रंगमंच

मुझे मेरा ‘जीवनी-लेखक’ मिल गया’ – सुरेंद्र वर्मा

 

मुम्बई की संस्था ‘चित्रनगरी संवाद मंच’ द्वारा हर सप्ताह आयोजित ‘सृजन-संवाद’ में इस बार हिंदी के सात श्रेष्ठ रंगकर्मियों (ए.के. हंगल, हबीब तनवीर, सत्यदेव दुबे, दिनेश ठाकुर, बंसी कौल, अरुण पांडेय एवं विजय कुमार) के साथ मराठी रंगमंच के लीजेंड बन गये श्रीराम लागू के जीवन व नाटयकर्म पर साहित्य व कला के सुपरिचित समीक्षक सत्यदेव त्रिपाठी लिखित संस्मरणात्मक पुस्तक ‘रंगयात्रियों के राहे गुजर’ पर चर्चा हुई।

अध्यक्षीय भाषण में देश के शीर्ष उपन्यासकार व नाटककार सुरेंद्र वर्मा ने विनोदमय अनूठी अदा में पुस्तक व लेखक की तारीफ़ की – ‘यह पुस्तक पढ़ने के बाद अब अपनी आत्मकथा मैं नहीं लिखूँगा, मेरी जीवनी त्रिपाठीजी ही लिखेंगे …। फिर उन्हें अनुदान भी मिल जाएगा, तो उनका नुक़सान भी क्यों करूँ!!

इस टिप्पणी पर उनके साथ त्रिपाठीजी की जो खुली जुगलबंदी हुई, वह आयोजन के सबसे मज़ेदार साहित्यिक क्षण थे…। अपने इस प्रिय रचनाकर को पाकर मुंबई के साहित्यिक श्रोता जान लहालोट हो उठे…छोड़ने को तैयार न थे। आयोजन की प्रमुख आयोजक रहीं डॉ. मधुबाला शुक्ल, जिन्होंने इस महती ज़िम्मेदारी के साथ संचालन का दायित्व भी बखूबी निभाया…

डॉ शुक्ल ने शुरुआत में त्रिपाठीजी से भूमिका स्वरूप पुस्तक लिखने की प्रेरणा-योजना पर प्रकाश डालने का आग्रह किया… और उन्होंने बड़े संक्षेप में कहा कि 20-25 सालों के नियमित समीक्षा-कर्म के दौरान सैकड़ों रंगकर्मियों से वास्ता बना… पर उनमें से जिनके रंगकर्म से प्रभावित होते-होते उनके जीवन से भी गहरी संपृक्ति हो गई… और जिनके समूचे व्यक्तित्व व रंगकर्म पर लिखे बिना रहा न गया, उन्हीं पर हुए लेखन का संग्रह है यह किताब…। इसकी न कोई लेखन-योजना है, न कोई वैचारिक आधार या आलोड़न… भावात्मकता के सहज प्रवाह की अभिव्यक्ति है यह लेखन… इसीलिए इसका नाम भी इसी काम का द्योतक है – रंगयात्रियों के राहे गुज़र, जिसमें ‘ प्रिय’ शब्द चुपचाप निहित (साइलेंट) है! पहला लेख सत्यदेव दुबे के अवसान के बाद की पीड़ा से निकला – आह से उपजा होगा गान की तरह! वह बहुत पढ़ा गया और तीन जगह छपा भी, जिससे उत्साह बढ़ा… और फिर सर्व प्रियतों पर धीरे धीरे काफ़ी अंतरालों के बाद लिखने की श्रृंखला बनी, जिसका परिणाम है यह पुस्तक… ! इसमें सिर्फ़ श्रीराम लागूजी वाला लेखन अपवाद है! असल में यह ‘रंगप्रसंग’ की योजना के मुताबिक़ आठ दिनों में सोलह घंटों उनसे हुई बातचीत का कथात्मक आलेख है, जिसमें मराठी रंगमंच के एक दौर के ज्वलंत इतिहास होने की श्रीरामीय महत्ता निहित है और यही इस लेख का सुफल है – इसमें वाक्य गठन के अलावा मेरा कुछ नहीं… और इसीलिए शायद सबका है…!!

इसके बाद मधुबालाजी ने प्रथम वक्ता के रूप में रानावि के स्नातक, मराठी के विख्यात उपन्यासकार व मीडिया लेखक अभिराम भडकमकर को आमंत्रित किया। उन्होंने कहा कि यह पुस्तक ‘रंग यात्रियों के राहे गुजर’ केवल कुछ रंगकर्मियों का संस्मरण भर नहीं है, बल्कि रंगमंच के एक दौर का सांस्कृतिक इतिहास है। सत्यदेव त्रिपाठी जी की सरल तथा अर्थपूर्ण, सहज और सुंदर भाषा में किए हुए इस बखान में हबीब तनवीर, ए. के. हंगल, सत्यदेव दुबे, बंसी कौल, अरुण पांडे, दिनेश ठाकुर और इनकी तुलना में युवा रंगकर्मी विजय कुमार के रंगकर्म और निजी जीवन का चित्रण है।

त्रिपाठी जी उनके योगदान का सम्मान करते हैं। बड़े प्यार से लिखते हैं। उसकी उचित समीक्षा करते हैं। लेकिन महिमा मंडल का सरल रास्ता नहीं अपनाते।

वह उनके व्यक्तिगत तथा निजी अनुभवों को सामने रखते हुए उनके अंदर की मनुष्यता को भी उजागर करते हैं। उनकी कमियां और कुछ-कुछ जगह तो बौनेपन के भी उदाहरण देते हैं। लेकिन उससे उनकी महानता और योगदान पर दाग नहीं लगता। बल्कि एक मित्र, एक शिष्य, एक चहेता और रंग कर्म से प्यार करने वाले पाठक के रूप में बड़ी ही आत्मीयता से इनका चित्रण करते हैं। इस तरह के दस्तावेज़ीकरण (डॉक्यूमेंटेशन) की हमारे समाज में परंपरा नहीं है। इसलिए यह किताब बहुत ही महत्वपूर्ण है। पढ़ते वक्त कुछ जगह हंसी भी आती है, तो कई बार आंखें नम भी होती हैं… और इन सृजनशील व्यक्तित्वों के रंग कर्म की प्रक्रिया से रूबरू भी कराती हैं। इसलिए यह एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। त्रिपाठी जी से ऐसे कई सारे संस्मरणों का इंतजार रहेगा।

दूसरे वक्ता के रूप में रानावि के भूतपूर्व प्रोफ़ेसर, रंग व मीडियाकर्मी सुरेश भारद्वाज ने कहा – ‘रंग यात्रियों के राहे गुज़र’, के रूप में एक नायाब पुस्तक पढ़ने का मौका मिला…। यह पुस्तक भाई सत्यदेव त्रिपाठी जी ने बड़े ही खूबसूरत और अनूठे अंदाज में लिखी है…। इसमें त्रिपाठी जी द्वारा चुने गए आठ रंगकर्मियों की रंग-यात्रा का ज़िक्र है…। हंगल साहब, सत्यदेव दुबे, हबीब साहब, डॉ श्री राम लागू, बंसी कौल, दिनेश ठाकुर, अरुण पांडे और विजय कुमार।

ये चयन ही अपने आप में अद्भुत है। जिसमें पूरे सौ सालों से भी ऊपर के कालखंड को समेटने की सफल कोशिश है। हंगल साहब की पैदाइश 1914 तो हबीब साहब 1923 के हैं।

मुझे इस पुस्तक की लेखन शैली में जिस तरह के शब्दों और एक तरह की किस्सागोई को समेटा गया है, वो इस पुस्तक की जान है। पढ़ते हुए इन विभूतियों का सजीव चित्रण किसी फिल्म की तरह आपके सामने जीवित हो जाता है…और यही इसे दूसरे संस्मरणों से अलग और विशेष बनाती है।

इसके अलावा त्रिपाठी जी के इन हस्तियों के साथ खट्टे मीठे क्षण से मैं दो चार हुआ। गोकि त्रिपाठी जी का खुद का व्यक्तित्व भी इस पुस्तक में उभर कर आता है।

यदि ये संस्मरण एक पुस्तक के रूप में सामने न आते, तो इन सब महान विभूतियों के प्रशंसक और रंगमंच के छात्र उनके जीवन के कई पहलुओं से अपरिचित ही रह जाते। मेरा यह भी मानना है कि ये पुस्तक रंगमंच के शोधार्थियों के लिए एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है। बहरहाल इतना ही, काफी कुछ पुस्तक ही अपने आप में कह देती हैं।

तीसरे वक्ता रंगकर्मी, लेखक व पटकथा लेखक विजय पण्डित ने किताब के कई पक्षों पर चर्चा करते हुए कहा कि यह अक्षरशः सत्य है कि संबन्धित रंग व्यक्तित्वों की मानवीय प्रवृत्तियाँ नाटक की सीमा को पार कर जीवन परक हो जाती है। यह मात्र संस्मरण की किताब नहीं, अपितु संस्मरण की विधा में एक पठनीय कथा कोलाज है, जिसे पाठक बिना पूरी पढे छोड़ नहीं पाता। यह एक रंगमंचीय धरोहर है, जिसे सहेजा जाना चाहिए। इस किताब से प्रेरणा लेकर हर रंगकर्मी को अपने कार्य, जीवन यात्रा के अनुभवों को लिखने की शुरुआत करनी चाहिए।

किताब को संस्मरण की विधा में कथा कोलाज एवं सहेजने लायक़ धरोहर बताया।

चौथे और अंतिम वक्त रहे – रंगकर्मी व सिने अभिनेता विजय कुमार। उन्न्होंने कहा – यह अपने आप में एक महत्वपूर्ण किताब है, जो अलग-अलग कुल 8 रंग व्यक्तित्वो पर केंद्रित है। इनमें सत्यदेव त्रिपाठी की नजर से मैं, दिनेश ठाकुर, बंसी कौल, अरुण पाण्डेय तो इनके काफी करीबी रहे। ए. के. हंगल साहब व हबीब तनवीर जी के काम को देखकर मुत्तासिर हुए और ख़ासा रिश्ता बना। अरुण पाण्डेय के बारे लिखा गया लेख रंगकर्म के प्रति उनके जूनून व जुझारूपन की अद्‌भुतस्वीर खींचता है! शायद ही किसी ने उनका इस रूप में मूल्यांकन किया होगा। उनको राष्ट्रीय व राजकीय सम्मानों से वंचित करना एक साज़िश पैसा लगता है।

श्रीराम लागू के साथ बातचीत एक रंग यात्रा के वृतांत की तरह है, जिसमें कला के प्रति वैचारिक और वैदर्भी पहल पुरजोर तरीके से उद्‌घाटित होती है। यह एक शानदार व महत्वपूर्ण रंग-दस्तावेज है, जो पाठकों तक जितना पहुँचे, कम है। लेखक की सूक्ष्म दृष्टि के हवाले से कहा जाये, तो यह किताब ऐसा ज़रूरी दस्तावेज है, जिसे त्रिपाठीजी के सिवा कोई लिख नहीं सकता। इस किताब को अधिकाधिक लोगों तक पहुँचाने के प्रयत्न की ज़रूरत है।

कार्यक्रम के अंत में कवि-संस्कृतिकर्मी रमन मिश्र ने सबका आभार माना।

samved

साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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