फणीश्वर नाथ रेणु

रेणु की कहानी ‘अभिनय’ : एक निकट पाठ 

 

‘अभिनय ‘ रेणु की एक संक्षिप्त सी कहानी है। कहानी का रचना काल 1965 दर्ज है, यानि कि यह रेणु की परिपक्व रचनाशीलता के दौर की कहानी है। रेणु की रचनात्मक शुरुआत कहानियों से ही हुई। यह अवश्य है कि मैला आंचल से ही उनकी लेखकीय प्रसिद्धि बनी किन्तु उन्होंने रसप्रिया, तीसरी कसम, लाल पान की बेगम, पंचलाइट जैसी कितनी ही बेजोड़ कहानियाँ लिखी हैं। रेणु के कथा लोक में परिवेश का जीवन्त चाक्षुस स्वरुप महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। एक तरीके से वे अपने पाठक को चारो तरफ से घेरते हैं, उसे उस सरस प्रत्यक्ष और गोपन की लीला भूमि में समेट लेते हैं। विषय वस्तु और किरदार का समग्र संश्लेष अपनी विशिष्टता में उभरता है और यही उनका उद्देश्य भी है। रेणु के कथाकार के भीतर उनकी अपनी कहानियों का उदग्र पाठक मौजूद है और उन्हें उस पाठक की रसमाती भूमिका पसन्द है।

अभिनय शीर्षक इस कहानी को पाठक छंदा के अनोखेपन के कारण नहीं भूल सकते। रेणु के कथा साहित्य में स्त्री अस्मिता का रुप सुखद है। रेणु स्त्री की शक्ति को उस रहस्यमयता में देखते हैं जिसमें किसी की दखल नहीं है। यह एक तरीके से उसका पावन एकान्त है जो स्वतन्त्र है, निर्भर है और स्पंदित भी है। छंदा में यह सब कुछ है।

छंदा इस कहानी का मुख्य किरदार है। पाठकों की निगाह उस पर ऐसे गड़ी रह सकती है कि इस स्त्री के व्यक्तित्व की अखण्डता और आत्मपर्याप्तता से उसकी निगाह फिसल फिसल जाए। इस कहानी में वाचक के लिए ऐसी ही रपटन का हिसाब है। उस मध्यमवर्गीय बंगाली परिवार में आने जाने वाला छंदा पर लुब्ध निछावर यह किरदार बंगाली नहीं है। छंदा का उन्मुक्त हाव भाव और व्यवहार उसके भीतर उसके प्रति आकर्षण को गहराते जाते हैं कि एक दिन सहसा इस अनुरक्ति का उच्च भाव खंडित हो उठता है। रेणु लिखते हैं कि वाचक अप्रतिभ हो उठा है। यह आघात है उसके लिए।

हुआ यह था कि छंदा ने इन महोदय को दादू कह कर संबोधित किया। अकाल श्वेत हुए जाते केशों से आहत इस रसिक के कलेजे में केशव दास जी का कथन करक उठता है। उस विलक्षण आजाद खयाल घर में चारो तरफ हंसी के फव्वारे छूट पड़ते हैं। वाचक किसी तरह उस सर्वनाशी परिहास में टिके रहना चाहता है। छंदा के प्रति अनुराग में अपनी दृढ़ता के लिए मेहनत किए जाता है। रेणु इस प्रसंग को उसके कलेजे में घुस कर लिखते हैं।

इस बांग्ला परिवार में स्त्रियाँ ही हैं। छंदा की बेलाग प्रखरता और चुहल के प्रति परिवार पूरी तरह से एक अद्भुत अनुकूलता में दिखाई देता है। इस परिवार की दादी चाची माँ सबके दिल में मुखर सरसता बसती है। युवकों की भ्रमर वृत्ति के मज़े लेने वाली छंदा के क्रिया कलापों को लेकर परिवार का कौतुक देखते बनता है

चाची के मन में इस विकल प्रेमी के प्रति सहानुभूति उमड़ पड़ती है और वह उसे दादू शब्द के आघात को सहने लायक बनाने के लिए कहती है कि वह पातानो दादू के माफिक है।

दादू के चक्कर खाने पर वह पातानो का अभिप्राय बताती है यानि मुंहबोला दादू।

दादू को चैन कैसे मिलता। रेणु की चपल कहन विधि में दादू चरित का कवित्व और खुलता चला जाता है।renu

रेणु की यह कहानी शहर में अवस्थित है। यह रेलवे कंट्राक्टर बी घोष का परिवार है जिसमें उसकी माँ पत्नी छोटा भाई उसकी बीवी यानि छंदा की चाची और छंदा के छोटा भाई समेत सब रहते हैं। आगंतुक वाचक के आकर्षण का केंद्र छंदा है। सांवरी सुंदरी चंचल छंदा गाती नाचती और अभिनय करती है। परिवार उसके गाने नाचने से मुतमइन है। वाचक को छंदा की चतुराई ज्ञात है। वह जानता है कि भोली भाली दिखने वाली झंदा प्रेम और विवाह के मामले में धोखा नहीं खा सकती। वह खास तौर पर बताता है कि छंदा लोलिता पढ़ चुकी है। कई प्रेमियों को नचा चुकी है। वाचक से छंदा का दिल्लगी भरा संबंध है। वह उसके प्रेमियों के बारे में जानने की छूट ले सकता है। बहुत सारे खुले रसिक सवाल कर लेता है। भीतर ही भीतर उसके जी में कहीं अपनी प्रेम की राह के लिए गुंजाइश दिखती है कि छंदा उसे दादू कह देती है। वह समझ नहीं पाता कि इस नए रिश्ते की क्या जरुरत थी। यही नहीं इससे भी आगे बढ़ कर वह उसे बुड्ढा कहने लगती है। उसके विनोद की यह धार वाचक को छील जाती है मगर वह इस युद्ध में टिके रहने के लिए उस परिहास में तुर्की ब तुर्की वैसे ही विनोदी जवाब देता है। इस तरह उस उन्मुक्त परिवार में छंदा के रचे हुए व्यंग्य विनोद, हास परिहास के खेल में तिनके की तरह बह उठे दादू को लेकर छंदा एक और चपल असंभव खेल खेल जाती है। दादू की भूमिका में जी जान से बन कर छंदा की निकटता के लिए अफनाए इस किरदार की भारी स्कैनिंग कर जाती है वह युवती।

कहती है कि ‘ तुम्हारे मन में भी भारी जवान चोर है बुड्ढे ‘

वह अरुण यानि इस वाचक को फुसफुसा कर बताती है कि उसकी दादी मे में वाचक के प्रति खास अनुराग भाव दिख रहा है। दादी उसे देखकर अपने सिर का कपड़ा ठीक करने लगती है। इस तरह एक क्षिप्र घटनापूर्णता में छंदा इस हास परिहास का एक चरम रच कर वाचक को पूरा घेर लेती है। इस विधान में यह दादू और दादी आमने सामने हैं, उनके बीच की पान और जर्दे का मद्धिम आदान प्रदान है कि अचानक छंदा अपनी चाची के साथ दृश्य में प्रवेश कर इस प्रकरण को इन दोनों के एक दूसरे के प्रति प्रेम के रुप में घोषित करती है। यह ऐसे विस्फोट जैसी घोषणा है कि दादी और दादू वाले ये मनुष्य लाज से भर उठते हैं।

कहानी के इस अंत में फिर से एक छत फोड़ ठहाका है जिसके लिए कौतुक जुटाने वाली छंदा दादी को घेरती है कि ‘ ऐं ? तुम डूब डूब कर पानी पीती थी बूढ़ी ‘

चाची वाचक के अभिनय की तारीफ करती है, ठीक दादू। हू ब हू।

पाठक कहानी में उसके शीर्षक

” अभिनय “के हिसाब से ही एक दृश्य रचना और अभिनय के साक्षी बनते हैं। लगता है कि कहानी अरुण को दादू रुप में प्रस्तुत करने का कोई खेल खेलती है और इस कौतुक में दादी के लिए दादू का अवतार जुटा रही है। एक तरीके से यह प्रहसन का सा रंगमंच लगता है जिसमें हास्य विनोद की प्रमुखता होती है मगर एक तरफ तो यह अभिनय, नाटक भर का नहीं रह जाता क्यों कि अरुण और दादू सुगंधित पान के आदान प्रदान में घुले हुए प्रेमी के से मद्धिम सुर में पकड़े से जाते हैं और बहुत लजाए हुए लाल लाल हुए मिलते हैं। यहाँ जब छोटी चाची कहती हैं कि हूं ब हू दादू, एकदम सही,ओके। और यह भी कि “जरा भी गलती नहीं की आपने ”

तो लगता है कि यही है अभिनय। यानी कहानी का मर्म। एक वृद्धा के ह्रदय के कोमल प्रेमिल तार का पता देना शायद। मगर फिर लगता है कि यह सब कुछ तो एक मखौल के उद्धत अर्थ तक चला जा रहा है। फिर क्या कथा का मर्म कहीं और है।

यह मर्म छंदा के द्वारा अरुण की स्वयं के प्रति आसक्ति और लालसा को फटक देना है। कहानी कई बार वाचक की छंदा पर लुब्धता का पता देती है। उस घर में नियमित आता जाता हुआ वह छंदा के ही आकर्षण में मुब्तिला है और जहाँ से अपनी इस भावना के लिए छूट लेता है वह यह है कि छंदा ने लोलिता पढ़ा है। यानि उसकी उन्मुक्तता का ऐसा भाष्य है उसके पास।

रेणु छंदा के भीतर स्त्री की आजादी का एक प्रखर रंग रचते दिखाई देते हैं। बंग परिवारों में स्त्री की प्रमुखता का एक मजबूत संदर्भ भी कहानी में मौजूद है और यह भी कि बाह्य परिवेश बंगाली नहीं है। मुहल्ले में छंदा के घर की हलचल संदिग्ध अर्थ में देखी जाती है। वाचक भी गैरबंगाली है इसलिए उस उन्मुक्तता को अपनी सुविधानुसार लेने की मनोरचना में दिखाई देता है। रेणु अपने चरित्र विधान में किरदारों को उनमें मौजूद इन फांकों के जरिए उद्घाटित करते हैं। यहाँ भी हमें यही दिखाई देता है। कुल मिलाकर छंदा ने वाचक की फिसलन को सुनियोजित ढंग से निशाने पर लिया है। उसके भीतर स्थितियों को अपने अनुसार ढालने की चतुराई बहुत खूब है। अन्य जन की उपस्थितियाँ उसके निहित मंतव्य का एक तरीके से भराऊ पक्ष हैं। कथा की सरसता के भावक जैसे।

इस तरह एक तीव्र घटनाक्रम के साथ कहानी अभिनय के चरम अर्थ के भीतर उपस्थित स्त्री के चतुर स्वाधीन मन का अर्थ भी रचती है और यह बहुत गूढ़ है। रेणु की कथाओं में ऐसी ढ़ूढ़ता को जिस लीला भाव के साथ निर्मित किया गया है वह अद्भुत है। हास परिहास के चंचल रंगों के साथ बहती इस कहानी की संजीदगी बहुत विरल है साथ ही यहाँ तक पहुंचने की मशक्कत बौद्धिक कतई नहीं। अगर यह है तो यह स्त्री के अपने निर्णय और चयन की तेजस्विता को समझे जाने की लियाकत तक है।

तो छंदा सचमुच एक बेजोड़ गढन है। छंद जैसी आत्मपर्याप्तता में कसी हुई और उन्मुक्त।

इस तरह देखा जाना चाहिए कि छंदा के पास लालसा भरे आकर्षण को फटकने का कितना मजबूत विवेक है और रेणु की कथा चेतना कितनी बारीकी से स्त्री के इस सबल पक्ष को सामने लाती है। छंदा की ही केंद्रीयता से वे स्त्री के प्रति शंकालु विरूद्ध समाज की गहरी टोह लेते हैं। प्रेम को और प्रेम के लिए औरत की आजादी को वर्जित मानने वाले समाज को आलोचनात्मक नजरिए से देखने का उनका तरीका कभी भी स्थूल किस्म का नहीं है। हमेशा वे इसकी नाज़ुक़ी की परवाह करते हैं। औरत अपना हर भेद सात तालों में रखती है इसे वे कितनी ही कहानियों में कह गए हैं मगर उन तालों के भीतर उसके वजूद में बसी सरसता को भी वह बहुत से अंतरालों में देखते हैं। इसी कहानी में दादी के अनुरागी मन की झलकियाँ हैं।

रेणु की भाषा को लोठार लुत्से पंचमेल भाषा कहते हैं, कहते हैं कि खड़ी बोली तो आपकी भाषा की भित्ति भर है ‘

यह सही है। रेणु अपनी कथा का की समग्रता और विश्वसनीय असर रचने के लिए भाषा में बहुत बदलाव करते हैं। वे जीवन की सच्ची टोन लाना चाहते हैं और उनकी भाषा खुल कर बोलियों के साथ रचती बसती चली है। इस कहानी का बंग परिवेश और बंगभाषा का भीतरी रचाव उल्लेखनीय है। रेणु भाषा के भीतर भाषाओं और बोलियों का मेल बहुत असरदार है। इसके चलते उसकी गतिशीलता , उसमें मौजूद ध्वनियाँ अन्तर्ध्वनियाँ और सबके साथ प्रकट होती दृश्यमानता सब उस बेधक संपूर्णता का विधान हैं।

यह विधान इस कहानी में भी मौजूद है।

स्त्री मन पढ़ने में रेणु का जवाब नहीं है और स्त्री की क्षमता पढ़ने में भी।

चंद्रकला त्रिपाठी

आधुनिक समकालीन हिन्दी साहित्य व लोक साहित्य में विशेषज्ञता। हिन्दी की लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। अनेक पुस्तकों में रचनाएँ शामिल। आकाशवाणी व दूरदर्शन पर अनेक रचनाओं, वार्ताओं तथा साक्षात्कार आदि का प्रसारण। प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।

जन्म : 5 जून 1954, बहादुरपुर, चंदौली, उत्तर प्रदेश

भाषा : हिन्दी

विधाएँ : कविता, कहानी, आलोचना, शोध, समीक्षा, साक्षात्कार, रंगमंच

मुख्य कृतियाँ

कविता संग्रह : वसंत के चुपचाप गुजर जाने पर, शायद किसी दिन
कथा डायरी : इस उस मोड़ पर
आलोचना : अज्ञेय और नई कविता

सम्पर्क- प्लाट न. 59, लेन न. 8A, महामना पुरी कालोनी, एक्सटेंशन पोस्ट आफिस बी एच यू, वाराणसी-221005 (उत्तर प्रदेश)

+919415618813, vntchandan@gmail.com

.

samved

साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x