही न आयी। उसके लगने से मां के चहरे का आकार किंचित बदल भी गया था।
मां की यही एकमात्र यात्रा हुई, जब वह मुंबई के घर में तीन महीने रही…वरना अपने सम्मौपुर के घर-गाँव में ही ऐसी रमी रही…। वहाँ के सुख-दुःखों व जीवन-पद्धति के साथ ऐसी एकाकार हो गयी थी कि उसे वहीं विश्व-दर्शन का सुख मिलता…। जीवन के 71साल वहीं बीते। बड़े-फैले घरों, गाँव में सबके घर आने-जाने की सहजताओँ व अपने खेतों-पशुओं के बीच के मंसायन के सामने शहर के घरों की सीमित-एकरस (किचन-बाथरूम-बेडरूम में क़ैद) ढाँचे में वह औंजा (सफोकेट हो) गयी…। लेकिन इस मुंबई-निवास में दूसरे दिन की शाम की एक घटना अपनी रोमांचकता में अविस्मरणीय है। एक ही परिसर में तब हम पीछे की इमारत की दूसरी मंज़िल पर एक शयन कक्ष, बैठक, रसोईं के घर में रहते थे (आज तो पूरी तल मंज़िल व परिसर भी है) और आगे के बंगले में मेरी ससुराल है। सो, उस शाम मेरी गुजरातन सास -हम सबकी ‘बा’ (मां) – श्रीमती विजया बेन भट्ट मिलने आयीं मां से…। आमने-सामने सोफ़े पर बैठते ही मां यह कहते हुए उठी – ‘हमसे बड़ी हईं, हम गोड़ त धय लेईं’ (मुझसे बड़ी हैं, मैं पाँव तो छू लूँ) और मां की इस भोजपुरी से नितांत अनजान बा कुछ समझें…, तब तक उनके सामने बैठकर मां दोनो हाथ जोड़कर उनके चरण-स्पर्श कर-कर के माथे लगाने लगी…। उधर इस मर्म को समझते ही बा ‘ना-ना’ करते लड़खड़ाते हुए उठीं और दोनो हाथों से मां का कंधा पकड़ के उठाने का प्रयास करने लगीं…। इस तरह अगले मिनट दोनो एक दूसरे के गले लगी हुई अपनी-अपनी तरह मुस्करा रही थीं।
उस वक्त मुझे यह दो समधिनों से अधिक दो संस्कृतियों का मिलन लग रहा था। विधवा दोनो थीं…और बा तो पूर्ण श्वेत वस्त्रधारी ही रहतीं, लेकिन संयोग से उस शाम मां का भी परिधान श्वेत ही था…तो यह धवलता गंगा-साबरमती के मिलन का प्रतिबिम्ब लगने लगी…। मेरे दुभाषिए की भूमिका ने अपनी मां व सास से एक दूसरे का हालचाल कराया और कल्पनाजी ने फल-रस पिलवाकर अपनी सास की तरफ़ से बा का सत्कार कराया…। मां-बा के उस प्रथम मिलन की स्मृति हमारे जीवन की अमूल्य धरोहर है…।
मेरे पूना-प्रवास के दौरान मां की आँख के मोतियाबंद पके। वहीं बुलवा कर वरिष्ठ विशेषज्ञ के पास ले गये, लेकिन शल्य-कक्ष में जाते ही उसका रक्तचाप बढ़ जाता था। दो बार लौटना पड़ा। आख़िर तीसरी बार डाक्टर ने शाम को ही भर्ती कर लिया और रात भर निरीक्षण के अंतर्गत रखकर ही सुबह शल्य-चिकित्सा हो पायी। इस तरह उसके दाँत व आँख पुनर्नवा हो गये…।
लेकिन अंतिम बेला का बहाना तो चाहिए था – ‘हिल्ले रोज़ी, बहाने मौत’। और उसके पास तो बहाना क्या, मज़बूत कारण ही था – दमा, जो निर्मूल होने वाला था नहीं। घुन की तरह धीरे-धीरे चालकर आखिरस फेफड़े को खोखला कर गया। छोटी बेटी कविता के घर वाले मेडिकल क्षेत्र में ही सक्रिय हैं, जिनके ज़रिए जौनपुर से ही अच्छा इलाज हो रहा था, लेकिन एक स्तर पर आकर मुझे बुलावा गया। विमानतल से सीधे मां के पास अस्पताल पहुँचने का निर्णय बहुत फलदायक सिद्ध हुआ। उसके रहते मैं 35 साल मुम्बई रहा और उधर 5-6 सालों से उसकी सबसे बड़ी चिंता यही थी कि अंतिम घड़ी में मैं उसके पास रहूँगा या नहीं। इसे लेकर वह ज्योतिषियों से भी पूछ चुकी थी। बड़के बाबू के समय का चूक जाना उसे सशंकित कर गया था। इसलिए मैं उसके कमरे के दरवाज़े पर पहुँचते ही चिहा के बोला – ‘माई, देख, हम आय गइली’। और मुझे देखते ही उसके चहरे पर जो आह्लाद आया…कि वात्सल्य में भी साकार हो उठे मिर्ज़ा ग़ालिब… उनसे क्षमा-याचना सहित कहूँ, तो – ‘मेरे आने से उसके चहरे पे जो आ गयी रौनक़, मैंने समझा कि बीमार का हाल अच्छा है’।
लेकिन मुझे ‘बीमार का हाल अच्छा’ का भ्रम न हुआ – असलियत का भान था। वहाँ के डाक्टर जवाब दे चुके थे। तुरत उठवाया और ‘बीएचयू’ ले चले। कार की पिछली सीट पर मैं मां को बाँहों में लिये था। उसने मेरा हाथ पकड़ रखा था। बहुत खुश थी – तृप्त थी। जैसे उसकी अंतिम इच्छा पूरी हो गयी हो। बड़ी शांति-सुकून से अच्छी बातें कर रही थी। यह मनोरम दौर कुल बमुश्किल 15-20 मिनटों का था। लेकिन कहना होगा कि ये बीस मिनट हम दोनो की ज़िंदगी के सबसे खूबसूरत, यादगार, सुखद पल थे, जो पूरी ज़िंदगी पर तो भारी सिद्ध हुए ही, मां के लिए उसकी मौत पर भी भारी पड़े – गोया इन पलों ने उसके मन से मृत्यु का डर समाप्त कर दिया हो – फ़िराक़ साहब साकार हो गये हों – ‘मौत इक गीत रात गाती थी, ज़िंदगी झूम-झूम जाती थी’। जैसे वह अंतिम यात्रा पर जाने को तैयार हो गयी हो। ‘जनमत मरत दुसह दुःख होई’ से छूट गयी हो, ‘सो दुःख स्वल्प न व्यापै सोई’ की मुक्त दशा को प्राप्त हो गयी हो…।
गाड़ी शहर से बाहर निकल कर 20-25 किमी चली होगी कि मां ने लघुशंका के लिए कहा। मैं लेके बाहर निकला, लेकिन मुझे छोड़कर वह आगे बढ़ गयी। फ़ारिग होकर हाथ धोये, फिर मेरा हाथ पकड़ लिया। गाड़ी में बैठने के बाद आँखें बंद हुईं और खुलीं, तो जैसे दूसरी दुनिया से आयी प्राणी लगने लगी। लघु शंका के बाद ऐसा ही बड़के काका का भी हुआ था। शायद यह नियति की कोई भौतिक गति हो…। मां भी कुछ अटपटी बातें करने लगी – और अस्पष्ट भी। उसी वक्त इहलीला समाप्त हो गयी होती, तो शायद मौत वरदान बन गयी होती, लेकिन शरीर को आगे के अस्पताली कष्ट भोगने थे। अस्पताल तक उसी अट्ट-बट्ट बोलने जैसा होश बना रहा। लेकिन वहाँ पहुँचते ही जो होश गया, फिर न लौटा…।
फ़ोन कर दिया था। वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी, बलिराज पांडेय, अवधेश प्रधान…आदि मित्र अस्पताल पे मौजूद थे। तुरत भर्ती हुई। कई तरह के परीक्षण में खूब भाग-दौड़ हुई। किडनी व फेफड़े की ख़राबी का पता था ही। डायलेसिस शुरू हुई। न कुछ आराम हुआ, न होश आया। फेफड़े के लिए वेंटिलेटर पर रखा गया…सब खटकरम चलते रहे, पर मां इससे परे थी – उसकी तो सिर्फ़ साँसें चल रही थीं – चेतना तो तब से ही देह का दामन छोड़ चुकी थी। लेकिन उम्मीद भी ग़ज़ब का जज़्बा है – सब कुछ करा रहा था…।
अपने साथ-सहायता के लिए ख़ानदान के बड़े भतीजे प्रिय मनोज को बुलवा लिया था, जिसके बल ही मैं सब कर सका। दिन भर मोबाइल से सम्पर्क करते हुए डाक्टरों-दवाओं…आदि का इंतज़ाम करते देखकर एक दिन मनोज ने जो कहा, यादगार है – ‘चाचा, ई तोहार मोबाइल दस मनई के काम अकेलै कइलै है’। दोनो दीदियाँ थीं ही। अनुजवत मित्र ड़ा. प्रकाश उदयजी सुबह-शाम मौजूद। मेरी आदतें जानते थे। रात को बाइक से मुझे अपने घर ले जाते। गर्म पानी से नहलाके, खिला के सुलाते – सुबह नाश्ता कराके पहुँचाते। तीसरे दिन कुछ रुपए जेब में डालते हुए बोले – फिर बताइएगा…।
भर्ती के दूसरे दिन से सारे रिश्तेदार धड़धड़ा के आने लगे। पूरे गाँव के आने का ताँता लग गया – एक जीप वापस जाये कि दूसरी आ जाये…। मां को देखकर सबको यही लग रहा था कि अब उसकी अंतिम घड़ी आ गयी है। लेकिन सबको यह भी लग रहा था कि मैं इस सत्य से अनजान और जी-जान से बचाने के प्रयत्न में लगा हूँ – बचा लेने के प्रति आश्वस्त हूँ…।
मित्रवर अरुणेश नीरनजी ने फ़ोन करके मशहूर डाक्टर के.के. त्रिपाठी को भेजा। उनका भी वही कहना, जो सबका – ‘इलाज सही हो रहा है, लेकिन उम्मीद तो ईश्वर से ही कीजिए’, जिसे करते हुए भी पाँच दिन निकल गये। छठें दिन आजिज़ आकर उतावली में मुम्बई ले जाने का मन बनाने लगा…कि इसी वक्त प्रकाश उदय जी का लोकमन शिद्दत से प्रकट हुआ – भाई साहब, दुनिया ग्लोबल हो रही है। मुम्बई में भी इलाज यही होगा…। बस, माताजी के देह की साँसत होगी। यहाँ भी वेंटिलेटर से ही साँस चल रही है…ऐसे ही घर ले जाइए। अब इस प्राण को अपने मूल घर की ज़रूरत है…।
जाने उनकी शिद्दत में क्या जादू था या मेरे भी अवचेतन में वही था…मन तुरत मान गया। अस्पताल से छुट्टी लेकर रात के आठ-नौ बजे के आसपास घर पहुँचे। तुरत पूरा गाँव जुट गया। मां को उसकी खाट पर वहीं सुला दिया गया, जहां पिछले चालीस सालों से सोती आ रही थी। वेंटिलेटर चल रहा था। उसके चेहरे पर असीम शांति लग रही थी। लेकिन मुश्किल से आधे घंटे बीते होंगे…। वहीं बैठकर हम लोगों को अस्पताल से निकलने के हाल सुना रहे थे कि अचानक मां के गले से हल्की-सी ‘खट’ की आवाज आयी और वही उस भौतिक शरीर की अंतिम क़्रिया थी…।
इसी के साथ बहनों-बेटियों-भांजियों-पड़ोसिनों का ऐसा सम्मिलित चीत्कार उठा कि घर दहल गया…। सबने एक स्वर से कहा – छूटने के लिए प्रान अपने घर आने को तड़प रहे थे। अपने बसेरे से ही उड़ना था पंछी को…। ठसाठस भरे गाँव के जन-जन की आँखें नम हो गयीं। किसी की आवाज़ सुन पड़ी – आजु सम्मौपुर के सुनहरी संस्कृति के एक युग के अंत हो गयल, जवन फिर कबों ना बहुरी!! (आज सम्मोपुर की स्वर्णिम संस्कृति के एक युग का अंत हुआ, जो कभी न लौटेगा’…!!
अब साढ़े नौ बजे रात को मौत हुई, तो अर्थी सुबह ही जानी थी दाह-संस्कार के लिए…। बनारस ले जाना हमारे इलाक़े में हिंदुत्व का आदर्श है। यूँ घरजनवां (हर घर से) एक के जाने की सामाजिकता है। गाड़ी-भाड़े के साथ वहाँ नाश्ते-पानी कराने का भी चलन है, जिसमें लगने वाले खर्च को लेकर गाँव के लोगों को सोचना पड़ता है। लेकिन मां के लिए ख़ास तौर पर बहुत से लोग आना चाह रहे थे, पर सकुचा रहे थे। तो, मैंने कहलवा दिया – संकोच की कोई ज़रूरत नहीं। जो आना चाहे, शौक़ से आये। परिणाम अपेक्षित रहा – 30 घरों के पुरवे से पचासाधिक लोग तैयार हुए, लेकिन पाँच ही जीपों में लद गये लोग…।
मृत्यु से लेकर त्रयोदशाह तक के सारे क़्रिया-कर्म को हमारी मनीषा ने समारोही रूप देकर स्नेही जनों के मन से दुःख को परे रखने की संस्कृति विकसित की है। इसका प्रमाण कहीं यूँ पढ़ा था कि काशी के ‘जलसाईं’ घाट नाम में ‘जलसा’ इसी उत्सवी धारणा का वाचक है – ‘ईं’ तो अर्थ-भेद के लिए लगा प्रत्यय है। लेकिन हमारे दाह तो मणिकर्णिका पर ही होते हैं। जब मैं अग्नि-दंड लेकर चिता की परिक्रमा कर रहा था, मुझे एक मिनट के लिए लगा कि अपने साथ साहब (राज मौर्य) को भी जोड़ लूँ, क्योंकि इन 35 सालों में मां के बेटे की व्यावहारिक भूमिका उसी ने निभायी है, पर वहाँ मौजूद लोक (मत) के सामने सहम गया और अकेले ही दाह-कर्म कर दिया। अपनी हिंदू मनीषा की उक्त जलसा-उद्भावना को व्यवहार में उतारते हुए मैंने दुःख को मन में दबा-छिपाके सबसे घुलमिल कर बातें कीं। याद आया – मां सबको बड़े प्रेम से खिलाती थी…। सो, सबको खूब जमके खिलाया-पिलाया। रज-गज से लौटे…।
अब लौटने के बाद श्राद्ध-कर्म होना था…। हम तीन भाई-बहनों में छोटी दीदी सरनाम रूप से नादान मानी जाती रही है। लेकिन उसी ने कहा – ‘क्यों नहीं वृषोत्सर्ग कराते? क्या कमी है तुम्हारे पास? मां का दिया सब कुछ है’। अब याद आ रहा है कि इसी ने बीस साल पहले कभी फटकारते हुए कहा था – ‘इतना कमा-धमा रहे हो…गया ठकुरद्वारा…आदि तीर्थ करने की मां की कितनी इच्छा है…! तुम्हें नहीं लगता कि चलते पैरूख करा दूँ…’? सो, मां के इन दो अति महत्त्वपूर्ण कामों का श्रेय छोटी दीदी को जाता है…।
तो पहले तीर्थ-यात्रा की बात…, जिसकी मुझसे अनदेखी हो रही थी – शायद अपने कामों व भाग-दौड़ के चक्कर में…। और मां तो सामने से कहने वाली थी नहीं – अपने लिए कभी कुछ न कहा – न्यूनतम से काम चलाया, लेकिन तीर्थ के लिए कहते ही सहर्ष तैयार हुई…। वह भी गया के लिए, जहां पितरों को तारना था उसे – याने वह भी अपने लिए नहीं!! सो, उसी क्षण तय हुआ कि आते पितृपक्ष में यात्रा होगी…। ननिहाल में बसे चारो भाइयों में दूसरे वाले सुदर्शन मिश्र आचार्य व अच्छे पंडित हैं। उन्होंने घोषणा की – मैं सारे कर्म कराने मौंसी के साथ चलूँगा। और कहना होगा कि पूरे देश से आते एक से एक मालदार आमंत्रणों को ‘घर में यज्ञ हो रहा’ कहकर ठुकराते हुए यात्रा पर चलने के पहले के कर्म-कांडों से लेकर आने के बाद के नौ दिनों के पाठ और दसवें दिन का यज्ञ कराके ही टला वो बंदा…!!
गया-यात्रा के लिए चलते हुए अपनी मनीषा की निहित अवधारणाएँ मुझे भा गयीं। पित्रों को वहाँ बिठाना इसका मूल प्रयोजन है, ताकि हर साल उन्हें पानी पीने के लिए घर न आना पड़े और घरवालों को तर्पण से मुक्ति मिले – संक्षेप में यही अवधारणा है लोक में गया-स्नान व पिंड़दान की, जहां पूरे देश से लोग आते हैं। तो यात्रारंभ की पूजन में देवताओं को साक्षी बनाकर लाल कपड़े में बँधे नारियल में पित्रों की संकल्पित मौजूदगी को पलाश के डंडे में कंधों पर लिये लाल वस्त्रों में मां जब पूरे गाँव की सरहदी परिक्रमा कर रही थी, जोगन लग रही थी – श्रद्धेय व कमनीय। उसके चेहरे के भाव ऐसे, जैसे किसी और लोक में जाने के लिए प्रतिश्रुत हो…। सारे रिश्तेदार और समूचा गाँव साथ था। यही परंपरा थी – सब मिलने-पहुँचाने आते…। क्योंकि पुरा काल में, जब यातायात के साधन न थे, लोग चलकर जाते थे और कई बार लौटते न थे – उधर ही स्वर्ग सिधार जाते थे। पड़ोस की दुलारी बहन अपने पति के साथ गयी थी, पर कहीं छूट गयी। उसे भी मृत मान लिया गया था, पर महीनों बाद जाने कैसे-कैसे तो वापस आ पायी। सो, पहुँचाना एक अंतिम मिलन, अंतिम विदाई जैसा भी था। और ऐसी मौत को सचमुच सीधे स्वर्ग जाने की मान्यता प्राप्त थी। लोग विदाई के रूप में पैसे भी देते – जितना बनता जिससे…। संकल्पना यह थी कि लम्बी यात्रा में काम आयेंगे…। अब साधनों के सुलभ हो जाने के बाद ऐसी ज़रूरतें न रह गयीं, पर जो चलन बन गया, वह चल रहा है…। ख़ैर,
यूँ सरहद गोंठ (परिक्रमा कर) के निकले…। 12 दिनों की यात्रा तय थी…। पहली रात तो घर से चलकर बनारस में बीती – दूसरी वाली मौंसी की बड़ी बेटी पिकंदर के यहाँ। क्योंकि पिशाच-मोचन पर पिंड-दान से ही इस यात्रा की शुरुआत होती है। मां मगन थी। तीर्थ की उसकी चिर वांछित अभिलाषा पूरी हो रही थी और दो-दो बेटे साथ…चलते-चलते इस बेटी से भी भेंट। हरदम कुछ गुनगुनाती रहती…। मां-भैया दोनो नेमी-व्रती। कहीं कुछ खाते न थे। सो, हमने गया में होटेल लिया – किचन के साथ वाला, ताकि रात को एक समय खाना बन सके। बर्तन-जिनिस घर से लाये थे। दोपहर को वे दोनो फल-मिठाई पर गुजर करते। वहाँ आसपास टपरियों में भाजी-भात मिलता – पत्तल पर ढाई रुपए में स्वादिष्ट-ताज़ा भरपेट। मैं वहीं जाता। पिछड़ी जातियों के लोग…और-और लेने के इसरार करते…घर-जैसा महसूस होता…।
रातों को भैया भाजी काटता, कभी रोटी भी बनाता – मां के अभाव में बचपन से बनाते हुए सिद्धहस्त हो गया था। मै सब सामान लाता, आँटा गूँथता। सुबह सबके कपड़े साफ़ करता। आने-जाने के साधनों के इंतज़ाम करता…। उठते-बैठते, बनाते-खाते हरदम भैया कुछ-कुछ पुराण कथाएँ सुनाता रहता – बीच-बीच में मैं श्लोकों-कविताओं-अशआर के छौंक लगाते रहता…। मां कान पार के सुनती…। सुबह रिज़र्व रिक्शा आता। शाम तक साथ रहता। होटेल-रिक्शे दोनो के लिए मां झींकती – इन सुविधाओं के बीच उसे श्रम-साधना करके पुण्य कमाने का अवसर नहीं मिल रहा था। पैसे खर्च होने की कसक भी कम न थी। वो कहती – ‘इहो कवनो तीरथ भयल, जवने में क़वनो कष्टे न होय’ (यह भी कोई तीर्थ हुआ, जिसमें कोई कष्ट ही न हो)’…हाय रे तीरथ करने का हेतु और प्रयोजन !! लेकिन भैया ने एक शाम कहा था – ‘मौंसी, तू तीरथ करे ना, पिकनिक पर आइल हऊ’। और मैं तो गया शहर की गंदगी और सड़कों की दुर्दशा को देख के ही घबरा गया था। उसमें पैदल के श्रम का दुनियादारी वाला भाव सम्भव ही न था। मंदिर-परिवेश में भी गंदगी इतनी कि जहां पिंडदान के लिए बैठते, भात के बने व सड़ गये पिंडों की भयंकर गंध आती। मैं चारो तरफ़ ढेर सारी अगरबत्तियाँ लगा देता, ताकि दुर्गंध कम आये। चिंतनीय है हिंदू मंदिरों की अव्यवस्था। मज़ा यह कि सारे यात्री एक बार बोधगया भी जाते – वहाँ भी पिंड़दान होता। लेकिन उस अपेक्षाकृत छोटे परिसर में गंदगी का नाम नहीं – व्यवस्था की बात है!! उस बौद्ध मंदिर में पांडवों की मूर्त्तियाँ भी देखीं – ग़ज़ब का घालमेल है। बहरहाल,
शास्त्र-विधान के अनुसार 21 दिनों के विधान को मेरी छुट्टी के अनुसार भैया ने सात दिनों में नियोजित किया। फिर हम कलकत्ता होते हुए पुरी चले गये। मैंने रोज़ की डायरी लिखी है, पर विस्तार-भय से यहाँ उसे खोल नही रहा। बस, मां की कुछ विरल-रोचक, उसकी ही जैसी यादों के उल्लेख भर सीमित रहूँगा…
…एक दिन शाम को देर हो गयी, पर वहीं स्थित है ‘प्रेतशिला, जहां पिंड़दान आवश्यक था। ज़ोर की हवा चल रही थी। फिर न आना पड़े, की सावधानी वश भैया ने बड़े इसरार से कहा – ‘सत्देव के कै आवे द्या मौंसी – बेटवा के सास्त्रो आज्ञा देला। आ 300 सीढ़ी तू कहाँ चढ़े जैबू’? (सत्यदेव को कर आने दो मौंसी, – बेटे को आज्ञा देता है शास्त्र भी। फिर 300 सीढ़ियाँ तक कहँ जाओगी चढ़ने?) लेकिन मां ने ‘ना’ कह दिया – ‘ई जब हमके तारे ऐहैं, त करिहें – अबहिन त हम अपने पुरखन के तारे आयल हई…’ (ये जब मुझे तारने आएँगे, तो करेंगे। अभी तो मै आई हूं – अपने पुरखों को तारने) क्या श्रद्धा थी!! क्या साधना थी! उतनी सीढ़ियाँ चढ़ के गयी-आयी – बहुत बार तो चढ़ने में दोनो हाथों के भी उपयोग किये…। देर भी हुई, पर मां ने अपने हाथों सब किया। उस रात 10 बजे होटेल पहुँच के खाना बना।
…जिस दिन फल्गु नदी के किनारे हम पिंडा पारने गये थे, जहां राम के पितृ-तर्पण के उल्लेख मिलते हैं, थोड़ा समय बचा था। वहाँ थोड़ी दूर पर श्मशान भी है। लाशें जलती देख मां ने देखने की इच्छा व्यक्त की। क्योकि यहाँ तो मरे बिना स्त्री को श्मशान जाना मना है। हम गये, तो मां देर तक बैठी बड़े ध्यान से, बड़े कुतूहल-आश्चर्य से देखती रही…। वह इस घटना पर विश्वास नहीं कर पा रही थी कि जलती चिता की आग में कैसे कोई रोटी सेंक सकता है, कैसे वहीं बैठे खा सकता है!! मैंने कहा – कैसे हम खेत में काम करते-करते बैठ के खा लेते हैं, उसी तरह यही इनकी खेती-बारी है – लाशें जलाना रोज़ का रमना है। वह चुप हो गयी, पर मान न सकी।
…दान-दक्षिणा को लेकर मां से मेरी चुहल चलती रहती…वह हर साधु-महात्मा वेश वाले को दान देती। और रिक्शे वाले को मैं कुछ ज्यादा दूँ, तो सवाल करती। एक दिन अशुद्ध बोलते एक साधु वेशधारी को सुना, तो पकड़ के मां के पास लाया। हरहेटा, तो उसने क़बूल दिया – ‘मैं नाई हूँ। पितरपख (पितृ पक्ष) में पंडितों की माँग बहुत रहती है, तो इस समय यहाँ ब्राह्मण बने घूम रहे 60% लोग ग़ैर जाति वाले हैं’। सुनकर आश्चर्य से मां की आँखें ललाट पे चढ़ गयीं। उस दिन उसने थोड़ा माना कि अपने रिक्शे वाले, सामान ढोने वालों को ज्यादा पैसे देना अच्छा है।
…पुरी में स्थानीय स्थल देखने के लिए पर्यटन-बस की गयी, जो बीच में ख़राब हो गयी। लेकिन रात तक उसने सारे स्थल दिखाये। इस पर मां बड़ी खुश हुई – ये लोग कितने अच्छे हैं…कुछ जगहें न दिखाते, तो हम क्या जानते…? मै चाहता तो न था उसकी इस अच्छी धारणा को तोड़ना, पर सच छिपाना भी अच्छा न था। बताया – टिकट के पीछे लिखा है कि क्या-क्या दिखाएँगे…। इसलिए बहका नहीं सकते…तो समझने की मुद्रा में मां शांत हो गयी…।
अब वृषोत्सर्ग पर आयें…। बहुत बचपन में, जब मैं 6-7 साल का रहा हूँगा, अपने ख़ानदान में हुए बड़े महात्मा ‘पौहारी बाबा’ के दिवंगत होने पर उनके छोटे भाई हरिहर बाबा ने वृषोत्सर्ग किया था। चार दशक तो हो गये थे। उसके होने भर की स्मृति थी – किये जाने का कुछ याद न था। बस, इतना भान था कि बहुत बड़ा यज्ञ होता है। फिर क्या करें, पर सोचते हुए याद आये – छठीं कक्षा से बारहवीं तक के अपने सहपाठी देवप्रभाकर पाठक, जो हमारे देहात के व्यास-पीठ परिवार से हैं, जहां आज भी व्याकरण की सरकारी पाठशाला चलती है। बात सुनकर बड़े हहास से मिलने-बोलने की अपनी अदा में प्रफुल्ल मन से बोले – ‘कुल हो जाई सत्देव भाई, तनिको चिंता जिन करा। मैं खुद आऊँगा और अपने सामने बैठ के करवाऊँगा…। भला बताइए – मां का वृषोत्सर्ग हो…मैं शामिल न होऊँ’!! और उन्होंने ऐसा किया भी। उस वक्त तो बग़ल के घर से अपने विद्वान कर्मकाण्डी भाई को बुलवाया। सारा विधान समझाया।
खर्च की तो बात ख़ास न थी। दक्षिणा अपने मन से देनी थी, जो मैं शाहखर्ची से देता हूँ, क्योंकि बचपन में बहुत खाया है यजमानी का – चुकाना भी तो है। और देवप्रभाकर के ही ख़ानदान में जाना है, तो फिर ‘घी गिरा दाल में’ वाली बात थी। कठिन थी सामानों की सूची – ढाई-तीन सौ से कम की संख्या तो न थी। और अधिकांश तो देहातों में, जंगलों में मिलने वाली प्राकृतिक वस्तुएँ थीं – जड़ी-बूटियों-फूल-पत्तियों-लकड़ियों…जैसे। इसी तरह मिट्टी के बर्तन (दिया-ढकनी-पुरवा-परई-मेंटी-कलसा…आदि सब मिला के) ढाई-तीन सौ तो रहे ही होंगे, पर इसके लिए तो पुश्तैनी कोंहार को कहना भर था। लेकिन बाक़ी उक्त सब तो दूर-दराज जाके खोजना था। ग्यारहवें दिन यज्ञ होना था। 9 दिन का समय था। घर में मैं अकेला और मुझे दाग लेकर बैठना था – दस दिनों कहीं जा तो क्या, किसी को छू तक नहीं सकता था!!
लेकिन कहना होगा कि पूरा गाँव खड़ा हो गया। लोग बोले – ‘बच्चा/भैया/चाचा, सिर्फ़ बता दो क्या-क्या लाना है। सब आ जायेगा – चाहे जहां मिले – पाल में से भी लायेंगे…’। और वही हुआ। सबकी भाग-दौड़-मेहनत खूब हुई, लेकिन मुझे कुछ पता न लगा और सब कुछ समय से हाज़िर…। तब गाँवों में ऐसी सहकारिता की संस्कृति थी। मिल-बाँट के खेती से लेकर सामाजिक-सांस्कृतिक तक के सारे कार्य हो जाते। फिर इसमें तो मां का मामला विशेष भी था। जैसे वह सबके लिए समान भाव से आजीवन खटती-खपती रही, वैसे ही सबने मिलकर उसका दाय निभाया। लगा ही नहीं कि अकेले मेरी मां का यज्ञ हो रहा है। उस दौरान सचमुच ही मेरी मां पूरे गाँव की मां हो गयी थी। सबका सब कुछ करके उसने अपनी ज़िंदगी को कृतार्थ माना था, तो उस वक्त सबने करके अपने को पूर्णकाम माना। मै आज अपने को पूरे गाँव के हर छोटे-बड़े का शुक्रगुज़ार इसलिए भी मानता हूँ कि मां को इसी गाँव के भरोसे (बड़े पिता, बहनें-बच्चे थे) छोड़कर मैं 35 साल मुम्बई रह गया, पर उसे व मुझे कभी न लगा कि वह असुरक्षित है। दाय सबका है, पर कुछेक ख़ास भी थे – राम प्यारे भैया व उनका परिवार, जो आज भी वैसे ही है…। रामपति भैया सहित उनका पूरा परिवार भी था, जो आज बिलकुल नहीं है। रामपलट भाई तो मां के बिलकुल पुत्रवत ही थे। फिर बाग व खेती के पुश्तैनी साझीदार इंदर राजभर का परिवार…और समूचे बड़े परिवार सहित मेरे प्रिय चाचा प्रभाकर त्रिपाठी…आदि।
गाँव के पश्चिम तालाब के पास मैदान में बड़ा मंडप बना था और बग़ल में शामियाना तना था – गाँव भर के बैठने के लिए। लोग आते-जाते रहते, पर शामियाना हमेशा भरा रहता। सुबह सात बजे से यज्ञ शुरू हुआ और रात के आठ बज गये। इस दौरान धोती-जनेऊ पहने मुझे 500 बार तो उठना-बैठना पड़ा ही होगा कर्म-कांड के लिए…। अंत में आचार्य अशोक पाठक ने कहा – आपने खुद कराया है, तो पूजन वग़ैरह जल्दी-जल्दी कर सके और 12-13 घंटे में पूरा हो गया, वरना अनाड़ी के साथ तो 15-16 घंटे लगते हैं…। लेकिन जाने क्या मंत्रवत असर था कि मुझे भूख-प्यास तो क्या, चाय तक की तलब न लगी। बाद में मेरे ख़ानदान के शिवाश्रय भाई ने कहा – ‘आपके ही बस का था, मैं तो नहीं कर सकता’…!! लेकिन उन्हें क्या पता कि मेरे बस का भी कहाँ था? वो तो मां की आत्मा अपनी सामर्थ्य लेकर मुझमें उतर आयी होगी, तो हो गया…। और मां के अलावा किसी और के लिए ऐसा कह-कर भी नहीं सकता…।
सर्वाधिक उल्लेख्य और आचार-कर्म में एकमात्र अनाचारी काम रहा – महापात्र (मृत्यु के बाद के कामों के पुरोहित) का दक्षिणा के लिए मोल-भाव…। क्या रूढ़िगत मान्यता या जड़ता है की साक्षात बछिया (गाय की बच्ची) की पूँछ महापात्र के पकड़े बिने मृतक जीव का निस्तार नहीं होता!! मुझ प्रोफ़ेसर की दो महीने की तनख़्वाह व 21 मन (आठ-नौ कुंतल) अनाज से सौदा शुरू हुआ और घंटों की हुज्जत के बाद क्या तय हुआ, आज याद नहीं…। दूसरे दिन तेरहवीं के भोज के बाद यह श्राद्ध-कर्म सम्पन्न हुआ।
इन षटकर्मों में बहुत विश्वास न होने के बावजूद मां के लिए और उसकी याद में किये जाने मात्र से जैसा संतोष व आह्लाद मिला, वैसा फिर कभी न मिला और शायद न मिले…!!
मां की छबि तो हमेशा मन में बसी, आँखों में समायी रहती है…। उसका जीवन इतना-इतना देखा, जाना-महसूसा…। उसे हमेशा घर-परिवार-समाज के लिए सती होते देखा। उसने न अपने सुख की कभी चाहत की, न सबके सुख के लिए अपने दुख की कोई परवाह। हमे पैदा करके अस्तित्वमान किया, जो एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, लेकिन जिस तरह से अपने को वारकर हमें गढ़ा, अंजाम तक पहुँचाया, उसका कोई प्रतिदान हो नहीं सकता। लेकिन उसके तन-मन की करनी से ही हमारे अंतस् में ऐसा कुछ हुआ कि उसे हमेशा के लिए यादगार बनाने, उसे सदा-सदा इस कुल में मूर्त्त रखने की तीव्र इच्छा जागी। और 2010 में बनारस का घर बनाने के समय पहली बार विचार आया कि इसे मां का नाम दिया जाये…। लेकिन बनारस में बासमती को कौन जानता? इसलिए जो कहके हम आजीवन उसे पुकारते रहे – ‘माई’, उसी का परिष्कृत नाम रखा – ‘मातरम्’ और आते-जाते-रहते इसी में अपनी माई को देखते रहते हैं…।
लेकिन उसकी असली गद्दी तो गाँव में थी, जहां उसकी डोली उतरी और जहां से उसकी अर्थी निकली…। जहां का बच्चा-बच्चा, चिरई-चुनमुन उसे जानता-पहचानता है, उसका ऋणी है। इस घर का परिसंस्कार किस्तों में हुआ। उसके रहते ही आधा हो गया था, लेकिन जब 1916 में वह पूर्ण हुआ, तो उत्तर-दक्षिण से परिसर में दोनो प्रवेशों पर ‘बासमती सदन’ का पट (बोर्ड) लगाकर और घर में प्रविष्ट होने के उत्तर-दक्षिण-पश्चिम के तीनो दरवाज़ों पर तस्वीर लगा के जितनी संतुष्टि मिली, उतनी तो जीवन में कुछ भी करके न कभी मिली, न मिलेगी…। अब लगता है कि मां की छत्र-छाया में घर चँहु ओर से सुरक्षित है। घर से निकलते हुए मां को प्रणाम करके अपने को बाहर भी परम सुरक्षित और घर में आते हुए नमन करके सदैव परम प्रसन्न महसूस करते हैं…‘जनुक माई जियतइ’ …।
हमारे मार्क्सवादी मित्र इसे अंधविश्वास…नहीं, ‘सुपरस्टीशन’ कहते हैं, लेकिन हमारे लिए यह मन की श्रद्धा व समर्पण का भाव है – अनुग्रहीत होने का आनंद है…माई, प्रणाम…।
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