संस्मरण

जेरी के जल्वे

 

उस शाम घर में घुसते ही बेटे ने बड़ी हसरत भरे खिलन्दड़ेपन के साथ जेब में हाथ डालकर जैसे कोई बड़ा राज़-फ़ाश करने की अदा में कुछ निकालते हुए जब एक नन्हा-सा सफेद चूहा छोटी वाली मेज पर रख दिया, तो उस पर मीन-मेख करने या ‘क्यों लाए’, जैसा प्रश्न पूछने जैसी सारी बात भूल के हम चित्र-लिखे की तरह उस नन्हें से प्राणी को निहारते रह गये…!!

सफ़ेद चूहा मैंने सुना ज़रूर था, लेकिन इस तरह सामने और नज़दीक से देखा पहली बार, वरना सामान्य चूहों के बीच तो हम रहे ही गाँव में… घरों में चूहेदानी में पकड़ के बारहा फेंक चुके थे… खेतों में उनकी बनायी बड़ी-बड़ी दारारों के आकार की बिलों को खोदकर उनमें से उनके रखे जौ-गेहूं-धान…आदि की बालों को निकाल चुके थे। ऐसे निकाले अनाज की तौल की जाये, तो हर चक से मनों (चालीसों किलो) अनाज प्राय: निकालते, जो सारे चकों को मिलाकर हर फसल में क्विंटल भर और साल में लगभग दो क्विंटल अनाज से कम न होता। इसीलिए तो गाँव में कहावत मशहूर है – ‘मूसे (माउस-चूहा) के खायल आ मेहरी के मारल… कहल ना जाय सकत’। इसमें पत्नी से मार खाना तो लोक-लाज के मारे कहा नहीं जाता, लेकिन मूसों का खाना तो मात्रा के कारण ही अकथनीय होता, जो सच ही अकूत रहता…। कुल मिलाकर किसानी जीवन में मूसों का साथ गँवईं जीवन पद्धति का एक अवांच्छित, पर अनिवार्य हिस्सा रहा…।

लिहाज़ा इस सफ़ेद चूहे को देखना सर्वथा नया अनुभव था। हमारे वे चूहे इतने छटपट होते, इतना तेज भागते कि हमारे पकड़ने क्या झाड़ू-डंडे…आदि से मार पाने के बस के भी न होते, लेकिन यह चूहा भाग सकने को कौन कहे, चल भी न सकता था – सिर्फ़ रेंग सकता था। हर तरह से नुक़सानदेह होने के चलते वे चूहे इन्सान को कभी प्रिय न लगे – बल्कि दुश्मन लगे। उनके लिए ही हम कभी किसी बिल्ली को दूध…आदि पिला के घर में परका लेते और उनके रहते चूहे खुद ही घर छोड़ देते या घर में अदृश्य बल्कि अनस्तित्व हो जाते। जबकि यह सफ़ेद बंदा अपनी निर्दोषता के चलते ही बेहद प्यारा लगा। उसका मासूम चेहरा व नितांत नन्हीं-नन्हीं प्राय: अपलक आँखें और चमकती हुई धवल काया में गोया छिप-से गये नामालूम-से कोमल-कोमल पाँव…याने उसे सिर्फ़ देखा जा सकता था, अधिक से अधिक आहिस्ता से सहलाया जा सकता था, छूने से तो गोया पाँव टपक के गिर ही जाएँगे, का अहसास होता। इन्हीं सब कोमलताओं व अशक्तताओं के चलते ही शायद इन्हें पाले जाने के लायक़ माना भी गया हो…। ख़ैर,

इसी सब मुग्धता की उधेड़बुन में बड़ी देर बाद पूछ सका–‘कहाँ से लाये’?

और जवाब उतना ही धड़ाका मिला –‘क्रॉफ़र्ड मार्केट से’।

‘ख़रीद के लाये? कितने का मिला’? का जवाब यूँ कि ‘ख़रीदा है, पर दाम न बताऊँगा’…।

क्योंकि कुत्ता ख़रीदने के नाम पर ‘ख़रीद के कोई भी पालतू न लाने वाला’ मेरा गँवईं विचार व मास्टराना सिद्धांत सुन चुका था…। हाँ, हंसते हुए यह ज़रूर बता दिया कि नियम तोड़कर इसे बस में लेके आ गया। जेब में कंडक्टर देख न सका, तो उतरते हुए दिखा भी दिया।

बहरहाल, बेटे ने ही बचपन की पढ़ी-रटी ‘टॉम ऐण्ड जेरी’ की कहानी को जीवन में उतारते हुए जब उसका नामकरण कर दिया ‘जेरी’, तो परिवार के इस गुरुतर काम के स्थायी दायित्त्व से इस बार मुझे सहज ही मुक्ति मिल गयी। लेकिन जेरी का दायित्त्व तो आना ही था, क्योंकि बच्चा तो सिर्फ़ पालतुओं को लाता है और उनके खाने-पीने-दावा-दारू का इंतज़ाम कर देता है और मन मुताबिक़ कभी खेल-मिल लेता है।

उन दिनों हमारा दूसरा टीनू (कुत्ता) था हमारे पास। जेरी उसे किसी अजूबे से कम न लगा…। टीनू हरचंद यह कोशिश करता, इसी ताक में रहता कि कब उसके पास पहुँच जाये और श्वान-स्वभाव के अनुसार उसे सूंघ ले, उसका सब कुछ ताड़ ले, जान ले। लेकिन हम उसे इसका अवसर ही न देते। जेरी को एक मखमली जाली में बन्द करके कहीं ऊपर टाँगे रहते। सिर्फ़ नहलाने-खिलाने भर के लिए उतारते। रात को उसे अपने बिस्तर पर सुलाते। कभी खेलने-खेलाने के लिए भी उतारते, लेकिन तब बड़े सुनियोजित ढंग से टीनू को उससे दूर रखते। और हमेशा आशंकित व चौकन्ने रहते कि अपने से भाग न सकने वाले इस जेरी नाम के प्राणी को टीनू कहीं अकेले पा न जाये, वरना इस बेज़ुबान सुंदर प्राणी की इहलीला समाप्त हो जाएगी। लेकिन टीनू को इसका अवसर न मिलता और इसके लिए उसकी छटपटाहट कम होने का नाम न लेती। शायद टीनू की चिंता का विषय यह हो कि यह कौन सा और कैसा प्राणी है, जो न चलता, न बोलता, लेकिन फिर भी हर क्षण हमारे मालिकों (मास्टर्स) के साथ होता है!! और हमें इतना प्रिय भी कि उसके लिए सदा साथ रहने वाले उस (टीनू) को दूर कर दिया जाता है…!!

कुल मिलाकर जेरी से सारा प्यार-दुलार हमारी तरफ़ से इकतरफ़ा होता। साथ में छिपके सो जाने के सिवा उसकी कोई प्रतिक्रिया (रिस्पोंस) न होती और हो न हो, साथ में सो जाना भी उसकी अशक्तता या विवशता के चलते ही होता रहा हो। बस, हमारे छूने पर वह कुछ न बोलता, गोद में उठा लेने देता – जोकि देर तक न रहता। इतना ही भर इस बात का परमान होता कि हमारे साथ रहना उसे नागवार नहीं। लेकिन उसके प्रति हमारा आकर्षण ऐसा दुर्निवार होता गया कि हम सहज ही उसे खिलाए बिना खा न पाते और हमेशा नज़रों के सामने रखे बिना रह न पाते। कहीं जहू…आदि घूमने जाते, तो उसे जाली सहित साथ ले जाते और किसी आयोजन व नाटक-फ़िल्म आदि देखने जाते हुए ऐसी व्यवस्था करके जाते कि टीनू के साथ वह अकेला न रहे।

लेकिन एक सुबह ऐसा हो गया…। किसी के अचानक आ जाने से हम जेरी को बिस्तर पर ही छोड़कर बैठक में आ गये…फिर उसी फेर में यह भी भूल गये कि टीनू कहाँ है। और जो टीनू हमेशा आगंतुकों के आने पर उनकी चौकशी का अपना प्राकृतिक -बल्कि नस्ली- कर्त्तव्य निभाने में प्राणपण से मुस्तैद व बिलकुल व्यस्त रहता…। वहाँ से हरकने पर भी न हिलता; लेकिन उस सुबह निश्चित ही इरादतन न जाने कब इस तरह अलोप हो गया कि हमें पता ही न चला…। और न जाने कितनी देर बाद हमें जब याद आया, तो दौड़ के गये और जो देखा, वह नजारा अपने अजूबे में जितना दर्शनीय था, उतना वर्णनीय व पठनीय न हो पाये शायद…!!

मच्छरदानी हटा के टीनू के दोनो अगले पैर खाट पे हैं याने आधी देह अंदर है। उसके दोनो कान एकदम खड़े हैं। गरदन बाग़ुरा (लगाम) खिंचे अश्व की तरह तनी है। डेढ़ फ़ीट के अंतराल पर निश्चल पड़े जेरी पर सारा ध्यान मछली पकड़ने के लिए तैनात बगुले जैसा केंद्रित है। आँखें चीते जैसे अपने शिकार पर एकाग्र हैं। उसकी तंत्रियाँ उत्तेजना के उस चरम पर हैं कि रोम-रोम काँप रहे हैं, लेकिन दाँत शायद होठों के अंदर बंद होकर कसे हुए हैं और उठती-गिरती साँसों की आवाज़ जज़्ब करने की कोशिश में साँय-साँय भर निकल पा रही हैं। वह कुतूहल की ऐसी चरम दशा पर अवस्थित था कि हमारे आने की उसे भनक तक न लगी। लेकिन शायद हमारे आ जाने की अचेतनी आशंका या फिर जेरी के प्रति हमारे ममत्त्व के गहन अहसास के चलते ही अब तक वह उसे छू तक न सका था…!! उसकी इस आत्मविस्मृत दशा से हम भी ऐसे अभिभूत हुए कि उसे मना करना-हटाना भूलके मानो ठगे-से उसे देखते रह गये…। और जेरी तो शायद अपने पर इस आसन्न संकट के जानलेवा ख़तरे से अनजान ही था… या उसकी भी छठीं इंद्रिय ने उसे अहसास करा दिया हो और वह अपनी बेबसी में बुत पड़ा हो…। लेकिन इस हादसे ने जेरी की बावत टीनू की तरफ़ से हमें कुछ निश्चिंत कर दिया। फिर भी अंत तक न टीनू उसके होने से सहज हो सका, न हम पूर्णत: बेफ़िक्र हो पाये। लेकिन यह फ़िक्र डरावनी भी नहीं रह पायी।

जेरी ने ४-५ सालों का अपना पूरा जीवन जीया हमारे साथ, लेकिन कभी कुछ बोला नहीं – सिवाय किसी गाढ़े क्षण में, जब कहीं दब-दुब गया हो, तो हल्क्की चीं-चीं के…।

जेरी को नहलाना उसके होने का श्रिंगार होता। बाल्टी के गुनगुने पानी में उसे छोड़ देते, तो वह तैरने लगता। गोल-गोल हौले-हौले तैरने का दृश्य नयनाभिराम होता। आधी बाल्टी पानी में चूहों के लिए बना ख़ास शैम्पू (नाम याद नहीं आ रहा) दो-चार बूँद डाल के दो मिनट छोड़ देते। फिर एकदम हल्के हाथ से थोड़ा सा सहला के निकालते और उसके लिए आये मखमली तौलिए से पोंछ के उसकी जाली में टाँग देते, तो चाँदी जैसी चमकती उसकी धवल कांति के सामने आँखें टपरती ही न थीं। वह अतुलित शोभा देखते ही बनती…बल्कि अपनी दर्शनीयता में अवर्णनीय होती…। वैसे रातों के अलावा वह प्राय: अपनी जाली में ही रहता। और आते-जाते उसे देखते रहना धीरे-धीरे हमारी जीवन-शैली का एक सहज हिस्सा बन गया था। उसकी हर मुद्रा विरल व विशिष्ट होती। जितने दिन रहा, हर आने वाला आते ही पहले जेरी को देखता और देखते ही ठगे सा रह जाना पड़ता…।

खाने के मामले में जेरी बेहद उदार था। जो भी कुछ उसकी तरफ़ बढ़ाओ, अपनी जाली या हमारे बिस्तर से मुँह खोलके तुरत लपक लेता। किसी भी वस्तु से इनकार न करता। उसकी संचयी वृत्ति जितनी गज़ब की थी, उतने ही ग़ज़ब का था अपने खाने पर उसका नियंत्रण। जितना भी कुछ पाता, लेके रख लेता। लेकिन खाता भूख भर ही। बाक़ी को कभी हम ही साफ़ करते हुए फेंकते, वरना वह संजोए ही रहता…। लेकिन खाने के इसी प्राकृतिक संयम के कारण कभी उसका शरीर भरुआया नहीं। हमेशा स्वस्थ-सुडौल बना रहा। खाता तो वह बहुत कुछ था, पर कच्ची मटर के दाने उसे बड़े प्रिय होते। उसे खाने का तरीक़ा भी उसका निराला होता। मटर के दाने के अन्दर के गुद्दे को ऐसी सफ़ाई से खा जाता कि खोखला हुआ दाना भी यूँ साबुत बना रहता – गोया वह खोला ही न गया हो – गुद्दा अंदर ही हो। इसे देखकर मुझे महादेवी जी का बताया हुआ नेहरूजी का कौशल याद आ जाता…। वे आम की गुठली इस सिफ़त से निकाल लेते कि ऊपर से आम बिलकुल साबुत दिखता…। गुठली निकल जाने का भान तक न होता।

जेरी अपने होने का अहसास तक कराने में प्रकृतित: बेहद कृपण था। हमारे बिस्तर पर इतनी सफ़ाई से सोता कि वह किस सिरे पर है या किस कोने में पड़ा रहता है… इसका पता पूरी रात हम पति-पत्नी को न चल पाता…। लेकिन चंद महीनों में इसका पता ज़रूर चल जाता कि गद्दे का पूरा लिहाफ कट चुका है और ताज्जुब यह कि ऊपर से गद्दा उसी तरह साबुत बना हुआ है – जैसे मटर के दाने की ग़ुद्दे-विहीन वह खोलाई। बिस्तर कट जाने पर भी रुई तो बची रहती, जिससे हर ४-६ महीने पर नया गद्दा भराया जाता…। इसका भी हम यह कहकर बड़ा मज़ा लेते कि जेरी की कृपा से हमें नये-नये बिस्तर पर सोने मिल रहा है। लेकिन संतोष रहा कि इन सब खटकरामों से जेरी सुरक्षित रह पाता। और यह भी एक मानदंड (रेकॉर्ड) ही रहा कि उसने कभी बिस्तर पर छीछी-सूसू नहीं किया। जब भी किया, जाली में ही किया, जिसे धो देना बेहद आसान होता। कह सकते हैं कि अपने पर बड़ा सहज अधिकार था उसे।

ज़ेरी को जब भी गोद में लो, दो मिनट में उतर के अलग बैठ जाता, लेकिन जीवन के अंतिम दिनों में अपने महाप्रयाण के चार-छह दिनों पहले से जब भी मुझे अपने आसपास बैठे देखता, आके कन्धे पर बैठ जाता। उसके शरीर में एक-एक कर गिल्टियां निकलने लगीं और धीरे-धीरे पूरा शरीर गिल्टियों से भर गया था। कहना होगा कि कि दूर-दूर रहने की उसकी सहज अनासक्ति अंत समय में करीबी संसक्ति में बदल गयी थी – बिछुरत प्रान काया का हेंरोई राम…!! कन्धे से उतरता ही न था, जबतक थकके या जरूरी काम आ जाने पर पकड़के मैं ही न उतारूँ। जिस दिन खाना-चलना छूटा, शाम तक एकदम अजलस्त हो गया था…। खा हम भी न सके उस रात और न जाने मुझे क्या सूझी कि रात को 9-10 बजे के आसपास उसे कन्धे पे बिठा के सस्वर गीता-पाठ करने लगा था…। लगातार पाठ के दौरान वह कन्धे पर पड़ा रहा…यह अद्भुत संयोग हुआ कि ठीक 12 बजे, अर्धरात्रि को अचानक लुढ़ककर नीचे आ गया–जीवन-मुक्त हो चुका था।

जेरी को हमने अपने परिसर में ही गाड़ दिया कि उसी पर कोई फूल लगायेंगे और उसी में जेरी को खिले देख-देख के उसके लिए संतोष करेंगे…। लेकिन टीनू की अफाट उत्सुकता उसे रहने न देती। हरचंद रखवाली करने की कोशिश के बावजूद वह खोद के जेरी को निकाल ही लेता और उसी तरह से चौकन्ना हो निहारता, जैसे पहली समक्षता में किये था। गोया जीते जी न सही, अब ही जान ले कि वह चीज़ क्या था। उसे क्या मालूम कि उस बेज़ुबान को हम ही न जान सके, तो वह क्या जानेगा…!! कई बार हमने उसे अलग-अलग स्थलों पर गाड़ा, लेकिन टीनू निकाल ही लेता…। इस गाडने-निकाले जाने से आख़िर हार के उसके शव को भी ‘सुपुर्द-ए- महानगर पालिका की गाड़ी’ करना पड़ा…। जेरी के लिए संकल्पित उस या किसी स्मरणीय निशान के बिना उसकी यादें आज भी फ़िज़ाओं में भंड़छती फिरती हैं…!!

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सत्यदेव त्रिपाठी

लेखक प्रसिद्ध कला समीक्षक एवं काशी विद्यापीठ के पूर्व प्रोफ़ेसर हैं। सम्पर्क +919422077006, satyadevtripathi@gmail.com
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