कविता निबन्ध लेखमाला भाग 1
कविता
कविता एक स्वर्गीय वस्तु है। उसके पाठ से अशान्त मानस को शान्ति मिलती है। मनुष्य चाहे परिश्रम से कितना ही क्लान्त क्यों न हो गया हो, कविता-पाठ से उसकी सारी थकावट दूर हो जाती है और उसका उदास-चित्त फिर हरा-भरा होकर दूने उत्साह और जोश से कार्य करने के योग्य हो जाता है। मजदूर काम करते हुए, स्त्रियाँ चक्की पीसती हुई, किसान हल जोतते हुए गीत गाते हैं। यह इसलिए कि इससे उनका परिश्रम कम हो जाता है और काम करने में जी लगता है।
थके-मांदे उदास-चित्त किसान और मजदूरों पर उक्त ग्राम्य गीतों का जो अद्भुत प्रभाव पड़ता है वही प्रभाव एक स्थान-भ्रष्ट, उद्देश्यहीन, अकर्मण्य और पतनोन्मुख देश अथवा जाति पर कविता का पड़ता है। यही कारण है कि कविता ने समय-समय पर संसार में भीषण क्रान्ति उपस्थित कर दी है। इस बात के उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं। इतिहास में इसके सैकड़ों प्रमाण मिलते हैं।
कविता अपनी इसी शक्ति के कारण संसार में एक अनुपम वस्तु समझी जाती है। कविता निराशा में आशा का संचार करती, उदासीनता में प्रसन्नता लाती, विपत्ति में धैर्य देती और मनुष्य को कर्मण्य बनाने में सहायक होती है। वह हृदय की मुरझी हुई विचार-कलियों को खिलाती, अन्तःकरण की सुषुप्त वृत्तियों को जागृत करती और मनुष्य के मृतप्राय स्वाभाविक सद्गुणों में चैतन्यता लाती है। इससे सिद्ध होता है कि कविता केवल मनोरंजन का ही साधन नहीं है, वरन् वह देश अथवा जाति के अस्तित्व को बनाये रखने और मनुष्य के प्रकृत भावों को जागृत रखने अथवा यह कहिए, मनुष्यत्व को स्थिर रखने के लिए भी अत्यन्त आवश्यक है। यह तो हुआ कविता का ‘महत्त्व वर्णन’। अब हम कविता-विषयक अन्य बातों का वर्णन करते हैं।
आजकल जब कोई नवयुवक साहित्य क्षेत्र में प्रवेश करता है तब वह कविता लेखन से ही अपना कार्य आरम्भ करता है। इससे यह जाना जाता है कि नवयुवक का चित्त कविता की ओर सर्वप्रथम आकर्षित होता है। इसका दूसरा कारण है-कवि बनने की उत्कट अभिलाषा। उनके इस आचरण से साहित्य में कूड़ा-कचरा तो जरूर भर जाता है, पर इससे उसे कुछ भी लाभ नहीं पहुँचता, यह नहीं कहा जा सकता। सम्भव है कि इन नवयुवकों में से कोई आगे चलकर ‘सुकवि’ और ‘महाकवि’ का भी पद प्राप्त कर लें? यों तो साधारणतया ‘कविता’ शब्द का प्रयोग छन्दोबद्ध वाक्य अथवा वाक्य समूह के लिए किया जाता है, पर यथार्थ में यह बात नहीं है। हमें स्मरण रखना चाहिए कि कविता और पद्य एक ही वस्तु का नाम नहीं है। हृदय ग्राही भाषा के चित्र का नाम कविता चाहे वह छन्दोबद्ध हो या गद्य में हो और छन्द-शास्त्र के नियमानुकूल परिमित शब्द-समूह का नाम पद्य है। कविता प्रभावोत्पादक और मनोरंजक होती है, पर पद्य में ये गुण नहीं पाये जाते। आजकल हिन्दी के मासिक पत्रों में कविता के नाम से जो रचना प्रकाशित होती है, उनमें अधिकांश प्रायः पद्य ही होते हैं। इन पद्यों को ‘कविता’ नहीं ‘तुकबन्दी’ कहना चाहिए और उनके लेखकों को ‘कवि’ न कह कर ‘पद्य-लेखक’ या तुक्कड़ कहना अधिक उपयुक्त होगा। कविता के लक्षणों से हीन निरे छन्द लिखने वालों को ‘कवि’ कहना मानों उस शब्द का दुरुपयोग करना है। यह नहीं कहा जा सकता कि ‘पद्य’ की कोई आवश्यकता ही नहीं है। हिन्दी में ही नहीं प्रत्येक भाषा में ‘पद्य’ पाये जाते हैं और उनसे बहुत कुछ काम भी निकला करता है।
आजकल लोगों की यह धारणा हो गयी है कि बिना काव्य के भेद और व्यंग्य, रस, अलंकार आदि विषयों का सम्यक् ज्ञान प्राप्त किये कोई कदापि कवि नहीं हो सकता। उनके विचार में कविता में यमक, अनुप्रास और उक्ति आदि की बहुलता न हो, वह कोई कविता ही नहीं। कविता करने के लिए उक्त विषयों का अध्ययन अत्यावश्यक नहीं कहा जा सकता। जो लोग कविता करते समय अलंकार आदि का अधिक ध्यान रखते हैं उनकी कविता प्रायः बिगड़ जाया करती है। इसका कारण यही है कि वे अलंकार आदि का अधिक ध्यान रखते हैं। भाव ही कविता का प्राण है जहाँ तक भाव-प्रकाशन में कोई बाधा न हो वहीं तक अलंकार का प्रयोग करना चाहिए। कविता को सुस्वर और श्रुति-सुखद बनाने के लिए ही हमारे आचार्यों ने यमक, अनुप्रास आदि शब्दालंकारों की व्यवस्था की है पर यह नहीं कहा कि अनुप्रास के प्रयास में पड़ कर कविता के मुख्य गुणों को भुला देना चाहिए। जो यमक, अनुप्रास आदि कविता के स्वाभाविक प्रवाह-मार्ग में आ मिलें वे ही ग्रहण करने के योग्य हैं। जो सुकवि हैं उनकी रचना स्वभाव से ही सालंकार होती है। यही कारण है कि गद्य और पद्य की शैली में और भाषा के रूप में भी सर्वत्र कुछ न कुछ विभिन्नता पायी जाती है।
यह कोई बात नहीं कि बिना व्यंग्य, रस, उक्ति आदि विषयों का अध्ययन किये कवि अपनी कविता में उनका प्रयोग कर ही नहीं सकता। उक्त विषयों में जिन बातों का वर्णन है, वे मानव-हृदय की स्वाभाविक उक्तियों और विकारों के प्रतिबिम्ब मात्र हैं। अतएव बिना ग्रन्थ-ज्ञान के ही हम उनका प्रयोग करते हैं। हाँ, उन विषयों के अध्ययन से हम अपनी स्वाभाविक उक्तियों और विकारों को प्रत्यक्ष देखते हैं, जिससे हमारे हृदयस्थ भाव जागृत होकर पुष्टता प्राप्त करते हैं।
यह नहीं कहा जा सकता कि उक्त विषयों को ग्रन्थ रूप में प्रतिपादित करने में हमारे पूर्ववर्ती आचार्यों का मतलब केवल यही था कि कवि को कविता करने के पहले उनका अध्ययन करना ही चाहिए। कविता का पूर्ण-रसास्वादन करने के लिए कविता की आलोचना करके उसकी विशेषताओं को हृदयंगम करके अधिक आनन्द प्राप्त करने के लिए काव्य-प्रेमियों और कविता रसिकों के पक्ष में उनका अध्ययन अत्यावश्यक है। यथार्थ बात तो यह है कि कविता विषयक निर्धारित नियमों के पूर्ण-पालन से कविता का स्वाभाविक प्रवाह मन्द हो जाता है। कहा जाता है कि सभ्यता और कविता में अनबन है। यह इसीलिए कि जैसे-जैसे सभ्यता की वृद्धि होती है वैसे ही वैसे विद्या, कला आदि की सूक्ष्मता का भी अन्वेषण होता जाता है। प्रत्येक विषय के नये-नये ग्रन्थ बनते प्रत्येक विषय के नूतन तत्त्व हूँढ़े जाते हैं और नये-नये नियमों की सृष्टि भी की जाती है। इससे अन्यान्य विषयों को लाभ जरूर पहुँचता है। पर इन नियमों की वेड़ी पहन कर कविता परतन्त्र हो जाती हैं जिससे उसका स्वाभाविक-सौन्दर्य जाता रहता है। यही कारण है कि अब पहिले की-सी अच्छी कविता देखने में नहीं आती। प्राचीन युग में कविता के लिए अधिक नियमों का पालन नहीं करना पड़ता था। तब उसमें स्वाभाविकता और सरलता खूब पायी जाती थी। पर अब सभ्यता-वृद्धि के साथ-साथ कविता के इन गुणों का क्रमशः लोप हो रहा है।
अब यह देखना चाहिए कवि बनने के लिए किस वस्तु की अत्यन्त आवश्यकता है। आवश्यकता है प्रतिभा की। यह ईश्वर-दत्त होती है। कवि इसे माँ के पेट से लेकर जन्म लेता है। हम देखते हैं कविता करने की स्वाभाविक-शक्ति सम्पन्न सभी लोगों में प्रतिभा पूर्णतया नहीं पायी जाती। बहुत कम लोग पूर्ण-प्रतिभाशाली होते हैं। ऐसे प्रतिभाशालियों की प्रतिभा का विकास भी सब समय नहीं हुआ करता। यही कारण है कि महाकवियों की भी रचना सर्वत्र समान प्रभावोत्पादक नहीं होती। प्रतिभा के विकास काल में कवि जो कुछ लिख लेता है वह ईश्वरीय वाणी के रूप में अत्यन्त हृदय-ग्राहक होता है। पर उसके मुकुलिय हो जाने पर कवि परिश्रम के बल से जो रचना करता है, वह प्रायः शिथिल हुआ करती है। यथार्थ में प्रतिभा का विकास कवि की इच्छा पर अवलम्बित नहीं है। प्रतिभा अपने विकास का सुयोग ढूँढ़ती रहती है। किसी घटना विशेष से अथवा कारण विशेष से, वह प्रकटित होती है। कई लोगों का कथन है कि अपस्मार, मृगी, उन्माद आदि के समान प्रतिभा भी मस्तिष्क का एक विकार है और वह समय के अनुसार कभी मन्द और कभी प्रबल हुआ करते है।
कवि लोग कविता करने के लिए एकान्त स्थल क्यों पसन्द करते हैं? ऐसे स्थलों में बैठकर वे चित्त को एकाग्र करते और प्रतिभा देवी के आगमन की मार्ग-प्रतीक्षा करते रहते हैं। स्मरण रखना चाहिए कि कवि दूसरों के आग्रह अथवा दबाव से अपनी इच्छा के विरुद्ध जो कविता लिखता है वह कभी उत्तम नहीं हो सकती। चाहे कितना भी बड़ा कवि क्यों न हो, वह ऐसे अवसरों में कदापि अच्छी कविता नहीं लिख सकेगा। इससे उस कवि का महत्त्व कुछ कम नहीं हो सकता। जब कवि को उसका अन्तःकरण कविता करने के लिए प्रेरित करने लगे, तभी उसे लेखनी उठानी चाहिए। इस अवस्था में वह जो कुछ लिखेगा वह प्रभावोत्पादक और सरस होगा। हम ऊपर लिख आये हैं कि भाव कविता का प्राण है। कवि का हृदय स्वभाव से ही भाव ग्रहण करने के योग्य होता है। कविता लिखने के समय भाव-रक्षा कवि का प्रथम उद्देश्य होना चाहिए। प्रभावोत्पादक हृदयगत-भावों को ज्यों-के-त्यों शब्द द्वारा चित्रित कर देना ही काव्य-कला है। इस कृत्य में किसी तरह की पाबन्दी का अधिक ख्याल नहीं रखना चाहिए। जब घटना विशेष के दर्शन अथवा श्रवण से कवि के हृदय में भावाधिक्य के कारण तिल धरने की भी जगह नहीं रहती, तब से भाव शब्द रूप में बाहर निकलने लगते हैं, सच्ची कविता में भाव जरूर रहता है। जिस कविता में भाव न हो उसे समझना चाहिए कि यह प्रकृत-कवि की रचना नहीं है। यह एक ऐसे कवि की रचना है जो कवित्व-शक्ति को भी माँ के पेट से लेकर नहीं आया पर अपने अभ्यास और अध्यवसाय के बल कविता करता है।
अभ्यास और अध्यवसाय
अभ्यास और अध्यवसाय की आवश्यकता पूर्ण सफलता प्राप्त करने के लिए प्रकृत-कवियों को भी हुआ करती है। जो स्वाभाविक कवित्त-शक्ति से हीन होकर भी कविता करने की इच्छा करते हैं उनके लिए तो ये बातें अत्यन्त ही आवश्यक हैं। संसार में प्रकृत-कवियों की संख्या अधिक नहीं है। अधिकांश लोग ऐसे हैं जो अभ्यास और अध्यवसाय के बल से ही कवि हुए हैं। ऐसे कवियों का स्थान यद्यपि प्रकृत कवियों के स्थान से बहुत नीचा है तथापि उनसे संसार का कुछ कम उपकार नहीं होता। अध्यवसाय एक ऐसी वस्तु है कि उसके बल से स्वाभाविक कवित्व-शक्ति-हीन पुरुष भी अत्युत्तम कविता लिख सकता है। कोई-कोई साधारणतः पढ़े-लिखे होने पर भी ऐसी अच्छी कविता करते हैं कि उसकी समानता बड़े-बड़े पण्डितों की रचना भी नहीं कर सकती। पर जो अध्यवसाय के बल से कविता करने की इच्छा रखते हैं उन्हें विद्वान बनने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए। उनकी विद्वता जितनी चढ़ी-बढ़ी होगी उनकी रचना भी उतनी ही उपयोगिनी होगी। भावमयी कविता लिख कर पाठकों के हृदय पर तो अधिकार प्राप्त नहीं कर सकते क्योंकि यह केवल प्रकृत-कवियों का काम है पर उसके द्वारा सर्वसाधारण में ज्ञान और शिक्षा का प्रचार अवश्य करते हैं। इसमें सफलता प्राप्त करने के लिए उन्हें पाण्डित्य की बड़ी आवश्यकता पड़ती है। जहाँ प्रतिभा के पाण्डित्य का योग है वहाँ सोने में सुगन्ध समझिए। प्रकृत कवि जितने समय में एक पूरी कविता लिख लेगा उतने समय में अध्यवसाय-शील कवि केवल दो-चार लकीर ही लिख सकेगा और वह भी कठिनाई से। पर उक्त दोनों प्रकार के कवियों को पहिचानने की यह कोई कसौटी नहीं है।
कविता-लेखन में शीघ्रता अथवा बिलम्ब सुयोग पर अवलम्बित है। प्रकृत-कवि प्रायः सब समय कविता नहीं लिख सकते। किसी अज्ञात शक्ति से उत्तेजित होकर ही वे कविता करते हैं। ऐसे अवसर पर वे कविता लिखे बिना रह ही नहीं सकते, चाहे उन्हें ऐसा करने से कोई कितना ही रोके। ऐसे ही अवसरों में वे बात की बात में अद्भुत करामात कर दिखलाते हैं। पर जब वे बिना इस उत्तेजना के कविता लिखने बैठते हैं, तब घंटों सिर-पच्ची करने पर भी अच्छी चीज नहीं बना सकते।
प्रकृत-कवि और श्रम-सिद्ध कवि की कविता में जो बहुत बड़ा अन्तर है वह यह कि प्रथम प्रकार के कवि की कविता में भाव-बाहुल्य और द्वितीय प्रकार के कवि की कविता में ज्ञान अथवा बुद्धि-बाहुल्य होता है। भाव का वास-स्थान हृदय है ; अतएव हृदय ही प्रकृत-कविता-स्रोत का उद्गम स्थान है। पर ज्ञान अथवा बुद्धि का सम्बन्ध मस्तिष्क से है। इस कारण श्रम-सिद्ध कविता का आविर्भाव प्रायः मस्तिष्क से होता है। इन दोनों प्रकार के कवियों की कविता में कुछ और भेद है। श्रम-सिद्ध कवि शब्दाडम्बर का विशेष ध्यान रखता है जिससे उसकी कविता के अर्थ में न्यूनता आ जाती है। पर आश्चर्य तो यह है कि शब्दाडम्बर का इतना ख्याल रखने पर भी वह यथास्थान उपयुक्त शब्दों का प्रयोग नहीं कर सकता, जिससे उसकी कविता का चमत्कार कम हो जाता है। प्रत्येक भाषा में कई एक शब्द ऐसे होते हैं, जो स्थान भेद के अनुसार भिन्न-भिन्न अर्थ के द्योतक होते हैं। श्रम-सिद्ध कवि इन शब्दों का यथास्थान प्रयोग करने में प्रायः असमर्थ होता है। पर, प्रकृत कवियों को इसमें विशेष कठिनाई नहीं होती। वह अपनी कविता में स्थल विशेष के विचार से उपयुक्त और शक्ति-मान-शब्दों का प्रयोग करता है, जिससे उसके अर्थ की स्पष्टता और भाव भी बढ़ जाती है। प्रकृत कवियों को शब्दों की इस उपयुक्तता का ध्यान अधिक होता है। पर श्रम-सिद्ध-कवि शब्दों के उपयुक्त अर्थ और सारस्य की अवहेलना करके सम्पूर्ण वाक्य के अर्थ पर विशेष लक्ष्य देता है, किन्तु इसमें भी उसे पूर्णतया सफलता नहीं प्राप्त होती क्योंकि शब्दार्थ की विशेषता पर ही वाक्यार्थ की विशेषता अवलम्बित है।
प्रकृत-कवि कविता करते समय उत्तेजना और भावावेश में आकर कुछ विक्षिप्ततापूर्ण कथन कर जाता है। उस समय वह एक ज्ञान-शून्य अवस्था में दृश्यभाव जगत से भिन्न कल्पना जगत् में विचरण करता रहता है। अतएव यथार्थ को भूल कर कभी-कभी विक्षिप्तों की नाई कुछ असम्भव कथन करते सुनते हैं तब हास्य पूर्वक कहते हैं कि ‘ यह कवि कल्पना है। ‘ कवि कल्पना में थोड़ा-बहुत मिथ्या का अंश भी रहता है। मिथ्या संसार में सर्वत्र अनादृत होती है। पर जब उसका संयोग कविता से हो जाता है तब लोग उसका अनादर न कर आदर करने लगते हैं। इस स्थल पर सभ्यता और कविता का पारस्परिक वैमनस्य फिर जाग उठता है। सभ्यताभिमानी लोगों को यह मिथ्या कविता असह्य हो जाती है और वे ऐसी कविता को जरा उपेक्षा की दृष्टि से देखने लगते हैं। पर सभ्यता से जो लोग बचे हैं वे कवि-कल्पना में मिथ्या का अंश पाकर इस प्रकार नाक-भौं नहीं सिकोड़ते।
सभ्यता के साथ-साथ लोगों में जो कारणानुसन्धान-शक्ति की वृद्धि हो रही है वही उनके इस रुचि-परिवर्तन का मुख्य कारण है। श्रम-सिद्ध-कवियों की रचना में न तो ऐसी विक्षिप्तता होती है और न कुछ असम्भव कथन होता है। वे जो कुछ लिखते हैं, सकारण और संयुक्ति लिखते हैं। उनकी कविता में गवेषणापूर्ण गम्भीर विचारों ही की अधिकता रहती है। इसीलिए उन्हें ज्ञान अर्थात् बुद्धि की अत्यन्त आवश्यकता रहती है। पर यथार्थ में कविता का उद्देश्य निरे ज्ञानपूर्ण गम्भीर-तत्त्वों का निरूपण नहीं है। यह काम विद्या-बुद्धि का है। कविता ललित कला है। उसका मनुष्यों के अन्तःकरण के सौन्दर्य को विकसित करना और उनको मन्त्र-मुग्ध कर उनकी विचलित स्वाभाविक प्रवृत्तियों को प्रकृत-पथ पर लाना ही है। प्रतिभा, अभ्यास और अध्यवसाय को छोड़ कर कविता करने के लिए निरीक्षण और परिशीलन की भी अत्यन्त आवश्यकता है। सृष्टि में जितने पदार्थ हैं प्रकृति में जितने परिवर्तन होते हैं, मनुष्य-स्वभाव के जितने विकार हैं, कवि को निरीक्षण और परिशीलन द्वारा उन सब बातों का पूर्ण ज्ञान सम्पादन करना चाहिए।
जिस कवि में प्रकृति पर्यालोचना की शक्ति नहीं है जिसको मानव-स्वभाव का ज्ञान नहीं है वह कदापि अच्छी कविता नहीं कर सकता। इसके लिए ग्रन्थ अध्ययन की अधिक आवश्यकता नहीं है। हम निरीक्षण और अनुभव द्वारा इन बातों को अच्छी तरह जान सकते हैं। ग्रन्थों में भी उन्हीं बातों का वर्णन है, पर प्रतिबिम्ब की अपेक्षा मूल वस्तुओं का ही निरीक्षण अधिक लाभदायी है। हिन्दी साहित्य में मध्यवर्ती युग में ‘ नायिका-भेद ‘ ने बहुत जोर पकड़ा। हमें देखना चाहिए कि ‘ नायिका-भेद है क्या वस्तु? और कुछ नहीं वह अवस्था भेद और प्रकृति भेद के अनुसार स्त्रियों के स्वभाव और आचरण में जो अन्तर होता है उसका वर्णन मात्र है। पूर्ववर्ती कवियों ने निरीक्षण और अनुभव द्वारा इस विषय का इतना वर्णन किया कि उसके कई ग्रन्थ बन गये और वह काव्य-शास्त्र का एक अंग मान लिया गया। जिसमें निरीक्षण शक्ति अधिक है वह इसका अनुभव स्वयं प्राप्त कर सकता है। भारतवर्ष को छोड़ कर मैं समझता हूँ, अन्यत्र यह विषम शास्त्र-रूप में कहीं प्रतिपादित नहीं हुआ है। तो क्या विदेशी भाषाओं के कवि अपनी कविता में अपने ग्रन्थों में इस विषय का वर्णन नहीं करते? क्या विदेशी-काव्य उपन्यास आदि ग्रन्थों में जिन नायिकाओं का वर्णन है, उनके गुण स्वभाव के लक्षण हमारे ‘ नायिका-भेद ‘ के शास्त्रों में कह गये लक्षणों से नहीं मिलते? मानव-स्वभाव के मूल तत्त्वों में सर्वत्र समानता है। जो मानव-स्वभाव को समझता है, वह इन बातों को भी जरूर समझता है।
प्रकृत-कवि में प्रकृति पर्यालोचना और मानव-स्वभाव-अनुशीलन की स्वाभाविक-शक्ति होती है। कुछ तो इसी शक्ति के कारण और कुछ अपनी स्वाभाविक जिज्ञासा के कारण वह तिनके से लेकर पर्वत तक, बूंद से लेकर सागर तक और जुगनू से लेकर सूर्य तक, प्रकृति के रहस्यों का ज्ञान थोड़े ही समय में प्राप्त कर लेता है। उसी प्रकार जीवन के सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, संयोग-वियोग और तज्जनित भिन्न-भिन्न मनोविकारों का भी उसे पूरा अनुभव होता है। यदि ऐसा न होता तो वह अपनी कविता में उन मनोविकारों और भावों का चित्र ज्यों-का-त्यों कदापि नहीं उतार सकता। जब कवि को इन बातों के प्रत्यक्ष-अनुभव का अवसर हाथ नहीं लगता-तो वह निरीक्षण द्वारा उन्हें जानने का यत्न करता है। समझ लीजिए, उसे अपने जीवन में प्रिय-वियोग दुःख अनुभव करने का कभी मौका नहीं आया पर वह किसी अमर लोक में तो नहीं रहता। वह अपने को चारों ओर से प्रिय-वियोग की अग्नि से जलते हुए लोगों से घिरा हुआ पाता। इस अवस्था में वह किसी वियोग की आत्मा में प्रवेश-सा करके उसके वियोग-दुःख का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। यह गुण सहृदय लोगों को छोड़ कर दूसरों में नहीं पाया जाता। कवि स्वभाव से ही सहृदय होता है। पर दुःखानुभूति में कवि से बढ़ कर और कोई नहीं। यही कारण है कि वह अकेले अपने मार्ग पर जाते हुए किसी सर्प के मुख में पड़े हुए मरणासन्न मेंढक के करुण-स्वर को सुनकर अथवा किसी बहेलिये के जाल-पाश में फँसे हुए निर्दोष-पक्षी के कातर-नेत्रों को देखकर अपने हृदयानुभूत दुःख और शोक के गुरुतर शब्दों को बिना मुख से बाहर निकाले रह ही नहीं सकता। यही कारण है कि प्रकृत-कवि का जीवन ‘ चिर हाहामय ‘ होता है। न उसमें परदुःखानुभूति होती, न उसका जीवन इतना दुःख और अशान्तिमय होता जिस बात को साधारण लोग भूल जाते हैं, वही कवि के हृदय में सदैव जागरूक रहती है। बेचारा कवि क्यों न हमारी दया का पात्र हो।
कभी-कभी ऐसे कवियों की प्रतिभा का पूरा विकास बिना प्रत्यक्ष दुःखानुभव किये नहीं होता। हम कह आये हैं कि प्रतिभा का विकास घटना पर अवलम्बित है। कभी-कभी दुर्घटनाओं में भी कुछ हित छिपा हुआ रहता है। बड़े-बड़े कवियों के जीवन की घटनाओं को यदि विचार किया जाय, तो मालूम होता है कि उनमें से अधिकांश को दिगन्त-व्यापिनी कीर्ति का कारण ऐसी कोई खास दुर्घटना ही है जिससे कि विषमय फलों का अनुभव कर उनके हृदय के सुषुप्त भावों को जागृति और प्रतिभा का सहसा स्फुरण हो गया। यदि उनके जीवन में ऐसी दुर्घटना नहीं होती, तो शायद उनकी प्रतिभा का फल संसार को प्राप्त ही नहीं होता और वह बिना विकसित हुए ही गुप्त भाव से उनके साथ नष्ट हो जाती।
प्रतिभावानों में अकर्मण्यता, आलस्य, अस्थिरता आदि दुर्गुण पाये जाते हैं। ये दुर्गुण ही उनकी प्रतिभा को विकसित होने नहीं देते। पर एक घटना विशेष के प्रभाव से जब उनकी मोह निद्रा टूट जाती है, तब प्रतिभा एकाएक स्फुरित हो उठती है। इस स्थल पर स्मरण रखना चाहिए कि प्रतिभा का विकास दुर्घटनाओं ही पर नहीं, शिक्षा और सत्संगति पर भी बहुत कुछ अवलम्बित है। देहाती बस्तियों में कहीं-कहीं ऐसे लोग पाये जाते हैं जो साधारण वार्तालाप में भी औरों से बड़ी विशेषता रखते हैं। उनकी उक्तियाँ हृदय में चुभ जाती हैं और उनके नवीनता और मौलिकता पूर्ण कथन अन्तःकरण में घर कर लेते हैं। ऐसे ग्रामीणों में कुछ कम प्रतिभा नहीं होती। पर शिक्षा और सत्संगति के अभाव से उनकी प्रतिभा को पूरा-पूरा विकास का संयोग नहीं मिलता। यदि वे शिक्षित होते तो शायद सुगमता से अच्छी कविता भी कर लेते।
कविता करने में जिन-जिन बातों की अत्यन्त आवश्यकता होती है उनका वर्णन हो चुका। अब हम आगे यह देखने का यत्न करेंगे कि कविता कैसी होनी चाहिए उसमें किन-किन बातों की प्रधानता होनी चाहिए और विकास का स्वाभाविक क्रम क्या है?
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छायावाद एवं अन्य श्रेष्ठ निबन्ध, (सम्पादक:डॉ बलदेव) से साभार
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ऐतिहासिक लेख को साझा करने के लिए बसंत भैया को बहुत-बहुत धन्यवाद।