कविता निबन्ध लेखमाला भाग – 4
छन्द
हम संक्षेप में कविता के शरीर और आत्मा का वर्णन कर चुके। अब उसके परिच्छेद का कुछ विवरण सुना कर इस विषय को समाप्त करेंगे। कविता करने के लिए सबसे प्रथम छन्दों का ज्ञान होना चाहिए। ‘ गद्य काव्य ‘ की बात हम नहीं कहते। पर जो पद्य में कविता करना चाहते हैं, वे बिना छन्द ज्ञान के एक पद भी आगे नहीं बढ़ सकते। जो लोग बिना छन्दों का ज्ञान प्राप्त किये ही पद्य लिखते हैं वे बुद्ध-समाज में ही नहीं, सर्व साधारण में भी अनादृत होते हैं। ऐसे लोगों की रचना में छन्दोंभंग का होना स्वाभाविक है। छन्दोभंग से उच्च से भी उच्च भाव-पूर्ण कविता का सौन्दर्य नष्ट हो जाता है। बड़ी सुन्दर कविता है, बड़े सरस भाव हैं, बड़ा मधुर छन्द है ; पर जो बीच में छन्दोभंग के विपरीत पवन ने आकर पाठक के स्वर लहरी के स्वाभाविक प्रवाह को रोक दिया तो वहाँ ‘ मोहन भोग में कंकर ‘ के समान बहुत ही खटकता। जिस प्रकार सुमधुर झंकार के बीच सितार का तार टूट जाने पर सब रंग बेमजा हो जाता है, उसी प्रकार छन्दोभंग से भी कविता लूली हो कर अपना सौन्दर्य खो बैठती है। यही कारण है कि हमारे आचार्यों ने छन्दःशास्त्रों में छन्दोभंग को दोष माना है और उसे अनेक दुखों और विपत्तियों का कारण बतलाया है। इतने पर भी कुछ नवसिखुए यश प्राप्ति की त्वरा में छन्दोभंग पर ध्यान नहीं देते। यदि यह रुकावट नहीं होती, तो शायद आज छन्द पर और क्या-क्या नहीं बीतती। यथार्थ में “ अपि भाषं भषं कुर्यात् छन्दोभंग न कारयेत् ” कहने का मुख्य कारण यही है जो हमने ऊपर कहा है। ” कविता कामिनि कान्त कालिदास का त्रयम्बकम् संयमिनम् ददर्श ‘ तो प्रसिद्ध है। ‘ त्रयम्बकम् ‘ का शुद्ध रूप ‘ त्र्यम्बकम् ‘ है। पर कवि-कुल गुरुजी यदि ‘ त्र्यम्बक् ‘ लिखते तो छन्दोभंग हो जाता, अतएव उन्होंने ऐसा करने की अपेक्षा व्याकरण पर ही अन्याय करना उचित समझा। इससे सिद्ध हुआ कि कवियों की निरंकुशता भी तब तक छन्दोभंग की उपेक्षा नहीं कर सकती जब तक कि वह बिलकुल निरुपाय नहीं हो जाती। छन्दोभंग से बचने के लिए छन्दों का ज्ञान होना चाहिए। यदि हमसे कोई छन्द की परिभाषा पूछे तो हम कहेंगे सुर के निर्दिष्ट उतार चढ़ाव और विश्राम के विचार से गिनी हुई मात्राओं अथवा वर्गों में जो विचार प्रकट किये जाते हैं, उन्हें छन्द कहते हैं। बहुत से लोग शुद्ध छन्द लिख सकने के अभिप्राय से छन्दों की निर्दिष्ट मात्राओं अथवा वर्गों की संख्या कण्ठस्थ किया करते हैं, जैसे हरिगीतिका छन्द में 28 मात्राएँ होती हैं, अमुक छन्द में इतनी मात्राएँ आदि। इसके अनुसार लिखे गये छन्द में यदि कोई छन्दोभंग बतलाता है तो वे बड़ा आश्चर्य करते हैं और मात्राएँ गिनकर अपनी . निर्दोषता बतलाने को तैयार हो जाते हैं। ऐसे लोगों को सुर के चढ़ाव-उतार के प्रधान कारण ह्रस्व और दीर्घ के यथास्थान प्रयोग का ज्ञान नहीं रहता। उन्हें चाहिए कि पहिले वे छन्द की गति अथवा लय का अभ्यास करें। जिन्हें इन बातों का अभ्यास है वे छन्दों की निर्दिष्ट मात्राओं की संख्या बिना जाने ही सुगमता से छन्दोभंग-रहित रचना कर सकते हैं। थोड़े दिन के पहले हिन्दी में ‘ तुकान्त ही में कवितान्त ‘ समझा जाता था। पर हर्ष की बात है कि अब कुछ लोग अतुकान्त कविता भी लिखने लगे हैं। हमारे कान तुकान्त पद्य सुनने के अभ्यस्त हो गये हैं अतएव जो अतुकान्त पद्य अभी हमें खटके तो कोई आश्चर्य नहीं।
“ न जात खड़ी बोली पै कोउ भयो दिवानो।
कोउ तुकान्त बिन पद्य लिखत में है उरझानो।।
यह झगड़ा बहुत पुराना है। नयी रीतियों का पहले विरोध किया जाना स्वाभाविक है। ब्रजभाषा ने खड़ी बोली से युद्ध किया, मात्रावृत्तों ने वर्ण-वृत्तों का मार्ग रोका और तुकान्त पद्य अतुकान्त के सामने आकर खड़ा हुआ। अपने पुश्त-दर-पुश्त के अधिकार को बिना एक मोरचा लड़े कोई कैसे छोड़ सकता है। बिलकुल छोड़ देने की बात दूर रही, अपने अधिकार का कुछ हिस्सा भी दूसरों में बँट जाना असहाय होता है। ‘ खड़ी बोली ‘ की तो विजय ही हो गयी। वर्ण वृत्तों को मात्रा-वृत्तों में बैठना ही अभीष्ट था, सो उसे भी अब प्रवेश मिल गया। पर तुकान्त-अतुकान्त के झगड़े का निबटारा अभी तक ठीक-ठीक नहीं हुआ है। हमारे विचार में तुकान्त के नियम का कविता में यदि पालन भी किया जाय तो कोई हानि नहीं। तुक मिलाने में समय-समय पर कवियों को बहुत दिक्कत उठानी पड़ती है और कभी-कभी तो इसके कारण अर्थ का सौन्दर्य भी नष्ट हो जाता। तुक के कारण और भी कई प्रकार के अनर्थ होते हैं। कोई विवशता बताकर शब्दों को तोड़-मरोड़ पूर्व पंक्ति के अन्त्य शब्दों के साथ उनका सम्बन्ध जोड़ता है तो कोई रबर की तरह उन्हें खींच-खांच के लम्बा कर पूर्वान्त्य शब्दों से उनका ग्रन्थि-बन्धन करता है। अतुकान्त पद्य के विरोधियों का यह डींग मारना कि समर्थ कवियों के आगे शब्द-समूह मृत्यवत् हाथ बाँधे खड़े रहते हैं, ठीक नहीं जान पड़ता। हाँ, यह बात सत्य है कि शब्द भण्डार पर पूर्ण अधिकार रखने वाले कवियों को तुकों की रंकता नहीं सता सकती। इतना होने पर भी समय-समय पर बड़े से बड़े कवि को तुक के खयाल से अपनी लेखनी के वेग को मन्द करना पड़ता है। कवि कुल-शिरोमणि गुसाईं जी को “ बन्दौं गुरु पद-कञ्ज ” के नीचे “ महामोह-तम-पुञ्ज ” लिखने के पहले ‘ का ‘ और ‘ पुञ्ज ‘ के तुक पर विचार करते हुए जरूर कुछ देर अटकना पड़ा होगा। इसका कारण यह है कि प्रत्येक भाषा में कुछ शब्द ऐसे होते हैं जिनके समान रूप वाले शब्द अधिक नहीं होते। जब ऐसे शब्दों की मैत्री स्थापित करने का मौका आ जाता है तब कवि को बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। समस्या-पूर्ति कर्ता हमारे ‘ रसिक समाजों ‘ में प्रायः तुकों की छीछालेदर हुआ करती है। ‘ केहि कारण नारि नवावत निब्बू ‘ की पूर्ति करने में तुकों की जो दुर्दशा हुई होगी उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। ‘ घटिका शतक ‘ जैसे विद्वान अपनी जीवनी में, ‘ सूरज देखि सकै नहीं घुघ्यू ‘ की पूर्ति का उल्लेख भले ही सदर्प कर ले, पर हम तो उसे तुकों की हत्या ही कहेंगे।
सारांश यह कि संकीर्ण स्थलों में तुकों के कारण अनेक अनर्थ होते हैं। अतएव अतुकान्त कविता करने में कवियों को बहुत कुछ सुभीता रहेगा। बंगला और उड़िया भाषा की कविता केवल अन्त्याक्षरों के मेल से भी बुरी नहीं जान पड़ती, पर हिन्दी में ऐसे तुक अच्छे जान नहीं पड़ते। उत्तम तुक वही है जिसमें शब्दों के सम्पूर्ण रूप में समत्व हो। इससे बंगला, उड़िया आदि भाषाओं की अपेक्षा हिन्दी में तुकान्त के कारण अधिक कठिनता होती है। अतुकान्त कविता के प्रचार से इस कठिनता से मुक्ति अवश्य मिल जायगी। जब तक तुकान्त की कैद से रिहाई पाकर हिन्दी कविता खूब स्वतन्त्र नहीं हो जायगी तब तक वह अपनी बहिनों के साथ दौड़ लगाने के योग्य नहीं हो सकेगी।
“ अनुप्रास प्रतिबन्ध कठिन उर मांही।
त्यागि पद्य प्रतिबन्धह लिखत गद्य क्यों नाहीं? ”
इस पर हमारा इतना ही कहना है कि संस्कृति के विश्व-विश्रुत कवियों की समझ क्या इतनी प्रौढ़ नहीं थी कि वे इस गद्य और पद्य के भेद को समझते? “ अनुप्रास कबहूँ न सुकवि की शक्ति घटावै। वरु सच पूछौ तो नव सूझ हिये उपजावै। ” हम तो हजार प्रयत्न करने पर भी लेखक के इस कथन का मतलब नहीं समझ सकते। ऐसी बातों से अतुकान्त कविता का प्रचार रोकने की चेष्टा व्यर्थ है। हमारे विचार में स्वतन्त्र विचारों का सम्बन्ध शिक्षा की अपेक्षा समय की गति पर ही अधिक अवलम्बित है। उपर्युक्त कथन हमारे एक श्रद्धेय ‘ कला-कुमार ‘ ( बी.ए. ) के हैं। पर शायद आज के डेढ़-दो युग पूर्व उनके जो खयाल थे, वे आज बदल गये हैं। आजकल के नवयुवकों का झुकाव अतुकान्त-कविता की ओर अधिक जान पड़ता है, यह बात नहीं। हमारे एक विद्या वयो-वृद्ध साहित्यरथी ने अतुकान्त कविता में ‘ महाकाव्य ‘ लिखकर हिन्दी-साहित्य में युगान्तर उपस्थित कर दिया है।
अभी तक केवल वर्णवृत्त ही अतुकान्त कविता के उपयुक्त समझे गये हैं। पर स्वर्गीय व्यास जी के ‘ कंस वध ‘ काव्य के उल्लेख कर . यह कहना कि मात्रा वृत्तों में अतुकान्त कविता उत्तम बन ही नहीं सकती, उचित नहीं जान पड़ता। कौन कह सकता है कि भविष्य में कोई क्षमताशील कवि मात्रा-वृत्तों में ही अतुकान्त रचना में सफलता प्राप्त कर हमारे उक्त अनुमान को गलत साबित कर दे। शक्तिमान् लोग असम्भव को सम्भव कर दिखाते हैं। जिस समय बंगाल में अतुकान्त रचना के विचार को लोग पागलपन समझते थे, उस समय माइकेल मधुसूदन दत्त ने ‘ मेघनाथ बध ‘ का आविर्भाव कर पयार-प्लावित बंग-देश में अमित्रच्छन्द का प्रचार किया था। जो हो, जब तक मात्रा-वृत्ति अनुपयुक्त समझे जाते हैं तब तक वर्ण-वृत्तों में ही वृत्यानुप्रासहीन रचना करना चाहिए।
यह तो हुई उस अन्त्यानुप्रासहीन रचना की बात जिसकी प्रत्येक पंक्ति विश्राम-चिह्न-युक्त होती है। अब हम विश्राम-चिन्ह-हीन पदयुक्त अतुकान्त-रचना पर विचार करते हैं। इसे दौड़ता हुआ अमित्रच्छन्द कहना ठीक होगा। केवल हिन्दी जानने वालों के लिए इस प्रकार का दौड़ता कूदता छन्द एक तमाशा है।
पर जो अंग्रेजी या बंगला जानते हैं, वे ऐसी रचना से अच्छी तरह परिचित होंगे। यथार्थ में मात्रा-वृत्तों में अमित्राक्षर रचना करते हुए, इस बात पर अवश्य ध्यान देना चाहिए कि उनकी पंक्तियाँ विश्राम-चिन्ह-हीन हों। मात्रा-वृत्तों में सतुकान्त रचना सुनने के हम आदी हो गये हैं। यही कारण है कि अतुकान्त-मात्रा-वृत्त हमारे कानों को जरा खटकते हैं। इस खटक को दूर करने के लिए ऐसी रचनाओं में कुछ और नवीनता और विशेषता लानी चाहिए। हमारे ख्याल में उनके पद विश्राम-चिन्ह-हीन हुआ करेंगे तो लोग उन्हें चाव से पढ़ेंगे। पहले-पहल तो उन्हें ऐसी रचना के अर्थ समझने में कुछ कष्ट और विलम्ब होगा। क्योंकि उन्हें उसके वाक्यों का अन्वय करने के लिए एक ही पंक्ति पर नहीं बल्कि कई पंक्तियों पर दृष्टि दौड़ानी पड़ेगी। पर हमारा विश्वास है कि धीरे-धीरे अभ्यास से यह कठिनता दूर हो जायेगी।
हिन्दी में इस प्रकार की विश्राम-चिन्ह-हीन पद-युक्त रचना बिल्कुल नयी बात है। आप प्राचीन अर्वाचीन समस्त कवियों की रचना को देख जाइए, आपको इस प्रकार के पद बहुत कम मिलेंगे। पर इस नवीनता के कारण ही इस प्रकार की रचना का विरोध करना कदापि उचित नहीं है। ऐसी रचनाओं में किसी नवीन प्रणाली से काम नहीं लिया जाता है। छन्द का रूप बदल जाता है, पर लेखन प्रणाली वही रहती है। जिस प्रकार साधारण रचना में विराम चिन्ह और यति का प्रयोग किया जाता है, उसी प्रकार उनका प्रयोग इसमें भी होता है। भेद है तो इतना ही कि साधारण रचना में छन्द भेद से पिंगल के अनुसार प्रत्येक पंक्ति की नियत मात्राओं में यति स्थापित करना ही पड़ता है, पर इस प्रकार की अतुकान्त-रचना में कवि नियत मात्राओं में ही नहीं बल्कि इच्छानुसार पंक्ति भर में चाहे जहाँ भी यति स्थापित करने को स्वतन्त्र रहता है।
हम इस बात को उदाहरण देकर स्पष्ट करते, पर स्थानाभाव के कारण ऐसा करने से विरत होते हैं।
इस प्रकार की रचना अतुकान्त ही नहीं बल्कि तुकान्त-युक्त भी हुआ करती है। बंगाल के सुप्रसिद्ध कवि और नाट्यकार श्रीयुत द्विजेन्द्रलाल राय का ‘ सीता ‘ नामक काव्य इसी ढंग का है, जिसे पढ़ते समय पाठक शरीर की भी सुधि भूल जाता है। प्रतिभा युक्त कवि की बलवती लेखन जो न करे वह थोड़ा है। पर हिन्दी के लिए ये बातें अभी निरी कौतूहल वर्द्धक हैं। हिन्दी-साहित्य के प्रागंण में ऐसे नव्य-शक्ति-सम्पन्न सुकवियों की लेखनी का चमत्कार देखने के लिए हमें समय की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
विश्राम-चिह्न-रहित-पद संयुक्त भिन्न-तुकान्त रचना करना तुकान्त-युक्त रचना की अपेक्षा कठिन है। कोई-कोई तुकों का झगड़ा मिट जाने के कारण ऐसी रचना को सुगम समझते हैं, पर यह बात नहीं। ऐसी रचना को सुन्दर बनाकर सफलता प्राप्त करना साधारण कवियों का काम नहीं है। अन्त्यानुप्रास की मधुरता के न रहने के कारण उसे श्रुति-सुखद और हृदयग्राही बनाने के लिए कवि को सुशब्द-विन्यास और पद-लालित्य का अधिक ध्यान रखना पड़ता है। भाव के अनुसार भाषा को बदल देना और हृदय के आवेश अथवा गम्भीरता को सुर के चढ़ाव-उतार और वाक्यों के वेग अथवा शिथिलता द्वारा स्पष्टतया प्रकट करना इस प्रकार की रचना में अत्यन्त आवश्यक है। इसके लिए कौन-सा छन्द काम में लाना चाहिए इस प्रश्न का उत्तर ठीक-ठीक नहीं दिया जा सकता। शक्तिमान कवि चाहे जिस छन्द में कविता करके सफलता प्राप्त कर सकता है। श्रीयुत जयशंकर ‘ प्रसाद ‘ जी ने वीर या आल्हा छन्द में ‘ प्रेम पथिक ‘ लिखकर यह साबित कर दिया है कि ऐसी कविता इस छन्द में अच्छी तरह की जा सकती है। आल्हा छन्द तुकान्त-हीनता के लिए चिरकाल से प्रसिद्ध है ही। हमारे विचार में ऐसी रचना के लिए 21 मात्राओं का प्लवंगम छन्द बहुत उपयुक्त है। आजकल प्रायः तुकान्त-हीन रचना इसी छन्द में की जाती है।
हिन्दी-साहित्य का यह ‘ परिवर्तन-युग ‘ उपस्थित है। इस अवस्था में यदि हिन्दी-कविता के नये-नये रूपों की चर्चा चले तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। ऐसी चर्चाओं में ‘ अन्वय-क्रम-निबन्धन ‘ की चर्चा भी एक है। छन्दों के लघु, गुरु वर्णों अथवा मात्राओं के विचार से कवि को उनमें वाक्यों के शब्दों को गद्य की तरह यथाक्रम रखने में कठिनता होती है। अतएव कविता का अर्थ जानने के लिए उसके अन्वय करने की आवश्यकता होती है। पर जिस कविता में अन्वय-क्रम-निबन्धता की रीति का पालन किया जाता है, अन्वय करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। हम इस प्रकार की कविता-रीति के विरोधी न होने पर भी उसकी अत्यन्त आवश्यकता नहीं समझते। इस रीति के अवलम्बन से कवि को विशेष कठिनाई का सामना करना पड़ेगा, जिससे रचना में विशेष विलम्ब का होना सम्भव है। पर, हाँ, जहाँ तक बन पड़े वाक्यान्तर्गत शब्दों को यथा-क्रम रखने का ही यत्न करना चाहिए जिससे दूरान्वय-दोष का भय न रहे। दूरान्वय-दोष भाव-स्पष्टता का बाधक है।
छन्द-निर्वाचन में इस समय कुछ स्वतन्त्रता से काम लिया जाने लगा है-यह हमारे विचार में उचित जान पड़ता है। दोहा, चौपाई, कवित्त, सवैया लिखकर आज-कल सफलता प्राप्त करना जरा कठिन काम है। हम चाहे उपयुक्त प्रकार के छन्द लिखने में अपनी सारी योग्यता और शक्ति क्यों न खर्च कर दें, किन्तु उन्हें वैसे सुन्दर और प्रभावोत्पादक नहीं बना सकते जैसे कि वे हमारे पूर्ववर्ती कवि सरदारों के हाथ से बन सके हैं। गुसाईं जी ने चौपाई को, बिहारी ने दोहे को और देव-भूषण, पद्माकर आदि ने कवित्त-सवैया आदि को अपनाकर हिन्दी के काव्य-भण्डार को उनसे ऐसा भर दिया है कि उनका अभाव शायद कभी खटकेगा ही नहीं। जिन लोगों ने उक्त कवियों की रचना का रसास्वादन कर लिया है भला उन लोगों को आज-कल के टुटपुंजिये कवियों की लेखनी से निकले हुए दोहा-चौपाई और कवित्त-सवैये कभी अच्छे मालूम हो सकते हैं? रसगुल्ले और बालूशाही खा लेने के बाद क्या सूखी रोटी का स्वाद किसी को पसन्द हो सकता है? कभी नहीं। इसीलिए आजकल अन्यान्य मात्रा अथवा गण-वृत्तों का प्रचार वांछनीय है।
योग्य कवियों को चाहिए कि ये पिंगल-कथित छन्दों के सिवा नये-नये छन्द निर्माण करें, ताकि अन्य लोग उनका अनुकरण कर सकें। इस प्रकार छन्द-निर्माण करने में पिंगल ही के नियमों का पालन किया जाय पर कई प्रकार के छन्दों के सम्मिश्रण से चार-छह या आठ चरणों वाले ऐसे छन्द प्रस्तुत किये जायें जिसके रूपों में बिल्कुल ही नवीनता पाई जाय और जो पढ़ने में भी मधुर जान पड़े। इस प्रकार के नये-नये छन्दों के विरोधियों को स्मरण रखना चाहिए कि उनके निर्माण का उद्देश्य पिंगल कथित छन्दों के प्रचार को रोकना या उन्हें नीचा दिखाना नहीं, बल्कि हिन्दी कविता के उपयुक्त छन्दों की संख्या बढ़ाना और भाषा-पिंगल को नयी-नयी कविता-रीतियों और नये-नये छन्दों से सम्पन्न करना ही है।
खड़ी-बोली की कविता के लिए उर्दू के कुछ छन्द बहुत उपयुक्त हैं। अतएव-ऐसे छन्दों में यदि कविता की जाय तो कोई हानि नहीं। पर इसमें एक कठिनता यह है कि उर्दू के छन्दों में मात्रा अथवा वर्गों की संख्या गिनी नहीं जाती, उच्चारण के अनुसार ह्रस्व को दीर्घ और दीर्घ को ह्रस्व मानना पड़ता है, पर हिन्दी के छन्दों में यह बात नहीं है। इस अवस्था में उर्दू के छन्दों में हिन्दी कविता लिखते हुए हिन्दी के छन्दों का नियम पालन न करना, हमारे विचार में जरा न्यायसंगत नहीं जान पड़ता। अतएव ऐसे छन्दों में कविता लिखने के समय केवल उच्चारण के ही ख्याल से मात्राओं की एकदम अवहेलना नहीं करनी चाहिए। जहाँ तक बन पड़े, उच्चारण के अनुकूल शब्द ही प्रयोग करना चाहिए। हाँ, विवशता के समय यदि उच्चारण ही पर अवलम्बित रहें तो यह दूसरी बात है। पर, ऐसे अवसरों पर मात्राओं के ख्याल से शब्दों को तोड़-मरोड़ कर या विकलांग बना कर रखना उचित नहीं है जैसा कि आज-कल कुछ लोग करते हैं। उन्हें उनके प्रकृत रूप में ही रहने देना चाहिए। उच्चारण के अनुसार उनसे आवश्यक मात्राओं का काम निकाला ही जाता है। उर्दू में भी इसी रीति का पालन किया जाता है।
थोड़े दिन से कुछ लोग हिन्दी में चतुर्दशपदी पद्य के प्रचार करने के प्रयत्न में हैं। अंग्रेजी और बंगला-साहित्य में उसका यथेष्ट प्रचार देख कर यदि हिन्दी प्रेमियों का ध्यान भी उसकी ओर आकृष्ट हो, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। पर कुछ वर्ष पहले जब इस विषय का एक लेख ‘ प्रभा ‘ में प्रकाशित हुआ था तब हमारे एक मित्र महोदय ने उस पर हमारे सामने कई तरह की नुकता-चीनी की थी और चतुर्दशपदी पद्य को हिन्दी में अनावश्यक बतलाने का यत्न किया था। हर्ष की बात है कि चतुर्दशपदी पद्य की आवश्यकता कुछ संकीर्ण-हृदय वालों को ही नहीं जान पड़ती है, अन्यथा हिन्दी के वर्तमान-कालीन अधिकांश कृत विद्य और मर्मज्ञ कवियों को उसका प्रचार वांछनीय है। अब प्रश्न यह है कि ऐसे पद्य के लिए कोई खास छन्द नियुक्त किया जाय या छन्दों का निर्वाचन कवि की इच्छा पर अवलम्बित रहे? उसमें तुकों का निर्वाह अंग्रेजी और बंगला चतुर्दशपदी पद्य के नियम के अनुसार किया जाय या साधारण कविता की तरह? हमारी व्यक्तिगत समझ इस विषय में यह है कि छन्द निर्वाचन का कार्य कवि की रुचि पर ही निर्भर रहे, पर तुकों का निर्वाह अंग्रेजी और बंगला के सोनेट्स के नियम से ही हो। यदि इस तुक की झंझट से दूर रहने की इच्छा से चौदह पंक्ति की तुकान्त युक्त अथवा तुकान्त-हीन रचना चतुर्दशपदी पद्य के नाम से प्रचलित की जायेगी तो उसमें क्या विशेषता रहेगी? वैसे तो द्वादशपदी और षोडशपदी आदि अनेक तरह के पद्य लिखे जा सकते हैं और लिखे भी जाते हैं।
कुछ लोगों का कहना है कि जिस प्रकार भाव के अनुसार भाषा का प्रयोग किया जाता है, उसी प्रकार विषय के अनुसार छन्द का प्रयोग करना चाहिए। प्राचीन-काल में संस्कृत के कवि इस बात का विचार रखते थे और उन लोगों ने रसानुकूल छन्द भी नियुक्त कर लिए थे। पर इतना होने पर भी अनेक कवि अपनी रुचि के अनुकूल छन्दों का ही प्रयोग करते थे। यद्यपि किसी विषय का वर्णन छन्द विशेष में बहुत अच्छा लगता है, तथापि योग्य कवि चाहे किसी छन्द में उसका निर्वाह उत्तमता-पूर्वक कर सकता। यह बात अभ्यास पर भी अवलम्बित रहती है। किन्हीं-किन्हीं को कोई खास छन्द सध जाता है। ऐसे लोग प्रायः प्रत्येक रस के वर्णन में उसी सधे छन्द ही को काम में लाते हैं। विषयानुकूल छन्द नियुक्त रहने पर भी वे उनका प्रयोग नहीं करते। हमारे विचार से हिन्दी में भी विषयानुकूल छन्दों की सूची बन जानी चाहिए। उसके अनुसार कविता की जाय या न की जाय, यह दूसरी बात है।
छन्दों के विषय में हम और भी कुछ बातें लिखते, पर संक्षिप्तता से काम लेने पर भी लेख का कलेवर कुछ बच गया है, अतएव अब हम अपने मान्य पाठकों से विदा होते हैं।
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पद्मश्री मुकुटधर पांडेय जी की यह रचना ऐतिहासिक है। हिंदी साहित्य की अनमोल धरोहर इस निबंधमाला को प्रस्तुत करने के लिए भैया बसंत राघव को हार्दिक धन्यवाद।