अन्याय और शोषण के खिलाफ जीत के साहित्यकार
किशन कालजयी
भारत में अँग्रेजी राज के दौरान नमक कानून बना था। इस कानून के अनुसार नमक उत्पादन और विक्रय पर भारी कर लगा दिया गया था। 6 अप्रैल 1930 को महात्मा गाँधी के नेतृत्व में बहुत लोगों ने साबरमती गाँव से डांडी तक की यात्रा करके नमक बनाकर कानून का विरोध किया था। इस विरोध का देशभर में व्यापक प्रभाव पड़ा था। विरोध से बौखलाकर ब्रिटिश सरकार ने गाँधीजी समेत बहुत लोगों को गिरफ्तार कर लिया। गाँधीजी की गिरफ्तारी का विरोध पूरे देश में हुआ। उस समय फणीश्वर नाथ रेणु अररिया (पूर्णिया,बिहार) हाई स्कूल में पढ़ते थे। महात्मा गाँधी की गिरफ्तारी की खबर आते ही अररिया का पूरा बाजार बन्द हो गया, स्कूल के सभी छात्र बाहर आ गये। दूसरे दिन भी छात्रों की हड़ताल जारी रही। रेणु ने अपने स्कूल के असिस्टेन्ट हेडमास्टर को रोका, इस पर बिफरकर उन्होंने कहा- “तुमलोग चूल्हे भाड़ में जाते हो,जाओ; मुझे क्योँ खींचते हो?” इस पर बालक रेणु का जवाब था- ‘आप हमारे गुरु जो हैं।’ दूसरे दिन स्कूल में दो तीन घण्टी के बाद प्रधानाध्यापक महोदय की सूचना आयी कि सभी हड़ताली छात्रों को सजा के तौर पर पचास पैसे का जुर्माना देना है। जो किसी अन्य कारण से स्कूल नहीं आ पाये, वे आवेदन दें।
हड़ताल में भाग लेने के लिए जो छात्र माफी माँगना चाहें वे भी आवेदन लिख सकते हैं। नोटिस के अन्त में विशेष रूप से रेणु का नाम लिखकर कहा गया था कि असिस्टेण्ट हेडमास्टर साहब के साथ अशोभनीय बर्ताव के लिए सारे स्कूल के छात्रों के सामने इस लड़के को दस बेंत लगायी जाएगी। इस सूचना के बाद रेणु पूरे स्कूल के हीरो हो गये। कई साथी और वरिष्ठ छात्र उन्हें शाबाशी दे रहे थे तो कुछ उन्हें माफी माँग लेने की सलाह दे रहे थे। कई शिक्षक भी उन्हें समझाने और धमकाने आये, लेकिन रेणु ने माफी नहीं माँगी। पहली बेंत पर रेणु ने ‘वन्दे मातरम’ का नारा लगाया, वहाँ मौजूद छात्र नारे को दोहरा रहे थे। दूसरी बेंत पर रेणु ने नारा लगाया – ‘महात्मा गाँधी की जै’। तब तक बाजार, कचहरी और सड़क के लोग स्कूल आ गये थे। तीसरी बेंत पर रेणु ने ‘जवाहर लाल नेहरू की जै’ कहा। स्थिति की भयावहता को देखते हुए हेडमास्टर ने ‘केनिंग’ रोकवा दी। छुट्टी की घण्टी बजा दी गयी लेकिन स्कूल में भीड़ बढ़ती गयी और नारे बुलन्द होते रहे। रेणु को छात्रों ने कन्धे पर उठा लिया और जुलूस निकाला, हड़ताल आगे भी जारी रही।
एक अन्य घटना 1931-32 की है जब रेणु की उम्र लगभग 10 वर्ष की थी. वे फारबिसगंज हाई स्कूल के विद्यार्थी थे। वे स्कूल के ही होस्टल में रहते थे और सप्ताहान्त की छुट्टी में अपने गाँव औराही हिंगना आ जाया करते थे। रेणु के पिता शिलानाथ मण्डल किसान थे और स्वराज आन्दोलन के प्रमुख कार्यकर्त्ता थे, इसलिए वे खादी पहनते थे, ‘तिलक स्वराज फण्ड’ के लिए चन्दा वसूलते थे, उनके घर में चरखा चलता था और दुनिया भर की पत्र-पत्रिकाएँ उनके घर आया करती थीं। एक दिन अचानक उनके घर पर दल बल के साथ दरोगा जी के आने पर सब अचम्भित हो गये। दरोगा जी सीधे रेणु के पिता के पास आकर बोले- “हमें खबर मिली है कि आपके पास ‘चाँद’ का फाँसी अंक आया है। आप उसे तुरन्त मेरे हवाले कर दो नहीं तो बेकार में हमरा के खाना तलाशी करे के पड़ी”। रेणु के पिता घबराये नहीं, उन्होंने आराम से जवाब दिया, “आया तो था जरूर और ‘चाँद’ का फाँसी अंक ही क्यों ‘हिन्दू पंच’ का बलिदान अंक तथा ‘भारत में अँग्रेजी राज’ पुस्तक भी मेरे पास थी, कोई कुटुम सम्बन्धी पढ़ने को ले गये हैं। आप खाना तलाशी ले लीजिए।” पास में ही खड़े रेणु को मालूम था कि पिताजी ने इन पत्रिकाओं के अंक और ‘भारत में अँग्रेजी राज’ पुस्तक को एक झोले में लपेटकर अपने बिछावन के सिराहने रखा हुआ है। उन्हें यह समझते देर नहीं लगी कि पिताजी झूठ क्यों बोल रहे हैं? रेणु वहाँ से खिसके और पिताजी के कमरे में जाकर पुस्तक और पत्रिकाओं के उस झोले को बगल में दबाया और एक छाता लेकर घर से निकल गये। दरोगा ने उन्हें देखकर पूछा भी “ए बाबू हाउ बगलिया में का हो?” रेणु ने बिना घबराए जवाब दिया “सिमराहा जा रहा हूँ फारबिसगंज वाली गाड़ी पकड़ने, स्कूल का समय होने को है।” दरोगा जी इस जवाब से इतना सन्तुष्ट हो गये कि उन्हें यह भी याद नहीं रहा कि उस समय फारबिसगंज जाने के लिए कोई ट्रेन नहीं थी। रेणु दिन भर अपने पिताजी के एक मित्र के घर पर रहे और जब शाम को लौटे तो उनकी चालाकी पर उन्हें बहुत शाबाशी मिली।
उपरोक्त दोनों घटनाओं से बाल्यावस्था में ही रेणु के स्वभाव की क्रान्तिकारिता और उनकी बुद्धि की प्रखरता का अनुमान मिल जाता है। यह क्रान्तिकारिता आगे चलकर उनके जीवन में और उनके साहित्य में भी देखने को मिलती है। अपनी युवावस्था में रेणु सोशलिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य तो थे ही, उन्होंने नेपाल की क्रान्ति में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी थी. नेपाल के कोईराला परिवार से उनका बहुत घनिष्ठ और आत्मीय सम्बन्ध था. नेपाल की क्रान्ति में रेणु ने हथियार भी उठाये थे।
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यूँ तो रेणु के साहित्यिक जीवन की शुरुआत 1940 में काव्य लेखन से ही हो गयी थी लेकिन अपने साहित्यिक गुरु बंगला के साहित्यकार सतीनाथ भादुड़ी की सलाह पर 1942-43 से उन्होंने कहानी लिखना प्रारम्भ कर दिया। उनकी पहली कहानी ‘बट बाबा’ कलकत्ता से प्रकाशित साप्ताहिक ‘विश्वमित्र’ में 27 अगस्त 1944 को और अन्तिम कहानी ‘भित्तिचित्र की मयूरी’ दिल्ली से प्रकाशित ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में 5-12 नवम्बर 1972 को प्रकाशित हुई थी। इन 28 वर्षों के दरमियान उन्होंने 63 कहानियाँ लिखीं, अर्थात औसतन हर पाँच महीने दस दिन पर वे एक कहानी लिखते रहे। इसी दौरान उन्होंने बहुत रिपोर्ताज, कविताएँ, निबन्ध, संस्मरण, स्केच, व्यंग्य और आधा दर्जन उपन्यासों की रचना की। सिर्फ लेखन ही नहीं, घर-गृहस्थी, खेती-बारी, सामाजिक कार्य, आन्दोलन आदि में भी वे अपनी भूमिका का निर्वाह बखूबी करते रहे।
उनकी पहली कहानी ‘बट बाबा’ का सामान्य पाठ कोई कथानक पेश नहीं करता, यहाँ किसी नायक से भी मुलाकात नहीं होती; लेकिन गाँव के मुहाने पर स्थित एक बरगद के पेड़ के बहाने जिन परिस्थितियों और जिस परिवेश की स्थापना जिस तरह के कथा रस के साथ होती है, वह दुर्लभ है। कहानी के ऊपरी पाठ से थोड़ी देर के लिए लग सकता है कि कहानी धर्म के पाखण्ड और कर्मकाण्ड के पक्ष में खड़ी है, लेकिन कहानी जब पाठकों को उस जिक्र के पास ले जाती है कि “वह ‘देवता’ था हिन्दुओं का भी, मुस्लिमों का भी। इधर कई वर्षों से मुसलामानों ने पूजा-पत्तर छोड़ दिया है। मौलवी साहब एक आये थे,उन्हीं के कहने से। पर ‘बट बाबा’ को छोड़कर किसी दूसरे नाम से सम्बोधित करने की हिम्मत अब भी उनलोगों की नहीं हुई।”
तब यह धर्मनिरपेक्षता और कट्टरता पर विमर्श की कहानी लगती है। रेणु की अन्तिम कहानी ‘भित्तिचित्र की मयूरी’ में कला और अपने गाँव के प्रति फुलपत्ति की जो निष्ठा और प्रतिबद्धता है वह उनकी ग्राम्यदृष्टि और सौन्दर्यबोध को ही व्यक्त करती है। बाजार का प्रलोभन तब भी था, लेकिन रेणु की फुलपत्ति बाजार के सामने झुकती नहीं है, बल्कि वैभव के आकर्षण से बिल्कुल निस्संग होकर वह सुखद दाम्पत्य जीवन के प्रस्ताव को ठुकराकर गाँव के उबड़-खाबड़ संघर्षमय जीवन को चुनती है। ‘विघटन के क्षण’ और ‘उच्चाटन’ में भी शहरी जीवन के आकर्षण में फँसकर ग्रामीण युवकों का गाँव छोड़कर भागने की दुखद परिस्थिति का मार्मिक चित्रण है। रेणु की अधिकांश कहानियों में गाँव का परिवेश और ग्रामीण संवेदनाएँ प्रमुखता से दर्ज हुई हैं। ग्रामीण विसंगतियों पर चोट करने से रेणु कभी नहीं चूकते।
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हिन्दी साहित्य में जो रेणु-काल है, वह भारत में अँग्रेजी राज और आजाद भारत का द्वन्द्व-स्थल भी है। इसलिए यह अकारण नहीं कि रेणु की रचनाओं में गुलाम देश का दर्द है तो तुरत आजाद हुए देश के सपने भी हैं। अपनी कहानियों के माध्यम से जब रेणु साहित्यिक दुनिया में प्रवेश कर रहे थे तो कहानी के परिदृश्य में मोहन राकेश, भीष्म साहनी, अमरकान्त, राजेन्द्र यादव, मार्कण्डेय, कमलेश्वर, निर्मल वर्मा, शेखर जोशी जैसे कथाकारों का नाम हो चुका था। रेणु पर साहित्य जगत का ध्यान 1954 में उनके पहले उपन्यास ‘मैला आँचल’ के प्रकाशन के बाद गया। अपने पहले उपन्यास ‘मैला आँचल’ से ही रेणु ने हिन्दी जगत में जो प्रतिष्ठा अर्जित की,वह अभूतपूर्व है।
हिन्दी के इतिहास में ‘मैला आँचल’ का प्रकाशन एक ऐतिहासिक घटना इसलिए है कि आज तक ऐसा नहीं हुआ कि हिन्दी का कोई लेखक अपनी पहली पुस्तक से ही इतना लोकप्रिय हो गया हो। यह उपन्यास पहली बार रेणु ने अपने खर्च (लतिका जी के गहने बेचकर) से पटना के यूनियन प्रेस में समता प्रकाशन के नाम से छपवाया था, बाद में राजकमल प्रकाशन के तत्कालीन प्रबन्ध निदेशक ओमप्रकाश जी की पहल पर यह राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था। इस उपन्यास के प्रकाशनोपरान्त इसकी सबसे पहली समीक्षा नलिन विलोचन शर्मा ने आकाशवाणी में की थी। बाद में इसी समीक्षा का संशोधित और सम्पादित स्वरूप प्रसिद्ध पत्रिका ‘आलोचना’ में प्रकाशित हुआ था। कुछ ही दिनों में 33-34 वर्ष के नौजवान रेणु की ख्याति एक प्रसिद्ध उपन्यासकार के तौर पर हिन्दी जगत में फैल गयी।
उस समय की प्रसिद्ध पत्रिका ‘कहानी’ में जब रेणु की कहानी ‘लाल पान की बेगम’ प्रकाशित (1957) हुई तो वे नये कहानीकारों की गिनती में प्रतिष्ठित हो गये। 1959 में उनका पहला कहानी—संग्रह ‘ठुमरी’ प्रकशित हुआ जिसमें नौ कहानियाँ ( रसप्रिया, तिर्थोदक, ठेस, नित्य-लीला, पंचलाइट, सिर पंचमी का सगुन, तीसरी कसम अर्थात मारे गये गुलफाम, लाल पान की बेगम तथा तीन बिन्दिया) संकलित थीं। 1967 में उनका दूसरा कहानी-संग्रह ‘आदिम रात्रि की महक’ प्रकाशित हुआ।
इस बढ़ती लेखकीय प्रतिष्ठा और लोकप्रियता का एक बुरा असर यह भी हुआ कि ‘मैला आँचल’ और रेणु के खिलाफ काफी कुछ लिखा जाने लगा। इस उपन्यास के बारे में कहा यह जा रहा था कि यह अनैतिक है और इसकी भाषा भ्रष्ट है। हद तो यह हुई कि इस उपन्यास पर बंगला के साहित्यकार सतीनाथ भादुड़ी के उपन्यास ‘ढोड़ाईचरितमानस’ की नकल का आरोप लगा. इतना ही नहीं रेणु पर मानहानि का मुकदमा भी किया गया। इस विवाद के सिलसिले में राजकमल प्रकाशन के प्रबन्ध निदेशक ओमप्रकाश जी ने सतीनाथ भादुड़ी जी को पत्र लिखा। भादुड़ी जी का जो जवाब आया उसका आशय यही था कि ‘मैला आँचल’ न तो ‘ढोड़ाईचरितमानस’ की नकल है और न ही चोरी।
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प्रसिद्ध आलोचक रामविलास शर्मा ने ‘प्रेमचन्द की परम्परा और आंचलिकता’ शीर्षक लेख लिखकर सीमित प्रशंसा के बावजूद रेणु को लगभग खारिज कर दिया। आगे रामविलास जी की बनाई लकीर को ही उनके अधिकांश अनुयायी आलोचक पीटते रहे। देवीशंकर अवस्थी स्मृति सम्मान से सम्मानित पुस्तक ‘रेणु का भारत’ में युवा आलोचक मृत्युंजय पाण्डेय ने ‘रेणु और रामविलास शर्मा’ शीर्षक लेख में रेणु पर रामविलास जी द्वारा लगाए गये सभी आरोपों का सिलसिलेवार जवाब देते हुए लिखा है- “डॉ. रामविलास शर्मा ने अपने आलेख में ‘मैला आँचल’ और ‘परती : परिकथा’ पर विस्तार से विचार किया है । उनके विचार के केन्द्र में मुख्य रूप से इन दोनों कृतियों का अवमूल्यन ही है । डॉ. शर्मा अपनी ओर से एक भी कोशिश नहीं छोड़े हैं इनकी कृतियों को कमजोर और महत्त्वहीन साबित करने में ।… उनका आलेख नकारात्मक दृष्टिकोण से लिखा गया है, पूर्वग्रह से ग्रसित होकर। रेणु को एकदम उखाड़ देने के उद्देश्य से । वे तो रेणु हैं जो तमाम तीखी आलोचनाओं के बावजूद साहित्यकारों की अग्रिम पंक्ति में बैठे हुए हैं”।
अंचल की बोली और संस्कृति हिन्दी की ताकत रही है। जायसी का साहित्य ठेठ अवधी में है, सूरदास की रचनाएँ ब्रज भाषा में हैं, तुलसी का रामायण परिष्कृत अवधी में है. आँचलिक भाषा के बावजूद इन साहित्यकारों की अनदेखी इसलिए नहीं हो सकती कि इन्होंने हिन्दी की समृद्धि और सम्पन्नता बढ़ायी है। प्रेमचन्द तो ग्रामीण परिवेश के अद्भुत चितेरे थे, उन्हें तो ग्रामीण कथाकार नहीं कहा गया, फिर रेणु को आँचलिक कथाकार क्यों कहा जाए? विजयदान देथा, अमृता प्रीतम, राही मासूम रजा, मनोहर श्याम जोशी जैसे साहित्यकारों का नाम उदहारण के लिए लिया जा सकता है, जिन्होंने अपनी स्थानीयता से हिन्दी को समृद्ध किया है. इनमें से किन्हीं को भी आँचलिक नहीं कहा गया। अन्य भारतीय भाषाओं में भी क्षेत्रीय मुद्दों को विषय बनाकर उपन्यास लिखे गये हैं। इस सन्दर्भ में बंगला के माणिक बन्द्योपाध्याय का पद्मा नदी के माझियों पर लिखे गये उपन्यास ‘पद्मनदीर’, मलयालम के तकषी शिवशंकर पिल्लै का केरल के मछुवारे पर लिखे गये उपन्यास ‘चेम्मीन’, मराठी के व्यंकटेश दिगम्बर माडगुलकर के ‘बानगरबाडी’ का जिक्र किया जा सकता है। वहाँ भी आंचलिक उपन्यास की अवधारणा जब नहीं है तो हिन्दी में इस ‘आंचलिकता’ को क्या सिर्फ रेणु के लिए ढोया जा रहा है?
रेणु ने एक मैला आँचल (मेरीगंज) के बहाने यदि भूमि समस्या,धार्मिक अन्धविश्वास और क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों पर चोट की है तो ये सवाल सिर्फ मेरीगंज या पूर्णिया जनपद के नहीं हैं। अशिक्षा, अज्ञान, साम्प्रदायिकता, जातिवाद, रुढ़िवादिता, भूख और बदहाली ही तो आजाद भारत की समस्या थी(है), जिसे रेणु ने अपनी रचनाओं में उठाया। आँचलिकता के इस शोर ने भले ही रेणु के रहते उनके वास्तविक मूल्यांकन में बाधा पहुँचाई हो, लेकिन लोक में रेणु की पैठ को यह शोर प्रभावित नहीं कर पाया। रेणु की लोक-व्याप्ति का इससे बड़ा उदहारण और क्या हो सकता है कि रेणु की जन्म शताब्दी पर दो दर्जन से भी अधिक हिन्दी की पत्रिकाओं का रेणु पर विशेषांक आया या आने वाला है। मार्च 2020 से रेणु पर वेबिनार और विमर्श का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह निर्बाध जारी है। ऐसा इसके पहले किसी साहित्यकार की जन्मशती पर नहीं हुआ।
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यह बात सच है कि ‘मैला आँचल’ को आंचलिक उपन्यास पहली बार रेणु ने ही कहा है. प्रथम संस्करण की भूमिका में उन्होंने लिखा है-“यह है ‘मैला आँचल’, एक आंचलिक उपन्यास. कथानक है पूर्णिया. पूर्णिया बिहार राज्य का एक जिला है;इसके एक ओर है नेपाल, दूसरी ओर पाकिस्तान और पश्चिम बंगाल. विभिन्न सीमा-रेखाओं से इसकी बनावट मुकम्मल हो जाती है, जब हम दक्खिन में संथाल परगना और पश्चिम में मिथिला की सीमा- रेखाएँ खींच देते हैं. मैंने इसके एक हिस्से के एक ही गाँव को- पिछड़े गाँवों का प्रतीक मानकर – इस उपन्यास-कथा का क्षेत्र बनाया है. इसमें फूल भी हैं,शूल भी,धूल भी है,गुलाब भी,कीचड़ भी है,चन्दन भी,सुन्दरता भी है,कुरूपता भी- मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया.
कथा की सारी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ साहित्य की दहलीज पर आ खड़ा हुआ हूँ; पता नहीं अच्छा किया या बुरा। जो भी हो अपनी निष्ठा में कमी महसूस नहीं करता”.पहले उपन्यास को प्रकाश में लाने के पहले एक नौजवान लेखक पर मनोवैज्ञानिक दबाव पड़ना स्वाभाविक है। इस भूमिका में रेणु स्पष्ट लिखते हैं कि ‘मैंने इसके एक हिस्से के एक ही गाँव को- पिछड़े गाँवों का प्रतीक मानकर – इस उपन्यास-कथा का क्षेत्र बनाया है’। आश्चर्य है कि रेणु की इस बात की पूरी तरह से अनदेखी की जाती है और एक लेखकीय विनम्रता के तहत अपने पहले उपन्यास को पाठकों को समर्पित करने की शैली में लिखी गयी टिप्पणी में से एक शब्द ‘आंचलिकता’ को निकालकर पूरे रेणु-साहित्य पर थोप दिया जाता है। यह न सिर्फ एक तरह की बौद्धिक बेईमानी है बल्कि रेणु की सार्वभौमिकता और व्यापक स्वीकृति पर चोट भी है.
दरअसल रेणु ने जब लिखना शुरू किया तो उस जमाने में प्रेमचन्द कथाकार के रूप में सर्वश्रेष्ठ मानक थे और कहा भी उन्हें कथा सम्राट ही जाता है। इसलिए यह अकारण नहीं कि ‘मैला आँचल’ की प्रशंसा में नलिन विलोचन शर्मा ‘इसे ‘गोदान’ के बाद हिन्दी का वैसा दूसरा महान उपन्यास’ मानते हैं। रामविलास शर्मा को भी यह उपन्यास वहीं अच्छा लगता है, जहाँ यह प्रेमचन्द की परम्परा से जुड़ता है, बाकी उन्होंने इसकी खामियाँ ही गिनायी हैं। यहाँ गौर किया जाना चाहिए कि प्रेमचन्द की जब मृत्यु (1936) हुई, तब रेणु पन्द्रह वर्ष के थे। उस समय रेणु ने प्रेमचन्द पर एक लम्बी कविता लिखी थी। उस समय रेणु के परिवार में साहित्यिक परिवेश था और उनके घर पत्र-पत्रिकाएँ आती थीं। रेणु ने जब से होश सम्हाला घर में अपने को बम्बई के ‘वेंकटेश्वर समाचार’, कानपुर के ‘प्रताप’, ‘सैनिक’ तथा ‘कर्मवीर’, ‘चाँद’, ‘हिन्दू पन्थ’ आदि पत्र-पत्रिकाओं से घिरा पाया।
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रेणु जब ‘मैला आँचल’ लिख रहे थे तब उनकी उम्र 29 वर्ष थी। यह मानना चाहिए कि रेणु ने अपना लेखन प्रारम्भ करने से पहले प्रेमचन्द को ठीक से पढ़ लिया होगा। मतलब रेणु बौद्धिक रूप से इतना बालिग जरूर हो गये थे कि वे अपने साहित्य की राजनीति तय कर सकें। जाहिर है लेखक से पहले वह सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्त्ता थे और राजनीति उनकी पहली प्राथमिकता थी। राजनीति से मोह-भंग होने के बाद ही वे साहित्य में आये। रेणु के साहित्य में राजनीतिक क्रान्तिकारिता इसलिए व्याप्त है कि जो वे राजनीति में नहीं कर पाये वह साहित्य में पाना चाहते थे। ‘मैला आँचल’ में आजादी के बाद जब जुलूस निकाला गया तो एक युवक ने नारा लगाया- “यह आजादी झूठी है,देश की जनता भूखी है”। इस पर कॉंग्रेसी बालदेव कहते हैं- “…अरे भाई,हिंगना-औराही का सोसलिस्ट है तो हिंगना-औराही में जाकर अपने गाँव का लारा लगावे। यहाँ कबिलयती छाँटने का क्या जरूरत था। अपना मुँह है-बस, लगा दिया लारा-यह आजादी झूठी है!”
उल्लेखनीय है कि रेणु का जन्म-गाँव हिंगना-औराही ही है। रेणु ने एक बातचीत में स्वीकार किया है कि नारा लगाने वाला युवक के रूप में लेखक ही वहाँ है। इसलिए यह मानना चाहिए कि लेखकीय जीवन प्रारम्भ करने से पहले रेणु की राजनीतिक समझ विकसित हो चुकी थी। लेखन की दुनिया में उनके सामने विकल्प खुले हुए थे। वे या तो प्रेमचन्द की बनी- बनाई लीक पर चलते या अपने लिए नयी लीक बनाते। शायर, सिंह और सपूत कहाँ लीक पर चलते हैं? रामविलास शर्मा जिसे रेणु का भटकाव कहते हैं दरअसल वह रेणु की अपनी बनाई हुई नयी लीक है। नहीं तो यह कैसे सम्भव होता कि ‘गोदान’ में प्रेमचन्द के पात्र प्रोफेसर मेहता और डॉक्टर मालती गाँव की दुर्व्यवस्था देखकर वापस लौट जाते हैं और ‘मैला आँचल’ में रेणु का डॉक्टर प्रशान्त मलेरिया पर शोध करने के लिए गाँव आता है तो गाँव का ही हो जाता है।
दरअसल अपनी बेबाकी के कारण रेणु राजनीति में फिट नहीं हुए और साहित्य में भी उनके विरोधी बनते रहे। रेणु को जब-जब अवसर मिला उन्होंने सत्ताधारी पार्टी काँग्रेस की आलोचना की। नेहरू पर भी उन्होंने व्यंग्य लिखा। उन्होंने एक नाटिका ‘उत्तर नेहरू चरितम’ शीर्षक से लिखी है। अपनी रचनाओं में उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी की तीखी आलोचना की, आलोचना तो उन्होंने उस सोशलिस्ट पार्टी की भी की जिसमें वे स्वयं कार्यकर्त्ता थे। नलिन विलोचन शर्मा द्वारा रेणु के ‘मैला आँचल’ को ‘गोदान’ के बाद दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण उपन्यास घोषित करना मार्क्सवादी लेखकों को पच नहीं रहा था। पचे भी कैसे, प्रेमचन्द की जगह एक 34 वर्ष का वह नौजवान लेखक अपनी उस कृति के माध्यम से ले रहा था जिसमें कम्युनिस्ट पार्टी की आलोचना की गयी है।
इसी उपन्यास में रेणु ने यह भी दिखाया है कि कैसे-कैसे भ्रष्ट लोगों को काँग्रेस का सदस्य बनाया जा रहा है। इतना ही नहीं उन्हें ऊँचे-ऊँचे पदों पर भी बैठाया जा रहा है। गाँधीवादी बावनदास की हत्या काँग्रेसियों ने ही की थी। जवाहर लाल नेहरू और इन्दिरा गाँधी के जमाने में कम्युनिस्ट काँग्रेस के करीब थे। 1974 के आन्दोलन में पूरा देश और पूरी दुनिया इन्दिरा गाँधी की निरंकुशता पर थू-थू कर रही थी. उस समय जब रेणु लिख रहे थे– “हिन्दुस्तान के इतिहास में एक काला समय शुरू हो गया. इसका इतिहास कुछ नहीं होगा. इतिहास लिखने वाले लोग इतिहास की इस अवधि को काली स्याही से पोत देंगे” तब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी इन्दिरा गाँधी के साथ थी और रेणु जयप्रकाश नारायण के साथ आन्दोलन कर रहे थे और जेल जा रहे थे। इसलिए लेखकों का प्रगतिशील(मार्क्सवादी) खेमा यदि रेणु को नकारता है तो वह अपनी परम्परा में ही है।
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वैसे प्रेमचन्द स्वयं नहीं चाहते थे कि उनका साहित्यिक वारिस बिल्कुल उनके जैसा हो। एक आश्चर्यजनक सच्चाई यह है कि प्रेमचन्द ने अपना वारिस जैनेन्द्र कुमार को चुना था और ये प्रगतिशील आलोचक जैनेन्द्र कुमार का नाम लेना नहीं चाहते हैं। प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन की अध्यक्षता करने वाले प्रेमचन्द मानते थे कि लेखक स्वभाव से ही प्रगतिशील होता है। लेकिन प्रेमचन्द की बात प्रेमचन्द के साथ ही चली गयी. नतीजा यह हुआ कि प्रगतिशीलता और जनवाद रूढ़ियों की जकड़ में घिर गया। स्थिति तो यह है कि लेखक संगठन के सदस्य और पार्टी सदस्य के दायित्व में जो अन्तर होना चाहिए वह समाप्त सा है और यह एक विचारणीय प्रश्न बन गया है ।
देश, काल और परिस्थिति के अनुसार ही लेखकों का दायित्व भी बदलता है। प्रेमचन्द गुलाम भारत के लेखक थे, इसलिए तब की प्राथमिकता अँग्रेजों से भारत को आजाद कराना था, साहित्य की भूमिका देश की आजादी के सवाल से जुड़ी हुई थी। रेणु आजादी के ठीक पहले और आजाद भारत के लेखक थे। बदली हुई प्राथमिकता में रेणु भारत के नवनिर्माण की समस्याओं को अपने साहित्य में उठा रहे थे।
यह एक अजीब विडम्बना है कि रामविलास शर्मा ने रेणु के महत्त्व को नकारने का हर सम्भव प्रयास किया, नामवर सिंह रेणु पर लगातार चुप रहे और आखिर में अपनी चुप्पी को एक चूक कहा। विश्वनाथ त्रिपाठी ने अपने लेख ‘रेणु की कहानी-तीसरी कसम’ में रेणु की आलोचना के लिए अपेक्षाकृत नरम (मृदु) भाषा का प्रयोग किया है लेकिन मीठी छुरी चलाने और उनके महत्त्व को कम आँकने से वे बाज नहीं आये।
सुरेन्द्र नारायण यादव की एक पुस्तक ‘अलक्षित गौरव रेणु’ राजकमल प्रकाशन से 2016 में आयी है. रेणु-साहित्य के अध्येताओं का मानना है कि अबतक रेणु पर आई तमाम पुस्तकों में यह सर्वश्रेष्ठ है. सर्वश्रेष्ठ नहीं भी हो लेकिन इसकी श्रेष्ठता पर तो कोई शक इसलिए नहीं है कि यह एक व्यवस्थित और दृष्टिसम्पन्न पुस्तक है. इस पुस्तक में ‘मनुष्य की मुक्ति के रचनाकार’ शीर्षक लेख में सुरेन्द्र नारायण यादव कहते हैं- “अगर सिर्फ ‘नेता’ से ही किसी कार्य की सिद्धि होती, तो उसके पीछे उसके समर्थकों की भीड़ की जरूरत ही न होती और अगर सिर्फ भीड़ से काम चल जाता तो नेता की जरूरत नहीं होती. सच यह है कि नेता से समूह को नेतृत्व मिलता है और समूह से नेता को बल. सिर्फ गाँधी होते, उनके पीछे जनता नहीं होती तो गाँधी सफल नहीं होते, देश आजाद नहीं हो पाता और जनता तो पहले भी थी, फिर भी देश आजाद नहीं हो पाया था. देश और जनता को गाँधी का इन्तजार था. जब दोनों एक दूसरे से मिल गये, जनता को गाँधी का नेतृत्व और गाँधी को जनता के समर्थन का बल मिल गया तो अबतक का ‘अघट’ घट गया, अबतक का असम्भव सम्भव हो गया, देश आजाद हो गया. रेणु समूह और सामूहिकता के बल को पहचानते थे. वे समझ रहे थे कि अस्पताल बनवाना है तो बालदेव को ताकत देनी होगी।
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वह ताकत जो समूह से आएगी, व्यक्ति से नहीं. इस सामूहिकता का निर्माण नागार्जुन नहीं कर सके थे. उनका बलचनमा अपनी लड़ाई खुद लड़ता है, भीतर-भीतर और लोग भी उससे सहानुभूति रखते थे, किन्तु सतह पर खुलकर कोई भी उसके साथ नहीं था. उसका दोस्त चुन्नी भी नहीं. चुन्नी उसकी मदद कर अवश्य रहा था; किन्तु बिल्कुल गुप्त तरीके से, परदे के भीतर रहकर. यही कारण है कि बलचनमा की लड़ाई सिर्फ उसकी लड़ाई बन कर रह जाती है और वह जमींदार के लठैतों द्वारा बाँध लिया जाता है. रेणु ने मनुष्य की मुक्ति के युद्ध को सामूहिक बना दिया. अपमान बालदेव का किया गया और हँसेरी पूरे ‘गुअरटोली’ के लोग लेकर आते हैं. इस हँसेरी का प्रभाव इतना जबर्दस्त था कि हरगौरी की माँ उसे आँगन में बुला ले जाती है. वह आँगन आँगन नहीं नेपथ्य है. विश्व के अन्य-अन्य हिस्सों में भी अपने-अपने देशकाल का हरगौरी हुआ करता है. फ़्रांस के लुई शासक, रूस के जार, चीन के सामन्त आदि. किन्तु विश्व के जिस भी देश और काल का हरगौरी नेपथ्य में गया है, उस-उस देश और काल का मनुष्य (जनसामान्य) मुक्त हुआ है।”
मण्डल आयोग के माध्यम से भारतीय राजनीति में (खासकर हिन्दीपट्टी) हाशिये के लोगों के जनप्रतिनिधि का आठवें दशक के अन्त में सत्ता पर काबिज होना एक बहुप्रतिक्षित ऐतिहासिक घटना थी। बहुत कम लोग इस तथ्य की ओर ध्यान देते हैं या इसे याद रखते हैं कि 1977 के बाद राजनीति में जो घटित हुआ उसकी बुनियाद रेणु के ‘मैला आँचल’ में 1954 में ही पड़ चुकी थी।‘मैला आँचल’ में भोज का आयोजन होता है और उसमें ऊँच-नीच सभी जातियों को एक पांत में बैठकर खाना होता है. इस भोज का प्रबन्धक बालदेव ही था। बालदेव के उदय और नेतृत्व से सामन्ती और सवर्ण मानसिकता को चोट पहुँचना स्वाभाविक था। इसलिए तो बालदेव पर तंज कसा जाता है- ‘ग्वाला होकर लीडरी’? लेकिन रेणु ने अपने साहित्य में बालदेव की जीत दिखाकर राजनीति में मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव के लिए रास्ता प्रशस्त कर दिया. ‘परती : परिकथा’ में एक जगह रेणु कहते हैं- ‘समाज को मानवीय और मनुष्य को सामजिक बनाना ही मुक्ति का एक मात्र पथ है.’ जिस किसी ने भी रेणु का उपन्यास ‘मैला आँचल’ और ‘परती परिकथा’ पढ़ा और समझा है वह विश्वनाथ त्रिपाठी की इस बात से कैसे सहमत हो सकता है कि रेणु के ‘यहाँ दृष्टि या विचार लुप्त है’। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है।
भारतीय समाज में सामन्ती शोषण का सटीक चित्रण पहली बार प्रेमचन्द के उपन्यास ‘गोदान’ में हुआ है। सामन्ती समाज में दबे-कुचले, शोषितों और अभिवंचितों की इच्छा का कोई अर्थ नहीं है, वहाँ मालिकों के हुक्म चलते हैं। मालिक की इच्छा ही समाज का कानून बन जाती है। ‘गोदान’ में सामन्ती समाज का मातादीन और सर्वहारा समाज का गोबर एक ही अपराध करता है। बल्कि गोबर की तुलना में मातादीन का अपराध ज्यादा संगीन है। वह समाज इस अपराध के लिए मातादीन को कोई सजा नहीं देता, न डाँट-फटकार और न ही निंदा भर्त्सना। जबकि गोबर के अपराध के लिए उसके पिता होरी को सजा दी जाती है। गोदान की यह घटना मनुवादी सोच के करीब लगती है। नागार्जुन का बलचनवा जमींदार से टकराने की हिम्मत करता है, यह बात अलग है कि जमींदार का आदमी उसे पकड़कर बाँध लेता है। रेणु के बालदेव के साथ उसके समाज के लोग हैं इसलिए हरगौरी की हार होती है। यह घटनाक्रम बतलाता है कि प्रेमचन्द शोषण के चित्रण के साहित्यकार हैं, नागार्जुन प्रतिरोध के साहित्यकार हैं और रेणु शोषण और अन्याय के खिलाफ जीत के साहित्यकार हैं और दृष्टि सम्पन्न हैं।
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रेणु यात्राएँ बहुत करते थे, लेकिन वे अपने गाँव में भी उतना ही रहते थे। अव्वल तो यह कि बाहर रहते हुए भी उनका मन गाँव में रहता था और गाँव उनके अन्दर बसता था। दूसरे, अपने पात्रों के साथ उनका आत्मीय और जीवन्त रिश्ता था। इसलिए उनके अधिकांश पात्र उनके आस-पास के होते थे। रेणु के बाद भी उनके पात्रों के किस्से-कहानी, साक्षात्कार पत्र- पत्रिकाओं में छपते रहे हैं. सर्वे करके या कुछ दिनों की लेखकीय परियोजना बनाकर भी साहित्यिक लेखन होता है, ऐसे लेखन में जान कम होने का खतरा बना रहता है. रेणु ने गाँव को भरपूर जिया है और उसी जीवन के अनुभवों और पर्यवेक्षणों को साहित्य में उतारा है. गाँव से जुड़े बिना कोई गाँव का इतना सटीक और सजीव चित्रण कर ही नहीं सकता. इसलिए विश्वनाथ त्रिपाठी का यह कहना कि ‘रेणु गाँवों को जानते प्रेमचन्द से बहुत कम हैं’ एक मनगढ़न्त आरोप है.
यह बात समझ से परे है कि रेणु को लोग प्रेमचन्द के सामने रखकर नाप तौल क्यों कर रहे हैं? प्रेमचन्द का रेणु से मुकाबला कराने की कोई जरूरत नहीं है।‘गोदान’ प्रेमचन्द का अन्तिम उपन्यास है और ‘मैला आँचल’ रेणु का पहला। अर्थात प्रेमचन्द जहाँ समाप्त होते हैं रेणु वहाँ से शुरू होते हैं। ऐसे में क्या मुकाबला? निःसन्देह प्रेमचन्द एक महान लेखक हैं और रहेंगे, लेकिन उनकी महानता को कायम रखने के लिए रेणु को विचारशून्य और नासमझ साबित करने की जरूरत नहीं है। दरअसल रेणु स्वयं अपने को प्रेमचन्द की परम्परा का लेखक मानने से कतराते थे। रेणु के साक्षात्कारों में भी इन बातों का खुलासा होता है। “किन-किन रचनाकारों का लेखन आपको प्रभावित करता है?” इस सवाल के जवाब में रेणु एक साक्षात्कार में कहते हैं-“इस मामले में मैं अपने गुरु स्वर्गीय रामदेनी तिवारी ‘द्विजदेनी’ का ऋणी हूँ। उनकी रचना ‘भइयाजी की घोड़ी’ ने ही मुझे प्रेरणा दी है। वस्तुत: मेरे लेखन की प्रेरणा…एक और सज्जन थे- डब्लू. जी.आर्चर। पूर्णिया के जिला कलेक्टर होकर भी इन्होंने संथाली जीवन पर लिखा था।
इनके अलावे जिनका ज्यादा प्रभाव मुझ पर पड़ा वे हैं- शोलोकोव,तारा शंकर, सतीनाथ भादुड़ी और प्रेमचन्द”। एक अन्य साक्षात्कार में रेणु ने कहा—“…बंगला के श्री ताराशंकर बन्द्योपाध्याय मेरे अति प्रिय लेखक हैं. फिर ‘जागरी’ के लेखक श्री सतीनाथ भादुड़ी का भी गहरा प्रभाव ढूँढ़ा जा सकता है। प्रभाव का कारण है- भादुड़ी जी मेरे साहित्यिक गुरु हैं। उपन्यास-कला की दीक्षा मैंने उन्हीं के श्री-चरणों में पायी। अत: कहना ही हो तो इन्हीं लोगों की परम्परा का बतलाना अधिक संगत होगा। मुझे भी इसमें बहुत ख़ुशी होगी। प्रेमचन्द बहुत महान थे, उनके रिक्त आसन पर मेरे जैसे अयोग्य को देखकर कुछ न्यायप्रिय लोगों को व्यर्थ तकलीफ होगी।” पहले उद्धरण में रेणु प्रेमचन्द का नाम आखिर में लेते हैं और दूसरे में प्रेमचन्द के आसन पर बैठने से हिचकते हैं। रेणु ने अपने समय में जो साहित्यिक अवदान किया है वह अद्वितीय है। अन्याय के खिलाफ संघर्ष, एकान्तिकता के बजाय सामूहिकता और क्रूरता के खिलाफ मानवीयता एवं प्रेम के जितने बड़े पैरोकार रेणु हैं वैसा उनके समय में कोई और नहीं दीखता। इसलिए मौजूदा समय में भारतीय समाज और लोकतन्त्र को रेणु जैसे लेखकों की ज्यादा जरूरत है।
‘संवेद’ के इस अंक की तैयारी में लगभग एक वर्ष लग गये। रेणु की सभी रचनाओं पर अलग-अलग लेख लिखवाना और जुटाना आसान काम नहीं था, लेकिन रेणु साहित्य में दिलचस्पी रखने वाले ‘संवेद’ से जुड़े लेखकों ने इसे आसान कर दिया। हम सभी लेखकों के आभारी हैं और क्षमा प्रार्थी भी कि इस अंक के प्रकाशन में विलम्ब हुआ। हम दावा नहीं कर सकते कि यह रेणु पर एक मुकम्मल अंक है। हाँ, यह विश्वास जरुर है कि इस अंक के माध्यम से रेणु को एक नयी रौशनी में देखने और समझने का आपको अवसर मिल सकता है। बेहतर होगा कि रेणु को पढकर आप अपनी राय बनाएँ, उनपर लिखी आलोचना से नहीं। हमें विश्वास है कि रेणु को पढने के बाद ‘संवेद’ का यह अंक आपको ज्यादा अच्छा लगेगा। रेणु के साहित्य को हम घर-घर पहुँचाएँ, महान कथाशिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की जन्म शताब्दी पर इससे अच्छा संकल्प और क्या हो सकता है?
संवेद फणीश्वर नाथ रेणु विशेषांक (शताब्दी स्मरण) मार्च, 2021 का सम्पादकीय।
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