लेख

कुछ अनुत्तरित प्रश्नों पर विचार

  • हर्षबाला शर्मा

(नेपथ्य राग – मीरा कान्त)

 

 

नेपथ्य राग’ मीरा कान्त का बहु चर्चित नाटक है. वर्तमान समय में कामकाजी स्त्रियों के सन्दर्भ में यह नाटक और ज्यादा  महत्वपूर्ण  है. पुरुष मानसिकता क्यों स्त्री की विद्वत्ता को मन से स्वीकार नहीं कर पाती ?  – कुछ ऐसे ही अनुत्तरित प्रश्नों पर विचार किया है हर्षबाला शर्मा ने इस लेख में. 
 
5 मार्च, 2013 का दिन, इन्द्रप्रस्थ कालेज का आडिटोरियम और उसमें बीचोबीच खड़ी
माया कृष्णा राव –––स्त्री की सशक्त कहानी रचते हुए–––एकल प्रस्तुति के माध्यम से–––
वाक वाक वाक
आई विल वाक विथ यू
डोन्ट वाक विथ हिम
आई विल वाक विथ यू
डोन्ट टॉक टू हिम
आई विल टॉक विथ यू
सारे सभागार में सन्नाटा । गिरतीउठती रोशनियाँ, तालियों की गूँज और मुझे एक क्षण को लगा कि कहीं पीछे खड़ी खना मुस्करा रही है–––बदलते समय की एक पुकार पर–––जहाँ यदि कोई साथ नहीं होगा तो भी खुद को साथ ही लेकर चलना होगा ।
उससे कुछ समय पूर्व, रंगमंच और स्त्री विषय पर कार्य करते हुए अनेक रंगकर्मियों और नाटककारों से मिलना हुआ–––डॉमीराकान्त से हुई चर्चापरिचर्चा में कुछ दूसरे मुद्दों के साथ स्त्री और नाटक के भीतर स्त्रीविषय पर भी चर्चा हुई । उनकी दृष्टि की स्पष्टता ने प्रभावित किया –––नाटक असल में अपनी अनुगूंजों से इतिहास रचते हैं । नाटक की एक व्याख्या नहीं होती । समय और देशकाल के अनुरूप अपनी अभिव्यंजनाओं को सार्थक करता नाटक असल में हाशिये के समाज के स्वर को उठाने में ही अपनी सार्थकता का निर्वाह करता है । विद्वता के बने बनाये सीमित दायरे को तोड़ते हुएµविद्वता की सामाजिकता को इतिहास से वर्तमान तक स्थापित करती मीराकान्त अपने नाटकों के मा/यम से एक नयी दस्तक देती हैं ।
मेरा मानना है कि स्त्री के पक्ष में लिखे जा रहे नाटक समाज की मानसिकता में परिवर्तन लाकर लिंगविभेद से मुक्त समतामूलक समाज की दिशा में बढ़ने के लिए, अपने हिस्से का योगदान तो देते ही हैं । चाहे वह मिथक युगीन सेतुनिर्माण में गिलहरी द्वारा निरन्तर रेतकण पहुँचाने जैसा प्रयास ही क्यों न हो । मगर ध्यान देना होगा कि ये स्त्री सरोकार व्यापक और बहु आयामी हों । स्त्री होने के नाते कुछ बुनियादी मुद्दों पर रहरहकर प्रहार करना शायद आज जरूरी हो गया है । जैसे कि हमारी बच्चियों को सबसे पहले जन्म लेने और जिन्दा रहने का हक मिले । भोजन, स्वास्थ्य व शिक्षा तक बिना भेदभाव के उनकी पूरी पहुँच हो । घरेलू बेगार पर रोक लगे इन्सान होने के नाते वे घर और बाहर हर स्थान पर बिना भय के आजा सके । उन्हें आर्थिक स्वतन्त्रता व निर्णयात्मक शक्ति मिले । जबकि अधिकतर हो यह रहा है कि स्त्री की बात हम सिर्फ देह से शुरू कर देह पर ही खत्म कर देते हैं । हम नारीदेह की मुक्ति और स्त्रीपुरुष सम्बंधों की परिसीमा में घूमघूमकर समझते हैं कि बस इसी से स्त्रीमुक्ति सम्भव है । स्त्री की हर शक्ति व सम्भावना को प्रस्फुटित होने का अवसर मिलेगा तो देह की मुक्ति तो स्वयं ही मिलेगी । हमारे आज के समाज में देह की मुक्ति सर्वमनहीं हो सकती । सही मायने में स्त्री के पक्ष में लिखे गये, सार्थक नाटक अवचेतन में प्रहार करके हमें मौजूदा स्थिति पर सोचने को मजबूर करते ही हैं ।
मीराकान्त स्त्री को देह मानने के विरोध में कलम उठाती हैं और विद्वता बनाम अस्तित्व के नकार का प्रश्न सामने रखती हैं । नेपथ्य राग’, ‘कंधे पर बैठा था शाप’, ‘मेघ प्रश्न’, ‘हुमा को उड़ जाने दो’, ‘भुवनेश्वर दर भुवनेश्वरसभी नाटकों में उन्होंने हाशिये पर कर दी गयी विद्वता को केन्द्र में लाने की जद्दोजहद की है–––प्रश्न भले ही कभी स्त्री के माध्यम से आया हो या पुरुष होने से–––महत्त्वपूर्ण यह नहीं हैं–––महत्त्व इस बात का है कि नकार देने और भुला देने वाले इस समाज की आँख में उँगली डालकर सच दिखाने का साहस उन्होंने किया–––जिसके कारण उनके नाटक आज की रचनाधर्मिता के केन्द्र में रखे जाने जरूरी हो गये हैं ।
नेपथ्य रागकी यह कथा यूँ ही दबे पाँव मीराकान्त के नाटकों के माध्यम से दस्तक देने का उपक्रम करने लगी हो, ऐसा नहीं । इसका अपना पूरा एक इतिहास है जिस इतिहास का साक्षी पंचम वेद कहा जाने वाला नाट्यशास्त्रहै । सहभागिता का प्रश्न कभीकभी प्राचीन युग में भी इतना महत्त्वपूर्ण जरूर हो उठा होगा कि उसके दबाव को महसूस करके नाटककारों ने भले ही इस प्रश्न को बहुत विस्तार न दिया हो पर उस पर चर्चा तो अवश्य की ।
नाट्यशास्त्र (अध्याय 10) में भाषा प्रयोग का विवरण इस प्रकार हैµ
‘‘उत्तम पात्र संस्कृत बोले किन्तु वे यदि दरिद्र हो जाए, तो प्राकृत बोले–––श्रमण, तपस्वी, भिक्षु, स्त्री, बालक आदि अशू’’ भाषा की यह कुलीनता नायिका को कभी केन्द्रीय चरित्र के रूप में संस्कृत नाटकों में स्थापित करती दिखाई नहीं देती । माँ, विरहिणी नायिका अथवा अलकापुरी की सम्भोग को आतुर कन्याएँ तो दिखती हैं पर केन्द्र बिन्दु के रूप में संघर्षरत नायिकाएँ दिखाई नहीं देती । शूद्रक के मृच्छकटिकमकी नायिका यद्यपि अपने निर्णय स्वयं लेती है परन्तु फिर भी स्वतन्त्र व्यक्तित्व का निदर्शन यहाँ भी दिखाई नहीं देता ।
हिन्दी नाटकों की आरम्भिक पृष्ठभूमि स्त्री की भावनात्मक और आर्थिक मुक्ति को केन्द्र में नहीं रखती । ब्रिटिश शासन से मुक्ति शायद इतना बड़ा प्रश्न था कि अन्य किसी भी प्रकार की मुक्ति इसके हाशिये में भी शामिल न हो सकी थीलिंग विशेष की मुक्ति साम्राज्यवाद से प्रच्छन्न मुक्ति तो हो सकती है पर वास्तविक मुक्ति के प्रश्नों को व्यापक स्तर पर देखना आवश्यक है––इस सत्य को जानने की प्रक्रिया यूँ तो भारतेन्दु से शुरू मानी जा सकती है पर इस पर सदय होकर विचार या तो आगा हश्र कश्मीरी के सीता वनवासनाटक के  पत्नी के मुख से निकले संवाद में मिलता है–––अथवा मोहन राकेश की अम्बिका में–––लम्बी जद्दोजहद के बाद नाटककारों ने अपने ही समाज के दायरों से निकलकर अब स्त्री की प्राथमिकताओं पर विचार करना शुरू किया है–––यूँ कहें कि दर्द आएगा जरूर, दबे पाँव ही सही ।
इस क्रम में नेपथ्य रागआज के समाज और प्राचीन समाज की कथा को जोड़ते हुए स्त्री की आकांक्षाओं एक विस्तार की कहानी कहता है । नेपथ्य रागमालव गण नायक चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय चैथीपात्र्चवीं शताब्दी की उज्जयिनी की ग्राम बाला खना की यह कहानी भारत के स्वर्णिम इतिहास में स्त्री के वैदुष्य के नकार की कहानी है । खना एक नाम भर है पर इस नाम के बहाने लिखा जाने वाला नाटक हर युग के भीतर मौजूद है, अपने समस्त रंग संकेतों के साथ ।
प्रस्तुत नाटक मिथकीय वातावरण में लिपटे हुए यथार्थ को समकालीन यथार्थ में गूँथकर प्रस्तुत करता है––––ऑफिस की बॉस एक स्त्री जिसका कुछ भी नाम हो सकता है–––यहाँ प्रतीकात्मक रूप से नाम मेधा चुन लिया गया है, अपने समाज की सत्तात्मक शक्तियों का सामना करती हुई जीनेखिलनेविकसित होने का दुस्साहस करती है । एक ऐसा दुस्साहस जो तीसरी दुनिया की औपनिवेशिक मानसिकता का सामना करती हर वो स्त्री कर रही है जो तालीबानी फरमानों के विरुद्ध पढ़ने जाती है तो कभी खुली हवा में साँस लेने का साहस जुटाती है–––शिक्षा देने वाली हर पुस्तक समानता में विश्वास करना सिखाती है । संविधान का पहला अनुच्छेद हमें जिम्मेदार नागरिक के रूप में परिभाषित करता है–––पर वास्तविकता इससे भिन्न है–––मेधा एक सुशिक्षित युवा स्त्री है । पुरुष सहकर्मियों द्वारा तिरस्कृत और परम्परा से प्राप्त अस्वीकार की मानसिकता से ग्रस्त ––––
(लेडी ऑफिसर–––यही तो प्राब्लम है (खो सी जाती है) परन्तु बर्दाश्त कहाँ कर पाते हैं मुझे वे लोग–––मेरे ज्यादातर फैसलों का विरोध करते हैं–––कमियाँ ढूँढ़ते हैं मुझमें–––दे फील चैलेंज्ड!
मेधा यह समझने में असमर्थ है कि समय भले ही बदल गया हो–––टाइम की इक्वेशन बदल रही हो पर आज भी विद्वता का सम्बन्ध लिंग से ही क्योंकर जोड़ा जाता है ?
असल में यह मुद्दा मात्र स्त्रीविमर्श या सत्तात्मक विमर्श भर ही नहीं है बल्कि इसका सीधा सम्बन्ध वर्गगत, लिंगगत खाँचों के साथसाथ मानसिकता से भी है । इस नाटक के भीतर और बाहर स्त्रियाँ ही हैं, नायिका के रूप में, इतिहास से गुजरकर आज के समय में जीती नायिका के रूप में और अपने समय में नायिका रह चुकी स्त्रियों के सामने सबसे बड़ा प्रश्न इसी अस्मिता की चुनौती का है–––मीराकान्त तीन पीढ़ियों के माध्यम से एक प्रश्न का सामना कर रही हैं, मेधा को लगता है कि यह समस्या आज के समय की है, उसकी समस्या को शायद उसकी माँ समझने में असमर्थ होंगी–––पर माँ ही नहीं दादी भी, शान्त दादी जिसे किसी मुद्दे पर बोलते हुए नाटक में कहीं नहीं सुना गया, वह दादी भी बराहकी कहानी जानती है, एक ही कथा के अनेक वर्जन मौजूद हैं,एक वर्जन यह भी है कि यही कि खना की जबान तो खुद बराह ने ही काटी थी, यह बात दादी की दादी ने बतायी थी–––हर युग की स्त्री इस कथा को अपने अन्दाज में बाँचती आई है–––और हर युग की स्त्री अपने समय की त्रासदी को जीवन का एक हिस्सा मानकर स्वीकार करती आयी है–––खना ने भी इस त्रासदी को स्वीकार कर ही लिया–––
खना(करुणामयी मुस्कान के साथ स्वगत) स्त्री सभासद–––––पिताश्री, आप तो व्यर्थ ही चिन्तित हैं । श्रावण क्या यह तो आषाढ़ से भी पहले के मेघ हैं । बरसेंगे नहीं । आषाढ़ अभी नहीं आया –––नहीं आया–––आषाढ़ आने में कई संवत्सर बीत जाएँगे ।–––कई युग–––यह नेपथ्य है–––इसे मंच तक पहुँचने में समय लगेगा–––कल्पान्त–––कई युग ।
खना के पास शायद विकल्पहीनता की स्थिति थी, पर आज की मेधा के सामने इस स्थिति को सुलझाना उतना मुश्किल नहीं है ।
पितृसत्ता प्रत्येक समाज के लिए एक चुनौती है । जहाँ आज भी स्त्रियों का संघर्ष हाशिये से केन्द्र में आने का चल ही रहा है । एक ऐसे नेपथ्य राग के रूप में जो कभी सुना ही नहीं जाता ।
जिह्वाविहीन स्त्री समाज में युगों से स्वीकार्य हैनेपथ्य रागभी एक जिह्वा काट दी गयी स्त्री का दर्द भरा राग है–––जिह्वा प्रत्यक्ष रूप से काट ही दी जाये जरूरी नहीं, इसीलिए नाटककार भी इस कहानी के अनेक वर्जन प्रस्तुत कर देती हैं पर आज भी यह जिह्वा अनेक तरीकों से काटी और सिली जा रही है–––मीराकान्त इस ओर संकेत भर करती हैं–––परिवर्तन के लिए तो नेपथ्य से ही नहीं मंच से भी बाहर आकर प्रयास करना होगा ।
मीराकान्त आज की एक महत्त्वपूर्ण नाटककार हैं जिन्होंने स्त्री भाषा को सशक्त रूप प्रदान करते हुए नेपथ्य रागकी खना को ऐतिहासिक युग से आधुनिक युग की यात्रा कराते हुए आधुनिक स्त्री की पीड़ा को व्यक्त किया है । खना की पीड़ा पुरातन युग की पीड़ा ही नहीं रह जाती बल्कि आधुनिक युग की त्रासदी को भी साकार कर देती है ।
 खना का ज्ञान और कीर्ति का प्रकाश उसे विक्रमादित्य के दरबार तक ले जाता है परन्तु पुरुष प्रधान समाज इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं । खना के जिस बन्धु काका ने जीवनभर उसे आगे बढ़ाया आज उनकी आँखों में ही खना को मौन निराशा दिखाई देती है_
 ‘‘सुबन्धु भट्टआज तुमसे कहता हूँ कि यह सब इतना सहज नहीं है ।’’ ‘‘खना % मैं स्त्री हूँ इसीलिए ?’’ (सुबन्धु भट्ट खना की ओर अर्थपूर्ण दृष्टि से देखते हैं परन्तु उत्तर नहीं देते)
खना –  आपने मुझे जीवन में सदैव आशावादी बने रहने की शिक्षा दी हैµआज आपकी आँखों में यह मौन निराशा क्यों ? (कुछ क्षण ठहरकर, क्या हमने कभी सोचा था कि आचार्य मिहिर मुझे शिष्या के रूप में स्वीकार करेंगे ? या मैं उनके कुल की वधू बनूँगी ?
 सुबन्धु –  (उदास स्वर में) वह भिन्न प्रसंग है ।
खना –  बन्धु  काका, बचपन से आपसे एक कथा सुनती आयी हूँ, अरुन्धती की कथा । क्या उस अरुन्धती को आकाश में सप्तर्षि मण्डल के पास दिव्य स्थान प्राप्त नहीं हुआ ? स्त्री हुई तो क्या ? सुबन्धु भट्ट (नि:श्वास छोड़कर) हाँ हुआ, परन्तु अपने पतिव्रता धर्म की विशेषता के कारण, अपने वैदुष्य के कारण नहीं, वैदुष्य के कारण नहीं । (सँभलकर) आशाएँ बनी रहें, परन्तु, यह इतना सहज नहीं । कितनी त्रासद स्थिति है और कितना त्रासद सत्य! वास्तव में स्त्री को समाज उसके पातिव्रत्य /ार्म के कारण ही सम्मान देता है । उसके वैदुष्य को समाज कभी स्वीकार नहीं कर सकता । स्वयं खना के गुरु वराह मिहिर भी सभा के मध्य जिह्वाविहीन स्त्री सभासद के होने की स्थिति को स्वीकार कर लेते हैं ।
नेपथ्य रागखना की चुप्पी के माध्यम से कई प्रश्नों को जन्म देता हैपहला कि खना की यह नियति उसके स्त्रीत्व का नकार है या उसके वैदुष्य का! दूसरा कि सहिष्णु कहा जाने वाला भारतीय समाज स्त्रीत्व और वैदुष्य के मध्य सम्बन्ध जोड़कर देखने में इतना असहिष्णु कैसे हो सकता है! तीसरा कि क्या काल की निरन्तरता का दावा करने वाले इस समाज में पीड़ाएँ भी निरन्तर गतिमान रहेंगी ? क्या काल को प्रवाह में देखने वाले हम कुछ अनुचित मान्यताओं को भी परम्परा के नाम पर आगे ले जाने का दम्भ भरते रहेंगे ? क्या खना के माध्यम से उभरे प्रश्न ही हमारी नियति बनकर रहेंगे ? या हम अपने टाईम से इक्वेट करके इन प्रश्नों पर सदय होकर विचार कर सकेंगे ? असल में इस नाटक को कई परतों पर पढ़ा, खेला और वाचित किया जा सकता है–––नाटक की सार्थकता भी इसी में है कि वह संतहमत जीमद सपमि भले ही न हो पर जीवन सत्य से जूझने को बाध्य अवश्य करे । यह नाटक खना की चुप्पीकटी हुई जिह्वाकहानी के हर मोड़ पर उसके वैदुष्य और प्रतिभा के नकार से आज की स्त्री की समस्या को दर्शाता हैप्रश्न यह भी है कि आज शिक्षा और समानता के प्रचार के बावजूद क्या स्थितियाँ बदली हैंमाँ अपनी पहली नियुक्ति की चर्चा करते हुए इस प्रश्न को हलके से छू भर देती है
यह विरासत में मिला है क्या करें वे–––मैं जब पहली बार मजिस्ट्रेट बनकर गयी थी तो मेरा चपरासी–––मेरे सब ऑर्डिनेट मुझे सर कहकर बुलाते थे । उनके लिए मैं मैडम नहीं सर थी (अभिनयसा करते हुए) सर!
मेधा इस प्रश्न की तह को हौले से हाथ लगाते हुए मानो किसी भीतरी जंगल में उतरते हुए अपने नित देखे स्वप्न को आवाज देती हैबेचारों ने कहाँ सोचा होगा कि औरत की मातहती करनी होगी ।
यह पितृसत्ता का एक ऐसा क्रूरतम चेहरा है जहाँ पहुँचकर वर्गभेद की खाई पट जाती है–––लिंग ही प्रधान रह जाता है–––वीर भोग्या वसुन्धरा का अहंकार प्रमुख बन जाता हैस्त्री भाषा के मुहावरे में रसपगी भाषा और भावों के सहारे मीराकान्त युगों की पीड़ा के तन्तुओं को राईरेशे के साथ समवेत कर दोनों को एक सूत्र में पिरो देती हैं । इसीलिए वह स्वयं भी यही कहती हैंनाटक के अन्त में मेधा के समक्ष यह बात खुलती है कि दादी भी खना और वराहमिहिर की कथा जानती हैं चाहे वे वराह को बराहके नाम से जानें या उनके हिस्से में कथा का कोई और ही अन्त आया हो । यह युगयुगान्तर से चले आ रहे लिंगविभेद की कथा है इसलिए, तीनों पीढ़ियाँ, एक साथ इस पर चर्चा कर पाती हैं । दादी को लाने का उद्देश्य भी यह बताना था कि हमारी आधुनिक स्त्री पात्र मेधा आज के समय में कार्यालय में जिन स्थितियों का सामना कर रही है वह समसामयिक समस्या होते  हुए, भी पितृसत्तात्मक समाज की, ‘शाश्वतसमस्या है । मगर अब मौजूदा तीनों पीढ़ियों में इसे देखने व महसूस करने का भिन्नभिन्न नजरिया है । यानी संवेदनशीलता का स्तर बदल रहा है । कथा के अन्त के तीन मत देने के पीछे भी मकसद यही बताना है कि अन्त यह हुआ हो या वह मगर अन्तिम सत्य यह है कि खना सभासद नहीं बनी और वही ज्यादा महत्त्वपूर्ण है । यानी इस पुरुष मानसिकता वाले समाज में देह के स्तर पर तो स्त्री का सदैव स्वागत हुआ है पर मेधा के स्तर पर नहीं । तभी खना की जिह्वा काटने की शर्त रखी गयी थी हाथपैर काटने की नहीं । अभिव्यक्ति रहित स्त्री को ही इस समाज ने हमेशा स्वीकार किया है । मगर मेधा जागरुक हो रही है और इसके विरोध में संघर्षरत है ।
नाटक कथावाचन शैली में लिखा गया है । तेरह दृश्यों में विभाजित यह नाटक दर्शक को दो युगों की एक साथ यात्रा पर ले चलता है । कभी उसके समीप खड़ा रखकर तो कभी हाथ बढ़ाकर भीतर प्रवेश कराकर,कभी भाषा के बदलाव के जरिये तो कभी साथसाथ चलते हुए,पहले ही दृश्य से कहानी भीतर कहानी की परतें दर्शक के सामने खुलने लगती हैं.
पहला दृश्य,एक आधुनिक ढंग का कमरा –– नाटककार को यहाँ भी साजोसामान और किसी विशेष वेशभूषा की आवश्यकता नहीं होती, साधारण ढंग से हैण्डलूम की साड़ी में माँ और पैण्टशर्ट में बेटी दिखाई देती है,पहले और अन्तिम दृश्य में यही सज्जा है,बाकी के सारे दृश्यों में माँ और बेटी मेधा खना के साथ घटित होते दृश्यों की साक्षी बनते हैं, रंगसंकेतों के माध्यम से भी परतों की मन:स्थिति साकार और व्यंजित होती है ।
संयत स्वर में,माँ, स्वर में परेशानी, मेधास्वर में आर्द्रतामेधा, खीझ के साथ,मेधा, खुद को निरखकर, मेधा, बेपरवाही सेमाँ, यह कुछ ऐसे रंगसंकेत हैं जो दो व्यक्तियों के बिना कुछ कहे भी उनके अन्तर्द्वन्द्व को उभारने में सहायक हैं.इतिहास और मिथक में अन्तर न करने वाला यह देश निरन्तरता में विश्वास रखता है, यह निरन्तरता सम्पूर्ण नाटक में विद्यमान हैµअतीत के साथ चलता वर्तमान और उससे नित प्रेरित होता भी, जयदेव तनेजा लिखते हैंहम भारतीय चूँकि काल को सतत प्रवाहमान मानते हैं इसलिए व्यतीत और भविष्य के लिए एक ही शब्द (कल) का प्रयोग करते हैं । वर्तमान के दोनों सिरे इस काल के दोनों सिरों से अविभाज्य रूप से जुड़े हैं । हम कालातीत अनुभव में विश्वास करते हैं । यही कारण है कि नेपथ्य रागका कार्यव्यापार अतीत और वर्तमान में एक साथ चलता है । दोनों कालों में चरित्रों की निरन्तर उपस्थिति और सहज आवाजाही को नाटककार ने रचनात्मक सूझबूझ से एक ही सूत्र में पिरोया है–––पाँचवे दृश्य में खना के विवाह के अवसर पर उसकी अपनी माँ की जगह मेधा की माँ का पार्श्व से केन्द्र में जाकर चुनरी पहनाना भी नाटकीय और अर्थपूर्ण हैं.(आधुनिक नाट्य विमर्श पेज–276)
यह नाटकीयता सम्पूर्ण नाटक को आज के युग से जोड़ने और संवेदना के सतत प्रवाह को दर्शाने में महती भूमिका निभाती है–––
दूसरे दृश्य से खना के अद्भुत ज्ञान और उसकी ज्ञान पिपासा को सरलता से अनुभव किया जा सकता है–––भूखे की क्षुधा के समान अथाह ज्ञानसागर के भीतर उतरने की चाह उसके रोमरोम में विद्यमान है. अरुन्धती को देखते हुए उसी के समान ज्ञान का एक तारा बनकर सभी के जीवन को प्रकाशित करने की चाह उसके मन में विद्यमान है । इसीलिए वह वराह मिहिर के ललाट पर किसी के सौभाग्य चिह्न के आशीर्वाद से कुछ अधिक चाहती है, जीवन को अवनि से अम्बर तक आत्मसात करनाचाहती है, स्थूल ज्ञान चक्षुओं को ज्ञान चक्षु बनाने की चाह देश और काल की कारा से मुक्त दृष्टि भय से मुक्ति से पूर्ण ज्ञानज्ञान की यह अद्भुत पिपासा देखकर वराहमिहिर ही नहीं दर्शक भी मंत्रमुग्ध है–––क्या कन्या जीवन का अर्थ मात्र सौभाग्य चिह्वों की पूति से ही तृप्ति मात्र है– ? यह प्रश्न पूरे नाटक में अनुगूँजित रहता है–––दर्शक इस प्रश्न पर नये सिरे से विचार करे और अपने जीवन में आने वाली स्त्रियों के लिए भी अपनी जीवन दृष्टि बदल सके, तो नाटक में पसरी चुप्पी अर्थवान हो उठती है ।
पृथुयशस परम्परावादी लीक पर ज्योतिष में ही नहीं जीवन में भी चलता है–––इस नाटक की भाषा एक वास्तविक रंगभाषा का सृजन करती है जो हर शब्द और वाक्य के जरिये अनेक व्यंजनाओं को जीवन्त करती चली जाती है । पृथुयशस ज्ञान के संवेद कणों में भी सौन्दर्य का स्वेद देख लेता है पर खना उस क्षण को महसूस भी नहीं कर पाई थी । सुबन्धु भट्ट से विवाह की चर्चा सुनकर खना अचरज में हैµकि ज्ञान मार्ग में भी लिंगीय भेद इतने प्रबल क्यों है ?
सुबन्धु भट्ट खना के काका ही नहीं उसके मित्र भी है,जिनके मुख से नाटककार ने एक वृहद सत्य कहलवाया है, यह संसार पुरुषों का संसार है
अत्यन्त सुरुचि, सादगी और प्रतीकात्मकता से विवाह को मन्त्रोच्चार से जोड़कर आधुनिक समय की माँ और प्राचीन माँ में एकात्म कायम करते हुए, वरवधू को सुख, समृद्धि का आशीर्वाद प्राप्त होता है–––रंगसंकेतों की दुनिया से एक बार फिर नाटककार दो व्यक्तियों के जीवन के प्रति दृष्टिकोण की भिन्नता को दर्शाती हैं–––प्रसन्नता छलकाते हुए कोमल स्वर, विनोद से, स्नेह बंधन से घेरते हुए, पृथुयशस काँपते स्वर में, विचारों में डूबी हुई, आश्चर्य से, स्वयं में खोकर, खना महाराज चन्द्रगुप्त खना के ज्ञान से प्रभावित होकर उसे अपनी राज्यसभा में सभासद बनाना चाहते है, सभासद बनने के प्रस्ताव और सभासद बनने की कार्यवाही का कभी सम्पन्न न हो पाना ही दृश्य सात से तेरह तक पिरोया गया है । इन दृश्यों के म/य न जाने कितने ही कटु सत्यों का साक्षात्कार दर्शक करता है । सहज गतिमान सरल परन्तु अभिव्यंजना से पूर्ण संवादों के माध्यम से नक्षत्रो की गणना ही नहीं होती बल्कि धीर गंभीर व्यक्तित्वों के भीतरी खोखलेपन का भी साक्षात्कार होता है ।
सर्वप्रथम महादेवी के मन की असुरक्षा के दर्शन होते हैं । महादेवी होते हुए भी वह एक स्त्री हैं जिनका और कोई वैशिष्ट्य नहीं । मात्र इसके सिवा कि वह चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य की पत्नी हैं । यही उनका गर्व है और यही उनकी सीमा भीµखना के प्रति एक तरफ उनके मन का सन्देह और दूसरी ओर ज्योतिषीय तैल की चर्चा उनके इसी सन्देह को दर्शाते हैं–––आहत महादेवी कहींकहीं इस पीड़ा को भीतर ही भीतर पहले ही जीती रही है न जाने कब से और किसकिस रूप में–––
खना यहीं महादेवी से स्त्रीपुरुष के प्रति समाज के भिन्न दृष्टिकोण की चर्चा करती हैµमहादेवी का स्वगत और प्रकट वक्तव्य उनकी पीड़ा को ही दर्शाता है
महादेवीय (स्वगत) तुम् एक स्त्री की बात कर रही हो! उनकी संख्या तो न जाने कितनी हो! राष्ट्र की महादेवी हूँ तो क्या,सम्भवत: मैं भी––––(प्रकट) इतने गहरे प्रश्न मत छेड़ो! ऐसे तो जीवन दूभर हो जाएगा ।
महादेवी जानती है कि महाराज के मन में भी दुविधा है,पता नहीं सभासद बनकर भी खना की विद्वता की स्वीकृति होती अथवा उसका सौन्दर्य ही उसके ज्ञान की परख का केन्द्र बन जाता । नाटककार एक हल्कासा संकेत करके महादेवी की दुविधा को जीवन्त कर देती है, प्रश्न यहाँ भी स्त्री के रूप बनाम विद्वता का ही है, पर इससे अधिक महत्त्वपूर्ण है उन विद्वान कहे जाने वाले सभासदों का व्यवहारµजो अपनेअपने क्षेत्रों में क्रान्ति का दावा करते हैं, जो एक नयी क्रान्ति के सूत्रधार हो सकते थे, वे सब विद्वता के नकार के साक्षी ही नहीं बनते बल्कि स्त्री और दासों के प्रति अपनी असहिष्णु दृष्टि के स्थापक बनने में भी परहेज नहीं करते । राजा भी,ज्ञान, विज्ञान, साहित्य और कला के मर्मज्ञ विद्वानों की इस सभा के व्यवहार से अचम्भित है, नाटकीयता का यह पहलू दर्शक समाज की बनी बनाई दृष्टि को झकझोरने में भी समर्थ है । मालव गण नायक की निराशा समाज के वृद्वजनों की भी निराशा बन जाती है ।
सबसे नाटकीय क्षण वह है, जहाँ वराह मिहिर तटस्थता को स्वीकार करते हुए उन सभी सभासदों का साथ देते हैं यहाँ दर्शक समाज और पाठक के भीतर एक प्रश्न निरन्तर कुलबुलाता है कि क्या यदि खना के स्थान पर वराहमिहिर का कोई और शिष्य अथवा पुत्र ही इतना योग्य होता तो वे सभी सभासदों के समक्ष इतने ही तटस्थ रह पाते, भले ही वह स्वयं कहते हैं–––
(दुख के साथ) स्त्री जातकों की हृदय से भूरिभूरि प्रशंसा लिखने वाला मैं वृहद जातक ग्रन्थ का प्रणेता आचार्य वराह मिहिर आज जीवन में स्त्री के प्रश्न को लेकर बहुत साधारण हो गया । मैंने सर्वसम्मति की ओट में अपने व्यक्तिगत मत पर अवगुण्ठन डालने की चेष्टा की–––उसे छिपाया ।
तटस्थता वास्तव में कोई गुण नहींµएक प्रकार से अनुचित को मौन स्वीकृति देना है । आगे की कथा तो अपनेअपने वर्जन में निहित हो सकती है–––पर इस नाटक की सार्थकता यही है कि यह उन वर्जनाओं से लेकर उन छिपे हुए प्रश्नों से हमारा साक्षात्कार कराता है जिनकी आड़ में हम सब बहुत से अनुचित कार्यों के सहभागी बनते चले जाते हैं––––नारी को श्रद्धा मानने की ओट में हम बुद्धि के तिरस्कार की जिस परम्परा को ढोते चले जा रहे हैं उस परम्परा ने स्त्री समाज को हाशिये पर धकेलने में बड़ी भूमिका निभायी है–––क्या आधी आबादी की पीड़ा से साक्षात्कार कराता यह नाटक यूँ ही भुला दिया जाने योग्य है ?
मीराकान्त का यह नाटक उस प्रस्तावित मान्यता का विरोध करता है जहाँ स्त्रियों के जीवन की सार्थकता का सम्बन्ध मात्र गृहस्थ जीवन से है–––पति सेवा में मुक्ति और उसी सेवा से परलोक के सुधार को तय करती स्त्रियों से अलग ज्ञान की तलाश और उस तलाश से सार्थक होने ही चाह इतनी बड़ी तो नहीं कि समाज उस चाह के स्वर का ही दमन कर दे–––तो क्या मान लिया जाये कि श्रावण क्या अभी तो आषाढ़ भी नहीं हैं–– पूर्वाषाढ़ है––यह नेपथ्य है–––नेपथ्य–––’
जिह्वाविहीन स्त्री और जिह्वाविहीन कर दी जाती स्त्री की पीड़ा को अभिव्यक्त करता यह नाटक शताब्दियों से चले आ रहे शोषण के विरोध में नयी सोच प्रस्तावित करता है–––मेधा के रूप में–––दादी की दादी से सुनी यह कहानी अब मेधा दादी बनकर अपनी पुत्री को इस रूप में नहीं सुनाएगी, यह नाटककार की ही नहीं दर्शक समाज की भी जिम्मेदारी है–––जिसे यह नाटक अनेक प्रतीकों के मा/यम से प्रस्तावित करता है–––
इस नाटक की भाषा भी दो युगों में यात्रा करती है और इस दृष्टि से कठिन सरल की प्रस्तावित दुनिया से अलग अपने युग की भाषा बनकर उभरती है युग को व्यंजित करती भाषा दो युगों की बदलती संवेदना भूमि को भी दर्शाने की वाहिका बनकर आती है ।
इस नाटक की प्रतीकात्मकता और व्यंजना को एक अन्य स्तर पर भी पहचाने जाने के जरूरत है–––जहाँ नाटककार अत्यन्त सूक्ष्मता से मेधा के अतिरिक्त आधुनिक समय में भी माँ और दादी के नाम की चर्चा नहीं करती क्या दर्शक समाज के मन में यह प्रश्न उठा होगा कि मेधा की माँ और दादी का भी कोई नाम है या विवाह के पश्चात उनकी आइडेण्टिटी बस माँ और दादी होने से ही जोड़ दी गयी ? मेरे मन में तो यह प्रश्न जन्मा है ? चलिये कभी अपने भीतर बैठे और बाहर मिलते दर्शक समाज से मिलकर भी इस पर चर्चा कर ली जाये––––इति ।

 

हर्षबाला शर्मा – जन्म – 7 जुलाई 1978, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश । एम–, एमफिल, पीएचडी। नाटक, रंगमंच, स्त्रीविमर्श, समाज भाषा विज्ञान से सम्बन्धित कई लेख व पुस्तकें प्रकाशित । हिन्दी विभाग, इन्द्रप्रस्थ महाविद्यालय, दिल्ली में प्राध्यापन.

 

 

samved

साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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harsha
5 years ago

बहुत शुक्रिया

Unknown
6 years ago

आपका लेख पसंद आया।

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