आचार्य शिवपूजन सहाय की रंग-दृष्टि
- अनिल शर्मा
नाटक साहित्य की प्राचीनतम विधा है. इसकी महत्ता और प्रभावकारिता से प्रेरित होकर ही हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत भारतेंदु हरिश्चंद्र आधुनिक युग की शुरुआत में ही जन-जागरण के लिए इस विधा का प्रयोग करते हैं. इसी श्रृंखला में साहित्य को “राष्ट्र की सुपुष्ट भित्ति’ बताते हुए आचार्य शिवपूजन सहाय साहित्य-संसार में नाटक अर्थात दृश्य काव्य की महत्त्व-स्थापना इन शब्दों में करते हैं-
“दृश्यकाव्य में जो सजीवता, ओजस्विता और मनोहारिता है, वह संभवतः साहित्य कि किसी अंग में यथेष्ट रीति से नहीं पाई जाती. इसका प्रभाव बड़ा हृदयग्राही है. जो महत् कार्य शत-शत लेखकों की लेखनी से, सहस्र-सहस्र व्याख्याताओं की गवेषणापूर्ण वक्तृताओं से, सिद्ध नहीं हो सकता, अनेकानेक संभावना है कि वही कार्य केवल एक उच्चादर्शपूर्ण शुद्ध नाटक द्वारा अल्प काल में सहज ही सफल हो जा सकता है.” (पृष्ठ संख्या-161, शिवपूजन सहाय रचनावली, साहित्यिक रचना संग्रह खंड-3, प्रकाशन -बिहार भाषा परिषद्, बिहार)वस्तुतः नाटक की प्रभाव-क्षमता की गुणवत्ता असंदिग्ध है. यह एक ऐसी कला है जो सहृदय-समुदाय को गहराई से प्रभावित करने की क्षमता रखती है. अतः नाटक के माध्यम से कही गयी बात अपने मंतव्य तक निर्विरोध पहुँचती ही है –“यदि कोई जागृति का सम्यक् रूप से संचार करने वाला सर्वोत्तम साधन और अव्यर्थ प्रयत्न है, तो यही है. अलौकिक जोरदार शक्ति और विलक्षण क्षमता केवल नाटक में ही इसलिए मानी जाती है कि जो कार्य राजाज्ञा द्वारा भी सिद्ध होता नहीं पाया जाता है; वही कार्य, बात की बात में, नाटक द्वारा सफल होता देखा गया है.” (वही, पृष्ठ संख्या-161)
तत्कालीन समय का पराधीन भारत, विशेष रूप से हिन्दी प्रदेश रूढिगत संस्कारों में बुरी तरह फँसा हुआ था. वह दिशाहीनताकी स्थिति में पथभ्रष्ट हो रहा था. ऐसी स्थिति में आचार्य शिवपूजन नाटक को ऐसा अचूक अस्त्र बताते हैं जिसके प्रयोग से समाज में चेतना के साथ ही पारस्परिक सद्भाव और नैतिकता का संचार हो सकेगा-“यदि देशवासियों में बिजली-सी अपूर्व जागृति दौड़ाने की आवश्यकता है – यदि मोह-निद्रा में सोते हुए लोगों को कान पकड़कर उठाना है – यदि भूले-भटके भाईयों को बहकाने न देकर सच्ची राह पर लाना है – समाज की नस-नस की रक्त-संचालन-क्रिया बंद कर देने वाली घिनौनी कुरीतियों का सम्मार्जन व परिमार्जन करना है, अखिल जनता के चित्त-पट पर धर्मं, कर्तव्य और नीति-समुच्य के गूढ़ सिद्धांतों का चित्र खींचना है – अपरञ्च, यदि असंभव बात को भी संभव कर दिखलाने की शक्ति अर्जन करना है, तो सत्पात्रों द्वारा सद्विचारपूर्ण नाटकों के निष्कलंक अभिनय के प्रचार करने की आवश्यकता है.” (वही, पृष्ठ संख्या-162)
आचार्य शिवपूजन प्रबलता के साथ कहते हैं कि नाटक के अभाव में किसी भी जाति में सजीवता, सहृदयता, साहित्यानुराग, विद्या-अध्ययन जैसे गुणों का विकसित होना असंभव है. यहाँ वे संस्कृत के उस श्लोक के तात्पर्य को नाटक के सन्दर्भ में प्रयुक्त करते हैं जिसमें कहा गया है कि साहित्य-कला विहीन मनुष्य बिना पूँछ और सींग वाले पशु के समान है क्योंकि इनके माध्यम से ही मनुष्य में सभ्यता और संस्कार का विकास होता है.नाटक के अभाव में किसी देश व जाति का साहित्य शुष्क और प्रभावहीन हो जाता है.नाट्य-प्रेक्षण से दर्शक पर पड़ने वाले हृदयग्राही और दूरगामी प्रभाव का विश्लेषण आचार्य इन शब्दों में करते हैं-“हमारे देशवासी चाहे लाखों बार श्रीमद्भागवत, श्रीमद्रामायण और महाभारत के पन्ने पलट जायँ, किन्तु उतने लाघव से उनके चित्तपट पर तत्रोल्लिखित चित्र अंकित नहीं हो सकते, जितनी शीघ्रता से नाटक के अभिनय द्वारा चित्रित किये जा सकते हैं. किम्बहुना, नाटक का असर बड़ा ही चुटीला होता है. प्रेमी दर्शकों के ह्रदय-क्षेत्र में भावुकता, एकाग्रता, तल्लीनता एवं अनुभवगम्यता का बीजारोपण-सा हो जाता है. चित्त-भित्ति पर जो भाव खचित हो जाते हैं – मानस-पत्र पर जो चित्र उरेहे जाते हैं, वे सदा के लिए अमर हो जाते हैं.” (वही, पृष्ठ संख्या-162)
वस्तुतःउस समय रंगमंच के नाम पर सस्ते और निम्न स्तर के मनोरंजन के नाम पर पारसी कपनियाँ खूब पैसा कमा रही थी. जनता को शिक्षित-संस्कारी और जागरूक बनाने की ओर उनका बिल्कुल ध्यान नहीं था. आचार्य शिवपूजन इस स्थिति से निराश तो होते हैं किन्तु साथ ही कारणों की पड़ताल करते हुए इससे उबरने की दिशा में सुचिंतित समाधान की तलाश भी करते नज़र आते हैं.
आचार्य शिवपूजन सहाय तत्कालीन समय में प्रकाशित होने वाली विभिन्न पत्रिकाओं में नाटक और रंगमंच संबंधी लेखों की भी गहरी जानकारी रखते थे. अपने ‘नाटक’ नामक निबंध में उन्होंने ‘सरस्वती’, ‘काशी-नागरी-प्रचारिणी-पत्रिका’, ‘लक्ष्मी’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों का उल्लेख किया है. किन्तु फिर भी वे इस बात पर निराशा प्रकट करते हैं कि हिन्दी नाट्य-लेखन के प्रति साहित्यकारों की कलम उदासीन हैं और समाचार-पत्रों में नाटकों के मंचन और नाट्य-समितियों के गठन की खबरों का नितांत अभाव है. वे जोर देकर कहते हैं कि नाटक के सम्बन्ध में केवल भाषण देने से काम नहीं चलेगा बल्कि उसके लिए व्यावहारिक कार्य करने की आवश्यकता है. इस दिशा में आचर्य शिवपूजन पाठकों को भरत कृत‘नाट्यशास्त्र’ का अवलोकन करने का ‘सानुरोध निवेदन’ करते हैं क्योंकि ‘इस जगती-तल पर नाटक के अतिरिक्त कोई सर्वतोभावेन विशुद्ध मनोरंजन-सामग्री’ नहीं है.
नाटक के सम्बन्ध में हिन्दी प्रदेशों में व्याप्त सामाजिक दृष्टिकोण पर भी आचार्य शिवपूजन चर्चा करते हैं जिसमें नाटक देखने और उसमें अभिनय करने को हेय माना जाता है. इस भ्रांत धारणा को दूर करने के लिए आचार्य सभ्य-सुसंस्कृत-शिष्ट-सरस नाटकों का लिखा जाना और उनका अभिनीत होना नितांत आवश्यक मानते हैं. इस सम्बन्ध में अपनी बात को और अधिक पुष्ट करने के लिए वे लिखते हैं- “समझने की बात है कि नाटक यदि कोई दूषित कार्य्य रहता तो प्रातः स्मरणीय भारतेन्दु, कवि-कान्ति मिश्र प्रतापनारायण, काव्य-कुमुदेन्दु राजा लक्ष्मण सिंह और वैश्य-वंशावंतस लाला शालग्राम-जैसे विद्वञ्चक्र चूड़ामणि, पुरुष-शार्दूल क्यों इस वृक्ष को अपनी कीर्ति-वाटिका में आरोपित करने का श्रम उठाते? बात तो दरअसल यह है कि उपर्युक्त महानुभावों ने इस विचार से नाटक लिख छोड़ा था कि हमारी भावी संतान इसका सदुपयोग करेगी; कितु उलटे ही उसका फल ऐसा हुआ कि वैसे-वैसे रत्न पैदा करने की शक्ति यदि अपने में नहीं भी रही, तो हम पुराने ढकोसले की चपेट में पड़कर और निठल्लू बनकर अपनी बपौती संपत्ति का भी यत्किंचित आदर करने से भी वंचित रहे.” (वही, पृष्ठ संख्या-165)
नाट्य-क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य और महत्वपूर्ण योगदान करने के लिए आचार्य शिवपूजन ‘हिन्दी प्रदीप’ के सम्पादक पंडित बालकृष्ण भट्ट का सादर स्मरण करते हुए लिखते हैं – “दूर की बात जाने दीजिए, अभी-अभी जो ‘हिन्दी प्रदीप’ का निर्वाण हो चुका है. उसके माननीय वयोवृद्ध सम्पादक श्रद्धेय श्रीमान् बालकृष्ण भट्ट जी वह नाटक देखने चले गए थे, जिसमें गन्धर्व-राज चित्ररथ-सा नायक विश्व-विमोहिनी बाला उर्वशी-सी नायिका का स्वर्गीय अभिनय हुआ करता है. आपको हिन्दी-संसार के अन्दर जैसा नाटक का व्यसन था- नाटक में जैसी श्रद्धा, मनोनुकूलता और दर्शनोंत्कंठा थी, वह एक मुख से कही नहीं जा सकती. ज़रा-जर्जर शरीर होने पर भी आप नाटक शुद्ध हिन्दी-नाटक के नवाभिनय को देखने के लिए रात-रात भर जागरण किया करते थे. आपका प्रहसन हिन्दी-संसार में बेजोड़ – लासानी – समझा जाता है. आप ही के उद्योग से हिन्दी-केंद्र-स्थल हिन्दी-साहित्य-दुर्ग प्रयाग में एक विश्व-विश्रुत नाट्य-संस्था खुली थी. उसमें आप भी अभिनय-कार्य-सम्पादन कर चुके हैं और भारत-जननी-दुलारे माननीय मालवीयजी को भी उक्त नाट्य-समिति के अभिनेतृ-मंडल में स्थानापन्न होने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका है. आज भी वह हिन्दी-नाट्य-समिति हिन्दी-संसार के भीतर एक ही नाट्य-संस्था गिनी जाती है. बात भी ऐसी ही है. भारतवर्ष के अन्दर किसी दूसरी ऐसी नाट्य-समिति की स्थिति सर्वसाधारण की दृष्टि-तले नहीं पड़ती, जो उपर्युक्त नाट्य-समिति की भाँति केवल हिन्दी के ही शुद्ध और आदर्श-युक्त नाटकों का अभिनय करती हो. भट्टजी का नाम अजर-अमर रखने के लिए हिन्दी-संसार में जो अमूल्य-सामग्रियाँ हैं, उनमें सबसे पहली नहीं, तो ‘हिन्दी प्रदीप’ के उपरान्त, यही नाट्य-समिति अवश्य गिनी जायगी.” (वही, पृष्ठ संख्या-165-66)इसी श्रृंखला में शिवपूजन जी पं माधवप्रसाद शुक्ल, पं महादेव भट्ट, पं जनार्दन भट्ट एम.ए., पं रासबिहारी शुक्ल, श्रीकृष्णकांत मालवीय, श्रीराधाकान्त मालवीय के नाट्य और अभिनय के क्षेत्र में किये गए कार्य का ससम्मान उल्लेख करते हैं.
आचार्य शिवपूजन सहाय ‘बंगीय रंगमंच’ शीर्षक निबंध में दक्षिण भारतीय, बंगाली और मराठी रंगमंच की सक्रियता की प्रशंसा करते हैं जो उनकी सजग और सचेत रंग-दृष्टि का सूचक है और जिससे सिद्ध होता है हिन्दी रंगमंच के साथ ही उनकी दृष्टि अन्य भाषाओं के रंगमंच पर भी रहती थी. वे स्वयं द्वारा देखे गए कलकत्ता के मिनर्वा थियेटर और पूना की किर्लोस्कर संगीत मंडली द्वारा मंचित नाटकों की उत्कृष्टता के साथ ही महाराष्ट्र रंगमंच के सुप्रसिद्ध नाट्याचार्य बालगंधर्व का भी सादर उल्लेख करते हैं.इसी सन्दर्भ में बड़े ही निराश और क्षुब्ध भाव से वे लिखते हैं कि “…. अनायास मन में यही भाव उठता है कि अपने साहित्य की गौरव-वृद्धि करने के लिए जिस प्रकार बंगालियों को कलकत्ता, गुजरातियों को बम्बई और मराठों को पूना – जैसे विशाल उर्वर क्षेत्र मिले हैं, उसी तरह क्या हिन्दीवालों को लाहौर, अमृतसर, दिल्ली, आगरा, जबलपुर, नागपुर, लखनऊ, कानपुर, प्रयाग, काशी, पटना आदि बड़े-बड़े जनाकीर्ण नगर नहीं मिले हैं? फिर क्या कारण है कि इन प्रमुख नगरों में कहीं भी कोई ऐसी हिन्दी-प्रधान नाटक-कंपनी नहीं है, जिसकी तुलना उनसे की जा सके? क्या हिन्दी-प्रेमी जनता में जीवन ही नहीं है, या साहित्य और संगीत-कला में अभिरुचि नहीं है, या ह्रदय में रसानुभूति का लेश ही नहीं है, या उन्होंने पारसी कंपनियों को ही इसका ठेका दे रखा है?” (वही, पृष्ठ संख्या-167-168)– इन उद्गारों से आचार्य शिवपूजन जी की उस गहरी पीड़ा का सहज ही अनुमान हो जाता है जो हिन्दी क्षेत्र में रंग-गतिविधियों के अभाव से उत्पन्न हुई है.
वस्तुतःभारत में हिन्दी भाषा-भाषियों की संख्या अन्य भाषा-भाषियों की तुलना में अत्यधिक है कितु हिन्दी पट्टी का रंगमंच मराठी, बांग्ला, गुजराती आदि प्रांतीय भाषाओं की तुलना में आज तक भी पिछड़ा ही हुआ है. यहाँ की जनता में आज भी वह रंग-संस्कार नहीं आ पाया है जो उक्त प्रान्तों की जनता में सौ वर्ष पहले आ गया था. ऐसी स्थति में आचार्य शिवपूजन सहाय की चिंता और क्षुब्धता स्वाभाविक है.
इन प्रान्तों के रंग-संस्कार का विश्लेषण करते हुए आचार्य शिवपूजन सहाय मराठी, गुजराती, बांग्ला आदि की पत्रिकाओं का नामोल्लेख करते हुए कहते हैं कि इन पत्रिकाओं में इन भाषाओं के रंगमंच के श्रेष्ठ अभिनेताओं के चित्र और उनकी अभिनय-कला की प्रशंसा निरंतर प्रकाशित होते रहते हैं किन्तु हिन्दी की लब्ध-प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में ऐसा दुर्लभ ही है. हिन्दी की पत्रिकाओं में इस तरह के प्रकाशन नाममात्र के ही हुए हैं जिनकी गिनती दो-चार से अधिक नहीं है. हिन्दी-प्रदेश में नाटक और रंगमंच के प्रति जनता की अभिरुचि विकसित करने के लिए, नाट्य की लोकप्रियता के लिए व नाट्य-कला से जुड़े अभिनेताओं और नाटककारों के प्रोत्साहन के लिए ऐसा करना नितांत आवश्यक है. इसी बात को ध्यान में रखते हुए आचार्य शिवपूजन सहाय लिखते हैं कि- “अतएव, साहित्य में नाटक का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान समझकर, हिन्दी के सचित्र पत्रों के संपादकों को चाहिए कि न केवल नाटक-सम्बन्धी लम्बे-चौड़े सिद्धान्तपूर्ण लेख ही छापकर संतुष्ट हो जायँ, बल्कि हिन्दी की जो छोटी-मोटी या भली-बुरी नाटक-समितियाँ इस समय जिस किसी अवस्था में वर्त्तमान हैं, उनके कुशल अभिनेताओं का सचित्र परिचय और चुने हुए उत्तम दृश्यों के चित्र भी प्रकाशित करें. इससे अभिनेताओं को विशेष प्रोत्साहन प्राप्त होगा, नाटक-मंडलियों की प्रसिद्धि होगी, जनता में नाटक के प्रति जो उदासीनता है, वह बहुत-कुछ धीरे-धीरे दूर होगी. सबसे बढ़कर आश्चर्य और दुःख का विषय तो यह है कि हिन्दी-पत्रों में अनेक नए शीर्षकों और स्तंभों की सृष्टि होती जा रही है; पर कहीं ‘रंगमंच’ के दर्शन नहीं होते. बँगला के सचित्र ‘नाचघर’ अथवा ‘कर्णाटक रंगभूमि’ की तरह हिन्दी में आज तक कोई नाटक-प्रधान पत्र भी नहीं निकला. नाटक की यह उपेक्षा निंदनीय है या दयनीय?” (वही, पृष्ठ संख्या-169)
अपने अनुभवों को याद करते हुए आचार्य शिवपूजन सहाय लखनऊ में हुए पाँचवें हिन्दी साहित्य सम्मलेन के अवसर पर आयोजित पं माधवप्रसाद शुक्ल की प्रयाग स्थित संस्था द्वारा मंचित ‘सत्य हरिश्चंद्र’ नाटक में अभिनेताओं के उत्कृष्ट अभिनय का स्मरण करते हैं जिसमें पं बालकृष्ण भट्ट के ज्येष्ठ पुत्र पं महादेव भट्ट ने ‘पाप’ की भूमिका निभाई थी. किन्तु वे बड़े दुःख और निराशा के साथ टिप्पणी करते हैं कि हिन्दी के किसी भी पत्र या पत्रिका ने उक्त नाट्य-प्रस्तुति का उल्लेख तक नहीं किया. संपादकों का यही रुख प्रयाग में हुए छठे हिन्दी साहित्य सम्मलेन में पं माधवप्रसाद शुक्ल की ही मंडली द्वारा खेले गए नाटक ‘महाभारत’ के प्रति भी रहा. इस नाट्य-प्रस्तुति में पं माधव शुक्ल ने भीम व पं रासबिहारी शुक्ल ने दुर्योधन और पं महादेव भट्ट ने धृतराष्ट्र का अभिनय किया था. किन्तु सम्मलेन की रिपोर्ट के अलावा इस महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक प्रस्तुति का भी कहीं जिक्र नहीं है.
तत्कालीन समय में कुछ साहित्यकार मंच पर अभिनय-कर्म भी किया करते थे. जिनमें में कुछ के नाम शिवपूजन सहाय जी ने सादर उल्लिखित किये हैं –“हास्यावतार पं जगन्नाथ प्रसादजी चतुर्वेदी; श्रीयुत जी.पी.श्रीवास्तव, बी.ए.,एल.एल.बी.; पं माधव शुक्ल; मनोरंजनमूर्ति पं ईश्वरीप्रसाद शर्मा (‘हिन्दूपंच’ सम्पादक), पं सूर्यकांत त्रिपाठी निराला आदि. किन्तु, ऐसे प्रसिद्द साहित्यिकों के किसी अभिनय का कोई चित्र भी आज तक हिन्दी-पत्रों में देखने को नहीं मिला. क्या यह चिन्त्य विषय नहीं है?”(वही, पृष्ठ संख्या-170)
स्पष्ट है कि आचार्य शिवपूजन सहाय दुहरी चिंता से ग्रस्त हैं. पहली तो यही कि हिन्दी रंगमंच में उल्लेखनीय कार्य नहीं हो रहा है और दूसरी, यह कि जितना भी कार्य हो रहा है पत्र-पत्रिकाओं में उसका संज्ञान ही नहीं लिया जा रहा है.आचार्य शिवपूजन हिन्दी क्षेत्र और कलकत्ता की रंगशालाओं की तुलना करते हुए कहते हैं कि एक तो कलकत्ता जैसी एक भी रंगशाला हिन्दी में नहीं है और जो हैं भी उनमें भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रतापनारायण मिश्र, राजा लक्ष्मण सिंह, लाला शालग्राम, लाला सीताराम, बाबू जयशंकर प्रसाद, पं बदरीनाथ भट्ट बी.ए. – जैसे प्रसिद्द नाटककारों और नाट्यकर्मियों तक के चित्र नदारद हैं जबकि कलकत्ता की रंगशालाओं के मुख्य द्वार पर द्विजेन्द्रलाल राय, बाबू गिरीशचंद्र घोष, अमृतलाल बसु आदि केबड़े-बड़े तैल-चित्र सुशोभित होते हैं. इसी सन्दर्भ में शिवपूजन जी अनुरोधस्वरुप लिखते हैं-“हमारी तो ईश्वर से यही प्रार्थना है कि नाटक जैसे साहित्य के उत्तमांग पर हिन्दीवालों का पूर्ण अनुराग और श्रद्धा हो. साथ ही, पत्र-संपादकों से प्रार्थना है कि जब तक हिन्दी में खास तौर से कोई नाटक-संबंधी पत्र नहीं निकलता तब तक प्रधान एवं प्रसिद्द पत्र-पत्रिकाओं में इसके लिए वे कृपा करके विशेष स्तम्भ निश्चित कर दें, या एतद्विषयक सचित्र-अचित्र लेख-संवादादि को प्रश्रय दिया करें, ताकि इस विषय के हर एक बाजू पर सदा प्रकाश पड़ता रहे.”(वही, पृष्ठ संख्या-178)
उपरोक्त विचारों के माध्यम से आचार्य शिवपूजन सहाय हिन्दी क्षेत्र में उन रंग-संस्कारों के अभाव की ओर ध्यान दिला रहे हैं जिनका होना किसी भी भाषा के समृद्ध और उन्नत रंगमंच का सूचक होता है.इसी कारण बड़े ही क्षुब्ध भाव से वेतत्कालीनपारसी थियेटर के संचालकों पर कटाक्ष करते हैं –“ मदन-थियेटर-कंपनी भले ही बेताबजी और जौहरजी जैसे प्रसिद्द साहित्यिकों से मनोनुकूल हिन्दी-नाटक लिखवाकर पारसी-मंच उर्फ़ हिन्दी-मंच पर तड़क-भड़क के साथ खेल ले; पर उसे भारतेंदु हरिश्चंद्र और प्रतापनारायण मिश्र को अपनी रंगशाला में सादर स्थान देने से क्या मतलब! उसे तो बुद्धुओं को बुलबुलें बनाकर तोड़े ऐंठने हैं – चाहे हिन्दी की हत्या हो या साहित्य का संहार.” (वही, पृष्ठ संख्या-170)
इसी सन्दर्भ में आचार्य शिवपूजन सहाय पारसी रंगमंच की उस प्रवृत्ति पर भी कटाक्ष करते हैं जिसमें मनोरंजन के नाम पर सीता और राम जैसे आदर्श चरित्रों को भी छलिया और रसिक रूप में प्रस्तुत किया जाता है और जिसे देखने वाली जनता बार-बार फूहड़ और अश्लील दृश्यों को ‘वंस मोर’ कहती हैं. इस प्रवृत्ति पर वे क्षुब्ध होकर कहते हैं- “रंगमंच तो वास्तविकता, स्वाभाविकता और आदर्श के प्रकृत प्रदर्शन का स्थान है, यारों के फँसाने का शिकारगाह नहीं – अपने हुनर और नखरे का इश्तिहार चिपकाने के लिए पोश्टर-बोर्ड नहीं. किन्तु, इसे समझे कौन? हमारे समाज की जनता ही ऐसी बुद्धू है कि नाटक को वेश्यानृत्य की तरह सिर्फ दिलबस्तगी का एक सामान समझती है. (वही, पृष्ठ संख्या-178)
जब आचार्य शिवपूजन सहाय ‘मतवाला’ से जुड़े थे तब उन्होंने कलकत्ता में बांग्ला और हिन्दी – दोनों प्रकार के नाटक देखे थे इसलिए वे बार-बार हिन्दी रंगमंच की तुलना बांग्ला रंगमंच से करते हैं औरबंगालियों में रंगमंच के प्रति जो निष्ठा, सुरुचि-सम्पन्नता और सृजनशीलता है हिन्दी रंगमंच में उसका अभाव-सा ही पाते हैं. साथ ही, बंगालियों की साहित्यानुराग, उनकी अभिरुचि और उनकी एकता को भी वे रेखांकित करना नहीं भूलते.कलकत्ता में देखे गए कई हिन्दी और बांग्ला नाटकों – ‘कर्णार्जुन’, ‘सीता’, ‘बंगविजेता’, ‘आलमगीर’, ‘किन्नरी’, ‘मेवाड़पतन’ अदि से उदाहरण देते हुए आचार्य शिवपूजन बड़ी सूक्ष्मता से अपनी सह्रदय क्षमता का परिचय देते हैं. वे बांग्ला रंगमंच के सुप्रसिद्ध अभिनेताओं – नरेशचन्द्र बी.ए., बी.एल; तिनकौड़ी चक्रवर्ती; अहींद्र चौधरी; श्री शिशिरकुमार भादुड़ी; श्री मनोरंजन भट्टाचार्य; दानी बाबू तथा लोकप्रिय अभिनेत्रियों – तारासुन्दरी, नीहारबाला, प्रभा आदि की अभिनय-कला का सूक्ष्म विश्लेषण करते हैं जो उनकी रंगमंच-पर्यवेक्षण क्षमता और पारखी दृष्टि का सूचक है.उदाहरणतः ‘सीता’ नाटक में राम की भूमिका का निर्वाह करने वाले श्री शिशिरकुमार भादुड़ी के अभिनय का विश्लेषण आचार्य शिवपूजन कुछ इस तरह करते हैं –“भादुड़ी महाशय को ‘राम’ की भूमिका में जिसने नाट्य करते देखा है, वही उनके उस अविरल अभिनय का आनंद अनुभव कर सकता है. वर्णनात्मक शब्दों अथवा स्तुतिपूर्ण उद्धरणों द्वारा उस आनंद का प्रकृत अनुभव कराना असंभव है. उनकी नाट्य-पटुता ने बंगीय रंगमंच पर युगांतर उपस्थित कर दिया है. उनमें दर्शक के कानों और आँखों को एक कर देने की अद्भुत क्षमता है. ‘राम’ की भूमिका में वे सहृदय दर्शक की भावुकता के अंतस्तल तक पैठ जाते हैं. उसे ऐसा आत्मविस्मृत कर देते हैं कि वह कोई उनका अभिन्न मित्र ही क्यों न हो, उन्हें आदर्श महापुरुष श्री रामचन्द्र समझने के सिवा कभी भादुड़ी के रूप में नहीं याद रख सकता. तभी तो वह बंगीय रंगमंच पर नवयुग-विधायिनी क्रान्ति की सृष्टि करने में समर्थ हो रहे हैं.”(वही, पृष्ठ संख्या-175) – कहना न होगा कि आचार्य शिवपूजन सहाय ने शिशिर भादुड़ी के अभिनय को न केवल मनोयोग से देखा है बल्कि एक सजग दर्शक होने के नाते उसके प्रभाव का भी आकलन किया है.इसी प्रकार बांग्ला रंगमंच की चर्चित अभिनेत्री – नीहारबाला के मार्मिक और प्रभावशाली अभिनय की भी आचार्य शिवपूजन जी ने खुलकर प्रशंसा की है – “किन्तु, नीहारबाला नाम की अभिनेत्री ने ‘नियति’ की भूमिका में जो कमाल दिखाया, वह दर्शक-मंडली के चित्त-पट्ट पर अमित रंगीन रेखा की तरह खिंच गया. उसकी स्वाभाविक एवं मर्मतल-स्पर्शिनी, किन्तु पवित्र और कारुण्यपूर्ण, भावभंगियों ने रंगशाला में जादू की लहर उमड़ा दी.” (वही, पृष्ठ संख्या-172-173)
बांग्ला रंगमंच का इस रूप में विश्लेषण कर चुकने के बाद जब आचार्य शिवपूजन तत्कालीन हिन्दी रंगमंच की स्थिति पर दृष्टि डालते हैं तो उन्हें अधिकांशतः निराशा और उदासीनता ही नज़र आती है. बांग्ला रंगमंच में अभिनेता-अभिनेत्रियों को जो सम्मान और प्रतिष्ठा मिलती है उसका हिन्दी रंगमंच में बिल्कुल अभाव है. और यही कारण है कि प्रतिभाशाली अभिनेता भी सामाजिक प्रतिष्ठा और मर्यादा के चलते इच्छा होने पर भी हिन्दी रंगमंच में गतिशीलता से सक्रिय नहीं हो पाते. आचार्य शिवपूजन लिखते हैं – “किन्तु, हमारे यहाँ – हिन्दी-संसार में – अभिनेता होना बड़ी लज्जा की बात है. जो नाटकों में अभिनय करने में जितनी ही अधिक दिलचस्पी लेता है, वह उतना ही बड़ा आवारा समझा जाता है. काशी की जिस नागरी-नाटक-मंडली की चर्चा हम ऊपर कर चुके हैं, उसके पास संपत्ति और सामग्री की कमी नहीं है, पर उसके सदस्यों से मुझे मालूम हुआ है कि उसे अच्छे अभिनेता बहुत कम मिलते हैं, और जो कामचलाऊ मिलते भी हैं वे अपने घरवालों और पड़ोसियों के धिक्कार-फटकार से घबराकर नाट्य-कला का नियमित अभ्यास नहीं कर पाते. यदि उन्हें अवसर और उत्साह मिलता, तो अपना शौक पूरा करने के साथ-साथ वे अपने साहित्य और स्वदेश का बहुत कुछ उपकार करते. यही हाल प्रायः सभी हिन्दी नाटक-मंडलियों का है. खासकर ‘फीमेल पार्ट’ करने के लिए तो बहुत ही कम पात्र मिलते हैं. मूँछ मुड़ाकर अभिनेत्री बने कि ‘गुंडा’ प्रसिद्द हुए!! साड़ी पहनकर रंगमंच पर उतरना क्या है, मानों राहचलतों को भी आवाज़ कसने का मौका देना है! न जाने, हिन्दी-समाज के लोगों के विचार इतने भ्रष्ट और पतित क्यों हो गए हैं! केवल नाटक में पार्ट करने से ही कोई युवक या छात्र बदमाश निकल जायगा या पढ़ना-लिखना छोड़कर मटरगश्ती करने लगेगा, यह धारणा हिन्दी-समाज में ऐसी बद्धमूल हो गई है कि हिन्दी की कितनी ही नाटक-मंडलियाँ, अन्य सब साधनों से सम्पन्न होकर भी, केवल सुयोग्य अभिनेताओं के अभाव से, अपनी भाषा, अपने साहित्य, अपने समाज और स्वदेश का कुछ भी हित नहीं कर पाती.” (वही, पृष्ठ संख्या-177) जबकि बांग्ला रंगमंच में जो अभिनेत्रियाँ वास्तविक जीवन में वेश्याएँ हैं – उनकी अभिनय-कला के कारण बड़े सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है.वस्तुतः आचार्य शिवपूजन की उपरोक्त टिप्पणी से हिन्दी रंगमंच के विकास में मुख्य अवरोध पैदा करने वाली हिन्दी-समाज की उस रूढिगत मनोवृत्ति के दर्शन होते हैं जिसमें नाटक में काम करने वाले कलाकारों और उनकी कला को हेय दृष्टि से देखा जाता है. हिन्दी का रंगमंच आज भी इस समस्या से छुटकारा नहीं पा सका है. इसलिए हिन्दी प्रदेश में कई-कई सरकारी संस्थानों और अनेक नाट्य-संस्थाओं के होते हुए भी वह मराठी, गुजराती और बांग्ला रंगमंच की बराबरी नहीं कर पा रहा है.
आचार्य शिवपूजन सहाय ने ‘बंगीय रंगमंच का इतिहास’ शीर्षक से बांग्ला रंगमंच के विषय में एक गंभीर, सुचिंतित और लंबा लेख लिखा है जो उनकी सजग रंग-दृष्टि का सूचक है. यह आचार्य शिवपूजन की विनम्रता है कि इस लेख के मूल स्रोत और इसे उपलब्ध करवाने वाले सज्जन का सादर उल्लेख करते हैं. इस लेख में सर्वप्रथम आधुनिक काल में बांग्ला रंगमंच के शुरुआती दौर में हुई नाट्य-प्रस्तुतियों – ‘कुल-कुलीन-सर्वस्व’, ‘शकुन्तला’, माइकेल मुधुसूदन दत्त लिखित ‘कृष्णावती’ व ‘पद्मावती’, ‘सधवार एकादशी’,’लीलावती’ आदि का जिक्र करते हुए विशेष जोर इस बात पर देते हैं कि बांग्ला रंगमंच अपनी शुरुआत से ही एक-दो प्रस्तुतियों को छोड़कर स्त्री कलाकारों को मंच पर स्थान देता चला है. आरंभिक प्रस्तुतियाँ कलकत्ता के शिक्षित व भद्र पुरुषों के घरों में ही होती थी. जब प्रस्तुतियों की संख्या बढ़ती गयी तो रंग-प्रेमियों का ध्यान स्थायी रंगशाला स्थापित करने की ओर गया. फलस्वरूप 17दिसम्बर सन् 1872 में कलकत्ता के सान्याल हाउस में ‘नेशनल थियेटर’ की के अंतर्गत ‘नीलदर्पण’ नाटक अभिनीत हुआ.आरम्भिक दौर में केवल नगर के धनवानों, शिक्षित-विद्वानों को निमंत्रण देकर नाटक देखने बुलाया जाता था. धीरे-धीरे जब टिकट की व्यवस्था शुरू हुई तो जनता अपार संख्या में टिकट खरीदकर नाटक देखने पहुँचने लगी जिससे बांग्ला रंगमंच उत्साह और उमंग के साथ आगे बढ़ने लगा. इसके बाद ‘ग्रेट नेशनल थियेटर’, ‘बंगाल थिएटर’, ‘स्टार थिएटर’, ‘एमेरल्ड थिएटर’, ‘सिटी थिएटर’, ‘मिनर्वा थिएटर’, क्लासिक थिएटर’ ‘कोहनूर थिएटर’, ‘मनमोहन थिएटर’, ‘आर्ट-थिएटर’ , ‘बंगाल-थिएट्रिकल-कंपनी’, नाट्य-मंदिर’, ‘मित्रा-थिएटर’ आदि रंग-मंडलियों की गतिविधियों, बांग्ला रंगमंच में संगीत-प्रयोग, प्रमुख अभिनेताओं-अभिनेत्रियों का विवरण देते हुए आचार्य शिवपूजन ने बांग्ला-रंगमंच के विकास को व्यवस्थित रूप में रखने का सफल प्रयास किया है.
आचार्य शिवपूजन सहाय हिन्दी नाटक और रंगमंच के दो प्रमुख महानुभावों – भारतेंदु हरिश्चंद्र व जयशंकर प्रसाद को बड़े सम्मान की दृष्टि से देखते हैं. भारतेंदु हरिश्चंद्र को आचार्य शिवपूजन बड़ी श्रद्धा से स्मरण करते हैं. इसीलिए तत्कालीन समय में अजमेर में आर्य समाज द्वारा महर्षि दयानंद अर्द्धशताब्दी और बंगाल में राजा राममोहन राय शताब्दी मनाये जाने का जिक्र करते हुए वे भारतेंदु हरिश्चंद्र की अर्द्धशताब्दी पर काशी में महोत्सव का आयोजन करने की बात अपने एक लेख के माध्यम से प्रबलता के साथ रखते हैं. उनका मानना था कि भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने नाट्य-लेखन और अभिनय के द्वारा हिन्दी-जनता को जागृत करने की राह का रास्ता का खोला था और हिन्दी रंग-प्रेमियों को उनके इस अवदान को स्मरण करते हुए श्रद्धांजलि-स्वरुप उनकी स्मृति में उपरोक्त आयोजन करना चाहिए.इसके साथ ही,‘प्रसाद’ जी की भविष्यवाणी’ नामक एक संक्षिप्त लेख आचार्य शिवपूजन सहाय की रंग-दृष्टि के उस आयाम का सूचक है जोन केवल अपने समकालीन नाटककारों की नाट्य-रचनाओं का मनोयोगपूर्वक अधययन करता है बल्कि उस रचना की युगीन प्रासंगिकता से सुधी पाठकों/दर्शकों भी अवगत कराना चाहता है. ‘अजातशत्रु’ नाटक के कई संवादों का उदाहरण लेते हुए आचार्य शिवपूजन जी ने नाटककार जयशंकर प्रसाद की भविष्य को देखने वाली दूर-दृष्टि का विश्लेषण किया है – “’प्रसाद’ जी की भविष्यवाणी में अनीश्वरवादिता का भी उल्लेख है. आजकल संसारियों के मन में वह इस तरह घर कर गई है कि उसमें मनुष्य बड़ी सुविधा का अनुभव करने लगा है. आजकल के मनुष्यों के लिए ईश्वर एक झंझट है, धर्म एक झमेला है, श्रद्धा-भक्ति और पूजा-पाठ पाखण्ड हैं. नास्तिक होना गर्व का विषय बन गया है और आस्तिक होना झेंप का! रूस ने ईश्वर का अस्तित्व मिटा दिया, अब अपने अस्तित्व की रक्षा में विह्वल है. योरप ने भी ईश्वर से राम-राम कर लिया, देखादेखी भारत में भी वही बाना धारण करने वाले कितने दल बन गए हैं. यह अविद्यान्धकार के प्रसार का परिणाम है. इस मोहान्धकार में महात्मागांधी की दिव्य ज्योति ही मार्ग-प्रदर्शन कर सकती है.” (वही, पृष्ठ संख्या-256)
तत्कालीन समय में हिन्दी की दो महत्त्वपूर्ण रंग-मंडलियों – काशी की नागरी-नाटक-मंडली व प्रयाग की हिन्दी नाट्य समिति की गतिविधियों पर भी आचार्य शिवपूजन सहाय नेपैनी निगाह रखी है.‘काशी की नागरी नाटक मंडली’ नामक लेख में इसनाटक-मंडली की स्थापना से लेकर तत्कालीन समय तक की गतिविधियों का विवरण प्रस्तुत करते हैं. यह लेख आचार्य शिवपूजन जी ने उस समय लिखा था जब कई राजाओं द्वारा दिए गए चंदे की राशि से उक्त मंडली की रंगशाला के निर्माण का प्रयास किया जा रहा था. (यह रंगशाला काशी में कबीर चौरा के निकट बन गयी थी) “मैंने भी मंडली का एक अभिनय देखा है. देखने से यह अनुभव हुआ कि अभी मंडली के अभिनयों में पारसीपन की बू बाकी है. किन्तु, विवेचना-बुद्धि ने स्पष्ट बतलाया कि इसके लिए ‘मंडली’ नहीं, हमारा समाज दोषी है. मंडली के पास काफी फंड है, सुयोग्य स्टेज-मैनेजर हैं, निपुण हारमोनियम मास्टर हैं, अच्छे-से-अच्छे ड्रेस हैं, सुन्दर सीन-सीनरी है; पर साहित्यिक दृष्टि से अभिनयों में दिलचस्पी लेने वाले पात्रों का बड़ा टोटा है. और, जो पात्र साहित्यिक सुरुचि के परिचालन में दक्ष हैं, वे दर्शकों की निकृष्ट मनोवृत्ति से लाचार हैं.” (वही, पृष्ठ संख्या-399)– आचार्य शिवपूजन के इस मत में उनके रंग-समीक्षक रूप के दर्शन होते हैं जिसकी नज़र समस्या की जड़ पर है और वह उसे दूर करने के लिए तत्पर है.इसलिए वे आगे सुझाव-रूप में लिखते हैं-“ फिर भी, मैं ‘मंडली’ के संचालकों से इतनी प्रार्थना करना चाहता हूँ कि वे जनता की कुप्रवृत्ति का अनुकरण करना छोड़कर लोक-रूचि का परिष्कार करने की ओर विशेष ध्यान दें. सीन-सीनरी और पोशाक-पहनावे की तड़क-भड़क से जनता को प्रभावान्वित करने या मोहने का जितना प्रयत्न किया जाता है, उतना ही यदि पात्रों के अभिनय पर भी ध्यान दिया जाय, तो जनता का चित्त गौण वस्तु की ओर से हटकर मुख्य वस्तु की ओर आकृष्ट हो सकता है. उत्तम अभिनय से साधारण दृश्यावली भी प्रभावशालिनी बन जाती है.” (वही, पृष्ठ संख्या-399) किसी भी नाटक की सफलता-असफलता का निर्णय अभिनय पर आधारित होता है. और कुशल अभिनय कम-से-कम रंग-सामग्री और उपकरणों की दरकार रखता है – “… सबसे पहले पात्रों की भाषा, ध्वनि,अंगभंगी आदि में शुद्धता और स्वाभाविकता लाने का पूर्ण प्रयत्न होना चाहिए. उसके बाद साज-सामान का नंबर है. सर्वांग-सुंदरी शकुन्तला के लिए वल्कल-वसन भी सौन्दर्य-वर्द्धक थे.” (वही, पृष्ठ संख्या-400)
अभिनेता किसी भी नाट्य-प्रस्तुति का केंद्र होता है. अतः अभिनेता का सजग, सुरुचि-संपन्न और साहित्य-संस्कारी होना अत्यंत आवश्यक है. प्रांतीय भाषाओं के रंगमंच को देखकर हुए अनुभव से भी अभिनय-कला में वृद्धि की जा सकती है. इसी बात को ध्यान में रखते हुए शिवपूजन जी नागरी-नाटक-मंडलीके माध्यम से नाट्य-मंडलियों को परामर्श देते हैं –“ उसको चाहिए कि सेवा-समिति अपने ‘बालचर-मंडल’ से जिस तरह दूर-दराज की यात्रा कराती है, उस तरह वह भी अपने चुने-चुनाये पात्रों को कलकत्ता, बम्बई, पूना आदि नगरों में भेजकर उन्हें बंगला, गुजराती और मराठी रंगमंचों को देखने का सुअवसर प्रदान करे. इससे पात्रों का अनुभव बढेगा. वे अपनी विवेचना-बुद्धि से उत्तम और निकृष्ट का संग्रह-त्याग करके बहुत-कुछ लाभ उठावेंगे. केवल पेशेदार पारसी कम्पनियों की तर्ज़ पर मचलने से हिन्दी-साहित्य का वास्तविक उपकार नहीं हो सकता. मंडली के पास द्रव्य है, इसलिए वह मज़ेदार ट्रिप से अपने पात्रों को खूब लाभान्वित कर सकती है. जब उसके अभिनयों पर नया रंग चढ़ जायगा – वे परिष्कृत और सुरुचिपूर्ण बन जायँगे – वे लोगों में श्रद्धा के भाव उत्तेजित करने लगेंगे – उनमें सब-कुछ आदर्श नजर आने लगेगा, तब आप-से-आप भद्र समाज उसकी ओर टूट पडेगा. पारसी लोगों से लोगों का हिचकना स्वाभाविक है.” (वही, पृष्ठ संख्या-400)– इस बात से आचार्य शिवपूजन सहाय की दूर-दृष्टि का प्रमाण मिलता है क्योंकि दिल्ली स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय अपनेछात्रों का रंगानुभव बढाने के लिए प्रतिवर्ष इस तरह के भ्रमण का आयोजन करता है.इसके साथ ही, आचार्य शिवपूजन इस बात पर भी जोर देते हैं किनाट्य-मंडलियों को अपनी रंग-गतिविधियों के सुचारू-संचालन, अपने रंगकर्मियों के अनुभव की वृद्धि तथा उनको सजग-सचेत और सामयिक बनाए रखने के लिए के लिएरंगमच के विभिन्न पक्षों से सम्बंधित पुस्तकों और वस्तुओं का भी संग्रह करना चाहिए – “ चूँकि यह मंडली हिन्दी-संसार की नाटक-मंडलियों में सबसे अधिक संपन्न है – इसकी आर्थिक स्थिति संतोषजनक है, इसलिए इसको अपने सामने एक उत्तम संग्रहालय का आदर्श भी रखना चाहिए. उसमें नाटक-सम्बन्धी सभी वस्तुओं का संग्रह होना चाहिए. यथा – सभी भाषाओं के नाटक-ग्रन्थ, देश-देशांतर के नाटक-लेखकों और प्रसिद्द अभिनेताओं तथा नाट्य-मंदिरों के चित्र, नाटक-सम्बन्धी पत्र-पत्रिकाएँ, नाटक-मंडलियों की रिपोर्टें, भिन्न-भिन्न देश-समाज की वेश-भूषा और साज-सज्जा, अन्यान्य पत्र-पत्रिकाओं में अब तक प्रकाशित हुए नाटक-सम्बन्धी लेख और समालोचनाएँ, नाटक-विषयक अन्यान्य ग्रन्थ इत्यादि.”(वही, पृष्ठ संख्या-400-401)
इसी प्रकार ‘प्रयाग की हिन्दी-नाट्य-समिति’ नामक लेख में आचार्य शिवपूजन सहाय जी ने उक्त समिति के विषय में विस्तारपूर्वक लिखा है. सन् 1898 में इस नाट्य समिति की स्थापना पं माधव शुक्ल, पं महादेव भट्ट व गोपालदत्त त्रिपाठी ने शुद्ध हिन्दी नाटक खेलने के उद्देश्य से की थी. एक-दो नाटक खेलने के बाद इस समिति और भी गणमान्य व्यक्ति जुड़ते गए जिनमें प्रमुख थे – पं लक्ष्मीकांत भट्ट, रमाकान्त मालवीय, पं कृष्णकान्त मालवीय, वेणीप्रसाद गुप्त, बाबू देवेन्द्रनाथ बनर्जी आदि. तदुपरांत इस संगठित नाट्य-मंडली का नाम ‘श्री रामलीला-नाटक-मंडली’ रखा गया| इस नाम से यह मंडली लगभग सन् 1907 तक चलती रही. “शुक्लजी को तो मंडली की हर बात में नवीनता लाने की धुन सवार रहती थी. उन्होंने भाषा, भेष, भूषा, भाव आदि में सामयिकता एवं नवीनता का समावेश करके मंडली की ओर जनता को भलीभाँति आकृष्ट कर लिया. थोड़े ही दिनों में मंडली की यथेष्ट प्रसिद्धि हो गई.” (वही, पृष्ठ संख्या-402)कुछ मतभेद हो जाने पर इसका पुनर्गठन करते हुए इसका नाम ‘हिन्दी-नाट्य-समिति’ रखा गया. इस मंडली के अंतर्गत बाबू राधाकृष्ण दास के ‘महाराणा प्रताप’, पं माधव शुक्ल के ‘महाभारत’ आदि प्रसीध नाटको का मंचन किया गया. अधिकांश प्रस्तुतियों में पं. माधव शुक्ल और पं. महादेव भट्ट मुख्य भूमिकाओं में रहा करते थे. सन् 1916 में पं माधव शुक्ल कलकत्ता चले गए और वहां ‘नाट्य परिषद्’ की स्थापना की जिसका उद्देश्य भी ‘राजनीतिक जागृति का आवाहन्’ था. इसी कारण शुक्ल जी और उनसे जुड़े व्यक्तियों को ब्रिटिश सरकार का कठोर रुख भी सहना पड़ा, इन पर प्रतिबन्ध लगाया गया, जेल भी भेजा गया. असहयोग आन्दोलन में भी उक्त परिषद् ने उल्लेखनीय योगदान दिया.
कहना न होगा उक्त प्रस्ताव के माध्यम से आचार्य शिवपूजन सहाय की उस चिंता का परिचय मिलता है जो एक ओर तो अभिनय के नाम निम्नस्तरीय मनोरंजन परोस रही पारसी कंपनियों से व्याकुल है तो दूसरी ओर, रंगमंच को आजीविका का साधन बनाने वाले विशुद्ध रंगकर्मियों के सामने आते अर्थ-संकट से चिंतित है. वस्तुतः शिवपूजन जी पारसी रंगमंच के कुरुचिपूर्ण अभिनय से प्रभावित हो रही तत्कालीन जनता की रूचि का संस्कार करना चाहते थे. वे पारसी रंगमंच के सामने हिन्दी का साहित्यिक मंच खड़ा करना चाहते थे और इस कार्य को व्यावहारिक रूप देने के लिए उन्होंने मानसिक स्तर पर योजना भी बना रखी थी. जहां तक रंगकर्मियों की आजीविका का प्रश्न है – आज भी वे इस दिशा में निश्चिंत और सुरक्षित नहीं हैं.
उपर्युक्त समस्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि आचार्य शिवपूजन सहाय हिन्दी रंगमंच के सच्चे हितैषी और शुभचिंतक थे. उन्हें हिन्दी रंगमंच के विकास में अवरोध पैदा करने वाली स्थितियों और कारणों की पूरी जानकारी थी. इसलिए उनके द्वारा दिए गए सुझाव और समाधान उनकी सूक्ष्म पर्यवेक्षण क्षमता के परिचायक है. वस्तुतः शिवपूजन जी हिन्दी के रंगमंच को इतना समृद्ध, उन्नत और साहित्य-संस्कारी बनाना चाहते थे जिसमें नाटककार के साथ ही रंग-कलाकारों को भी पूरा सम्मान और उचित मानदेय मिले. कहना न होगा हिन्दी का रंगमंच आज भी इन समस्याओं से मुक्त नहीं हो पाया है जिनकी पहचान आचार्य शिवपूजन ने वर्षों पहले कर ली थी. यदि आज भी शिवपूजन जी के सुझाए गए मार्ग पर चला जाय तो निश्चित रूप से हिन्दी रंगमंच की समृद्धि के साथ ही विभिन्न प्रकार की समस्याओं से जूझ रही जनता की रूचि का भी संस्कार हो सकेगा.
जाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज(सांध्य) दि.वि.
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