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बाज़ार, माल और मूल्य के बीच साहित्य का पक्ष
- विनोद तिवारी
जातीय स्मृति के तर्क से भी और सामाजिक-ऐतिहासिक-राजनीतिक परविर्तनों और विकास की दृष्टि से भी, किसी भी समय को जानने-समझने के लिए उस समय के साहित्य और साहित्य के पक्ष को एक जरूरी प्रमाण के रूप में देखा जाना चाहिए। आज साहित्य पर, साहित्य के पक्ष पर और साहित्य मात्र पर ही क्यों समूची सांस्कृतिक-निर्माण के प्रक्रिया पर बातचीत हमारे समय की ठोस वास्तविकताओं पर आधारित होनी चाहिए। लोकतान्त्रिक समाजों और आधुनिक राष्ट्र-राज्यों में भले ही यह माना जाता हो कि धर्म का राजनीतिक प्रभुत्व नहीं रहा। पर भारत जैसे समाजों के लिए यह पूर्णतः सच नहीं है।
आज भी भारतीय समाज का अधिकांश हिस्सा धार्मिक रूढ़ियों और ढकोसलों के ऊपर विश्वास और आस्थाओं से संचालित होता है। भारत ऐसे समाजों में आता है जहाँ धर्म आस्था से अधिक भीरुता के नाते, प्रेम से अधिक नफरत के नाते, नीति से अधिक राजनीति के नाते, भक्ति से अधिक पाखंड के नाते अपनी सत्ता और अपना वर्चस्व कायम किए हुए है। आज जो माहौल है, धार्मिक उत्ताप और नागरिक अवसाद के बीच जो गहरा सम्बन्ध है, उसमें एक लेखक, एक साहित्यकर्मी-संस्कृतिकर्मी के लिए जो सबसे बड़ा सवाल है, वह यह है कि हम साहित्य और संस्कृति का पक्ष किसके सापेक्ष, किसके बरक्स तय कर रहे हैं? किसी पूर्व-निर्धारित ‘मूल्य’ और ‘आदर्श’ के सापेक्ष, किसी निरपेक्ष सार्वभौम सम्पूर्ण सत्य के सापेक्ष, बाज़ार, माल और मूल्य के सापेक्ष अथवा अपने समय की मौजूद स्थितियों-परिस्थितयों की वास्तविक छवियों के सापेक्ष। यह एक मनोवैज्ञानिक मान्यता है कि आप तनाव और चिन्ता में आनन्द नहीं उठा सकते। किन्तु जब इस तनाव को ठोस भौतिक और लौकिक समस्याओं और चिन्ताओं से शिफ्ट कर के किसी आध्यात्मिक और पारलौकिक शक्ति और उसके त्राणदाता स्वरूप में लय कर दिया जाता है तो वह तनाव में भी आनन्द उठाने लगता है। इस महामारी के बीच समूचे मध्यवर्ग और निम्न-मध्यवर्ग की जनता के लिए रामायण और महाभारत जैसे टीवी धारावाहिकों की पुनर्बहाली का और क्या उद्देश्य हो सकता है। अबाध रूप से इस समय ‘ऑनलाइन’ तरह-तरह के रूप-रंग में साहित्य का जो ‘वर्चुअल’ बाज़ार सजा है, क्या उसका पक्ष और उद्देश्य भिन्न है? बाज़ार में हम किसी एक उत्पाद या प्रतिष्ठान या दुकान के कुछ कारणों से निंदक और आलोचक हो सकते हैं। परन्तु, बाज़ार आपकी आलोचना और निन्दा के लिए पहले से ही ‘स्पेस’ बनाकर रखता है और हमारे-आपके मनोनुकूल मुहैया करा देता है। इसमें स्वाभाविक है कि मुनाफा बाज़ार का ही होता है पर प्राकारांतर से आपको लगता है कि चलो हम भी किसी न किसी तरह से इसका फायदा उठा ही लेंगे। इसलिए जिस निन्दा और आलोचना के साथ आप प्रतिपक्ष में अपने को खड़ा मान रहे थे, बाज़ार ने आपको प्रतिद्वंद्विता में लाकर खड़ा कर दिया। बाकी, यह तो पता ही है कि प्रतिद्वंद्विता कभी भी समानता पर आधारित नहीं होती। बल्कि इसका आधार यह तथ्य होता है कि एक पक्ष दूसरे पक्ष पर असहनीय प्रहार करने की कितनी क्षमता रखता है। आज जब ‘ग्लोबल’ और ‘लोकल’ से आगे ‘वोकल’ होने की बात की जा रही है तो हमें इस ‘वोकल’ के निहितार्थ को समझना होगा। ‘ग्लोबल’ और ‘लोकल’ का नारा तो पुराना है, पर यह ‘वोकल’ नया है। इस ‘वोकल’ के साथ ही ‘आत्मनिर्भरता’ का नारा दिया गया है। ‘आत्म’ ही नहीं होगा तो ‘आत्मनिर्भरता’ क्या ‘वर्चुअल’ दुनिया से आएगी, जहाँ सब कुछ ‘वोकल’ ही ‘वोकल’ है।
खण्डित आत्म, खण्डित चेतना और खण्डित समय की मनोदशा और साहित्य के रिश्ते और उसकी जरूरत के पक्ष से मैं जब यह बात कह रहा हूँ तो इसका अर्थ यह कदापि न लिया जाय कि समय को निपट वर्तमान के अर्थ में ही देखा जा रहा हो। वास्तव में तो साहित्य के लिए समय वही नहीं है जो हमारा निपट वर्तमान है, वरन् वह समय भी है जो हमें भविष्य में अपेक्षित है। इसलिए भी हमें आज इस पूरे साहित्यिक-माहौल को साहित्य के ‘बैलेंस शीट’ की तरह देखना चाहिए। प्रसिद्द इतिहासकार रजनी पाम दत्त का उल्लेख करना चाहूँगा, वे कहते हैं कि, “जब समाज दोराहे पर खड़ा होता है, जहाँ उसे विकल्प की तलाश होती है, उस समय यदि जनतांत्रिक शक्तियाँ इतनी बलवती होती हैं कि विकल्प दे सकें तो विकल्प मिल जाता है, अगर ऐसा नहीं होता या भटकाव की स्थिति बनी रहती है तो फासीवाद का उदय होता है।” भविष्य के बारे में अटकलें लगाना, उसकी दिशा और दशा के बारे में अपने से सवाल पूछना, जिन्दगी जीने का एक हिस्सा होता है। जिस समय और समाज को लेकर हम चिन्ताग्रस्त हैं उसी समय और समाज के अन्दर पहुँचने और पसरने की कार्य-संस्कृति के लिए साहित्य के पास आज मुद्दा क्या है? रोड मैप क्या है?
साहित्य और समाज की पुरानी चुनौतियों के साथ-साथ आज हमारे सामने अनेक नयीं और बहुविध चुनौतियाँ उभरकर आयी हैं। राजनीतिक उत्पातों से लेकर बाज़ार में उपलब्ध भिन्न-भिन्न उत्पादों (जिसमें साहित्यिक-उत्पाद/उत्पात भी सम्मिलित है) तक में आज एक निर्लज्ज किस्म का बाजारू प्रोपेगैंडा रचकर जिस तरह से रुचियों, जरूरतों, विचारों और चयन की स्वतंत्रताओं को प्रभावित किया जा रहा है, बिगाड़ा जा रहा है उसकी चिन्ता उसका प्रतिरोध साहित्य के अन्दर कहाँ है? अगर टेरी ईगल्टन की मानें तो क्या इस का एक सीधा रिश्ता ‘कॉमोडीफिकेसन ऑफ लिटरेचर’ से नहीं है। नव उदारवादी/पूंजीवादी अर्थ-व्यवस्था में, क्रय और विक्रय के तर्क से हर चीज एक ‘उत्पाद’ है, एक ‘माल’ है, इसके अलावा कुछ नहीं। क्या साहित्य भी, चूँकि बेचा-खरीदा जा रहा है, इसलिए माल मान लिया जाना चाहिए? माल के रूप में किसी वस्तु को उत्पाद बनाकर जब बाज़ार में उतारा जाता है, उसके पहले ही उस उत्पाद का ‘अतिरिक्त–मूल्य’ मुनाफे के रूप में सेठ और उसके बिचौलियों तक पहुँच जाता है। लॉकडाउन में घर बैठे आज जो ‘अतिरिक्त मूल्य’ पर भी ‘अतिरिक्त मूल्य’ कमाने की ‘ऑनलाइन’ कोशिश जारी है, वह मुनाफे से मुनाफा कमाने और साहित्य को ‘कॉमोडिटी’ में बदल देने की कोशिश नहीं तो और क्या है? हम जैसे अर्थशास्त्र का कुछ भी न जानने वाले इतना तो जानते हैं कि क्रय-विक्रय, लेन-देन, लाभ-हानि के गणित के बिना व्यक्ति अपनी सबसे छोटी उंगली जिसे कनिष्ठिका कहते हैं, वह भी नहीं हिलाता। इसी लॉकडाउन के दरम्यान खबर आती है कि फेसबुक जीयो के यहाँ शेयर लगा रहा है। मुकेश अंबानी, अलीबाबा के मालिक जैक मा को पछाड़ कर दक्षिण एशिया के सबसे बड़े पूंजीपति बन जाते हैं। रिपोर्ट आती है कि इसी लॉकडाउन के दरम्यान गूगल, एप्पल, फेसबुक, अमेजन (GAFA) का फायदा अचानक बढ़ गया है। इसलिए, लाभ-हानि का गणित थोड़ा जटिल है। इतना मासूम भी नहीं। किसी को प्रत्यक्ष लाभ हो रहा है किसी को अप्रत्यक्ष।
साहित्य सचेत विचार का परिणाम होता है। साहित्य के लिए सदा से ही ऐसे सरोकार की बात की जाती रही है कि उसे ‘भीड़’ को ‘समाज’ में बदलने का प्रयास करना है। पर अगर वह भीड़ का हिस्सा बन जाय तो फिर उसका ‘मूल्य’ क्या रह जाएगा। यदि आप वास्तविक सामाजिक संघर्षों से जुड़े बगैर साहित्य और संस्कृति के प्रश्नों को हल करना चाहते हैं तो वह उतना ही आसान होगा जैसे केवल ‘क्रान्ति’ ‘कामरेड’ और ‘लाल सलाम’ जैसे शब्दों को ओढ़कर उग्र ‘वामपंथी’ बनना और झंडे गाड़कर शिविरों और शाखाओं में दंड पेलते हुए कट्टर सोच-विचार के साथ फासीवादी एजेंडे को मनवाने के लिए अति ‘दक्षिणपंथी’ होना। ईश्वर, धर्म, पंथ, विचार ये सब मनुष्य की ईजाद हैं। मनुष्य ने अपनी सामाजिकता और सामुदायिकता के लिए इन सबको बनाया। पर, आज ये सब मनुष्य के ऊपर उसकी सीमाओं से पार उसी को डराने और शोषित करने के माध्यम बन गए हैं। महान कथाकार गोर्की जब यह कहते हैं कि – “मेरे ख्याल में दुनिया में ऐसे कोई भी विचार नहीं हैं जिनका अस्तित्व मनुष्य की सीमाओं से बाहर हो। मैं यह मानता हूँ कि केवल मनुष्य ही सब वस्तुओं और सब विचारों का रचयिता है। चमत्कारों को पैदा करने वाला और सभी प्राकृतिक शक्तियों का भावी स्वामी भी वही है। कलाओं की दुनिया में जो भी कुछ सबसे सुन्दर है, वह मनुष्य के श्रम द्वारा, उसके चतुर हाथों द्वारा निर्मित हुआ है। श्रम की ही प्रक्रिया में हमारे सभी विचार और भावनाएँ प्रस्फुटित हुई हैं और यह बात कला के इतिहास, विज्ञान और प्रौद्योगिकी को देखकर और अधिक पुष्ट होती है। विचार तथ्य का अनुगमन करता है। मैं मानव के प्रति श्रद्धा से नत हूँ क्योंकि इस संसार में जो कुछ भी है वह मनुष्य के विवेक, उसकी कल्पना और विचार-शक्ति का ही परिणाम है। उसने उसी तरह ईश्वर का अविष्कार किया है जैसे फोटोग्राफी का। अंतर केवल इतना है कि कैमरा वही दिखता है जो कुछ वस्तुतः उपस्थित है, जबकि ईश्वर मनुष्य की अपने बारे में गढ़ी गयी आदर्श कल्पना की तस्वीर है जो बनने की उसकी इच्छा है यानी सर्वांग, सर्व-शक्तिमान और पूर्णतः न्यायप्रिय हो सकने की कामना। … यदि पवित्रता के विषय में कुछ कहने की जरूरत है तो मैं कहूँगा कि मेरे लिए पवित्रता का एक ही मतलब है, और वह है मनुष्य का स्वयं के प्रति असंतोष, जो वह है उससे बेहतर बनने की उसकी तड़प, जीवन में विकसित हो रही उन वाहियात चीजों के प्रति उसकी घृणा जिसे उसने खुद ही पैदा किया है। अपने से रचे उसके संसार के सभी लोगों में फैली इर्ष्या, लोभ, अपराध, रोग, युद्ध और शत्रुता के समाप्त कर देने की उसकी इच्छा को भी मैं पवित्र मानता हूँ” – तो स्पष्ट है कि वे मनुष्य की विचार-शक्ति और सत्ता को किस मुकाम पर रखना चाहते हैं।
मुझे याद आ रहा है, मैंने कहीं पढ़ा है, पिछली शताब्दी के नवें या आखिरी दशक में ब्रिटिश संसद के अपर-हाउस में ‘कविता’ की स्थिति और भविष्य को लेकर बहस हुई थी। कैसी कवितायें लिखी जा रही हैं इस पर चिन्ता व्यक्त की गयी थी। सदन में यह प्रस्तावित किया गया था कि अच्छी कविताओं की जरूरत आज और अधिक है। हमारे देश की संसद के पास ऐसी किसी बहस या चिन्ता का कोई उदहारण हमारे पास है क्या? इस देश में क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर को मिलकर बहुत सारे राजनीतिक दल हैं। किसी भी दल में कोई साहित्यिक नीति है क्या? जो वामपंथी दल हैं उनकी भी साहित्य-विषयक कोई स्पष्ट नीति नहीं है कमोवेश उनके लेखक संगठनों के कुछ सक्रिय किन्तु निष्प्रभावी हस्तक्षेपों और प्रयासों के उदाहरण के अतिरिक्त।
आज राजनीतिक ही नहीं बल्कि ‘साहित्य’ और ‘लेखक’ जैसी संस्थाओं के साथ-साथ सभी तरह की सांस्कृतिक संस्थाओं का जो क्षरण हुआ है, पतन हुआ है उसका हमारे समय पर, हमारी सोच पर, हमारी सृजनशीलता पर गहरा प्रभाव पड़ा है। साहित्यिकों, सामाजिकों और राजनीतिकों में इस बात को लेकर कोई चिन्ता नहीं। हमें इस पर नज़र रखने की ज़रूरत है कि राष्ट्र-राज्य के साथ-साथ बाज़ार सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाओं का निर्माण, संचालन और नियंत्रण कैसे कर रहा है? उसकी मूल मंशा क्या है? इन स्थितियों-परिस्थितयों में साहित्य का पक्ष क्या होना चाहिए इसका उत्तर पा लेने से पहले यह पूछा जाना चाहिए कि :
- जिस समय और समाज को लेकर हम चिन्ताग्रस्त हैं उसी समय और समाज के अन्दर पहुँचने और पसरने की कार्य-संस्कृति के लिए साहित्य के पास आज मुद्दा क्या है? रोड मैप क्या है?
- राजनीति जिन सवालों पर चुप है साहित्य अपने सामाजिक-सांस्कृतिक दायित्व के साथ उन सवालों को, उन बिन्दुओं को उठा रहा है?
- सूचना की ‘महाक्रांति’ वाले इस समय में एक शाश्वत समयहीनता में गुजर-बसर कर रहे जी रहे लोगों को उनके समय से जोड़ने का कोई कार्य साहित्य कर पा रहा है?
- कॉमोडिटी में बदलते चले जाने की जो प्रवृत्ति इधर बहुत तेज़ी से साहित्य में पैदा हो गयी है, बाज़ारवाद के इन ‘जर्म्स’ से क्या हमारे समय का साहित्य बचा रह सकेगा?
- साहित्य में ‘प्रोपेगैंडा’ पहले भी चलता रहा है और आज भी है। पर, इधर दिखने और कहने में अति-लोकतांत्रिक पर वास्तविकता में कुछ और, सोशल मीडिया एवं अन्य सेटेलाईट माध्यमों के चलते साहित्य में एक ‘आतंरिक उपनिवेशवाद’ (Internal Colonialism) जैसी मनोवृत्ति और संरचना का विकास होता दिख रहा है। साहित्य में एक बड़े शहरी मध्यवर्ग के लोभ-लाभ के संस्कारों और बौद्धिक गतिविधियों के बीच जो दरार है, क्या साहित्य इसे प्रश्नांकित कर पा रहा है?
- 20-30 साल के आयु-वर्ग वालों की एक पूरी नयी पीढ़ी उभर कर आयी है। हमारे प्रधान मंत्री जिन्हें ‘माउस चार्मर’ पीढ़ी कहते हैं। यह पीढ़ी बहुत ‘स्मार्ट’ पीढ़ी है और इनके लिए ‘स्मार्टनेस’ का एक ही अर्थ है – ऐसी स्किल जो किसी भी तरह से अपना काम सिद्ध कर सके – और उस सिद्धि को, फल को मीडियाकरी के सहारे तार्किकता का जामा पहनाकर वैधता देने की कोशिश करे। यह स्किल, यह तार्किकता, यह वैधता दरअसल पूँजीवादी मूल्यों का, बाजार का विस्तार है, वैधता है। इस स्किल में वे युवा भी शामिल हैं जिन्हें मक्सिम गोर्की मानते हैं कि ‘वे साहित्य और संस्कृति के नाम पर अहमवादी व्यक्तित्व का मात्र खाल ओढ़े, आत्मा में थकान और मन में व्यग्र करने वाली आशंकाएं लिए कभी समाजवाद से इश्क फरमाते हैं तो कभी पूँजीवाद की खुशामद करते हैं। उनकी निराश एक भयंकर अनास्था का रूप ले लेती है। कल तक जिसकी वह पूजा करते आये थे आज उसी को उन्मादी की तरह नकारने और आग में झोंकने लगते हैं।’ क्या साहित्य इस चालाक ‘स्मार्टनेस’ को चिह्नित कर पा रहा है और यदि कर पा रहा है तो उसका पक्ष क्या है?
- साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों में अब कितनी जान बची है? वे किस तरह की भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं? राम विलास शर्मा ने अपने एक साक्षात्कार में कहा है कि, “किसी भी संगठन को लुंजपुंज नहीं होना चाहिए। लुंजपुंज संगठनों से मेले हो सकते हैं , कोई ठोस काम नहीं।”
- आज साहित्य की ही नहीं सभी तरह की सांस्कृतिक संस्थाओं का जो क्षरण हुआ है, पतन हुआ है उसका हमारे समय पर, हमारी सोच पर, हमारी सृजनशीलता पर गहरा प्रभाव पड़ा है। साहित्यिकों, सामाजिकों और राजनीतिकों में इस बात को लेकर कोई चिन्ता है?
- क्या धर्म संसद, विज्ञान कांग्रेस, इतिहास कांग्रेस, समाजविज्ञान कांग्रेस जैसी सालाना संसदों की तर्ज़ पर साहित्य संसद जैसी कोई सालाना बैठक है? ‘लिटरेरी फेस्टिवल’ की बात मैं यहाँ नहीं उठा रहा।
- सेटेलाईट माध्यमों के आक्रमण के आगे समाज का अधिकांश हिस्सा आत्मसमर्पण करता जा रहा है। हम अपने ही देश में सांस्कृतिक रूप से विस्थापित हैं। सांस्कृतिक-राजनीतिक मुँहजोरी का इतना भव्य और आकर्षक किन्तु विकृत रूप इतने अकुंठ भाव से पहले कभी नहीं हुआ। झूठ को इतना बह्व्य और आकर्षक बनाकर पेश करने की इतनी कोशिश पहले कभी नहीं दिखी। धर्म का पाखंड और राजनीतिक वितंडा इधर न छटने वाले कुहासे की तरह पसरता जा रहा है। सनसनी और अफवाहें ज़हरबाद की तरह अपने असर में फैलती जा रही हैं। इस तरह की प्रवृत्तियों को रोकने के लिए साहित्यकार लेखन के अलावा और क्या कार्य कर सकते हैं?
इन प्रश्नों में ही इस बात का उत्तर भी शायद मिल जाय कि हमारे समय में ‘साहित्य का पक्ष’ क्या हो। अगर, आज हमें इस बात की चिन्ता है कि बाज़ार में होते हुए भी ‘माल’ न बनते हुए साहित्य का पक्ष क्या होना चाहिए, तो निश्चित तौर पर इन या इन जैसे और अनेकों प्रश्नों के साथ सोचने-विचारने और उनका उत्तर पाने का माहौल बनाना चाहिए न कि साहित्य को ‘कॉमोडिटी’ में बदलते जाने में सहयोग देना चाहिए।
परिचय :
आलोचक और संपादक। आलोचना की लिखित और संपादित कई किताबें। इसी साल ‘आलोचना की पक्षधरता’ व ‘राष्ट्रवाद और गोरा’पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। ‘नई सदी की दहलीज़ पर’ आलोचना पुस्तक के लिए ‘देवीशंकर अवस्थी सम्मान’ और ‘वनमाली कथालोचना सम्मान’से सम्मानित। ‘पक्षधर’ पत्रिका के संपादक। दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली में हिंदी का अध्यापन
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सम्पर्क:
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मो. : 09560236569, ई मेल : vtiwari@hindi.du.ac.in/ vinodtiwaridu@gmai.com
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कमोडिटी में बदलते साहित्य संस्कृति के मुनाफाखोर बाजारु समय में 'माल' में बदलने के विरुद्ध ठोस तार्किक पक्षधरता को चुनने प्रेरित करने वाला सामयिक लेख।
कमोडिटी में बदलते साहित्य संस्कृति के मुनाफाखोर बाजारु समय में 'माल' में बदलने के विरुद्ध ठोस तार्किक पक्षधरता को चुनने प्रेरित करने वाला सामयिक लेख।
बधाई। अच्छा विश्लेषण किया है । आज राजनीति का और सांस्कृतिक राजनीति का भी बाजार सजा है। विकल्प कमजोर होने के कारण फसल काट कर अपना घर भरने की अंधी कोशिश की जा रही है ।मूल्य और संस्कार के नाम पर चमत्कार पूर्ण कथाएँ पुनः परोसी जा रहीं हैं ।इतिहास भारत के इतिहास की खोज से किनारा जानबूझ कर किया जा रहा है। उन्हें तार्किक नहीं माउस चार्मर युवा पीढ़ी ही अधिक अनुकूल पडती है जो बड़े सामाजिक सांस्कृतिक राजनीतिक प्रश्नों की ओर न जाए। जो प्रश्न तुमने उठाए हैं उस ओर तो कतई नहीं जाए। पर इन प्रश्नों को एक बेहतर समाज के निर्माण के लिए उठना आवश्यक है ।
बेहद महत्वपूर्ण प्रश्न उठाये गए हैं इस लेख में,विशेष रूप से माउस चार्मर पीढ़ी,शाश्वत समयहीनता व इंटर्नल कॉलोनीज़म के सन्दर्भ में साहित्य की जवाबदेही… बहुत बधाई आपको इस लेख के लिए ।