‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’: गोरखनाथ और ओड़िशा में उनका पंथ
बीज-शब्दः
गोरखधंधा, धंधारी, कनफटा, पूर्वाश्रम, विश्वकोश, पँचसखा,कानचिरा, केंद्रा, भागवत-टूँगी।
अक़्सर महामानवों के साथ विवाद जुड़ा हुआ रहता है। समय-समय पर उनके अस्तित्त्व पर सवाल उठते रहते हैं। कभी उनके जन्म को लेकर, तो कभी कर्म को लेकर। कभी सवाल सार्थक होते हैं, तो कभी निरर्थक। उनके महान् बनने की योग्यता पर भी प्रश्न-चिह्न लगा दिया जाता है। कई बार कोरी राजनीति का खेल खेला जाता है। लोग उस महामानव की महत्ता को भूल जाते हैं। अपने स्वार्थ के लिए, वे उसके नाम तथा कार्य का ग़लत इस्तेमाल तक करने से पीछे नहीं हटते। अभी हाल ही में नाथ सम्प्रदाय के महान् गुरु गोरखनाथ को लेकर विवाद पैदा हुआ था। हरियाणा से एक ख़बर आई थी कि एक लोक-प्रचलित शब्द- ‘गोरख-धंधा’ पर वहाँ प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। दरअसल इसका प्रयोग आज प्रतिकूल परिस्थितियों के लिए होता है। रिपोर्ट यह बताती है कि गोरखनाथ के अनुयायियों ने सरकार के पास इस शब्द को लेकर आपत्ति जताई थी कि यह गोरखनाथ के सम्मान को हानि पहुँचाता है। सरकार ने वहाँ के सभी प्रशासनिक तन्त्र से इस शब्द को प्रतिबन्ध लगा दिया है। निश्चित ही यह शब्द कौतूहल पैदा करता है। किसने और किस प्रयोजन से इस शब्द का प्रणयन किया है, यह पता लगाना असंभव है। क्या गोरखनाथ या फिर उनके किसी अनुयायी ने ही इस शब्द का प्रणयन किया है, क्या ज़ानबूझकर गोरखनाथ के प्रतिवाद में किसी ने इस शब्द के अर्थ में फेरबदल किया है, या फिर लोक में अनायास ही इसके अर्थ में परिवर्तन हुआ है? आचार्य द्विवेदी जी ने इस शब्द के सम्बन्ध में एक रोचक तथ्य दिया है।
“धंधारी एक तरह का चक्र है। गोरखपंथी साधु लोहे या लकड़ी की शलाकाओं के हेर-फेर से चक्र बनाकर उसके बीच में छेद करते हैं। इस छेद में कौड़ी या मालाकार धागों को डाल देते हैं। फिर मंत्र पढ़कर उसे निकाला करते हैं। बिना क्रिया जाने उस चक्र में से सहसा किसी से डोरा या कौड़ी निकल नहीं पाती। ये चीज़ें चक्र की शलाकाओं में इस तरह उलझ जाती हैं, कि निकालना कठिन पड़ जाता है। जो निकालने की क्रिया जानते हैं वे उसे सहज ही निकाल लेते हैं। यही धंधारी या गोरखधंधा है। गोरख पंथियों का विश्वास है कि मंत्र पढ़-पढ़कर गोरखधंधे से डोरा निकालने से गोरखनाथ की कृपा से ईश्वर प्रसन्न होते हैं और सांसारिक चक्र में उलझे हुए प्राणियों को डोरे की भांति इस भव जाल से मुक्त कर देते हैं।” ( नाथ सम्प्रदायः हजारी प्रसाद द्विवेदी, नाथ सम्प्रदाय का विस्तार, पृष्ठ- 17)
डॉ बंशीधर महांती अपनी रचना ‘ओड़िशा र नाथ सम्प्रदाय ओ नाथ साहित्य’ में लिखते हैं- “ओड़िशा के योगी गोरेख-धंधा या 108 लौह-मुद्रिका वाले यंत्र धारण किये हुए दिखते हैं। जप के लिए ‘गोरखधंधा’ यंत्र साधारण में ‘गोलकधंधा’ शब्द के रूप में रूपांतरित हो गया है।” (पृष्ठ-15)
यानी ‘गोरखधंधा’ एक प्रकार की पद्धति का नाम था, जिसका आज अर्थापकर्ष हुआ है। आज इसका प्रयोग छल, धोखा तथा दुष्कर्म के लिए होता है। इतिहास में कई सकारात्मक अर्थ पैदा करने वाले शब्द, आगे चलकर नकारात्मक बन गए हैं(जैसे असुर शब्द है)। बहर हाल ‘गोरखधंधा’ शब्द को लेकर विवाद सार्थक था या निरर्थक ये मायने नहीं रखता, उस विवाद का समाधान प्रासंगिक बना या अप्रासंगिक, इसपर विचार करने का हक़ और सामर्थ्य मेरा नहीं है। जो भी हो विवाद के ज़रिए विस्मृति के बियाबान में खोए गोरखनाथ याद तो किए गए। एक समय ऐसा था, जब गोरखनाथ का नाम लगभग भारत के हर कोने में बड़ी श्रद्धा से गूंजता था। उन्होंने अपनी ओजस्वी वाणी के ज़रिए खंडित भूगोल के पथ-भ्रष्ट जनों के हृदय को एक धागे में पिरोया था। पाखंड को त्यागकर सहजता के साथ जीवन बीताने को आह्वान दिया था, जो आज इस उपभोक्ता व भौतिकवादी समाज के लिए अत्यंत महत्वपीर्ण है, जिसमें मानव मूल्य तेजी से गिर रहे हैं।
“हबकि ना बोलिबा, ढबकि ना चालिबा धीरे-धीरे धरिबा पांव।
गरब न करिबा सहजे रहिबा भणंत गोरख रावम्।।”
पूर्व से पश्चिम और आ-उत्तर-दक्षिण, ‘लोक’ में गोरखनाथ को सार्वभौमिक आदर प्राप्त था। यद्यपि गोरखनाथ का सही समय पता लगाना मुश्किल है, तथापि यह अनुमान लगाया जाता है कि गोरखनाथ शंकराचार्य के सौ-दो सौ वर्ष बाद अवश्य हुए होंगे। जैसे शंकराचार्य ने सुदूर दक्षिण में पैदा होते हुए भी पूरे भारतीय भूगोल को धार्मिक-धागे (एकेश्वरवाद) से बांधने की कोशिश की थी और उसमें सफल भी हुए थे, वैसे ही गोरखनाथ ने जन-समष्टि का नेतृत्त्व कर के उसमें नवीन ऊर्जा भरी थी।उन्होंने उस धार्मिक आंदोलन का बीज-वपन किया था, जिससे भक्तिकाल रूपी महाद्रुम का विकास हुआ। जिसने अपनी छत्रछाया में समाज के लगभग सभी प्रताड़ित-वर्ग को आश्रय प्रदान किया। गोरखनाथ योगी थे,उनके पास धन-संपदा-सत्ता आदि साधन कुछ भी नहीं था, किंतु फिर भी उन्होंने सौहार्द-संपदा के बल पर जन-जन को जोड़ने की कोशिश की थी। घुमक्कड़ी के जीवन को अपनाया था और विक्षिप्त जनता को भलाई का रास्ता दिखाया था। अधिकतर विद्वानों को मानें, तो जन्म पंजाब-प्रांत में हुआ था, लेकिन पूरी भारत-भूमि उनकी कर्मभूमि बन गई थी। गुरुवर रवींद्रनाथ ठाकुर ने कबीर को बुद्ध के बाद सबसे बड़े लोकनायक माना है। सरहपा और गोरखनाथ को बुद्ध और कबीर के बीच रखा जा सकता है। सरहपा और गोरखनाथ जैसे लोकनायक न होते तो आज शायद कबीर- कबीर न होते। कबीर की वाणियों को अगर ध्यान से पढ़ा जाए तो पता चलता है कि कबीर को लोक-नायकत्त्व की प्रेरणा बुद्ध, सरहपा और गोरखनाथ से मिली। गोरखनाथ आदि नाथ- संतों की हर विशिष्ट बातें कबीर में देखी जा सकती हैं। इस मामले में सरहपा और गोरखनाथ ने सेतु का काम किया है। बकौल हजारीप्रसाद द्विवेदीः
“यदि कबीर आदि निर्गुणमतवादी संतों की वाणियों की बाहरी रूपरेखा पर विचार किया जाए, तो मालूम होगा कि यह संपूर्ण भारतीय है और बौद्ध धर्म के अंतिम सिद्धों और नाथपंथी योगियों के पदादि से उसका सीधा सम्बन्ध है। वे ही पद, वे ही राग-रागिनियाँ, वे ही दोहे, वे ही चौपाइयाँ कबीर आदि ने व्यवहार की हैं, जो उक्त मत को मानने वाले उनके पूर्ववर्ती संतों ने की थीं। क्या भाव, क्या भाषा, क्या अलंकार, क्या छंद, क्या पारिभाषिक शब्द, सर्वत्र वे ही कबीर के मार्गदर्शक हैं। कबीर की ही भाँति ये साधक नाना मतों का खंडन करते थे, सहज और शून्य में समाधि लगाने को कहते थे, दोहों में गुरु के ऊपर भक्ति करने का उपदेश देते थे। इन दोहों में गुरु को बुद्ध से भी बड़ा बताया गया है और ऐसे भाव कबीर में भी बड़ी आसानी से मिल सकते हैं, जहाँ गुरु को गोविंद के समान बताया गया है। ‘सद्गुरु’ शब्द सहजयानियों, वज्रयानियों, तांत्रिकों, नाथपंथियों में समान भाव से समादृत है।” हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावलीः3, हिंदी साहित्य की भूमिका, पृ- 60.उपर्युक्त पंक्ति को यह दिखाने के लिए उद्धृत किया गया है, कि कैसे सरहपा जैसे सिद्ध और गोरखनाथ जैसे नाथों का सीधा प्रभाव कबीर पर पड़ा है। भक्तिकाल के उद्भव में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान है।
आज हम तकरीबन हजार साल बाद सिद्धात्मा गोरखनाथ को फिर से याद करने की कोशिश कर रहे हैं।वे कौन थे, कैसे थे, उन्होंने कैसा जीवन बिताया था, ये सब सही-सही बता पाना मुश्किल है। जैसे कि ‘भारतीय साहित्य के निर्माता: गोरखनाथ’ पुस्तक के रचयिता नागेंद्रनाथ उपाध्याय मानते हैं कि- “गोरखनाथ जैसे सिद्ध महापुरुष के समय के विषय में सोचना और निर्णय करना अत्यंत कठिन कार्य है। कारण कई हैं। इनके सम्बन्ध में जितनी भी सूचनाएँ मिलती हैं, अधिकांश किंवदंतियों, कथाओं, चमत्कारों, विश्वासों से परस्पर बहुत विरोध है। गोरखनाथ का व्यक्तित्त्व इतना लोकप्रिय, महिमाशाली और प्रभविष्णु हो गया है कि किसी भी स्तर, क्षेत्र और रूप पर लोक-विश्वास में उसने अपनी गहरी छाप छोड़ रखी है। सांप्रदायिक रीतियों, नीतियों और पद्धतियों की दृष्टि से विचार करने पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि संन्यास ग्रहण कर लेने पर व्यक्ति के पूर्वाश्रम की चर्चा करना लोग अनुचित समझते हैं।… नाथ सम्प्रदाय दो प्रकार की परम्परा की चर्चा करता है- नाद परम्परा और बिंदु परम्परा। योगी की परम्परा नाद परम्परा में स्वीकृत है, जबकि सांसारिक लोगों की बिंदु परम्परा में गणना की जाती है। इस नाद परम्परा में गुरु का कुल ही शिष्य का कुल होता है, जिसका सिधा सम्बन्ध दीक्षा से है। दीक्षा एक प्रकार से पुनर्जन्म है। इस लिए पूर्वाश्रम की चर्चा करना व्यर्थ है। ऐसी स्थिति में यदि कोई गोरखनाथ के सांसारिक जीवन, उनके पूर्वाश्रम और दीक्षा-पूर्व जीवन की कोई सूचना प्रप्त करना चाहे तो निश्चय ही उसे सफलता मिलनी कठिन है।” (भारतीय साहित्य के निर्माता, गोरखनाथः नागेंद्रनाथ उपाध्याय, पृ- 7)
यह लगभग हर सिद्ध पुरुष के साथ होता है। सरहपा आदि बौद्ध-सिद्ध, नाथ-योगी, संत परम्परा के अनेक कवि-महापुरुष के जन्म पर ऐसे ही लोक प्रचलित किंवदंतियों सुनने को मिलती हैं, जो यथार्थ साक्ष से परे हैं। सभी बड़े कवियों को सवर्णकुल तथा धर्म विशेष के साथ जोड़ने के लिए किंवदंतियाँ गढ़ी जाती हैं। कइयों को तो अजन्मा तक कह दिया जाता है। जोगी का जन्म किस कुल में हुआ था या कहाँ हुआ था, यह मायने नहीं रखता, उसका कर्म महत्त्वपूर्ण है। दीक्षा के बाद का जीवन उसे लोक में पहचान देता है। इससे पूर्व वह क्या था, किस स्वभाव का धनी था, उसने कितने पाप या कुकर्म किये थे, इनपर विचार करना व्यर्थ है। वाल्मीकि को आदि ग्रंथ ‘रामायण’ के लिए याद किया जाता है, न कि दस्यु रत्नाकर के रूप में। गोरखनाथ का जीवन भी वाल्मीकि जैसा है, जिनके गार्हस्थ्य जीवन का परिचय ढूँढना, उनके जन्म आदि पर यथार्थ तथ्य प्राप्त करना अंगद के पैर होने जैसा है।
मैंने पहले ही कहा है कि महापुरुषों को अजन्मा या ‘जन्मरहित’ भी सिद्ध करने की कोशिश होती है, खास कर के उनके अनुयायियों के द्वारा। इसका मुख्य कारण यह है कि किसी महापुरुष को आप जितनी हद तक अलौकिकता के साथ जोड़ेंगे, लोक में उनके महानिर्वाण के बाद आप उनको उतना ही उच्चासन दिला पाएँगे। जो जितने अलौकिक साबित होंगे, उनके नाम से मठ आदि उतने चल पाएँगे। ‘लोक’ विश्वास से अधिक अंधविश्वास की ओर आकृष्ट होता है। मठ या सम्प्रदाय बनाने की इसी तृष्णा ने भारतवर्ष के प्राचीन महागुरुओं को अजन्मा, अलौकिक, सर्वशक्तिमान, ईश्वर से भी ऊपर विराजमान, सर्व-विराजित सूक्ष्म-तत्त्व तक सिद्ध करने की कोशिश की है। कोई सिद्धात्मा जितने परिव्याप्त भूगोल से सम्बन्ध रखेगा, उसपर उतनी ही किंवदंतियाँ प्रचलित होंगी। उस भूगोल के हर एक अंश की जनता उसे अपना बनाना चाहेगी। विवाद पैदा होगा। उस सिद्धात्मा का नाम महत्त्वपूर्ण हो जाएगा और उनके ‘स्व’ की हानि होगी। लोग उनके अस्तित्त्व का आदर किए बिना, उनसे सम्बन्धित पारिभाषिक शब्दों को तथा हर एक चीज़ को, अपने स्वार्थ के लिए उछालेंगे। ज़रुरत पड़ने पर याद करेंगे और काम बनते ही भूल जाएँगे।
आज फिर से ‘लोक’ को गोरखनाथ की ज़रुरत महसूस हुई है। आज फिर से वे महत्वपूर्ण बन गए हैं। ऐसा कदापि नहीं है कि उनका ‘स्व-महत्त्व’ कभी कम हुआ था। महाकवि की वाणियाँ उस महा जलधि के समान हैं, जो सदैव तरंगित रहती हैं, जिससे लोक की भूमि जुड़ी हुई होती है। जब-जब लोक में तृष्णा पैदा हुई है, तब-तब उसने उस महा जलधि में डुबकी लगाकर उस तृष्णा का समाधान किया है। महाकवि की वाणी समुद्र के जल के समान खारी नहीं अपितु अमृत के समान ब्रह्मानंददायी है।
इस बात की चर्चा पहले से ही हो चुकी है कि गोरखनाथ का सम्बन्ध आज के भारत के राजनीतिक-भूगोल के लगभग हर अंश से था। गोरखनाथ के जन्म-स्थान का वृतांत भ्रामक और रहस्यपूर्ण है, किंतु उनकी कर्म साधना यथार्थ में राजनीति, आंचलिकता और भूगोल से परे है। अतः मैं यहाँ उनके जन्म को लेकर बने विवाद को दोहराना नहीं चाहता। वे जन्म से अधिक कर्म के लिए जाने जाते हैं, अतः हमारे लिए वही महत्त्वपूर्ण है। इतिहास बताता है कि वे मत्येंद्रनाथ (सिद्ध-मीनपा या मछंदर नाथ) के शिष्य थे, मछंदर नाथ राजा देवपाल (सन् 809-849 ई.) के राज्य काल में विद्यमान थे (गोरखनाथ : नागेंद्रनाथ उपाध्याय)। नागेंद्रनाथ जी ने लिखा है-
“बंगाल के पालवंश गोपाल ने सरहपाद के समय में ही 765 ई. के आस-पास पालवंश की स्थापना की थी। सरह शान्तरक्षित (आठवीं सदी में विद्यमान) के शिष्य हरिभद्र के शिष्य थे। जालंधरीपाद सरह की पाँचवीं-छठी पीढ़ी में हुए थे।(मत्येंद्रनाथ और जालंधरनाथ समसामयिक थे)एक पीढ़ी का समय लगभग पंद्रह-बीस वर्ष मानने पर इनका समय लगभग नवीं सदी के मध्य में स्वीकारा जा सकता है।”
भारतीय साहित्य के निर्माताः गोरखनाथ, नागेंद्रनाथ उपाध्याय, पृष्ठ- 10
किंतु अन्य अनेक विद्वान (ग्रियर्सन आदि) और ओड़िया के इतिहासकार गोरखनाथ का समय 12 वीं शताब्दी के अंतिम चरण पर मानते हैं। क्योंकि अनेक विद्वानों ने नाना तथ्यों के द्वारा उनका अलग-अलग समय निर्धारण किया है, अतः लौकिक जगत् में उनके विद्यमान के सही समय का अनुमान लगाना कठिन है। किंतु तथापि क्योंकि बौद्ध-सिद्धों की शाखा से ही नाथ निकला है और गोरखनाथ मछंदर नाथ के शिष्य हैं, अत: उनका जीवनकाल आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के भीतर कहीं माना जा सकता है।
ओड़िशा से गोरखनाथ का सम्बन्ध
ओड़िशा से उनका सम्बन्ध ऐतिहासिक है। सरहपा तथा अन्य बौद्ध-सिद्धों की तरह गोरखनाथ ने भी ओड़िशा के आगे की सांस्कृतिक-ऐतिहासिक परम्परा में अपना योगदान दिया है। विशेष बात यह है कि सरहपा का प्रत्यक्ष सम्बन्ध ओड़िशा से आज लगभग विलुप्त है, यद्यपि परोक्ष में वे और उनका स्वर ओड़िशा के भक्ति-साहित्य में मुखरित है, किंतु गोरखनाथ आज भी ओड़िशा की सांस्कृतिक परम्परा में उभय प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से अनुगुंजित हो रहे हैं। प्रश्न यह उठता है कि ओड़िशा से क्यों सरहपा विस्मृत हो गए और गोरखनाथ आज भी विद्यमान हैं, इसका सबसे बड़ा उत्तर यह है कि गोरखनाथ ओड़िशा में मठों के ज़रिए विद्यमान रह सके। गोरखनाथ से सम्बन्धित गद्दियों में से एक ओड़िशा के कटक शहर के निकट लहंगा ग्राम में एक अवस्थित है। किंवदंतियाँ बताती हैं कि सर्पदंश से मुक्ति पाने के लिए लोग वहाँ जाते हैं। जी. डब्लू. ब्रिग्स ने भी अपनी कृति ‘गोरखनाथ एंड कनफटा योगिस’ में ऐसी किंवदंतियों की बात की हैं, जिनमें सर्प-दंश से मुक्ति की अलौकिक कहानियाँ भरी पड़ी हैं। (ओड़िशा का नाथ सम्प्रदाय ओ नाथ साहित्यः डॉ. बंशीधर महांति, पृष्ठ- 3)
ओड़िशा में ‘जोगी’ जाति के लोग रहते हैं, जिन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग के अंतर्गत रखा गया है,यही गोरखनाथ के से सम्बन्धित हैं। इन्हें यहाँ योगी भी कहा जाता है। ओ. बी. सी की केंद्रीय सूची में ये संकल्प संख्या- 12011/9/BCC- में 19-10-1994 के अंतर्गत आते हैं। आज उनकी सही संख्या कितनी है, यह बता पाना मुश्किल है, पहला कारण है- भारत में जनगणना जाति के आधार पर नहीं होती, अगर होती भी है, तो उसे सरकार तक सीमित रखा जाता है और दूसरा कारण है क्योंकि इनमें से अधिकांश कहीं एक जगह ठहरते नहीं हैं। 1961 के आसपास ओड़िशा में इनकी संख्या लगभग पच्चीस हज़ार थी। आज ये लगभग ओड़िशा के हर ज़िले में (कटक, पुरी, केंद्रापड़ा, बालेश्वर, संबंलपुर, ढेंकानाल में अधिक) परिव्याप्त हैं। इस दृष्टि से अब इनकी संख्या 25000 से कम या ज़्यादा हो सकती है। ये अपने नाम के साथ दास, नाथ, मिश्र आदि जोड़ते हैं। इस तथ्य से यह अवश्य ही प्रतीत होता है कि ओड़िशा में गोरखनाथ की परम्परा जोगी या योगी के रूप में अब भी विद्यमान है। गोरखनाथ स्वयं योगी थे।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने ‘कबीर’ नामक पुस्तक में कबीर के बहाने योगी या जोगी जाति का विश्वकोश ही तैयार कर दिया है। उन्होंने यह सिद्ध किया है कि कबीर के माता-पिता जुलाहे थे और जुलाहा जाति कभी भारत में जोगी जाति हुआ करती थी, जिसने हिंदू धर्म में अपने सही स्थान को न प्राप्त कर पाने की वजह से सामूहिक रूप से धर्म परिवर्तन किया होगा। उपर्युक्त ये बातें कबीर को जुलाहा जाति से होते हुए, जोगी और गोरखनाथ से जोड़ती हैं। गोरखनाथ की कितनी ही बातें, सीधी या परोक्ष रूप से कबीर तथा अन्य संतों में विद्यमान थी, और वही बातें, ओड़िशा की भक्ति-परम्परा में गोरखनाथ से सीधा और कबीर से परोक्ष रूप से (बीजक के ज़रिए) आकर, उसे समृद्ध किया है। पंच-सखाओं के अन्यतम निधि जशोबंत दास ने ‘गोविंद चंद्र’ लिखकर जोगी साहित्य को समृद्ध किया है। विद्वान मानते हैं, पंच सखाओं के पाँचों कवि, यद्यपि ऊपर से वैष्णव थे किंतु अंतर आत्मा से ये मध्यम-मार्गी बौद्ध थे।(अशोक के फूलः हमारे पुराने समय के इतिहास की सामग्री, पृष्ठ- 83) इनमें से अधिकांश ने अष्टांग योग, सूर्य-चंद्र, नाद-बिंदु आदि कई सिद्ध-नाथों के पारिभाषिक शब्दों का अपनी रचनाओं में प्रयोग किया है। कवि अच्युतानंद दास की ‘शून्य संहिता’ में गोरखनाथ का नाम आना और उन्हें सहजिया धर्म के प्रधान प्रचारक के रूप में ग्रहण करना इस बात को प्रमाणित करता है कि गोरखनाथ अपने जीवनकाल में सिर्फ ओड़िशा में आए नहीं थे, अपितु यहाँ पर कुछ काल अवश्य ही ठहरे हुए थे।
श्री कुबेर दलाई ने अपनी कृति ‘खोरधा र प्राचीन साहित्य’ में गोरखनाथ के सम्बन्ध में लिखा है-
“… भुवनेश्वर के निकट प्राची नदी के पास इनका (गोरखनाथ का) आश्रम था।अपना अनेक समय उन्होंने यहाँ बिताया है। इन्होंने ओड़िया में ‘सप्तांग जोग’ नामक एक पोथी की रचना की थी। ओड़िया के अलावा इन्होंने हिंदी और बांग्ला में भी रचनाएँ की हैं।…. निस्संदेह ही यह कहा जा सकता है कि गोरखनाथ 15 वीं शताब्दी के पूर्व ही हो चुके थे। 18 वीं शताब्दी के दीनकृष्ण दास ने अपनी रचना ‘रस विनोद’ में गोरखनाथ को वैष्णव धर्मावलंबी माना है। गोरखनाथ किस देश के थे, इसके सम्बन्ध में कोई विशेष तथ्य अब तक उपलब्ध न हो सका है। किंतु चाहे वे किसी भी देश के क्यों न हों, उन्होंने अपना अधिकांश जीवन भुवनेश्वर के निकट बिताया था और ओड़िया भाषा में क्योंकि उन्होंने पुस्तक रचना की हैं, अतः उनको ओड़िया कवि-समाज में स्थान प्राप्त हुआ है।” (ओड़िशा र नाथ सम्प्रदाय ओ नाथ साहित्यः पृ.- 5)
मैंने पहले ही ओड़िशा में स्थित गोरखनाथ के मठों के सम्बन्ध में चर्चा की है। ये ओड़िशा भर में जगह-जगह फैले हुए हैं। केंद्रापड़ा का कियारबा गोरखनाथ का एक प्रधान मठ है। किंवदंती बताती है कि उस मठ को शैलनाथ महंत ने बनाया था, सम्राट अक़बर के समय ये पंजाब के गोरेखपुर ज़िले से आए थे। यहाँ के महंत और उनके शिष्य कानचिरा या कानफटा योगी के नाम से ख्यात् हैं।जब से वे आए हैं, तब से वहाँ के राजा शैलनाथ से गोरखधंधा, त्रिशूल और शंख लेकर राजकाज करते आ रहे हैं। भुवनेश्वर का कपाळी मठ योगियों का अन्यतम मठ है। इसके अलावा पुरी ज़िले में स्थित पाणिदोळ मठ, कटक की आळि में, तथा ढेंकानाळ के कपिळास में इनकी संख्या आज भी बहुत अधिक देखने को मिलती है। संबंलपुर में ये पश्चिमीया योगी नाम से प्रसिद्ध हैं। एक समय ऐसा था जब संबंलपुर मध्यप्रदेश के साथ मिला हुआ था, इसी कारण इन्हें पश्चिमीया योगी कहा जाता था। ये दो प्रकार के थे- कनफटा(कानफटा) और अघोरी योगी। कनफटा अपने साथ ‘नाथ’ लगाते थे और अघोरी अपने साथ ‘दास’ लगाते थे। संबलपुर अंचल में ये ‘पश्चिमीया योगी’ कानफटा योगी नाम से जाने जाते हैं(हिंदी प्रदेशों में इनकी एक बड़ी संख्या है)।उषाकाल से ही ये भिक्षाटन करने निकल पड़ते हैं। लोकी से थाल बना कर कान में कुंडल, हाथों में तांबें के बड़ी कंगन पहनकर तथा श्वेत वस्त्र धारण करके ये घर घर घूमकर भिक्षा मांगते हुए दिख जाते हैं। भिक्षाटन के समय ये ‘टीकागोविंद चंद्र’ या फिर जशोबंत दास विरचित ‘गोविंद चंद्र’ की पंक्तियों को गाते हैं। :-ओड़िशा रे नाथ सम्प्रदाय- बंशीधर महांतिः पृ- 8
जगन्नाथ पुरी में भी इनका एक मठ है। इसको बनाने वाले सत्यनाथ थे अतः इसे सत्यनाथी मठ कहा जाता है। सत्यनाथ नाथ सम्प्रदाय के बारह पंथों में से एक, ‘सत्यनाथी’ के प्रवर्तक हैं। पुरी में यह विश्वास है कि कान को छेदने की परम्परा मच्छंदरनाथ से शुरू हुई थी।(पृ-9)
ब्रिग्स ने इस मठ के बारे में लिखा है, जिसका उन्होंने परिभ्रमण किया था-
“In the city of Puri (Jagannath Puri) is a gaddi, or seat, of the Satnath sect of Kanphatas. The establishment shows some signs of age. The grounds are fairly large, but the buildings are small and the temple has a thatched roof. In the front of the latter is a pillar surmounted by an image of Garuda. Another temple, also with a thatched roof, contains an image of Bhairom with three heads and one leg.There is a shrine also to Alaknath, There are a few samadhis, one with a long wooden Linga over it. The Mahanta wore a patch work coat and cap. which he said were distinctive of the Satnath sect. He carried a ‘club’ made of straw and covered with cloth, called sudarshana, and had wristlets and armlets of copper from Kedarnath and of iron from Badrinath, His ear-rings were of copper and were cylindrical. His name was Nardharinath.” ‘गोरखनाथ एंड कनफटा योगिस’ (पृ- 124)
उपर्युक्त सभी तथ्य यह सिद्ध करते हैं कि ओड़िशा में न सिर्फ गोरखनाथ की परम्परा का एक अंश विद्यमान है, अपितु वह सुपरिव्याप्त और सुप्रसिद्ध भी है। ओड़िशा में अनंत काल से भक्ति की दो धाराएँ अनवरत प्रवाहमान हैं, जो जन-मानस को परितृप्त तथा भक्ति रसामृत प्रदान करती आई हैं। उनमें एक है- जगन्नाथ दास कृत ओड़िया भागवत और दूसरा गोरखनाथ सम्प्रदाय के जोगियों की लिखित और मौखिक कविताएँ। एक सगुण, तो दूजा निर्गुण। एक घर-घर में भागवत- टूंगी के रूप में परिचित और विद्यमान है, तो दूसरा अनंत काल से ग्राम पथ में ‘गोविंद चंद्र’ या ‘टीका गोविंद चंद्र’ के रूप अनुगुंजित हो रहा है। एक संध्या में प्रतिध्वनित होता है तो दूसरा दिवस वेला में। उषाकाल से ही जोगी लोग केंदरा (इकतारा की तरह का वाद्ययंत्र) पकड़कर ग्रामों के घर-घर घूमकर, गोविंद चंद्र गाकर, नीति शिक्षा देते हुए और भिक्षाटन करते हुए दिखते हैं। शाम को लोग हर घर में शंख-घंट ध्वनि आदि के साथ भागवत पढ़ते हुए ग्राम-वातावरण को भक्तिमय करते हैं।
समय की गति में बहकर भारत की जनता गोरखनाथ के महत्त्व को भूल गई थी, आज फिर से ‘गोरखधंधा’ शब्द पर हुए विवाद ने भारतीय जनता की स्मृति को जगा दिया है। वह भी ऐसे समय पर जिस समय उनके जैसे महान् गुरुओं के नाम से स्वार्थ की सत्ता और व्यवसाय क़ायम किए जा रहे हैं। धर्म के नाम पर देश को बाँटा जा रहा है। अराजकता हद पार कर चुकी है। इस संसार का नियम है, जो कोई भौतिक रूप से इसे त्यागता है, वह वापस कभी नहीं आता। गोरखनाथ ने आज से क़रीब हज़ार साल पहले से ही इस संसार को त्याग दिया था, वे और कभी वापस नहीं आएँगे। किंतु उनकी गाथाएँ अब भी हमारे साथ हैं। उनकी ओजस्वी वाणियाँ अब भी लौकिक जगत् में विद्यमान है। महान् इंसान मरता है, उसकी कृति कभी नहीं मरती। वह लोक में सदैव विद्यमान रहकर उसे राह दिखाती है। एक जन्म लिया हुआ इंसान को तथा उससे जुड़े एक शब्द को अगर हम याद कर रहे हैं, तो निश्चय ही उसका विशेष महत्त्व है (कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी…)। आज फिर से समय आ गया है, कि हम असली धर्म को पहचानें। प्राचीन गुरु और उनका धर्म, हममें बिलगाव पैदा करना कतई नहीं सिखाते, अपितु सहीष्णुता, भातृ-सौहार्द तथा एकत्र रहना सिखाते हैं। अगर अखंड भारत को बनाए रखना है, तो हमें अंधविश्वास तथा अंधानुकरण से बचना होगा। यही मानवता के विकास सर्वप्रमुख एवं एकमात्र साधन है।
संदर्भ ग्रंथः
- नाथ सम्प्रदायः आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदीः हिंदुस्तानी अकादमी, उत्तरप्रदेश, इलाहाबादः1950
- अशोक के फूलः हजारी प्रसाद द्विवेदीः लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
- भारतीय साहित्य के निर्माता, गोरखनाथः नागेंद्रनाथ उपाध्यायः साहित्य अकादमी
- कबीरः हजारी प्रसाद द्विवेदीः राजकमल प्रकाशन
- ओड़िशा र नाथ सम्प्रदाय ओ नाथ साहित्यः डॉ. बंशीधर महांतिः फ्रेंड्स पब्लिशर्स
- गोरखनाथ एंड दी कनफटा योगिसः जॉर्ज वेस्टन ब्रिग्सः मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स