स्मृतियों का घर बुनता एक कवि
विनय सौरभ स्मृतियों के कवि हैं। यों तो अन्य कवि भी स्मृतियों से परे नहीं होते, लेकिन विनय सौरभ स्मृतियों को बहुत मार्मिक और सहज होकर बुनते हैं। उनकी स्मृतियों में शहर भी है, गाँव भी। सखुआ के पत्ते हैं तो पुराने घर और हाट भी। उनको सम्बन्धों की दुनिया को रचने का अद्भुत कौशल है। जिन सम्बन्धों से उनकी निकटता रही है, उनके प्रति उनकी सहृदयता छलक -छलक आती है। उनके सम्बन्धों में माँ, दोस्त, बचपन, गरीब रिश्तेदार, डाकिया, बुजुर्ग, कुम्हार, मदारी, दीदी, भाई, खान बहुरूपिया – सभी हैं, लेकिन उन्होंने पिता को बार बार याद किया है।
पिता पर उन्होंने स्वतंत्र ढंग से कविताएँ लिखी ही हैं, लेकिन अन्य कविताओं में जहाँ भी अवसर मिला, वे पिता का ज़िक्र करते नजर आते हैं।
‘यह वही दुनिया थी’, ‘पिता की क़मीज़’, ‘ पिता और बहनें’, ‘पिता का मौन’, ‘पिता की शवयात्रा में बातचीत’ ‘पिता तुम’, जैसी कविताओं में पिता हैं ही, इसके अलावे ‘इस तरह रचते हैं हम दुख का तिलिस्म’ ‘दोस्त का घर’, ‘हाट की बात’, ‘पतंग भी उसी की है’, ‘दोस्त के पिता से एक संभावित मुलाक़ात के बारे में’, ‘बख्तियारपुर’, ‘सहपाठी’ आदि कविताओं में पिता हैं। पिता को लेकर कवि की संवेदनशीलता बहुत कुछ कहती हैं।
पिता चले गये, लेकिन दुनिया वैसी की वैसी रही! ‘यह वही दुनिया थी’ कविता महज़ सत्रह पंक्तियों की कविता है, लेकिन इस कविता में पिता के न होने का अहसास भींगोता ही है, पर अंतिम पंक्तियाँ व्यवस्था के कील-काँटों को उधेड़ कर रख देती हैं- “पिता के कुछ सरकारी पैसे थे/ उनकी निकासी के वास्ते/ उनके दफ़्तर में जाना पड़ा हमें/ और बार बार जाना पड़ा/ आख़िरकार रो दिये हम/ वहाँ हवा भी रूपये माँगती थी/ काम के एवज़ में।”
पिता के कई रूप हैं जिन्हें कवि ने देखा है। साथ ही पिता के साथ किये गये व्यवहार, पिता की मजबूरियाँ, पिता के साथ बहनों के रागात्मक रिश्तों का उसे अनुभव हुआ और उसे उसने कविताओं में बाँधा। एक तरफ़ पिता के जाने के बाद खूँटी पर टँगी और पसीने से भीगी उनकी क़मीज़ ऊर्जा और विश्वास देती है, बहनें पिता के लिए सबसे ज़्यादा प्रतीक्षारत रहती हैं और ‘पिता जब घर आते हैं थोड़ी सी संभावित ख़ुशी लिये अपने चेहरे पर तब कल्पना की उडानें भरने लगती हैं बहनें’ तो दूसरी तरफ़ मजबूरियों में घिरे पिता जब थके कदमों से घर लौटते हैं तो- दार्शनिक बन ‘दादी से पूछेंगे/ उसके स्वास्थ्य के बारे में/ छोटे भाई से पूछेंगे स्कूल और पढ़ाई के बारे में/ माँ से पूछेंगे टखने और कमर के दर्द के बारे में’, लेकिन वे कभी नहीं बताएँगे कि ‘लड़के वालों ने क्या कहा !’
पिता के धैर्य और सामर्थ्य की कोई सीमा नहीं है। ‘पिता की शवयात्रा में बातचीत’ में कवि की दर्ज पंक्तियाँ गवाह हैं- ‘लोगों ने तो यहाँ तक कहा- यह सिर्फ़ मृत्यु से हारा!/ बहन ने भी यही कहा था/ क्योंकि कई बीमार रातों का अनुभव/ उसके पास था/ पिता को मृत्यु के साथ संघर्षरत देखते रहने का।’ कवि की कविता में वैसे भी पिता हैं जो पुत्र के शहर में बस जाने के बाद नितांत अकेले हो जाते हैं। ऐसे ही एक दोस्त के पिता से संभावित मुलाक़ात के बहाने कवि बहुत कुछ कह जाता है। सर्वप्रथम वह चिह्नित करता है कि एक ऐसी सभ्यता विकसित हो रही है जिसमें पिता ‘चीजों से मुक्त हो गये तटस्थ मनुष्य लगने लगे हैं। ‘कवि उदासी और द्वंद्व में हैं कि दोस्त कर पिता जो कमरे में बन्द हो गये हैं, अगर वे मिलेंगे तो उनसे क्या बातचीत होगी? क्या वह बातचीत शहर की नियति पर होगी? अतीत में हुए दंगे या शहर के गैंगवार या उसके बदलते मिजाज पर वे कुछ कहेंगे या चुप रहेंगे! इस कविता में पिता के उदास चित्र का अंकन कवि ने बहुत मार्मिक ढंग से किया है।
कविता संग्रह का शीर्षक ही है- ‘बख्तियारपुर’। पिता गंभीर बीमारी से घिर गये हैं। इलाज के ट्रेन से दिल्ली जा रहे हैं। पिता ज़िद करते हैं कि जब बख्तियारपुर स्टेशन आए तो बता देना। पिता को महीनों से नींद नहीं आयी थी। बख्तियारपुर को लेकर वे अतिरिक्त रूप से संवेदनशील थे। वहाँ उनकी पहली पोस्टिंग हुई थीं। उनके अंदर चालीस वर्ष पुरानी स्मृतियाँ कौंध रही थीं। जिस तरह से उनकी आँखें बच्चों की शरारती आँखों की भॉंति नाच रही थी कि माँ किसी अनिष्ट आशंका से रोने लगी। धीरे-धीरे पिता शान्त होते हैं और गहरी नींद में चले जाते हैं। बख्तियारपुर आता है और गुजर जाता है। कवि दर्ज करता है- ‘हम आश्चर्य में भरे पड़े थे/ पिता की नींद महीनों बाद लौटी थी/ यह उनके स्वास्थ्य के लिए अच्छा था/ हम नहीं चाहते थे कि उनकी नींद पर पानी पड़े!’
अब हमारे सामने जो दुनिया बन रही है, उसमें पिता के लिए स्पेस बहुत कम बचा है। एक कविता है- अथ शास्त्री कथा। कविता के पात्र हैं – तीन तीन सफल पुत्रों के पिता रामावतार शास्त्री। उनके तीन पुत्र क्रमशः मुम्बई, अमेरिका और सऊदी अरबिया में कामयाबी के झंडे गाड़ रहे हैं और इधर परेशान और अकेले जीने को अभिशप्त रामावतार शास्त्री अपार्टमेंट की बालकनी से कूद कर मर जाते हैं। परिचितों के अभाव में पुलिस उनका दाह संस्कार करती है। ऐसे ही एक कविता ‘महानगर में बुजुर्ग’ कविता में पिता महानगर के अपार्टमेंट में अपने पुत्र के पास रहते हैं। कवि रेखांकित करता है-‘ वे ऊब जाते हैं बैठे- सोते ! / धूप जब बालकनी से हटती है और छत पर होती है/ वे पुराने दिनों को याद करते हैं/ अपनी नौकरी के दिनों को/ खेती – किसानी के दिनों को / दिवंगत दोस्तों- रिश्तेदारों को/ कुछ अपनों को, जो पता नहीं अब कहाँ होंगे! ’
कहना न होगा कि कवि के सामने से एक भरी- पूरी दुनिया ख़त्म हो रही है और कवि उसे शिद्दत से दर्ज कर रहा है। कवि ने माँ पर दो कविताएँ लिखी हैं- ‘स्वीकार नहीं करेगी माँ’ और ‘माँ की शॉल’। इस संसार में माँ पुत्र के लिए काम करती जाती है, लेकिन इसकी चर्चा वह नहीं करती। यह उनका स्वभाव है। वे अपनी संतान को ईश्वर से भी ज़्यादा प्यार करती है। वह संतान की सुरक्षा में प्रार्थना करती रहती हैं, सागर सा स्नेह देती है। पुत्र माँ के लिए एक शॉल ख़रीदता है तो माँ अपनी बहन को याद कर कहती है- ‘बढ़िया शॉल है यह मौसी पर भी अच्छी लगेगी।’ लेकिन माँ संकोचवश यह नहीं कहती कि एक शॉल उसके लिए भी ले आओ। पुत्र समझ जाता है और एक शॉल ख़रीद कर अपनी मौसी को दे आता है। माँ अतिरिक्त रूप से भावुक हो जाती है। जब वह माँ को बताता है कि मौसी ने कहा-
“दीदी को ही अच्छी लगेगी/ हम देहात में रहते हैं,/ इतना बढ़िया शॉल ओढ़कर कहाँ जाएँगे! तो माँ कहती है-‘शुरू से संतोषी रही हमारी बहन।’ इस दृष्टांत पर कवि टिप्पणी करता है- ‘यह कहते हुए जब सुना तो लगा कि / भाई-बहन यादों में कभी बूढ़े नहीं होते/ उनकी संवेदना का कोई भी रूप हमें/ जीवन के अनजान क्षितिजों की तरफ़ ले जा सकता है!’
देश की कृषि सभ्यता औद्योगिक सभ्यता में तब्दील हो रही है। कृषि सभ्यता से जुड़ी तमाम चीजों पर ग्रहण लग रहा है। वह चाहे हाट हो, बैलगाड़ी हो, खपड़ैल घर हो, टोले में खड़े घोड़े हों, निर्मल बारिश हो, ताड़ के पंखे हो, गरीब रिश्तेदारों से आंतरिक संबंध हो, पलाश के जंगल हो, आदिवासी मित्र हो, बुजुर्ग डाकिया हो, मदारी हो, कुएँ का ख़त्म होता पानी हो, गलियों में तरह-तरह के तमाशे दिखाता खान बहुरूपिया हो, जिल्दसाज हो, कवि अपने परिवेश की रची बसी तमाम चीजों को याद करता है और उसके माध्यम से चिह्नित करता है कि कैसे धीरे-धीरे संवेदनाएँ छीजती जाती हैं।
कवि अपने बड़े भाई और बहन की मृत्यु की व्यथा को इस तरह से कारुणिक बना देता है-“ जानता हूँ/ अब तुम्हारा फ़ोन कभी नहीं आयेगा/ उस रूट की सभी लाइनें / अब बंद हो चुकी हैं।” कवि ने अपने दोस्तों पर तीन कविताएँ लिखी हैं और जहाँ उसने अपना जीवन गुजरा है, उसे शिद्दत से याद किया है। ख़ासकर नोनीहाट, भागलपुर और गिरिडीह को। यादें सिर्फ़ आह वाह के रूप में नहीं हैं, बल्कि कैसे सबकुछ बदल रहा है, इसे वह मार्मिकता से दर्ज करता जाता है और यह संवेदना ही इस कविता संग्रह को खास बनाती है। कवि की दृष्टि में बहुत से घर खंडहर हो रहे हैं या वर्षों से ताले जड़े हैं। अब वहाँ कोई नहीं रहता…. विनय जब ऐसी स्थितियों का चित्रण करते हैं तो हमें अनायास अपनी पुरानी छूटी हुई जगहें याद आने लगती हैं। कहना चाहिए कि कवि अपनी मुकम्मल दुनिया और उसके बदलते रूप को प्रभावी तरीक़े से पाठक को संप्रेषित करता है।
स्मृतियों से जब कवि बाहर आता है तो उसके सामने एक दुनिया हैं जिसमें ‘हत्यारे घूम रहे हैं खुलेआम/ और अख़बारों में उनके भूमिगत होने के अनुमान हैं।’ कवि इस दुनिया में बड़े होते आदमी को देखता है और उसकी विडम्बनाओं को रेखांकित करता है। आदमी जैसे-जैसे बड़ा होता है, वैसे वैसे उसका ह्रदय सूखता जाता है। गाड़ी, ज़मीन, कुत्ते ख़रीद लाता है और अपने बच्चे को देहरादून के स्कूल में डलवा देता है। जब बड़े आदमी के पिता स्नानघर में फिसल जाते हैं तो “उनकी पत्नी को पसंद नहीं थी टूटी हुई कमर वाले पिता की कराह और सुबह की अनवरत रामधुन ” ऐसे में बड़ा आदमी फ़ैसला लेता है कि ऐसी परिस्थिति से मुक्ति के लिए पिता को मंझले भाई के पास भेज दिया जाय,जो एक किराने का एक दूकान चलाता है।
कवि के सामने एक ऐसी दुनिया बन रही है कि संसद के बारे में उसका आकलन है- “अय्याशों, जोकरों और भितरघात करने की/ हरामजादा मस्तिष्कों की भीड़ से/ चौतरफ़ा घिर गई थी यह इमारत।” हालात यह है कि जिन्हें जनता के आंसू पोंछने के संकल्प की परंपरा में जीना था, वे ही शामिल हुए हाय हत्यारों के साथ। स्थिति तब और भयावह हो जाती है, जब ‘हम हंसते थे/ सब हंसते थे/ उनके बिकने की खबर सुनकर/ ‘ऐसा ही होता है हर युग में’- कह कर।’
कवि लोकतंत्र के मरने की खबर इतनी सहजता से देता है कि दंग रह जाना पड़ता है।
संग्रह में एक कविता है- ‘यह ख़रीद लीजिए प्लीज़’। इस कविता में सेनेटरी नैपकिन का विज्ञापन करती सुष्मिता सेन, साबुन का प्रचार करती अर्धनग्न ऐश्वर्या राय, जूते से पूरे विवस्त्र शरीर वाली मधु सप्रे, नशीली आँखों से एक कंडोम के अनुभव को साकार करती पूजा बेदी, नंगी पीठ दिखाकर साड़ी बेचती संगीता बिजलानी और शैम्पू का प्रचार करती शोभा डे का ज़िक्र आता है। ये स्त्रियाँ हाड़-मांस की ही हैं, लेकिन वे बाज़ार को घर ले आने की सारी कलाएँ जानती थीं और हमारे जीवन में उतर आयी थीं। कवि टिप्पणी करता है- ‘गौर कीजिए/ वे चोर दरवाज़े से नहीं आई थीं हमारे घरों में/ आपने उन्हें आते देखा था सामने से/ आपने ही उन्हें गले लगाकर दरवाज़े से भीतर बुलाया था।’
बाज़ार घर पर क़ब्ज़ा कर रहा है। उन स्त्रियों के बारे में कवि का वक्तव्य है कि -‘यह संस्कृति की भाषा में बाज़ार थीं/ बाज़ार की भाषा में उत्तेजना/ विज्ञापन की भाषा में बाग का ताज़ापन थीं/ ये नई बाज़ार व्यवस्था का रूमान थीं।’ इन स्त्रियों को न अपने बच्चों को तैयार कर स्कूल भेजना था, न बनिए के पास रोज़ के सौदा सुलुफ के लिए जाना था। न पति के लिए टिफ़िन बनाना था, न सोहर गाने थे, न व्रत रखना था!
आज देश में स्त्रियों की दो दुनिया है। एक दूसरी कविता ‘ वे दिन और रात की तरह सच है’ में कवि इस तथ्य को और भी स्पष्ट ढंग से लक्षित करता है- ‘लंबी उम्र जीती हैं उनमें से बहुत कम/ प्रसवावस्था में मर जाती हैं/ या छोटी छोटी बीमारियों से।’ ये ऐसी स्त्रियाँ हैं जिनकी इच्छाएँ ओस की तरह है जो कठिन मेहनत और दुख की आँच में सूख जाती हैं।
कवि ने स्त्री केंद्रित एक महत्वपूर्ण कविता लिखी है- ‘दो औरतों की नियति कथा’। दो स्त्रियों को गॉंव बदर कर दिया गया है, क्योंकि वह स्वाधीन थीं और गॉंव की सीमांत पर रहती थीं। क़यास यह लगाया गया कि वे पाकिस्तान से भेजी गयी ख़ुफ़िया औरतें थीं, जिन्हें यहाँ की औरतों का चरित्र और ईमान को नष्ट करने के लिए भेजा गया था। इन औरतों को वेश्या प्रचारित कर गॉंव से निकाल दिया जाता है। कवि सवाल करता है कि वे वेश्या कैसे थीं, क्या किया था उन्होंने और अगर ऐसी ही दशा में पुरूष रहते तो क्या उन्हें क्या कहा जाता?
विनय सौरभ की इस संग्रह में कुल 88 कविताएँ हैं। सभी कविताएँ गहरे संप्रषणीय हैं। इसकी दो वजहें हैं- एक – उनकी कथात्मक शैली और दूसरी- सहज सरल शब्द और पंक्तियाँ। कवि अपनी विद्वता या अतिरिक्त कौशल का प्रदर्शन नहीं करता। कविताओं में एक उदासी तारी रहती है। वहाँ मानवीय सम्बन्धों के टूटने या समृद्ध होने की अनुभूतियाँ हैं। वे हमारी नजरों के सामने से ससरती हुई दुनिया की हक़ीक़त बयान करती कविताएँ हैं। एक दुनिया जो बन रही है, उसमें रिश्तों का छीजन है, मनुष्यत्व भाव का घोर अभाव है। इन विद्रूपताओं और बिडंबनाओं के प्रति ये कविताएँ पाठकों को संवेदित करती हैं।
विनय सौरभ लंबे समय से लिख रहे हैं और विभिन्न राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ छपती और चर्चित होती रहीं हैं। उनके कविता संग्रह की प्रतीक्षा थी। यह और भी सुखद है कि जिस समय कविताओं की उपेक्षा हो रही है, उस वक़्त इस संग्रह का अभूतपूर्व ढंग से स्वागत हुआ है।
कविताएँ युग की मनोदशा को रेखांकित करती ही हैं साथ ही पाठकों को सह्रदय और उदार बनाती है। विनय की कविताएँ इस काम को पूरी संवेदनशीलता, समझ और लगाव से करती दिखती हैं।