नाटक

आधुनिक सन्दर्भों में ‘इला’

प्रभाकर श्रोत्रिय का ‘इला’ नाटक आज के समय में स्त्री-अस्मिता की लड़ाई को अपने ढंग से उठाता है. इस नाटक की बेहतरीन समीक्षा की युवा आलोचक कुसुम लता ने _

 

(इला : प्रभाकर श्रोत्रिय)

पंख न काटो मेरे/मुझको पीड़ा होती है /मत छीनो अधिकार मेरे/मेरे मन में भी कुछ इच्छा है ।

  समय के साथसाथ समाज और उसमे रहने वाले लोगों की सोच में बहुत बदलाव आया है । लेकिन यह भी उतना ही सच है कि नारी को लेकर समाज की सोच उतनी नहीं बदली जितना उसे बदलना चाहिए था । आरम्भ से ही औरत पुरुष के अधीन रही है । औरत की जिंदगी से जुड़े हर निर्णय का फैसला उसका भाग्य विधातापुरुष लेता है । इसी समस्या से जूझती एक नारी के संघर्ष को प्रभाकर श्रोत्रिय ने इलानाटक के माध्यम से अभिव्यक्त किया है । पितृसतात्मक सामन्ती समाज में पुत्री का जन्म किसी अशुभ समाचार से कम नहीं होता है । इसी खोखली सोच के साथ स्त्रीविमर्श का एक नया अध्याय आरम्भ होता है । जिस समाज में पुत्री का जन्म ही स्वीकार्य न हो वहाँ पर स्त्रीपुरुष की समानता की बात करना पूर्णत: निरर्थक है । समाज में नारी को किसी भी रूप में स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं है । फिर चाहे वह माँ, बहन, पत्नी, पुत्री ही क्यों न हो । स्त्री का संवेदनशील हृदय बारबार पुरुष समाज द्वारा छलनी किया गया । स्त्री ने जबजब समाज में अपने अधिकारों के प्रति अपनी आवाज बुलन्द की है तबतब वह समाज विरोधीकहलायी है । समाज में शिक्षा के स्तर में सुधार आया है परन्तु फिर भी स्त्रियों की संख्या कम होती जा रही है । कचरे के ढेर पर पड़े भ्र्रूणों को नोचनोचकर खाते कुत्ते और बिल्लियाँ इस बात के गवाह हैं कि कहींकहीं आज भी इस शिक्षित समाज में लड़की को जन्म देने से पहले मार देना उचित है । यानि स्त्री का वजूद इस पुरुषप्रधान समाज को स्वीकार्य ही नहीं है । यही मनु मानसिकता है जो इलामें स्पष्ट दिखाई देती है ।
  ‘इलाएक मिथकीय नाटक है । मिथकीय कथायें बदलते परिवेश में मनुष्य की नयी नियति को रेखांकित करने का माध्यम बनी है । यही कारण है कि आधुनिक मनुष्य का द्वन्द्व, निराशा, संशय, अजनबीपन, व्यक्तित्व की पहचान आदि विषयों का रचनात्मक प्रयोग इन मिथककथाओं के माध्यम से होता है । मिथक और यथार्थ का अटूट सम्बन्ध है । इलाके माध्यम से प्रभाकर श्रोत्रिय ने भारतीय नारी की दुर्दशा एवं पुरुष वर्ग द्वारा उसके अधिकारों के हनन की गाथा को दर्शाया है । नारी की शक्ति, इच्छा, सुख और उसका अस्तित्व किस प्रकार पुरुष समाज के लिए बलि चढ़ता है इसका जीताजागता उदाहरण यह नाटक है । इलाआधुनिक चिन्तनशील नारी का प्रतीक है । नारी के स्वत्व की पहचान उसकी स्वतन्त्रता से जुडी है । नारी शिक्षा नारी को आत्मनिर्भर बनती है । अगर उसे स्वतन्त्रता दी जाये तो वह भी पुरुष की भाँति अपने दायित्व को भलीभाँति निभा सकती है ।
  नाट्य कथा इस प्रकार हैमनु पुत्र कामेष्टि यज्ञ करता है परन्तु श्रद्धा एक पुत्री को जन्म देती है । मनु का मन समाचार पते ही खिन्न हो जाता है । गुरु वशिष्ठ मनु के कहने पर पुत्री इला को पुत्र सुद्युम्न बनाते हैं । श्रद्धा न चाहते हुए भी स्वीकृति दे देती है । इला से सुद्युम्न बना पुत्र युवा हो जाता है । सुद्युम्न का विवाह धर्मदेव की पुत्री सुमति से करवा दिया जाता है । परन्तु सुद्युम्न का मन नारी सुलभ गुणों से युक्त रहता है । मनु सब जानते हुए भी उसे पूर्ण पुरुष के रूप में देखना चाहते हैं । राज्याभिषेक के उपरान्त सुमति सुद्युम्न को राज्य रक्षा के लिए प्रेरित करती है । शरवन वन में वह पुन: इला बन जाता है । इला का विवाह बुध के साथ हो जाता है । परन्तु गुरु वशिष्ट द्वारा पुन: उसे सुद्युम्न बनाया जाता है । सुद्युम्न राज्य में बढते भ्रष्टाचार को रोकने का प्रयास करता है और साथ ही अपने अस्तित्व को लेकर चिंतित होता है । अन्त में इला पुत्र पुरुरवा के राज्याभिषेक की तैयारी पर नाटक समाप्त हो जाता है । स्वयं नाटककार के शब्दों में -‘‘यह कहानी अनादि काल से हो रहे स्त्री के अपहरण, उसके साथ बलात्कार और उसके लिए जातियों के परस्पर युद्धों की कहानी है ।’’
  प्रजातन्त्र की क्या परिभाषा है, वह नाटक के आरम्भ में ही वाचक के संवाद द्वारा बतायी गयी है । राजा क्योंकि राजा है इसलिए वह जो चाहे कर सकता है । आज के प्रजातान्त्रिक भारत की कहानी क्या इससे कुछ अलग नजर आती है । यज्ञ करवाने के बावजूद भी मनु के यहाँ एक कन्या का जन्म हुआ । लड़की होने का समाचार पाते ही मनु ऐसे हो जाते हैं मानो काटो तो खून ही नहीं । उन्हें समाज का भय सता रहा था कि सब एक राजा की खिल्ली उड़ायेंगे । मनु का क्रोध तब चरम सीमा पर पहुँच जाता है जब उसे ज्ञात होता है कि श्रध्दा ने उसके लिए पुत्री की कामना की थी । वह अपनी पत्नी को सर्पिनी, कृतघ्न तक कह देते है । मनु का पुत्री जन्म के लिए श्रद्धा को दोषी ठहराना कहींकहीं भारतीय समाज की मानसिकता को दर्शाता है । आज भी समाज में कन्याजन्म के लिए पत्नी को दोषी ठहराया जाता है । कभीकभी ये सोचकर भी हैरानी होती है कि क्या अपना अंश मनुष्य को केवल पुत्र रूप में ही प्रिय व स्वीकार्य होता है । आज जरूरत है इस संकीर्ण मानसिकता से समाज को बाहर निकालने की ।
  राजा मनु प्रकृति के साथ खिलवाड़ करता है । विधाता की सुन्दर रचना को अपने अभिमान के कारण बिगाड़ देता है । उसके लिए संतान का अर्थ सिर्फ और सिर्फ पुत्र है । उसके मन में एक भयावह विचार जन्म लेता है । वह अपनीअपनी पुत्री को रासायनिक क्रिया द्वारा पुत्र बनाना चाहता है । इसके लिए वह बिना किसी हिचकिचाहट के गुरु वशिष्ठ से बात करता है । वशिष्ठ एक निरीह पशु की भाँति हो जाते हैं जो राजसत्ता के हाथ की कठपुतली बन जाते हैं । विवश और परास्त मनुष्य की भाँति राजाज्ञा के समक्ष घुटने टेक देता है । इला को यौन परिवर्तन द्वारा सुद्युम्न बनाया जाता है क्योकि रजा मनु को पुत्री नहीं संतान रूप में पुत्र चाहिए था । आज भी हमारा समाज इस संकीर्ण मानसिकता के बोझ को ढो रहा है । प्रसवपूर्व लिंग परीक्षण करवाया जाता है । लड़की होने पर कोख में ही भ्रूण हत्या करवा दी जाती है । मनु उस आधुनिक नेता का प्रतिनिधित्व करता है जो अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए सम्पूर्ण मानवता को दाँव पर लगा देता है । वह घिनौनी राजनीति का हिस्सा होते हुए अपनी पत्नी, पुत्री की भावनाओं से खिलवाड़ करता है । वह श्रद्धा को हर सम्भव प्रयास द्वारा यह समझाने का प्रयास करता है कि राजमहिषी की अपनी कोई इच्छा या खुशी नहीं होती है । सारी खुशियाँ प्रजा के साथ जुड़ी होती हैं । इसलिए लड़की होने पर मनु को लगता है कि उसका साम्राज्य उत्तराधिकारी से वंचित हो गया । यज्ञ का विराट आयोजन भी सफल नहीं हुआ । वह कन्या जन्म को किसी दुर्घटना से कम नहीं मानता । श्रद्धा के सामने ही उसकी पुत्री इला को पुत्र सुद्युम्न के रूप में रासायनिक क्रिया द्वारा परिवर्तित किया जाता है । श्रद्धा भीतरहीभीतर सिसकती रहती है । उसके बाद से ही पूरे नाटक में उसके संवादों में एक अजीबसी विवशता, बेचैनी, पीड़ा, छटपटाहट दिखाई देती है ।
  गुरु वशिष्ठ और राजा मनु इला के यौन परिवर्तन में तो सफल हो जाते हैं परन्तु इला के जीवन में इससे सम्बन्धित अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं । अपनी पुत्री को स्वयं पुत्र बनाकर भी मनु सन्तुष्ट नहीं हो पाता है । वह जानता है कि इला का शरीर तो पुरुष का है परन्तु उसकी आत्मा स्त्री की है । मनु अपना उतराधिकारी पुत्र रूप में चाहता था परन्तु सुद्युम्न उसकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरा । इसलिए मनु कहता है – ‘‘अपनी विसंगतियों को लेकर वह वैसे भी प्रजा में उपहास का पात्र है । उस जैसा आधा पुरुष मनु का उतराधिकारी नहीं हो सकता ।’’ जिस उतराधिकार के लिए मनु ने इला के जीवन से खिलवाड़ किया सुद्युम्न को उसी के लायक आज मनु नहीं समझ रहा है । मनु की इस सोच पर ऐसा लगता है जैसे इसके दिलोदिमाग पर एक स्वार्थी राजा का फितूर किस प्रकार हावी है । सबके जीवन को वह अपने हाथ का खिलौना समझता है ।
  मनु को इस बात से गहरा आघात पहुँचता है कि श्रद्धा ने मनु के लिए पुत्री ही क्यों माँगी । जबकि श्रद्धा जानती थी कि मनु की सब कन्याओं के प्रति कितनी प्रीति थी । परन्तु मनु का कहना है कि दूसरों की कन्याओं से प्रेम करना और अपने लिए कन्या चाहना दो अलग बाते हैं । यह सोच अपनेआप में ही कितनी संकीर्ण है यह कहने की जरूरत नहीं है । आज समाज में लड़कियों के साथ जो जघन्य अपराध होते हैं उसका सबसे बड़ा कारण है पुरुष समाज द्वारा नारी को सम्मान की दृष्टि से न देखना । नारी केवल भोग्या बनकर रह गयी है । कभीकभी लगता है कि बच्चे अपने खिलौने को भी इस तरह तोड़कर नहीं फेकते होंगे जैसे औरत की आबरू से खिलवाड़ करके पुरुष उसे तारतार कर देता है । मनु शासन से लेकर आज तक नारीसुरक्षा सदैव प्रश्न के घेरे में है । फिर वह सुरक्षा चाहे शारीरिक, मानसिक या उसके अस्तित्व से ही सम्बन्धित ही क्यों न हो ।
  मनु के जीवन की सबसे बड़ी विसंगति यही है कि वे जैसा चाहते थे वैसा करके भी वे जीवन को सुखमय नहीं बना पाये । यह विसंगति कहीकहीं आधुनिक मानव के जीवन से भी जुड़ी है । प्रकृति से खिलवाड़ करके मनु ने न केवल इला के जीवन से बल्कि स्वयं अपने भविष्य से भी खिलवाड़ किया । प्रभाकर श्रोत्रिय ने एक शासक के दम्भ के दुष्परिणाम को उजागर किया है । उनके अभिमान के आगे उनका पारिवारिक, वैवाहिक, राजनैतिक जीवन खोखला हो गया ।
  इला के माध्यम से नाटककार ने आधुनिक, सभ्य, सुसंस्कृत और समता व न्याय पर आधारित समाज में स्त्रियों की दुर्दशा पर प्रकाश डाला है । एक पिता के उतराधिकारी पाने की इच्छापूर्ण होने के लिए श्रद्धा व इला की भावनाओं की बलि दी जाती है । इला के जीवन की त्रासदी यही है कि उसने एक कन्या के रूप में एक राजा के यहाँ जन्म लिया है । राजा भी ऐसा जिसे सन्तान के रूप में केवल पुत्रजन्म का समाचार सुनने की इच्छा है । इला का दुर्भाग्य यह रहा कि कन्या रूप में जन्म लेने के कारण उसे मनु मानसिकता का शिकार होना पड़ा । होश सँभालने से पहले ही उसके अस्तित्व को मिटा दिया गया वो भी स्वयं उसके पिता द्वारा । इला हर उस भारतीय नारी का प्रतीक है जिस पर पुरुष समाज ने अपना शिकंजा कसा हुआ है । प्रभाकर जी ने स्त्री के अस्तित्व और उसके स्त्रीत्व से जुड़े प्रश्न को बड़ी शिद्दत के साथ इस नाटक में उठाया है । स्त्री के अस्तित्व का प्रश्न आधुनिक संदर्भों में भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि नाटक लिखते समय था । इन्ही प्रश्नों के साथ एक और नाटककार के मनमस्तिष्क को उद्वेलित करता है और वह है नारीअभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का प्रश्न । इलाइस नाटक का ऐसा पात्र है जिसके साथ हर स्तर पर अन्याय हुआ है । वह बारबार अपनी माँ और पिता के समक्ष अपने मन के भावों को अभिव्यक्त करती है, परन्तु उसकी कहीं सुनवाई नहीं होती । माँ चाहकर भी उसका साथ नहीं दे पाती है । पिता सब जानते हुए भी साथ देना नहीं चाहता है ।
  ‘इलाकी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता समाज द्वारा नहीं बल्कि स्वयं उसके पिता द्वारा छिनी जाती है । पितृसत्ता के दो पाटों के मध्य वह बारबार पिसती है । यौनपरिवर्तन की पीड़ा सहती है, स्त्री होकर पुरुष की तरह कठोर बनने का असफल प्रयास करती है, पत्नी सुमति के आगे कमजोर साबित होती है, अंत में पिता की नजर आधा पुरुष बनकर रह जाती है । उसका खुद का अस्तित्व कही खोकर रह जाता है । वह स्वयं इस बात को लेकर चिन्तित दिखाई देती है कि जैसा व्यवहार वह करती है, वैसी वह है नहीं । जैसी वह है, वैसा व्यवहार कर नहीं पाती है । इला अपनी माँ से भी अपनी इच्छा जाहिर करते हुए कहती है कि उसे शिकार खेलना पसंद नहीं है । उसे पुष्पों के साथ खेलने, वृक्षों पर झूला झूलने, जलक्रीडा करने, लताओं से बात करने का मन करता है । वह नहीं जानती कि उसके पुरुष शरीर में स्त्री की आत्मा निवास करती है । वह जन्म और गुण से स्त्री ही थी परन्तु पिता की उत्तराधिकारी पाने की चाह ने उसके मन के कोमल भावों को सदा के लिए कुचल दिया ।
  सत्य यही है कि मनु को संतान रूप में पत्नी श्रद्धा से पुत्र ही चाहिए था । इला के शरीर और आत्मा को एक प्रयोगशाला की तरह प्रयोग में लाया गया । समाज में नारीसुरक्षा के मुद्दे पर अनेक बार बहस हुई, आवाज उठाई गयी । पर सवाल यह है कि अगर नारी घर की चार दीवारी के भीतर ही सुरक्षित नहीं है तो सामाजिक स्तर पर उसकी सुरक्षा की बात करना व्यर्थ है । घर के भीतर ही एक पुरुष (मनु) अपनी पत्नी (श्रद्धा) और पुत्री (इला) के साथ अमानवीय व्यवहार करता है । राजा, पति, पिता होने का अभिमान उसे अन्याय करने के सारे अधिकार दे देता है । अपने पुरुष होने के अहं में मनु प्रकृति से खिलवाड़ करता है पर प्रकृति अपना विकराल रूप दिखाती है । पुरुष (सुद्युम्न) रूप में भी इला स्त्रियोचित गुणों से परिपूर्ण रहती है । प्रकृति उसे पूर्णरूप से पुरुष बनने ही नहीं देती है । मनु का स्वप्न टूटकर बिखर जाता है । पौरुषत्व ही पुरुष की पहचान है पर मनु पुत्र का हृदय पौरुष और अहं से वंचित रहता है ।
  प्रभाकर श्रोत्रिय ने स्त्रीविमर्श से जुड़े अनेक ऐसे प्रश्नों को उठाया है जो आज भी प्रासंगिक है । सबसे बड़ा प्रश्न तो पुरुष अहं का है । इसी प्रश्न से सारे प्रश्न जुड़े है । पुरुष का खोखला अहंकार नारी स्वतन्त्रता पर प्रहार करता है । यही प्रहार मनु ने इला और श्रद्धा पर किया । श्रद्धा से उसके माँ होने का अधिकार छिना, उसकी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का हनन किया । श्रद्धा के समक्ष उसकी ही बेटी को बिना उसकी मर्जी के रासायनिक क्रिया द्वारा पुत्र बना दिया जाता है । श्रद्धा विरोधपूर्ण शब्दों में कभी माँ न बनने की प्रतिज्ञा करती है । वह राजवंश के छल को अपने रक्त से सींचना नहीं चाहती है । वह अपनी पुत्री से इस पूरी व्यवस्था से बदला लेने के लिए प्रार्थना करती है । श्रद्धा अपने आपको उस चिड़िया से बदतर मानती है जो अपने चूजे को छूनेवाले पर पंखों से झपटकर वार करती है । अपने चूजे को सुरक्षित रखने का हर संभव प्रयास करती है भले ही उसके प्राण चले जाये । अगर इस नाटक को आधुनिक सन्दर्भों से जोड़कर देखा जाये तो क्या यह सत्य नहीं है कि श्रद्धा की पीड़ा हर उस माँ की पीड़ा को वाणी देती है जो गर्भ गिराए जाने को मजबूर है ।
  इस समाज में पुरुष द्वारा नारीअधिकारों का हनन किया जाता है । श्रद्धा टूटकर बिखर जाती हैवह बेटी के साथ ही अपने अस्तित्व को समाप्त मानती है । स्त्री को राजनीति ने सभी अधिकारों से किस प्रकार अलग रखा है यह भी इस नाटक में बखूबी दिखाया है । यहाँ तक कि एक माँ बनने के गर्व को भी राजनीति की गन्दी चालों के तले रौंद डाला गया । अपनी पुत्री के साथ होने वाले यौनपरिवर्तन को देखकर भी वह कुछ नहीं कर पाती है । इसलिए वह निराशापूर्ण शब्दों में चीत्कार करते हुए कहती है‘‘आज से दुनिया की सबसे बड़ी असहाय और गूँगी हो जाऊँगी । मेरे अस्तित्व में, मेरे विरुद्ध एक महायुद्ध होगा, जिसमें एक माँ सदा के लिए मार डाली जाएगी–––हे स्वयम्भू! तू जिस हाथ से स्त्री को सब कुछ देता है, उसी हाथ से सुब कुछ छीन क्यों लेता है ? कैसी विडम्बना है यह ? मेरी बेटी! यह सृष्टि केवल पुरुषों की है! गर्भ में धारण करने और अपना रक्त पिलाने पर भी माँ, अपनी सन्तान को अपनी तक नहीं कह सकती!–––श्रद्धा के इन शब्दों में इस पुरुष प्रधान समाज के प्रति एक वितृष्णा का भाव उभरकर आया है । स्त्री और पुरुष के मिलन से ही इस सृष्टि का निर्माण हुआ है । इस सृष्टि की निर्मात्री को अगर जन्म लेने से पहले ही मार दिया जाएगा तो धीरेधीरे पुरुषों का वजूद भी इस समाप्त हो जाएगा । लड़कालड़की में भेद किये जाने की जिस संकीर्ण मानसिकता में समाज जी रहा है वह नि%सन्देह चिन्ता का विषय है । श्रद्धा के निराशा एवं क्रोधपूर्ण शब्दों में एक और नारी की बेबसी दिखाई देती है तो दूसरी ओर समाज के प्रति शिकायत । उसे महसूस होता है कि यह सृष्टि केवल पुरुषों की है । मनुष्य के साथसाथ विधाता भी उसके साथ अन्याय कर रहा है ।
  नारीअस्मिता से जुड़े मुद्दे को भी नाटककार ने बड़ी संवेदनशीलता के साथ उठाया है । पति के आधीन होने पर स्त्री पराधीन हो जाती है । उसकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पगपग पर बाधित होती है । वह क्या है ? क्या चाहती है ? उसकी खुशी किस में है ? उसे क्या अच्छा लगता है ? उसके अस्तित्व से जुड़े ये सभी प्रश्न नजरअन्दाज कर दिये जाते हैं । उसका जीवन पिता, पति, पुत्र के अनुरूप चलता है । वह निरंतर अपमानित होकर जीने पर मजबूर होती है । श्रद्धा न चाहते हुए भी जीवन जीने को मजबूर है । अपने बच्चे की पीड़ा को मूकदर्शक बनी देखने को विवश है । पति द्वारा उपेक्षित होने पर भी वह खुलकर विद्रोह नहीं कर पति है क्योकि राजमहिषी है । राजमहिषी होना उसके लिए सबसे बड़ा अभिशाप सिद्ध होता है । राजमहिषी की कोख से राजा और प्रजा केवल पुत्रप्राप्ति का समाचार सुनना चाहते है । दोगले चरित्र को जीनेवाले पति के समक्ष उसकी बेचैनी और छटपटाहट निरर्थक साबित होती है । वह न तो सत्ता से जुड़े लोगों की मानसिकता को बदल पाती है न ही अपनी पुत्री पर रासायनिक प्रयोग होने से रोक पाती है । उसकी विवशता सत्ता और उसको व्यवस्थित करने वाले संचालको के मध्य दबकर रह जाती है । समाज की जिन विसंगतियों से वह छुटकारा पाना चाहती है उसमें और घिरती चली जाती है । यही नहीं इसी शोषण की परम्परा में उसके साथ एक और नाम जुड़ जाता है और वह था उसकी पुत्री इला का ।
  राजमहिषी होने पर भी श्रद्धा अपने आपको आम नारी की भाँति शोषित, पराधीन, दमित, असुरक्षित महसूस करती है । कहींकहीं नाटकार का इशारा इस ओर स्पष्ट दिखाई देता है कि राजा की पत्नी व पुत्री होने पर ही अगर स्त्री का वजूद मिटा दिया जाता है तो सामान्य वर्ग से जुड़ी स्त्रियों की दुर्दशा का अन्दाजा सहज ही लगाया जा सकता है । सत्य है भारतीय समाज में आज भी अनेक नारिया नरक से भी बदतर जीवन जीने को मजबूर हैं । श्रद्धा इस पुरुष प्रधान समाज से प्रतिशोध लेना चाहती है । परन्तु वह अपने ही राजमहल की चारदीवारी में विवश है । वह बाहरीआन्तरिक द्वन्द्व के मध्य पिसती चली जाती है । उसकी आकांक्षाओं और इच्छाओं के प्रति मनु सदैव चुप रहा । इसका प्रभाव स्पष्ट रूप से उन दोनों के वैवाहिक जीवन पर दिखाई देता है । मनु श्रद्धा से खुश नहीं रहता और श्रद्धा मनु को मन से स्वीकार नहीं कर पाती है । आरम्भ में मनु की पुत्रप्राप्ति की आकांक्षा जानकर वह मनु को दिलासा भी देती है कि अगर आज बेटी हुई है तो कल बेटा भी हो जाएगा । नारी अपनी कोख से पूरे संसार की रचना कर सकती है । लेकिन मनु की सोच नहीं बदलती । वह कल तक का इन्तजार करने को भी तैयार नहीं होता है । यहाँ आकर दोनों की सोच में अन्तर आता है जिसका असर उनके वैवाहिक जीवन पर होता है । मनु की पुत्रप्राप्ति की हठ उसे निर्दयी बना देती है । वह मानवता भूलकर पशु की भाँति बिना सोचेविचारे अपना निर्णय श्रद्धा और इला पर थोप देता है । यहीं से मनु द्वारा अन्याय की परम्परा का बीज बो दिया जाता है । अपने राजा होने के मद में सभी रिश्तों को ताक पर रख देता है । उसके इस अभिमान के तले ही श्रद्धा और इला के जीवन से जुड़ी तमाम खुशियाँ स्वाहा हो जाती हैं । प्रभाकर श्रोत्रिय ने इस बात पर बल दिया है कि पुरुष की इसी सोच को बदलकर एक स्वस्थ समाज की रचना सम्भव है । पुरुष समाज को अपना व्यक्तित्व नहीं मानसिकता को बदलने का प्रयास करना होगा ताकि नारी को अभिव्यक्ति स्वतन्त्रता मिल सके । अगर पुरुष औरत का सम्मान करेगा तो इससे न केवल एक बेहतर समाज का निर्माण होगा बल्कि एक खुशहाल परिवार का भी निर्माण होगा ।
  नाटककार ने इस मिथकीय नाटक के माध्यम से समाज की एक मुख्य समस्या को उठाया है । वह समस्या है लड़कालड़की को लेकर समाज की भेदनीति । इसी समस्या के साथ नारीजीवन से जुड़ी अनेक समस्याएँ जन्म लेती हैं । इन समस्याओं से उत्पन्न पीड़ा को कभी समाज के कर्ताधर्ता पुरुष ने महसूस नहीं किया । श्रद्धा के साथ हुए अन्याय पर मनु की चुप्पी इस बात का पूर्ण समर्थन करती है । इला नामक पुत्री के जन्म के उपरान्त निराश मनु गुरु वशिष्ठ से उसे पुत्र बनाने की इच्छा जाहिर करता है । सत्ता के भय से भयभीत गुरु विरोध करते हुए भी इस अन्यायपूर्ण कार्य की स्वीकृति दे देते हैं । इला को पुत्र रूप में पाकर मनु धन्य हो जाता है । ठीक उसी तरह जिस तरह कोई खोया हुआ खजाना पाकर खुश होता है । पर इला जो केवल कुछ दिनों का शिशु मात्र है उसपर रासायनिक प्रयोग करके उसका लिंग परिवर्तित किया जाता है । प्रकृति के साथ खिलवाड़ करके मनु विनाश को आमंत्रित करता है । इला के वजूद को हमेशाहमेशा के लिए मिटा दिया जाता है । एक स्त्री की आत्मा लेकर पुरुषरूप में उसे दोहरा जीवन जीना पड़ता है । सुद्युम्न बनी इला के जीवन की समरसता समाप्त हो जाती है । वह स्त्रीपुरुष के दोहरे अस्तित्व और व्यक्तित्व के अन्तर्द्वन्द्व को झेलती है । इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह होता है कि इला किसी भी क्षेत्र अपने आपको साबित नहीं कर पाती है । अन्तर्विरोध की स्थिति में वह न तो अपने परवारिक जीवन को सुखमय बना पाती है न ही अपने राज्य में सुशासन कर पाती है । मनु केवल अपने नाम को बनाये रखने के लिए इला का सीढ़ी की तरह प्रयोग करता है ।
  अपनी पत्नी सुमति के साथ सुद्युम्न का सम्बन्ध उतना मधुर नहीं हो पाता है जितना कि एक पतिपत्नी का होना चाहिए । एक दिन शरवन वन में पहुँचाने पर सुद्युम्न पुन% इला बन जाता है । प्रकृति से एकाकार होने पर इला स्त्रीरूप में आ जाती है । इतना ही नहीं उसे अपना सारा बीता जीवन याद आ जाता है । वह असमंजस में पड़ जाती है कि किस कर्त्तव्य का पालन करे । वहाँ उसका विवाह भी हो जाता है और वह एक पुत्र की माँ होने का सुख भी महसूस करती है । पुत्र प्राप्ति द्वारा प्रकृति दिखा देती है कि उससे बड़ी ताकत किसी में नहीं है । परन्तु इला के जीवन की त्रासदी यह है कि वह दो तरह का जीवन एक साथ भोगने को विवश हो जाती है । उसके लिए यह निर्णय लेना कठिन हो जाता है कि पुत्र, पिता, पति, पत्नी, बेटी में से किस कर्त्तव्य का पालन करे । यह भी सच है कि पुन% इला बनकर स्त्री सुद्युम्न खुश हो जाती है । उसकी खुशी ज्यादा देर तक नहीं रह पाती । अन्तत% वह पुन% सुद्युम्न बनने का निर्णय लेती है । यहाँ आकर ऐसा महसूस होता है कि स्त्री जीवन की यही नियति है । वह हर रूप में पुरुषइच्छा के समक्ष झुकती है । इस कड़ी में श्रद्धा, इला और सुमति तीनों का ही नाम आता है । इला पलपल मरने से चिता बनाकर भस्म हो जाना चाहती है । विडम्बना यह है कि उसके हृदय की इस पीड़ा को कोई नहीं समझ पाता है । शायद यही वजह होगी कि उसने अपने अस्तित्व को मिटाकर पुन% पुरुष रूप में जीना स्वीकार किया ।
  समकालीन सन्दर्भों को नया आयाम देता यह नाटक आधुनिक नारी की सामाजिक स्थिति को उजागर करता है । सामाजिक विसंगतियों में पनपने वाला उसका जीवन किसी भी रूप में सुखमय नहीं हो पाता है । श्रद्धा और मनु, सुद्युम्न और सुमति दो ऐसे वैवाहिक स्त्रीपुरुष हैं जिनके जीवन की समरसता, प्रेम, सुखशान्ति सब कहीं खो से गये हैं । राज्य के प्रति सुद्युम्न की उदासीनता सुमति के लिए चिन्ता का विषय बन जाता है । सुमति अपने पति को एक वीर और आत्मनिर्भर सम्राट के रूप में देखना चाहती है । वह अपने पति को उसके पौरुष की याद दिलाती है । सुद्युम्न के जीवन की पीड़ा यह है कि कभीकभी वह पुरुष रूप में बहुत कठोर हो जाता है और कभीकभी स्त्री से भी कोमल । राजा के रूप में सुद्युम्न की न्यायप्रक्रिया द्वारा प्रभाकर जी ने स्त्रीविमर्श से जुड़े अनेक प्रश्नों को समाज के समक्ष रखा है । राजनीति ने स्त्री को सुब अधिकारों से वंचित रखा है । सुद्युम्न ने राजा के रूप में आत्मानुशासन पर बल दिया है । वह चाहता है कि राज्य में स्त्रीपुरुष को एक समान मान दिया जाये । उसके राजदरबार में एक स्त्री फरियाद लेकर आती है कि उसका पति मदिरापान करके उसके साथ मारपीट करता है । इस पर पति उसके चरित्र पर लांछन लगाता है । सुद्युम्न क्रोधित होकर कह उठता है कि तुम कैसे पुरुष हो जो एक स्त्री पर हाथ उठाते हो ? आज भी न जाने कितनी औरतें घर की चारदीवारी के भीतर मानसिक और शारीरिक शोषण का शिकार होती हैं । नाटककार बताना चाहता है कि पुरुष होने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि उसे औरत पर हाथ उठाने का अधिकार मिल जाता है । सुद्युम्न उस स्त्री को यह भी समझाता है कि पराधीनता के वृत्त में घूमना ही नारी की स्वाधीनता है । पिता, पति, पुत्र और फिर काल । लेकिन अरक्षित नारी की समाज में बड़ी दुर्गत होती है । समाज एक और समस्या से जूझ रहा है जिसके बारे में पहले भी चर्चा की जा चुकी है । वह गम्भीर समस्या है लड़कालड़की में भेद करनासुद्युम्न के दरबार में वह स्त्री यह भी बताती है की उसके पति को पुत्र ही चाहिए । इस पर भी क्रोधित होकर वह कहता है कि पुत्री में भी वैसी ही आत्मा होती है जैसी पुत्र में होती है । समकालीन सन्दर्भों में नाटककार ने बहुत बड़ी बात कही हैअगर सभी इस बात को गहराई से समझें तो शायद समाज में औरतों के प्रति एक स्वस्थ सोच जन्म लेगी जिससे एक स्वस्थ समाज का निर्माण होगा । सिर्फ इतना ही नहीं प्रभाकर जी ने सुद्युम्न के माध्यम से एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात कही है वह यह कि इस समाज में स्त्री को अपनी जगह खुद बनानी होगी । सुद्युम्न स्पष्ट शब्दों में कहता है जो स्त्री अपनी रक्षा नहीं कर सकती संसार में उसकी रक्षा कोई नहीं कर सकता । रक्षा का अर्थ देह, अधिकार और सम्मान की रक्षा से है । यहाँ भी यह कहना उचित होगा कि आज भारतीय समाज में स्त्री के साथ जो जघन्य कर्म किये जा रहे हैं उस समाज में नारी को जागरूक करने की सख्त जरूरत है । एक सजग नाटककार के दायित्व का निर्वाह करते हुए श्रोत्रिय जी ने सम्पूर्ण नारीसमाज को जागरूक किया है । आये दिन नारी पर होने वाले बलात्कार, मारपीट, तेजाबी हमलों ने यह दिखा दिया है कि नारी असुरक्षा भारत की गम्भीर समस्या है । आज तीन माह की बच्ची से लेकर किसी भी उम्र की महिला की आबरू सुरक्षित नहीं है । हमारे समाज के लिए यह कितनी शर्मनाक बात है । इतना ही नहीं सुद्युम्न के समक्ष एक औरत के बलात्कार और फिर उससे जघन्य कर्म से उत्पन्न सन्तान और अन्त में पति द्वारा त्याग दिये जाने का मामला सामने आता है । इस पर भी एक अच्छे शासक का दायित्व निभाते हुए सुद्युम्न पति की समस्त सम्पति की अधिकारिणी बना देता है । उसका मानना है कि एक तो पुरुष नारी के साथ दुष्कर्म करता है फिर पूरा समाज उसे दोषी ठहराकर उसके साथ अन्याय करता है । उसका मानना है की न्यायव्यवस्था दुर्बल हाथों से नहीं चलाई जा सकती है । आज की भ्रष्ट राजनीति में न्यायप्रक्रिया का जो बुरा हाल है उसके बारे में कुछ भी कहा जाये कम है । सड़ीगली भ्रष्ट व्यवस्था ने भ्रष्टाचारी अधिकारियों को पनाह दी है । जिसकी वजह से औरतों के साथ दुष्कर्म करने वाले अपराधी साफ बचकर निकल जाते हैं । नाटककार ने दण्ड व्यवस्था में सुधार की बात की है । सुद्युम्न कहते हैं‘‘सामान अपराध के लिए सभी को सामान दण्ड दिया जाये, भले ही वे हमारे गुरु, पत्नी, पुत्र, माँ, मित्र या पुरोहित ही क्यों न हों!’’
  धर्म और राजनीति की मिलीभगत से किस प्रकार एक कुकृत्य को अंजाम गया । सत्ता के समक्ष चुप रहने को विवश गुरु वशिष्ठ धार्मिक मर्यादा का उल्लंघन करके ऐसे कार्य के प्रति अपनी स्वीकृति देते हैं जो धर्म विरुद्ध है । यौनपरिवर्तन द्वारा एक माँ से उसका मातृत्व छीन लिया जाता है । वशिष्ट और मनु की सोच का दुष्परिणाम यह होता है कि इला पुरुष बनकर भी स्त्रियोचित गुणों के कारण एक प्रकार के अन्तर्द्वन्द्व से गुजरती हुई मानसिक पीड़ा झेलती है । मनु उस आधुनिक शासक का प्रतिनिधित्व करता है जो अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए सम्पूर्ण मानवता को दाव पर लगा देता है । वशिष्ठ उस वर्ग का प्रतीक पात्र है जिसका सीधा सम्बन्ध धर्म से है परन्तु राजनीति की ओर से प्राप्त भौतिक सुखसुविधाओं के वशीभूत होकर वह अपने ज्ञान, कर्म और धर्म से विलग हो जाता है । यद्यपि वशिष्ठ मनु को समझाते हैं पर अन्तत: श्रद्धा और इला की भांति उन्हें राजाग्या के समक्ष झुकना पड़ता है । मनु राज्य का उत्तराधिकारी चाहता है इसलिए वशिष्ठ उसके ऐसे

विचारों को मानवता के विरुद्ध मानता है । परन्तु सत्ता के हाथों सब मोहरे बनकर अपनी चाल चलने को मजबूर हैं । यही वर्तमान राजनीति का भयावह सच है । आधुनिक नारी के विद्रोह को नाटककार ने पुरुष सुद्युम्न के माध्यम से व्यक्त किया है । मनु के माध्यम से पुरुष वर्ग की उस मानसिकता को दर्शाया है जो उत्तराधिकारी पाने व सत्ता बनाये रखने के लिए अपने कर्तव्यों की अनदेखी करता है । अनमेलविवाह, पुरुष की कुंठित कामभावना का शिकार, प्रयोगशाला की तरह प्रयोग की जाने वाली और हर कदम पर अपनी भावनाओं की बलि देने वाली नारी के शोषण की लम्बी दास्तां को वाणी प्रदान की है ।

  एक सजग नाटककार के दायित्व का प्रभाकर श्रोत्रिय ने सफलतापूर्वक निर्वाह किया है । पौराणिक कथा के माध्यम से आधुनिक सन्दर्भों को जीवन्त किया है । धर्म, राज्य और जनता के त्रिकोण में फँसे मनु उस रास्ते का चुनाव करते हैं जो किसी मंजिल तक नहीं पहुँचता है । वह मार्ग केवल दिशाहीन और दिग्भ्रमित करता है । इन सभी पौराणिक पत्रों और घटनाओं की यही समकालीन प्रासंगिकता है । मिथक कथायें बदलते परिवेश में मनुष्य की नियति को रेखांकित करने का माध्यम बनती हैं । यही कारण है कि आधुनिक समाज में नारी की स्थिति, आधुनिक मनुष्य के द्वंद्व, निराशा, संशय, सब कुछ होकर भी खाली होने की पीड़ा, भ्रष्ट राजनीति का मोहरा बनने वाले नागरिक जैसे जीवन्त विषयों को उठाकर श्रोत्रिय जी ने उनका समकालीन सन्दर्भों में रचनात्मक प्रयोग किया है जो नि:सन्देह सराहनीय कार्य है । अतीत के पन्नों से मिथक कथा द्वारा उन्होंने पौराणिक सन्दर्भों को नये जीवनमूल्यों के रूप में सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया है ।
कुसुमलता : जन्म – 23 मार्च 1977, बिहार । एम– (हिन्दी), एमफिल, पीएचडी। नाटक से सम्बन्धित लेख विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में प्रकाशित । दौलतराम महाविद्यालय, दिल्ली में अध्यापन ।

 

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साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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