सपने जमीन पर

आवाज के प्रकार

 

अब तक आपने पढ़ा : बी ए पी एल पार्टी के नेता मंडल जी के गांव में 2 विद्यार्थी गरीबी के कारणों पर शोध  के सिलसिले में आये थे अब पहले दिन की समाप्ति के बाद रिक्से से वापिस अपने होटल पहुंचते हैं, अब आगे

आवाज के प्रकार

होटल बस नाम का ही शीश महल था। संकरा सा लंबा होटल ।पर जो कमरा मिला था उसमें रोशनी भी थी और हवा भी। दिन भर की थकान के बाद बिस्तर पर लेटने का अपना मजा होता है। दिन भर का समय किसी के साथ गुजारो तो वह व्यक्ति कुछ कुछ समझ में आने लगता है ।राजेश सत्यार्थी के बारे में सोच रहा था। आखिर कैसे उसे रिक्शावाले पर दया आ गई? क्योंकि ढाबे में तो “सत्य प्रकाश मिश्रा” के बुरी हालत में उसे सामाजिक न्याय नजर आ रहा था।

वैसे सामाजिक न्याय तो शराफत से भरा शब्द है इसका वास्तविक मतलब ढूंढा जाए तो वह शब्द होगा “सामाजिक बदला” पर मजबूरी है कि सार्वजनिक तौर पर इस शब्द का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता हालांकि कई एक के दिलों में यही बात मौजूद होती है। पर रिक्शा से उतरते वक्त सत्यार्थी ने रिक्शा वाले के लिए जो अफसोस व्यक्त किया वह क्या था? क्या कोई इतना जल्दी अपनी सोच बदल सकता है? तबतक बगल वाले बेड पर लेटा सत्यार्थी  भी शायद रिक्शा वाले के बारे में ही सोच रहा। उसकी आवाज आई, “रिक्शावाला अच्छा आदमी था न, दयालु स्वभाव था उसका।”

राजेश ने पूछा, “वही तो मैं सोच रहा था कि तुम्हारे विचार “सामाजिक न्याय” को लेकर इतनी जल्दी कैसे बदल गया?क्या उसकी स्वभाव की वजह से?” सत्यार्थी जैसे किसी गहरी सोच में डूबा हो, “हां यह तो मैं भी सोच रहा हूं।” थोड़ी देर के आत्म मंथन के बाद सत्यार्थी ने कहा, “बचपन से ही बताया जाता रहा कि हमारे पूर्वजों के साथ दुर्व्यवहार हुआ। उन्हें सताया गया। तो दिल में एक प्रतिकार का भाव पैदा हुआ। और आरक्षण के द्वारा सही मायने में लग रहा था कि प्रतिकार हो रहा है। पहले दलित सताए जाते थे। उन्हें हाशिये पर जीना होता था। और अब आरक्षण की वजह से अच्छे प्राप्तांक के बावजूद सवर्ण लोग हाशिये पर रह रहे हैं।”

राजेश, “फिर विचारों में उदारता कैसे आ गई?” सत्यार्थी, “कई विपरीत से लगने वाले विचार दिमाग में साथ साथ चलते हैं पर यह आपका व्यक्तिगत निर्णय होता है कि अंततः आप किस विचार के साथ खड़े होते हैं।” राजेश, “पर तुम्हारे कट्टरवादी विचार बदले कैसे? इसका जवाब तो तुमने अभी तक नहीं दिया?” सत्यार्थी, “उस रिक्शेवाले की सज्जनता के बावजूद यदि मैं सोचूँ कि आरक्षण की नीति की वजह से वह सताया गया तो ये बहुत अच्छा हुआ,  तो मेरी यह सोच बड़ी ही आदिम या जंगली सोच होगी। एक सभ्य समाज के अंदर ऐसी सोच का होना अच्छी बात नहीं। सत्यप्रकाश को रिक्शा चलाने के लिए  मजबूर होना पड़ा यह एक तरीके का अन्याय है, भले ही हम इसे सामाजिक न्याय का ही नाम क्यों न दे दे।”

राजेश, “पर यह दोनों विचार तो एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत हैँ।” सत्यार्थी, “वही तो कई स्वर, कई आवाजें हैं, स्वार्थी दिमाग कुछ कहता है तो अंतरात्मा कुछ और कहती है। दिमाग कहता है कि मेरी जाति को रिजर्वेशन है तो कंपटीशन निकालने में मेहनत कम करना पड़ेगा। अच्छा है, इसका फायदा उठाया जाए। देश हित और समाज हित का  क्या हम ठेका ले रखे हैं ? पर एक स्वर और है जिसे मैं अनसुना नहीं कर पा रहा।” राजेश, “वह भला क्या?”सत्यार्थी, “याद है। भारती जी ने अपने लेक्चर क्लास में कहा था कि किसी राष्ट्र को बर्बाद करना हो तो उस पर बम गोले बरसाने की जरूरत नहीं। बस उस देश में ऐसी नीतियां बना दो कि उच्च पदों पर अयोग्य लोग बैठ जाएं और योग्य लोग हाशिये पर खड़े कर दिए जाएं।

फिर हर अगला जनरेशन पहले से कमजोर होता जाएगा। अयोग्य शिक्षक, डॉक्टर इंजीनियर आदि नई पीढ़ी के विद्यार्थियों को अयोग्य शिक्षक, डॉक्टर और इंजीनियर बनाएंगे और यह क्रम पीढ़ी दर पीढ़ी इसी तरह से चलता रहेगा। और  शिक्षक, डॉक्टर, इंजीनियर आदि की जो योग्य पीढ़ी होगी वे देश छोड़ विदेशों का रुख करेंगे। ब्रेन ड्रेन होता रहेगा। और पीढ़ी दर पीढ़ी देश भी कमजोर होता चला।  भारती जी ने भले ही इस विचार को अपना स्वर दिया हो पर यदि ईमानदारी से दिल में झांके तो यह विचार बिल्कुल सही लगता है। तो देश का हित इसी में है कि आरक्षण ना हो। बस प्रतिभा को वरीयता मिले, सम्मान मिले।”

राजेश ने फिर मुस्कुराते हुए पूछा, “अभी तुमने दिल की बात की। अच्छा टीवी पर जो विज्ञापन आता है कि “सुनो तो अपने दिल की” तुम्हारे हिसाब से यह कौन सा दिल है?” सत्यार्थी ने हंसते हुए कहा, “इसका सीधा मतलब ये है कि अपने दिमाग का इस्तेमाल तो करो ही नहीं और अपने दिल में उनके प्रोडक्ट को बसा लो, खरीदो तो बस वही जो वे चाहते हैं। यही है विज्ञापन वाला “सुनो तो अपने दिल की।” राजेश, “वाह यार तुम तो कलाकार हो। आवाज के इतने सारे प्रकार गिना दिये। दिमाग की आवाज, अंतरात्मा वाले दिल की आवाज, विज्ञापन वाले दिल की आवाज। पर तुम किस आवाज के साथ खुद को खड़ा पाते हो, ये भी बता दो।” सत्यार्थी, “फिलहाल तो मैं देश के साथ खड़ा हूं। अच्छा अब सो जा, गुड नाइट

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samved

साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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