समलैंगिक विमर्श का ‘चोर दरवाज़ा’
हमारे समाज में प्रेम और यौन संबंधों की स्वीकार्यता विवाह-संस्था और संतानोत्पत्ति के सन्दर्भ में ही मिलती है। समलैंगिक, द्विलैंगिक, ट्रांसजेंडर,या अलैंगिक (LGBTQ+) को घृणा व तिरस्कार से देखा जाता है। स्त्री-पुरुष की परिभाषा से इतर इन्हें अपमान, लांछन और शोषण का शिकार होना पड़ता है,ये क्रूर मज़ाक का केंद्र बनते हैं, जिसके चलते इस समुदाय के लोग आत्महत्या करने को विवश हो जातें हैं यही कारण है कि ये समुदाय अपनी सेक्शुएलिटी यानी लैंगिकता को छिपा कर रखतें रहें हैं जबकि ‘लैंगिकता ‘आप क्या है! से कहीं अधिक आप क्या चाहतें है’ के सन्दर्भों से जुड़ी है।
‘प्रेम’ शब्द केवल एक स्टीरियोटाइप बनकर रह गया है। जब हम यह शब्द सुनते, पढ़ते या दोहराते हैं, तब क्यों एक ही चित्र हमारे मन में उभरता है—आलिंगन में बँधे नायक और नायिका का चित्र’। किंशुक गुप्ता के कहानी संग्रह ‘ये दिल है या चोर दरवाज़ा’ के इस वाक्य का सीधा-सीधा अर्थ है कि हमारा समाज विषमलैंगिकता यानी हेटरोसेक्शुएलिटी को ही मान्यता देता है। किंशुक गुप्ता की कहानियाँ बहुत खूबसूरती से इसी तथ्य को हमारे सामने रखतीं हैं कि सेक्स जीवन का सिर्फ़ एक अंग है, जीवन नहीं जबकि प्रेम हमें हर पल समृद्ध करता है।
समलैंगिक विमर्श क्यों – अपनी अस्मिता के प्रति जागरूकता साहित्य और विमर्शों का नया दरवाज़ा खोलती है। समलैंगिक विषय पर साहित्य की बात करें तो स्वतंत्रता पूर्व 1924 में मतवाला में प्रकाशित उग्र की ‘चॉकलेट’ कहानी और 1944 में इस्मत की ‘लिहाफ़’ कहानी समलैगिंक विमर्श का प्रस्थान बिंदु मानी जा सकती है लेकिन समाज इन विषय पर बात करने के लिए आज भी सहज नहीं,स्वाभाविक है कि तब भी इन कहानियों पर सार्वजनिक, साहित्यिक और क़ानूनी विवाद भी हुए इस विषय पर तो हुए पर कोई विमर्श की परंपरा न बन सकी। इस वर्जित विषय पर 1927 में पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र शिक्षण संस्थाओं, बाल संस्थाओं आदि में हो रहे बालकों (बालिकाएँ नहीं) के यौन-शोषणों को केंद्र में रखकर ‘चाकलेट’ कहानी संग्रह आया कहानियों का प्रमुख विषय था- समलैंगिकता, आपराधिक किस्म का व्यभिचार, अप्राकृतिक यौन संबंध। ‘विशाल भारत’ के संपादक पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने ‘उग्र’ का सर्वाधिक मुखर विरोध किया, इसे ‘घासलेटी साहित्य’ की संज्ञा दी। हिन्दी साहित्य कोश, भाग-1 के अनुसार, “घासलेटी का अर्थ है- निकृष्ट, निकम्मा, गंदा।
अनैतिकता को प्रश्रय देने वाला तथा लैगिंक विकृतियों को चित्रित करने वाला साहित्य।” उन्होंने महात्मा गांधी से इस संग्रह को बैन करने की माँग की लेकिन गाँधी जी ने कहा कि ‘पुस्तक का मकसद पाक-नेक है और इस अमानवीय कृत्य के प्रति लेखक क्रांति पैदा करता है।” हालाँकि उस समय का समस्त मतवाला मंडल, भारत, सरोज, हिन्दी पंच, नवयुग जैसे पत्रों ने इसे सुधारवादी साहित्य मानकर ‘उग्र’ का समर्थन भी किया। पर यह अध्याय जल्द ही बंद हो गया।
उग्र की कहानियां ‘घासलेटी साहित्य’ के नाम से बदनाम किये गये ये कहानियाँ समलैंगिकों के प्रति घृणा और भय ‘होमोफ़ोबिया’ जागृत करतीं हैं। उनका एक पात्र कहता है “पालट (केप्ट बॉय) क्या आप इसे प्यार कहतें हैं”? पालट यानी गोद लिया हुआ लड़का लेकिन इस लड़के के साथ उसके सम्बन्ध सहज नहीं होते बल्कि शारीरिक आकर्षण से बंधे होते हैं जो समाज को स्वीकार्य कैसे होगा कि जिसे आप पुत्र कह कर गोद ले रहें है वह उसका शोषण करे? ये कहकर कि “सुन्दरता स्त्री की हो या पुरुष की,मैं तो प्रेम का दास हूँ” विरोधियों का मानना था कि ये कहानियाँ विकृत इच्छाओं को उत्तेजित करेगी जबकि समर्थक मानतें हैं कि ‘चॉकलेट’ (जो समलैंगिक का पर्याय बन गया था/सामाजिक बीमारी) को उजागर करने की आवश्यकता है।
उग्र संभवत: इन रिश्तों को व्यभिचार मानतें रहे होंगें उनकी कहानी “व्यभिचारी प्यार” इस बात का प्रमाण है जिसमें एक सुकुमार कवि अंत में स्वीकार करता है “उस बालक के चारित्रिक सर्वनाश का उत्तरदायी वही है…मैंने ही उसके स्वर्ग में नरक के बीज बोये हैं” वस्तुत: उग्र की कहानियाँ आदर्शवादी नजरिये से लिखी गई हैं जबकि किंशुक की कहानियाँ समलैंगिकता का स्वाभाविक चित्रण करतीं हैं जिसमें कहीं कोई आदर्श आरोपित नहीं है यह अनायास नहीं कि ‘तितलियों की तलाश’ में कहानी का नन्हा बालक भी ‘चॉकलेट’ दिखाने पर अपनी पैंट खोलने लगता है यहाँ ‘चॉकलेट’ बहलाने फुसलाने का प्रतीक बन जाती है।
इसके बाद 1939 में निराला का संस्मरणात्मक उपन्यास कुल्ली भाट आया जिसमें कुल्ली का वास्तविक जीवन चरित्र है। कुल्ली समलैंगिक हैं। इसको लेकर समाज के भीतर की धारणाओं और नैतिक व्यवहार को निराला ने प्रकट किया है। सासु जी की यह प्रतिक्रिया बहुत मानीखेज है प्रारम्भ में निराला जी की सासु जी कुल्ली के निराला से मिलने पर बवाल मचाती हैं, आपत्ति करती हैं बाद में अपनी प्रतिक्रिया देती हैं कि “भैया, आदमी नहीं, देवता है कुल्ली”। सासु जी गँवई महिला हैं के सहज बोध में कुल्ली देवत्व प्राप्त कर लेते हैं यह दिलचस्प है कि उग्र की कहानी चाकलेट’ निराला के ही सम्पादन में मतवाला में प्रकाशित हुई थी। इस बीच हाल में (1947) में आशा सहाय का उपन्यास ‘एकाकिनी’ भी प्रकाश में आया है जिसकी नायिका लेस्बियन है|
1965 में राजकमल चौधरी ने स्त्री समलैंगिकता पर उपन्यास “मछली मरी हुई” लिखा जो खूब चर्चित हुआ। चौधरी जी ने लिखा ‘लेस्बियन अर्थात समलैंगिक यौनाचारों में डूब गई स्त्रियों के बारे में खासकर हिन्दी में बहुत कम लिखा गया’। इसके बाद भी लुके-छिपे दबे स्वरों में समलैंगिकता पर लिखा तो गया पर खुलकर नहीं कि इसका अंग्रेजी साहित्य के ‘क्वीर लिटरेचर’ की तरह कोई विमर्श का खाका तैयार हो पाये| हाँ, किन्नर विमर्श आया आज जहाँ थर्ड जेंडर के प्रति समाज में भय अथवा घृणा के स्थान पर सहानुभूति को स्थान मिलने लगा है वही समलैंगिको की स्थिति समाज में आज भी हास्यास्पद,घृणित और अपराध की श्रेणी में मानी जाती है भले ही 2018 में धारा 377 हटा दिया गया हो जिसके अंतर्गत यदि समलैंगिक व्यस्क अपनी सहमती से सम्बन्ध बनाते है तो वह अपराध नहीं लेकिन इन संबंधो की स्वीकार्यता के लिए ये समुदाय जो LGBTQ+ प्लस कहलाता है आज भी संघर्ष कर रहा है |
1861, ब्रिटिश काल में भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी में रखा गया। आज भी समलैंगिकता को ‘सामाजिक बीमारी’ के रूप में देखा जाता है, यह जानना दिलचस्प है कि वात्स्यायन के ‘कामसूत्र’ में एक पूरा अध्याय समलैंगिकता पर ही है, तो हमारे मिथकों में भी समलैंगिक पात्रों की स्वीकार्यता मिलती है। विश्व स्तर पर एलजीबीटी समुदाय का ‘प्राइड मन्थ’ (1969) रूढ़िवादी व दमनकारी पितृसत्ता के विरोध में लैंगिक पहचान को मनाने का उत्सव है, अपनी पहचान के प्रति खुलकर अभियक्ति, उसके प्रति आत्मगौरव का भाव साथ ही सामाजिक असमानता और भेदभाव के खिलाफ एक चुनौती भी कि अब हम अपना शोषण नहीं होनें देंगे।
1973 में ‘अमेरिकन साइकिएट्रिक एसोसिअशन’ ने समलैंगिकता को मानसिक मनोविकारों की सूची से हटा दिया था। ‘मछली के कांटे’ कहानी के अंत में इस समुदाय की जीत समाज में इनके संघर्ष को पहचान दिलाने का प्रयास है जिसमें डॉ के खिलाफ वे केस जीत जातें हैं। ‘रहस्यों के खुरदुरे पठार’ की गौरी का उसके परिवार द्वारा स्वीकारना भी इसकी सार्थक पहल है जबकि ‘तितलियों की तलाश में’ कहानी में एक माँ की जागरूकता उस बच्चे के प्रति होने वाले शोषण के खिलाफ बहुत सक्रियता से सावधानी से कदम उठाती है,निर्णय लेती है जबकि उस बालक को तो पता भी नहीं कि उसका शोषण किया जा रहा है क्योंकि शोषण उसका पिता ही कर रहा था, समाज के इस वीभत्स रूप को किंशुक अति यथार्थवादी ढंग से लेकिन बारीकी से बुनतें हैं आप इस तथ्य से कैसे इनकार नहीं कर सकते जबकि पिता अपनी बेटियों का यौन शोषण करतें है फिर इस घटना के प्रति अविश्वसनीयता क्यों?
समलैंगिकता नैसर्गिक/प्राकृतिक होती है अथवा विकल्पहीन विवशता अथवा व्यभिचारिता का दुष्परिणाम इन पक्षों पर किंशुक की कहानियाँ संकेतों में बात करतीं हैं और तथाकथित सभ्य समाज की दोगली नैतिकता को उघाड़ कर रख देतें हैं। ‘मछली के कांटे’ का नायक जो अपने चाचा के व्यभिचार का शिकार हुआ जिसकी कालिमा आज भी उसे बेचैन करती है, सोने नहीं देती जबकि ‘तितलियों की तलाश में’ का पिता अपनी काम विकृतियों की पूर्ति हेतु बेटे का यौन शोषण करता है। गौरी का रुझान पिता का भेदभाव पूर्ण व्यवहार है जो कहीं न कहीं अवचेतन में निहित पितृसत्ता की रूढ़ियों के प्रति विरोध के रूप में निकला कर आता है संभवतः वहाँ यह स्वाभाविक न होने के कारण ही संबंधों में असफल हो जाती है,जबकि सार्थक और जैकब दस वर्षों से इस रिश्ते में है,खुश है इसलिए माँ कहती है कि फिर शादी की क्या जरूरत?
इतिहास में समलैंगिक साहित्य की बात करें तो पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र का ‘चॉकलेट’ कहानी संग्रह बाल-शोषण के प्रति समाज को सावधान कर रहा है, भूमिका में उन्होंने “देश के छोटे, फूलों की तरह खिलने वाले ख़ूबसूरत बच्चों चीजों व षड्यंत्रों, प्रलोभनों से सावधान” रहने का आह्वान किया है, यहाँ समलैंगिकता का प्रत्यक्ष विरोध बहुत स्पष्टता से उभर कर नहीं आया बल्कि उनका मूल उद्देश्य बाल-शोषण का विरोध है जो हालाँकि लेकिन इस पूरे उपक्रम में समलैंगिको के अस्तित्व और पहचान पर बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया जाता है परिणामस्वरूप ‘चॉकलेट’ में समलैंगिकता एक अप्राकृतिक स्थिति, यौन अपराध व व्यभिचार अथवा पीडोफिलिया (पाशविकता) की श्रेणी के रूप में ही दिखाई पड़ती है जो अज्ञानता का ही परिचायक है।
13 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के प्रति विकृत कामुक आकर्षण और उनके साथ यौन गतिविधियों में लिप्त व्यक्ति को मेडिकल भाषा में पीडोफाइल कहा जाता है। बचपन में जबकि यौन-शोषण की पहचान तक बालकों को नहीं होती,अपने साथ होने वाले कुकर्मों को सहज मान लेतें हैं बाद में वे दूसरे बालकों के साथ इसी तरह का गलत व्यवहार करतें है। उग्र की कहानियाँ इसी तथ्य का उद्घाटन करती है जबकि ‘व्यभिचारी प्रेम’ कहानी का ’मुख्य पात्र “इतिहास की छानबीन करेगा,और प्रमाणित करेगा कि लड़कों के लिए लड़कों का प्रेम अप्राकृतिक नहीं स्वाभाविक है” लेकिन जब उसे मालूम पड़ता है कि वह बालक किसी दूसरे बालक के साथ यौन शोषण करते हुए पुलिस द्वारा पकड़ा गया तो आत्मग्लानि से आत्महत्या कर लेता है जबकि आज का जागरूक बालक गुड टच, बैडटच के समझता है पर ‘तितलियों की तलाश में’ के नन्हें बालक का क्या ? जो अपने पिता द्वारा शोषित हो रहा है, यह सचमुच अत्यंत भयावह स्थिति है जिसकी ओर किंशुक संकेत कर रहें हैं।
समलैंगिक विमर्श के सन्दर्भ में ‘दिल है कि चोर दरवाज़ा’ को हिंदी में समलैंगिक विमर्श का विधिवत आरम्भ माना जाना चाहिए। समाज-परिवेश से संचालित हमारा मन कई पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होता है जो हमें वर्ण, वर्ग, लिंग, धर्म, सम्प्रदाय के प्रति अलग सोचने समझने के लिए स्पेस नहीं देते, जोखिम नहीं उठाने देते, हम बेहतर है, इसलिए दूसरा निम्नतर हो जाता है इस धारणा के विरोध में विमर्शों के द्वार खुलते है हालाँकि परदु:खकातर,परकाया प्रवेश, सहानूभूति, समानानुभूति जैसे शब्द आज विमर्शों के परिप्रेक्ष्य में कमजोर माने जाते हैं, ‘स्वानुभूति’ विमर्शों की प्रथम माँग-सी बन गई है। स्त्री विमर्शकार मानती हैं कि पुरुष स्त्री का दुःख अभिव्यक्त कर ही नहीं सकता इसी तरह प्रेमचंद के दलित पात्रों के अस्तित्व पर इसी संदर्भ में सवाल उठते आयें है।
‘यौनिक भिन्नता’ पर जब विमर्श करेंगे तो इसी प्रकार के प्रश्न वहाँ भी उठेंगे ऐसे में जबकि LGBTQ+ समुदाय अपनी पहचान को सामने ही लाना नहीं चाहता तो वो अपना दुःख, संघर्ष कैसे अभिव्यक्त करेगा कैसे सामजिक पूर्वाग्रह तोड़ पायेगा? प्रतिष्ठित पत्रिका के संपादक ने किंशुक को समलैंगिक विषय पर और न लिखने के लिए सलाह देती है जबकि स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों को इस तरह की सलाह नहीं दी जाती इन विषम परिस्थितियों में समलैंगिक विमर्श की राह अधिक दुरूह और जटिल है। लेखक किंशुक की बात करें तो वे डॉक्टर और लेखक होने के साथ-साथ समलैंगिक साहित्य के पक्षधर है इस विषय को बेहतर समझते और परिभाषित करतें हैं।
ब्रिटिश काल में धारा 377 के तहत जबकि समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी में रखा गया था तब स्वतंत्रता के पक्षधर बी.आर.अम्बेडकर भी मानतें हैं, सभी व्यक्तियों को अपने मन मुताबिक़ पहनने, ओढ़ने, पढ़ने-लिखने, घर बनाने, काम करने और अभिव्यक्ति की आज़ादी होनी चाहिए। 1931 कर्वे की “समाज स्वाथ्य’ पत्रिका में एक लेख “व्यभिचार के प्रश्न” के पक्ष में जस्टिस मेहता के समक्ष केस लड़ा था कि अगर कोई यौन मामलों पर लिखता है तो उसे अश्लील नहीं माना जा सकता, हर यौन विषय को अश्लील बताने की आदत को छोड़ देना चाहिए।
दिमाग से कुछ हारमोंस टेस्टोस्टेरेंट ऑक्सिटासिन रिलीज़ होतें हैं लैंगिकता, उन पर निर्भर करती है। बाबा साहब ने अदालत में होमो सेक्सुअलिटी पर हेवलोक एलिस के शोध को भी पेश किया अगर लोगों में इस तरह की(समलैंगिकता) भी इच्छा होती है तो इसमें कुछ भी ग़लत नहीं हैं उन्हें अपने तरह से ख़ुशी प्राप्त करने का अधिकार है हालाँकि आंबेडकर कर्वे का केस हार गए थे। 2018 में समलैंगिक संबंधो को कानूनी मान्यता मिली लेकिन सामाजिक स्वीकार्यता की छटपटाहट जोकि हमें किंशुक की कहानियों में दिखाई पड़ती है क्योंकि यौनिकता को नैतिकता के अनुकूल ही स्वीकार्यता मिलती है किंशुक दोनों के द्वंद्व को मिथ्या बताते है वे कामुकता, यौनिकता, अश्लीलता अथवा समाज के दोहरे नैतिक मापदंड और पितृसत्ता पर विविध टिप्पणियों के माध्यम से चोट करते चलते हैं।
समलैंगिक विमर्श के सन्दर्भ में किंशुक का कहानी संग्रह
किंशुक गुप्ता का कहानी संग्रह ‘ये दिल है कि चोर दरवाजा’ वाणी प्रकाशन के उपक्रम ‘सतरंगी वाणी’ से आया है जो ‘समलैंगिक समुदाय’ को समर्पित है। इस सन्दर्भ में ‘लिहाफ’ की लेखिका इस्मत चुगताई अपने उपन्यास ‘टेढ़ी लकीर’ में बताती हैं कि प्यार का कोई जेंडर नहीं होता, कोई वर्ग नहीं होता, कोई जाति नहीं होती, कोई धर्म नहीं होता। किंशुक गुप्ता की कहानियां भी प्रेम को यौनिकता से मुक्त मानती है। विमर्शों के केंद्र में विद्रोह, सहानुभूति और अधिकार होतें हैं जबकि परम्परागत टैबू में समलैंगिकता को आज भी सामाजिक ‘बीमारी’ माना जाता है, घृणा और भय की दृष्टि से देखा जाना शोषण की पराकाष्ठा है।
कहानियाँ पढ़ते हुए मुझे अहसास हुआ- हिंदी में समलैंगिक साहित्य जिसे क्वीयर साहित्य की तर्ज़ पर ‘यौनिक भिन्नता’ का साहित्य भी कहा जा रहा है, विमर्श का दरवाज़ा खोला गया है क्योंकि कानून के बावजूद जब तक इसे सामाजिक स्वीकृति नहीं मिलेगी इस समुदाय को समाज से चूहे बिल्ली का-सा खेल ही खेलना है जैसा किंशुक ने भूमिका में भी लिखा।
सूर्यबाला के शब्दों में कहें तो “लेखक की मंशा और नीयत कुछ इस तरह कि जब तक इस नारकीय यथार्थ को हम जानेंगे नहीं, तब तक मानवीयता के प्रति हमारे सरोकार अधूरे रहेंगे। हम समाज के प्रति वफ़ादार नहीं रह पाएँगे” इस संग्रह में कुल 8 कहानियां हैं जिसमे “हमारे हिस्से के आधे-अधूरे चाँद” तथा “बोलो जय, बोलो जय प्रभुदेव की” को छोड़ कर बाकी सभी में LGBTQ+ प्लस समुदाय को मुख्य धारा से जोड़ने का प्रयास है। संग्रह के लिए प्रियदर्शन जी वैधानिक चेतावनी देते हैं कि – किसी सनसनी की उम्मीद में ये कहानियाँ न पढ़ें। ये हमारे समय के बहुपरतीय यथार्थ और उसके विद्रूप की विश्वसनीय कहानियाँ हैं, इन्हें पढ़ कर आप समृद्ध होंगे।
समलैंगिकता से जुड़ें प्रश्न पितृसत्तातमक संरचना से किस प्रकार गुँथे हुए हैं इसे परत दर परत ही समझा जा सकता है, समलैंगिकता से जुड़े कई पूर्वाग्रहों को ये कहानियाँ तोड़ती है। ‘रहस्यों के खुरदुरे पहाड़’ स्त्री समलैंगिकता पर लिखी गौरी की कहानी है। गौरी जब गाड़ी पर भाई प्रफुल्ल का नाम देखती है या पिता के कंधे पर प्रफुल्ल की तस्वीर देखती है तो उसकी हसरतें समझ आती है अथवा वो माँ से कहती है “उन्हें भी पता चले, कैसा होता है परिवार होते हुए भी बिल्कुल अकेले पड़ जाना।” यहाँ स्पष्ट है कि उसमें परिवार की चाहत थी, लड़कियों के प्रति उसका झुकाव पिता का भेदभावपूर्ण व्यवहार कारक है जो लड़कों के लिए पाबंदियों से आरम्भ होता है क्योंकि जब माँ कहती है “तुम अकेली अपनी चॉइसेज़ की वजह से हुई हो।” तो गौरी कहती है “वो चॉइस नहीं, मेरे अस्तित्व की लड़ाई है।” ये अस्तित्व की लड़ाई वास्तव में पितृसत्ता के विरोध का ही रूप है। गौरी और शालिनी के सम्बन्ध परिस्थिति-जन्य है जिसमें शालिनी समलैंगिक है जबकि गौरी पितृसत्ता के विद्रोह में शालिनी से जो रिश्ता बनाती है,और उसे एक विकल्प के रूप में देखती है लेकिन ये उसके वश में नहीं था।
सम्भवतः यह भी एक कारण है कि स्त्री विमर्श पर यह आरोप लागतें रहे हैं कि वे परिवार तोड़ने वाली, अप्राकृतिक समलैंगिक संबंधों को बढ़ावा देतीं हैं यह कहानी सूक्ष्मता से खुलासा करती है कि शालिनी और गौरी का सम्बन्ध परिवेश की उपज है जिसे नैतिक/अनैतिक तराज़ू में तोलना बेमानी है। हालाँकि ममता कालिया के लघु उपन्यास ‘लडकियाँ’ में जब अशफां नायिका की टांग पर टांग रखती है तो उसे दुलार आता है, अकेलेपन के बावजूद उसमे यौनेच्छा जागृत नहीं होती जबकि गौरी का व्यक्तित्व ट्विस्ट हो जाता है ये उम्र का तकाजा भी था लेकिन पितृसत्ता का विद्रोह अधिक।
कहानी गौरी और शालिनी के लेस्बियन होने और उससे जुड़े विविध समस्याओं की ही नहीं है बल्कि अन्य कहानियों की तरह इसमें भी पितृसत्ता और उससे जुड़े कई तरह के पूर्वाग्रह,परिवार,घर, विवाह, भाई-बहन, भाभी माँ पिता के संबंधो की विविध रूप हमारे सामने रखती है। गौरी का समलैंगिक होना और अंत परिवार द्वारा उसके अस्तित्व को स्वीकार करना इस पूरे परिदृश्य को कहानी गंभीरता से सामने रखती है एक प्रेमालाप का एक नाज़ुक पल कितनी शालीनता से उकेरा है – “एक दिन शालिनी ने इन गुत्थमगुथा हाथों को गौरी के वक्ष पर रखा था।
गौरी को आभास हुआ मानो उसका शरीर आकाश है, जिसे किसी ने लाल-पीली-हरी आतिशबाज़ियों के रौशन फव्वारों से भर दिया है। उसने यही दोहराया, शालिनी के स्तनों पर। कौतुक से भरी दोनों शरीरों का अन्वेषण करतीं। शरीर पूरा मानचित्र—नाभि भूमध्य रेखा—और अदृश्य रेखाओं से पटे पड़े समुद्र और ज़मीन। हर देश का अलग स्वाद, अलग झनझनाहट। सोचती कितना अजीब है रक्तमाँस-मज्जा का लोथड़ा—ख़ुद छुओ, तो कैसा काठ का टुकड़ा; कोई दूसरा हाथ लगाए, तो कैसी आहों, खदबदाहटों, सुगबुगाहटों की पोटली बन जाता है”।
गौरी और शालिनी दोनों आर्थिक रूप से स्वतंत्र है अपने सेक्सुअल अभिविन्यास को चुनने का उन्हें भी अधिकार है जो अनुपलब्ध पुरुष या पितृसत्ता के विद्रोह के परिणामस्वरूप उठाया गया कदम भर नहीं है बल्कि इसे विषमलिंगी समाज के पूर्वाग्रह को तोड़ने के सन्दर्भ में भी देखा जाना चाहिए हालाँकि जब उनके निर्णय पर आसपास के लोग प्रश्न खड़ा करतें हैं तो घृणा और अपमान उन्हें आहत करता है अपनी पहचान के प्रति खुलकर कहने पर सीधे तौर पर उन्हें पतनशील चरित्र की का प्रमाणपत्र मिल जाता है पितृसत्ता के लिए ये भी चुनौती है कि स्त्री कहे उसे पुरुष की ज़रूरत नहीं वे पितृसत्ता के महत्व को कैसे ठुकरा सकतीं है, तब परिवार और समाज इसे बीमारी मानते हुए शारीरिक कष्ट देकर इलाज भी करते है कहानी में गौरी की एक मित्र का इलाज उसके पिता उसके साथ शारीरिक संबध बनाने के साथ करता है जो अत्यंत घृणास्पद है जबकि दूसरी मित्र को उसके पिता ने ज़हर देकर मार डाला यानी माँ बाप परिवार वाले भी ‘कन्वर्जन थेरेपी’ इलाज के नाम पर उनपर अत्याचार किये जाते है ताकि वे पितृसत्ता के विषमलिंगी खाँचे में फिट हो सके चाहे उन्हें कितना ही आहात होना पड़े।
यहाँ किंशुक पुन: घर परिवार में बच्चों की शारीरिक मानसिक सुरक्षा की पोल खोलते नजर आतें है दरअसल पितृ समाज के समक्ष यह चुनौती है कि अगर शारीरिक ज़रुरत समलैंगिक संबधों से पूरी हो जायेगी तो विवाह संस्था खतरे में पड़ जायेगी जबकि विवाह संस्था पितृसत्ता का सबसे मज़बूत आधार स्तम्भ है विवाह संस्था के कारण ही जाति व्यवस्था भी मज़बूत है क्योंकि विषमलिंगी से इतर होना सिर्फ सेक्स आधारित नहीं है बल्कि यह किसी के अस्तित्व, आत्मसम्मान, गौरव और पहचान का प्रश्न है शालिनी के लिए बच्चा अनिवार्य नहीं था, पर गौरी कहती – ‘पूरा इंसान रचने की शक्ति हमारे शरीर में है…तुम इसे ज़ाया कैसे जाने दे सकती हो?’ लेकिन गौरी का बच्चा उसकी ही असावधानी से नहीं रहा, इस दुर्घटना पर शालिनी उदासीन रही तो गौरी में उसके प्रति बदले की भावना ने उसके प्रिय कुते को गली के कुत्ते से लड़ने के लिए छोड़ दिया यानी विषमलिंगी समाज की संतान में किसी एक का ही अंश होगा ऐसे में जबकि बच्चे के प्रति दोनों के कर्तव्यबोध और स्नेह, प्रेम, लालन-पालन से जुड़े होतें है लेकिन लेस्बियन या गे जोड़े की संतान के सोच भी अलग होगी ये एक ऐसी चुनौती है जो इस कहानी में नज़र आती है।
वास्तव में समलिंगी स्त्रियाँ कथित सामाजिक पवित्रता से इतनी भयभीत रहतीं हैं कि अपनी साथी के प्रति भावनातमक अभिव्यक्ति के लिए सहज नहीं हो पाती गौरी के साथ यही हुआ,जबकि शालिनी ने तो पलायन ही कर लिया गौरी की माँ समझाती है “रोओ मत, मेरी बच्ची। यह हमारा भ्रम है कि विकल्पों का चुनाव हम करते हैं लेकिन मुश्किल आते ही अगर-मगर लगाकर पीछे देखने लगते हैं और अपने आप को कोसने लगते हैं।” गौरी माँ से कहना चाहती है शालिनी कहाँ साथ है लेकिन चुप हो जाती है। “अपने सारे कपड़े फाड़कर कैसे खड़ी हो जाए? वह माँ है, अपनी माँ, जिसकी अस्थि-मज्जा से वह उत्पन्न हुई है। उससे कैसी शर्म? नहीं, नहीं…अब वैसा अल्हड़ विश्वास और सामीप्य माँ से भी कहाँ बचा है? पारिवारिक संबंधों में यह दूरी कब और क्यों कैसे बन जाती है किंशुक की कलम सभी कहानियों में सूक्ष्मता से चित्रित करती है।जैसे एक तस्वीर में पिता ने प्रफुल्ल को अपने कंधे पर बिठाया हुआ है, और उसकी अँगुली पकड़ी हुई है। वह सोचती है, उसे क्यों कभी कंधे पर नहीं बिठाया गया जबकि वह तो पाँच साल छोटी थी, लाड़-प्यार की ज़्यादा हक़दार थी। और जब प्रोपेर्टी में हक़ की बात आती है तो भाई कहता है इसे क्या ज़रूरत पैसे की तो गौरी कहती है “ज़रूरत नहीं, हक़ की बात है। देखें, किस माई के लाल में दम है मुझे रोकने का!” “मैं दूँगा ही नहीं तो लेकर क्या जाएगी…ठेंगा?” “तुम कौन होते हो ना देने वाले?
शालिनी के साथ भी गौरी का स्वार्थ ईर्ष्या बदले की भावना नजर आती है जो संभवत: गौरी के स्वभाव का हिस्सा है। जिम्मी के मरने पर गौरी कहती है डोंट क्रिएट ए सीन,ही इज़ जस्ट ए पेट।.. हाउ डेयर यू?” शालिनी चीखी थी” यहाँ शालिनी का मानव मात्र नहीं बल्कि प्राणी मात्र के प्रति उदार दृष्टिकोण दिखाया है। गौरी का बेटा शालिनी की सहमति से नहीं आया था लेकिन जब आ ही गया तो यह गौरी का पहला दायित्व था कि वह बच्चे का ठीक से ख्याल रखती क्योंकि शालिनी के लिए तो कल्पवृक्ष की बच्चियों की देखभाल करना अधिक प्राथमिकता थी वो (शालिनी )तो ‘कल्पवृक्ष’ एन. जी. ओ. की बच्चियों को ही अपना मानती थी।
यौन शोषण की शिकार दो से दस साल की लड़कियाँ जिनका अतीत खौलते पानी-सा था शालिनी कहती है “जब तक घरों में हम बनैले जानवर पाले हुए हैं, दूसरी रिंकी, सोनाली, मोहिनी मिलना कोई मुश्किल काम थोड़ी है। “फ़र्क़ क्या पड़ता है, अपना हो या दूसरे का? यहाँ कितने बच्चों का भविष्य बनाने का अवसर हमें मिल रहा है।” शालिनी अक्सर दोहराती” जब शालिनी को नौकरी में टर्मिनेशन लैटर मिला तो बॉस ‘इम्मॉरल कंडक्ट’ कारण बताता है- ‘हमें नहीं पता था तुम ऐसी हो!” शुक्ला ने मुँह सिकोड़ते हुए कहा” असल में ऑफिस के एक रसोइए ने शालिनी के इंस्टाग्राम की तस्वीर ट्रस्टी वाले व्हा ट्सएप ग्रुप में डाल थी जिसमें गौरी और शालिनी की तस्वीरें डाल दी थी कहानी के अंत में जब गौरी को परिवार वाले स्वीकार करते है तो कारण गौरी का अकेलेपन, की कसक के साथ प्रफुल्ल की आर्थिक तंगी को देखते हुए अपना हिस्सा छोड़ देना भी था, तो भी यह एक आशावादी दृष्टीकोण है जिसमे सभी अपने अहम को त्याग कर संबंधों में नई गर्माहट पैदा करने की कोशिश में हैं “प्रफुल्ल को बहुत पसंद थे वहाँ के मोतीचूर के लड्डू।
…प्रफुल्ल का नाम लेते ही उसकी जीभ लड़खड़ा गई”। क्योंकि हमने संबंधों पर खुद ही रोक लगा ली लेकिन अंत:स्तल में वे हमेशा होतें हैं गौरी सोचती है दुख तो बृहदता प्रदान करता है, तब निजी दु:ख के भँवर में खोई उसकी दृष्टि कैसी इतनी संकीर्ण हो गई? दुख ने कब उसे ऐसी हीनता से भर दिया कि बदले और प्रतिकार जैसे ओछेपन में वह अपना स्वाभिमान खोजने लगी अगर शालिनी के साथ सम्बन्ध बने रहते तो उसका क्या निर्णय रहता ? उसकी गति अपनी दो मित्रों सी नहीं हुई क्या यही ख़ुश होने के लिए काफ़ी नहीं?
‘सुशी गर्ल’ कहानी में सुशी गर्ल का चित्रण इस प्रकार किया है–“हैरान थी रेस्टोरेंट की लाल टेबल पर उस बीस-पच्चीस साल की नग्न लड़की को देखकर—डंडे की तरह सीधी लेटी हुई, उसके शरीर से आती महँगे परफ़्यूम की गंध, स्तनों के बीच, टाँगों और हाथों पर, और जहाँ कहीं भी सतह समतल थी, टूना और सुशी रोल सजे हुए। कोट-टाई लगाए, खिचड़ी दाढ़ी वाले आदमी कभी चॉपस्टिक्स से, कभी अपने होठों से जब सुशी खाते, मैं एक लिजलिजेपन से भर जाती। लाल बालों वाली अंग्रेज़ औरत ने बताया था—उसे सुशी गर्ल कहते हैं” जापान में यह पुरुष सैलानियों को मोहने के लिए बनाई गई थी। एक रात के लगभग दो सौ डॉलर।
स्त्री मन को समझने और अभिव्यक्त करने में किंशुक कितने सक्षम और सहज है ये ‘मैं शैली’ में लिखी ‘सुशी गर्ल’ कहानी पढ़कर ही जाना जा सकता है। कहानी में नायिका श्रुति की आँखों में अपने लिए घृणा देखकर ‘सुशी गर्ल’ यूको की आँखों की कोर का आँसू उसकी विवशता बताता है इस मार्मिक दृश्य में बिना कोई शब्द कहें आँखे अभिव्यंजना कर जाती हैं। पर श्रुति को उस समाज से घृणा क्यों न हुई जहाँ औरत उपभोग की ही वस्तु है क्या किसी दुल्हन का सजना सँवरना उसकी सेज सजाना इसी तरह का नहीं होता जब कमरे की सजावट के साथ स्त्री भी सजी धजी पलंग पर बैठी होती है?
नायिका का अपनी तुलना सुशी गर्ल से करना कि “उसे यूको याद आ गयी” आप कह सकतें हैं कि यूको का ‘देहकर्म’ किसी भी स्त्री की देह आकांक्षा का पर्याय हो ही नहीं सकता स्त्री के लिए प्रेम और वासना एक सिक्के के दो पहलू हैं जबकि यूको का देह-कर्म उसकी विवशता लेकिन पितृसत्ता में पत्नी की विवशता वास्तव में विकल्पहीनता है जबकि यूको के लिए चुनाव का विकल्प है।पितृ सत्ता में स्त्री की दैहिक आकांक्षाएँ अनैतिक मानी जाती हैं सुशी गर्ल कहानी पितृसत्ता द्वारा संचालित विवाह संस्था और परिवार की विविध परतों को बारीकी से खोलती चलती है इसलिए कहानी में श्रुति की यौन इच्छाएं अनैतिक नहीं स्वाभाविक ही लगती है, उसकी सोच और प्रतिशोध का भाव और हिंसक कृत्य न्यायसंगत ठहराने के लिए आरोपित नहीं लगता।
विवाह संस्था की अनिवार्यता पर भी किंशुक ने बहुत बारीकी से लिखा है, तथाकथित सभ्य स्त्रियाँ जो सुशी गर्ल जैसी लड़कियों से घृणा करती हैं लेकिन अपने प्रेमी-पति के लिए सुशी गर्ल बनने को ललायित रहती हैं लेकिन क्या “ये ही” इस कहानी यथार्थ है? खासकर तब जबकि इसी कहानी में और एक अन्य कहानी में भी किंशुक लिखतें है- “मैं इंतज़ार में थी कि वह कुछ पूछेगा और मैं कोई कटाक्ष भरा जवाब दे उसे जता दूँगी कि मैं भी मॉडर्न लड़की हूँ, फ़ेमिनिज़्म समझने वाली”। या “वैसे तो बड़ी फ़्रेमिनिस्ट बनी फिरती हो, अब क्यों सिट्टी-पिट्टीग़ुम हो गई?” तो ये फेमिनिज्म पर संदेह नहीं बल्क़ि उसे समझने के लिए नए आयाम की ओर मोड़ने का प्रयास है कि जब स्त्री अपने अधिकारों के प्रति सचेत होती है तो उसे हतोत्साहित करने के लिए किस प्रकार फ़ब्तियाँ सुननी पडती है। खुद को कमतर समझना या पितृसत्ता द्वारा किया गया माइंड सेट का संवाद देखिये- “तुम न चाहते हुए भी पका फल हो गईं।” उसने कहकहा लगाया…“ऐसा कुछ नहीं है…इसे लगता है कि कच्चे फल की कड़वाहट की तरह लड़की मस्तमौला होती है, किसी के मुँह के स्वाद की फ़िक्र न करने वाली, जबकि औरत मीठा फल होती है, सबका ध्यान रखने वाली।”
सदियों से पुरुषों द्वारा उसके शारीरिक श्रम का इस्तेमाल और व उसकी भावनाओं से खिलवाड़ किया गया, सुरक्षा के नाम पर स्वयं को बचाए रखने का प्रयास लेकिन अब स्थितियाँ तेज़ी से बदल रही है और वे सुरक्षा के नाम पर शोषण करवाने को तैयार नहीं, स्त्री बचाव की मुद्रा से आक्रामक मुद्रा में आ रही है इसलिए कहानी की नायिका उचित अवसर पाकर अपने साथ हुए मानसिक अत्याचार और शारीरिक शोषण का जमकर बदला लेती है, जमकर इसलिए कि छल-प्रपंच के कारण पति और प्रेमी के प्रति उसकी संवेदनाएँ शून्य हो चुकी हैं, कोमल मनोवृतियों का हनन किसी भी समाज के संतुलित विकास के लिए सही नहीं।
पितृसत्ता में लड़की के सौन्दर्यगत मापदंडों, विवाह-संस्था में माँ बाप द्वारा बेटे-बेटी को लेकर चिंताएँ, दाम्पत्य-संबंधों जटिलताएँ और उनके बीच समलैंगिक संबधों में श्रुति का पिस जाना कहानी को जटिल तो बनता है लेकिन उसका शोषण समलैंगिक पुरुषों द्वारा हो रहा है यहाँ पुरुष वर्चस्व की मानसिकता हमारे समाज के वीभत्स यथार्थ का नग्न चित्रण करती है, इसकी तुलना यदि योगिता यादव की ‘शहद का छत्ता’ से करूँ तो वहां भी एक समलैंगिक महिला बॉस, पुरुष का आवरण ओढ़े शोषण को अपना अधिकार मान रही है क्योंकि वह ‘सरकार’ है सत्ता है, वर्चस्व उसके पास ही है। दोनों कहानियों में ‘गे’ या लेस्बियन एक वितृष्णा भी उत्पन्न करते है इसलिए भी समलैंगिकता पर बात करना अनिवार्य हो जाता है क्योंकि इन विषयों पर खुल कर बात नहीं होती इसलिए इसमें विकृतियाँ पनप रही हैं।
‘मछली का काँटा’ ‘गे’-समलैंगिक जोड़े की त्रिकोणीय प्रेम कथा गृहस्थ पति-पत्नी की सामान्य-सी दिखने वाली बहस से आरम्भ होती है जिसमें एक पति की तरह दूसरे पर हावी है,जबकि दूसरे का समर्पण भाव, झुकने को तैयार है, वर्चस्ववादी यह दृश्य पितृसत्तात्मक संरचना का ही रूप प्रतीत होता है। दो समलैंगिक रुझानों के व्यक्तियों का प्रेम ख़ास या आम ही-सा होता है? ‘मछली का काँटा’ इस पक्ष को भी सामने रखती है कि उनमें भी स्वाभाविक मानवीय ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा स्नेह त्याग समर्पण के भाव होतें हैं। पितृसत्ता प्रेम को स्वीकृति नहीं देता,फिर समलैंगिकता और प्रेम का गठजोड़ कैसे स्वीकार करेगा।
‘मछली का काँटा’ के पात्र परम्परागत विषमलिंगी विवाह संस्था में अनफिट हैं इसलिए भयभीत हैं पूर्व निर्धारित सांस्कृतिक नैतिक स्वरुप से विद्रोह न कर सामाजिक नैतिकता से आतंकित छिपकर रहने को विवश है, आहत है जबकि “अतीत का काला धुआं आज भी दम घोंटता है” पहली तनख्वाह मिलने पर घर में मोटे काले परदे सबसे पहले लगातें हैं “इतने मोटे कि रौशनी के सतरें भी आर-पार न होने पाएँ। हम दो चपल चूहों के छिपने की खोह कभी लगती सेल्यूलर जेल की दस जमा छह की कोठरी, जिसमें हम न जाने कौन से जुर्म की सज़ा काट रहे हैं”। कहानी में चाचा द्वारा किया गया शोषण आज भी नायक को बेचैन किये रहता है, सोने नहीं देता तो कहानी के अंत में एक की इर्ष्या, हीनता-भाव,विजय की पताका बदले की भावना को का दैहिक इस्तेमाल के साथ दिखया गया है वह दृश्य आपको रोने पर विवश करेगा। लेकिन अंत में दोनों अलग हो जाना संबधों की नई शुरुआत की ओर भी संकेत करता है।
संबंधों में जहरीला परिवेश दमघोंटू हो जाए तो अलग होना बेहतर है जो विवाह संस्था में सम्भव ही नहीं। तभी मिसेज़ रायजादा की डायरी कहानी में वह डॉ से कहती है कि “शादी की क्या ज़रूरत, जब उसके बिना भी ख़ुश हैं”? डॉक्टरों के स्कैम की पोल खोलने के साथ ही किंशुक न्याय व्यवस्था पर भी व्यंग्य करते चलतें हैं “इंडिया में केस तब तक ख़त्म नहीं होते, जब तक लोग विक्टिम और अब्यूज़र के नाम अदल-बदल न दें।” अंत में उनके हक़ में फैसला इस बात को रेखांकित करता है कि कानून बनाने पर कुछ तो राहत मिलती है ज़रुरत है अपनी आवाज मुखर करने की।
‘तितलियों की तलाश में’ बालक का पिता ही उसका यौन शोषण कर रहा है, अविश्वसनीय से लगने वाले इस विषय को किंशुक ने अत्यंत संवेदनशीलता के साथ उठाया है जबकि बालक जानता भी नहीं कि ये यौन-शोषण है उसे बस चॉकलेट से मतलब! चॉकलेट उग्र की कहानियों में भी है लेकिन भिन्न अर्थों में, उग्र की कहानियों में कहीं भी छोटी उम्र के बालकों की तकलीफ बालकों की नजर से दर्ज नहीं की गई है। कहीं भी बच्चों के मुख से तकलीफ का वर्णन नहीं है, इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि बच्चे शोषण करवाने के लिए सहमत थे। इसका अर्थ यह है कि बालकों को यह पता ही नहीं चलता था कि उनका शोषण हो रहा है, बाल शोषण यानी ‘पिडियोफिया’ एक अपराध है।
उग्र ‘चॉकलेट’ उन लड़कों के लिए इस्तेमाल कर रहे है जिनका बाल यौन शोषण ‘चॉकलेट-पंथी’ करते हैं और किंशुक ने चॉकलेट को सीधे तौर पर एक लोभ-लालच की वस्तु के रूप में किया है जिसे देकर उसका शोषण किया जा रहा है। इस्मत की ‘लिहाफ़’ कहानी में उनकी खाला उसे खिलौने-फ्राक आदि का लालच देना चाहती है पर इस्मत का विद्रोही स्वभाव उसे बचा लेता है। यौन जैसी विकट स्थिति में माता-पिता बच्चे के साथ किस तरह पेश आयें? ‘शोषण पर कैसे प्रतिक्रिया करें कि भविष्य में उसके तन और मन पर खंरोच के निशान न रह जाएँ उसके व्यक्तित्व को विकृत न कर दे।
किंशुक की तितलियों कहानी में इस समस्या को बहुत ही सूक्ष्मता और सावधानी से चित्रित किया है जिसमें यही बताने का प्रयास है कि यौनाचार को व्यभिचार बनने में समय नहीं लगता। स्त्री या माँ के लिए यह विडम्बना है कि यहाँ बालक से हुए शोषण के लिए उसे ही दोषी ठाह्राया जा रहा है “वह ज़मीन पर निढाल पड़ गई। घुटनों के बीच अपना चेहरा छिपाकर रोने लगी। अपनी पुरानी बात याद आई- मैं सब कुछ अच्छा बनाकर दिखाऊँगी- सब कुछ, मतलब सब कुछ। उसे अपने चुनौती भरे वाक्य आज खोखले लगे” लेकिन बेटे के परवरिश की जिम्मेवारी अकेले माँ की क्यों? अगर वह विदेश पढ़ने न जाती तो? या अगर पति को विदेश जाना होता तब भी स्थितियां इसी तरह होती जबकि हम जानते हैं अमूमन मुखिया पिता पुरुष ही कमाने बाहर निकलता है तो माएँ बच्चों की परवरिश करती हैं लेकिन यहाँ सारिका पर इलज़ाम है “अब घर पर हो तब भी भवू को नहीं सँभाल पातीं?”“तुम्हें अपने आप से फ़ुर्सत मि ले तब तो।…हमेशा अपनी मर्ज़ी क्यों चलाने की कोशिश करती हो?” जबकि बालक का शोषण हो रहा है इस पर पिता सुधीर बात भी नहीं करना चाहता “पॉसिबल ही नहीं, मेरे बच्चे के साथ…नॉट एट ऑल।” ये पुरुषत्व का घमंड तो ही है माँ को गैर- जिम्मेदार प्रमाणित कर खुद बचाए रखने का उपक्रम अधिक है “उससे कुछ नहीं पूछना। इस बात को बिल्कुल भूल जाओ।” …मैं एक अच्छा पिता हूँ।” यह वाक्य पिता को रहस्यात्मक ढंग से कटघरे में ला घेरता है।
विदेश में मार्टिन का साथ न बनाये गये संबंधो के लिए भी सारिका में अपराध बोध आ जाता है। यह उसके डिफ़ॉल्ट संस्कार है कि वह मार्टिन में ‘घर’ नहीं ढूँढ़ पाती, न ढूँढ़ना चाहती, उसे तो एक खूँटे की तरह चाहती है, जिस पर कुछ देर तक वह टँगी रह सके शरीर से ज़्यादा वह इस आज़ादी को भोगना चाहती है, पूरी तरह से, अल्हड़पन से, एक टीनेजर की तरह जिसे उस समयकाल में न जी सकी। लेकिन बेटे के यौन शोषण ने उसे पश्चाताप का लिजलिजा-बोध से भर दिया जो वास्तव में पितृसत्तात्मक संरचना के भीतर से उपजा है अगर मार्टिन की बात सुधीर को नहीं पता तो भी स्त्रियों को अपनी दैहिक इच्छाओं को जस्टीफाई करना पड़ता है जब मार्टिन ने तब कहा था, “मैं ऐस हूँ।” एसेक्सु अल! “मैं तुमसे प्यार करता हूँ, लेकिन मन से, बिना शरीर के कौन-सा प्रेम होता है? एसेक्सुअल होने का अर्थ है किसी भी जेंडर के प्रति शारीरिक इच्छाएं या आकर्षण ना होना और यह कोई समस्या नहीं है। क्या केवल प्रेम में शरीर होने से सुधीर की चीटिंग उसकी चीटिग से ज़्यादा बड़ी है?
मिसेज़ रायज़ादा की कोरोना डायरी में रायज़ादा की कई स्तरों पर स्वीकृति है जो वास्तव में विवाह संस्था में समझौतावादी प्रवृति पर प्रश्न उठाती ही है तो इस बात का भी खुलासा करती है कि समलैंगिक संबंध पितृसत्ता के विषमलिंगी समाज के लिए चुनौती क्यों है? गौरी के पिता की तरह ही मिसेज़ रायज़ादा सार्थक की माँ अपने बेटे के संबंधों को स्वीकार नहीं कर पाती और आधी रात में बेटे को घर से बाहर निकाल देती है पति ने कितना समझाया कि बीस-बाइस साल का लड़का, जिसने अभी ढंग से कमाना भी नहीं शुरू किया, वह कहाँ जाएगा, कैसे रहेगा, क्या खाएगा, पर वह नहीं सुनती।
“सार्थक गया और अपने साथ ले गया सारी उमंग और पीछे छोड़ गया एक घर, जो घुन खाए चावल जैसा है, हाथ में उठाते ही दरकने को तैयार”। और आज जब प्लाज्मा की ज़रुरत पड़ी तो सार्थक का ब्वॉयफ़्रेंड जैकब ने प्लाज्मा दिया उसे रिश्तों में प्रेम की अहमियत समझ आती है लेकिन डॉ शिवेश सहानुभूति भरी आवाज़ में,कहते हैं “यंग जेनरेशन का तो सारा ध्यान उल्टे-सीधे कामों में लगा रहता है।…प्रेम में क्या उल्टा, क्या सीधा?” तुरंत मेरे मुँह से निकलता है। जैसे मैं सार्थक से ज़्यादा अपने आप को सही ठहराने की कोशिश करती हूँ।…इन सब रिश्तों में कोई प्यार नहीं, कोई कमिटमेंट नहीं…जैसे ही एक-दूसरे से मन भर गया, वैसे ही छोड़ दिया।” वैसे सार्थक और जैकब दस साल से साथ हैं…एक-दूसरे के साथ बहुत खुश हैं। “और शादी?” “शादी की क्या ज़रूरत, जब उसके बिना भी ख़ुश हैं।” “लेकिन ऐसे डर-डर के जीना कि दूसरा इंसान कभी भी छोड़ देगा।” “जहाँ प्यार होता है, वहाँ डर नहीं होता।” और मिसेज रायजादा की शादी का यथार्थ यह रहा कि उसने विवाह को रेस्पोंसिबिलिटी की तरह निभाया जिसमें संबंधों की गरमाहट नही थी जबकि बेटे ने शादी नहीं की फिर भी वह खुश है, अपने संबधों का आकलन करने पर वो पाती है कि सम्बन्धो में प्रेम का संचार और ऊर्जा बनी रहे इसके लिए विवाह अनिवार्य नहीं।
“बीमार शामों को जुगनुओं की तलाश” आजकल जबकि ‘पुरुष विमर्श’ की सुगबुगाहट हम महसूस कर पा रहें हैं जिसकी संकल्पना में ‘स्त्री सशक्तिकरण’ से कमजोर होते पुरुष की शोचनीय स्थिति को सामने रखना है पर गहराई से देखा जाए तो यह पितृसत्ता के वर्चस्व में स्त्री पुरुष दोनों के ही अध्ययन का विषय है। आज के स्त्री सशक्तिकरण के सन्दर्भ से जोड़ते हुए या फिर अलगाते हुए भी देखें तो किंशुक की ‘बीमार जुगुनों की तलाश’ कहानी एक सटीक व एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। घर, परिवार, विवाह आदि पितृसत्ता ने अपनी सुविधानुसार गढ़े हैं जिसमें बेटी,पत्नी माँ की भूमिका के साथ साथ बेटे पति और पिता की भूमिकाएं भी तय कर दी गई हैं जिस स्त्री सशक्तिकरण पर मार्च में खूब ज़ोर-शोर से चर्चाएँ होती हैं किंशुक की कहानी बताती है कि स्त्री के सशक्त होने पर पुरुष कमज़ोर नहीं होता बल्क़ि पितृसत्ता में वह भी उतना ही कमज़ोर अशक्त है जितनी कि स्त्री।
यह ठीक है कि उसे पितृसत्ता में लड़कों को विशेषाधिकार मिले हुए हैं लेकिन ये अधिकार परम्पराओं की रूढ़ पोटली में बंधे हुए मिले है जिनकी गाँठे खोलना आसान नहीं तभी तो पुरुष की कमज़ोरी को ही “मर्दाना ताक़त” में बदलने के फार्मूले दीवारों पर चिपके दिखाई देतें हैं। सोमिल जो कुछ सृजनात्मक करना चाहता है लेकिन नवनिर्माण या अपने ही जीवन से प्रयोग करना पिताओं को(पितृसत्ता) कहाँ पसंद आता है? पिता के लिए वह निक्कमेपन का परिचायक है “साहब को काग़ज़ काले करने से फ़ुर्सत मिले तब तो…राइटिग को बीच में मत लाओ।” सोमिल का चेहरा सख़्त हो गया” परिवार के नाम पर हम (संबंधों से नहीं) इस तरह बंधे होतें हैं कि कुछ अलग करने की सोचना ही “विद्रोह” माना जाता है।
‘बीमार शामों को जुगनुओं की तलाश’ कहानी में जहाँ पिता को बेटे से और-और चाहिए, उसकी उम्मीदें आकांक्षाएं, मह्त्वाकंक्षाएं बेटे से हैं बेटी से नहीं और जिस बेटी मानसी पर पिता घमंड कर रहा है, यदि उस पर बेटे के बराबर ध्यान दिया होता तो सम्भवत: वह और अधिक सफल होती। हमारे समाज में बेटे को पढ़ाने का ध्येय सिर्फ नौकरी ही है, एक अच्छा नागरिक बनाने की पैरवी यहाँ हमेशा से गौण रही है, लड़कियों को तो एक सुघढ़ गृहिणी बनाने के लिए जोर दिया जाता है।
पिता का कहना “सीख अपनी बहन से…कुछ सीख। आर्ट्स की जगह कॉमर्स ली उसने”। स्पष्ट है कि आर्ट्स लड़कियों का विषय है वैसे सोमिल अगर पिता के दबाव में न रहता तो अपने क्षेत्र में बेहतर करता,उस का कोमल मन पिता की संवेदना के लिए हमेशा तरसता रहा “लेकिन ख़ुश होना तो दूर, पिता ने कभी उसके प्रयासों को एक स्निग्ध मुस्कान तक से नहीं नवाज़ा। हमेशा और-और-और की रो-रट।फिर धीरे- धीरे वह थक गया था। ढीठ हो गया था।”
सोमिल जैसे लड़के कुछ अलग करने जाए तो पहले तो घर परिवार वाले सपोर्ट नहीं करते, पिता की आवाज़ ‘पढ़ो, पढ़ो, पढ़ो’ में माँ, बहन के साथ-साथ पूरे मुहल्ले रिश्तेदारों की आवाज़े मिलती रहती है “धीरे-धीरे पूरा मोहल्ला, शहर, देश, विश्व—कितनी सारी आवाज़ें गड्ड-मड्ड हो जातीं—जनाना, मर्दाना, सुरीली, कर्कश, लो पिच, हाई पिच, थरथराती हुई, बुलंद—वे सब उसके कानों के पर्दों को भेदती दिमाग़ के किसी कोने में अनवरत उपदेश देती रहतीं—पढ़ो, पढ़ो, पढ़ो। “लोग क्या कहेंगे आर्ट्स ले ली…छि ! मेरी इज्ज़त का ख्याल है?…“सबसे बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग।” जबकि जबकि शामें चौबीस घंटे का सबसे हसीन समय होता है आज बीमार हो चुकी है कहानी में समाज बीमार शामों का प्रतीक है पितृसत्ता/पिता डायलिसिस पर है जिसे बचाने में पूरा परिवार/समाज लगा हुआ है वह बेटा भी जिसे अपना पिता भेड़िये की तरह गुर्राता प्रतीत होता है “पिता का नाम सुनते ही सोमिल को भेड़िए की खुर्रांट, ख़ून-पुती, वितृष्णा-भरी आँखें याद आतीं। वे उसे भद्दी तरह से घूरतीं। ‘पढ़ो, पढ़ो, पढ़ो’ की कड़ी आवाज़” कहानी एक नई जगमगाती लेकिन जीवंत जुगुनुओं की-सी रौशनी की तलाश में है। सोमिल का मन हुआ कि पिता को कस कर गले लगा ले और ख़ूब रोए। एक क़दम बढ़ाया भी, फिर पीछे हट गया।
दोनों का संघर्ष जेनरेशन गैप भर नहीं बल्कि परम्परागत सोच की आधुनिकता से टकराहट है जिसमें सोमिल खुद को बचा निकाल लाता है,उन स्थितियों में भी जबकि आर्थिक रूप से समर्थ बहन जब उसे निकम्मा घोषित करती है “सोमिल ने माँ को पानी देते हुए सहमे स्वर में कहा, “कोई हल ज़रूर निकल जाएगा।…जैसे किडनी बाज़ार में पड़ी फिर रही हैं।…मानसी चिल्लाई। तुम्हारे पास तो ख़ूब सेविंग्स हैं! सोमि ल ने तंज़ कसा। दो महीने में मेरी शादी भी है।… शादी कुछ टाइम बाद कर लेना। तुम्हारे नकारेपन का फल सब क्यों भुगतें?…मिसेज़ शर्मा के बेटे का पचास लाख का पैकेज है। रोहन का पचपन लाख का…तुम थोड़ा भी कमाते होते…माँ ने हसरत से कहा। पानी लेकर आ मेरे लिए…मानसी ने बाल पीछे करते हुए कहा। फिर जब वह वहीं खड़ा था तब उसने तुर्शी से कहा, किसी काम का नहीं“!
क्योंकि पितृसत्ता में लड़के को कमाना अनिवार्य है अन्यथा वह निकम्मा निठल्ला, अनाज का दुश्मन, काउच पोटेटो ताने सुनेगा ही! थक हार विवश हो वह हर जगह के आवेदन भरता है एक जगह कम्पनी में फुसफुसाकर उससे पूछा गया था कि क्या वो ट्रांस है, क्योंकि डायवर्सिटी सेल को और ‘इंक्लूसिव’ बनाए बिना उनकी कम्पनी टॉप कम्पनियों में शुमार नहीं हो सकती। जब पता चलता है कि पूनावाला नए लड़कों के साथ सोए बिना उन्हें काम नहीं देता। उसके साथ काम करने के लिए सिक्स पैक्स होना ज़रूरी है तब उसने इस बात ज्यादा तूल नहीं दिया लेकिन जब उसके पास यही प्रस्ताव आया तो वह कशमकश में पड़ गया प्रकाशक में प्रेम कहानी में “लव-जिहाद” का एंगल डालने को कहा तो समझ नहीं पाया कि वह यह समझौता क्यों करेगा? कहानी का अंत आशावादी है जो बनावटी लग सकता है पर कहानी में बदलाव न करना व पूनावाला से समलैंगिक संबंध न बनाने का निर्णय एक स्वस्थ सोच की ओर बढ़ाया कदम है।
इस कहानी में भी विवाह-संस्था में प्रेम, समझौता कर्तव्य जैसे शब्दों पर कटाक्ष है “पत्नी का धर्म जो जनेऊ की तरह गले में है… क्या वो पति के लिए यह सब प्रेम के चलते करती है? ये ख्याल उसके दिमाग़ में तब चर्राते, जब दोपहर में रसोई का काम निबटा कर वह पालथी मार कर सोफ़े पर आसीन हो जाती। वह समझदार है, जानती है, व्यस्त रहना ही ख़ुश रहने की तरक़ीब है…पूरे घर में सबसे बेढंगी रसोई ही थी, ‘एल’ के आकार की। ड्रॉइंग रूम के बीच जो जगह मिली, शायद इसलिए कि माँ के अलावा वहाँ घुसने की ज़रूरत किसी को न थी।
समलैंगिक विमर्श की इन कहानियो में पितृसत्तात्मक संरचना में अंतर्निहित घर, परिवार, विवाह, पति- पत्नी के साथ साथ भाई-बहनों के संबंधो पर जो पैनी दृष्टि मिलती है वह अन्यत्र दुर्लभ है वे विवाह संस्था और परिवार पर प्रश्नचिह्न उठातें हैं, परिवार को छलिया कहतें हैं तो “शादी नहीं की तो क्या खुश तो हैं? कहकर समलैंगिक संबंधों की विशेषता उजागर करते हैं। आज विवाह-संस्था की कितनी अनिवार्यता बची है अथवा इस संस्था में क्या परिष्कार नहीं होने चाहिए पर इसके लिए उस सामाजिक संरचना मको बदलना होगा जो पितृ सत्ता संचालित कर रही है हालाँकि यह भी महत्वपूर्ण तथ्य कि समलैंगिक समुदाय द्वारा मैरिज एक्ट के तहत अपने विवाह की मान्यता की मांग कितना सही है? जो इस महत्वपूर्ण संवाद से समझ आता है कि “चिल्लाए बिना, बहरा समाज कुछ नहीं सुनता।”
आज कल हमारे समाज में LGBTQ+ को सभी देखते तथा सुनते हैं, परंतु लोग इन सबसे घृणा या मज़ाक बनाते हैं। इनका मज़ाक बना कर समाज में अपने आप को cool दिखाते हैं। जैसे:- आज के समय में k-pop band काफ़ी चर्चा में हैं इनमें korean boy को सभी लड़कियां पसंद करती हैं परंतु लड़के इनको gay बोल कर उनका मज़ाक, उनके कामयाबी को अनदेखा करते हैं तथा उन्हें किसी लायक नहीं समझते ख़ैर यहां उनके कामयाबी या लायक की बात नहीं है परंतु उन्हें gay बोल कर अपनी छोटी सोच को दर्शाता हैं। इससे जो LGBTQ+ होते हैं उन्हें अपने बारे में किसी को बताने में शर्म आती हैं। इससे उनकी गलती नहीं होती चुंकि समाज ही ऐसा है जो LGBTQ+ को स्वीकार नहीं करना चाहता। साथ ही परिवार के लोगो कि भी ग़लती होती हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके बच्चों के समलैंगिकता को सुन कर लोग क्या-क्या बोलेंगे इस डर से वह बच्चों को इसके बारे में नहीं बताते,जैसे:- उग्र जी की “चॉकलेट” में बालक को कुछ पता नहीं होती तो उनके परिवार के सदस्य ही उनका यौन-शोषण करते हैं।इस लिए अपने बच्चों को समलैंगिक के बारे में बताना चाहिए इससे कोई उनका यौन-शोषण ना कर पाये।
समाज के सभी नागरिकों को LGBTQ+के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता है क्योंकि जो आम लोग (जोकि LGBTQ+नहीं है) हैं उनको अपने जीवन में अपने मनपसंदीदा स्त्री और पुरुष से विवाह या दोस्ती रख सकते हैं तो वह क्यों नहीं?
जैसे:- “वजूद” (लघु फिल्म) जिसमें थर्ड जेंडर को एक ऑटो वाले के प्रति प्रेम होता है परंतु उसके खुद का समुदाय उसे यह करने से रोकता है और हमेशा उसे थर्ड जेंडर होने का याद दिलाता रहता है साथ यह भी बोलते है कि यह समाज हमें स्वीकार नहीं करेगा।
अगर ऐसा है तो हमारा समाज समलैंगिक (LGBTQ+) होने पर भी घृणा या मज़ाक बनाते हैं और अगर वह किसी के साथ आम जीवन व्यतीत करना चाहते हैं तो समाज को उसे भी समस्या क्यों होती है .?
समाज को जागरूक करने के लिए “प्राइड मंथ्स” की यात्रा भी निकाली जाती हैं परंतु इसके बाद भी समाज के कुछ लोग उनका समर्थन नहीं करते क्योंकि इसका कारण यह है कि धर्म,जात,वर्ग, समुदाय ,समाज आदि सब रुढ़िवादी सोच पर निर्भर करता है,
इस लिए समाज इनसे घृणा या मज़ाक बनाते हैं।
हाल ही में थाईलैंड ने LGBTQ+ जिसमें “सैम सेक्स मैरिज”️ बिल पास कर दिया है। इससे यह भी पता चलता है कि समाज में LGBTQ के प्रति लोग जागरूक,समर्थन तथा इनका स्वीकार भी कर रहे हैं।
धन्यवाद आपका,आज की युवा पीढ़ी जब पूर्वाग्रह मतों पितृसत्तात्मक मठों को समझने के प्रयास करने लगती है तो बदलाव की उम्मीद जगती है।