लेख
बहुमत की सरकार का सिनेमा
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विनीत कुमार
हिन्दू कॉलेज, दिल्ली से हिन्दी में एम.ए. करने वाले विनीत कुमार ने दिल्ली विश्वविद्यालय से एफ एम चैनलों की भाषिक संस्कृति पर एम–फिल तथा ‘मनोरंजन प्रधान चैनलों में भाषा एवं सांस्कृतिक निर्मितियाँ’ पर पी–एच–डी की है. तहलका जनसत्ता के लिए नियमित लेखन करते हैं और ‘मंडी में मीडिया’ के लेखक हैं।
प्रस्तुत है यश चोपड़ा निर्देशित फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे’ पर उनका एक दिलचस्प आलेख –
बहुमत की सरकार का सिनेमा : विनीत कुमार
(दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे:यश चोपड़ा)
हर सप्ताह ढेर सारी फिल्में रिलीज होती हैं लेकिन उनमें बमुश्किल ऐसी चीजें होतीहैं जिनसे कि भारतीय कला और संस्कृति का प्रसार हो सके । हमारी कोशिश होगी कि हम सिनेमा के माध्यम से भारतीय संस्कृति और सामाजिक मूल्यों को बढ़ावा दें, ऐसी फिल्मों को हर तरह से प्रोत्साहित करें जिसमें आर्थिक सहयोग भी शामिल है । हमने इस पर काम करना भी शुरू कर दिया है । ‘दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे’ जैसी फिल्म जिसकी कहानी भारत की महान परिवार परम्परा के इर्द–गिर्द ही घूमती है, की हमें और जरूरत है (मिथिलेश कुमार त्रिपाठी, राष्ट्रीय संयोजक, कला एवं संस्कृति प्रकोष्ठ, भारतीय जनता पार्टी) ।
1995 में रिलीज हुई फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे’ के सन्दर्भ में यह कम दिलचस्प वाकिया नहीं है कि साल 2014 में बहुमत की सरकार वाली पार्टी इसे अपनी सांस्कृतिक राष्ट्रवादी राजनीति के न केवल अनुकूल मानती है, आदर्श उदाहरण के रूप में देखती है बल्कि सिनेमा को लेकर अपनी समझदारी के लिए इसे बतौर घोषणा–पत्र के रूप में पेश करती है । ऐसी ही फिल्मों को आर्थिक सहयोग सहित अन्य सभी स्तरों पर प्रोत्साहित करने की बात करती है । इस आर्थिक सहयोग में यह बात अपने–आप शामिल है कि ऐसी फिल्मों के साथ ‘बाम्बे’ से लेकर ‘फना’ जैसी स्थिति कभी पैदा नहीं की जाएगी । एक तरह से भविष्य में पूर्ण बहुमतवाली सरकार और लोकतन्त्र के बीच ‘दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे’ जैसी फिल्में बनती हैं तो उन्हें उन सभी स्तरों पर संरक्षण प्राप्त होंगे, जिनके अभाव में कई दूसरी फिल्में दर्शकों की पसन्द–नापसन्द की प्रक्रिया से गुजरे बिना ही अन्तिम निर्णय यानी प्रतिबन्ध तक पहुँचा दी जाती हैं । बहरहाल–––
इस दिलचस्प वाकिये के साथ उतना ही दिलचस्प सवाल है कि क्या ‘दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे’ एक ऐसी फिल्म है जो भाजपा की दक्षिणपन्थी सांस्कृतिक रुझानों को तुष्ट करती है और 18 साल की उम्र पार कर चुकी इस फिल्म पर इस बयान के बाद यह कम खतरा नहीं है कि आगे इसे इसी रूप में विश्लेषित किया जाएगा ? इस फिल्म से एक–एक करके ऐसे रेशे निकाले जाएँगे जिसका कि समय–समय पर बीजेपी ने अपनी घोषणा–पत्र में और इनके प्रवक्ता ने अलग–अलग सन्दर्भ मसलन परिवार, विवाह, प्रेम, संस्कृति और समाज को लेकर जो कुछ कहा है, मिलान किया जाएगा । ऐसा होता है तो बीजेपी के लिए फिर भी सुविधाजनक स्थिति होगी कि उसे बिना किसी लागत, मेहनत और रचनात्मक स्तर पर संघर्ष किये एक ऐसी फिल्म मिल जाएगी जिसकी लोकप्रियता देश और दुनिया–भर में कई स्तरों पर निर्धारित मानकों को लाँघ जाती है । लेकिन इस फिल्म के लिए यह कम विडम्बनापूर्ण स्थिति नहीं होगी कि जो बात यह बेहद तरलता की स्थिति तक लाकर दर्शकों को सम्प्रेषित करती है, उनका विश्लेषण बेहद ही शुष्क और बयानों की शक्ल में कर दिया जाएगा और दूसरा कि इसके साथ उन सारी बातों को इस फिल्म से जोड़कर देखा जाएगा जिनसे इसका सीधा–सीधा नाता न भी रहा हो ।
लेकिन यह भी है कि ठीक लोकसभा चुनाव 2014 के परिणाम घोषित होने के चैबीस घंटे के भीतर ही बहुमत की सरकार बनाने जा रही बीजेपी के कला एवं संस्कृति प्रकोष्ठ के संयोजक ने सिनेमा सम्बन्धी अपनी रणनीति को लेकर इस फिल्म को जिस रूप में शामिल किया, कम–से–कम सिनेमा और पब्लिक स्फीयर के सन्दर्भ में इसे काटकर नहीं देखा जा सकता है । यहाँ बीजेपी की सिनेमा सम्बन्धी रणनीति, सिनेमा के माध्यम से राष्ट्रवाद (राजनीति के सन्दर्भ में), संस्कार और मूल्यों के प्रसार सम्बन्धी परिवर्तनकामी दृष्टिकोण के विस्तार में न भी जाएँ और फिलहाल सिर्फ इसकी इस सिरे से चर्चा करें कि आखिर एक ऐसी फिल्म जो न केवल बनाए जाने की नीयत में विशुद्ध लव स्टोरी है, जिसकी चर्चा न केवल दर्जनों फिल्म समीक्षकों द्वारा बार–बार की जाती रही है बल्कि स्वभाव से बेहद संकोची और फिल्म की अपार सफलता के बावजूद इंटरव्यू के नाम पर मीडिया के आगे शर्माते रहे स्वयं फिल्म के निर्देशक आदित्य चोपड़ा द्वारा भी इसके केन्द्र में लव स्टोरी ही बतायी जाती है और दर्शक–प्रभाव तो इसी रूप में है ही । फिर इसमें ऐसा क्या है कि बीजेपी इसे आदर्श फिल्म के रूप में देखती है, आगामी फिल्म के लिए नमूना मानती है ? क्या बीजेपी प्रेम और प्रेम कहानी को लेकर उसी रूप में उदार है जैसा कि फिल्म के अन्त तक आते–आते चैधरी बलदेव सिंह (सिमरन के पिता) हो जाते हैं, जिन्हें अपनी पारिवारिक परम्परा और संस्कारों के आगे इस बात पर ज्यादा गहरा यकीन होता है कि उनकी बेटी को ‘‘इस लड़के (राज) से ज्यादा और कोई प्यार नहीं कर सकता ।’’ ‘दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे’ अगर बीजेपी के लिए आदर्श फिल्म का नमूना है तो इसका मतलब है कि वो न केवल सिनेमा में बल्कि समाज में भी प्रेम को भी उसी रूप में स्वीकार करती है, उसे प्रोत्साहित करती है और उसकी इच्छा है कि ऐसी फिल्में युवाओं के बीच प्रेम को जीवन के अन्तिम सत्य (मानुष प्रेम भयो बैकुंठी) के रूप में प्रस्तावित करे । ऐसा सचमुच है क्या ?
यदि ऐसा होता तो इस फिल्म के रिलीज होने के बारह साल बाद परोमिता बोहरा को ‘मोरलिटी टीवी एंड द लविंग जिहाद’ (2007) जैसी डॉक्यूमेंटरी फिल्म बनाने की जरूरत न पड़ती । मेरठ के पार्क में अपनी भावनाओं का इजहार कर रहे प्रेमी युगल को पुलिस जितनी बेरहमी से डंडे मारकर भगाती है, मीडिया जिनमें प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों शामिल हैं, जिस बेहयापन के साथ इस पर अश्लीलता का मुलम्मा चढ़ाने के लिए तत्पर होती है, उतने ही अमानवीय होकर बजरंग दल जैसे संस्कृति रक्षक इन पर टूट पड़ते हैं । वो इन पर हमला करके, इन्हें कुचलकर संस्कृति और भारतीय परम्परा को, हर हाल में बचाना चाहते हैं । बजरंग दल जैसे संस्कृति रक्षक की दमन की हद तक ‘मोरेल पुलिसिंग’ सिर्फ वेलेंटाइन डे या किसी एक सिनेमा को लेकर स्थिर नहीं हो जाती बल्कि सेंसर बोर्ड, सम्बन्धित संस्थाओं की ओर से अनुमोदित कर दिये जाने के बावजूद अघोषित संस्था बनकर रूटीन वर्क के रूप में ये सब जारी रहता है । यह सच है कि तकनीकी रूप से बीजेपी को बजरंग, शिव सेना या राम सेना जैसे संगठन और पार्टी के पर्याय के रूप में नहीं देखा जा सकता (समय–समय पर पार्टी स्वयं इससे अपने को अलग करती आयी है) लेकिन संस्कृति, परम्परा, प्रेम और स्त्री–पुरुष सम्बन्धों को लेकर जो नजरिया इनका है, बीजेपी ने उसमंे कोई अलग उदाहरण पेश नहीं किया है । मिथिलेश कुमार त्रिपाठी ने सिनेमा और संस्कृति को लेकर बयान दिए जाने के बाद ‘द संडे गार्जियन’ के लिए तनुल ठाकुर को जो इंटरव्यू दिया, उसमे भी स्पष्ट है कि ट्रीटमेंट के स्तर पर अपेक्षाकृत भले ही पार्टी की मुलायमियत होगी और वो बजरंग दल या शिव सेना जैसा कुछ नहीं करेगी लेकिन, ‘जिस सिनेमा ने सामाजिक मूल्यों का ह्रास करने, पाश्चात्य संस्कृति को बढ़ावा देने का काम किया है, इसे दुरुस्त किया जाएगा और युवाओं को हर हाल में शिक्षित किया जाएगा कि कौन–सी फिल्म उनके लिए बेहतर है और कौन– सी नहीं’, जैसे वक्तव्य वैचारिकी के स्तर पर इनसे बहुत इतर नहीं हैं । खैर, वापस ‘डीडीएलजे’ की लव स्टोरी और बीजेपी द्वारा इसे आदर्श सिनेमा बनाये जाने की तरफ लौंटें तो–––
क्या सीधे–सीधे ये कहा जा सकता है कि बीजेपी को ‘डीडीएलजे’ की प्रेम कहानी से कोई लेना–देना नहीं है बल्कि इस प्रेम कहानी के इर्द–गिर्द जो संरचना खड़ी होती है, उसका मोह उनके प्रति ज्यादा है । ये संरचना कहानी के बढ़ने के साथ ध्वस्त होने की आशंका और फिर आगे चलकर संरक्षित रह जाने के जश्न के बीच की है । सतही तौर पर ही सही लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि ये एक ऐसी कहानी है जिसका गाढ़ापन प्रेम को लेकर है, लेकिन जिसकी पूरी शर्तें परिवार को बचाये रखने की हैं और ऐसे में ये शर्तें स्थायित्व को मूल्य के रूप में प्रस्तावित करती है । पूरी फिल्म में इस स्थायित्व के कई संस्करण बनते नजर आते हैं और जिसकी शुरुआत राज और सिमरन की प्रेम कहानी शुरू होने से पहले ही हो जाती है जहाँ राज अपने बिन्दास और खुले स्वभाव के बीच सिमरन के आगे स्वीकार करता है कि उसे अफयेर तो कई लड़कियों के साथ हुआ है लेकिन जिन्दगी में प्यार पहली बार हुआ है ।
जाहिर है कि इस प्यार को स्थायित्व तभी मिलेगा जबकि इसे शादी की शक्ल दी जाए और विवाह संस्था में यकीन रखने का मतलब है परिवार की उस नींव को और मजबूती देना जिसकी कामना भारतीय समाज में की जाती रही है । प्रेम की अन्तिम परिणति विवाह है, पूरी फिल्म इसे जिस तरलता के साथ स्थापित करती है, उससे एक ही साथ दर्शकों को अपने से बाँधने और स्थायित्व को मूल्य के रूप में प्रस्तावित करने का काम साथ–साथ हो जाता है । 1995 का वह भारतीय समाज जहाँ प्रेम और प्रेम विवाह की स्वीकार्यता मध्यवर्ग तक एक सामान्य घटना के रूप में स्वीकृत नहीं हुई हो, जो कि इसके बिना पर ‘‘ऑनर कीलिंग’’ जैसे लेबल के साथ हत्या तक जा पहुँचती हो, ऐसे में प्रेम विवाह को पारम्परिक एरेंज मैरेज की शक्ल में परिवर्तित करना, परस्पर विरोधी मिजाज के अभिभावकों के लिए स्वीकार्य बनाना, कम युगान्तकारी कदम नहीं माना जायेगा । शायद यही कारण है कि जो राज बीयर जैसी मामूली चीज के लिए अपने भावी ससुर से हिन्दुस्तानी होकर इंग्लैंड की जमीन पर झूठ बोलता है वही राज अपने इस प्रेम को एरेंज मैरिज की शक्ल तक आने का इन्तजार करता है और पंजाब की जमीन पर अपना लिया जाता है । एरेंज मैरिज का मतलब प्रेम में भले ही वो मिजाज से मजनूँ हो जाए लेकिन संस्कार से दामाद के रूप में स्वीकार न कर लिये जाने तक सब कुछ बर्दाश्त करेगा, वह इसके लिए उन अभिभावकों के विरोध में नहीं जाएगा जिन्होंने उसके प्रेम (यहाँ सिमरन) को पाल–पोसकर बड़ा किया है । आदित्य चोपड़ा भी निजी तौर पर यही मानते हैं ।
ऐसा करके ये फिल्म दर्शकों का एक तरह से विरेचन करती है कि प्रेम तो अपनी जगह पर ठीक है लेकिन उस प्यार को हासिल करके आखिर क्या हो जाएगा जिसकी स्वीकृति अभिभावक से न मिल जाए । (छार उठाए लिन्हीं एक मूठी, दीन्हीं उठाइ पिरिथवी झूठी) इस सन्दर्भ को फिल्म समीक्षक नम्रता जोशी इस रूप में विश्लेषित करती है कि ये फिल्म दरअसल इसी बहाने दो अलग–अलग मिजाज, रुझान और पृष्ठभूमि की पीढ़ी के बीच सेतु का काम करती है । यहीं पर आकर पूरी फिल्म लव स्टोरी होते हुए भी प्रेमी–प्रेमिका का अभिभावकों के साथ निगोसिएशन की ज्यादा जान पड़ती है और इसी निगोएसिशन के बीच जो स्थितियाँ और सन्दर्भ बनते हैं वो अपनी बहुमत की सरकार के आदर्श सिनेमा की परिभाषा के बेहद करीब जान पड़ती है । यहाँ आकर तब राज वह युवा नहीं रह जाता जिसे अलग से संस्कारित करने की जरूरत रह जाती है बल्कि वह ऐसे नायक के रूप में सामने होता है जो सेल्फ ट्यंड हैµ
‘‘मैं तुम्हें यहाँ से भगाकर या चुराकर लेने नहीं आया हूँ । मेरी पैदाईश भले ही इंग्लैंड में हुई हो लेकिन हूँ हिन्दुस्तानी, मैं तुम्हें दुल्हन बनाकर लेने आया हूँ’’ ।
सिमरन से राज का कहा गया ये संवाद असल में हर उस हिन्दुस्तानी का वक्तव्य है जो कि ‘‘फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी’’ की समझदारी के साथ जीता है । ये वो कमिटमेंट है जो मुल्क, परिवेशगत यथार्थ और परिस्थितियों के बदल जाने की स्थिति में भी बरकरार रहते हैं । लगातार बदलती स्थितियों और परिवेश के बीच भी जो चीजें नहीं बदलतीं, जिनमें स्थायित्व बरककार रहता है, वह भारतीय होने का मजबूत सबूत है, फिल्म इसे तत्परता के साथ स्थापित करती चलती है । हाँ, ये जरूर है कि सांस्कृतिक अध्ययन पद्धति के हिसाब से कोई इस फिल्म का अध्ययन करना चाहे तो कई स्तरों पर फैले झोल अपने–आप सामने चले आते जाएँगे । इधर राज की ओर से कहे गये ऐसे संवादों की पूरी Üाृंखला है जिसका अगर स्वतन्त्र अध्ययन किया जाए तो लगेगा कि ये फिल्म प्रवासी भारतीय की घोषणापत्र है । एक प्रवासी भारतीय को किस मानसिक बुनावट के साथ अपनी जिन्दगी जीनी चाहिए, उसका खाँका इस फिल्म में शामिल है । वैसे तो फिल्म की ओपनिंग शॉट्स से गौर करना शुरू करें जहाँ एक भारतीय मुल्क का व्यापारी चैधरी बलदेव सिंह पिछले 22 सालों से लन्दन की जमीन पर दूकान चला रहे हैं उतने ही समय से दूकान खोलते ही केले में खोंसकर अगरबत्ती जलाने का भी काम कर रहे हैं, दर्शकों को बताने के लिए काफी है कि एक भारतीय होने का क्या अर्थ होता है–––कैसे कुछ चीजें चार्म के साथ इस तरह जुड़ी होती है कि आप इससे अपने को अलग नहीं कर सकते । इसके साथ ही अपने को परिभाषित करने के क्रम में अपने देश से कट जाने की कसक इस भारतीय को नास्टेल्जिया की तरफ ले जाती है, ये इस बात का संकेतक है कि अगर स्थायित्व न भी बचा सकें तो नास्टेल्जिया ही वो चीज है जिससे परिस्थिति और स्थायित्व के बीच की दरार को पाटा जा सकता है ।
लेकिन लन्दन की इसी जमीन पर बिन्दास जी रहे जिस राज को इन्टरवल के पहले तक आप भारतीय कहकर दाव नहीं लगा सकते, उसके बाद वह चौधरी बलदेव सिंह की बायनरी बनकर भी कहीं ज्यादा भारतीय होने का सबूत पेश कर जाता है । चैधरी बलदेव सिंह के साथ–साथ धर्मवीर मल्होत्रा (राज के पिता) इसी स्थायित्व के लिए अपने बेटे को वो जिन्दगी जीने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, जिससे वे खुद वंचित रह गये । मजाक में ही सही लेकिन ये कम दिलचस्प नहीं है कि वो इसके लिए अपने पुश्तों के अनपढ़ और फेल हो जाने को अपने परिवार की परम्परा का हिस्सा मानकर ऐसा करने पर राज को शाबाशी तक देते हैं–––इस नकारात्मकता में स्थायित्व का अतिरेक तो है लेकिन ऐसे कई प्रसंग इस फिल्म में शामिल हैं जिसकी दिशा बदले जाने या उघाड़ने से शायद इतनी स्वीकार्य नहीं हो पाती और न ही इस बहुमत की सरकार के लिए आदर्श बन पाती जितनी की अब है । ध्यान रहे, ये सब फिलहाल फिल्म द्वारा कुछ संकेतों और संवादों के इर्द–गिर्द फिक्स कर दिये जाने को लेकर है, बात बिल्कुल वैसी ही है या नहीं, इस पर आगे–––
इस तरह स्थायित्व का भाव तो है कि जो मौजूदा बहुमत की सरकार को आकर्षित करती है, लेकिन इससे कहीं ज्यादा दूसरा भाव हृदय परिवर्तन का है । इस पूरी फिल्म में हृदय परिवर्तन फिल्म की अन्तर्कथा के रूप में हर थोड़ी दूर जाने के बाद मौजूद है । ऊपरी तौर पर यह एक अन्तर्विरोध के रूप में दिखाई देता है कि एक तरफ तो परिस्थितियों, परिवेश और स्थितियों के बदले जाने के बावजूद स्थायित्व मूल भाव के रूप में बल्कि मूल्य के रूप में मौजूद है तो फिर दूसरी तरफ व्यक्ति/चरित्र के स्तर पर हृदय परिवर्तन कैसे सम्भव है ? लेकिन इसकी प्रक्रिया में उतरते ही बहुत स्पष्ट हो जाता है कि ये हृदय परिवर्तन भी दरअसल उसी स्थायित्व को हासिल करने या बनाये रखने के लिए हैं । दिलचस्प है कि इसमें इतनी अधिक विविधता और बारीकी है कि सब कुछ हमें बेहद स्वाभाविक लगता है और कमोबेश ये लगभग सभी प्रमुख चरित्रों को लेकर है ।
चौधरी बलदेव सिंह का हृदय परिवर्तन हमें बहुत साफ दिखाई देता है । भारतीय होने के प्रमाणों के साथ अपने संस्कारों और उसूलों के प्रति प्रतिबद्ध शख्स का हृदय परिवर्तन मानवीयता की उस छौंक के लगाये जाने से शुरू होती है जहाँ निर्धारित समय पर दूकान बन्द करने के बाद कुछ भी नहीं बेच सकते, लेकिन सिरदर्द होने पर उसी राज को दवाई दे सकते हैं–––सुरक्षा और संस्कार के सींखचों से सिमरन को कभी बाहर नहीं जाने देनेवाला ये पिता अपनी बेटी की भगवत–भक्ति से प्रसन्न और निश्चिन्त होकर उसे महीने–भर के लिए स्विटजरलैंड की ट्रिप के लिए भेज सकता है । पूरी फिल्म में ये हृदय परिवर्तन इस बारीकी से की गयी है कि खुलेपन की तरफ तेजी से बढ़ता दर्शक इस आदर्श भारतीय की जिद के आगे उसके संस्कारों को नजरअन्दाज न कर दे, बाजारवाद और वस्तुओं के उपभोग में ही आनन्द की तलाश करने के फेर में इसे गैर–जरूरी न समझने लगे । ऐसे में जहाँ–जहाँ इसकी आशंका दिखाई देती है, उसके पहले ही हृदय परिवर्तन अनुकूलन पैदा करने के लिए कर दिया जाता है । हाँ, सिमरन की माँ का हृदय परिवर्तन या कहें तो व्यवहार इससे ठीक विपरीत है । सिमरन की माँ और राज के पिता फिल्म के शुरुआती हिस्से में लगभग एक ही ध्रुव पर दिखाई देते हैं कि जो बिन्दास और खुलेपन की जिन्दगी जीने से महरूम रह गये, वो जिन्दगी अपने बच्चों को देंगे ।
‘‘फेल होना और पढ़ाई न करना हमारे खानदान की परम्परा है–––भटिंडा का भागा लंदन में मिलियेन हो गया है लेकिन मेरी जवानी कब आयी और चली गयी, पता न चला–––मैं ये सब इसलिए कर रहा हूँ ताकि तू वो सब कर सके जो मैं नहीं कर सका–––‘राज के पिता’ मुझे भी तो दिखा, क्या लिखा है तूने डायरी में । मुझसे छिपाती है, बेटी के बड़ी हो जाने पर माँ फ्रेंड ज्यादा माँ कम हो जाती है’’- सिमरन की माँ ।
फिल्म के बड़े हिस्से तक सिमरन की माँ उसके साथ वास्तव में एक दोस्त जैसा व्यवहार करती है, उसकी हमराज है लेकिन बात जब परिवार की इज्जत और परम्परा के निर्वाह पर आ जाती है तो ‘मेरे भरोसे की लाज रखना’ जैसे अतिभावनात्मक ट्रीटमेंट की तरफ मुड़ जाती है । ऐसा कहने और व्यवहार करने में एक हद तक पश्चाताप है लेकिन नियति के आगे इसे स्वाभाविक रूप देने की कोशिश भी ।
‘पहले मुझे लगता था औरत और मर्द में कोई अन्तर नहीं होता है । बड़ी होती गयी तो लगा कितना बड़ा झूठ है । औरत को वादा करने का भी हक नहीं है ।’
हृदय परिवर्तन का यह चक्र राज के पिता के मामले में बिल्कुल आखिर में दिखाई देता है । जो राज से बिल्कुल अलग सिमरन को बिना शादी के ले जाने में यकीन रखते हैं, लेकिन राज की इस बात से आगे चलकर सहमत होते हैं कि ऐसा करना ठीक नहीं है । इन सबके बीच सिमरन का सीधे–सीधे कहीं भी हृदय परिवर्तन तो नहीं होता बल्कि इन सबके बीच वो अकेली ऐसी चरित्र है जिसका कि परिवेश और परिस्थितियों के बदलते जाने के अनुरूप ही व्यवहार और सोच के स्तर पर बदलाव आते जाते हैं । हम दर्शकों को ये कहीं ज्यादा स्वाभाविक लगता है, लेकिन गौर करें तो बाकी चरित्रों का हृदय परिवर्तन और सिमरन का स्वाभाविक स्तर पर दिखता बदलाव दरअसल सारे सन्दर्भों को उस एकरेखीय दिशा की ओर ले जाने की कोशिश है जिससे कि स्थायित्व को एक मूल्य के रूप में प्रस्तावित किया जा सके ।
इधर मिथिलेश कुमार त्रिपाठी के बयान और 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए की गयी केम्पेनिंग पर गौर करें तो पूरा जोर स्थितियों में बदलाव से कहीं ज्यादा हृदय परिवर्तन को लेकर है जिसके लिए जाहिर है विज्ञापन की तर्ज पर इमोशनल अपील का सहारा लिया गया है । होने और महसूस करने के बीच की रेखा को पाटने से है । त्रिपाठी जहाँ ये मानते हैं कि युवाओं को ये समझाया जाना बेहद जरूरी है कि कौन–सा सिनेमा उनके लिए बेहतर है और जिससे कि सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों का विकास हो सकेगा तो एक तरह से हृदय परिवर्तन के प्रति यकीन जाहिर कर रहे होते हैं कि जो परिवेश निर्मित है और जिन परिस्थितियों के साथ युवा इन सबसे जुड़ा है, इससे कटकर तेजी से बदलने शुरू हो जाएँगे । फर्क सिर्फ इतना है कि फिल्म में जहाँ सब कुछ भावनात्मक और बहुत हुआ तो परिवार की लाज की दुहाई देकर किया गया है, सरकार ये काम राजनीतिक और ब्रांड पोजिशनिंग के स्तर पर करेगी । इसी क्रम में अगर ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ और ‘मैं देश नहीं मिटने दूँगा’ की पैकेजिंग शामिल कर लें तो नागरिक के बीच से सिरे से उस राजनीतिक तर्क को गायब कर देना है जिसके तहत वो पूरी प्रक्रिया को समझना चाहती है ।
प्रक्रिया का लोप सिनेमा में भी है और बहुमत की इस सरकार में भी, शायद यही कारण है कि यह बीजेपी के लिए आदर्श सिनेमा का नमूना बन पाती है । नम्रता जोशी शाहरुख खान पर स्वतन्त्र रूप से लिखते हुए इस फिल्म के सन्दर्भ में यह बात विशेष रूप से रेखांकित करती हैं कि यह फिल्म जाति और दूसरे उन सर्किट के साथ छेड़छाड़ नहीं करती जो कि आमतौर पर प्रेम कहानियों में हुआ करते हैंµतो इसका एक आशय यह भी है कि सिनेमा उस प्रक्रिया का सिरे से लोप कर देती है जहाँ परस्पर विरोधी तत्त्वों के टकराने और उनके बीच भारतीय परम्परा एवं संस्कार के फॉर्मूले को फिट करने में भारी दिक्कत होती । यही पर आकर ये फिल्म कथानक के लगातार धाराप्रवाह प्रसार के बावजूद सामाजिक संदर्भों के स्तर पर न केवल सपाट लगने लग जाती है बल्कि उस सुविधाजनक परिवेश की निर्मिति की तरफ बढ़ती जान पड़ती है जिनसे निम्न–मध्यवर्ग और काफी हद तक मध्यवर्ग को टकराए बिना प्रेम की तरफ बढ़ना सम्भव ही नहीं है । इनमें जाति, सामाजिक अन्तर्विरोधों के साथ–साथ साधन के स्तर की जद्दोजहद भी शामिल है । ये फिल्म लगभग इन सबसे मुक्त है बल्कि जिस तरह से अन्त में चैधरी बलदेव सिंह का हृदय परिवर्तन होता है, खलनायक से भी मुक्त फिल्म बन जाती है । स्वाभाविक भी है कि जब पूरा जोर सारे सन्दर्भों को एकरेखीय करने की हो तो फिर खलनायक के होने की सम्भावना अपने आप ही खत्म हो जाती है–––इस खलनायक को दूसरे हल्के संस्करण–विरोधी के रूप में देखें तो भी शून्य की ही स्थिति बनेगी ।
यहाँ तक तो एक स्थिति साफ बनती दिखाई देती है कि प्रेम कहानी के भीतर भी पारिवारिक ढाँचे को बचाए जाने, विवाह संस्था में गहरा यकीन रखने और भौगोलिक स्तर पर हिन्दुस्तान से दूर रहने के बावजूद, परिस्थितियों के बदलते जाने पर भी नास्टेल्जिया के तहत ही सही मिट्टी से गहरा लगाव रखने सम्बन्धी जो सन्दर्भ इस फिल्म में शामिल किए गये वो हमारी मौजूदा बहुमत सरकार की सांस्कृतिक राष्ट्रवादी राजनीति के एजेंडे के बेहद अनुकूल है–––लेकिन इसके अलावा जो दो और कारण हैं, इसे संक्षेप में ही सही, देखा जाना चाहिए । एक तो राज मल्होत्रा जैसे एक ऐसे चरित्र का होना जिसकी मौजूदगी और संवाद राजनीति के इस रूप के प्रति लोगों को बिना मोरेल पुलिसिंग के भावनात्मक स्तर पर जुड़ने के लिए प्रेरित करती जान पड़ती है । ये अलग बात है कि इसी से प्रेरित होकर जब दूसरे के लिए मोरेल पुलिसिंग का काम शुरू होता है तो वो पितृसत्ता की उसी जकड़बन्दी में जाकर छटपटाने लगती है, जैसा कि दक्षिणपन्थी राजनीति के व्यावहारिक प्रयोग में बहुत ही स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं । हमने पहले भी कहा कि इस फिल्म में राज एक ऐसा चरित्र है जो सेल्फ टेªण्ड है जिसे अलग से बताने की जरूरत नहीं पड़ती कि स्विटरजरलैंड की जमीन पर अकेली लड़की के साथ रात गुजारने पर क्या नहीं करनी चाहिए ?
‘मैं एक हिन्दुस्तानी हूँ और जानता हूँ कि एक हिन्दुस्तानी लड़की की इज्जत क्या होती है ।’– राज
पूरी फिल्म में प्रेम के दौरान सेक्स के आस–पास के दृश्य कहीं नहीं हैं और जहाँ इसकी सम्भावना बनती दिखाई भी देती है तो उसे या तो गर्दन के चूम लेने को ही अन्तिम रूप दे दिया जाता है या फिर इसकी सम्भावना को एक हिन्दुस्तानी लड़की का शादी के पहले तक, हिन्दुस्तानी लड़के द्वारा रक्षा करने के घोषित कर्तव्य के रूप में परिवर्तित कर दिया जाता है । ये वे मूल्य हैं जो पूरी फिल्म को एक ही साथ पारिवारिक और राज जैसे चरित्र को गार्हस्थिक भारतीय के रूप में स्थापित करती है । यह वह मासूम चरित्र है जो जीवन में अफेयर चाहे जितनी बार कर ले, प्यार अपनी इच्छा से करे, लेकिन बाकी सब कुछ अभिभावक की सहमति और विधान के बाहर जाकर नहीं करेगा । हाँ ये जरूर है कि इसी बीच जब आप फिल्म के इस गाने ‘‘जरा सा झूम लूँ मैं, न रे बाबा न, आ तुझे चूम लूं मैं’’ की पंक्तियों पर गौर करते हैं तो लगता है कि स्वाभाविक इच्छा और संस्कार के बीच एक अजीब सी रस्साकशी लगातार चल रही है और इन सबके बीच सिमरन ‘‘मैं चली बनके हवा’’ गाते हुए एक ऐसी लड़की हो जाती है जिसके लिए ‘‘मेंहदी लगा के रखना, डोली सजा के रखना, लेने तूझे ओ गोरी, आएँगे तेरा सजना’’ गाना ज्यादती है । तब आप इस सिरे से भी सोच सकते हैं कि क्या एक महीने के लिए स्विटरजरलैंड की सिमरन की अवधि बढ़ा दी जाती तो वो हाइवे (2014) की वीरा हो जाती । वो वीरा जिसकी हाइवे पर वक्त बिताने की इच्छा कुछ और सेकंड बिताने की है, मिनट और घंटे की भी नहीं–––सिमरन के लिए महीने की अवधि बढ़ाए जाने की सद्इच्छा और वीरा की चन्द सेकंड हाइवे की हवा के बीच बिताने की इच्छा क्या दो अलग–अलग समयगत परिवेश का सच है या फिर उस दृष्टिकोण का जिसके अठारह साल बीत जाने के बावजूद बहुमत की सरकार वहीं से आदर्श सिनेमा के तत्त्व खोजती है, 2014 की इस फिल्म से नहीं ?
देने को तो यह भी दलील दी जा सकती है कि ऐसा होने से प्रेम का बेहद ही ‘‘लिमिटेड वर्जन’’ और वो भी सम्पादित रूप हमारे सामने उभरकर आता है लेकिन यही तो वो तत्त्व है जो इनके लिए इस फिल्म को प्रेम कहानी के होने के बावजूद परिवार के इर्द–गिर्द, उसके सदस्यों के बीच का बनाती है–––आप चाहें तो इसे प्रेम में सामाजिकता की स्थापना कह सकते हैं जबकि इस सामाजिकता के बीच ही ‘‘बन के हवा’’ चलने की सिमरन की चाहत गायब हो जाती है । दरअसल, प्रेम के इस रूप को फिल्म इतनी जूम इन करके फैलाती है कि उसके भीतर बाकी की चीजें खासकर जो सिमरन के सिरे से मैग्निफाई करके देखे जाने की जरूरत है, धुँधली या गायब हो जाती हैं जबकि वीरा उसे अठारह साल बाद शिद्दत से सहेजने लग जाती है । ‘बन के हवा’ की आशंका का शमन एक और बड़ा कारण है जो फिल्मों की अम्बार के बीच मिथिलेश कुमार त्रिपाठी को उदाहरण के रूप में याद रह जाता है ।
एक तो यह स्थिति है जहाँ राज और उसके बहाने घूमनेवाली पूरी कहानी बहुमत की सरकार की सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के घोषणा–पत्र के रूप में काम करती जान पड़ती है, लेकिन दूसरी स्थिति इस फिल्म का वह परिवेश और स्वयं राज मल्होत्रा का वो ‘‘ब्रांड कॉन्शस’’ अन्दाज है जो कि सरकार की आर्थिक नीति के लिए सांकेतिक रूप में ही सही आदर्श बनकर आते हैं । सांस्कृतिक अध्ययन पद्धति के इस तर्क में न भी जाएँ कि संस्कृति कोई स्थिर या जड़ चीज नहीं है बल्कि जीवन प्रवाह का हिस्सा है जिसका निर्धारण जीवन सापेक्ष है तो भी ये सवाल बचा रह जाता है कि इंग्लैंड और स्विटजरलैंड में हिन्दुस्तानी दिल लेकर घूमते रहने के बावजूद क्या ये सम्भव है कि हम इसी इरादे के साथ स्वदेशी वस्तुओं और संसाधनों के बीच घूमें ? और तब इस सिरे से सोचने पर ये फिल्म उस भूमण्डलीकृत उदारवादी अर्थव्यवस्था का हिन्दी सिनेमा का वो प्रस्थान बिन्दु बनकर आता है जिसमें ग्लोबलाइजेशन और ग्लोकलाइजेशन की प्रक्रिया साथ–साथ चलती है । फिल्म के पहले हिस्से में जो इंग्लैंड और स्विटजरलैंड है और उसके बीच मल्होत्रा और चैधरी का प्रवासी भारतीय परिवार है, हर चार–पाँच मिनट में प्रिंग्ल्स, टैंग और ओडियन जैसे ग्लोबल ब्रांड से हम दर्शकों को परिचित कराता है जिसे देश की आर्थिक नीति के तहत भारतीय बाजारों में बहुत जल्द ही फैल जाना है । इन सब ब्रांडों और उत्पादों के लिए बहुत ही स्वाभाविक तरीके से स्पेस तैयार किया जाता है और कहीं से नहीं लगता कि ये अब की फिल्मों की तरह ‘इवेंट’ या ‘वेवरेज’ पार्टनर की तर्ज पर कुछ किया गया हो । ये स्वाभाविकता इस हद तक है कि एक आदर्श हिन्दुस्तानी अर्थात् राज, हिन्दुस्तानी लड़की सिमरन के आगे भी जब विदेशी शराब पीता है तो उसके पीछे शौक न होकर स्विटजरलैंड की वो हड्डी गला देने वाली ठंड है जिसके आगे इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है । ये दरअसल, उस आर्थिक नीति के सांकेतिक चिह्न हैं जिन्हें शामिल किये जाने से नैतिक आग्रह को पीछे धकेलकर विवशता और व्यावहारिकता की चादर फैलाई जाती है–––और ये फिल्म के बड़े हिस्से में शामिल हैं । फिल्म समीक्षक शुभ्रा गुप्ता जब ‘दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे’ को एक ऐसी फिल्म के रूप में परिभाषित करती हैं जिसने हिन्दी सिनेमा के लैंडस्केप को बदलने का काम कियाय इंग्लैंड, स्विटजरलैंड को शामिल किया जाना आगे चलकर ट्रेंड ही बन गया तो ये उस ग्लोबल मार्केट की वर्कशॉप में सिनेमा दर्शकों को शामिल करने जैसा है जहाँ वो इन्हें विदेशी या पाश्चात्य का हिस्सा होकर नहीं बल्कि आगामी जीवन–शैली का हिस्सा मानकर देखें–समझें ।
अनुपमा चोपड़ा ने ‘डीडीएलजे’ पर लिखी अपनी किताब ‘दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे’ (2002) में इस बात की विस्तार से चर्चा की है कि ये फिल्म किस तरह से नयी–नयी उदारवादी अर्थव्यवस्था को अपनाने वाले भारत जैसे देश के लिए चारा मुहैया कराती है । एक ही साथ महँगी गाड़ियों, मैन्शन, यूरोपीय लोकेशन की कॉकटेल बनाकर दर्शकों के आगे पेश करती है और ऐसा होने से लगता है कि हमारा हिन्दी सिनेमा काफी आगे निकल चुका है । दिलचस्प है कि फिल्म में जो भव्यता दिखाई गयी वो यूरोप का हिस्सा होते हुए भी भारतीय सिनेमा की समृद्धि के रूप में रेखांकित किया गया । लेकिन अनुपमा जब इसी भव्यता के बीच इस फिल्म की सामाजिक संरचना या रेशे को देखती हैं तो एक दूसरा ही परिदृश्य दिखाई देता है जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे ।
भूमण्डलीकरण और उदारवादी अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ते इस देश के लिए इस फिल्म की इंटरवल के बाद का हिस्सा कम दिलचस्प नहीं है । इस लिहाज से गौर किया जाए तो इसके बाद की पूरी फिल्म ‘ग्लोकलाइजेशन’ की उस पूरी ट्रीटमेंट की तरफ आगे बढ़ती और उसके लिए नमूना पेश करती नजर आती है जैसा कि टेलीविजन के सन्दर्भ में एमटीवी को लेकर हुआ था । इस दशक में एमटीवी जितनी तेजी से दुनिया के दूसरे मुल्क में पैर पसार रहा था, भारत में आकर स्ट्रैटजी इस स्तर पर विफल हो जाती है कि वही ग्लोबल फॉर्मेट काम नहीं करता जिस तरह से बाकी देशों में कर रहा था । नतीजन, चैनल को सीधे–सीधे ग्लोबलाइजेशन की प्रक्रिया में शामिल होने के पहले लोकल और तब ग्लोकल होना पड़ा और इस काम में साइबर ब्रोचा जैसे वीजे ने साथ दिया । मेल्लिसा बुचर ने अपनी किताब ‘ट्रांसनेशनल टेलीविजन, कल्चरल आइडेंटिटी एंड चेंज, व्हेन स्टार केम टू इंडिया(2003)’ में इस पूरी प्रक्रिया की विस्तार से चर्चा की है । ग्लोकलाइजेशन की इस पूरी प्रक्रिया में स्थानीयता, तथाकथित भारतीय संस्कृति का व्यावसायिक सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए जमकर ऑल्टरेशन हुआ लेकिन सिनेमा और टेलीविजन के बीच वही धीरे–धीरे भारतीय संस्कृति के रूप में स्थापित हो गया । करवा चैथ और शादी के वक्त शेरवानी बहुत ही मोटे उदाहरण हैं जिसके देशव्यापी प्रसार में इस फिल्म की भूमिका बतायी जाती है ।
इस छोर से गौर करें तो पूरी फिल्म संसाधनों के मामले में एक बायनरी रचती है और दोनों ही जगह अपने हिस्से (भारतीयता) को श्रेष्ठताबोध की ओर ले जाती है । फिल्म में जहाँ–जहाँ इंग्लैंड और स्विटजरलैंड है, उसकी भव्यता है वहाँ इस भव्यता को बेमन का और लगभग तुच्छ बताकर चिट्ठियों में पंजाब की मिट्टी की खूशबू स्थापित की जाती है । इस क्रम में इन देशों की सम्भावना और हिन्दुस्तान से विस्थापित होने के कारणों को एक साथ करके नहीं देखा जाता । फिल्म की आखिरी सीन (चलती हुई ट्रेन, हाथ बढ़ाता राज और बेतहाशा दौड़ती सिमरन और आखिर में दोनों का साथ हो जाना) रोमांटिक तो लगती है जिसका एक सिरा चेन्नई एक्सप्रेस (2013) तक जाता है लेकिन ट्रेन की वो रूट किस हवाई रूट में तिरोहित हो जाती है, इस पर कम ही ध्यान जाता है ।
इसके बदले भावनात्मकता, संस्कार और उन मूल्यों को मैग्निफाई किया जाता है जिससे दर्शक उसी चकाचैंध में पड़ने के बजाय, हताश होने के बजाय गौरवान्वित हो जबकि इंटरवल के बाद पूरा मामला पंजाब के सरसों के खेत, हवेली और उन्हीं संसाधनों पर आ जाता है जिसका इसके पहले आधार नहीं रहा । हर हाल में श्रेष्ठ होने का बोध भारतीय दर्शकों को एक खास किस्म की फैंटेसी और उसी पुनर्उत्थानवादी नजरिए की ओर ले जाती है जहाँ तकनीक, संसाधनों का विकास बहुत मायने नहीं रखता । लेकिन देखा जाए तो ये सब ग्लोबलाइजेशन और उदारवादी आर्थिक व्यवस्था की प्रक्रिया का ही हिस्सा है लेकिन इसे भारतीय संस्कृति के रूप में प्रोजेक्ट किया गया और इन सबके बीच सांस्कृतिक स्तर की स्वाभाविकता कैसे भंग हुई, इस पर बात नहीं की गयी । व्यावसायिक स्तर पर ये सिनेमा उसी ग्लोबल सर्किट का नमूना बना जिस दिशा में उदारवादी व्यवस्था जाने कहती रही है लेकिन सांस्कृतिक स्तर पर भारतीयता का जामा पहनाकर यहाँ के भी दर्शकों को बाँधे रखने की कोशिश व्यापक अर्थ में सिनेमा के अर्थशास्त्र को व्यापक बनाने की जद्दोजहद थी जिसे लेकर आगे सरकार भी सक्रिय हुई । ऐसे में इसे ‘दो लन्दन का सिनेमा’ या फिर ‘दो पंजाब का सिनेमा’ कहना ज्यादा सही होगा जहाँ एक तो अपने स्वाभाविक रूप में है और एक ये फिल्म क्रमश% गढ़ने की कोशिश करती है । यहीं पर आकर अनुपमा चोपड़ा की यह बात सटीक लगती है कि फिल्म जिस यूरोप के प्रति क्रिटिकल होते हुए भी उसकी तरह होना चाहती है लेकिन शादी के पहले ‘वर्जिनिटी’ और परिवार की इज्जत की खातिर’ जैसे सवालों के साथ उतनी ही भारतीय होने का दावा करने लग जाती है जितने से कि यूरोप के चिह्न बिल्कुल गायब हो जाएँ । इस लिहाज से इस फिल्म में कम विडम्बना नहीं है । विडम्बना की इस स्थिति पर हमने सिमरन और उसकी माँ के सिरे से पहले पर्याप्त चर्चा की है । प्रेम के खिलाफ कार्रवाई के नमूने देखते ही आये हैं ।
मजेदार बात यह है कि ये फिल्म अपने भीतर भरपूर विडम्बना और अन्तर्विरोधों को समेटे हुए भी ‘प्रेम को अन्तिम सत्य के रूप में प्रस्तावित करती हुई’ इतनी सपाट समझ प्रस्तुत करती है कि उसके आगे परस्पर विरोधी स्थलों की उबड़–खाबड़ जमीन समतल दिखाई पड़ने लगती है–––और इसी जमीन पर भावनात्मकता से कहीं ज्यादा व्यावसायिकता के प्रोजेक्शन का स्वाभाविक दिखता स्पेस बनता चला जाता है–––मेटाफर और रिटॉरिक शैली में चलने और बढ़ने वाली बहुमत की सरकार को असल में ये सारी चीजें ज्यादा आकर्षित करती हैं । यह वह फॉर्मेट है जिसके भीतर बाजार, वैश्विक शक्तियों और संसाधन के स्तर की समृद्धि को विकास के प्रति संवेदनशीलता का पर्याय बना दिये जाने पर भी मिलावट जैसा कुछ आसानी से जान नहीं पड़ता । दूसरा कि इस फॉर्मेट के भीतर भावनाओं के पण्य वस्तु के रूप में परिवर्तित किये जाने की अपार सम्भावनाएँ विकसित होती हैं जिसकी चर्चा शोमा मुंशी ने अपनी किताब ‘प्राइम टाइम सोप ओपेरा ऑन इंडियन टेलीविजन (2010)’ में विस्तार से की है । वो जब भारतीय टेलीविजन सीरियलों पर सिनेमा के प्रभाव की चर्चा कर रही होती हैं तो असल में उसी फॉर्मेट की तरफ इशारा करती हैं जहाँ से कि प्रवासी भारतीयों का दर्शक वर्ग (जिसका सम्बन्ध राजस्व के विस्तार से है) खड़ी करने और भारतीय संस्कृति की लिहाफ में वो सब कुछ शामिल करने से जो धीरे–धीरे वाया टेलीविजन लोगों के जीवन में शामिल हो सके । बाकी इस फिल्म का बहुमत की सरकार के लिए आदर्श होने का सबसे बड़ा कारण इधर इसकी बहुमत में होना और उधर स्वयं इस फिल्म का सबसे अधिक पॉपुलर (जो संख्या बल पैदा करता है) तो है ही और बात चाहे मनोरंजन उद्योग की हो या राजनीति उद्योग की, पॉपुलरिटी आपस में मिलकर एक आदर्श स्थिति कायम करने का दावा तो करती ही है ।