नाटक
सामाजिक जटिलताओं की राजनीतिक अभिव्यक्ति
भीष्म साहनी का ‘मुआवज़े’ नाटक
यह वर्ष भीष्म साहनी का जन्म शताब्दी वर्ष है. इसी अवसर पर उनके प्रसिद्द नाटक ‘मुआवज़े’ पर केंदित रामविनय शर्मा का यह लेख महत्त्व का है –
स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी साहित्य में भीष्म साहनी सर्वाधिक बहुप्रसूत रचनाकारों में से एक हैं । वे ऐसे रचनाकार के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित होते हैं जिनके लेखन में सामाजिक दायित्वबोध के साथ साहित्य एवं समाज की बदलती हुई चेतना को पहचानने तथा उसकी सूक्ष्म–संवेदी पड़ताल करने की भरपूर सामर्थ्य दिखाई देती है । नयी सृजन सम्भावनाओं के प्रति संवेदनशील रहते हुए वे हमेशा मनुष्य मात्र की गरिमा के पक्ष में खड़े रहे ।उनकी रचनात्मक दृष्टि में आत्मीयता की झलक मिलती है । यह आत्मीयता स्त्री एवं समाज के अन्य कमजोर वर्गों के चित्रण में अधिक सघन होकर उभरी है । पात्रों के साथ उनका भावनात्मक लगाव उनके समूचे साहित्य में झलकता है । उनकी रचनाओं में साधारणजन के हृदय एवं मन को छूने की सामर्थ्य है । राजनीति, समाज और संस्कृति से जुड़े प्रश्नों एवं चुनौतियों से टकराते हुए भीष्म साहनी ने कहानी, उपन्यास तथा नाटकों के माध्यम से अपनी सम्भावनाओं को नये आयाम दिये । उनकी रचनाओं में लेखक के संवेदन को छूने और उद्वेलित कर देने वाले मनुष्य के विविध अनुभव, घटनाएँ, पारस्परिक सम्बन्ध, सामाजिक संघर्ष, विसंगतियाँ, कड़वाहट, अन्तर्विरोध और विडम्बनाएँ–सभी कुछ मिलकर अभिव्यक्ति की दिशा तय करते हैं । पंजाबी, उर्दू तथा अन्य स्थानीय बोलियों पर उनका अधिकार देखते ही बनता है । भीष्म साहनी यह मानते हैं कि साहित्य हमारे समाज में सक्रिय शक्तियों की भूमिका को समझने में मदद ही नहीं, सचेत भी करता है । यही साहित्य की सामाजिक भूमिका होती है । उल्लेखनीय है कि भीष्म साहनी ने अपनी फुफेरी बहनों – सत्यवती एवं पुरुषार्थवती, ख्याति प्राप्त लेखक चन्द्रगुप्त विद्यालंकार, बड़े भाई बलराज साहनी तथा कॉलेज के दिनों में अपने अँग्रेजी प्रोफेसर जसवंत राय के सान्निध्य में साहित्य का संस्कार पाया था और बलराज साहनी के साथ बचपन से ही नाटकों में हिस्सा लेते रहे । यही नहीं, बचपन के हलचल भरे वातावरण ने उन्हें अन्दर से भावनात्मक भी बनाया । उनकी रचनाओं में मिलने वाली भावनात्मकता का स्रोत उनके बचपन का वातावरण ही है । इस भावनात्मकता की प्रचुरता के कारण वे हाशिये के पात्रों के साथ सहज आत्मीय सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं । उनके लेखन में संघर्षशील सामाजिक चेतना के साथ कलात्मकता के भी दर्शन होते हैं । जहाँ तक उनके नाट्यलेखन की बात है, कथा–साहित्य की तरह इसमें भी समकालीन सन्दर्भों को उभारा गया है, भले ही कथानक पौराणिक हों अथवा ऐतिहासिक ।उनके पात्र निरन्तर संघर्षशील रहते हुए निरन्तर अन्याय का प्रतिकार करते हैं । उनके समूचे लेखन से गुजरते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि अपने लेखन के लिए संघर्ष–चेतना उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय हिस्सेदारी से ही पायी है ।
भीष्म साहनी के कुल छह नाटक प्रकाशित हुए हैं । ये नाटक हैं – ‘हानूश’, ‘कबिरा खड़ा बजार में’, ‘माधवी’, ‘मुआवज़े’, ‘रंग दे बसन्ती चोला’ और ‘आलमगीर’ । ‘हानूश’ उनका पहला, महत्त्वपूर्ण और चुनौती भरा नाटक है । यह नाटक स्वयं भीष्म साहनी की नाट्यालेखन सामर्थ्य का नव्य शिखर है । इसका कथ्य विदेशी पृष्ठभूमि पर आधारित है जिसमें एक साधारण कुफ्लसाज के जीवन–संघर्ष एवं सत्ता की संवेदनहीनता को उभारा गया है । इसका नायक हानूष हमारे समाज का एक तुच्छ नागरिक भी हो सकता है जिसके जीवन का सत्ता के लिए कोई मोल नहीं होता । ऐसे लोगों के श्रम एवं साधना को पुरस्कृत–प्रोत्साहित करना तो दूर, सत्ता अपनी समूची संवेदनहीनता के साथ इनके साथ अमानवीय व्यवहार ही करती है । इस नाटक का सन्दर्भ आपात् काल की अधिनायकवादी शासन–व्यवस्था से भी सम्बद्ध है जब जनसामान्य को उसके मौलिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया था । भीष्म साहनी के इस नाटक ने रंगकर्मियों का /यान अपनी तरफ खींचा और एक खास रुचि वाले दर्शक वर्ग की बँधी–बँधायी चेतना में विक्षोभ पैदा किया । नाटक में कोई नवीन प्रयोग नहीं किया गया है । इसका कथ्य ही अपने–आप में एक नया प्रयोग है । भीष्म साहनी का दूसरा नाटक ‘कबिरा खड़ा बजार में’ कबीर की आ/यात्मिक ऊँचाई एवं समर्थ कवि व्यक्तित्व के बरअक्स उनके क्रान्तिदर्शी सामाजिक पक्ष को पूरी सहानुभूति एवं आदर के साथ प्रस्तुत किया गया है । मध्यकाल की राजसत्ता एवं समाजसत्ता के अविवेकी, दुराग्रही, अहंग्रस्त एवं असहिष्णु स्वरूप के अलावा यह नाटक अपने समय की चेतना, द्वन्द्व एवं विद्रूप को जीवन्त कर देता है । इस नाटक के कबीर सत्य के लिए कभी न डिगने वाले योद्धा के रूप में उपस्थित होते हैं जिसमें सभी प्रकार की सत्ताओं से एक साथ जूझने की अपराजेय शक्ति मौजूद है । वातावरण को विश्वसनीय बनाने के लिए नाटककार ने स्थानीय बोली के शब्दों का व्यवहार किया है । इससे नाटक निस्सन्देह जीवन्त, प्रभावी एवं प्रामाणिक लगता है । भक्ति आन्दोलन की समाजोन्मुखता के सन्दर्भ में इस नाटक की उपयोगिता बढ़ जाती है । अपने तीसरे नाटक ‘माधवी’ के लिए उन्होंने महाभारत के एक प्रसंग को आधार बनाया है । यह स्त्री–केन्द्रित नाटक है । इस नाटक की केन्द्रीय पात्र माधवी पौराणिक होते हुए भी आधुनिक जीवन के प्रश्नों से टकराती है । स्त्री–जाति की वर्तमान पीड़ा माधवी की चेतना में घुल–मिलकर उसकी यातना की निरन्तरता की अनुभूति कराती है । स्त्री–जाति की पीड़ा को संवेदनशीलता के साथ उभारते हुए भीष्म साहनी ने इस नाटक में न सिफर्’ अपनी स्त्री–सम्बन्धी दृष्टि को प्रक्षेपित किया है, बल्कि माधवी को शोषण के विरोध और स्त्री–अस्मिता के पक्ष में खड़ा करके मुक्ति के विचार को आगे बढ़ाया है । ‘रंग दे बसन्ती चोला’ में इतिहास की उस त्रासदी को कथानक बनाया गया है जिसे जलियाँवाला बाग नरसंहार के नाम से जाना जाता है । यह घटना अँग्रेजी साम्राज्य की बर्बरता का चरम भयावह रूप थी जिसने उसकी आधुनिकता एवं सभ्यता की दावेदारी को गहरे प्रश्नांकित किया और स्वाधीनता आन्दोलन को नयी ऊर्जा प्रदान की । यह नाटक एक तरफ तत्कालीन इतिहास से हमारा परिचय कराता है तो दूसरी ओर राजसत्ता की संवेदनहीनता को उजागर करते हुए उसके चरित्र एवं मनोनिर्मिति को भी प्रस्तुत करता है । अँग्रेजी राज ने राष्ट्रीय आन्दोलन को कुचलने के लिए जो तरीका अपनाया उसका उद्देश्य हिन्दुस्तानियों को सबक सिखाना था ताकि वे अँग्रेजी साम्राज्य की अपराजेय शक्ति के आगे फिर से सिर उठाने की हिम्मत न जुटा सकें । ‘आलमगीर’ के केन्द्र में मुगल साम्राज्य का आखिरी ताकतवर बादशाह औरंगज़ेब अपनी सारी कट्टरता एवं निर्ममता के साथ उपस्थित हुआ है । इतिहास ने उसके प्रति तृणमात्र भी संवेदना नहीं दिखायी है । वह भारतीय इतिहास का एक ऐसा पात्र है जिसने भारत की बहुलतावादी संस्कृति पर कठिन प्रहार करते हुए धार्मिक असहिष्णुता की सारी सीमाएँ लाँघ दी थीं । उसी ने मानवतावाद को अपना धर्म मानने वाले अपने ही सहोदर की छलपूर्वक निर्मम हत्या करवा दी थी और भाई का कटा हुआ सिर देखकर उसे परम आनन्द की अनुभूति हुई थी । यह वही औरंगज़ेब था जिसे इस्लाम के अतिरिक्त और कुछ भी दिखाई नहीं देता था और जो समूचे भारत पर राज करने का सपना देखते–देखते एक दिन निपट अकेला हो गया था । वह इस नाटक का एक ऐसा पात्र है जिसे दूसरों पर क्या, अपने पर भी भरोसा नहीं रहता । ऐसे ‘संवेदनहीन, शंकालु तथा कट्टर’ पात्र के साथ वामपन्थी भीष्म साहनी भी कोई सहानुभूति नहीं दिखा सके । दूसरे शब्दों में, उन्होंने भी ‘आलमगीर’ की संरचना में ऐतिहासिक तथ्यों के अनुरूप ही औरंगज़ेब के व्यक्तित्व का निर्माण किया है ।
सामाजिक शक्तियों के पारस्परिक टकराव और उसके चरम रूप को सामान्यतया नाटक की केन्द्रीय विषयवस्तु के रूप में स्वीकार किया जाता है । इस सन्दर्भ में एक अवधारणा टकराव को आवश्यक मानती है जबकि दूसरी अवधारणा के अनुसार इस टकराव को समाप्त कर देना चाहिए । भीष्म साहनी का नाटक ‘मुआवज़े’ इस दूसरी अवधारणा को आगे बढ़ाता है । इस नाटक में वर्गीय टकराव की प्रत्यक्ष स्थितियाँ बहुत स्पष्ट नहीं हैं । जो कुछ है वह पर्दे के पीछे से संचालित होता है । यहाँ नेता, पुलिस–प्रशासन, व्यवसायी, अपराधी और साधारण जनता सभी एक–दूसरे में घुलमिल गये से लगते हैं । ऐसे में नाटक की स्थितियाँ अधिक संश्लिष्ट हो गयी हैं । ‘मुआवज़े’ स्वातन्त्र्योत्तर भारत की राजनीतिक स्थिति पर करारा व्यंग्य है । साम्प्रदायिक दंगे भड़कने की सम्भावना के बीच राजनीति, प्रशासन, आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न वर्ग, अपराधी और नागरिक समाज किस प्रकार इस तनावपूर्ण स्थिति का सामना करते हैं, इसी यथार्थ को आधार बनाकर नाटक का ताना–बाना बुना गया है । यह नाटक गुण्डा राजनीति की वास्तविकता को हमारे सामने प्रस्तुत करता है । राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमण्डल, नयी दिल्ली द्वारा मेघदूत थियेटर में एम–के– रैना के निर्देशन में इसका सबसे पहला मंचन अक्टूबर, 1992 में हुआ था । यह नाटक रंगकर्मियों, निर्देशकों एवं दर्शकों के बीच इतना लोकप्रिय हुआ कि अधिकांश चर्चित रंगटोलियों ने इसका मंचन किया । ‘मुआवज़े’ के विवेचन के प्रसंग में यह उल्लेखनीय है कि यह नाटक भीष्म साहनी के अन्य नाटकों से बिल्कुल भिन्न है, कथ्य एवं शिल्प के धरातल पर । भाषा भी अलग है । जनता के बीच से उठाई गयी है । एक अलग ही तेवर है इसका, जो कथ्य को धारदार बनाती है, प्रामाणिक और प्रासंगिक भी । उनके दूसरे नाटकों के कथ्य मिथक और इतिहास पर आधारित हैं, अतीत अथवा प्राचीन से घिरे हुए । जबकि ‘मुआवज़े’ का कथ्य सीधे वर्तमान पर टिका हुआ है, वर्तमान में आवाजाही करता, उससे टकराता हुआ अपना विमर्श रचता है । समग्रता में देखें तो भीष्म साहनी का रचनाकार वर्तमान से पलायित होकर प्राचीन का गौरवगान करने का अभ्यस्त नहीं है । राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी करने वाले भीष्म साहनी ने जिस राजनीति एवं समाज का सपना देखा था वह स्वाधीनता के बाद साकार नहीं हुआ । बल्कि इसके विपरीत वह सब कुछ होने लगा जो नहीं होना चाहिए था । ऐसे में भीष्म साहनी ने अपने लेखकीय दायित्व का निर्वाह करते हुए लेखन में उन्हीं सरोकारों को व्यक्त किया है जिनका जनता से गहरा नाता है और आजादी के बाद पैदा हुई राजनीतिक परिस्थितियों ने जिन पर सबसे अधिक चोट की है । राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान कोई सोच भी नहीं सकता था कि आजादी मिलने के बाद देश की राजनीति में गुण्डों का प्रभुत्व इतना अधिक बढ़ जाएगा कि वे हमारे ऊपर राज करने लगेंगे । हमारे वर्तमान का सत्य यही है कि हमारे राजनीतिक ढाँचे में अपराधियों के लिए पर्याप्त सम्भावनाएँ मौजूद हैं । इसमें जनता के नाम पर जनहित का तिरस्कार और अपराधियों के लिए पुरस्कार आम बात है । यह यथार्थ राष्ट्रीय आन्दोलन की स्वप्नदर्शिता के सर्वथा विपरीत है । भीष्म साहनी साम्प्रदायिक दंगों को पूर्वनियोजित मानते हैं । इस नाटक में भी उनकी यही धारणा पुष्ट हुई है ।
भीष्म साहनी जब ‘मुआवज़े’ में राजनीति, प्रशासन और गुण्डाराज की सत्ता का विमर्श रचते हैं तो उनकी दृष्टि जनता की बदलती मनोवृत्ति की भी गहराई से पड़ताल करती है जो छोटे–छोटे स्वार्थों के लिए तरह–तरह की चालाकियाँ बुनती रहती है । यह वो जनता नहीं है जिसके प्रति भीष्म साहनी ने अपने लेखन में सहानुभूति और संवेदना व्यक्त की है, जिसके हितों एवं मानवीय गरिमा के पक्ष में रचनात्मक प्रतिबद्धता दिखाई है । दंगे के बाद मिलने वाले मुआवज़े के चारों तरफ नाटक की घटनाएँ घूमती हैं । नाटक में दिखाया गया है कि दंगा होने से पहले ही मुआवज़ा देने की तैयारी कर ली गयी है । बस दंगा होने भर की देरी है । मानो यह दंगा नहीं, कोई प्राकृतिक आपदा आने वाली हो । हालाँकि यह भी सच है कि शासन–प्रशासन प्राकृतिक आपदाओं के वक्त इतना मुस्तैद कभी नहीं रहता जितनी तत्परता वह दंगे की सम्भावना को लेकर दिखाता है । दरअसल, राजनीति को चमकाने, चुनाव में उसकी फसल काटने और लूट–खसोट करने का जैसा सुनहरा मौका दंगा होने से मिलता है वैसा दूसरे कामों में कम ही मिल पाता है । दंगा एक ऐसा अवसर है जिसका लाभ नेताओं, अफसरों, व्यापारियों, दलालों और अपराधियोंµसभी को भरपूर मिलता है । इस नाटक में दंगों की गति की को दृश्य रूप में प्रस्तुत करते हुए भीष्म साहनी ने प्राय: एक ‘अलक्षित’ रह जाने वाले पक्ष पर भी ‘फोकस’ किया है जिसे जनता कहा जाता है और जो अब उतनी भोली–भाली नहीं रह गयी है जितना उसे समझा जाता रहा है । जनता में उग आई चतुराई को दिखाने के लिए नाटककार ने दीनू के साथ शान्ति के विवाह का प्रसंग रचा है ।
‘मुआवज़े’ के पहले दृश्य में कमिश्नर को टेलीफोन पर निर्देश देते दिखाया गया है । वह कह रहा है कि –‘अगर हालात इसी तरह बिगड़ते गये तो सोमवार तक दंगा हो जाना चाहिए’ ।––––‘अबकी बार दंगा ज़बर्दस्त होगा’ ।––––‘उम्मीद है, सोमवार तक दंगा हो जाएगा’ । उसकी बातों में जो विश्वास झलकता है उससे तो यही जाहिर होता है कि दंगा कराने की कोई योजना पहले से बना ली गयी है जिसमें मन्त्री, अफसर और गुण्डे शामिल हैं । ‘मुआवज़े’ का यही सारतत्तव है । समूचा नाटक इसी के इर्द–गिर्द घूमता है । मन्त्री को अलग–अलग मौकों पर जारी करने के लिए अलग–अलग लिखित बयान चाहिए । पहला बयान भावनात्मक, दूसरा मुआवज़े के ज़िक्र वाला और तीसरा जनतन्त्रात्मक मूल्यों–मान्यताओं–आदर्शों के बारे में । यह सीधे–सीधे जनता को बेवकूफ बनाना है । हमारे देश में राजनीति का मतलब जनता को छलना एवं उसका भावनात्मक दोहन करना है । इस नाटक का सक्सेना पेशेवर भाषण लेखक है । वह पक्ष–विपक्ष सबके लिए भाषण लिखता है । उसे सिर्फ़ पैसा चाहिए । दंगों में मार–काट करने वाले भी पेशेवर हैं । पैसा पाकर अपने ही जाति–धर्म वालों की हत्या करने में उन्हें कोई गुरेज नहीं है । हथियार बेचने वाला यह नहीं देखता खरीदने वाला हथियार का इस्तेमाल कब, कहाँ, कैसे और किसके खिलाफ करेगा । भाषण देते हुए कोई कुछ भी कह ले, जनतन्त्र एवं आदर्शों की दुहाई दे लेय लेकिन निष्ठा और ईमानदारी तो कहीं नहीं दिखाई देती । मकान खाली करवाना हो अथवा जमीन पर कब्जा करवाना हो, बड़ी–बड़ी आँखों और फनियर मूँछों वाला दस–नम्बरी गुण्डा चुटकी बजाते यह काम कर देता है । सेठ को अपनी फैक्टरी से जुड़ी सरकारी जमीन पर कब्जा करना है तो अफसरों तथा गुण्डों से मिलकर हो सकता है । उसे भी पक्का यकीन है कि ‘दंगा होकर रहेगा’ । गुमाश तो सारा शहर खाली करवा देने का दम भरता है । यह इक्कीसवीं सदी के समाज की तस्वीर है जो लोगों को ‘उत्तरआधुनिक सभ्य सुसंस्कृत कसाई’ बनाने पर आमादा है । भीष्म साहनी की सर्जनात्मक दृष्टि में रच–बस कर वर्तमान का यह विद्रूप ‘मुआवज़े’ के रूप में अभिव्यक्त हुआ है ।
‘सबसे बड़ी ताक़त बेईमानी में है’- सुथरा की यह व्यंग्योक्ति किसी को चुप कराती है, किसी को हँसाती है । यह ताक़त चारों तरफ अपना रौब गालिब कर रही है । ईमानदारी किताब के पन्नों में छिपकर बैठ गयी है । पुरानी अवधारणाएँ बदल चुकी हैं । अब विकास की सारी सम्भावनाएँ भ्रष्टाचार में टटोली जा रही हैं । सुथरा ठीक ही तो कहता है – ‘‘मुट्ठी गर्म करोगे, काम आगे बढ़ेगा । सदाचार के उपदेश झाड़ोगे, फाइलें वहीं–की–वहीं पड़ी रहेंगी, उन पर धूल जमती रहेगी ।’’ हथियारों का दुकानदार छोटेलाल को धर्मभाई’ कहता है, ‘दुश्मनों’ को पाँच सौ छुरे बेचता है, बिना पैसे की सलाह देता है और रामायण को सभ्यता का निचोड़ बताता है । उसकी कथनी–करनी में कोई मेल नहीं है । कथनी–करनी का यही द्वैत ‘उत्तरआधुनिक मनुष्य’ की विशेष पहचान बन गया है । ‘मुआवज़े’ का एक प्रमुख पात्र जग्गा ठेके अथवा दिहाड़ी पर लोगों की हत्या करने का ‘धंधा’ करता है । उसका कहना है कि, ‘‘हम तो हर कौम के आदमी को मारते हैं, हमारे लिए सब बराबर हैं, जो सामने आ जाये । चुन–चुनकर मारना ज़्यादा मुश्किल होता है ।––––तुम्हें कौन–से अमीरजादे और लखपति मरवाने हैं, यही मोची–नाई–मजदूर मरवाओगे ।’’ उल्लेखनीय है कि हथियार के दुकानदार की तरह जग्गा भी कौम की दुहाई देने से नहीं चूकता । सच ये है कि इन दोनों को कौम से नहीं, पैसे कमाने से मतलब है । भीष्म साहनी ने वृहत्तर यथार्थ के रूप में इस मनोवृत्ति की पहिचान की है और यह दिखाने की कोशिश की है कि धर्म एवं जाति की दुहाई देने वाले अनैतिक ही नहीं, भ्रष्ट और संवेदनहीन होते हैं । इस मनोवृत्ति के लोग राजनीति, धर्म एवं समाज को विभाजित करके सिर्फ़ अपने फायदे के बारे में सोचते हैं । इनके लिए अपना–पराया कोई नहीं होता । जग्गा के कथन से यह भी स्पष्ट होता है कि दंगों में हमेशा गरीब एवं समाज के निचले वर्ग के लोग ही मारे जाते हैं और उनकी मौत पर नेता, व्यापारी तथा अपराधी अपना धन्धा करते हैं । समूची व्यवस्था इस निर्मम कार्य–व्यापार को निस्पृह भाव से देखती है । ‘आग लगाने का काम कुत्ता काम है’ और ‘कत्ल का काम शाही काम है’- ऐसा कहने वाला जग्गा देखते–देखते एक दिन अपराधी से राजनेता बन जाता है । मुआवज़े के पैसों को लूटकर जिस तरह वह जनता के बीच लोकप्रियता हासिल करने की कोशिश करता है उससे पुलिस–प्रशासन की लापरवाही तो उजागर हो ही जाती है, यह भी समझना मुश्किल नहीं रह जाता कि सफल नेता बनने के लिए अनैतिक और अपराधी होना कितना ज़रूरी हो गया है । ठेके पर हत्याएँ करवाने और सरकारी पैसे लूटने वाला जग्गा हमारे समय के राजनेता का प्रतिनिधि चरित्र है । ऐसों को पुलिस सुरक्षा प्रदान करती है और जनता दानवीर समझने लगती है । जग्गा का चौधरी जगन्नाथ के रूप में रूपान्तरण अप्रत्याशित नहीं, लम्बी प्रक्रिया का परिणाम है जिसकी शुरुआत आजादी के बाद से ही हो गयी थी । इसे मौजूदा राजनीति का विद्रूप ही कहेंगे कि शासन–प्रशासन जनता के बीच सामंजस्य एवं सौहार्द्र की नहीं, दंगा होने का बेसब्री से इन्तजार करता है । सभी पक्ष अपने–अपने हिस्से का फायदा उठाने के लिए बेचैन हैं । नाटक की घटनाओं को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि इनके लिए दंगा मानवीय त्रासदी नहीं, कुछ पाने का सुनहरा अवसर बनकर उपस्थित होने वाला है । भीष्म साहनी ने इस सम्भाव्य परिघटना को नाटकीयता प्रदान करने के लिए जिस परिवेश का निर्माण किया है वह पूरी तरह से विश्वसनीय लगता है । वंचित समुदाय के लोगों का जीवन न्यूनतम सुविधाओं से इतना वंचित है कि वे भी दंगे के ‘भयावह परिणाम’ के बारे में न सोचकर मुआवज़े में ‘सुखमय भविष्य की सम्भावना’ ढूँढ़ने लगते हैं । एक पिता अपनी बेटी का विवाह दयनीय–गरीब दीनू से सिर्फ़ इसलिए करने पर आमादा है ताकि दंगे में दीनू की हत्या के बाद मिलने वाले मुआवज़े से उसकी शादी फिर से किसी सुयोग्य वर से कर सके । इस नाटकीय वर्णन में भीष्म साहनी की दृष्टि वंचित समुदाय की विपन्न समाजार्थिक स्थिति को उभारने से चूक नहीं सकी है । इस समुदाय के अवसरानुकूल लोभ–लालच पर महीन चोट करते हुए भी उन्होंने वृहत्तर सन्दर्भ में अपनी जनपक्षधरता का निर्वाह किया है ।
‘मुआवज़े’ के नाटकीय विकास–क्रम में एक प्रसंग वह भी आता है जब दीनू और शान्ति एक–दूसरे को सचमुच चाहने लगते हैं । यह प्रसंग नाटकीय विकास में एक हस्तक्षेप है । दीनू और शान्ति के भीतर फूटने वाला प्रेम का भाव नैसर्गिक है, इसलिए मानवीय है । दंगा और मुआवज़ा नैसर्गिक नहीं है किन्तु अवास्तविक भी नहीं है । यह स्वातन्त्र्योत्तार भारत का राजनीतिक यथार्थ है । मृत्यु और उसे भुनाने की कोशिश दोनों प्रायोजित होते हुए भी विश्वसनीय लगती हैं । इस नाटक के पात्र अपने व्यवहार से स्वभाविकता पैदा करते हैं । यह भी सही है कि, ‘‘प्रत्यक्ष रूप से किसी भी साहित्यिक चरित्र में वह विशेषताएँ तथा प्रतिक्रियाएँ नहीं मिलतीं जो स्वयं जीवन में पाई जाती हैं । परन्तु कलात्मक रचना की योग्यता इस बात से प्रकट होती है कि वह सापेक्षिक, अपूर्ण छवि को सम्पूर्ण, जीवित तथा प्रत्यक्ष वास्तविकता प्रदान करती है अथवा नहीं ।’’(जार्ज लूकाच : इतिहास दृष्टि और ऐतिहासिक नाटक–अनु–कर्ण सिंह चैहान, पृ– 91) इसे कला का सामान्य विरोधाभास भी कहा जा सकता है जब कोई भी साहित्यिक कृति ‘अपनी विषयवस्तु और रूप के कारण अपने–आपको जीवन के यथार्थ की जीवित छवि के रूप में प्रस्तुत करने को विवश हो जाती हैं’ । ‘मुआवज़े’ की विषयवस्तु हमारे वर्तमान की जीवन्त छवि है । वर्तमान अस्थिर तो होता है किन्तु यदि वह क्षण–प्रतिक्षण अपना रूप बदलने लगे तो उसकी पहिचान करना कठिन हो जाता है । वह बहुरुपिया हो जाता है जिसका अपना कोई निश्चित एवं विश्वसनीय रूप–धर्म नहीं होता । ‘मुआवज़े’ के कथ्यगत विस्तार में जितने पात्रों की गतिविधियों से हमारा साक्षात्कार होता है वे सभी बहुरूपी हैं, साथ ही प्रामाणिक भी । प्रामाणिक इस अर्थ में कि वे अपने समय के वृहत्तर यथार्थ को ही प्रक्षेपित करते हैं । लूकाच के शब्दों में वे जीवन्त एवं प्रत्यक्ष वास्तविकता का बोध कराते हैं । वास्तविकता का बोध कराने के लिए ही नाटककार ने इसकी संरचना में व्यंग्य, विद्रूप तथा हास्य का यथोचित समावेश किया है । यदि ऐसा न किया जाता तो इस नाटक में वैसी मारक शक्ति नहीं आ पाती, न ही दर्शक पर इसका अपेक्षित प्रभाव पड़ता जैसा यहाँ देखने को मिलता है । यह नाटक रंगकर्मियों एवं दर्शकों के बीच यदि लोकप्रिय हुआ तो इसका प्रमुख कारण सशक्त कथ्य का चुनाव एवं इसकी मारक क्षमता का होना ही है । नाटक के आखिरी हिस्से में सरकारी खजाना लूटे जाने का प्रसंग राजनीतिक विद्रूप को चरम पर पहुँचा देता है । यहाँ नेता और गुण्डा दोनों आपस में घुलमिलकर एक हो जाते हैं । व्यवस्था पंगु हो जाती है । वह खजाने की रक्षा करने में असमर्थ है । जिस पर खजाने की जिम्मेदारी है वह सोया हुआ है, लूटने वाला चैकन्ना और चालाक । खजाना लूटने वाला और कोई नहीं, वही जग्गा नाम का गुण्डा है जो राजनीतिक क्षितिज पर राजनेता के रूप में चौधरी जगन्नाथ के नाम से एक नया अवतार लेकर उभरता है । खजाने की लूट को जनता के बीच बाँटकर वह खुद को जननेता के तौर पर स्थापित करता है और जनता की वाहवाही भी लूटता है । जगन्नाथ चौधरी बना जग्गा ही सिर्फ़ अनैतिक नहीं है, अनैतिकता उस समाज का भी हिस्सा बन चुकी है जो बिना सोचे–समझे ‘बहती गंगा में हाथ धोने’ के लिए तैयार हो जाता है । यह मौजूदा समाज एवं व्यवस्था का ज्वलन्त सच है । इस नाटक का सारतत्त्व भी यही है । नाटक की इसी परिघटना में समाज की व्यापक चिन्ता भी समाहित है । ऐसी मनोवृत्ति के निरन्तर प्रसार से एक सुन्दर समाज की परिकल्पना कैसे की जा सकती है ?
नाटक का प्रयोजन जीवन की प्रक्रिया को साकार रूप देना होता है । नाटक यह कार्य मंच पर अभिनय द्वारा सम्पन्न करता है । अभिनेता अभिनय के माध्यम से मानवीय आकांक्षाओं को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करता है । मानव जीवन में नाटक की अपार सम्भावनाएँ छिपी होती हैं । ऐसे में मनुष्य और उसके जीवन से अनिवार्य रूप से सम्बद्ध इच्छा–आकांक्षाएँ तथा उनकी कलात्मक अभिव्यक्ति समर्थ नाटक की पृष्ठभूमि निर्मित करती हैं । भीष्म साहनी के नाटक ‘मुआवज़े’ के विवेचन के प्रसंग में उपर्युक्त धारणा की पुष्टि होती है । स्वातन्त्र्योत्तर भारत का राजनीतिक–सामाजिक परिदृश्य कोई छोटा–मोटा यथार्थ नहीं है जिसे आसानी से ओझल कर दिया जाये । यह मौजूदा यथार्थ राष्ट्रीय आन्दोलन की विराट संकल्पनाओं, सम्भावनाओं एवं आदर्शों को /वस्त करके निर्मित हुआ है । करोड़ों भारतीयों की इच्छा–आकांक्षाओं को लहूलुहान करते हुए यह निरन्तर पुष्ट होता जा रहा है । ऐसे में यह अधिकांश देशवासियों की विराट चिन्ता का कारण बना हुआ है । ‘मुआवज़े’ के बारे में स्वयं भीष्म साहनी का कहना है कि ‘यह प्रहसन हमारी आज की विडम्बनापूर्ण सामाजिक स्थिति पर किया गया व्यंग्य’ है । उनका यह भी कहना है कि चूँकि इस नाटक में पात्रों की संख्या अधिक है इसलिए मंचन के समय एक–एक रंगकर्मी को एकाधिक भूमिकाएँ निभानी पड़ सकती हैं । निर्देशक के समक्ष नाटक की विषयवस्तु और व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति के बीच सन्तुलन बनाना भी एक बड़ी चुनौती है । निर्देशक एम–के– रैना ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए ‘मुआवज़े’ को पहली बार मेघदूत थिएटर, नयी दिल्ली में मंचित किया । इस प्रसंग को उद्धृत करने का उद्देश्य यह है कि ‘मुआवज़े’ में नाटकीय विकास की ढेरों सम्भावनाएँ मौजूद हैं और यह भी कि ऐसी जीवन्त नाटकीयता जीवन के साथ रचना की गहरी सम्बद्धता से ही आती है । नाटक के पाठ में कोई लोच नहीं दिखाई देती । यह नाटक कहीं–न–कहीं भीष्म साहनी के अन्तस् की छटपटाहट को समझने में हमारी मदद करता है । नाटककार की उलझनें अनेकस्तरीय हो सकती हैं और कहना न होगा कि इस नाटक में आजादी के बाद की निरन्तर जटिल होती जा रही परिस्थितियों को ही केन्द्र में रखा गया है । भीष्म साहनी की बेचैनी का एक प्रमुख कारण वर्तमान का वह विद्रूप है जो नाना प्रकार की स्थितियों एवं पात्रों के रूप में त्रासद प्रभाव के साथ उपस्थित होता है और जिसका राष्ट्रीय आन्दोलन की चेतना से कोई मेल नहीं बैठता । गाँधीवादी–मार्क्सवादी दर्शन का तेज“ जब धूमिल पड़ जाता है, अभिजन से लेकर जनसामान्य तक सभी उलटी चालें चलने लगते हैंय ऐसे ही विकट समय में नाटककार को ‘ताप के ताये हुए दिन’ बेचैन कर देते हैं । नाटक के पात्रों एवं उनकी गतिविधियों को भीष्म साहनी बखूबी जानते–पहिचानते हैं । वे अपने पात्रों का धीरे–धीरे विकास करते हैं और परिवर्तनशील स्थितियों के सापेक्ष नाटकीय प्रवाह को चरम की ओर ले जाते हैं । वस्तुत: ‘‘मद्धिम लय में नियोजित नाटकीय कार्य–व्यवहार अनुभव बिम्बों को सघनतर करता हुआ परिवर्तनकारी स्थिति की अनिवार्यता का दबाव बनाता है । पात्रों का वैचारिक द्वन्द्व, नाटकीय व्यंग्य से सम्प्रेषित अर्थ नाटक के यथार्थ को युग यथार्थ में व्याख्यायित करते हैं ।’’(भूपेन्द्र कलसी : आलोचना, अप्रैल–सितम्बर 2004, पृ– 207) इस नाटक में भी अनेक स्थलों पर रचनाकार के अनुभव–बिम्बों की झलक मिलती है जिससे यह उल्लेखनीय रूप से स्वाभाविक बन पड़ा है । कहना न होगा कि भीष्म साहनी का नाटक ‘मुआवज़े’ अपने समय की अकुलाहट को जो व्यापक फलक प्रदान करता है उसका एक सिरा वर्तमान परिवेश में धसा है तो दूसरा स्वयं नाटककार की परिवेशगत संलग्नता एवं उसके मानसिक उद्वेलन से सम्बद्ध है ।भीष्म साहनी के भीतर प्रगति और परिवर्तन की तड़प तथा भूख स्पष्ट परिलक्षित होेती है । इसे ‘मुआवज़े’ के समूचे स्थापत्य में महसूस किया जा सकता है । उनके लेखन के सरोकार हमेशा बड़े रहे । अगर ‘मुआवज़े’ के बारे में कहा जाये कि यह मनुष्य के बड़े सरोकार को लेकर लिखा गया नाटक है तो असंगत नहीं होगा ।
लेखक – रामविनय शर्मा : जन्म 10 मार्च, 1965य कंजरा दिलशादपुर, आजमगढ़ (उ–प्र–) । जेएनयू नयी दिल्ली से एम–फिल, पी–एच–डी– । गल्प के अन्त%सूत्रों की खोज, यथार्थ की कथा दृष्टि (आलोचना) प्रकाशित । महाराज सिंह कॉलेज, सहारनपुर के हिन्दी विभाग में अ/यापक । सम्पर्क : -+919411038585