समीक्षा

संजीव चंदन की कहानी “तुम्हीं से जनमूं तो पनाह मिले”

 

“तुम्हीं से जनमूं तो पनाह मिले” कहानी एक ही शहर की दो लड़कियों आती और आर्ची से सम्बद्ध है। यह वह दौर था जब भारतीय अर्थव्यवस्था तेज़ी से बदल रही थी। उदारीकरण का प्रभाव भारतीय समाज को भी बदल रहा था जबकि पितृसत्तात्मक संरचना की अनुकूलनशीलता ने उसे और मज़बूत किया। पूँजीवाद से गठजोड़ में स्त्री-शोषण की नई पदावली गढ़ने लगी। उदारीकरण स्त्री मुक्ति का द्वार लगने लगा था, ऊपरी परत अत्यंत आकर्षक थी लेकिन भीतर पितृसत्ता की जड़ें गहरी और मजबूत हो रही थी। स्त्री सौंदर्य अब कविता का नहीं बाज़ार का विषय हो गया स्त्री विज्ञापन बन रही थी। संजीव चंदन की तुम्हीं से जनमूं तो पनाह मिले” कहानी अपने ‘समय की पोटली’ बाँधें, ‘घर’ के घेरे में स्त्री की कैद कारणों को खोजती, समझती और समझाती कहानी आगे बढ़ती है। कहानी अतीत में ऐतिहासिक तथ्यों व मिथकीय कथाओं से होती हुई उत्तर आधुनिक समयको टैग कर मूल समस्या की खोज करती है। ‘समय से संवाद’ में नये शिल्प प्रयोग के साथ कहानी-कला, कहानीपन सुरक्षित बना रहता है। “तुम्हीं से जनमूं तो पनाह मिले” कहानी सिर्फ भावुकता या संवेदना की माँग नहीं कर रही बल्कि मुक्तिबोध की तरह पाठक से वैचारिकी को भी साथ लेकर चलने की उम्मीद करती है ‘संवेदनात्मक ज्ञान या ज्ञानात्मक संवेदना’। नानी के प्रसंग के बहाने कहानी के आरंभ से ही पाठकों से उम्मीद की जा रही है कि वे संक्रमण के उस दौर की कहानी ध्यान से पढ़ें यदि वे बीच में सो गये या कुछेक अंशों पर भी गौर नहीं किया तो सिरा टूट सकता है। भारतीय समाज के ‘पितृसत्तात्मक-संरचना’ के मूल चरित्र को समझने की प्रक्रिया में, वे आधुनिक युग के घायल सन्नी देओल, सलमान खान, भाग्यश्री, माधुरी दीक्षित,और देवदास-पारो,उदारीकरण ग्लोबलाइजेशन के साथ-साथ अतीत के हरिश्चंद्र, नल-दमयंती, सीता का पिंडदान, सिद्धार्थ की गुरु सुजाता को भी कथानक की डोर में पिरो लेते हैं। लेखक का इतिहासबोध, मिथक बोध और यथार्थवादी दृष्टिकोण भविष्य की ओर भी नजर रखता है। कहानी की नायिकाओं के शहर लिए संजीव लिखते हैं शहर का चरित्र अंतर्राष्ट्रीय है’ तब वे स्त्री की सार्वभौमिक स्थिति को ही स्पष्ट कर रहे हैं।  स्त्री दुनिया के किसी भी कोने में रहे उसकी स्थिति/कहानी कामोबेश एक ही लय में चलती है। चाहे वो प्रेम करें, या प्रेम-विवाह अथवा माता-पिता की मर्यादा की खातिर विवाह-बंधन स्वीकार करे, उसे चैन नहीं, ‘पनाह’ नहीं। उसे विश्वास और प्यार की आरज़ू है लेकिन उसे छल ही मिला! जब सीता ने ‘पितृसत्तात्मक-ब्राह्मणवादी’ तमाम परम्पराओं को ताक पर रखकर अपने ससुर दशरथ का पिंडदान किया जबकि पिंडदान का अधिकार सिर्फ पुत्र को है, सीता तो पुत्री भी न थी पुत्रवधू थीं, राम सीता का विश्वास नहीं करते। ‘रामराज की जन अदालत’ का यह दृश्य आज की अदालतों का खुलासा करता है। संजीव चंदन लिखते हैं “मृतकों की गवाही की यह महान परम्परा यदि आज भी कायम होती तो कई महिलाओं को अदालत की बेसिर-पैर की जिरहों से छुटकारा मिल जाता”। यह टिप्पणी न्याय व्यवस्था के ढुलमुल रवैये में विशेषकर स्त्रियों की दयनीय अवस्था को रेखांकित करती है। हमारे घर-परिवार आज भी अपना पक्ष रखने के लिए कोर्ट कचहरियों से बचकर चलते हैं। कहानी कई शीर्षकों में विभाजित की गई है धम्मं शरणं गच्छामि शीर्षक में वे प्रश्न उठाते हैं कि क्यों बौद्ध धर्म बड़े पैमाने पर निर्यात हो गया। (जबकि)पेड़ की शाखाएं श्रीलंका, चीन बर्मा जापान तक पहुंच कर शहर को प्रसिद्ध पहुंच रही थी”। वे पाठकों को गयासुर राक्षस की कथा की परतों को हटा तह तक पहुँचाना चाहते हैं।

‘लोटन कबूतर रे’ शीर्षक में वे लिखते हैं कि शहर गाँव में उग रहे थे तो स्पष्ट हो जाता है कि किसानों के पास जोतने के लिए ज़मीनें नहीं बची अब वहाँ फसलें नहीं प्लाट काटे जा रहे हैं जहाँ शॉपिंग मॉल बन रहे हैं जिसकी तर्ज पर लड़कियों को ‘माल’ कहना आम हो चुका था। लड़कियों के लिए विश्व्यापी, ग्लोबलाइजड पर्यायवाची ‘माल’ का प्रयोग तब तक सबकी जुबान पर आ गया था” लग तो रहा था कि स्त्री सशक्त हो रही है लेकिन उसका वस्तुकरण हो रहा था जिसे उसने सहज उत्साह में स्वीकार भी कर लिया, पूँजीवाद और बाजार ने स्त्री को भी आकर्षित किया लेकिन बाज़ार में स्त्री-सौन्दर्य की माँग रही है, आज सौन्दर्य प्रसाधनों का एक बड़ा बाज़ार है, हर क्षेत्र में सौन्दर्य प्रतियोगिताओं की बाढ़ इसका सटीक उदाहरण है। उदारीकरण के दौर में विदेशी कंपनियों के वर्चस्व में अंग्रेजीके आतंक की जड़े फैल रही थी उसकी चौधराहट अभी तक कायम है। स्कूलों की विविध श्रेणियाँ बन रही थी जहाँ फाइव स्टार होटलों-सी सभी सुविधाएँ थी संजीव लिखते हैं “लोग अपनी-अपनी औकात के अनुसार अपने बेटे-बेटियों का भविष्य खरीदकर आश्वस्त हो जाते। वास्तव में स्कूलों की विभिन्न श्रेणियाँ समाज की श्रेणियों को बनाने-विकसित करने की प्रथम सीढ़ी है। उदारीकरण में अंग्रेजी स्कूल कुकरमुत्तों की तरह फल-फूल रहे थे लेकिन लड़कियों के लिए अभी भी नजरिया अत्यंत संकुचित बना हुआ था, किसी भी लड़की को सिर्फ इसलिए घर पर बैठा दिया जाता था कि स्कूल के लड़के उसे लेकर अश्लील कहानियाँ गढ़ रहे होते, ये कथा घर-घर पहुँचती और तब आती जैसी प्रतिभावान छात्रा का स्कूल छुड़वा दिया जाता। दूसरी नायिका आर्ची अगर पढ़ पाई तो उसका कारण वैवाहिक-अहर्ता तक सीमित है। नौकरी ‘करने देना’ स्त्री-सशक्तिकरण नहीं अपितु आर्थिक विवशता अधिक है वह दोहरा बोझ निभा रही है। असफल प्रेम-विवाह आती को आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनाने में भूमिका निभाता है, पति बनने के बाद आती का प्रेमी जिम्मेदारियों से भागकर घर लौट जाता है लेकिन आती जानती है कि लड़के को घर-परिवार-समाज अपना लेगा लेकिन लड़की होने के कारण उसे अपने घर वाले भी कभी भी नहीं अपनायेंगे वह शहर में ही रह जाती है।

‘तुम्हीं से जनमूं तो पनाह मिले’ कहानी का शीर्षक अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो के भाव से विपरीत स्त्री के ही रूप में पुनर्जन्म की इच्छा को प्रकट करता है लेकिन इस शर्त के साथ कि वो जनम मुझे तुमसे (अपनी बेटी से) मिले जो अपने आप में असामान्य-सी बात लग सकती है। स्त्री की इच्छाएँ, आशाएँ, आकांक्षाएँ, महत्त्वकाक्षाएँ, पितृसत्तात्मक संरचना के ‘घर के घेरे’ में सुरक्षित? कैद कर दी जाती हैं। कहानी के दो महत्वपूर्ण वाक्य कहानी के शीर्षक को खोलते हैंआमतौर पर बेटी की गतिविधियाँ माँ के द्वारा ही संचालित होती हैं अर्थात् माँ पितृसत्ता को मज़बूत करने वाली सबसे महत्वपूर्ण संवाहक होती हैं। आर्ची के प्रसंग में “मर्दवादी श्रेष्ठता और विनम्रता के दुश्चक्र में वह बचपन से अब तक फँसी पड़ी है पहली बार उसे अपनी माँ की विवशताओं का एहसास हुआ उसे लगा कि ऐसे ही पुरुष-चक्र में माँ अपने औरतपन को नहीं बचा सकी और वह मर्द हो गईमाँ का ‘मर्द होना’ यानी पितृसत्तात्मक मानसिकता से खुद को मुक्त करने के लिए पहली तैयारी माँ को करनी होगी। एक माँ अपनी बेटी से पुनर्जन्म की इच्छा कर रही है इसे हम अपडेटेड होने के रूप में समझ सकते हैं क्योंकि एक माँ से बेहतर अपनी बेटी की इच्छाओं को कौन समझ सकता है ये उसके प्राण रेया के प्राणों को सम्बोधित कर गाने लगे कि तुम्हीं से जनमूं तो शायद मुझे पनाह मिलेयहाँ पंक्ति में “शायद” का प्रयोग है। किरदार या नायिका को अपनी इच्छा पर संदेह हो सकता है वह कमज़ोर हो सकती है लेकिन लेखक संजीव चंदन को यकीन है कि पितृसत्ता के पुरुष-चक्र को अगर कोई चुनौती दे सकता है, तोड़ सकता है तो वह माँ ही है।

कहानियों में शिल्पगत प्रयोग उन्हें विशेष बनाते हैं उनकी कहानियाँ शीर्षकों में विभाजित होती है इस कहानी में भी शीर्षकों को विभाजित कर अतीत और वर्तमान की कड़ियों को मिथकों से जोड़कर कथानक को गहनता देने का प्रयास है। मिथकों की आउटलाइनिंग से कथा का कलेवर उभर आता है। कहानी की प्रस्तावना या स्थापना में वे अपनी नानी का उल्लेख करते हैं जिसमें जब नानी नल-दमयंती और हरिश्चंद्र-शैव्या की कहानियाँ सुनाया करती थी और बच्चों से कहती कि सोना मत, हुंकारे भरते रहना। यहाँ नल-दमयंती के प्रेम संघर्ष कथा जो राजकुमारी दमयंती पुनर्मिलन की कहानी है (महाभारत) , फिर हरिश्चंद्र की कथा है जिन्होंने अपनी पत्नी और बेटे को बेच दिया मगर चांडाल धर्म का निर्वाह किया संजीव चंदन चांडाल के साथ ‘धर्म’ शब्द का प्रयोग करते हैं। तो दो लडकियाँ एक ने प्रेम विवाह किया दूसरी ने परम्परागत लेकिन सुख दोनों के भाग्य में न था हरिश्चंद्र की पत्नी-बेटे के कष्टों पर बात नही होती लेकिन सत्यवादी हरिश्चंद्र के संघर्ष की गाथा सभी गाते हैं।

धम्मं शरणं गच्छामि शीर्षक कहानी का विकास है यानी पृष्ठभूमि के रूप में अम्बेडकरवादी व बौद्ध समर्थक संजीव चंदन लिखते हैं “शहर को अंतरराष्ट्रीय बनाने का सबसे बड़ा गोदाम बोधि वृक्ष के नीचे ही बनाया गया है जहाँ से बौद्ध धर्म का बड़े पैमाने पर निर्यात होता है”। गया में “विष्णुपद मंदिरके चरण चिह्नजो आज भी गया नामक किसी आतंकवादी (असुर) की छाती पर मूँग दलते दिखाई पड़ता है मानने वाले तो उस चरणचिह्न का ब्राहमणवाद का प्रतीक और आतंकवादी की छाती को बौद्ध धर्म की छाती भी मानते हैं’ आज इस क्षेत्र में बौद्ध समर्थक शोध कर रहे हैं कि बौद्ध धर्म के पतन के क्या कारण थे? वे सुजाता का जिक्र करते हैं, जिसने अति क्षीण कंकाल समान बुद्ध को वटवृक्ष देवता समझ कर खीर का भोग लगाया। बुद्ध 49 दिन के उपवास में थे खीर खाकर कर उन्हें ज्ञान हुआ कि ‘अति किसी भी चीज की ख़राब होती है’। संजीव चंदन सुजाता को गुरु और सिद्धार्थ को शिष्य बताते हैं। लेकिन बौद्ध धर्म की इस समृध्द परम्परा का ब्राह्मणवादी अफसरों की चालाकी में का बड़े पैमाने पर निर्यात हो गया’। सीता और फल्गू नदी का किस्सा, विलम्ब होने पर जब सीता ने अपने ससुर का पिंडदान किया तो राम सीता पर विश्वास नहीं करते बल्कि प्रमाण माँगते हैं तो उस समय उपस्थित सभी गवाह झूठ बोल देते हैं सिवाय वटवृक्ष के लेकिन बाद में स्वयं दशरथ आते हैं जिनकी गवाही राम को माननी पड़ती है। यानी पितृसत्तात्मक समाज में अपनी ही पत्नी की बात का कोई मोल नहीं, जबकि अन्य झूठे गवाह है उन पर विश्वास कर लिया गया।

लोटन कबूतर रे शीर्षक में वे कथा का विस्तार अतीत से वर्तमान में ले आते हैं। लंदन-पेरिस महानगरों की तरह भारत के छोटे शहर भी महानगरों में बदल रहे थे। कबूतर, लोटन कबूतर शहरों की खास पहचान बन चुके है “शहर उग रहे थे गाँव में”  क्योंकि गाँव में जमीन जोतने के लिए किसानों के पास समुचित सुविधाएँ नहीं। दिल्ली की ही बात करें तो एन. सी. आर. का विस्तार गुड़गाँव से मानेसर तक इधर बहादुरगढ़ तक और सोनीपत तक फैल रहा है। जाट-जमींदारों के पास बेहिसाब पैसा आया

 लेकिन गरीब किसान मजदूरों में तब्दील हो गये। उदारीकरण ने देश और समाज कितना उदारवादी बनाया ये हम आज के क्रूरतम होते समाज में देख रहे हैं, क्रंकीट के जंगल उग रहे हैं, मानो सीता के श्राप से नदियां और संवेदनाएँ सूख रही हैं। हाँ,उदारवाद ने ‘अंग्रेजी का आतंक स्थापित किया। सरकारी स्कूलों के रिकार्ड खराब होने लगे, कर दिये जाने लगा। सिनेमा का समाज पर सीधा प्रभाव पड़ रहा था घायल का सन्नी देओल ‘मैंने प्यार किया”, के सलमान खान भाग्यश्री माधुरी दीक्षित युवा पीढ़ी के आदर्श थे। ‘पापुलर कल्चर’ हवा में घुलने लगी। समझने वाली बात है कि स्कूलों की विभिन्न श्रेणियाँ वास्तव में समाज की श्रेणियों को बनाने विकसित करने की प्रथम सीढ़ी है। यहाँ वे महा‌भारत के द्रोणाचार्य को दृश्य में ले आते हैं, द्रोणाचार्य जिसने एकलव्य का अंगूठा माँगा था लेकिन “आज हस्तिनापुर के राजकुमार उनकी गुरुआई को नकार कर निजी स्कूलों की शोभा बढ़ा रहे थे।” (महंगी फीस फाइव स्टार सुविधा) स्कूलों के अध्यापकों पर भी टिप्पणी है जो शिक्षा व्यवस्था और समाज पर भी सवाल है, जहाँ उदारीकरण आने पर भी समाज लड़‌कियों के लिए अभी भी बहुत संकुचित था कोई गलती न होने पर भी घर पर बैठा लिया जाता है। लड़‌कों की गढ़ी गई कहानियों ने ही ‘आती के यथार्थ’ विकृत कर दिया। बैठगई आती घर पर’! ‘बैठ जाना’ कहावत है, जिसे बैठा ही दिया गया हो वह चलेगी कैसे? आगे बढ़ेगी कैसे? सफलता उसके कदम कैसे चूमेगी? लड़कियों को ‘हासिल’ करने के सन्दर्भ में जब लड़‌कों को असफलता हाथ लगती तो लड़‌कियों के लिए कुछ ‘किस्सा-ए-खास’ का बाज़ार गर्म हो जाता, इस प्रकार के असफल प्रेमियों की जमात स्कूल से लेकर लड़की के पास-पड़ोस तक थे वे कथा-गोष्ठियों का आयोजन करते जिसमें लड़‌कियों को लेकर तरह-तरह की फंतासिया गढ़ी जाती यानी सीधे-सीधे चरित्र चीरहरण, उन्हें बदनाम किया जाता। “कौन सी लड़की का किस शिक्षक से लफड़ा है” उदारीकरण में जो शॉपिंग मॉल उगे उनकी तर्ज पर लड़कियों भी ‘माल’ हो गई। ‘अंग्रेजी की चौधराहट’ बनी रही। किरदारों के चरित्र-चित्रण को शहर से जोड़ते हुए संजीव चंदन लिखते हैं आती(आर्ची की भी) की कहानी भी तो शहर के इसी चरित्र की बुनावट है”। जो असफल सह‌पाठियों, शिक्षकों, पड़ोसियों की फैंटसियों की शिकार बनी। आती बेबाक और बिंदास थी, इन गढ़ी गई कहानियों के प्रति उदासीन लेकिन पितृसत्ता के नियमों के अनुसार उसे या तो शर्माना चाहिए या डरना लेकिन वो नजरंदाज कैसे कर सकती थी! हाँ, फैंटसियों से उसके पिता डर गये कि झूठी ही सही ये कहानियाँ उसके विवाह में बाधा डालेगी और कुंवारी बेटियों को घर में बैठाना, इज्जत प्रतिष्ठा अब दाँव पर लगी होती है “बेटी कुंवारी रह गई तो कहानियां और भी अश्लील हो जाएगी”। विवाह पितृसत्ता का सबसे मजबूत स्तम्भ!

यत क्रौंच मिथुनादेकं वद्यीकाम मोहितां

जिन परिस्थितियों ने आती का चरित्र गढ़ा गया उन पर उसका वश नहीं था पर को आती वैसा तो बिलकुल नहीं बनना था। आम तौर पर बेटी की परवरिश और गतिविधयाँ माँ के द्वारा नियंत्रित होती हैं वास्तव में माताएँ पितृसत्ता की कुशल संवाहक होती है। प्रतिभान छात्रा आती का स्कूल छुड़वा दिया गया। घर और अड़ोस-पड़ोस की टिप्पणियाँ उसमें अपराध बोध करवाने लगा। घर का दमघोंटू माहौल, “निरक्षर माँ, लगभग अर्धशिक्षित पिता, छोटे भाई बहनों के बीच वह भीतर ही भीतर घुटन महसूस करती”। पड़ोस की स्त्रियों ने उसकी अवस्था को “लोक भाषा में मर्दमारी” बोलना शुरू किया जो चिकित्सा में हिस्टीरिया है घर परिवारवाले जिसका इलाज शादी को मानते कि शादी के बाद सब ठीक हो जायेगा पर क्या सचमुच? वास्तव में आती के विकास का मार्ग अवरुद्ध कर दिया गया था जबकि उसे एक साथी की ज़रुरत थी जो उस पर विश्वास करे उसे प्रेम करे। एक पल को तो आती भी असमंजस में आ गई कि “क्या सचमुच वह मर्दमारी है, वह रो पड़ती” और इसी किसी कमजोर स्थिति में मास्टरजी ने उसका इस्तेमाल करना चाहा, (स्पर्श चिकित्सा) ये वही मास्टर था जो यहाँ आने से पहले अरहर के खेत में समाधिस्थ पाया गया था और देश निकाला की तर्ज़ पर गाँव से निकाल दिया गया जातीय समीकरण पर भी यहाँ टिप्पणी है- ‘गनीमत है कि साथी कबूतर बिरादरी क्रम में काफी नीचे थी, गरीब थी, अन्यथा बेचारा शिक्षक किसी पेड़ पर लटका होता या नदी में डुबकियाँ ले रहा होता। पकड़े जाने पर दण्ड विधान, न पकड़े जाने पर कबूतर तो दाना चुग कर उड़ जाते’। पिता ने जब उन दोनों को देखा तो मास्टर भाग गया संजीव लिखते हैं– “इस अनायास दृश्य ने उसे विश्वस्त कर दिया कि आती बालिग हो गई है उसकी समझ में बालिग होने की आदर्श स्थिति यही है” आती जो पितृसत्ता के वैवाहिक-बंधन के चंगुल में बाहर निकलना चाहती थी उसे सामने नजर आया वह लड़का जो स्कूल के रास्ते में सभी सहेलियों के सामने आती का कलाई पकड़‌कर बोला था ‘आई लव यू”! यहाँ अंग्रेजी का महात्म्य भी काम कर गया किन्तु प्रेमी विवाह-बंधन के बाद पति की भूमिका में आ गया और पितृसत्ता की मशाल को जिलाए रखने का संकल्प लेकर शहर में उसे अकेला छोड़ वापस गाँव लौट गया।  

ता थेई तत् थेई तत् ता

अब दूसरी नायिका आर्ची की कहानी। नृत्य जहाँ अपने सम्पूर्ण की अभिव्यक्ति के लिए सर्वाधिक संभावनाएँ होती हैं लेकिन भले घर की लडकियाँ सबके सामने न्रत्य नहीं किया करती शौक में भले ही कर ले। आर्ची का किस्सा घरों के भीतर होने वाले शोषण का खुलासा करता है जहाँ बलात्कार जैसी दुर्घटनाओं को द‌बाया-छिपाया जाता है। आर्ची के दो किशोर चाचाओं ने तीन साल की आर्ची का यौन शोषण किया। माँ ने मासूम पर बलात्कार की इस घटना को दबा दिया, इज्जत का जो सवाल था। माँ जानती थी कि चाहे अनचाहे आग लगती है, लग सकती है पर धुआँ घर के भीतर ही रहना चाहिए, यदि बाहर गया तो आग की भयावहता बढ़ जायेगी। माँ धुआँ दबाने में सफल रही लेकिन वह धुआँ बेटी को ताउम्र घुटन देगा? इसकी परवाह किसे है। एक पुरुष लेखक माँ और बेटी या कहे हर लड़की के मन के भीतर की आग़ और घुटन को महसूस और अभिव्यक्त कर पाया यह काबिले तारीफ है। रजस्वला होने पर आर्ची “मातृत्व शक्ति और कमजोरी का भान” हुआ वह जान पाई क्यों माँ उसे नियंत्रित करना चाहती, क्यों आग लगने के बाद भी धुआँ नहीं उठने दिया जाता? आर्ची ने जब उसने देखा कि उसकी माँ और चाचा का संबंध पिता के रिश्ते में दरार डाल रहा है, तब चाचा को विदा कर धुएँ को निगल लिया “वह नीलकंठ हो गई” पर आर्ची शिव नहीं थी, शांत नहीं रह सकती थी वह विद्रोहिणी, जिद्दी और एकांतवादी हो गयी। उसकी पढ़ाई चालू रही लेकिन स्त्री शिक्षा की अहमियत आज भी वैवाहिक-अहर्ता’ तक सीमित है। नौकरी करने देना स्त्री-सशक्तिकरण नहीं अपितु आर्थिक विवशता है। लड़की के गुणों की विवाह मार्केट में कोई कीमत नहीं। विवाह के बाद पति की इच्छा पर लड़की की इच्छा निर्भर हो जाती है। “कैरियर की ऊँची उड़‌ान उड़ती लड़कियां प्यारी लगती हैं लेकिन सिर्फ पत्रिकाओं अखबारों के पृष्ठों पर कैटवाक करती सौन्दर्य प्रतियोगिताएं की लड़कियां टीवी स्क्रीन पर ही अच्छी लगती हैं इज्ज़तदार घरों की लड़कियों को शोभा नहीं देता”। आर्ची और हर लड़की को यह अहसास करवाया जाता है कि उसके पास कुछ विशेष अंग है जो घर समाज की इज्जत का प्रतीक है लेकिन क्यों? अपने ही अंगों के बोझ तले लड़‌कियाँ दब जाती हैं, कुचल जाती है आग और धुएँ का खेल खेलने को बाध्य होती हैं। लेकिन “आर्ची-तबलावादक को जोरदार तमाचा देकर बताती है कि उन अंगों के अलावा भी के हाथ जैसे धमाकेदार अंग होते हैं”। लेकिन इज्जत की खातिर, पिता की आत्महत्या की धमकी के आगे आर्ची हार जाती है। विवाह के समय उसे लगा कि तीन-चार साल की आर्ची फिर से कहीं अकेली हो गई टाफियाँ खिलाने वाले चाचाओं के बीच दुबारा रजस्वला हुई हो और घर में उत्सव बनाया जा रहा हो लेकिन वह भाग कर जाती कहाँ? आती गई तो थी घर से भाग कर! क्या मिला? आर्ची ने अपना विस्तार अपनी बेटी रेया में देखा, जैसे उसकी माँ ने भी उसके भीतर अपना फैलाव अनुभव किया था।

तुम्हीं में जनमूं तो पनाह मिले

अंतिम शीर्षक “तुम्हीं में जनमूं तो पनाह मिले” कहानी का उद्देश्य स्पष्ट करता है। आती एक ‘साथी, विश्वास और प्यार’ की खातिर ‘घर’ का घेरा तोड़ प्रेमी के साथ भाग जाती है लेकिन छली गई जबकि आर्ची जो अपनी देह की सम्पूर्णता नृत्य में पाती थी उसकी शादी कर दी गई। इसमें स्त्रीवादी आलोचक की भावुक कलम से निकले कुछ संवाद महत्वपूर्ण हैं जो स्त्रीविमर्श की वैचारिकी को मार्ग दिखाते हैं- “इस पड़ाव पर आकर उनकी कथा लगभग एक-सी हो जाती है आती ने नन्हीं आकृति के रूप में पुनर्जन्म लिया तो आर्ची को भी एक सन्तान हुई रेया”

“नन्हीं आकृति को आती वह सब उन्मुक्तता देना चाहती थी जिसे वह नहीं पा सकी”

“आर्ची ने अपनी माँ को अपने में फैलते हुए महसूस किया और रेया में खुद का विस्तार दिखाई पड़ा उसे…उसने निश्चय किया रेया के लिए मुक्त होगी …मुक्त होने की पहली शर्त आर्थिक स्वतंत्रता ही तो है” दोनों नायिकाएँ (माँ) चाहती हैं कि आकृति और रेया की देह पर सिर्फ उन्हीं का अधिकार हो। लेखक कोई निष्कर्ष या आदर्शवादी अंत नहीं देते बल्कि एक लंबी यात्रा के बाद कहानी का अंत फ़ास्ट फॉरवर्ड शैली में हु‌आ-सा लग सकता है जो सदियों से सीता, दमयंती, तारामती, यशोधरा, सुजाता से होता हुआ आती,आर्ची, रेया और आकृति तक पहुँचता है। वस्तुत: लेखक और पाठक लड़कियों के अन्तरराष्ट्रीय चरित्र यानी परिस्थितियों से वाकिफ हैं वे जानते हैं कि लड़कियाँ प्रेम करें अथवा प्रेम-विवाह अथवा पारिवारिक मंजूरी से होने वाले विवाह, उनका जीवन पितृसत्ता से ही संचालित होगा। आती का प्रेमी पति बनकर जिम्मेदारियों से भागकर घर लौट जाता है, आती जानती है उसका लौटना असम्भव है क्योंकि लड़के को परिवार समाज अपना लेगा लेकिन लड़की होने के कारण उसे कभी भी नहीं अपनाया जाएगा। वह शहर में रह जाती है अपने पैरों पर खड़ी होती है।

वस्तुत: उदारीकरण के बाद भूमंडलीकरण के दौर में भले ही गाँव लंदन वाली हवा में लहलहा रहे थे, छन-छन कर आने वाली इस हवा ने स्त्री को भी मानो राहत दी उसके स्वप्नों को संभावनाओं का उन्मुक्त आकाश दिया लेकिन समय के सूत्र थामे यह कहानी परत-दर-परत पितृसत्ता के मूल स्वरुप को उजागर करती है। किस तरह बैंगलोर में मिस इंडिया के बाद सौन्दर्य प्रतियोगिताओं की होड़-सी लग गई। मिस राज्य, मिस शहर, मिस कालेज। इन सौन्दर्य प्रतियोगिता में प्रतिभागियों की प्रतिभा नहीं बल्कि अन्य सभी ताम-झाम दीखते। लेकिन आती के शहर में इस प्रतियोगिता को रुकवा दिया गया और शहर को संभ्रांत सिद्ध करने के लिए ये वही लोटन कबूतर विद्यार्थी थे, जो आती जैसी लड़कियों के लिए कथाएं गढ़ते थे पितृसत्ता का दोगलापन। वर्तमान में आलम ये है कि हम हर मुहल्ले में जिम और ब्यूटी पार्लरों विस्फोट देख रहे हैं। यद्यपि रियलिटी शोज़ का आग़ाज़ तब तक हुआ नहीं था लेकिन गीत-संगीत-नृत्य, कला, संस्कृति पूँजीवादी ‘पोपुलर कल्चर’ का अंग बन गये थे। विशेषकर निजी स्कूलों में शौक के रूप में इसे प्रचारित प्रसारित किया गया इसे ‘शौक-ए-खास से शौक-ए-आम’ बनाया। प्राइवेट स्कूलों में संगीत, नृत्य आदि के आधे-अधूरे ज्ञान इन तथाकथित शिक्षकों की रोजीरोटी का साधन बने विडंबना ऐसे ‘गुरु’ पनपने लगे “जिनके न पहले संगीत शिक्षा की कोई परंपरा थी और जिनके बाद न यह परंपरा होगी”। इन गुरुओं की निकृष्टता, अल्प ज्ञान, दुश्चरित्र का भयावह रूप भी सामने आता है। आती और आर्ची की दोनों की कहानी इसी पृष्ठभूमि की उपज है ये आरम्भ में ही बता दिया गया था इस नए परिवेश में दोनों की बेटियाँ आकृति और रेया नया आकर लेंगी जो उनकी अगली कहानी में विकास पाती हैं। कहानी का कलेवर उपन्यास विधा की माँग करता है क्योंकि किरदारों का स्थानान्तरण अन्य कहानियों में भी मिलता है “मेरी ऊर्जा ,मेरी शक्ति, मेरा अस्तित्व,मेरा स्वप्न,सब कुछ रेया के भीतर आकार ले रहा है” एक नई स्त्री बननी आरम्भ हो चुकी थी लेकिन पितृसत्तात्मक संरचना में कैद माँ उसे नया आकार दे पाएगी! संभवत: यह चिंता कहानी को ख़त्म नहीं होने देती और कहानी का अंत अस्वाभाविक प्रतीत होता है। पति के भाग जाने पर आती का आर्थिक रूप से स्वतंत्र होना और आर्ची का नृत्य स्कूल खोलती है है कि नई स्त्री के जीवन से पुरुष का पलायन होगा क्या तभी नई रेया का जन्म संभव है? नहीं, माताएँ जब को पितृसत्ता को चुनौती देनी होगी तभी लड़कियों को पनाह मिलेगी जो सिस्टरहुड की संकल्पना से जुड़ा है।

रक्षा गीता

लेखिका कालिंदी महाविद्यालय (दिल्ली विश्वविद्यालय) के हिन्दी विभाग में सहायक आचार्य हैं। सम्पर्क +919311192384, rakshageeta14@gmail.com
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