कल आज और कल
(अब तक आपने पढ़ा: कभी जमीन बेचकर अपना भरण-पोषण करने वाले साधारण से किसान मंडल जी राजनीति के सफर में सफलता के शिखर तक कैसे पहुंचे इसके बारे में जब पत्रकारों ने पूछा तो उन्होंने अतीत के पन्ने पलटने शुरू किए)
कल आज और कल
मंडल जी का गाँव “भैना” भी अन्य गाँव जैसा ही था। मंडल जी आजाद भारत में पैदा हुए। खादी ग्राम उद्योग तब जवानी पर था। विनोबा भावे भूदान आंदोलन यज्ञ चला रहे थे। तब मंडल जी बच्चे थे। यह सब कुछ उन्होंने अपने सामने होते देखा था। फिर सरकारें बदली, नीतियां बदली। कुछ लोग राजनीति में दलाल बन कर घुसे और चापलूसी के बदौलत डीलरशिप ले ली। कुछ शुरू में पत्रकार बने फिर पत्रकार से नेता। मंडल जी ने भी पत्रकारिता शुरू की थी पर गलत व्यवस्था के खिलाफ आवाज बुलंद करना इन्हें महंगा पड़ा। किसी सत्ताधारी नेता जी के खिलाफ कुछ लिखा था सो वह तो पीछे ही पड़ गया और पेपर के मालिक को त्याग पत्र देने की नौबत आ गई। फिर जो उखड़े तो जम नहीं पाए। दोस्त लोग अभी भी व्यंग्य करते हैं राममोहन तुम्हारा ही दोस्त था चापलूसी कर के पत्रकार से नेता बन गया और तू उससे कुछ भी नहीं सीख पाये। सच है चापलूसी भी एक विधा है जो मेरे बुते का नही। इन्हीं सोचों में डूबे हुए मंडल जी किराना दुकान की तरफ जा रहे थे तभी सामने से दो शहरी लड़के गुजरते नजर आये। आंखों में सवाल और एक लड़का तो पास आते ही पूछ बैठा, ”माफ करिएगा आपको कष्ट दे रहा हूं। दरअसल हम दोनों भागलपुर विश्वविद्यालय के छात्र हैं। आपके गाँव शोध करने आए हैं, कि गरीबी की वजह क्या है। मंडल जी व्यंग्य से मुस्कुराये, ”अच्छा इन विषयों पर भी शोध होता है क्या?” मंडल जी ने जबाब की जगह उल्टा सवाल किया था वह भी व्यंग में। लापरवाही से कंधा उचकाते हुए एक विद्यार्थी ने कहा, “हमारे भारती सर, जिन्होंने हमें शोध करने के लिए भेजा है, वह भी तो एक किस्म के झक्की आदमी ही हैं। अरे समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र में में तो इतने सारे कारण गिनाए गए हैं उसी को कॉपी पेस्ट करके शोध हम पूरा कर देते। पर उनकी तो एक ही रट है, ग्रासरूट्स लेवल पर जाकर रीसर्च करिए। मंडल जी गंभीर हो गए, “भारती जी सच्चे आदमी हैं तभी तो ऐसा कहा, पर तुम सच में रीसर्च करोगे या कॉपी पेस्ट करोगे?” दूसरा विद्यार्थी अपने मित्र के जबाब से खासा सकपका चुका था, उसने तुरंत बात संभाली, ”नहीं हम लोग इस विषय को लेकर काफी गंभीर हैं, तभी तो रात होटल में गुजारी और अभी आपके गाँव आए हैं। सचमुच हमलोग जानना चाहते हैं कि सरकार की बनाई एक से बढ़कर एक जनकल्याणकारी नीतियों से कितना फायदा हुआ है ?” मंडल जी के चेहरे पर इत्मिनान भरी मुस्कुराहट आई, ”अच्छी बात है। ईमानदारी से काम करो। पर यह विषय लंबा है और तुम्हें कुछ दिन इस गाँव में घूमना होगा। गाँव के माहौल को, यहाँ के आम लोगों को, जन कल्याणकारी व्यवस्थाओं के आड़ में जो भ्रष्टाचार पनप रहा है उसे जानना होगा। ये इतना आसान नहीं है कि कुछ सवाल पूछ लिए और शोध पूरा कर लिए”। मंडल जी को अचानक से अपना बेटा याद आ गया। इन लोगो से थोड़ा ही तो छोटा होगा। कल को वह भी कहीं रिसर्च करने जा सकता है। यह ख्याल आते ही उनके चेहरे पर मुस्कान आ गई, ”अरे तुमलोगों से मैंने तुम्हारा नाम भी नहीं नहीं पूछा। कुछ खाए पिए हो या नहीं। चलो घर के दालान में इत्मीनान से बातें करते हैं। ”
बातों से कई जानकारियां मंडल जी को मिल चुकी थी। इन लड़कों का नाम राजेश और सत्यार्थी था। सत्यार्थी थोड़ा वाचाल था और राजेश थोड़ा गंभीर। कॉपी पेस्ट वाली बात भी सत्यार्थी ने ही की थी।
थोड़ी देर में दोनों विद्यार्थियों को लेकर मंडल जी अपने घर के दालान में पहुंचे। अपने बेटे को चाय नाश्ता के लिए आवाज लगा कर बातचीत के सिलसिले को आगे बढाया, “हाँ तो राजेश तुम जानना चाहते हो कि सरकार की जनकल्याणकारी नीतियों से मुझे यानि मध्यम वर्ग के किसानों को कितना फायदा हुआ है।”
” जी मेरा यही सवाल था”
मंडल जी जैसे अपने सुनहरे अतीत को याद कर रहे थे। चेहरे पर मुस्कान आ चुकी थी। और वे बीते दिनों के बारे में बताए जा रहे थे, ” वे भी क्या दिन थे! हम और हमारे मजदूर किसान साथ-साथ जी जान से खेती करते थे। लहलहाती फसलों को देखकर जहां मेरा सीना गर्व से फूल जाता था वहीं उनके चेहरे भी खिल जाते थे, “मालिक इस बार फसल अच्छी हुई है। हम लोगों को अलग से भी ईनाम चाहिए। “और हम भी खुशी-खुशी उन्हें ईनाम देते थे। किसी के घर कोई दुर्घटना हुई तो हम ही उसके सहारा भी बनते थे। पर अब हम लोगों के बीच में सरकार आ गई है, सरकार की जनकल्याणकारी योजनाएं आ गई हैं, मुखिया का ठप्पा आ गया है, ठेकेदार का ठप्पा आ गया है। ठप्पा लगाओ पैसे पाओ। अब कौन हमें पूछता है। 4 रुपये किलो चावल 4 रुपये गेंहूं! ऊपर से मनरेगा योजना! किसान काम करे या ना करे साल में 100 दिन का पैसा मिल जाता है। तो भाई राशन खर्च निकल गया। ठप्पा लगा कर जो ऊपर से मुफ्त के पैसे मिले तो तारी का खर्च भी निकल आया।”
राजेश, ”तो आपको लगता है कि आप मध्यवर्गीय किसानों के लिए पहले का समय ज्यादा अच्छा था जब ये जनकल्याणकारी योजनाऐं नहीं थी।”
मंडल जी, ”हाँ बिल्कुल, हम मेहनत करते थे, हमारे मजदूर मेहनत करते थे और तो और हमारी घर की महिलाएं भी खादी ग्रामोद्योग से कच्चा माल ले आती थी। और हर घर में चरखा हुआ करता था। सूत काट कर दूसरे दिन उसे खादी ग्रामोद्योग में जमा कर दिया जाता था। मिले हुए नगदी पैसों से कुछ का तो फिर से कच्चा माल खरीद लिया जाता था। बाँकी के पैसों को बचा लिया जाता था। मौसम की मार की वजह से जो कभी खेती नहीं हो पाई तो श्रीमती जी की सेविंग ही काम आती थी।”
सत्यार्थी, ”ये ठप्पे वाली बात को विस्तार से समझाएंगें जरा।”
मंडल जी मुस्कुराये, ”यही सब तो शोध करने वाली बात है। मनरेगा कार्यक्रम में मजदूरों को काम दे कर सरकार से पैसे लिए जाते हैं। पर वस्तुतः जमीन की कटाई जेसीबी मशीनों से होती है। तो भाई मजदूर भी खुश कि ₹300 के पेपर के ऊपर ठप्पे लगाए और बगैर काम किये 100 रुपये मुफ्त में मिल गये। उधर ठेकेदार भी खुश, कम समय में काम भी पूरा किया और सरकारी पैसे भी बनाए। उसी प्रकार पैक्स के मामले में रसूख वाले कुछ किसान, मुखिया और व्यापार मंडल के बीच में ठप्पे लगाओ और पैसे पाओ कार्यक्रम चलता है और लाखों के घोटाले होते हैं।
राजेश, ”पर खाद्य सुरक्षा योजना तो अच्छी योजना है। बंगाल के दुर्भिक्ष में कितने लोगों की मौत हो गई। इन योजनाओं से भविष्य में ऐसी नौबत तो नहीं आएगी।”
मंडल जी ने धैर्य पूर्वक समझाया, ”बेशक यह बेहद अच्छी योजना है। पर सालों भर के लिए नहीं, दुर्भिक्ष हो, अकाल हो, कोई विपत्ति आ जाये, महामारी फैल जाय, तो भले ही इस योजना से लोगों की जीवन रक्षा हो सकेगी। पर बगैर किसी वजह के सालों भर इसका लाभ देने से लोग आलसी और निकम्मे हो जाएंगे। एक बात मैं पूछता हूं जो 4 रुपये किलो चावल या गेहूं का लाभ ले रहे हैं क्या बे ₹5 में स्टेशन पर जाकर चाय नहीं पीते हैं। अरे कई लोग तो ऐसे हैं जो ₹200 में दारू की बोतल भी खरीदते हैं। भई ₹5 किलो चावल और गेहूं उन्हें मुहैया कराओ जो भूखे मर रहे हो वरना इस तरह से सब पर इसे लुटाना और कुछ नहीं बस वोट बैंक बनाना है। जितनों को फायदा मिलेगा उतना ही बड़ा वोट बैंक बनेगा।”
सत्यार्थी को मंडल जी का यह तर्क कुछ भा नहीं रहा था, ”सरकार यदि सक्षम है कि वह किसी को मुफ्त में खिला सकती है तो इसमें आपको क्या आपत्ति है?” मंडल जी ने सत्यार्थी को गौर से देखा, मानो वह समझना चाहते हों कि सत्यार्थी यह सवाल भोलेपन से पूछ रहा है या उसे मुफ्त खोरी की योजना सच में अच्छी लगती है। पर स्वगत रूप से संभलते हुए मंडल जी ने उत्तर उछाल दिया था, ”मुझे व्यक्तिगत रुप से तो आपत्ति करने का कोई अधिकार भी नहीं है। क्योंकि पिछले साल से तो मैं भी इसी खाद्य सुरक्षा योजना का लाभ उठा रहा हूं। ” अब चौकने की बारी सत्यार्थी और राजेश की थी।
बेहतरीन पोस्ट जिस प्रकार चिकित्सा जगत में आप एक मानव के बीमारियों का पता करते हैं फिर उस का इलाज करते हैं , उसी प्रकार एक सामाजिक सदस्य होने के नाते समाज की समस्याओं का भी आपने अध्ययन किया है और उसका समाधान देने की कोशिश कर रहे हैं .सराहनीय कदम.