फणीश्वर नाथ रेणु

रेणु और नागार्जुन

 

  • तारानन्द वियोगी

 

रेणु की वह तस्वीर आपने जरूर देखी होगी, औराही हिंगना वाली, जिसमें वह खेत की गीली पांक में अपने साथियों के साथ धान रोपने उतरे हैं। कुल जमा सात लोग हैं। सबके हाथों में धान का बिचड़ा है और कुछ नया करने का रोमाँच भी। खुद रेणु ने अपनी लुंगी समेटकर बाकायदा ढेका बाँध लिया है लेकिन दो-एक लोग ऐसे हैं जो विना कपड़ों की परवाह किये पांक में घुस पड़े हैं और अब कपड़ा गंदा होने के द्वन्द्व से जूझ रहे हैं। रेणु के हाथों में बिचड़ा है और नजर नीचे धरती की ओर। अब वे रोपाई शुरू करने ही वाले हैं। इस बीच फोटो सेशन चल रहा है। लेकिन, इन सात लोगों में एक ऐसा है, जो धरती में झुक चुका है, ठीक उसी तरह जैसे कोई भी खेतिहर धान रोपने के वक्त झुकता है। उस आदमी का चेहरा दिखाई नहीं पड़ता।

उसे फोटो सेशन की जैसे कोई परवाह ही नहीं है। आधी धोती उसने पहन रखी है, आधे का ढट्ठा ओढ़कर सिर तक को ढंक लिया है। उसकी निगाह जमीन पर है और उसने रोपाई शुरू कर दी है। तस्वीर में उसके दायें हाथ की उंगलियाँ बिचड़े की जड़ों के साथ गीली पांक के वक्षस्थल में घुसी दिखाई देती है। आदमी बुजुर्ग है लेकिन रोपनी का पुराना उस्ताद मालूम होता है। यह आदमी कौन है? यह नागार्जुन हैं। औराही हिंगना में,  रेणु के खेत में धान रोप रहे हैं। तारीख है 29 जुलाई 1973। वह रेणु के गाँव आए हैं जहाँ अभी रोपनी का सीजन चल रहा है। रेणु इस तरह के हर सीजन में गाँव पहुँचते थे। अक्सर तो कुछ सहमना साहित्यिक भी बटुर आते थे। यहाँ, यह अनुमान किया जा सकता है कि इस आइडिया के जनक भी नागार्जुन ही रहे हों कि चलें, आज हम सब भी धान रोपते हैं।

रेणु ने इसे एक और नया आयाम दे दिया है। फोटोग्राफर से इसकी तस्वीर उतरवा ली है और बात अब हम सब लोगों तक पहुँच गयी है।
उस रात नागार्जुन ने एक कविता भी लिखी। वह रेणु के गाँव के बारे में है और खुद रेणु के बारे में। शीर्षक दिया है–  मैला आंचल।

कविता देखें–
पंक-पृथुल कर-चरण हुए चन्दन अनुलेपित
सबकी छवियाँ अंकित, सबके स्वर हैं टेपित
एक दूसरे की काया पर पांक थोपते
औराही के खेतों में हम धान रोपते
मूल गन्ध की मदिर हवा में मगन हुए हैं
माँ के उर पर, शिशु-सम हुलसित मगन हुए हैं
सोनामाटी महक रही है रोम-रोम से
श्वेत कुसुम झरते हैं तुम पर नील व्योम से
कृषकपुत्र मैं, तुम तो खुद दर्दी किसान हो
मुरलीधर के सात सुरों की सरस तान हो
धन्य जादुई मैला आंचल, धन्य-धन्य तुम
सहज सलोने तुम अपूर्व, अनुपम, अनन्य तुम।

इस मौके पर सबके स्वर भी टेपित हुए थे, इसकी सूचना इसी कविता से मिलती है। शायद उसे सुनने का मौका हमें अब कभी नहीं मिल सकेगा। लगता है, उस संगत में रेणु ने कोई अनोखा गीत गाया होगा, जो नागार्जुन को बहुत पसन्द आया होगा। इसकी खबर हमें नागार्जुन की उस उक्ति से मिलती है जहाँ वह उन्हें ‘मुरलीधर के सात सुरों की सरस तान’ बताते हैं। हर जाननेवाला जानता है कि रेणु बहुत मधुर गाते थे और लोकगीतों, गाथाओं का एक बड़ा भंडार उनके ओठों पर बसता था। सारंगा सदाबृज और लोरिकायन की तो लगभग समूची गाथा उन्हें याद थी।

नागार्जुन ने रेणु को यहाँ ‘दर्दी किसान’ बताया है लेकिन यह कम दर्दीला नहीं है क्योंकि उन्होंने अपने आपको सिर्फ ‘कृषकपुत्र’ बतलाया है, यानी कि वह, जिससे दर्दी किसान होने का सौभाग्य एक पीढ़ी पहले छीन लिया गया। औराही उन्हें बहुत पसन्द आया है। वहाँ वह ‘मूल गन्ध’ है, जिसमें धरती का प्यार उसकी उत्पादकता बनकर प्रकट हुआ करता है।‌ वहाँ की माटी सोनामाटी है। रेणु की खासियत है कि यह सोनामाटी उनके रोम-रोम से महक रही है। रेणु ने जो अपने उपन्यास का नाम ‘मैला आंचल’ दिया था, उसके पीछे एक गहरा व्यंग्य था। उस उपन्यास को बड़ा बनाने में जिन चीजों का योग है, उसमें से कुछ इस नाम का भी है जिसके पीछे व्यंग्य की अचूक गहराई है। वह बात ठीक वहीं से, इस कविता में भी उतर आई है।

नागार्जुन इसे सिम्पली ‘जादुई’ बताते हैं। रेणु, जो नागार्जुन को ‘बड़े भाई’ या ‘भैयाजी’ कहते थे, के लिए उनके मन में कितना प्रेम, कितनी वत्सलता थी, इसका पता भी इस कविता से बढ़िया चलता है। वे कहते हैं कि इस धरती के नील व्योम से रेणु के ऊपर श्वेत कुसुम झरते हैं। यश का रंग श्वेत बताया गया है। फिर फिर वह कहते हैं– सहज सलोने तुम अपूर्व, अनुपम, अनन्य तुम। यहाँ प्रयोग किया गया एक-एक विशेषण विशेष है, जिसका पता हमें नागार्जुन के उस लेख से चलता है जो बाद में उन्होंने रेणु के निधन के बाद उनपर लिखा था।

रेणु और नागार्जुन का सम्बन्ध बहुत पुराना था। दोनों मिथिला समाज से आते थे। दोनों धरती से जुड़े, धरती के धनी। दोनों का जुड़ाव आमजन से एक-जैसा। लोकवृत्तियों और लोकविधाओं में दोनों का ही मन एक जैसा रमा हुआ। दोनों संघर्षधर्मा, सत्ताधारी पार्टी के आलोचक। दोनों की अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताएँ थीं, जिनके बगैर सामाजिक सरोकार अधूरा पड़ता था। मध्यकाल से ही यह परम्परा चली आई है कि इस भूमि से जो भी कोई बड़ा साहित्यकार हुआ, उसने अपनी मातृभाषा में भी कुछ-न-कुछ जरूर लिखा।

रेणु ने भी मैथिली में लिखा लेकिन नागार्जुन ने ज्यादा लिखा। लगभग जीवन भर उनकी संलग्नता अपनी भूमि और भाषा से बनी रही।  रेणु की संलग्नता और भी गहरी थी, यह और है कि उसकी अभिव्यक्ति के माध्यम अलग-अलग थे। जैसे वह दर्दी किसान थे, वैसा ही मर्मी इंसान भी। उनका यह मर्म अनेक आयामों में प्रकट होता था। नागार्जुन ने अपने लेख में दिया है– ‘रेणु के यहाँ न तो कथ्य-सामग्री का टोटा था और न शैलियों के नमूनों का अकाल। सामाजिक घनिष्ठता रेणु को कभी गुफानिबद्ध नहीं होने देती थी। वह जहाँ कहीं भी रहे, लोग उन्हें घेरे रहते थे। फारबिसगंज, पटना, इलाहाबाद, कलकत्ता, मैंने रेणु को जहाँ कहीं देखा और जब कभी, निर्जन एकान्त में शायद ही देखा होगा।’

Zest of life can be found in the literature of Mahakavi Vidyapati

विद्यापति के यहाँ ‘सुपुरुष’ का बड़ा माहात्म्य है। इसे ही कहीं वह सुजन कहते हैं तो कहीं सज्जन। उनकी एक मशहूर काव्यपंक्ति है– ‘सज्जन जन सं नेह कठिन थिक।’ इस एक पंक्ति ने मिथिला के पुराने पंडितों को पिछले सौ वर्षों में कितना परेशान किया पूछिये मत। आजतक उनकी समझ में न आया कि सज्जन जन से नेह कठिन क्यों होगा, वह तो और आसान, और भी विधेय होना चाहिए। बात यहाँ तक चली गयी कि धृष्ट लोगों ने विद्यापति की पंक्ति संशोधित कर दी। अपने संकलनों में पाठ दिया–सज्जन जन सं नेह उचित थिक। ‘कठिन’ को ‘उचित’ बनाकर मानो उन्होंने टंटा ही खत्म कर दिया कि कठिन है या कि कठिन नहीं है। लेकिन इसका मर्म रेणु जैसे लोग जान सकते थे।

नागार्जुन ने लिखा है– ‘लोकगीत, लोकलय, लोककला आदि जितने भी तत्व लोकजीवन को समग्रता प्रदान करते हैं, उन सभी का समन्वित प्रतीक थे फणीश्वरनाथ रेणु।’ रेणु के यहाँ हम सुपुरुष, सुजन, सज्जन को मूर्त रूप में देख सकते हैं। आप ‘तीसरी कसम’ के हीरामन को याद कीजिए और गौर फरमाइए कि उसपर प्यार तो पूरा उमड़ आता है, उस नायिका का भी उमड़ आया था, लेकिन उस प्यार के साथ बने रहना, उसे निभा ले जाना कितना कठिन है! कहते है, लोग तो जन्म लेते और मरते रहते हैं, लेकिन ‘लोक’ अमर होता है।

नागार्जुन फिर कहते हैं– ‘बावनदास से लेकर अगिनखोर तक जाने कितने कैरेक्टर रेणु ने पाठकों‌ के सामने रखे हैं। उनमें से एक-एक को बड़ी बारीकी से तरासा गया है। ढेर-के-ढेर प्राणवंत शब्दचित्र हमें गुदगुदाते भी हैं और ग्रामजीवन की आन्तरिक विसंगतियों की तरफ भी हमारा ध्यान खींचते चलते हैं। छोटी-छोटी खुशियाँ, तुनकमिजाजी के छोटे-छोटे क्षण, राग-द्वेष के उलझे हुए धागों की छोटी-बड़ी गुत्थियाँ, रूप-रस-गन्ध-स्पर्श और नाद के छिटफुट चमत्कार- और जाने क्या-क्या व्यंजनाएँ छलकी पड़ती हैं रेणु की कथाकृतियों से।’

रेणु से नागार्जुन का सम्बन्ध बहुत ही पुराना और आत्मीय था। दोनों का जब भी मिलना होता, दोनों मैथिली में ही बात करते थे। पत्राचार की भाषा भी मैथिली ही हुआ करती थी, जैसा कि रेणु रचनावली में संकलित पत्र से भी स्पष्ट है। अद्भुत है वह पत्र, जिसके शब्द-शब्द से रेणु की आन्तरिकता झांकती है। पत्र 18.12.1954 (या1955) का है। अभी-अभी ‘मैला आंचल’ छपा है।  रेणु गाँव में हैं। आज उन्होंने किसी गुदरिया (गोरखनाथी) संन्यासी से राजा भरथरी की गाथा सुनी है। जरूर साधू ने बहुत ही मधुर, मार्मिक गाया होगा। रेणु ने नोट कर लिया है।

गाथा का एक लम्बा अंश वह नागार्जुन को, पत्र में लिखते हैं, जो बड़ा ही अनूठा है। वहाँ साधू बनने के बारह बरस बाद राजा भरथरी के अपने नगर पधारने का वर्णन है, सिद्ध जोगी बनकर। लगता है, अपने पिछले पत्र में नागार्जुन ने प्रश्न किया हो कि ‘राजा भरथरी, यानी कि रेणु आजकल चुप क्यों हैं?’ कहते हैं– ‘जेहि दिन नग्र पधारयो राजा भरथरी/ मंजरल बगियन में आम/ फुलबा जे फूले कचनार राजा/ लाली उड़े आसमान/ लाल लाल सेमली के बाग फूले/ धरती धरेला धेयान।’ यानी कि गाँव के पर्यावरण ने इस तरह राजा भरथरी को बाँध लिया है कि चुप हो जाने के सिवा रास्ता नहीं बचा।
फिर, गाँव-घर की बातें बताते हैं।

पहली बात तो यही कि गाँव आते रहना इसलिए भी जरूरी है कि चीजों को, विरासत को नष्ट होने से बचाया जा सके। फिर उन्हें उस नौजवान लड़के की बात याद आती है जिसने रेणु को चैलेंज किया था कि गाँव में आपका मन लगेगा? लड़के को जवाब उन्होंने क्या दिया था, सो बताते हैं। गरदन में मिट्टी का घड़ा बाँधकर कूप में पैठ गये हैं, अब यहीं रहेंगे। फिर बताने लगते हैं कि गाँव के जंगल का एक सियार पागल हो गया है, लोग लाठी साथ रखकर ही घर से बाहर निकलते हैं। रेणु के पास अपनी लाठी नहीं है। किसी से माँगा तो उसने कह दिया कि अब तो आप अपनी लाठी बनाइये, आप गाँव में रहने आए हैं। फिर उन्हें अपने पिता की याद आ गयी जो तरह-तरह की लाठियाँ रखने के शौकीन थे।Image may contain: 1 person

बाँस के जंगल में घुसकर सही लाठीवाले बाँस की पहचान भी एक महीन कला है। रेणु बताते हैं कि सिर्फ मन लायक लाठियाँ पाने के लिए पिता ने कैसे-कैसे लोगों से दोस्ती गाँठ रखी थी। नागार्जुन ने पिछले पत्र में उन्हें सुझाव दिया था कि रेणु को वहाँ बन्दूक का लाइसेन्स ले लेना चाहिए। रेणु को यह जरूरी नहीं लगा है, बताते हैं कि ‘विश्वकोश का चोर अबतक गाँव नहीं पहुँचा है’, और शिकार के प्रयोजन की जहाँ तक बात है, गुलेल चलाने की उनकी ‘पेराकटिस’ इतनी जबर्दस्त है कि उसके आगे बन्दूक फेल है। फिर वह उन्हें उस खण्डकाव्य का प्लाट बताने लगते है– ‘दो पीर: एक नदी’ जिसे लिखने का विचार उनके मन में चल रहा है।

दो पीर– ग्रामदेवता जीन पीर और ग्रामरक्षक चेथरिया पीर। नदी दुलारी दाय। नदी का गुण गाने लगते हैं कि इस इलाके के बाबू लोगों की जो बबुआनी है, वह इसी दुलारी दाय के प्रताप से है। कोशी जब इस इलाके से गयीं, उनकी पाँच बहनें थीं, सबको वह बाँझ बनाती गयीं, सबसे छोटी बहन इस दुलारी पर उसकी बहुत करुणा थी, इसीलिए यह बची रह गयी। अपने भैयाजी से आशीर्वाद माँगते हैं कि वह इस खण्डकाव्य को पूरा कर सकें और वह शुभ भी बन पाये, सुन्दर भी। फिर यह सूचना दी है कि मैथिली मासिक ‘वैदेही’ पिछले कुछ समय से उनके ग्रामीण पुस्तकालय में आना बन्द हो गयी है, मतलब इसकी शिकायत प्रकाशक को कर दें और राय माँगते हैं कि ‘आर्यावर्त’ का ग्राहक उन्हें बनना चाहिए या नहीं!

पत्र के अन्त में लतिका जी से मिलकर हाल-समाचार कह देने का अनुरोध है और यह भी कि उन्हें भरोसा दे दिया जाए कि उनकी हिदायतों के मुताबिक ही वह गाँव का जीवन जी रहे हैं। लेकिन, सबसे अन्त मे यह है कि ‘हम जे मैथिली मे पांती लिखैक धृष्टता कय रहल छी– से तकर की हैत?’  इसका क्या होगा! इन दोनों लोगों के बीच की आत्मीयता और सामीप्य-भावना को आप इस एक पत्र से समझ सकते हैं।

सोचकर देखें तो यह आत्मीयता कोई आसान बात नहीं थी। नागार्जुन का पहला उपन्यास ‘पारो’ 1946 में छपकर आ गया था। था तो यह मैथिली में लेकिन इससे यह किया था कि नागार्जुन बिहार के उभरते हुए सम्भावनाशील उपन्यासकार के रूप में गिने जाने लगे थे। 1948 में छपे ‘रतिनाथ की चाची’ ने उन्हें स्थापित उपन्यासकार की पंक्ति में ला दिया था। लेकिन, ‘बलचनमा'(1952) के बाद तो प्रथम श्रेणी के हिन्दी उपन्यासकारों में उनका शुमार होने लगा था। इसमें प्रेमचन्द की परम्परा का स्पष्ट विकास देखा गया था। ‘आंचलिक’ शब्द भी उपन्यास के विशेषण में तभी पहली बार प्रयुक्त हुआ था और नागार्जुन हिन्दी के पहले आंचलिक उपन्यासकार माने गये थे। इसके बाद आया था ‘मैला आंचल’।

शुरुआती दिनों में तो कई संशय थे चतुर्दिक, लेकिन बहुत जल्द ही यह हिन्दी के चुने हुए सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में शामिल कर लिया गया। ‘मैला आंचल’ की सफलता निश्चय ही ‘बलचनमा’ से बढ़कर थी।
इसमें संदेह नहीं कि इस तरह की स्थितियों में लेखकों की आपसी प्रतिस्पर्द्धा उनके बीच कटुता का सम्बन्ध बनाता है, और कई लोगों ने इस प्रतिस्पर्द्धा को उभारनेवाली बातें माहौल में चलाईं भी थीं, लेकिन नागार्जुन ने इसे कभी भाव नहीं दिया। खुद रेणु ने भी नहीं। 1955 में ही रेणु ने यह कहा– ‘सही माने में प्रेमचन्द की परम्परा को फिर से ‘बलचनमा’ ने ही अपनाया। नागार्जुन जी पर बहुत भरोसा है मुझे। मेरी स्थिति उस छोटे भाई-सी है, जो अपने बड़े भाई के बल पर बड़ी-बड़ी बातें करता है।’Image may contain: 1 person, smiling, outdoor and text

हिन्दी संसार भले नागार्जुन को प्रथम आंचलिक उपन्यासकार कहकर चिह्नित करे, उन्होंने हमेशा इससे इनकार किया। जिन बातों को लेकर उनके उपन्यास लिखे गये थे, उन्हें आंचलिक कहकर कोटिबद्ध किया जाना उन्हें कभी सही नहीं लगा। जबकि रेणु की स्थिति बिलकुल अलग थी। वह खुद भी अपने लेखन को ‘आंचलिक’ कहते और औरों से भी इस कारण प्राप्त होनेवाली विशेष कोटि उन्हें पसन्द आती थी। नागार्जुन कहीं बेहतर समझ रहे थे कि वह क्या कर रहे हैं, और इससे इतर रेणु के काम का महत्व क्या है, इसलिए ‘मैला आंचल’ के आने से उनका उपन्यास-लेखन किसी भी तरह प्रभावित नहीं हुआ। एक के बाद एक उनके उपन्यास आते रहे, और वे कमोबेश उसी मिजाज के भी बने रहे।

आगे जब उनका उपन्यास लिखना छूटा भी तो इसके कारण व्यक्तिगत थे, उनकी यात्राओं और जनाकीर्णता ने उन्हें आगे इस तरह एकाग्र ही नहीं होने दिया जो ऐसे गद्यलेखन के लिए जरूरी होता है। दूसरे, भारतीय उपन्यास की समझ शुरू से ही उनपर तारी थी, यानी कि हिन्दी में लिखा गया भारतीय उपन्यास, जिससे भारत के यथार्थ को समझा जा सकता हो। इसलिए, समान भूमि, भाषा, और कथा-परिवेश के बावजूद दोनों लेखकों की परस्पर प्रीति अन्त तक बनी रही।
रेणु के लेखन को नागार्जुन ने, स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद जो हमारी कथाकृतियों में ढेर सारे परिवर्तन आने लगे थे, उस संदर्भ के साथ जोड़कर देखा है। वहाँ वह कहते हैं कि चिंतन में तो ताजगी के नये-नये आभास प्रकट हुए ही, शब्द-शिल्प की नयी-नयी छवियाँ भी तेजी से उभरने लगीं थीं, उनमें ताजगी और अनूठापन अधिकाधिक उजागर होने लगा था।

कथाकार रेणु को इनमें सबसे प्रतिभाशाली वह इस आधार पर मानते हैं कि उनकी बुनावट नितांत घनी थी, और ढेर सारे दुर्लभ और बहुरंगी छवियों को मिलाकर वह एक ताजा और अनूठी बात कह जाते थे। उन्होंने लिखा है– ‘ऐसा उत्कट मेधावी युवक यदि कलकत्ता जैसे महानगर में पैदा हुआ होता और यदि वैसा ही सांस्कृतिक परिवेश, तकनीकी उपलब्धियों का वही माहौल इस विलक्षण व्यक्ति को हासिल हुआ रहता तो अनूठी कथाकृतियों के रचयिता होने के साथ-साथ सत्यजित राय की तरह फिल्मनिर्माण की दिशा में भी यह व्यक्ति कीर्तिमान स्थापित कर दिखाता। रेणु की कथाकृतियों में ऐसे बीसियों पात्र भरे पड़े हैं।’

लेकिन, सब सपाट-ही-सपाट हो, ऐसा भी नहीं था। दोनों के मतान्तर भी कम नहीं थे। रेणु के प्राण भले औराही की गीली पांक में बसते हों, या चाहे उनका मन सबसे ज्यादा ठेठ ग्रामीण समाजियों की संगत में लगता हो, वह जब अपने व्यक्तिगत जीवन में लौटते तो अपने दैहिक ‘स्व’ के प्रति बहुत सजग हो जाते थे। यह उनके पहनावा-ओढ़ावा से लेकर उनके रहन-सहन तक में दिखता था। यह  उनकी अपनी तरह की संभ्रान्तता थी। लम्बे बाल के शौकीन थे।

लम्बे बाल की परवाह रखने की अपनी सजगता के बारे में उन्होंने एक जगह कहा है– ‘लोग पौधों की देखभाल करते हैं, बालों की देखभाल मेरी हॊबी है।’ अपनी इस सजगता से रेणु को फायदा था कि यह उन्हें कलाओं के उच्च और संभ्रान्त वर्ग में स्वीकार्य बनाता था। यह अपने आप में एक बड़ा फायदा था, लेकिन नागार्जुन को यह सिरे से नापसन्द था। ‘आईने के सामने’ में उन्होंने अपने हुलिये का मजाक उड़ाते वक्त रेणु को भी समेट लिया है– ‘ओ आंचलिक कथाकार, तुम्हारी आंखें सचमुच फूटी हुई हैं क्या?

अपने अन्य आंचलिक अनुजों से इतना तो तुम्हें सीख ही लेना था कि रहन-सहन का अल्ट्रामाडर्न तरीका क्या होता है।’ रेणु की अपनी शैली थी, बचपन की निर्मित थी जिसमें कोइराला परिवार और औराही हिंगना की बराबर बराबर की साझेदारी थी। वह एक किसान थे, जबकि नागार्जुन कृषकपुत्र। यहाँ व्यवस्था थी, वहाँ विद्रोह था। रेणु दर्दी किसान थे, यह उनका विशेष गुण था। मगर थे किसान।
रेणु को भी नागार्जुन से आपत्तियाँ कम न थीं। सबसे बड़ी आपत्ति तो उनके मुद्दे बदलते रहने पर थी। 1967 में बिहार की संविद सरकार ने उर्दू को दूसरी राजभाषा बनाने का ऐलान किया। इसका बहुत जोरदार विरोध हुआ। रेणु ने इस घटना-क्रम की रिपोर्टिंग ‘दिनमान’ में की थी।

स्वयं रेणु की रिपोर्ट में साक्ष्य है कि यह गैरजरूरी था, और केवल एक मुस्लिम नेता को संतुष्ट करने के लिए किया गया था। मामला लेकिन उर्दू का था, इसलिए हिन्दी का कोई लेखक इसके विरोध में नहीं आया। लेकिन नागार्जुन कूद आए। यह उनकी अपनी राजनीतिक समझ थी, जो जनता से मिलती थी। अब जबकि दूसरी राजभाषा बनाने के बाद सच में उर्दू भाषा-साहित्य को क्या फायदा हुआ यह हमारे सामने है, हम समझ सकते हैं कि सच में इस पचड़े में पड़ने का वह समय नहीं था।Image may contain: 2 people

समाजवादियों के हाथ में सत्ता आई थी। बड़े-बड़े लक्ष्य थे बचे के बचे। रेणु ने तुलसी जयन्ती के दिनवाली गाँधी मैदान की सभा की रिपोर्टिंग की है– ‘मंच पर साहित्य सम्मेलन‌ के वरिष्ठ अधिकारियों के अलावा बैठे हैं– डा. लक्ष्मी नारायण सुधांशु (कांग्रेस), ठाकुर प्रसाद (जनसंघ) और… और… नागार्जुन।…. प्रस्ताव प्रस्तुत किया नागार्जुन जी ने। प्रस्ताव पढ़ते समय उनकी वाणी बौद्ध-भिक्षु जैसी ही थी। मगर जब प्रस्ताव पर बोलने लगे तो ‘नागा बाबा’ हो गये।’ रेणु की आपत्ति अपनी जगह जायज थी।

आगे वह भी समय रहा जब दोनों ने साथ-साथ राजनीति की। वह सम्पूर्ण क्रान्ति का दौर था। उसमें भी कोई प्रगतिशील लेखक नहीं गया था। बड़े लेखकों में यही दो थे। नुक्कड़ कविता का तभी आविष्कार हुआ था, जिसने परिवर्तन में गजब भूमिका अदा की। उसके हिट कवि नागार्जुन थे। रेणु हर गोष्ठी में रहते, लेकिन कविता नहीं पढ़ते। उनकी भूमिका दूसरी होती थी। गोष्ठी जब खत्म होने लगती, रेणु और रामवचन राय गमछा फैलाकर श्रोताओं में घूम जाते।

जो पैसे आते, उनमें से लाउडस्पीकर आदि का किराया वगैरह देकर जो बचता उसे जरूरतमंद कवियों में बाँट दिया जाता। एक जरूरतमंद नागार्जुन भी हुआ ही करते थे। फिर वह दौर आया, जब आपातकाल के दौरान बक्सर जेल में बन्द नागार्जुन भयंकर बीमार पड़ गये। उनके बचने की उम्मीद न रही। तो, रेणु ही थे जिन्होंने लेखकों का प्रधानमन्त्री के नाम ज्ञापन तैयार कराया था कि उन्हें जेल से मुक्त किया जाए। उन्हें जरूरत भर लेखकों के दस्तखत नहीं मिल सके, और नागार्जुन की जेल-मुक्ति के लिए दूसरे प्रयास करने पड़े, यह अलग बात है।

अब, मजे की बात यह भी है कि रेणु ने उर्दू प्रकरण वाली अपनी रिपोर्ट में जिन नागार्जुन पर यह भाषण देने के लिए कि ‘उर्दू का विरोध करना अगर ‘जनसंघी’ होना है तो मैं एक सौ जनसंघी होने को तैयार हूं’, बड़ी खिंचाई की थी, उन्हीं नागार्जुन को ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ वाले जेल-जीवन में जब यह अहसास हो गया कि अपनी वैधता प्राप्त करने के लिए इस आन्दोलन को आर एस एस ने दबे पाँव हाइजैक कर लिया है, तो वह वहाँ से निकल आए, लेकिन रेणु की अपनी राजनीतिक समझ थी कि वह अन्त-अन्त तक वहीं बने रहे। लेकिन, जो कि सच्चाई भी थी, रेणु का जब निधन हुआ, नागार्जुन ने अपने स्मृति-लेख में लिखा– ‘प्रशासकीय तानाशाही के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करनेवालों में रेणु अगली कतार में भी आगे ही खड़े रहे।’

और, जहाँ तक रेणु की संभ्रान्तता और जनांदोलनी तेवर के बीच तारतम्य का प्रश्न है, गोपेश्वर सिंह के लिखे एक संस्मरण का प्रसंग याद आता है। एक दिन कभी पटना के फुटपाथ किनारे के मजदूर होटल में आराम से बैठकर नागार्जुन रोटी-सब्जी खा रहे थे। गोपेश्वर जी ने देखा तो हैरत में पड़ गये। अभी हाल में रेणु का निधन हुआ था। वह चारों ओर चर्चा में बने हुए थे। गोपेश्वर जी ने नागार्जुन से पूछा– ‘बाबा, फणीश्वरनाथ रेणु यहाँ रोटी खाते या नहीं?’ नागार्जुन ने तपाक से जवाब दिया– ‘नहीं। रेणु यहाँ रोटी नहीं खाते, लेकिन वे इन लोगों के लिए गोली जरूर खा लेते!’

तारानन्द वियोगी

महिषी, सहरसा में 1966 में जन्म। पहली प्रकाशित पोथी ‘अपन युद्धक साक्ष्य’ (गजल संग्रह १९९१) । अन्य पुस्तक ‘हस्तक्षेप’ , ‘प्रलय रहस्य’ (कविता-संग्रह), ‘अतिक्रमण’ (कथा-संग्रह), ‘शिलालेख’ (लघुकथा संग्रह), ‘कर्मधारय’,’रामकथा : आ मैथिली रामायण’,’बहुवचन ‘धूमकेतु’ (आलोचना) राजकमल चौधरी की कथाकृति ‘एकटा चंपाकली एकटा विषधर’ संकलन-स‍पादन। साहित्य अकादेमी मैथिली बाल साहित्य पुरस्कार 2010 , यात्री-चेतना पुरस्कार 2010 ई.

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साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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