रंगमंच

बच्चों के साथ ‘बतरस’ ने मनाया ‘बाल दिवस’

 

चाचा नेहरू की मार्फ़त नवम्बर ‘बाल दिवस’ का महीना होता है…और अपने डेढ़ दशक के जीवन में ‘बतरस’ ने पहली बार अपने सम्पर्कों के बल स्कूलों एवं घरों से बच्चों को साक्षात बुलाकार उनके प्रदर्शनों के माध्यम से जीवंत ‘बाल दिवस’ मनाया। इस अवसर पर ‘बतरस’ समिति के लोगों का बच्चों जैसी सांकेतिक धज में आने का निर्णय (कुछेक सदस्यों की अना के बावजूद) खूब प्रतीकात्मक एवं सुहावन रहा…।

उल्लेख्य है कि इन सारे विचारों एवं उन्हें कार्य रूप में ढाल के कर देने का इस बार सारा श्रेय समिति के दो सक्रिय व मानिंद सदस्यों -डॉ. मधुबाला शुक्ल एवं अभिनेत्री शाइस्ता खान- को जाता है। इन्होंने अपने मित्रों -खासकर संगीता तिवारी- के माध्यम से बच्चों के अभिभावकों से सम्पर्क करके उन्हें राज़ी कराया और फिर कई-कई बैठकों में उनकी प्रस्तुतियाँ तय करायीं – अभ्यास कराके उन्हें तैयार भी किया। समिति के अन्य सदस्यों में विजयकुमारजी अपने दो बेटों एवं सुप्रिया यादव अपने भतीजे को तैयार करके ले आये।

यूँ तो घोषित रूप से अनौपचारिक संस्था ‘बतरस’ में स्वागत-धन्यवाद…आदि की औपचारिकताएँ नहीं होतीं, लेकिन इस बार आमंत्रित बच्चों…तो उनके अभिभावकों के सम्मान में इस संहिता को परे करते हुए ‘बतरस’ समिति के वरिष्ठ सदस्य सत्यदेव त्रिपाठी ने उनका हार्दिक अभिवादन एवं स्वागत किया…।

इसके बाद बच्चों की प्रस्तुतियों में सबसे पहले बालिका श्रुति द्वारा मशहूर हास्य-वयंग्यकर शैल चतुर्वेदी लिखित अपने समय की सफल हास्य कविता ‘चल गयी’ के हहास से शुरुआत बहुत शानदार हुई। फिर मंदिरा पुजारी ने रामधारी सिंह दिनकर के कर्ण पर आधारित सुविख्यात एवं पाठ-प्रस्तुति की सिरमौर रचना ‘रश्मिरथी’ के एक अंश का सराहनीय पाठ किया। प्राची सिंह ने बचपन की याद पर आधारित सच का ही ‘बालगीत’ गाया। अथर्व ने खूब फ़नी कविता ‘एक चोर’ सुनायी, तो डेलिया ने ‘नारी’ नामक सरोकार से युक्त रचना के साथ कोरोना-काल पर आधृत ‘लॉक डाउन’ जैसी सामयिक समस्या पर लिखी हुई कविता भी सुनायी।

नियति शुक्ला ने प्राकृतिक सौंदर्य पर लिखी हुई ‘सुबह-सबेरे’ नामक कविता का सरस पाठ किया, तो वहीं रोहनीश यादव ने विविध विषयों पर आधारित एकाधिक कविताएँ सहज विश्वास के साथ सुनाकर सबका मन मोह लिया, जिनमें ‘हम नन्हें बच्चे’, ‘लालची बंदर’ जैसी हास्य-विनोद के साथ ‘प्रदूषण’ जैसी कविता भी शामिल रही…। मेबल साराखान ने बेयांस के ‘एलिएन सुपर स्टार’ एवं ‘क्रेज़ी इन लव’ पर पाश्चात्य नृत्य पेश किया, तो श्रेया श्रेष्ठा ने बेबी मोंस्टर का गीत ‘शीश’ सुनाया एवं मेओव्व का मेओव नृत्य प्रस्तुत किया। ऐंजेला आनंद माद्री ने ‘ह्वाइ ओनियन शुड सिमर’ एवं ज़ोया शेख़ ने ‘वर्तमान समय में देश का भविष्य’ विषयों पर अपनी भाषण-कला का प्रदर्शन किया, जिनमें बचपने की सरलता में विषय की गम्भीरता भी शामिल होकर मणि-कांचन संयोग का सुयोग बनाया…। सबसे अलग व इकला प्रयत्न रहा मल्हार का, जिसने वहीं बैठे-बैठे कई सारे रेखा-चित्र (स्केच) बनाके दिखा दिया।

इन सभी प्रस्तुतियों में बच्चों की तैयारी, लगन व उनका आत्मविश्वास देखते ही बना…। इन सबका ‘बतरस’ की तरफ़ से स्मृति-चिह्न भेंट कर इस्तक़बाल किया गया।

कार्यक्रम के दूसरे भाग में ख़ास उल्लेख्य रही – रमन मिश्र, लक्ष्मी तिवारी, डॉ मधुबाला शुक्ल एवं शाइस्ता खान द्वारा समूह में तैयार करके पेश की गयी मां-बेटे के संवाद पर आधारित मशहूर कविता – ‘हठ कर बैठा चाँद एक दिन माता से यह बोला’। इस (लगभग साभिनय) गायन का बड़े मन से सुनाये जाने और कविता की मूल सम्पन्नता में निहित कविताई के चलते गायक-श्रोता दोनो ने खूब मज़े लिये-किये और बच्चों की कविता बड़ों द्वारा पेश किये जाने का विरल असर भी बहुत अच्छा बन पड़ा…। इस प्रस्तुति में मुम्बई की परम व्यस्तता के बावजूद सबके साथ मिलकर अभ्यास करने का सुफल भी दिखता रहा और पर्याप्त अभ्यास न कर पाने का ‘फल’ भी किंचित खटकता रहा…। इन बतरसियों के उत्साह को सलाम…!!

कार्यक्रम में शामिल विशुद्ध साहित्यिक प्रस्तुतियों में आज के समय में ग़ज़ल की दुनिया के एक मानिंद हस्ताक्षर राकेश शर्मा ने बच्चों पर लिखी बड़ों जैसी अपनी मार्मिक ग़ज़ल पेश की – देवदूतों के हमशकल होकर करते शैतान की नक़ल बच्चे। लब पे मासूम सी हँसी लाकर, देते हैं हौसलों को बल बच्चे। रासबिहारी पांडेय का भावमय गीत ‘लक्ष्य बना लो अपना बच्चो, पूछो क्या कहता है मन’ सराहनीय रहा।

गायन की जानिब से दीपक खेर ने ‘मासूम’ फ़िल्म का सुपर हिट सुंदर गीत ‘लकड़ी की काठी काठी का घोड़ा, घोड़े की दुम पे जो मारा हथौड़ा, दुम उठाके दौड़ा घोड़ा दुम उठाके दौड़ा…’ से हमेशा की तरह खूब रंग जमाया। लक्ष्मी तिवारी अपने बचपने का प्रिय गीत ‘नानी तेरी मोरनी को मोर ले गया’ सुनाकर जितना मज़ा ले रही थीं, उतना ही झूम रहे थे श्रोता भी…। जया दयाल ने अपने साध भरे सुर-स्वर में ‘आओ तुम्हें चाँद पे ले जायें’ का कल्पना लोक साकार किया, तो श्रोता उसमें ऊभचूभ होते रहे…।

सबसे यादगार रहा शाइस्ता खान का बिलकुल स्कूली लड़की जैसी मोहक पोशाक में चंचल-चुलबुली अदा एवं मुक्त भाव के साथ बेलाग, पर अपनी रौ में सधा हुआ संचालन…, जो ‘बतरस’ की अनौपचारिक वाली मूल प्रकृति से मिलकर और भी संगत बन पड़ा…!

‘बतरस’ का यह आयोजन अपनी विरलता एवं सरसता के लिए यादगार रहेगा…।

 

मधुबाला शुक्ल

लेखिका प्राध्यापक व सुपरिचित समीक्षक एवं संस्कृति कर्मी हैं। सम्पर्क- vinitshukla82@gmail.com
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