विघटन के क्षण : गाँव से शहर की ओर
- मृत्युंजय पाण्डेय
प्रेमचन्द आजीवन संयुक्त परिवार के समर्थक रहे। परिवार का टूटना उनसे बर्दाश्त नहीं होता है। परिवार को विघटित होते देख उनके हृदय में एक कसक-सी उठती है। परिवार के टूटने के साथ उनका मन भी टूट जाता है। इसलिए, वे लगभग अपनी सभी रचनाओं में समझौता करवाते हैं। परिवार की रक्षा के लिए कोई-न-कोई सदस्य झुक जाता है। वह अपने आप को बदल डालता है। उदाहरण के तौर पर उनकी ‘बड़े घर की बेटी’ कहानी को देखा जा सकता है। आनंदी परिवार की रक्षा के लिए अपने सारे अपमान को भुला देती है। अपनी बेइज्ज़ती को भुलाकर वह बिगड़ी हुई बात बना लेती है। प्रेमचन्द की इस कहानी में हम देखते हैं कि परिवार के टूटने का मुख्य कारण आर्थिक है। डॉ रामविलास शर्मा इस आर्थिक कारण को और विस्तार देते हुए लिखते हैं— “…पारिवारिक झगड़ों का मूल रहा है आर्थिक—जमीन की कमी, लगान का बढ़ना, कर्ज का बोझ, स्त्रियों को काम न मिलना, मर्द की बेकारी, एक का कमाना और दस को खिलाना—और जब तक लोगों की यह आर्थिक कठिनाइयाँ दूर नहीं होतीं तब तक उनका पारिवारिक जीवन भी सुखी नहीं हो सकता।” रामविलास जी ने ठीक जगह उँगली रखी है। आज भी परिवार के टूटने की मुख्य वजह आर्थिक ही है। इन सारी वजहों में एक वजह आप शहरीकरण और बाजार भी जोड़ सकते हैं। भारत गाँवों का देश है। इसका विकास गाँवों के विकास के ऊपर ही निर्भर है। आजादी के बाद होना यह चाहिए था कि भारत का विकास गाँवों से होता, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि किसानों ने शहर की राह पकड़ी। गाँव में उन्हें आवश्यक जरूरत की चीजें भी उपलब्ध नहीं हो पा रही थीं। इसलिए नयी पीढ़ी रोजी-रोटी की तलाश में शहर की ओर गयी। गाँव में स्कूल, कॉलेज या अस्पताल आदि की कमी है, शहर जाने का एक कारण यह भी है। हम इस सच्चाई को झुठला नहीं सकते कि गाँव में पैसा नहीं है और बिना पैसा कुछ हो नहीं सकता। पैसा तो शहर में ही खनकता है। गाँव में महीनों खटते रह जाएँगे, लेकिन देह पर साबित वस्त्र न ठहरेगा। बच्चों को दूध मुश्किल से मिल पाता है। औद्योगीकरण ने लोगों के मन में एक सपना जगाया और इस सपने को सच करने के लिए गाँव की पगडंडी शहर से जा मिली। थोड़ा आगे बढ़कर कहें तो, गाँव की पगडंडी शहर में खो गयी। प्रेमचन्द का गोबर भी आर्थिक कठिनाइयों के चलते गाँव छोड़ शहर की राह पकड़ता है। प्रेमचन्द के यहाँ हम देखते हैं कि नयी पीढ़ी शहर तो जा रही है, लेकिन पुरानी पीढ़ी (होरी) को मरजाद का मोह, गाँव छोड़कर जाने नहीं देता। आर्थिक कठिनाइयों को झेलते हुए वह गाँव में ही मर जाता है। वह अपने आप को गाँव से अलग करके नहीं देख पाता। परिवार न टूटे इसके लिए प्रेमचन्द अपनी रचनाओं में समझौता करवाते हैं। लेकिन उनकी इन्हीं रचनाओं में यह भी दिखता है कि महज समझौते से परिवार को टूटने से नहीं बचाया जा सकता। समझौता आर्थिक कठिनाइयों का हल नहीं है। सम्भव है समझौते के द्वारा थोड़े दिनों तक परिवार न टूटे। मेलमिलाप से परिवार नामक गाड़ी कुछ दूरी और तय कर सके। लेकिन इनके बीच बहने वाली हवा में एक खटास तो होगी। वे साथ रहते हुए भी अलग-अलग रहेंगे। उस मकान की तरह, जो बाहर से देखने में एक होता है, लेकिन कमरे अलग-अलग होते हैं। एक कमरे का दूसरे से सम्बन्ध नहीं होता। परिवार के सदस्य भी आज अलग-अलग ही जीवन जी रहे हैं। कई दिनों तक वे एक-दूसरे से बोलते तक नहीं। पिता-पुत्र का संवाद फोन में सिमटकर रह गया है। बातें न करने से बातें गुम हो गयी हैं।
फणीश्वरनाथ रेणु यह भली-भाँति जान चुके थे कि अब समझौते के द्वारा परिवार की गाड़ी नहीं चल सकती। आजादी के बाद भारतीय गाँवों की जो स्थिति हुई उसमें परिवार को टूटना ही था। परिवार टूटने से रेणु का मन भी टूट रहा था। प्रेमचन्द जिस दुख से गुजर रहे थे, उस दुख को रेणु भी झेलते हैं। परिवार को अलग होते देख रेणु का दिल मसोस कर रह जाता है। उनकी आत्मा तड़प उठती है। लेकिन वे प्रेमचन्द की तरह समझौता नहीं करवाते। परिवार के टूटन के साथ रेणु के यहाँ एक और चीज टूटती है और वह है— गाँवों का विघटन। रेणु की रचनाओं की सबसे बड़ी समस्या यही है। रेणु परस्पर इन दोनों समस्याओं में आवाजही करते रहे हैं। रेणु का गाँव से अटूट लगाव था। गाँव के खेत-खलिहान, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, नदी-पोखर आदि में उनके प्राण बसते थे।
रेणु की ‘विघटन के क्षण’ गाँव छोड़ शहर जाने की कथा है। यह कहानी पहली बार जनवरी-फरवरी, 1966 में कथाकार कमलेश्वर के सम्पादन में ‘नई धारा’ पत्रिका के वृहद् कहानी विशेषांक) में प्रकाशित हुई थी। आजादी के साथ गाँवों के विघटन की प्रक्रिया शुरू होती है। 1954 में रेणु का ‘मैला आँचल’ उपन्यास प्रकाशित होता है। इसमें रेणु ने दिखाया है कि गाँव के लोग मजदूरी करने के लिए शहर की ओर जा रहे हैं। मेरीगंज का एक किसान कहता है— “कटिहार में एक जूट मिल और खुला है। तीन जूट मिल?… चलो, चलो, दो रुपैया रोज मजदूरी मिलती है। गाँव में अब क्या रखा है !” यह निराशा और मोहभंग गाँधी जी की हत्या के बाद जन्म लेता है। गाँववालों को एक गाँधी जी पर विश्वास था, उन्हें भी मार दिया जाता है। गाँव के बारे में, गरीबों के बारे में सोचने वाला अब कोई नहीं रहा। ध्यान रहे, ‘मैला आँचल’ 1946 से 1948 तक की कथा है। 1956 में रेणु की ‘तीसरी कसम’ कहानी प्रकाशित होती है। इसमें लालमोहर का नौकर लहसनवा कहता है— “गाँव में क्या है जो जाएँगे !” आजादी के बाद होना यह चाहिए था कि लोग अपने घर को लौटते, लेकिन हुआ ठीक इसके उल्टा। लोग अपने बाप-दादा की डीह को छोड़ने लगे। उससे दूर जाने लगे।
‘विघटन के क्षण’ कहानी की शुरुआत रानीडिह में मनाए जाने वाले शामा-चकेवा पर्व से होती है। रेणु लिखते हैं— “बहुत दिनों के बाद—कोई पाँच बरस के बाद—धूमधाम से ‘शामा-चकेवा’ पर्व मनाया है रानीडिह की कुमारियों ने।” पिछले पाँच वर्ष से रानीडिह में शामा-चकेवा पर्व ‘लैंड सर्वे सेटलमेंट’ की वजह से नहीं मना है। लैंड सर्वे सेटलमेंट यानी जमीन की फिर से पैमाइश। भूमि पर बँटैयादारों, आधीदारों का हक दिलाने का कानून। चार आदमी खेत के चारों ओर खड़ा होकर गवाही दे दें, बस हो गया जमीन। कागजी सबूत की जरूरत नहीं। इस सर्वे का परिणाम यह हुआ कि “…गाँव में न कोई पर्व ही धूमधाम से मनाया गया है और न ही किसी त्योहार में बाजे ही बजे हैं। इस दरम्यान, संसार में आने वाले नये मेहमानों के स्वागत में—सोहर का गीत, सो भी नहीं गाया गया। लड़के-लड़कियों के ब्याह रुके हुए हैं।… गीत के नाम पर किसी के पास एक शब्द भी नहीं रह गया है मानो। मधुमख्खी के सूखे मधुचक्र-सी बन गयी है यह दुनिया!” रेणु ने ‘परती : परिकथा’ उपन्यास में इस पर्व पर विस्तार से लिखा है— “जिस साल सर्वे शुरू हुआ, उस साल से एकदम बन्द। गाँव की बड़ी-बुढ़ियों ने कहा— “कहाँ खेलेगी शामा-चकेवा! कोई भी अपने जमीन में खेलने नहीं देगा।… फुटबॉल खेलने का मैदान स्कूल वाला दर्ज हो गया। कबड्डी खेल हो या फुटबाल, चाहे शामा-चकेवा पर्व। सर्वे के परचे में दर्ज हो ही जाएगा।” इसीलिए जमीन वालों ने कहा— “नहीं, मेरी जमीन में नहीं। एक पर्व मनाकर मुफ्त में जमीन नहीं छिनवानी है। दर्ज हो जाएगा कि यह शामा-चकेवा खेलने का मैदान है।” इस सर्वे से कुछ फायदे हुए तो कुछ नुकसान भी हुआ। इसकी वजह से, रिश्तों के बीच जो विश्वास और भरोसे की दीवार थी वह गिर गयी। भाई-भाई पर, बाप-बेटे पर और ससुर-बहू पर अविश्वास करने लगा। मन की यह खटास मिटने में पाँच वर्षों से भी अधिक का समय लग गया।
शामा-चकेवा मुख्य रूप से लड़कियों का त्योहार है, इसमें पुरुष शामिल नहीं होते। रेणु इस त्योहार के बारे में अपने मित्र अरुण कौल को लिखते हैं— “12 दिसम्बर को उत्तर बिहार में ‘सामा-चकेवा’ पर्व मानाया जाएगा—दरभंगा जिला में—मधुबनी क्षेत्र में उस समय जाकर मिट्टी के पुतले की कारीगरी और उन पर की गयी चित्रकारियों का चित्रांकन आप कर सकते हैं। किन्तु, महिलाओं के इस उत्सव में पुरुषों का सम्मिलित होना वर्जित है। इसलिए—‘सामा-चकेवा’ के गीतों को उत्सव के साथ फिल्माना कठिन-सा लगता है।” अरुण कौल जी शामा-चकेवा पर्व और उसके गीत के साथ एक फिल्म की शूटिंग करना चाहते थे। लोकेशन देखने के लिए वे वहाँ गए भी थे। शामा-चकेवा पर्व में सिर्फ शामा-चकेवा की जोड़ी ही नहीं आती, बल्कि सैकड़ों किस्म की चिड़ियाँ उतरती हैं। इस पर्व की सूचना सबसे पहले खंजन पक्षी लेकर आता है। दूसरे शब्दों में वह शामा-चकेवा का संदेश लेकर आता है। रेणु लिखते हैं— “मिट्टी का शामा, मिट्टी का चकेवा ! छोटे-छोटे दर्जनों किस्म के पछियों के पुतले ! अन्दी धान के चावल का पिठार घोलती है। पोतती है प्रत्येक पुतले को। इसके बाद लिपे-पुते सफेद पुतलों पर, पुतलों के पांखों पर, आँखों पर तरह-तरह के रंग-टीप, फूल-लत्ति। लाल, हरे, नीले, बैंगनी, सुगापंखी, नीलकंठी। पुतले ब्याही बहनें बना देती हैं। बुढ़ियाँ रंग-टीपकारी आदि कर देती हैं।” रेणु लोकसंस्कृति से गहरे जुड़े हुए थे। उनके पास गाँव के हर एक पर्व-त्योहार का लेखा-जोखा था। ‘विघटन के क्षण’ कहानी में वे एक ही साँस में न जाने कितने पक्षियों के नाम गिनवा डालते हैं— “श्यामा, चकवा, खंजन, चाहा, पनकौआ, हाँस, बनहाँस, अधँगा, लालसर, पनकौड़ी, जलपरेवा से लेकर कीट-पतंगों में भुनगा, भेम्हा, आँखफोड़वा, गंधी, गोबरैला” आदि शामा-चकेवा पर्व के दिन इन पक्षियों और कीट-पतंगों की मिट्टी की नन्हीं-नन्हीं मूर्तियाँ गढ़ी जाती हैं।
रेणु ने ‘परती : परिकथा’ उपन्यास में दिखाया है कि बदले समय के साथ लोगों को यह पर्व-त्योहार बेकार की चीजें लगती हैं। शहरी जीवन और सिनेमा ने उनकी आँखों में इतना धूल झोंक दिया कि उन्हें अपनी पारम्परिक चीजें बेकार लगने लगी हैं। “नये नौजवानों की नजर में इस तरह के पर्व-त्योहार रूढ़िग्रस्त समाज की बेवकूफी के उदाहरण मात्र हैं।” उनका मानना है कि ऐसे पर्वो को बन्द करना होगा। नौजवान ही नहीं बूढ़ों का भी कहना है कि “मुफ्त में चावल, केला, गुड़, मिठाई और दूध में पैसे लगते हैं। चिड़िया-पंछी का भी पर्व होता है, भला? सो भी इस जमाने में?” रेणु से यह चीज बर्दाश्त नहीं होती। एक छोटे से पर्व के लुप्त हो जाने की आशंका से उनका हृदय व्यथित हो उठता है। वे गाँववालों को यह बताना चाहते हैं कि जिसे वे रूढ़िग्रस्त समाज की बेवकूफी समझ रहे हैं, उस पर देश-विदेश की पत्रिकाओं में लेख छपते हैं। लोग इस पर्व के बारे में जानना चाहते हैं। ‘परती : परिकथा’ की लीला कहती है— “कौन कहता है गँवई पर्व है?” लीला बोली— “मैंने दैनिक आर्य-भूमि और इंडियन-नेशनल-टाइम्स में लेख पढ़ा है, इस पर्व पर। समझी मलारी?” मलारी ने कहा— “और मैंने भी पढ़ा है। ‘पारिजात’ (पटना से निकलनेवाली मासिक पत्रिका) की पुरानी कापी उलट रही थी। देखा शामा-चकेवा पर भी लेख है। लिखा है नेपाल की तराई से सटे, उत्तर बिहार के जिलों में होता है, यह पर्व।” रेणु लोक पर्व के पक्ष में तथ्यों की बाढ़ खड़ी कर देते हैं। वे अपने पात्रों के स्वर में स्वर मिलाकर बोलने लगते हैं।
‘विघटन के क्षण’ कहानी की शुरुआत में ही चुगला का जिक्र आया है— “बिनराबन (बृंदावन?) जले हैं सैकड़ों। हजारों चुगलों के पुतले ! पुतलों की शिखाएँ जली हैं—घर-घर में तू झगड़ा लगावे, बाप-बेटा में रगड़ा करावे; सब दिन पानी में आगि लगावे, बिन कारन सब दिन छुछुवावे—तोर ‘टिकी’ में आगि लगायब रे चुगला… छुछुन्दरमुहे… मुँहझौंसे… चुगले… हाहाहाहा !” यह चुगला कोई और नहीं लुत्तो और गरुड़धुज झा हैं। लड़कियाँ इन्हीं की चुटिया में आग लगाती हैं। बृंदावन लड़कियाँ नहीं बनाती हैं, क्योंकि जित्तन ने दो हजार गाछ रोपकर असली बृंदावन लगाया है। लुत्तो इस बृंदावन को जलाना चाहता है। मलारी दो मुँह वाला चुगला बनाती है। एक मुँह काला है और दूसरा सादा। चुगला का रूप देखिए, “डेढ़ हाथ का मिट्टी का पुतला ! एक शरीर, दो मुँह ! एक मुँह काला, आँखें उजली और ओंठ पर थोड़ी जीभ निकली हुई। दूसरा मुँह सफेद, दोनों आँखें काली। दन्तपंक्ति में एक दाँत सादा, बाकी सरीफा के बीज की तरह काले।” चुगला की चोटी और मुँह में आग लगाकर लड़कियाँ गाती हैं— “तोरे करनवाँ रे चुगला, तोरे करनवाँ ना ! रोये परानपुर की बेटिया, तोरे करनवाँ ना !” गरुड़धुज झा घर-घर घूमकर झगड़ा लगाता है। उसका मानना है कि मन-ही-मन ‘नारद-नारद’ का जाप करते रहने से मिटा हुआ झगड़ा भी सुलग उठता है। आज ऐसे दो मुँह वाले चुगलों से देश भरा परा है। परानपुर की लड़कियाँ तो इन चुगलों की पहचान कर लेती हैं, हम कब करेंगे? ये आपस में हमें लड़ाकर खुद मलाई खा रहे हैं। इनकी मुख्य खेती यही है। आज “एक-एक प्राणी ताव खाये हुए लट्टू की तरह घूम रहा है।” सब एक-दूसरे को मजा चखाने में लगे हुए हैं। इनकी बातों में आकर हम अपने ही लोगों का गला काट रहे हैं।
‘विघटन के क्षण’ कहानी को पढ़ते हुए रेणु की ‘संवदिया’ कहानी की याद आती है। वहाँ भी एक बड़ी हवेली है और यहाँ भी। वहाँ भी स्वार्थ और लालच है, तो यहाँ भी। विजया के पिता के मरने के बाद उनके छोटे भाई रामेश्वर बाबू उसे तथा उसकी माँ को घर से निकाल देते हैं। वे खुद गाँव छोड़ शहर में जा बसते हैं। वे हर साल कुछ-न-कुछ जमीन बेचकर गाँव से हमेशा के लिए मुक्त हो जाना चाहते हैं। वे इस झंझट से जल्द-से-जल्द ‘निझंझट’ होना चाहते हैं। उन्हें अपनी जन्मभूमि से कोई लगाव नहीं रह गया है। वे अपनी डीह से कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहते हैं। ध्यान दीजिए, ‘संवदिया’ और ‘विघटन के क्षण’ कहानियों का समय लगभग एक ही है। दूसरे शब्दों में—एक ही समाज की कथा है यह। एक ही समय में समाज का, व्यक्ति का, दो रूप देखने को मिलता है। बड़ी बहुरिया के देवर हर साल शहर से आकर अपना हिस्सा लेकर चले जाते हैं। बड़ी बहुरिया की कोई मदद नहीं करते, लेकिन वे बड़ी बहुरिया को हवेली से निकालते नहीं हैं। इसके विपरीत ‘विघटन के क्षण’ कहानी में रामेश्वर बाबू अपनी विधवा भाभी और भतीजी को घर से निकाल देते हैं। साथ में वह सबकुछ बेच भी देना चाहते हैं। वे हवेली की देख-रेख के लिए गंगापुरवाली दादी को रखते हैं। कहानी के इस प्रसंग से गुजरने के बाद पाठक इस बात को समझ जाते हैं कि बड़ी बहुरिया के देवर बड़ी बहुरिया को घर से क्यों नहीं निकालते? बड़ी बहुरिया भी उनकी नजर में एक नौकरनी ही है, जो हवेली की देख-रेख कर रही है। इसके अलावा एक और कारण हैं, रामेश्वर बाबू पटना में एम. एल. ए. हैं, उनकी स्थिति काफी अच्छी है, वे वहाँ रह सकते हैं। लेकिन बड़ी बहुरिया के देवरों की स्थिति उतनी अच्छी नहीं है, इसलिए वे बार-बार लौटकर गाँव आते हैं और बोरी भर-भरकर अनाज वैगरह शहर ले जाते हैं। वे नया-नया शहर की ओर गए हैं। वे साल में एक बार ‘खंजन’ पक्षी की तरह गाँव आते हैं। शहर ने इन्हें स्वार्थी बनाया। पैसे के लोभ में लोग अपने रिश्तों को भूलते जा रहे हैं। दिल को जोड़ने वाले तार टूट रहे हैं।
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सिद्धेश्वर चौधरी की मृत्यु के समय विजया की उम्र सात-आठ वर्ष थी। रामेश्वर बाबू के घर से निकालने के बाद विजया की माँ उसे लेकर अपने भाई के घर चली जाती है। विजया जब शादी के योग्य हुई तो उसके मामा ने रामेश्वर बाबू को एक कड़ी चिट्ठी लिखी— “जिनके त्याग और बलिदान का मीठा फल आप खा रहे हैं उनकी स्त्री को तो झाड़ू मारकर ऐसा निकाला कि…। खैर, वह मरी और दुख से उबरी। लेकिन, आपका ‘सिरदर्द’ दूर नहीं हुआ है। अभी आपको थोड़ा और कष्ट भोगना बाकी है। विजया अब ब्याहने के योग्य हो गयी।… यदि आप मेरे इस पत्र पर ध्यान नहीं देंगे तो मुझे मजबूर होकर आपकी पार्टी के प्रधान को लिखना पड़ेगा।” रामेश्वर बाबू पार्टी के डर से विजया को वापस बुला लेते हैं। हम देखते हैं कि रानीडिह आने के बाद भी उसकी स्थिति एक नौकरानी की ही है। कहानी की भोर बेला में वह खेतों में पानी पटा रही है। शहर जाने के बाद भी उसकी स्थिति एक नौकरानी की ही रहेगी। रामेश्वर बाबू और उनकी पत्नी (भागलपुर वाली) को मुफ्त में एक नौकरानी मिल जाती है। उसकी स्थिति में कोई परिवर्तन आने वाला नहीं है।
खैर, इस कहानी की मुख्य समस्या न तो लैंड सर्वे सेटलमेंट है और न ही पारिवार का टूटना। यहाँ रेणु की मुख्य समस्या है, गाँवों का विघटन। उसका टूटना। गाँव छोड़ शहर में बसते जा रहे लोगों को देख आठ-नौ वर्ष की चुरमुनियाँ के कलेजे में एक हूक-सी उठती है। वास्तव में यह हूक रेणु के कलेजे में उठती है, जिसे चुरमुनियाँ के माध्यम से व्यक्त किया गया है। आठ साल की यह बच्ची बाहर से जितनी प्रफुल्लित दिखती है, अन्दर से उतनी ही बेचैन है। कभी-कभी लगता है कि आठ-नौ साल की एक बच्ची इतना कुछ कैसे सोच सकती है। उसे क्या मतलब कौन गाँव छोड़कर गया, कौन नहीं गया। उसकी सोच, उसकी चिन्ता, उसकी छटपटाहट, उसकी बेचैनी यह साबित करती है कि यह रेणु हैं कोई और नहीं। गाँव को लेकर रेणु के अन्दर जो छटपटाहट और संवेदना है वह चिरमुनियाँ के अन्दर दिखाई देती है। इसके अलावा जिस प्रकार रेणु किसी गप में रस डाल देते हैं, उसी प्रकार चिरमुनियाँ भी ‘गप’ को ‘रस’ से सारवोर कर देती है। गंगापुरवाली दादी के शब्दों में चुरमुनियाँ का एक रस से सरावोर गप सुनिए— “भागलपुरवाली उस बार आई भादों में। एक दिन ‘बक्कस’ से कपड़ा निकालकर धूप में सुखाने को दिया। कपड़ों को पसारते समय यह ‘लौंग-मिर्ची-छौंडी’ अचानक चिल्लाने लगी—ले ले लाला… जर्मनवाला… रबड़वाला… गेंदवाला… चोंचवाला…। मैंने झाँककर देखा, बाँस की एक कमानी में भागलपुरवाली की ‘अँगिया’ लटकाए चुरमुनियाँ नचा-नचाकर चिल्ला रही है। उधर, दरवाजे पर, दरवाजा भर पंचायत के लोग।” चुरमुन की हाजिर जवाबी गज़ब की है। वह गगापुरवाली दादी को भी नहीं छोड़ती। सच्चिदा को भी कहती है, इसके भी पर निकल आए हैं, यह भी किसी दिन उड़ जाएगा। शहर ले जाने वाले विजया के मामा को वह ‘यमराज’ कहती है और विडम्बना देखिये, उसका मामा उसके लिए यमराज ही साबित होता है। ऐसी कई चीजें चुरमुनियाँ को रेणु से जोड़ती हैं। रेणु गप लड़ाने में उस्ताद थे।
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शहर की रंगीन दुनिया में खोये हुए लोग गाँव नहीं आना चाहते। शहर से गाँव लौटे फुलकन की शहरी गपे सुनकर गाँव के नौजवानों के तन-मन में ‘फुरहरी’ लग जाती है। इस गप में उन्हें एक खास किस्म की गंध आती है और यह गंध उन्हें मदहोश कर देती है। ‘उच्चाटन’ कहानी के रामबिलास की तरह फुलकन भी शहरी बातों की फुलझड़ी छोड़ता रहता है। फुलकन की मजेदार और रंगीन बातें सुनकर गाँव के नौजवान भी शहर जाना चाहते हैं। फिल्म की लड़कियों की बातें सुनकर उनकी देह ‘कसमसाने’ लगती है। वह अपने साथ अर्धनंगी लड़कियों की तस्वीरें ले आया है। इन तस्वीरों को देख एकाध रात में ‘भरमा’ भी जाते हैं। फुलकन के माध्यम से गाँव में शहरी संस्कृति का आगमन होता है। जाहिर है ये चीजें गाँव के लड़कों को अच्छी लगती हैं। ‘उच्चाटन’ और ‘विघटन के क्षण’ कहानी में एक मूलभूत अंतर है। ‘विघटन के क्षण’ में रेणु यथार्थ के ज्यादा निकट है। ‘उच्चाटन’ कहानी में रामबिलास अंत में गाँव में ही रह जाता है। वह वापस शहर नहीं जाता। लेकिन ‘विघटन के क्षण’ कहानी में कोई भी शहर से वापस नहीं आता। यदि वे गाँव आते भी हैं तो साल में एक बार, कुछ दिनों के लिए, कुछ महीनों के लिए। ‘उच्चाटन’ 1964 की कहानी है और ‘विघटन के क्षण’ 1966 की। इतने कम समय में कोई बड़ा परिवर्तन आ गया होगा, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। ‘उच्चाटन’ में रेणु का स्वप्न हावी है, लेकिन यहाँ वे यथार्थ के साथ खड़े हैं। इस सच से साक्षात्कार होने के बाद उन्हें अतिशय दुख होता है, लेकिन वे उस दुख को सहते हैं, उसे भोगते हैं, उससे भागते नहीं।
‘विघटन के क्षण’ कहानी में देखते हैं कि आजादी के उन्नीस-बीस वर्ष बाद भी शहर और शहर के किस्से गाँव वाले के लिए पहेली बनी हुई है। शहर आज भी उनके लिए अजूबा है। उन्नीस-बीस वर्ष बाद ही क्यों आजादी के सत्तर साल बाद भी गाँव और शहर के बीच दूरी बनी हुई है। विकास की इतनी सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद भी—कुछ मामलों में—भारतीय गाँव आज भी वही खड़ा है, जहाँ सत्तर साल पहले था। आज वह अपनी विसंगतियों और नग्नता के साथ नेहरू के उद्योगधंधा वाले भारत को मुँह चिढ़ा रहा है। उत्तर-आधुनिकता के इस युग में भारत की अधिकांश जनता आदिम अवस्था में जीने के लिए अभिशप्त है। प्रगति कुछ ही लोगों के जीवन में आई है। यहाँ कवि केदारनाथ सिंह याद आ रहे हैं। उनकी आधुनिकता सम्बन्धी चिन्ता याद आ रही है। वे कहते हैं— “मेरी आधुनिकता के स्वरूप को निर्धारित करने में वे वास्तविकताएँ भी एक खास तरह की भूमिका निभाती हैं, जो आधुनिकता के सुपरिचित दायरे से लगभग बाहर हैं। मेरी आधुनिकता की एक चिन्ता यह है कि उसमें लालमोहर कहाँ है? मेरी बस्ती के आखिरी छोर पर रहनेवाला लालमोहर वह जीती-जागती सच्चाई है, जिसकी नीरन्ध्र निरक्षरता और अज्ञान के आगे मुझे अपनी अर्जित आधुनिकता कई बार विडम्बनापूर्ण लगने लगती है।” इस आधुनिकता में रेणु की जनता कहाँ है?
‘विघटन के क्षण’ कहानी में कुछ ऐसे लोग हैं, जो शहर जाना नहीं चाहते। लेकिन उन्हें भी जाना पड़ता है। विजया की मर्जी जाने बिना उसके मामा उसे उस व्यक्ति के पास ले जा रहे हैं, जो उसकी माँ को, जीवन के सबसे बुरे दिनों में, घर से बाहर निकाल दिया था। छोटी-सी चुरमुनियाँ नहीं चाहती कि विजया शहर जाए। विजया भी शहर जाना नहीं चाहती। जब से शहर जाने की बात उसने सुनी है तब से “रोज रात में चुपचाप रोती है। रोज सुबह तकिये का गिलाफ बदल देती है।” जब से पटना जाने की बात तय हुई है, तब से वह अन्दर-ही-अन्दर ‘राजनीगंधा के डंठलों’ की तरह फूटती रहती है। वह गाँव में ही रहना चाहती है। अपने बाबूजी और माँ की यादों के साथ जीना चाहती है। जब बाबूजी और माँ की याद से उसका कलेजा टूक-टूक होने लगता है तो “इमली का बूढ़ा पेड़, बाग-बगीचे, पशु-पंछी—सभी उसे ढाढ़स बाँधते हैं। एक अदृश्य आँचल सिर पर हमेशा छाया रहता है। यहाँ आते ही लगता है, बाबूजी बाग में बैठे हैं। माँ रसोई-घर में भोजन बना रही है। इसलिए मामा का गाँव-घर कभी नहीं भाया उसे। अपने बाप के ‘डीह’ पर वह टूटी मड़ैया में भी सुख से रहेगी।” लेकिन यहाँ भी उसे सुख से नहीं रहने दिया गया। उसके सिर से वह अदृश्य आँचल छिन लिया जाता है। शहर में न तो कोई अदृश्य आँचल है और न ही कोई ढाढ़स बाँधने वाला। उसके मन को कोई नहीं पढ़ पाता। शहर जाने के एक दिन पहले से ही वह खाना-पीना छोड़ देती है। यही अदृश्य आँचल रेणु को गाँव से हमेशा बाँधे रखा। वे जब भी गाँव छोड़ने का निश्चय किए, यह अदृश्य आँचल उन्हें वापस खींच लिया। उन्हें शहर में बसने नहीं दिया।
विजया को अपना गाँव छूटने का, उससे दूर जाने का बहुत दुख है। लेकिन गाँव के खाली होने का, उसके टूटने का जितना अधिक दुख चुरमुनियाँ को है, उतना किसी को नहीं है। गाँव के बारे में सोच-सोचकर पागल होती जा रही है वह। शहर की ओर जाते हुए लोगों को देख उसकी आत्मा कराह उठती है। वह सोचती है— “एक-एक कर सभी गाँव छोड़कर जा रहे हैं। सच्चिदा भी चला जाएगा तो गाँव की ‘कबड्डी’ में अकेले पाँच जन को मारकर दाँव अब कौन जीतेगा? आकाश छूनेवाले भुतहा-जामुन के पेड़ पर चढ़कर शहद का ‘छत्ता’ अब कौन काट सकेगा? होली में जोगीड़ा और भड़ौआ गानेवाला—अखाड़े में ताल ठोकनेवाला… सच्चिदा भैया !” शहर में रिक्शागाड़ी खींचकर रोज पाँच रुपया कमाना सच्चिदा बुरा नहीं मानता। उसकी इस बात में उसकी आर्थिक मजबूरी झलक रही है— “रिक्शा खींचना बुरा काम है क्या? पाँच रुपया रोज की कमाई यहाँ किस काम में होगी भला?” सच्चिदा की इस बात को सुनकर चुरमुनियाँ यह भांप लेती है कि वह भी एक दिन शहर चला जाएगा। उड़ जाएगा फुर्र-र से। यह सच है कि बेकरी की समस्या उसे शहर की ओर उन्मुख कर रही है, लेकिन सच्चिदा यह नहीं जानता कि उसके चले जाने से गाँव में क्या खत्म हो जाएगा। गाँव की कबड्डी से लेकर जोगीड़ा गीत भी शहर में खो जाएगा। दिन भर रिक्शा में आदमी को खींचने के बाद उसके शरीर में न तो इतनी ताकत रह जाएगी कि वह कबड्डी खेल सके और न ही उसके मन में इतना उल्लास/उत्साह ही बचा रहेगा जिससे वह जोगीड़ा की तान छेड़ सके। शहर उसके भीतर के सारे रस को निचोड़ लेगा। और जब उसका काम निकल जाएगा तब वह उसे चूसे हुए आम की तरह फेंक देगा। ऐसी स्थिति में वह फिर गाँव ही आएगा, लेकिन वह सच्चिदा बनकर नहीं, जो पहले था। गाँव को विघटित होता देख चुरमुनियाँ बिरहिनी की तरह तड़प रही है। मानो उसके प्रिय का विरह-वियोग सता रहा हो। वह करुण सुर में रोना चाहती है। वह सोचती है गाँव के सभी लोग जब चले जाएँगे तब गाँव में क्या रह जाएगा। पिछले साल से ही पर्व-त्योहार का रंग फीका पड़ने लगा है। रेणु लिखते हैं— “आठ-नौ साल की चुरमुनियाँ की नन्हीं-सी जान, न जाने किस संकट की छाया देखकर डर गयी है।” चुरमुनियाँ संकट को पहचान चुकी है। वह जान चुकी है कि गाँव को उजड़ने से अब कोई नहीं बचा सकता। उजड़े हुए हिंगना मठ का बैरागी कहता है— “सभी जाएँगे। एक-एक कर सभी जाएँगे…।” गाँव के वातावरण में एक मनहूसियत-सी छाई रहती है। सभी का दिल किसी आशंका से पीपल के सूखे पत्ते की तरह कांपता रहता है। गाँव के नौजवान तो शहर की ओर भाग ही रहे हैं—बूढ़े भी भाग रहे हैं। उन्हें भी अब मिट्टी से मोह नहीं रह गया है। गाँव की मशहूर झगड़ालू औरत बंठा की माँ लाचारी भरे स्वर में कहती है— “गाँव के ‘जवान-जहान’ लड़के गाँव छोड़कर भाग रहे हैं। पता नहीं, शहर के पानी में क्या है कि जो एक बार एक घूँट भी पी लेता है फिर गाँव का पानी हजम नहीं होता। गोबिन गया, अपने साथ पंचकौड़िया और सुगवा को लेकर। उसके बाद, बाभन-टोले के दो बूढ़े अरजुन मिसर और गेंदा झा…।” एक बार शहर गया व्यक्ति गाँव आने के बाद अपने साथ और कई लोगों को लेकर शहर जाता है। उसके पहनावे और बोलचाल के ढंग से प्रभावित होकर ये भी शहर जाने के लिए मचल उठते हैं। शहर जाकर वे भी पैसा कमाना चाहते हैं। गाँव के नौजवानों को अब अगहनी धान के खेतों की महक और आलू की लाल-लाल पत्तियाँ आकर्षित नहीं करतीं। उन्हें अब अर्धनग्न तस्वीरें आकर्षित करती हैं। गुलाम भारत का होरी गाँव में रह सकता था, लेकिन आजाद भारत का बूढ़ा होरी गाँव में नहीं रह सकता। कई अर्थों में आजाद भारत के होरी की स्थिति, गुलाम भारत के होरी से और खराब ही हुई है। गुलाम भारत के होरी आत्महत्या नहीं करते थे, लेकिन आजाद भारत के होरी आत्महत्या करने के लिए मजबूर हैं। लोकतंत्र ने उन्हें यह सीखा दिया है कि खुद की जान, खुद से कैसे ली जाती है। जिस पेड़ की छाया में बैठकर वे सुस्ताते हैं, उसी पेड़ की डाली से एक दिन लटक जाते हैं।
विजया के शहर जाते समय चुरमुनियाँ उसके कहती है कि तुम शहर के लड़के से शादी मत करना। चुरमुनियाँ यह समझ चुकी है कि यदि विजया शहर के लड़के से शादी करती है तो वे लोग उसे कभी गाँव वापस नहीं आने देंगे , कारण, “जब गाँव का आदमी ही गाँव छोड़कर सहर भाग रहा है तो सहर का आदमी अपनी ‘जनाना’ को गाँव आने देगा भला?” वह दृढ़ स्वर में विजया से कहती है कि वे लोग तुम्हें बाँधकर रखेंगे। कमरे में तुम्हें बन्द कर देंगे। गाँव की ओर देखने भी नहीं देंगे तुम्हें।
चुरमुनियाँ की लाल-लाल आँखों में कुछ देखकर विजया सिहर जाती है। वह समझ जाती है कि रोते-रोते मर जाएगी यह लड़की। शहर जाने के दिन चुरमुनियाँ विह्वल हो बरसती आँखों से विजया से कहती है— “मैं घर के ‘देवता-पित्तर’ से लेकर गाँव के देवता-बाबा जीन-पीर के थान में रोज झाड़ू-बुहारी दूँगी—यह मनौती मैंने की है कि हे मैया गौरा पारबती !… कि हे बाबा जीन-पीर… हमारी बिजैयादि को कोई सहर में बाँधकर नहीं रखे।… जिस दिन तू लौटकर आएगी, मैं देवी के ‘गहवर’ में नाचूँगी… सिर पर फूल की डलिया लेकर। तू लौट आवेगी तो सब कोई लौटकर आवेंगे। भूले-भटके, भागे-पराये—सभी आवेंगे। तू नहीं आएगी तो इस गाँव में अब धरा ही क्या है? जो भी है, वह भी एक दिन नहीं रहेगा। सिर्फ गाँव की निसानी, घरों के डिह…” गाँव की लक्ष्मी ही जब गाँव छोड़कर चली जाएगी, तब गाँव में क्या रह जाएगा? अभी तक सिर्फ गाँव के पुरुष ही गाँव छोड़कर जा रहे थे, पहली बार कोई लड़की गाँव छोड़कर शहर जा रही है। ‘उच्चाटन’ में भी कोई लड़की शहर नहीं जाती। जिसके अन्दर सृजन की क्षमता है, जो सर्जक है वही गाँव छोड़कर जा रही है। यह बात रेणु को बहुत बेचैन करती है।
कहानी में एक ऐसा मोड़ आता है, जब विजया को लगता है कि चुरमुनियाँ उसकी माँ है। वह विजया को एक बच्चे की तरह स्नेह करती है। उसे दुलार से पुचकारती है। उसे प्रेम से भोजन कराती है। उसे भूखे पेट शहर नहीं जाने देती। उसकी वापसी के लिए जीन-पीर से गुहार लगाती है। मिन्नतें करती है। जाते समय वह विजया से कहती है— “लगता है, तू मेरी बेटी है और मैं तुम्हारी माँ। तू मुझे… माने… अपनी माँ को हमेसा के लिए छोड़कर जा रही है।” एक माँ अपने बच्चे के बिना जिंदा कैसे रह सकती है !
चुरमुनियाँ की आशंका सही साबित होती है। ग्यारह महीने शहर में बीत जाते हैं, लेकिन विजया गाँव नहीं आ पाती। गाँव से आने वाले हर व्यक्ति से वह यही पूछती है कि “गाँव छोड़कर क्यों आए?” शहर का जीवन जीने के बाद विजया को शिद्दत से गाँव याद आता है। एक बार फिर विजया की मरजी जाने बिना उसकी शादी शहर के लड़के से तय कर दी जाती है। जिस दिन विवाह की बात पक्की हुई उसका कलेजा धड़क उठा। उसे चुरमुनियाँ की बात याद आई। उसे याद आया कि उसका पति उसे कमरे में बाँधकर रखेगा। उसे वापस गाँव नहीं आने देगा। चुरमुनियाँ की एक-एक बात सच होती है। उसका शहरी पति उसे गाँव नहीं आने देता। शादी के पाँच महीने भी सुख-चैन से नहीं गुजरे हैं और उसका पति यह साबित करने पर तुला हुआ है कि “विजया को गाँव में किसी लड़के से प्रेम था और उसी के विरह में वह विवाह के बाद से ही अर्ध-विक्षिप्त हो गयी है…।” विजया अर्ध-विक्षिप्त क्यों हुई है यह कोई नहीं जान सकता। उसका शहरी पति तो बिल्कुल भी नहीं। यह बात उसके समझ से बाहर की है कि कोई गाँव की याद में, अपनी माँ की याद में अर्ध-विक्षिप्त भी हो सकता है। जिस गाँव को छोड़कर लोग शहर आ रहे हैं, उस गाँव में विजया वापस क्यों जाना चाहती है? शहर में उसे सबकुछ मिलता है। दो वक्त की रोटी मिलती है और सर पर छत है ही। नहीं है तो वह अदृश्य आँचल जो उसे हर दुख-तकलीफ से उबार लेता था। यहाँ ढाढ़स देने वाला कोई नहीं है। चुरमुनियाँ जैसी स्नेह की वर्षा करने वाला कोई नहीं है। उसके खाना खाने या न खाने से किसी को कुछ फर्क नहीं पड़ता। सच्चिदा विजया से कहता है— “चुरमुनियाँ तो पूरी ‘भगतिन’ बन गयी है। रोज भोर में नहाकर सिव मंदिर जाती है।… लोग कहते हैं कि लड़की पर कोई ‘देव’ ने सवारी की है।” चुरमुनियाँ गाँव की स्थिति देख जार-बेजार रो रही है। उजड़ते और टूटते हुए गाँव को देख विह्वल हो उठती है। लोगों को भागते देख व्याकुल हो जाती है। लोगों के विघटित होते मन को देख तड़प उठती है। लोग गाँव छोड़ भाग रहे हैं, माँ की गोद खाली हो रही है।
विजया के पति को लगता है कि उसके साथ धोखा हुआ है। अतः वह विजया के काका से पाँच हजार रुपया बतौर हर्जाना वसूलना चाहता है। रेणु यहाँ शहरी लोगों की मानसिकता को भी उघाड़ दिये हैं। पढ़े-लिखे आधुनिक लोग किस हद तक नीच हो सकते हैं, इसका जीवन्त उदाहरण है विजया का शहरी पति। वह विजया को समझने की चेष्टा ही नहीं करता। वह कभी उसके मन के दरवाजे तक पहुँचा ही नहीं, अन्दर जाने की बात तो काफी दूर रही। विजया को जब से यह पता चला है कि चुरमुन उसके इंतजार में—उसका नाम रटते हुए—पिछले एक महीने से बिछावन पर लबेजान पड़ी हुई है तो वह अपने पति से करुण कंठ में गिड़गिड़ाते हुए कहती है— “मैं आपके पैर पड़ती हूँ। आप जो भी कहिएगा, मानूँगी।… मुझे एक बार अपने साथ ही गाँव ले चलिए। मैं खड़ी-खड़ी उस निगोड़ी को देख लूँगी। मरे या जीए। मैं उलटे पाँव वापस चली आऊँगी—आप के ही साथ।” यहाँ उन दोनों के बीच का संवाद देखिए— “यह चुरमुनियाँ आखिर है कौन?” “मेरे गाँव की… एक… पड़ोसी की लड़की।” “लेकिन, लगता है तुम्हारी कोख की बेटी हो।” “हाँ, वह मेरी माँ है। माँ है…।” “मुझे देहाती-उल्लू मत समझना।” कोई इतना निर्दयी कैसे हो सकता है? विजया अपने आधुनिक पति को यह नहीं समझा पाती की यह चुरमुनियाँ कौन है और उससे इसका रिश्ता क्या है? जिसका नाम वह रटे जा रही है और जिसकी याद में वह बिछावन पर पड़ी हुई है।
विजया का पति उसे घर में बंद कर बाहर से कुंडी चढ़ा देता है। लेकिन इस बार वह रोती-चिल्लाती नहीं है। वह चुप हो जाती है। गाँव में चुरमुन बिछावन पर पड़ी हुई है और शहर में विजया। दोनों एक-दूसरे से मिलना चाहते हैं, एक-दूसरे को देखना चाहते हैं। माँ बेटी से मिलना चाहती है और बेटी माँ से। विजया बिछावन पर पड़े-पड़े ही अपने गाँव रानीडिह भाग जाती है। अपनी माँ की गोद में। चुरमुनियाँ की गोद में। रेणु इस यात्रा को शब्द देते हुए लिखते हैं— “…और आँख मूँदकर अपने गाँव-मैके रानीडिह भाग गयी। अब कोई मारे, पीटे या काटे—घंटों अपने गाँव में पड़ी रहेगी। वह… दूर से ही दिखलाई लड़ता है, गाँव का बूढ़ा इमली का पेड़। वह रहा बाबा जीन-पीर का थान।… वह रही चुरमुनियाँ।… रानीडिह की ऊँची जमीन पर… लालमाटी वाले खेत में… अक्षत-सिंदूर बिखेरे हुए हैं। हजारों गौरैया-मैना सूरज की पहली किरण फूटने से पहले ही खेत के बीच कचर-पचर कर रही हैं। चुरमुनियाँ सचमुच पखेरू हो गयी है? उड़कर आई है, खंजन की तरह !… चुरमुन रे ! माँ…!” विजया अपनी माँ चुरमुनियाँ की गोद में मरना चाहती है। उसे कोई भी कुंडी बाँधकर नहीं रख सकती। एक दिन वह उड़कर अपने गाँव चली जाएगी। बिना रोये, चिल्लाये, चीखे। वह उस अदृश्य आँचल की छाव में जा बैठेगी।
उधर बिछावन पर ‘लबेजान-सी पड़ी हुई’ चुरमुनियाँ अपने लोगों के इंतजार में गाँव की ओर आते हुए रास्ते पर अपनी पथरायी आँखें बिछाये हुए है। शरीर छोड़ने के बाद भी उसकी आँखें अपने लोगों का इंतजार करती रहेंगी। उसकी आँखों का इंतजार कभी खत्म नहीं होगा। आज भी ‘ग्रामवासिनी भारत माता’ अपने शहरी बच्चों का इंतजार कर रही है। गाँव के बाग-बगीचे, खेत-खलिहान, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी सभी बाट जोह रहे हैं। अपने भूले-भटके लोगों को देखते ही वे पुलकित हो जाते हैं। मस्ती में झूम उठते हैं।
‘विघटन के क्षण’ एक बड़े फलक की कहानी है। जिन लोगों को लगता है कि रेणु ने ‘आत्म साक्षी’ के बाद कोई महत्त्वपूर्ण कहानी नहीं लिखी उन्हें यह कहानी जरूर पढ़नी चाहिए। यह कहानी मन को झकझोर देती है।
सुपरिचित युवा आलोचक (देवीशंकर अवस्थी सम्मान से सम्मानित)
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