स्वत्व की खोज की कविताएँ
‘अपनी परछाई में लौटता हूं चुपचाप’ की कविताएं आत्म से अनात्म के वृहत्तर वृत्त की ओर ले जाने वाली कविताएं हैं। ये स्वत्व की खोज की कविताएँ हैं। इस उत्तर आधुनिक समय में यह व्यक्ति के व्यवस्था से अलगाव की कविताएं हैं। कई बार लगता है कि एलिएनेशन, विलगाव ही इन कविताओं का केंद्रीय भाव है। लोकतंत्र में व्यक्ति अपनी इयत्ता, अपनी गुमी हुई हैसियत, अपनी ही आवाज और अपनी ही पुकार की खोज में है। और अंत में अपनी ही परछाई में लौट आना, सिमट आना चाहता है। बाहर ऐसा उजाड़ कि अंदर ही देखने पर कुछ दिखाई दे – “यह उजाड़ कैसा कि/आंखें बंद कर ही देख पाता हूं” (नाव की तरह)।
ये कविताएं केवल सत्ता और समाज के रिश्ते के द्वंद को नहीं दर्शातीं बल्कि सत्ता, समाज और व्यक्ति के बीच के द्वंद और तनाव को बहुत बारीकी से प्रायः एक अवसादपूर्ण संदर्भ में उद्घाटित करती हैं। 1950 और 60 के दशक के मोहभंग के समानांतर 21वीं सदी के पूर्वार्द्ध में कवि रामकुमार तिवारी एक और कहीं गहरे और त्रासद मोहभंग को अपनी कविताओं में रचते हैं- “मैं स्वतंत्र देश का नागरिक/ इस तरह विवश हूँ कि/ चीखकर भी नहीं कह पाता /कि यह जो सुनाई-दिखाई दे रहा है/ उसमें मैं नहीं हूँ” (हमारे होने को)।
संग्रह की अधिकतर कविताएं आत्मगत हैं – ऊपरी तौर पर, और प्रथम पुरुष में लिखी गई हैं। लेकिन इनमें कवि का आत्मालाप नहीं है बल्कि अपने आप के साथ संवाद है- इसी संवाद से नए सूत्र खुलते हैं, देखी हुई चीजें भी मानों नये रूप-रंग-ढंग में सामने आने लगती हैं। कविता करने की शैली बहुत विशिष्ट है। कवि की दृष्टि अद्भुत रूप से विचक्षण है। वह चीजों को वहां से देख रहा है जहां पर प्रायः हम नहीं होते, जैसे किसी अनदेखी जगह से किसी वस्तु या क्रिया या घटना पर दृष्टिपात! कवि होने और न होने के द्वंद में निरंतर उलझा रहता है।
लोकतंत्र एक मूल्य के रूप में उसे आश्वस्त करता है- उसकी संवेदना स्वयं लोकतांत्रिक चेतना का ही प्रतिफलन है लेकिन व्यवस्था के स्तर पर एक उत्पीड़क तंत्र बचता है। बाजारवाद, धनोन्मुखता, सत्तालिप्सा और हिंसाचार ने मानो एक अलग ही मनुष्य-विरोधी बल्कि जीवन-विरोधी प्रति-संसार रच दिया है, और यह भारत का ही नहीं, विश्वजनीन यथार्थ है- “हिंसा के पास सबसे स्पष्ट तर्क होता है/ जिसे सत्ता भी ठीक पहचानती है/ जिसमें राष्ट्र, क्षेत्र, धर्म, विचार, जाति, भाषा/ और नस्ल के नागरिक अपने-अपने भविष्य को रोकते हैं/..किसने सोचा था/ इस नागरिक समय में एक दिन/ मनुष्य होना इस तरह गैरजरूरी और तर्कहीन हो जाएगा“( किसने सोचा था)। अंतिम पंक्तियाँ पाठक को हतप्रभ कर देती हैं।
कवि रामकुमार तिवारी की कुछ कविताओं में सभ्यता समीक्षा या आलोचना के तत्व बड़े प्रभावी रूप से प्रकट होते हैं- “बाहर इतना जलसा है कि/ कुछ भी कहना असभ्यता है“( धरती पर जीवन सोया था)। इसी संदर्भ में इन पंक्तियों के निहितार्थ कितने गहरे हैं और भाव-सम्प्रेषण कितना क्षिप्र है- “इतना रैखिक नहीं है हमारा होना कि/ सीधे पहुँच जाएँ /..कितने उजालों ने कौंधकर/ हमारे अंधेरों को गाढ़ा किया है /..देने का दावा करते हुए/ लगातार छीनते जाने की नीति/ हमारी नहीं हो सकती/ कितने रास्ते लौट आए बिना मनुष्यों के/ मनुष्य की खोज ही हमारा भटकाव है” (एक पाठ बीच में)। इसी प्रकार ’विनोद दुआ के बहाने’ में कवि यह पूछकर सभ्यता की उपलब्धियों को ही मनुष्य विरोधी सिद्ध कर देता है – “अपने महादेश ही क्यों अब तो/ समस्त भूमंडल के अपार जनों की औसत आय क्या है /उसे कम से कम और अधिक से अधिक कितनी होनी चाहिए/ कि उनकी मनुष्यता बची रहे”।
इस संग्रह की कविताएं नैसर्गिक परिवेश से अलगाव की पीड़ा को भी अभिव्यक्त करती हैं – “आकाश/ इतना सूना / कि नजरें लौट नहीं पाएँगी/ उड़ता पक्षी/ किसी पेड़ की छाया/ कोई सोता जल का/ आसपास नहीं होगा /धरती मुंह उठाए/रातों-रात ताकेगी आकाश/ और कोई तारा टूटकर नहीं आएगा”( यह कहता हुआ)। प्रकृति और परिवेश के साथ अभिन्नता के गहरे बोध के कारण ही शायद आकाश, जल, हवा, पेड़, धूप, तारे जैसे प्राकृतिक उपादान तरल अनुभूतियों के प्रकटीकरण के सहज साधन बनते हैं। संग्रह में निवेशित कुल शब्द संपदा का खासा बड़ा हिस्सा इनसे ही बनता है।
कवि का अपना होना मानो इन्हीं से संभव हुआ है – “इस पल/ मेरा कहा भर रहा है आकाश में/ और अनकहा/ समुद्र में घुल रहा है/ जिसमें मैं/ कभी पक्षी हूं/कभी मछली हूं” (समुद्र तट पर)। कवि जब-जब प्रकृति को देख चराचर भाव से जुड़ता है, उसकी लेखनी अद्भुत रचना करती दिखती है। समुद्र तट, चिल्का झील और बारिश पर लिखी कविताएं इस बात का प्रमाण हैं- “उड़ रही थीं/ हवा में चादरें/ गलियों के ऊपर/ खिड़कियों में /मढ़े थे चेहरे/..बह रहे पानी पर/ बन रहे थे पल/ डूब रही थी घरती/जगह-जगह से भींग-भींग कर/ लौट रहा था/.. उस दिन सारा आकाश बरस रहा था” (उस दिन)। जिस चराचर भाव की चर्चा की गई वह कैसे-कैसे बिम्ब रचवाता है, यह देखिए -“सप्तमी का चंद्रमा आकाश का नहीं/धरती का/ रात के ऊपरी तल पर बाती-सा/ जलता/ हौले-हौले/ मैं गोताखोर डूबा रात में/ अंधे की तरह टटोल रहा हूं धरती/ अंतरिक्ष में कोई/ हथेली पर/ धरती का दिया धरे/ चला जा रहा है” (अंधे की तरह)।
एक बात जो विशेष रुप से ध्यान खींचती है वह यह है कि संग्रह की कविताओं में वस्तु विवरण बहुत कम हैं। एक तरह से कहे तो पृथ्वी-तत्व अत्यल्प अनुपात में है। रेल पर दो-एक कविताएं हैं, उनमें भी चीजों की उपस्थिति कम है। वहां प्रतीक्षा में डूबा हुआ प्लेटफार्म है जहां जगह-जगह ‘समय रुका पड़ा है’, गति है तो उसमें ‘सदियों का सब’ छूटते जाने का डर है। वहां किसी प्रतीक्षारत यात्री को ‘प्लेटफार्म अंधेरे कुएं’ की तलहटी-सा दिखता है, जिसका सुदीर्घ जीवन स्मृतियों से खाली है, जो प्रतीक्षा की थकान में आगे सफर के लायक नहीं बचता और ‘मृत्यु प्लेटफार्म पर हुई’/जीवन रेल की प्रतीक्षा में खड़ा था।” उसी प्रकार ‘रात चिल्का और मैं’ कविता में वस्तु या चीज के नाम पर मात्र नाव है और उस पर रखी लालटेनें हैं।
‘एक दिन’ में दीवार और उस पर टंगा चित्र है और परदा है। दृश्यबंधों में सभ्यता का प्रतीक समझी जाने वाली मानव निर्मित वस्तुएं बहुत कम हैं, बस निसर्ग है और उससे उपजी अनुभूतियां है या कि अनुभूतियों का प्रत्यक्षीकरण सामने दिखते नैसर्गिक परिवेश में हो रहा है – एक नितांत भिन्न और विशेष काव्य भंगिमा के साथ – “दूर-दूर तक फैली मत्स्यगंध में/ हवा के विरुद्ध दौड़ते बच्चे ओझल हो गए हैं/ मेरे छूटे में पतंग-सी तनी है उनकी हंसी/ विस्तार को ढील देती हुई/ ..किनारे-किनारे/ अकेलेपन से सीपियां बीनता /चला जा रहा है कोई अपरिमित में/ डोर खींचता हुआ/.. भरे पूरे जीवन घरों में लौट रहे हैं/ श्रम की थकान में खिली मुक्त हंसी/ विराट वैभव के फूल-सी/ कितनी आत्मीयः/ कितनी रागमयी! / कहां कोई वंचना सिवाए अपने के!” (समुद्र तट से विदा ले)।
कवि रामकुमार तिवारी की काल संचेतना प्रखर है। वे समय को देखने-परखने और समझने की सूझ रखते हैं। सच्चा कवि अपने समय को जीता ही नहीं है, अपने समय के विद्रूप और विसंगतियों को केवल देखता ही नहीं, अपने सिर ले भी लेता है। वह स्वीकार करता है- “यह समय मेरा है/ अपराधी हूं /मुझे क्षमा नहीं सजा चाहिए/ अभी सामने के दृश्य में /सांस लेते हुए/ कैसे कह दूं/ यह समय मेरा नहीं है/ अपराधी दूसरे हैं !”(यह समय मेरा नहीं है)। संग्रह की अनेक कविताओं में कवि समय के समक्ष साक्षात प्रस्तुत होता है, उसे जानने की गरज से। काल-संवेदना की एक अद्भुत कविता है- ‘क्या बजा होगा’। इसे पूरा ही उद्धृत करना श्रेयस्कर होगा –
“रात में अचानक नींद टूटी
घड़ी बंद थी
क्या बजा होगा
बाहर निकल कर देखा आकाश
स्थिति तारों की
ध्यान से सुना, कहीं कोई स्वर नहीं
कुछ समझ में नहीं आया कि
आखिर क्या बजा है
..अजीब बेचैनी बेवजह घिर आई सोचता रह गया कि
क्या बजा है
कितना ही निष्प्रयोजन क्यों न हो
हम समय कुछ जानना चाहते हैं” (क्या बजा होगा)।
संग्रह की अंतिम कविता भी वास्तव में समय को साधने का ही उपक्रम है। कवि की कामना है कि जीवन में दोहराव नहीं निरंतरता हो – “..दुहराव नहीं/जीवन में निरंतरता हो/ उन कहानियों की तरह/ जो इतिहास में जाने से मना कर देती हैं/ और बस्ती में रहती हैं लोगों के साथ..”, कवि संकेत कर रहा है कि समय इतिहास में नहीं, उन कहानियों में धड़कता है जिन्हें बस्तियों में लोग सुनते-सुनाते हैं।
अच्छी कविता भाषा के संस्कार सिखाती है। अच्छी कविता की कसौटी पर रामकुमार तिवारी की कविताएं एकदम खरी उतरती हैं। कवि भावों के अनुरूप शब्दों का चयन करते हैं। उनकी भाषा संप्रेषण में अवरोध नहीं बनती बल्कि आम आदमी के अनुभवों और मनोभावों को व्यक्त करने में समर्थ है। लेकिन यह भी कहना होगा कि यहां आसान और सीधी उक्तियों वाली कविताएं नहीं है। यहां भाषा में भावसंपृक्त सघनता है जो कहीं अभिधा तो कहीं व्यंजना में अभिव्यक्त होती है। तिवारी जी की कविता-भाषा गहन आशयों को अपने अंदर समेटे रहती है- “ऊपर आकाश में तारों का दिप-दिप संसार/ जिसकी संकेत भाषा बूझने में/पूरा का पूरा खुल गया हूँ/ शायद वे पूछ रहे हैं हमारे ग्रह का नाम/ मैं पृथ्वी उच्चारता हूँ/ सुनाई देता है मुझे प्रेम/ सिर्फ प्रेम” (समुद्र तट से विदा ले)।
कई स्थानों पर सुंदर, सार्थक सूक्तियों की तरह काव्य पंक्तियां विस्मित करती हैं – सभी का हित/ समर्थ के धैर्य में वास करता है/ उसकी परीक्षा नहीं होनी चाहिए (जानता हूं)। संग्रह की कुछ कविताओं में भाषा पर अत्यंत प्रासंगिक व अर्थगुम्फित टिप्पणियां अथवा कथन दिखाई दे जाते हैं। एक नये मुहावरे की तरह ’अपनी भाषा हारना’ का विस्मयकारी प्रयोग दिखाई देता है – “मुझे तुम्हारे सामर्थ्य पर विश्वास है/लेकिन तुम्हारी भाषा पर नहीं/जो तुम बोलते हो/.. मैं जानता हूं /तुम भाषा नहीं जीतना चाहते/फिर मैं भाषा क्यों हार रहा हूं/रोज-रोज!” (जानता हूं)। अपनी भाषा हारना – इस एक पदबंध ने इस संग्रह को अलग से मूल्यवान बना दिया है और कवि को विशिष्ट। पहले आदमी अपनी भाषा हारता है, फिर स्वत्व ; और यह व्यक्ति समुदाय और राष्ट्र तीनों इकाइयों के लिए सच है। वैश्विकीकरण के संदर्भ में इसका विशेष महत्व है। अपनी भाषा हारना, उससे हाथ धो बैठना इस सभ्यता में बिखरी हुई, या फिर क्षेत्रीय स्तर पर सिमटी हुई सांस्कृतिक अस्मिताओं का मूलभूत संकट है, अस्तित्व का संकट। लेकिन कैसा आश्चर्य है कि इस युग में भाषा के बिना भी जगत-व्यापार चलाने की कोशिशें हो रही हैं, कवि जिसकी ओर संकेत कर रहा है – “फिर भी सांसारिकता नहीं बदलेगी अपनी भंगिमाएं/ भाषा के बिना ही चलता रहेगा दुनिया का व्यापार/ और बस्तियाँ बसती रहेंगी” ( यह कहता हुआ)। कवि भाषा को हमारी मूलभूत पूंजी, हमारे अधिकार में रहने वाली प्रथमाप्रथम उपलब्धि के रूप में रेखांकित कर रहा है, जो अन्यान्य उपलब्धियों का आधार है। और यही सच है – भाषा हमारी सबसे मौलिक संपत्ति है और किसी कीमत पर इसे हारा नहीं जा सकता।
इस संग्रह की कुछ कविताओं में उक्ति-वैचित्र्य के बेहतरीन नमूने हैं, चीजों, घटनाओं को इस तरह से देखना पाठक को स्तंभित कर देता है – “चिड़िया में फड़फड़ाता आकाश/ नदी में गिरता है पंख-पंख” (जीवन होता), “परछाई को रात से अलग कर/ अपने को टटोलता हूँ/ अंदर बाहर अंधेरा रह-रहकर बजता है”(अदृश्य कौन है); “बाहर सड़कों पर/ चली हुई दूरियां पड़ी हैं/ जिन पर चलता हुआ/ अपनी परछाई में लौटता हूं चुपचाप” (धरती पर जीवन सोया था) ; “बचे रहना/डूब जाने की विपरीत दिशा है/ अपने होने के लिए आंखें/ दूर-दूर तक देखती हैं”( नाव की तरह)। कहना ना होगा कि ये सभी कवितांश अत्यंत अर्थगर्भित हैं और सूक्ष्म संकेतों से भरे हैं।
रामकुमार तिवारी एक समर्थ बिम्बधर्मी कवि हैं। सूक्ष्म अनुभूतियों को उन्होंने अद्भुत भावचित्रों के माध्यम से मूर्तिमान किया है – “देखते-देखते ओझल हुए /दूर-दूर के दरख्त/ ऊपर बेघर पंछियों की कतारें/ बीच-बीच में टपकते उनके आद्रस्वर/ अंधेरे की तरलता में/ बुलबुले बनाते हुए..”(नाव की तरह)। कहीं-कहीं अत्यंत सजीव दृश्य बिंब दीख पड़ते हैं – “धुन्ध की ओट में/ झील बदल रही है वस्त्र /पानी के वलय वक्र धागों में गुम्फित किरणें/ धीरे-धीरे उकेर रही हैं/ पेड़ पहाड़ और नाव/… लहरों पर डोलते धुंधलके में/ झिलमिलाई आभा किसकी है/ मैं झील में अपना अक्स छोड़/ सुनी डगर में लौट रहा हूं” (जाग रहा है मौन)। ऐसा लगता है जैसे सब कहीं से थका-हारा कवि प्रकृति का ही आश्रय ढूंढता है, उसी के समक्ष अपने भावों को उड़ेलता है। प्रकृति ही मानों उसे खोलती है, अनावृत करती है।
कविवर रामकुमार तिवारी की कविता में भावात्मक गहराई है। वे कम बोलने वाले कवि हैं। संकेतों-प्रतीकों में अपनी बात कहते हैं और दुर्लभ बिम्ब रचते हैं। इनके यहां शब्द-जाल नहीं है, न ही ये असंभव या असंगत सादृश्यता स्थापित करते हैं। तिवारी जी एक स्वाभाविक कवि हैं। उनकी कविताएं कथनों और उक्तियों की कविताएं नहीं हैं, भावाभिव्यंजना की कविताएं हैं। इनके यहां कविता की अलग ही भंगिमा है जो पूरे परिदृश्य को ही बदल देती है, पाठक चीजों और घटनाओं को और-और तरह से देखता और संपन्न होता है। एक नूतन जीवन-दृष्टि से। तिवारी जी की कविताएं पाठक की कल्पनाशीलता को जगह देती हैं। इन पर किसी पूर्ववर्ती अथवा समकालीन कवि का प्रभाव ढूंढना कठिन है। चीजों को देखने की अलग दृष्टि और बात करने के तरीके में ये अलग कोटि के मौलिक कवि प्रतीत होते हैं। एक दृष्टांत देखिए- “पहाड़ पर अटके बादल/ बोलते हैं आकाश के बोल/ और पेड़ों का प्यार हवा गुनगुनाती है/होती है सुबह/चोटियों पर फिसलती किरणें/बर्फ को नदी का कहा सुनाती हैं/ धारा में बहती अविरल छायाएँ/ देह को मुक्त कर चली जातीं लम्बान में /पुकारता है अगाध/ अदृश्य झरना सुनाई देता है झर-झर” (सदियां बीत गईं)।
‘अपनी परछाई में…’ की कविताएं सीधे प्रतिरोध में नहीं उतरतीं लेकिन प्रतिरोध की जरूरत को रेखांकित करती हैं। ये गहरे और सूक्ष्म अन्वीक्षण की कविताएं हैं, गहन अनुभूतिपरकता से आप्यायित। इनमें विचार और जीवन दर्शन ढले हुये हैं। इसमें एक अलग ही भाषा के संधान की कोशिश दिखाई देती है। कवि जो देख रहा है, जो उसके समक्ष घट रहा है, उसे समझने के लिए उसे और तरह से घटाकर देखना चाहता है, कभी-कभी बिल्कुल उल्टे क्रम में। इस कोशिश में वस्तुओं, उपादानों का जैसे रूपांतरण होता है, उनके गुणधर्म बदल जाते हैं और तब कहीं जाकर आशय स्पष्ट होता है। संग्रह में प्रेम कविताएं एकाध हैं लेकिन कवि पृथ्वी को प्रेम का ही पर्याय मानता है। पृथ्वी पर होना प्रेम में ही होना है-
“मैं पृथ्वी उच्चारता हूँ
सुनाई देता है मुझे प्रेम
… सिर्फ प्रेम!”
समीक्ष्य कृति : अपनी परछाई में लौटता हूँ चुपचाप
कवि : रामकुमार तिवारी
प्रकाशक : आइसेक्ट पब्लिकेशन, भोपाल
मूल्य : 155/
apm
रामकुमार तिवारी
जन्म: 1/02/1961, तेइया महोबा (उ.प्र.)
शिक्षा: सिविल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा (समस्त शिक्षा जिला छतरपुर, मध्यप्रदेश में)
प्रकाशन: हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविता और कहानियों का प्रकाशन, कुछ कविताओं और कहानियों का देशी-विदेशी भाषाओं में अनुवाद, चयनित कविताओं का संग्रह “आसमान को सूरज की याद नहीं”, का गुरुमुखी में अनुवाद। पहला कविता संग्रह “जाने से पहले जाऊंगा” वर्ष 1989 में, “कोई मेरी फोटो ले रहा है” वर्ष 2008 में प्रकाशित, एवं “अपनी परछाई में लौटता हूँ चुपचाप”, 2020 में प्रकाशित। पहला कहानी संग्रह “कुतुब एक्सप्रेस” वर्ष 2013 में प्रकाशित एवं “बेवजह सी वजह” शीघ्र प्रकाश्य। अन्य उपक्रम: मासिक पत्रिका “कथादेश” के नवम्बर 2007 में प्रकाशित “नवीन सागर विशेषांक” का संपादन।
सम्मान: मासिक पत्रिका “कादंबिनी” की वर्ष 1990 में आयोजित अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता में “सुकून” कहानी को सर्वश्रेष्ठ कहानी का पुरस्कार। क्रियेटिव फिक्शन के लिए वर्ष 2000 का “कथा” पुरस्कार।
सम्प्रति: जल संसाधन विभाग छत्तीसगढ़ में कार्यरत।
सम्पर्क: नेहरु नगर, अमेरी रोड, विद्युत कार्यालय के सामने, बिलासपुर(छत्तीसगढ़) 495001
मोबाइल नं.:94246-75868, ई-मेल-tiwariramkumar5@gmail.com
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