नाटक
लोकसंस्कृति और असली नटकियों की कथा
– मुन्ना कुमार पाण्डेय
अविनाश चन्द्र मिश्र का नाटक ‘बड़ा नटकिया कौन’
एक थी लोकरंजन की सांस्कृतिक परम्परा, जिसका प्रतिनिधि फूलचन है और एक है दूसरे किस्म की परम्परा, जो निरन्तर प्रवाहमान, गतिशील और अपने मूल चरित्र में दमघोंटू । सवाल यह नहीं है कि यह जो दूसरे किस्म की परम्परा हमारे समाज में लगातार मजबूती से टिकी रही है, उसके पीछे किसकी कमजोरियाँ हैं ? क्या केवल तन्त्र और नीतियाँ इसका जवाब हैं तो फिर पहले वाली परम्परा के ‘थी’ हो जाने के पीछे कौन–सी दिक्कतें रहीं ? एक सवाल और भी है कि कब तब देश की धर्मभीरु जनता अपने तारणहार अथवा किसी ‘अवतार’ की बाट जोहेगी । भूख और दमन जब बढ़कर गला घोंटने पर आ जाते हैं, तब वही भूख में पेट पकड़ने वाले हाथ जिन्दा रहने की बुनियादी माँग लेकर मुट्ठी बनकर तन जाते हैं और उन्हें नक्सलबाड़ी कह दिया जाता है । पूर्वांचल यानी भोजपुर अंचल और इसके आसपास का एक बड़ा हिस्सा इन दोनों ही तरह की जीवनस्थितियों से ग्रस्त हैं ।
अविनाश चंद्र मिश्र के नाटक ‘बड़ा नटकिया कौन’ के फूलचन को किस श्रेणी में रखा जाए यह सवाल सामने आता है । फूलचन इसका कथानायक नहीं है, यद्यपि नाटक के शीर्षक में नाटककार ने यह संकेत दिया है–‘फूलचन जैसे असंख्य कलाकारों के लिए’, इसमें जमींदार/साहूकार अथवा हिसाबी भी इसके नायक नहीं है । न हो सकते हैं । ये सामाजिक प्रतीकों के प्रतिनिधि हैं । इस नाटक का परिवेश ही नायक के रूप में उपस्थित है, जिसकी कमान फूलचन ने थामी है । ध्यान देने वाली बात है कि अविनाश चन्द्र मिश्र अपने इस नाटक में जिस बात को बड़ी चतुराई और महीन संवेदना से कहकर निकलते हैं, वह दरअसल एक पूरी लोकसांस्कृतिक विरासत के लुप्त हो जाने की पीड़ा को ही दर्ज नहीं करती बल्कि समाज के पारम्परिक कलारूपों के मध्य अपनी पहचान खोजते असंख्य फूलचनों की दारुण कथा कहती है । यहीं पर आकर यह नाटक ‘कल्चरल स्टडीज’ के अध्ययनों का साझी बनता है और ‘आईडेंटीटी पालिटिक्स’ के सवाल से भी जुड़ता है । इसलिए यहाँ न केवल कलारूपों के खत्म होने की पीड़ा है बल्कि सामंतमिजाजी समाज के भीतर एक लोककलाकार की सामाजिक हैसियत का बयान भी है । यहाँ नटकिया ‘फूलचन नही, यहीं सामंती परिवेश है । जीवन के असली कलाकार साहूकार और हिसाबी हैं, फूलचन नहीं । यही तो विडंबना है और इसी की बात अविनाशचंद्र मिश्र नाटक की भूमिका में करते हैं ‘आज के जीवन की एक बड़ी विडंबना यह भी है कि मंच से कहीं अधिक दैनिक जीवन में हमारे व्यवहार अतिरंजित असाधारण अत: नाटकीय होने लग गए हैं । ऐसे में किसी पेशेवर नटकिया की ऊर्जा एक तरफ पारंपरिक कलाओं के प्रति सम्मान और संरक्षण के अभाव से तो दूसरी तरफ दैनिक जीवन के नटकियों से जूझने में खप रही है’ । पर बात यहीं खतम नहीं होती । रंगकर्म मूलत: जनवादी और सामुदायिक कला है । यह मात्र किसी परम्परा के लोप और जीवन के यथार्थ के नटकियों से लड़ाई की कथा भर नहीं कहता बल्कि उसके समाधान की राह निर्मित करता है । यहाँ आकर ‘बड़ा नटकिया कौन’ भारतेंदु की परम्परा (अंधेर नगरी) में भी शामिल होता दिखता है । जहाँ सामंती, साम्राज्यवादी व्यवस्था अपने ही रचे फंदे में फाँसी पर लटकती दिखाई गयी है । वहाँ गुरु का ज्ञान और कौशल राह दिखाता है, तो यहाँ कलाकार फूलचन अपनी कला का सहारा लेकर जीवन के वास्तविक नटकियों को उनकी सही राह दिखाता है । दोनों ही नाटक इस गहरे बहुस्तरीय परतों के भीतर छटपटाते समाज को सहज–सरल और दिलचस्प तरीके से बाहर निकालती है । यह बात लगातार कई मंचों से कही जाती रही है कि क्रांतिकारी बदलावों के लिए जनजागृति का सबसे बड़ा काम ‘प्रदर्शनकारी कलारूप’ ही करते हैं, उसमें भी नाट्यविधा सबसे आगे है । इसकी वजह साफ है कि नाट्यकर्म अधिक जीवित कला है, तत्काल है और प्रत्यक्ष भी । इसलिए शायद जनवादी बात नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से अधिक दूर तक पहुँचती है बजाए बंद सभागारों के । इस लिहाज से भी अविनाश चन्द्र मिश्र का यह नाटक किसी खास परिधि या मंचीय तामझाम की माँग नहीं करता ।
मोटे तौर पर इस नाटक में ग्रामीण लोकसांस्कृतिक परम्परा और सामंतमिजाजी को पाठक और दर्शकों के समक्ष रखने का प्रयास है । इसमें इस जीवन के दो अलग–अलग रंग हैं । इन्हीं रंगों में महाजनी सभ्यता का वह स्याह रंग भी है, जिसकी तरफ अधिकांश प्रगतिशील कलमकारों की लेखनी चली है । कथानक का परिवेश भले ही पूर्वांचल है पर इसके संकेत सूत्र आंध्र–प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, छत्तीसगढ़ आदि प्रांतों के उन लाखों भूमिपुत्रों की ओर भी इशारा करते हैं, जिनकी गर्दनें और जिंदगी असंख्य ‘हिसाबियों’ के बहीखातों में रेहन पड़ी हैं । नाटककार की कुशलता फूलचन के हाथों इस व्यवस्था के ही आत्महंता स्थिति में पहुँच जाने की कथा रचने में हैं । दरअसल, नाटककार का सीधा ‘मैसेज’ यह है कि खुद भोक्ता जब तक इस व्यवस्था से दो–दो हाथ नहीं करेगा तब तक परिवर्तन की कल्पना बेमानी है । कलाकार फूलचन नचनिया–बजनिया ही सही लेकिन उसके भीतर धरती का सीना चीरकर अन्न उपजाने की शक्ति है, श्रम के द्वारा वर्तमान को बदल डालने की अद्भुत ताकत है और भविष्य निर्माण का शुभ स्वप्न भी है । वह कलाकार है, कला के मूल्य को पहचानने वाला है । वह धनराज के सभी षड्यंत्रों का बखूबी सामना करता है और उस व्यवस्था के नाश का संकल्प उसके भीतर है । भारतीय साहित्य में फूलचन जैसा संवेदनशील और क्रांतिकारी नचनिया कलाकार नहीं दिखाई देता, जो शोषक–व्यवस्था को ध्वस्त करने की मशाल स्वयं उठाता है । यहीं पर अविनाशचंद्र मिश्र का ‘नटकिया’ विशिष्टता की उच्चतम स्थिति तक पहुँच जाता है ।
नाटक में लोककलाकार की पीड़ा इसका सबसे सशक्त पहलू है, जो हास्य की स्थितियों के मध्य पनपता है और भीतर तक अपनी टीस छोड़ जाता है । आज देश के राष्ट्रीय रंगमंच पर सूदूर दक्षिण से एक पारंपरिक नाट्यरूप ‘थेरुकुट्टू’ के रूप में आता है, जहाँ एक पुरुष ‘मंदोदरी’ की भूमिका में मंचस्थ है, वहीं भोजपुरी यह लोकपरम्परा अपने ही घर में अभिशप्त है । इसकी चिंता नाटककार को है पर सांस्कृतिक मठों को इसकी सुध नहीं । बाकी की कसर ‘ऑर्केस्ट्रा संस्कृति’ और इसके ‘बाई जी के नाच’ के पूरी कर दी है । संस्कृतिशून्य समाज निरा मुर्दा समाज होता है । नाटक देखते–पढ़ते कई दफे यहाँ सवाल कौंधता है कि कहीं नाटककार ने फूलचन के ब्याज से इसी तरह के सांस्कृतिक पतन की ओर इशारा तो नहीं किया है । क्योंकि धीरे–धीरे इस अंचल से इस तरह के कई अन्य सांस्कृतिक आयोजन, अनेक कलारूप मसलन, नेटुआ, पंवारा, शोभानयका बंजारा, हुडुक आदि छद्म आधुनिकता की भेंट चढ़ते जा रहे हैं ।
फूलचन मात्र नचनिया नहीं है, वह एक प्रतिरोध का प्रतीक है, वह रसूल अंसारी और भिखारी ठाकुर की परम्परा का ध्वज वाहक है । जिसकी परम्परा प्रगतिशील है । इसमें कोई शक नहीं कि सामंतों के बीच सामंती व्यवस्था का मखौल उड़ाने की वजह से यह नाच, साजिशन एक फॉर्म का रूप नहीं ले पाया है और इसके कलाकार गाँव के सिवान पर बाहर की धकेल दिए जाते रहे हैं । नाटककार बिना लिखे इस ओर ध्यान खींचते हैं कि क्या इन नचनियों के बिना माँओं का छठ घाट पर पुत्र–प्राप्ति के बाद आँचल पर इन्हें नचवाने का व्रत पूरा होगा ?
बहरहाल, नाटक के दृश्य छोटे हैं और पात्र कम । साथ ही यह मंचीय व्यवस्था की माँग भी नहीं करता परन्तु पारंपरिक नाट्यों में यह एकता राष्ट्रीय स्तर पर दिखाई देती है कि इनमें संस्कृत नाट्य परम्परा से कुछ सूत्र लिए गए हैं । यह नाटक भी ‘कथावादन’ से शुरू होता है और गीत–नाट्य शैली का पूर्णत: प्रभाव यहाँ दिखाई देता है । चुहलबाजी, हास्य एवं व्यंग्योक्तियों का नाटककार ने भरपूर प्रयोग किया है । नाटककार जिस विषय को नाटक के माध्यम से उठाना चाहते हैं, उसकी पृष्ठभूमि ग्रामीण है, इसलिए इसमें लोकरंजन का खास ख्याल रखा गया है, यदि व्यंग्य है, तो वह विषय की गहराई में जाने का माध्यम है । दृश्य तीन में ढहते सामंतवाद की टीस साफ दृष्टिगोचर है, जब धनराज कहता है ‘‘मेरे बाप ! तुम जमींदार कहलाने की लालसा लिए मर गए, लेकिन साहूकार छोड़ सरकार एक ने भी नहीं कहा । धरिछन की जिस धरती की चाह तुम्हारे भी बाप के जमाने से रही, वह शायद ना हो सके मेरी । जाने दो । लेकिन जो भी हो सका, तुम स्वर्ग चाहे नरक जहाँ भी हो, देखो–देखो, आज तेरे धनुआ को लोग सरकार कहने लगे हैं ।’’ यहाँ तमाचा है उस महाजनी व्यस्था पर, जहाँ आदमी कहलाने का सुख बड़ा नहीं, बल्कि पद–प्रतिष्ठा से जाने जाने का और उसी भ्रम के साथ जीने का सुख बड़ा है । नाटककार एक साथ दो पीढ़ियों पर व्यंग्य करता है । दृश्य पाँच में धनराज कहता है ‘‘हम एक दीर्घकालिक योजना भी बनायेंगे । ऐसे कि हम अपने पोते को फुलवा की बेटी से शादी करवाएंगे । वह हमारे पोते से ब्याह करने पर मजबूर होगा और उस ब्याह में दहेज की शर्त पर हम जमीन को टान लेंगे ।’’ यहाँ व्यंग्य एक पायदान आगे बढ़ना जाता है । वह फूलचन की जमीन हथियाने के लिए अपने पोते को आँख लड़ाने की ढील देने की बात कहता है जोकि अभी पैदा भी नहीं हुआ है ।
नाटक अपनी पृष्ठभूमि में हलके–फुल्के चुटीले संवाद से आगे बढ़ता है । किसी प्रकार का अतिक्रमण संवादों में दिखाई नहीं देता । संवाद असरदार हैं । इसके पात्र प्रासंगिक और समकालीन जीवन अनुभवों से जुड़े हुए लगते हैं । इसलिए नाटककार किसी एक प्रांत अंचल की संवेदना को नाटक की पृष्ठभूमि में नहीं शामिल करता बल्कि यह नाटक अपने मूल कथ्य में अंचल और भाषा की सीमाओं को तोड़ता है ।
दरअसल, सामायिक अध्ययन संस्थानों की आँख के नीचे फूलचन जैसा चरित्र अपनी कला और क्रियाव्यापारों से एक खास किस्म का ‘डिस्कर्सिव फार्मेशन’ बनाता है । आज भिखारी ठाकुर और रसूल मियाँ की बात शिद्दत से हो रही है, पर अज्ञात कुलशील कई फूलचन अपनी अस्मिता की ही दारुण गाथा नहीं कह रहे बल्कि एक पूरी की पूरी लोकसंस्कृति के विलुप्त होते जाने की ओर भी इशारा कर रहे हैं, जिनकी ओर न तो हमारे संवेदनशील कलाकारों की दृष्टि गई है, न ही कला–संस्कृति के संरक्षों, नीति–नियंताओं की । न शायद यह पूरा वर्ग आधुनिक विमर्शों के मध्य फिट बैठ रहा है । ऐसा कहने के पीछे कुछ वाजिब वजहें हैं । मसलन, महानगर केंद्रित व्यवस्था में बुद्धिजीवी वर्ग में जेंडर से उठा सवाल । ट्रांसजेंडर तक तो जाता है पर भोजपुर–मैथिल प्रांत के इस नचनियों (लौंडा नाच परम्परा के कलाकार) को या तो सोची–समझी रणनीति के तहत बड़े नजाकत से हाशिये पर रख दिया जाता रहा है या कि उन तक विमर्शकारों की दृष्टि नहीं पहुँच रही । एक बड़ा बुनियादी सवाल शहरी किन्नरों अथवा हिजड़ों और लौंडा नाच के नचनियों के बीच भेद का भी है । बहरहाल, अविनाश चन्द्र मिश्र का यह नाटक एक पूरे जीवित समाज और संस्कृति के कला, स्थिति, परिस्थिति को सामने लाने का रचनात्मक प्रमाण है । इसलिए यह कहा जा सकता है कि अगर शहराती मंच मुख्यधारा के नाटकों में ‘जानेमन’ एक खास समाज, खुद की कथा कहता अलग तरह का विशिष्ट नाटक है तो हाशिये की संस्कृति में ‘बड़ा नटकिया कौन’ को वह सम्मान प्राप्त है । जब अविनाश चंद्र मिश्र यह कहते हैं कि ‘बड़ा नटकिया कौन’ ऐसे कुछ असली नकली असाधारण चरित्रों की नाटकीय गाथा है, तो नाटककार के इस आत्मकथन के बाद कई तस्वीरों के धुंधलके अचानक साफ होते हैं । फूलचन की जीवन कथा ग्रामीण सामंती परिवेश के जिन बीहड़ों से होकर गुजरती है, उसके बड़े तीखे और गहरे सामाजिक संदर्भ और अर्थछवियाँ उभरकर सामने आते हैं । मिश्र जी फूलचन के जीवन के सांस्कृतिक पक्ष को इशारों में कम लिखे को अधिक समझना’ वाली शैली में बता जाते हैं और सामंती व्यवस्था को भी उसकी पूरी नग्नता में पेश करते हैं । नाटककार की मंशा फूलचन के नायकत्व की स्थापना नहीं बल्कि नायकों की पारंपरिक परिपाटी को ध्वंस करने की है, जिसे अब तक सामंतवाद हमारे सामने पेश करता आया है । इसलिए नाटककार चाहे जितना यह घोषित करता रहे कि ‘बड़ा नटकिया कौन’ हिंदी रंगमंच को गतिशील बनाने की नीयत से गाँव से शहर तक व्याप्त जीवन की सहज–सरल और दिलचस्प पृष्ठभूमि में लिखा गया है पर यह भी उतना ही बड़ा सच है कि इस दिलचस्प कथानक के बहुलार्थक परतों के भीतर शोषण से मुक्ति की आकांक्षा भी सांस ले रही है । और जनवादी रंगकर्मी शमशुल इस्लाम की इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हिंदी रंगकर्म से लोगों को अक्सर ये शिकायत रही है कि नए नाटक नहीं लिखे जा रहे हैं, समसामयिक पर तो नाटकों का एक दम अकाल है और यहाँ ‘फार्स’ या हास्य नाटक की कोई परम्परा ही नहीं है । ‘बड़ा नटकिया कौन’ ने इस बात को एक बार फिर रेखांकित किया कि अगर ईमानदारी के साथ प्रयास किया जाए, तो हिंदी रंगकर्म की दरिद्रता का रोना दूर हो सकता है । यह ईमानदारी अविनाशचंद्र मिश्र के इस नाटक में मौजूद है ।
मुन्ना कुमार पांडेय, जन्म – 1 मार्च 1982, सिवान, बिहार एम–ए– हिन्दी, एम– फिल, पी–एच–डी । नाटक और रंगमंच से सम्बन्धित कई लेख विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में प्रकाशित । कई यात्रा–वृत्तान्त भी लिखे हैं । हिन्दी विभाग, सत्यवती कॉलेज, दिल्ली में प्राध्यापन ।