सिनेमा
मानवीयता की विजय की गाथा
- धीरंजन मालवे
(मुम्बई मेरी जान : निशिकान्त कामत)
भारत में सिनेमा की विधा के प्रादुर्भाव के सौ से अधिक वर्ष अब बीत चुके हैं मगर ऐसा लगता नहीं है कि इस विधा की समस्त सम्भावनाओं का सम्पूर्ण दोहन हुआ हो । अगर केवल संख्या की दृष्टि से सोचें तो भारत फिल्म निर्माण के क्षेत्र में अग्रणी देशों में आता है । लेकिन फिल्मों के कथ्य और शिल्प की गुणवत्ता का जहाँ तक सवाल है, अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है । इसका बड़ा कारण यह है कि भारतीय फिल्म निर्माता और निर्देशक एक वित्तीय असुरक्षा के माहौल में काम करते रहे हैं जो उन्हें लीक से हटकर खतरा उठाने से रोकता रहा है । नायक नायिका के रोमांस, उसमें आने वाली अड़चनें और अन्त में उनका मिलनय यह एक फॉर्मूले के रूप में इतना सध गया है कि फिल्म कलाकारों की पीढ़ियाँ बदल जाती हैं, मगर फॉर्मूला वहीं–का–वहीं रहता है । थोड़ी–बहुत अगर फेर–बदल होती है तो इस फॉर्मूले में डाले जाने वाले मसाले में, जैसे नाच, गाने, कॉमेडी, खलनायक, मारपीट, विदेशी दृश्यावलियाँ आदि । अलग–अलग फिल्मों में इनकी मात्रा घटती–बढ़ती रहती है मगर ले–देकर फॉर्मूला अपनी जगह पर कायम रहता है । यह फॉर्मूला अब एक संस्कृति का रूप ले चुका है और अनेक लोग गर्व से इसे भारतीय फिल्म निर्माण की अपनी विशिष्ट शैली का नाम देते हैं । नाम चाहे जो भी दें मगर प्रयोगों के मामले में हम कई छोटे देशों से भी काफी पीछे हैं । फिल्म निर्माण की इस प्रकार की पृष्ठभूमि में जब लीक से हटकर बनी कोई फिल्म सामने आती है तो एक विशेष प्रकार की प्रसन्नता और गर्व का अनुभव होता है । ऐसी फिल्में बीच–बीच में आती तो जरूर हैं मगर उन्हें मूल नियम के अपवाद के रूप में ही देखा जा सकता है ।
ऐसा एक अत्यन्त सुखद अपवाद ‘मुम्बई मेरी जान’ के रूप में आज से छ साल पहले सन् 2008 में आया था । फिल्म की यह खासियत है कि यह इतने सालों के बाद भी स्मृति पटल पर अपनी पूरी शिद्दत के साथ अंकित है । मुम्बई के बारे में ऐसा अक्सर कहा और सुना जाता है कि इस नगर में एक निराली जीवन्तता और जिजीविषा है । इस जीवन्तता और जिजीविषा के कारण यह नगर बड़े–से–बड़े आघात को भी झेल लेता है । सांघातिक आघात भी इसके मनोबल, उत्साह, संघर्ष क्षमता और आत्मिक शक्ति को तोड़ नहीं पाते । हर आघात के बाद मुम्बई मानो अपनी धूल को झाड़कर फिर ऐसे उठ खड़ी होती है मानो कुछ हुआ ही नहीं हो । सन् 1993, 2003 और 2006 के बाद 26 नवम्बर 2008 का नृशंस नरसंहार इसके गवाह हैं ।
मगर ‘मुम्बई’ किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं है । इसका अलग से अपना कोई स्वभाव या चरित्र नहीं है । इसकी चारित्रिक विशेषता इसके नगरवासियों से ही बनती है । मुम्बई के समस्त नगरवासियों का सामूहिक चरित्र ही मुम्बई के चरित्र का निर्माण करते हैं । इस नगर की जिस जीवन्तता, जिजीविषा और आत्मबल की चर्चा होती है वह इसके वासियों की सामूहिक शक्ति की ही अभिव्यक्ति है ।
तो क्या हम यह मान लें कि मुम्बईवासी अतिमानव हैं । क्या आतंकवादी हमले उनमें भय और आतंक का सृजन नहीं करते । क्या इन हमलों में मारे गये अपने मित्रों और रिश्तेदारों से बिछुड़ने का दु:ख उन्हें सालता नहीं । क्या उनका मन गुस्से से भर नहीं जाता । क्या ये घटनाएँ उनके मन में नफरत के बीज नहीं बोतीं । अगर यह सब कुछ होता है तो फिर इन सब से वे उबर कैसे जाते हैं ? वे अपना सन्तुलन, संयम और दैनन्दिन कार्य–व्यापार की गति और लय को पुन: कैसे प्राप्त कर लेते हैं ? उस गति और लय में एक हिंसक व्यवधान के बाद कुछ–न–कुछ मानसिक प्रक्रिया से उन्हें भी गुजरना पड़ता ही होगा । उस प्रक्रिया से गुजरकर ही वे अपनी पुरानी गति और लय को फिर से हासिल कर पाते होंगे ।
‘मुम्बई मेरी जान’ इन्हीं यक्ष प्रश्नों के उत्तर की लताश करती है । यह फिल्म 11 जुलाई, 2006 के दिन मुम्बई की लोकल ट्रेनों में हुए सात बम धमाकों की पृष्ठभूमि में है । ये धमाके मांतूगा, माहिम, खार, बान्द्रा, जोगेश्वरी, बोरीवली और भयांडर लोकल स्टेशनों पर हुए थे । मुम्बई मानो इन धमाकों से दहल–सी गयी थी । इन आतंकवादी हमलों में 209 लोग मारे गये थे और सात सौ से ऊपर लोग घायल हुए थे । मानसिक रूप से क्षत–विक्षत लोगों का हिसाब रखने की परम्परा या तकनीक वैसे भी अभी तक विकसित नहीं हुई है ।
निर्देशक अपने यक्ष प्रश्नों के उत्तर छह पात्रों के माध्यम से ढूँढ़ता है । ये पात्र वैसे तो काल्पनिक हैं, मगर इनके चरित्र मुम्बई नगर की आम जनता की अलग–अलग मानसिकताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं । इन सभी पात्रों की सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि अलग–अलग है और जीवन को देखने और जीने के नजरिए भी अलग–अलग हैं । इनमें अगर साफ कुछ है तो वह है इनका मुम्बई बम कांड के आघात से प्रभावित होना और उस प्रभाव की अजगरी कुंडली से स्वयं को धीरे–धीरे मुक्त करना । आघात की वजह से सभी पात्र अपने–अपने ढंग से प्रताड़ित हैं और उनकी प्रतिक्रियाएँ भी उनकी अपनी पृष्ठभूमि की वास्तविकताओं से संचालित हैं । मगर हर पात्र के अन्दर आघात से उबरने को लेकर एक जिजीविषा और आत्मिक शक्ति है । शायद अपने इन्हीं गुणों के कारण वे उबरने में सफल भी हो जाते हैं । एक प्रकार से ये पात्र सम्पूर्ण मुम्बई की मानसिकता की नुमाइन्दगी करते हैं और इनके माध्यम से एक महानगर चरित्र की परत–दर–परत जैसे जीवन्त हो उठती है । इन पात्रों में एक है थामस । थामस रोजी–रोटी की तलाश में तमिलनाडु से मुम्बई आया है और साइकिल पर चाय, कॉफी बेचकर अपनी और परिवार की गुजर–बसर करता है । अपनी तरह के लाखों मुम्बई निवासियों की तरह उसके मन में भी अभिजात जीवन–शैली को लेकर लालसाएँ हैं मगर साधन हीनता आड़े आती है । इन्हीं लालसाओं की वजह से जब वह परिवार समेत एक मॉल की अत्यन्त महँगी इत्र और सेंट की दूकान से अपमानित कर बाहर निकाल दिया जाता है तो उसका मन आक्रोश से भर उठता है । वह जैसे मॉल के हर दुकानदार और ग्राहक को अपना दुश्मन मान बैठता है । उसका गुस्सा वर्ग–संघर्ष का अति लघु रूप है और अपनी अभिव्यक्ति के अवसर ढूँढ़ रहा होता है । उसे अवसर तब मिलता है जब 2006 के बम काण्ड के तुरन्त बाद मुम्बई के निवासी दहशत में होते हैं । इसी दहशत को वह अपने प्रतिशोध का हथियार बनाता है । वह एक के बाद दूसरे मॉल में बम पाये जान की झूठी अफवाहें फैलाता रहता है और इसके बाद होने वाली अफरा–तफरी का आनन्द लेकर अपने प्रतिशोध की ज्वाला को शान्त करने का प्रयत्न करता है । मगर उसे अपनी भूल का अहसास तब होता है जब मॉल में आया एक बुजुर्ग उसकी अफवाह से हुई भागमभाग के दौरान दिल के दौरे का शिकार बन जाता है । वह उस बुजुर्ग के अस्पताल में भरती होने के बाद स्वयं को अपराधी महसूस करते लगता है और उसकी प्रतिशोध की मानसिकता अब मानवीयता में बदलने लगती है । वह बुजुर्ग के स्वास्थ्य को लेकर चिन्तित रहता है और उसे राहत तब मिलती है जब बुजुर्ग व्यक्ति स्वस्थ होकर अस्पताल से घर को रवाना होता है । हम थामस को बुजुर्ग व्यक्ति के लिए टैक्सी लाते और विदा होते समय उसे गुलाब का फूल देते हुए देखते हैं । यह गुलाब उसके हृदय में फिर से खिला मानवीयता का प्रसून ही तो है ।
थामस के बाद दूसरा पात्र है सुरेश जो एक कम्प्यूटर इंजीनियर है और कम्प्यूटर एसेम्बल करके बाज“सा के बेचने के धन्धे में है । दुर्योग ऐसा है कि उसका धन्धा चल नहीं पा रहा है और वह इस वजह से गहरे नैराश्य के दौर से गुजर रहा है । उसका लालन–पालन जिस माहौल में हुआ है उसमें उसके मन में मुसलमानों के प्रति एक दुर्भावना घर कर गयी है और अपनी हताशा का प्रतिकार करने के लिए वह मुसलमानों को भला–बुरा कहता रहता है । एक स्थानीय चाय की दूकान उसका अड्डा है । इस अड्डे पर वह अपने दोस्तों के बीच जब तब मुसलमानों के प्रति अपनी भड़ास निकालता रहता है । करेले के ऊपर नीम उस समय चढ़ती है जब उसे चाय की दूकान के अपने अड्डे पर टेलीविजन से बम के धमाकों की खबर मिलती है । फिर तो वह हर मुसलमान को ही आतंकवादी समझने लगता है । एक सीधे–सादे मुस्लिम युवक यूसुफ को तो वह बम विस्फोट से जुडे़ आतंकवादी गिरोह से जुड़ा हुआ ही मान बैठता है, सिर्फ इसलिए कि यूसुफ बम विस्फोट के बाद अचानक ही दिखाई देना बन्द कर देता है । यह रहस्य तो बहुत बाद में खुलता है कि यूसूफ उन दिनों सार्इं बाबा के दर्शन के लिए गया हुआ था । सुरेश को उसके पूर्वाग्रह से मुक्त करने में पुलिस इंस्पेक्टर तुकाराम पाटिल अत्यन्त सकारात्मक भूमिका निभाता है ।
तुकाराम पाटिल मूल रूप से एक अल्पवित्त ग्रामीण परिवार से आया हुआ है और उसके पिता के लिए यह बहुत बड़ी बात होती है कि तुकाराम को पुलिस की नौकरी मिल गयी है । पुलिस में काम करते–करते तुकाराम को एक अरसा हो चुका है और वह अब रिटायर होने वाला है । पुलिस की नौकरी ने धीरे–धीरे उसे पूरी तरह से भ्रष्ट बना दिया है और वह अपनी अवैध उगाही में पूरी तरह से लिप्त रहता है । मगर भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे होने के बावजूद उसके अन्दर की मानवता मरती नहीं । वह स्थितियों और घटनाओं का आकलन करते समय अपने सन्तुलित और निष्पक्ष दृष्टिकोण को हमेशा ही बनाये रखता है, अत्यन्त उत्तेजक स्थितियों में भी मुम्बई में हुए बम हादसों के बाद उसकी नौकरी–जन्म समस्याएँ कई गुणा बढ़ जाती हैं । शान्ति व्यवस्था को बनाये रखने के लिए उसे हमेशा भागते रहना पड़ता है । मगर उसके व्यक्तित्व की गम्भीरता के बीच एक मसखरापन ही कठिन–से–कठिन स्थितियों में भी उसके लिए सम्बल का काम करता है । संयम का दामन उससे छूटता नहीं । तुकाराम ही सुरेश को व्यक्तियों और स्थितियों को वस्तुपरक दृष्टि से देखने का पाठ पढ़ाता है और प्रेरित करता है । तुकाराम के साहचर्य में सुरेश के मस्तिष्क में जमा पूर्वाग्रह का कीचड़ धुल जाता है । यूसुफ को अपना दोस्त बना लेता है ।
तुकाराम का मतलब है सुनील कदम । सुनील नौकरी में नया–नया आया है और पुलिस विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार और अक्षमता उसे निरन्तर बेचैन करते रहते हैं । तुकाराम का भ्रष्ट आचरण उसे असह्य पीड़ा देता है । मगर वह स्वयं भी उसी विशाल पुलिस तन्त्र का हिस्सा है और इस तन्त्र को स्वच्छ और सक्षम बना पाने में स्वयं को असमर्थ पाता है । बम विस्फोटों के बाद की स्थितियाँ उसके पारिवारिक जीवन को भी बुरे तरीके से प्रभावित करती हैं । पुलिस कर्मियों की गतिविधियों में वृद्धि हो जाने के कारण उसे अपनी नयी–नवेली पत्नी के साथ हनीमून पर जाने का कार्यक्रम टालना पड़ता है । सुनील तुकाराम के साथ ड्यूटी करते हुए उसके भ्रष्ट व्यक्तित्व के भीतर छिपी मानवीय भावनाओं से भी अवगत होता है और तुकाराम के प्रति अपनी राय बदलने को बाध्य हो जाता है ।
फिल्म का एक अन्य अहम किरदार निखिल अग्रवाल है । निखिल किसी बड़ी कम्पनी में बड़े पद पर है और आर्थिक रूप से समृद्ध है । साथ–साथ वह राष्ट्रवादी और पर्यावरण प्रेमी है । अपनी राष्ट्रवादी भावनाओं के कारण वह विदेशों में जा बसे अपने दूसरे मित्रों का अनुसरण न करते हुए भारत में ही रहकर देश की सेवा करने का पक्षधर है । उसके मन में पर्यावरण को लेकर भी चिन्ता रहती है । इस वजह से वह घर से दफ्तर टैक्सी या कार में जाने की बजाय लोकल ट्रेन से सफर करता है । हादसे के दिन वह ट्रेन पकड़ने के लिए स्टेशन पर जब पहुँचता है तो अपने एक दोस्त के दबाव में आकर प्रथम श्रेणी के स्थान पर दूसरी श्रेणी में यात्रा करने का निर्णय लेता है । विधि का विधान कुछ ऐसा होता है कि प्रथम श्रेणी का डब्बा बम विस्फोट का शिकार बन जाता है और नियति मानो निखिल के लिए रक्षा कवच बन जाती है । मगर यह हादसा और हादसे से इस प्रकार चामत्कारिक रूप से बच जाना निखिल को अन्दर से झकझोर देता है । वह तनाव जन्य मानसिक व्याधि से ग्रस्त हो जाता है । रेल के सफर को लेकर उसके मन में आतंक भर जाता है । वह अब अपना पर्यावरण प्रेम भूल चुका है और टैक्सी या कार से चलता है । उसका राष्ट्रपे्रेम भी शिथिल पड़ चुका है और वह अब विदेश में जाकर बसने का मन बना चुका है । तभी एक दिन उसे अपनी गर्भवती पत्नी के पास अस्पताल में तुरन्त पहुँचने की जरूरत से रू–ब–रू होना पड़ता है । टैक्सी वाला भीड़–भाड़ की दुहाई देते हुए शीघ्र पहुँचाने से साफ मना कर देता है और लोकल ट्रेन से सफर करने की सलाह देता है । इस आकस्मिक ज“रूरत के कारण निखिल लोकल टेªन का रुख करता है और इस क्रम में वह अपने अन्दर घर कर चुके आतंक को निकाल फेंकने में भी सक्षम हो जाता है । उसकी जि“न्दगी भी अपनी पुरानी लय को पा जाती है ।
आखिरी महत्त्वपूर्ण किरदार रूपाली जोशी है जो एक टेलीविजन समाचार चैनल में पत्रकार है । अपने इस पेशे की ज“रूरतों के कारण वह ऐसे हादसों को पहले भी कवर कर चुकी है । उसके लिए ये हादसे अपने चैनल की रोजमर्रे की खुराक से अधिक अहमियत नहीं रखते । अपने चैनल के लिए सामग्री जुटाने के सिलसिले में सन्तप्त परिवारों के साथ इंटरव्यू करते हुए संवेदना शून्य होकर सवाल करना अब उसकी आदत बन चुकी है । मगर इस बार स्थिति अलग हटकर है । धमाकों की खबर मिलने के बाद वह घटना स्थल पर रिपोर्टिंग के लिए पूर्ववत ही पहुँचती है । मगर जब उसे ज्ञात होता है कि मृतकों में उसका होने वाला पति भी शामिल है तो उस पर जैसे आसमान टूट पड़ता है । वह चेतना शून्य–सी हो जाती है । अब उसका सामना अपने पेशे के उसी अमानवीय पक्ष से होता है जिसका वह अब तक हिस्सा बनती आयी थी । चैनल के संवेदना शून्य कर्ता–धर्ता रूपाली के शोक और पीड़ा को चैनल की खुराक बनाने से नहीं चूकते और ‘रूपाली बनी रूदाली’ नामक कार्यक्रम का निर्माण करते हैं । धीरे–धीरे अन्य पात्रों की तरह रूपाली भी अपने शोक से उबर कर अपने जीवन की गति को दुबारा प्राप्त कर लेती है । ये छह पात्र आपस में मिलकर मुम्बई शहर की मानसिकता और उसके आन्तरिक चरित्र का ताना–बाना बुनते हैं और उसे रूपायित करते हैं । इस रूपांकन में फिल्म के निर्देशक निशिकान्त कामथ पूरी तरह से सफल रहे हैं ।
पारम्परिक दृष्टि से यदि हम देखें तो इस फिल्म में कोई नायक, नायिका या खलनायक नहीं है । मुम्बई शहर ही जैसे, फिल्म का मुख्य चरित्र है । फिल्म के प्रमुख पात्र मुम्बई के चरित्र के निर्माण में अपने–अपने ढंग से साझीदारी करते हैं और उसमें अलग–अलग रंग भरते हैं । सभी पात्र अपने अभिनय में बेजोड़ हैं । चाहे वह तमिल चायवाले के रूप में इरफान खान हो, या सुरेश के चरित्र में के–के– मेनन । तुकाराम के किरदार में परेश रावल हों, या निखिल के रोल में आर माधवन या फिर रूपाली की भूमिका में सोहा अली खान हों । परेश रावल ने शायद पहली बार इस फिल्म मंे मूँछ लगायी है । उनके बारे में ऐसा सुना जाता है कि पुलिस इंस्पेक्टर की भूमिका में फिट होने के लिए उन्होंने अपना वजन 15 किलो कम किया था । मगर इन सभी मँजे और सक्षम कलाकारों के बीच अगर कोई सबसे विशिष्ट छाप छोड़ते हैं तो इरफान खान । उन्होंने पूरी फिल्म में बहुत कम डॉयलॉग बोले हैं । मगर अपने चेहरे के हाव– भाव से ही वह काफी कुछ कह जाते हैं । उनका रोल, अगर देखा जाय तो आज की उपभोक्ता संस्कृति के खिलाफ एक ओजपूर्ण आवाज“ है । हम पाते हैं कि मौजूदा उपभोक्ता संस्कृति किस प्रकार अमीरी और गरीबी की खाई को और चैड़ा कर रही है । यह संस्कृति जहाँ साधन–सम्पन्न लोगों में अन्य तबकों के प्रति उपेक्षापूर्ण बेपरवाही भर रही है, वहीं साधन–हीनों के मन में अतृप्त रह जाने वाली लालसाएँ और आक्रोश के भावों का संचार भी कर रही है ।
फिल्म में नाच–गाने नहीं हैं । अपवाद के तौर पर पचास के दशक की फिल्म सी–आई–डी– का मशहूर गाना ‘ऐ दिल है मुश्किल जीना यहाँ, जरा हट के ज“रा बच के ये है बोम्बे मेरी जान’, फिल्म समाप्त होने के उपरान्त ‘क्रेडिट्स’ के दौरान’ पृष्ठभूमि में सुनाई देता है । समीर फटेरपेकारिस का पार्श्व संगीत अत्यन्त प्रभावशाली है । और फिल्म के कथानक और दृश्यों के प्रभाव को शक्तिशाली बनाता है । संगीत के माध्यम से मानो आतंक का असर और भी जीवन्त हो उठता है ।
फिल्म के कैमरा वर्क की भी तारीफ आवश्यक है । कैमरा संचालन फिल्म के कथानक, दृश्यों और घटनाओं की ज“रूर तो और पात्रों के मानो भावों से पूरी तरह से तालमेल बनाये रखता है ।
फिल्म की एडीटिंग की भी प्रशंसा करनी पड़ती है । जब फिल्म का कथानक और मिजाज आम फिल्मों से अलग हटकर हो तो एडीटर की जावबदेही और भी बढ़ जाती है । उसे देखना होता है कि फिल्म में कहीं अनावश्यक झोल न हो । इस दृष्टिकोण से यह फिल्म अन्त तक दर्शकों को बाँधे रखती है और गति में शिथिलता का अनुभव दर्शकों को क्षण–भर के लिए भी नहीं होती ।
इस फिल्म को जहाँ फिल्म फेयर के कई पुरस्कार मिले वहीं इसने अनेक राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय सम्मान भी प्राप्त किये हैं । यह फिल्म अपने समय का एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है और इसे ‘क्लासिक’ की श्रेणी में रखा जा सकता है ।
धीरंजन मालवे : जन्म : 9 मार्च 1952, डुमरावाँ, नालन्दा (बिहार) । शिक्षा : एम– एस– सी– (भागलपुर विश्वविद्यालय), एम– बी– ए– (इग्नू), एल– एल– बी– (दिल्ली विश्वविद्यालय) । विभिन्न पत्रिकाओं में महत्त्वपूर्ण लेखन । ‘भारत के विश्वविख्यात वैज्ञानिक’ पुस्तक प्रकाशित । भारतीय प्रसारण कार्यक्रम सेवा से मुक्ति के बाद प्रसार भारती में सलाहकार ।
.