लेख
भूमण्डलीकृत भाषा में संवेदना की परिभाषा
(पेईंग गेस्ट : प्रियदर्शन)
- पंकज पराशर
भूमण्डलीकरण ने हमारी भाषा को गहराई से प्रभावित किया है। हमारी संवेदना और सोच भूमण्डलीकृत समय के मुताबिक अनुकूलित हो रही हैं, जिसे सामाजिक आदतों और सार्वजनिक व्यवहारों में आसानी से लक्षित किया जा सकता है। एक समय युवाओं के बोहेमियन व्यवहार (उस समय की युवा सोच को देवानन्द और जीनत अमान अभिनीत फिल्म ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ में दिखाया गया है) और ‘फर्क नहीं पड़ता’ जैसे मुहावरे (केदारनाथ सिंह ने करीब चार दशक पूर्व अपनी एक कविता में कहा था कि ‘फर्क नहीं पड़ता’ मेरे युग का मुहावरा है) को क्रान्तिकारी और युवाओं के प्रातिनिधिक सोच और व्यवहार के रूप में पेश किया गया था। लेकिन आज के युवाओं की संवेदना और सोच उस दौर से बहुत आगे निकल चुकी है। भूमण्डलीकरण ने आज के युवाओं की बुनियादी जरूरतों, सम्बन्धों को लेकर प्राथमिकताओं और मानसिक बनावट को नये सिरे से परिभाषित किया है। साहित्य में चूँकि भाषा के माध्यम से मनुष्य की परिभाषा दी जाती है, इसलिए उसकी नयी बनती हुई भाषा और बदलती हुई परिभाषा की आहटों को सबसे पहले साहित्य ही सुनता है। प्रत्येक समर्थ साहित्य और साहित्यकार अपने देशकाल के क्रियाशील मानव–व्यक्तित्व और उसके सामाजिक अस्तित्व की परिभाषा करता है। जो साहित्य या साहित्यकार अपने समय के मनुष्य की जितनी सही परिभाषा कर पाता है, वह उतना ही महत्त्वपूर्ण होता है। आज से एक दशक पूर्व प्रियदर्शन की एक कहानी ‘पेइंग गेस्ट’ (इंडिया टुडे, साहित्य वार्षिकी, 2002, पृष्ठ 58–65) में छोटे शहर और बड़े शहर के जीवन–यथार्थ, सोच और संवेदना के पीढ़ीगत अन्तरों और सम्बन्धों के बदलते समीकरण की बेहद सटीक अभिव्यक्ति हुई है।
भौगोलिक और भौतिक विस्थापन सभ्यता के विकास के आरम्भ से ही चल रहा है, लेकिन भूमण्डलीकरण, जिसे व्यंग्य और आक्रोश में कई अध्येता ‘भूमंडीकरण’ भी कहते हैं, के आने के बाद इसमें बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है। झुलनी का धक्का लगते ही जो बलम कलकत्ता पहुँच जाते थे, अब उनके घरों में खुद कलकत्ता ही पहुँच गया है। देश के जिस कोने में आज तक पानी और बिजली की व्यवस्था नहीं हो पायी है, वहाँ भी पेप्सी–कोला और मोबाइल की पहुँच हो चुकी है। इस बाजारवादी व्यवस्था ने एक ओर विविधता की जगह यकसापन के प्रसार को जहाँ तेज किया है, वहीं दूसरी ओर स्वार्थपरकता और आत्मकेन्द्रित प्रकृति को बढ़ाया है। कवि–कथाकार प्रियदर्शन ने आज पल्लवित हो चुकी भूमण्डलीकरण की इन प्रवृत्तियों को ‘पेइंग गेस्ट’ कहानी के माध्यम से बिल्कुल आरम्भ में ही रेखांकित करने की कोशिश की थी। इस कहानी का आरम्भ ही अपनी निजता को लेकर सजग एक बेहद सख्त चेतावनी भरे वाक्य से होती है, ‘आप मेरी माँ बनने की कोशिश न करें।’ इस वाक्य में न सिर्फ अपनी निजता की चिन्ता है, बल्कि तमाम अन्तरंगताओं के बावजूद सम्बन्धों के निर्धारित दायरे को लाँघने से उत्पन्न आक्रोश भी है। मिसेज मैठानी चाहे जितनी सुविधाएँ शालिनी को देती हों, बीमार पड़ने पर शालिनी की चाहे जितनी सेवा कर चुकी हों, उसके दोस्तों को आने–जाने और मस्ती करने की चाहे जितनी आजादी देती हों, लेकिन शालिनी के लिए वह सिर्फ ‘मिसेज मैठानी’ होती हैं। उम्र के एक बड़े फासले के बावजूद शालिनी, मिसेज मैठानी को न चाची कह पाती है, न आंटी कहने में सहजता महसूस करती है। वह एक कामकाजी सम्बन्ध ‘मिसेज मैठानी’ का बना पाती है। शालिनी का यह वाक्य ‘आप मेरी माँ बनने की कोशिश न करें’ एक प्रतीक वाक्य जैसा है कि एक–दूसरे के आजादी का सम्मान, अन्तरंगता और सम्बन्धों को लेकर उदारतापूर्ण व्यवहार के बावजूद इसे सम्बन्धों की गहराई और बेहदी से जोड़ना सम्भव नहीं है।
शालिनी राँची जैसे शहर में पली–बढ़ी लड़की है, जहाँ की माँओं की सुरक्षित मानसिकता में अनुकूलित सोच है, ‘अँग्रेजी में एमए के बाद वह नेट क्लियर कर लेक्चररशिप की सोचे।’ लेकिन शालिनी की ढुलमुल सोच यह है, ‘यह कोर्स तो बहाना है दिल्ली में रहने का। इस बीच कोई नौकरी मिल जाएगी तो कर लेगी।’ शालिनी की इस तरह की सोच की वजह कथाकार ने शालिनी की माँ की मृत्यु से उत्पन्न मानसिक शोक में ढूँढ़ने की कोशिश की है। लेकिन जो शालिनी सम्बन्धों के दायरे को लेकर बेहद इतनी कांशस लड़की है, वह इस मसले में कन्फ्यूज्ड है कि वह दिल्ली में करेगी क्या? कथाकार ने इस कहानी में एक मौजूँ सवाल उठाया है, ‘दिल्ली क्यों आती हैं लड़कियाँ? क्या करती हैं यहाँ आकर? शालिनी इस भूमण्डलीकृत समय की लड़की है, इसमें इस तथ्य से बहुत ज्यादा अन्तर नहीं पड़ता कि वह राँची की है या दिल्ली की। हर मनुष्य अपने समय की पैदाइश होता है। उसकी मानसिक बनावट और बुनावट अपने समय से निरपेक्ष नहीं हो सकती। एक प्रसंग से शालिनी के किरदार पर थोड़ी रोशनी पड़ती है, ‘क्या जिनकी माएँ नहीं रहतीं, वे खुद को पहचान भी नहीं पातीं या फिर इतना बदल जाती हैं कि जिसे नयी ममा बनाती हैं उसे दुत्कारते वक्त नहीं लगता?’ शालिनी के किरदार का यह बदलाव उसका व्यक्तिगत बदलाव होकर भी अपने समय से संचालित और अनुकूलित बदलाव है।
शालिनी के व्यक्तित्व का अन्दाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि पूरी कहानी में सिर्फ एक जगह फ्लैशबैक में उसके पिता का जरा–सा जिक्र आया है। वह अपने पिता को लेकर कितनी संवेदनशील है या नहीं है, पिता के जीवन और अकेलेपन को लेकर उसके मन में कोई चिन्ता है या नहीं है, यह पता नहीं चलता। यह भी पता नहीं चलता कि शालिनी दिल्ली में रहकर पढ़ाई करती है या नौकरी? यह तथ्य तो बिल्कुल अछूता रह जाता है कि उसके घर से पैसे आते हैं या वह खुद कमाकर अपना खर्च निकालती है? किसी भी तरह दिल्ली आने को उतावली शालिनी जैसी लड़कियाँ शायद अपनी स्वतन्त्रता और निजता की खातिर राँची से दिल्ली आती हैं। जहाँ उनकी स्वतन्त्रता और निजता में किसी तरह के खलल की आशंका राँची के मुकाबले कम रहती है। इसमें जरा–सा खलल पड़ा नहीं कि वे सम्बन्धों की गरिमा, संवेदना और भावुकता को तत्काल परे हटाकर सामने वाले को रिश्ते का दायरा तत्काल बताने में हिचकती नहीं।
यह कहानी जितनी शालिनी की है, उतनी ही शालिनी को ‘पेइंग गेस्ट’ के रूप में रखने वाली मिसेज मैठानी की भी है। मिसेज मैठानी पेशेवर मकान मालकिन नहीं हैं, यह शालिनी को तभी पता चल गया, जब पहले महीने की पेशगी के तौर पर दिये उसके चार हजार रुपये को मिसेज मैठानी ने डगमगाते हाथों से सँभाला। उन्हें तो अकेलापन काटने के लिए एक साथ की जरूरत थी, इसलिए उन्होंने ‘पेइंग गेस्ट’ के लिए अखबार में विज्ञापन दिया था। जो मिसेज मैठानी अकेलापन काटने के लिए अपने घर में शालिनी को ‘पेइंग गेस्ट’ के रूप में रखती हैं, वह स्वयं व्यक्ति की निजता और सम्बन्धों के मामले में प्राथमिकता को लेकर इतनी संवेदनशील है कि शालिनी के जीवन में न कभी ताका–झांकी करती हैं, न किसी तरह की कोई दखल देने की कोशिश करती हैं। मिसेज मैठानी वक्त की चोट खायी हुई एक ऐसी किरदार हैं, जिन्होंने अपने–आपको प्रयत्नपूर्वक दुनिया से काटा है। न गाड़ी खरीदी, न टेलीफोन लगवाया। लेकिन जब शालिनी ने घर में टेलीफोन लगवाने के लिए कहा तो वह मान गयी। उन्हें लगा ‘जो उम्र उन्होंने जी ली, वह उस उम्र के आड़े नहीं आनी चाहिए जो शालिनी को जीनी बाकी है। दुनिया से उनका कटाव शालिनी का कटाव न बन जाये।’ क्या इस तरह की सोच और इस तरह की चिन्ताएँ एक पेशेवर मकान मालकिन की होती हैं? या शालिनी को लेकर यह मिसेज मैठानी के भीतर जागा मातृत्व का भाव है?
मिसेज मैठानी अपने अतीत से छलनाग्रस्त एक ऐसी किरदार हैं, जिन्हें अपने जीवन में न प्रेम मिला, न मातृत्व, न परिवार का सुख। मिला तो सिर्फ धोखा और अछोर अकेलेपन से उत्पन्न शोक। दरअसल अपने अनुभवों के कारण पुरुषों की मनोवृत्तियों को लेकर अति साकांक्ष मिसेज मैठानी के मन में शालिनी को लेकर मातृत्व से उपजी भविष्य की आशंकाएँ हैं। मिसेज मैठानी, शालिनी के सारे दोस्तों को जानती हैं, सिवाय राजेश कुलश्रेष्ठ के, जो शालिनी के लिए दोस्त से अधिक गहरा रिश्ता रखता है। शालिनी ने अपने सभी दोस्तों के बारे में उन्हें बताया, लेकिन राजेश के बारे में कभी कुछ नहीं बताया। शालिनी जिस तरह इस बात को लेकर शुरू में उलझन में थी कि वह मिसेज मैठानी को क्या कहकर सम्बोधित करे, उसी तरह राज के साथ अपने रिश्ते को लेकर वह लगातार इस ऊहापोह में जीती है कि वह आखिर राज के बारे में उन्हें किस तरह बताये? लेकिन यह रहस्य तब अपने–आप खुल जाता है, जब दोनों को मिसेज मैठानी एक रेस्तराँ में देख लेती हैं। यहाँ उनके भीतर इस प्रश्न ‘कौन था वह’ के रूप में एक माँ जाग जाती है, जिसने अपने अनुभवों से पुरुष को दिलफेंक और धोखेबाज पाया और जिसके मन में इस तरह के पुरुषों से अपनी बेटी (?) को बचाने का भाव है। लेकिन शालिनी इस बात को जिस रूप में लेती और रियेक्ट करती है, वह उन्हें पुन: मकान मालकिन–भर ही रहने के दायरे में धकेल देती है। भूमण्डलीकृत सभ्यता में अन्तरंगता अन्तत: सम्बन्धों के दायरे का अतिक्रमण नहीं पाती है। क्योंकि सम्बन्धों के मामले में इस सभ्यता का सबसे बड़ा सच यह कि प्राथमिकताएँ बदलती रहती हैं।’’
(इंडिया टुडे, साहित्य वार्षिकी, 2002)
(पंकज पराशर – युवा आलोचक। आधार प्रकाशन से एक आलोचना पुस्तक ‘पुनर्वाचन’ प्रकाशित। लंबे समय तक पत्रकारिता। संप्रति – अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर के पद पर कार्यरत। संपर्क – +919634282886)