मैला आँचल में प्रेम और काम
अर्थात् लिंग-भेदी नैतिकता की सर्जनात्मक आलोचना
- विनोद तिवारी
यह मैला आँचल का एक सर्वथा नये ढंग का ‘पाठ’ है, नयी दृष्टि से मैला आँचल का विश्लेषण। प्रेम और काम सम्बन्धों को लेकर कोई समाज कितना बन्द और मुक्त है, हो सकता है यह लेख इसकी जाँच-पड़ताल तो करता ही है साथ ही सामन्ती सामाजिक संरचना से लेकर पूँजीवादी संरचना तक में एक ‘स्त्री’ के लिए ‘प्रेम और काम’ की नैतिकता का जो सामाजिक अर्थ होता है, वही अर्थ एक पुरुष के लिए नहीं होता। ठीक वैसे ही जैसे एक ही ‘सड़क’ एक स्त्री के लिए जो मायने रखती है वही एक पुरुष के लिए नहीं। एक ही घर में, एक ही परिवार में, एक ही कुनबे में, एक ही संगठन में, एक ही समाज में ‘स्त्री’ और ‘पुरुष’ के लिए धरती और आकाश का हासिल एक जैसे नहीं होता। यह लेख समाज की ‘लिंग-भेदी नैतिकता’ के सामाजिक निहितार्थों की जाँच-परख बहुत बारीकी करता है और उसके दोहरे मानदण्डों को सामने लाता है।
28 नवम्बर 2013 को मनीष शांडिल्य की एक स्टोरी के साथ बीबीसी हिन्दी डॉट कॉमपर एक खबर प्रकाशित होती है- रेणु के ‘मैला आँचल’ की कमली नहीं रहीं। इस शीर्षक ने बरबस मेरा ध्यान आकर्षित किया। क्या सचमुच ‘मैला आँचल’ की नायिका कमला अब तक जीवित थी? यह कहा जाता रहा है कि ‘मैला आँचल’ के कई पात्र उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु की जाती जिन्दगी से किसी न किसी रूप में जुड़े थे। कमली की शिनाख़्त रेणु की दूसरी पत्नी पद्मा से की जाती है और प्रशांत की दोस्त ममता को उनकी तीसरी पत्नी लतिका से जोड़कर देखा जाता है। मनीष शांडिल्य लिखते हैं – “पद्मा शब्द पद्म से ही बना है जिसका एक अर्थ होता है कमल। ‘मैला आँचल’ की उसी कमली यानी कि पद्मा रेणु का मंगलवार की शाम निधन हो गया। वह 82 वर्ष की थीं। उन्होंने अन्तिम साँस रेणु के पैतृक गाँव बिहार के अररिया जिला स्थित औराही हिंगना में ली।”[1]
फणीशवरनाथ रेणु एक लेखक होने के साथ सक्रिय रूप से राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ता भी थे। वे समाजवादी विचारधारा से प्रभावित थे। जयप्रकाश नारायण की ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ में उनकी सक्रिय भागीदारी थी। सन 1972 ईस्वी में फारबिसगंज विधानसभा सीट से काँग्रेस प्रत्यशी सरजू मिश्रा के खिलाफ़ निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में उन्होंने चुनाव लड़ा पर चुनाव हार गये थे। रेणु ने 10 वर्ष की अवस्था में ही “वानर-सेना के कार्यकर्ता के रूप में चौदह दिन की जेल की सजा काटी।”[2] यह उनकी पहली जेल यात्रा थी। 1942 में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के दौरान संघर्ष करते हुए गिरफ्तार किए गये। उन्हें भागलपुर जेल में रखा गया। इसी दौरान जयप्रकाश नारायण से उनकी घनिष्ठता बढ़ी। जेल में ही रेणु ने ‘गब्बे गोष्ठी’ (गप्प गोष्ठी) नाम से एक मंच बना लिया था। इस गोष्ठी में शामिल होने वाले लोगों को तुरन्त किसी विषय पर एक कहानी गढ़ कर सुनानी होती थी। इसी गोष्ठी में रेणु ने एक कहानी सुनाई थी जिसका नायक प्रशांत था। जेल से छूटने के कुछ वर्षों के अन्तराल से 1950 ईस्वी में नेपाल के राजशाही के खिलाफ क्रान्ति में वे शामिल हुए।
इस आन्दोलन के पश्चात नेपाल में जनतन्त्र कायम हुआ। पर इस आन्दोलन के एक साल बाद ही वे दोबारा क्षय रोग से गम्भीर रूप से ग्रस्त हुए। पटना के एक अस्पताल में लम्बे समय तक उनका इलाज़ चलता रहा। यहीं पर, उनकी सेवा-सुश्रुषा में लगी अस्पताल की एक नर्स लतिका से उनका प्रेम हुआ और बाद में विवाह। रेणु ने अपने आत्मवृत्तांत ‘अपनी कथा’ में विस्तार से इन सभी बातों का वर्णन किया है। इसी आत्मवृत्तांत में वह बताते हैं कि लम्बी बीमारी के बाद लौटने और स्वास्थ्य लाभ करने के दौरान कुछ भी लिखने-पढ़ने का मन नहीं होता था। कहीं से कुछ प्रेरणा नहीं मिल रही थी।
सब कुछ निचाट और समतल लग रहा था। यह सोच-सोच कर रात-रात भर नींद नहीं आती थी। ऐसी ही दशा में “एक रात को छटपटा रहा था कि मेरे अन्दर से प्रशांत बनर्जी ने आवाज दी – क्यों भाई! नींद नहीं आ रही? मैं जानता हूँ। इस अनिद्रा का लाभ क्यों नहीं उठाते। प्रशांत मुझे बताओ मैं क्या करूँ?” फिर वही ‘गब्बे गोष्ठी’ वाला प्रशांत उन्हें जगाता है और कहता है कि तुम्हारे पास जो एक पुरानी मोटी डायरी पड़ी है उसको उठाओ। कलाम पकड़ो, मेरे सहायता लो। लिखो प्रशांत की कहानी, कमली की कहानी। हमें जीवन दो। फिर क्या, रेणु को नया जीवन मिल गया। वे प्रशांत और कमली को जीवन देने की ओर अग्रसर हुए। वे लिखते हैं “…और मैंने शुरू कर दी प्रशांत की कहानी, कमली की कहानी…अन्ततोगत्वा अपनी ही कहानी।”
तो यह है ‘मैला आँचल’ के शुरू होने की कहानी। एक प्रेम कहानी। प्रशांत और कमली की प्रेम कहानी। और इस प्रेम कहानी के भीतर, इर्द-गिर्द न जाने कितनी प्रेम कहानियाँ। ममता और प्रशांत की कहानी। बालदेव और लछमी की कहानी। मंगला और कालीचरण की कहानी। खलासी बाबू और फुलिया की कहानी। फुलिया और सहदेव मिसिर की कहानी। और इन सबसे पुरानी कहानी अँग्रेज नीलहे साहब मार्टिन और गोरी मेम मेरी की कहानी।
इन कहानियों के बीच सामन्ती संरचना वाले गाँव-समाज में स्त्री-पुरुष के परस्परिक काम सम्बन्धों, कामासक्ति और व्यभिचार की एक नहीं अनेक उपकथाएँ और इन सबको एक बड़े वितान से ढकती हुई देशप्रेम की कथा। यही ‘मैला आँचल’ उपन्यास की कथा संरचना है –- नल-दमयंती, सारंगा-सदावृक्ष और शरतचन्द्र के उपन्यासों की तरह की प्रेम कथा का रोमान, गाँव-समाज की नजर में व्यभिचार किन्तु आंचलिक रस में डूबी हुई स्त्री-पुरुष की नैसर्गिक काम-भावना और इनको ढँकती, इनसे पाठक को निकालती, उसे परे हटाती राष्ट्रीय और स्थानीय राजनीतिक यथार्थ के साथ देशप्रेम की भावना –- इन्हीं तीन कथाओं के आधार पर उपन्यास का कथानक बुना गया है। रोमान और यथार्थ का खूबसूरत मेल कराता एक नया प्रयोग, एक नया कथानक।
सम्भवत: यही कारण है कि इस उपन्यास की पहली समीक्षा लिखते हुए नलिनविलोचन शर्मा से इसे सर्वथा एक नये ढंग का उपन्यास कहा –“हिन्दी के उपन्यास साहित्य में यदि गतिरोध था, तो इस कृति से वह हट गया है।”[3] आगे चलकर उपन्यास समीक्षक नेमिचन्द्र जैन ने भी इसे ‘हिन्दी उपन्यास की एक नयी दिशा’ के रूप रेखांकित किया –- “…निस्संदेह उसने हिन्दी उपन्यास के क्षेत्र में न केवल नयी मान्यताओं की प्रतिष्ठा की है, बल्कि नयी दिशाएँ खोल दी हैं, नयी सम्भावनाओं के क्षेत्र उजागर कर दिये हैं।”[4] मैला आँचल पर हिन्दी आलोचना में खूब लिखा गया है। मेरे देखे हिन्दी आलोचना में जिन दो उपन्यासों पर सर्वाधिक लिखा गया है उनमें पहला गोदान है और दूसरा मैला आँचल।
ऐसे में लगभग 50 साल के बाद मैला आँचल का पुनर्मूल्यांकन की जरूरत क्योंकर होनी चाहिए? क्या पहले के मूल्यांकन-पुनर्मूल्यांकन में कुछ चीजें रह गयीं जिन पर जिस विस्तार के साथ लिखा जाना चाहिए था, नहीं लिखा गया? या, आज समकालीन विमर्शों के परिप्रेक्ष्य में कुछ नये सवालों और मुद्दों के आलोक में मैला आँचल का पुनः अध्ययन किया जाना जरूरी लगता है? वास्तव में, एक कालजयी रचना अपने अनेक ‘पाठ’ और ‘मूल्यांकन’ के बाद भी नये सवालों, नये संदर्भों और नये अध्ययनों के आलोक में बार-बार पढ़े जाने और मूल्यांकित किए जाने के लिए पाठकों और आलोचकों को आमन्त्रित करती रहती है। वैसी रचनाएँ तो और जो साहित्य के साथ-साथ दूसरे अनुशासनों मसलन समाज-विज्ञान, इतिहास, मानव-अध्ययनों आदि के लिए भी एक सहयोगी ‘पाठ’ की तरह उपयोगी हों।
‘गोदान’ की तरह से ‘मैला आँचल’ को भी समाज-विज्ञान के कई विद्वानों ने समाजशास्त्र के विद्यार्थियों के लिए एक उपयोगी किताब के रूप में संस्तुत किया है। मैंने इस लेख में ‘मैला आँचल’ की पूरी कथा को –- प्रेम, काम और देश –- कथा के रूप में प्रस्तावित और विश्लेषित करने का प्रयास किया है। देश-भावना, स्वतन्त्रता-समीक्षा, राजनीतिक यथार्थ, आंचलिकता, आदि का विवेचन तो खूब किया गया है। परंतु प्रेम और काम भावना के साथ स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के आलोक में ग्राम्य समाज और उसके मनोविज्ञान और साथ ही साथ लिंग भेद के चलते स्त्रियों पर पुंसवादी नैतिकता के आरोपण की दृष्टि से अध्ययन-विश्लेषण न के बराबर हुआ है। इस लेख में इस दृष्टि से विश्लेषण-विवेचन के माध्यम से उपन्यास की कथा-योजना और कथा-वस्तु को सामने लाने का प्रयास किया गया है।
प्रेम : सुरंगा-सदाब्रिज की कथा
(फसि गइली परेम के डोर जी /शालै करेजवा में तीर जी…)
कहा जाता है कि प्रेम में हर तरह के नियम और कायदा भंग करने की कामना और कोशिश होती है। जबकि, समाज नियम और कायदे से बाहर जाने वालों को समाज-विरोधी करार देता है। इसीलिए प्रेम के समाजशास्त्र को समझना हर समय में दुरूह और जटिल रहा है –- वह चाहे समान्तवादी समाज रहा हो अथवा पूँजीवादी समाज। आधुनिक युग की साहित्यिक विधाओं में उपन्यास सबसे पहले समाज और व्यक्ति के इस दुरूह और जटिल सम्बन्ध को अभियक्त करते हुए उस समाज के खिलाफ विद्रोह की रचना करता है।
रोमांसवादी उपन्यासों की रचना ही समान्तवादी और आगे चलकर पूँजीवादी समाज की संरचना के खिलाफ होती है, जिसका अगुआ फ्रांस बनता है। हम सभी जानते हैं कि समाज में एक व्यक्ति की इच्छाएँ और वरीयताएँ सामाजिक नियम-कायदों के प्रति कायम उसके विश्वासों और उपलब्ध अवसरों के आधार पर तय होती हैं। ऐसे में एक ‘स्त्री’ के लिए अपनी कामना और इच्छा की पूर्ति के लिए कितनी गुंजाइश बनती है, यह हम सबको पता है। रोमानी उपन्यासों ने किसी ‘स्त्री विमर्श’ के प्रभाव में नहीं बल्कि प्रेम और काम के नैसर्गिक के आधार पर एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था और ढाँचे पर प्रहार किया जो समान्तवादी मानसिकता और ढाँचे वाला समाज था। पहले कैशोर्य काल में उपन्यास पढ़ना अच्छी बात की निशानी नहीं मानी जाती थी।हिन्दी के प्रसिद्ध कथाकार अमरकान्त अपनी एक बातचीत में इसका जिक्र करते हैं। वह बताते हैं कि विद्यार्थी जीवन में उन्हें उपन्यास पढ़ने का चस्का लग गया।
रोमानी और जासूसी उपन्यास उन्हें अधिक पसंद थे। जैसे विद्यार्थी जीवन में बहुत सारी चीजों को लेकर अभिभावक इस चिन्ता में रहते हैं कि इन-इन चीजों की संगत में उनका बेटा बिगड़ जाएगा, उसी तरह उपन्यास पढ़ना भी बिगड़ने का एक कारण था। वह बाते हैं कि उनके एक चाचा ने उन्हें शरतचन्द्र का ‘चरित्रहीन’ पढ़ते देखकर खूब डाँटा था – “नाभेल पढ़ते हो। मैं देखता हूँ तुम्हारी सोसायटी ठीक नहीं। नाभेल तो लंठ, आवारा पढ़ते हैं। उनमें आशिक-माशूक की बातें होती हैं। भैया! नाभेल चौपट कर देगा। आइंदा देख लिया तो ठीक न होगा। तुम चाचा की बात नोट कर लो कि नाभेल आवारा बना देता है।”
पुरानी बात को अगर हम जाने भी दें हमारे अपने कैशोर्य काल (आठवें-नवें दशक) में उपन्यास पढ़ना अच्छा नहीं माना जाता था। चोरी-छिपे उपन्यास पढ़ते हुए परिवार के किसी सदस्य द्वारा अगर पकड़ लिए गये तो बहुत डांट पड़ती थी। कारण वही कि लड़का बिगड़ जाएगा। जब लड़कों के लिए यह धारणा थी तो लड़कियों के लिए उपन्यास पढ़ने की बात ही करना कितने साहस का काम होगा। पर, फणीश्वर नाथ रेणु की कमली को सीता, सावित्री की कथा पढ़ने में मन तो लगता है पर जो बात उपन्यास पढ़ने में है वह और कहाँ – “माँ शकुंतला, सावित्री आदि की कथा पढ़ने में मन लगता है लेकिन उपन्यास पढ़ते समय ऐसा लगता है कि यह देवी-देवता, ऋषि-मुनि की कहानी नहीं, जैसे यह हम लोगों के गाँव-घर की बात हो।”[5]
कमली के इस कथन से दो बातें निकलकर सामने आती हैं। पहली यह कि ‘उपन्यास’ वास्तव में किसी देवी-देवता की कथा नहीं बल्कि वह अपने गाँव-घर और उसमें रहने-बसने वाले लोगों की बात करता है। दूसरी बात यह कि कमली प्रशांत के प्यार में डूबी हुई है इसलिए वह एक तरह के रोमान में जी रही है। उसे विषवृक्ष, इन्दिरा, श्रीकांत, देवदास, हरिमोहन बाबू का कन्यादान जैसे उपन्यास पढ़ना अच्छा लगता है। तो क्या इसका एक अर्थ यह लिया जाय कि प्यार में डूबे हुए लोगों को उपन्यास पढ़ना अच्छा लगता है? उपन्यास उन्हें अपनी ओर खींचते हैं? अगर हाँ, तो ‘उपन्यास और प्यार के समाजशास्त्र’ के सम्बन्धों के आधार पर ‘उपन्यास’ के उदय और विकास’की धारणा पर नये सिरे से सोचा जा सकता है?
यह तो माना गया है कि जिसे आज हम उपन्यास कहते हैं उसका विकास ‘रोमान’ से हुआ है। भारत में भी ‘सरस्वतीचन्द्र’ (गोबर्धन राम त्रिपाठी) से लेकर शरतचन्द्र के उपन्यासों का उल्लेख होता है। फ्रेंच और जर्मन में उपन्यास के पर्याय के रूप में‘रोमाँ’ शब्द का उल्लेख मिलता है। रूसी मेंरॉमान है। इसी तरह इतालवी भाषा में उपन्यास के लिए रोमान्ज़ो का उल्लेख मिलता है। मेरा मंतव्य यह है कि क्या प्यार करने वालों, प्यार में डूबे रहने वाले लोगों के दिलो-दिमाग को सुकून देने, उनकी जो अव्यक्त आन्तरिक दुनिया और सपने हैं उनको वाणी देने के लिए‘उपन्यास’ आया? अगर ऐसा है तो क्या यह कहना सही नहीं होगा कि कि साहित्य की दुनिया में ‘उपन्यास’ निश्चित तौर पर साँचाबद्ध सामाजिक ढाँचे के लिए एक विद्रोह बनकर, एक आन्दोलन बनकर सामने आया।
रेणु ने ‘मैला आँचल’ में इसकी पहली बानगी प्रशांत को ही बनाया है। प्रशांत के जन्म, जाति, कुल, खानदान आदि का कुछ पता नहीं। वह इस साँचाबद्ध सामाजिक ढाँचे को तोड़ कर उससे बाहर आने वाला चरित्र है। वह ‘अज्ञात कुलशील’ नायक है – “उसकी माँ ने एक मिट्टी की हाँड़ी में डालकर बाढ़ से उमड़ती हुई कोशी मैया की गोद में उसे सौंप दिया था। नेपाल के प्रसिद्ध उपाध्याय परिवार ने, नेपाल सरकार द्वारा निष्कासित होकर, उन दिनों सहरसा अंचल में ‘आदर्श आश्रम’ की स्थापना की थी। एक दिन उपाध्याय जी ने बाढ़-पीड़ितों की सहायता के लिए रीलीफ की नाव लेकर निकले, झाऊ की झाड़ी के पास एक मिट्टी की हाँड़ी देखी –- नई हाँड़ी।…हाँड़ी से नवजात शिशु के रोने की आवाज आई।…बस यही उसके जन्म की कथा है।”[6]‘
आदर्श आश्रम’ में रहने वाली एक दुखिया स्त्री, जिसके पति अनिल कुमार बनर्जी ने एक नेपालिन स्त्री के प्रति आकर्षित होकर उससे शादी कर ली और अपनी पत्नी स्नेहमयी को छोड़ दिया। एक त्याज्य स्त्री एक त्याज्य बालक की माँ बनती है। यह माँ ही प्रशांत का सबकुछ थी – जाति, कुल, खानदान सब कुछ। उधर तहसीलदार विश्वनाथप्रसाद की इकलौती संतान कमला, माँ कमला (कमला नदी) के आशीर्वाद से हुयी है। वह साक्षात माँ कमला है।
‘मैला आँचल’ में, जैसा कि इस लेख के शुरू में कहा गया है कि कई प्रेम कथाएँ मिलती हैं, पर परवान चढ़ती है एक ही प्रेम कथा – कमली और प्रशांत की प्रेम कथा। इस प्रेम कथा में जिस रोमान का चित्रण रेणु ने किया है वह संगीतमय ग्राम्य जीवन के सर्वथा अनुकूल है। भावुकता, सादगी, अल्हड़पन, मासूमियत, बेफिक्री, समर्पण, पीड़ा, दुःख, ममता, त्याग, सहनशीलता सबकुछ का उत्कृष्ट काव्यमय मेल। प्रशांत और कमली के बीच का प्रेम डाक्टर और मरीज के बीच खेल-खेल में शुरू होता है। सोलह-सत्रह साल की कमली पर जब-जब यौवन का तीव्र आवेग हमला बोलता है, वह बेहोश हो जाती है। उसकी इस बीमारी से घर वाले बहुत चिंतित रहते हैं। डाक्टर ने मेरीगंज ‘मलेरिया सेंटर’ पर अभी काम शुरू ही किया है कि कमली को फिर से बेहोशी का दौरा पड़ता है। वह बेहोश हो जाती है। पर अब तहसीलदार साहब, उनकी पत्नी और गाँव-घर के लोग निश्चिंत हैं कि डाक्टर आ गया है, अब कमली की बीमारी वह ठीक कर देगा।
डाक्टर भी कमली को इंजेक्शन का डर दिखाकर, ‘मीठी दवा’ (ब्रोमाइड) देना शुरू कर देता है। इस मीठी दवा का असर या डाक्टर के ‘पीठ और छाती पर आला लगाकर दिल की धड़कनें सुनने’ के जादू से कमली धीरे-धीरे ठीक होने लगती है। डाक्टर, सचमुच में जादूगर है। वह मीठी दवा से कमला का इलाज़ करता है। वह बेतार के यन्त्र ‘रेडियो’ से उसका इलाज़ करता है। रेडियो पर शादी का गीत ‘माइगे, हम ना बियाहेब अपन गौरा के…’ सुनकर कमला खिलखिलाकर हँस पड़ती है – ओ माँ! डाक्टर अस्पताल लौटकर ममता को लिखी जा रही चिट्ठी पूरा करने बैठ जाता है – “पत्र अधूरा छोड़कर एक केस देखने गया था। केस अजीब है। केस हिस्ट्री और भी दिलचस्प है। तुम्हारी शीला रहती तो आज खुशी से नाचने लगती, हिस्टीरिया, फोबिया, काम-विकृति और हठ-प्रवृत्ति जैसे शब्दों की झड़ी लगा देती। शीला से भेंट हो तो कहना –- मैंने अपने पोर्टेबल रेडियो से उसके दिमाग को झकझोर कर दूसरी ओर करने की चेष्टा की है।”[7]
तो यह है डाक्टर और कमली की पहली भेंट। एक अजीब केस और इस केस को सम्हालने और उसे ठीक करने का डाक्टर का अजीब तरीका। प्रेम और काम सम्बन्धों को लेकर स्त्री और पुरुष की शारीरिक, मानसिक और सामाजिक स्थिति, मनःस्थिति और परिस्थिति के कुशल चितेरे हैं रेणु। ऐसे अवसरों पर उनकी चित्रण-कला सबसे अधिक सृजनात्मक और मौलिक होती है। इस उपन्यास के साथ-साथ उनकी कई कहानियों में यह सृजनात्मक ऊंचाई देखी जा सकती है। इसका मुख्य कारण है गाँव की पूरी रहन और ताने-बाने से रेणु की गहरी आत्मीयता। गाँव की कृति, विकृति और संस्कृति सबसे आत्मीय संवाद। सौन्दर्य-कुरूपता, समता-विषमता, गरीबी-जहालत, नीति-नैतिकता, महानता-लघुता, काम-कुत्सा, ढोंग-पाखण्ड सब कुछ अपनी खाँटी प्रकृति के साथ अपने पूरे खुलेपन के साथ यहाँ उपस्थित है। ऐसा इसलिए है कि रेणु का इस उपन्यास के साथ अपने जीवन-जगत के वास्तविक पात्रों को, उनके साथ बिताए गये क्षणों को, सांसारिकताओं को, भावात्मक किन्तु वस्तुपरक सचाईयों को अपने कुशल चित्रण के सहारे ‘औपन्यासिक’ बना देते हैं। ‘जीवन’ और ‘उपन्यास’ आपस में इस कदर घुल-मिल जाते हैं कि जीवन ही उपन्यास लगने लगता है, जिसमें पाठक को भी कमली की तरह यही प्रतीत होता है कि यह तो अपने गाँव-घर की कथा है।
हँसी-ठिठोली, छेड़-छाड़, थोड़ी बहुत जलन और एक-आध अवसरों पर रूठने के अभिनय के साथ कमला का प्रशांत के प्रति जो आत्मीय, दुर्निवार आकर्षण है वह किसी सीमा में नहीं बंधा है। शुरू में वह सभी तरह के यत्न करती है कि डाक्टर उसके मनोभावों को जान ले। पर डाक्टर भी जानते हुए अंजान बने रहने का नाटक करता है – “…डाक्टर की मुस्कुराहट बड़ी जानलेवा है। जब आवेगा तो मुस्कराते हुए आवेगा –- डर लगता है।…गले में आला लटकाए फिरते हैं बाबू साहब। छाती और पीठ में लगाकर लोगों के दिल की बीमारी का पता लगाते हैं। झूठ! इतने दिन हो गये, मेरे दिल की बात, मेरी बीमारी को कहाँ जान सके! या जानबूझकर अनजान बनते हो डाक्टर! तुम्हारी मुस्कराहट से तो यही मालूम होता है।…माँ, तुम्हारा डाक्टर क्या है जानती हो? माटी का महादेव!”[8]
क्या सचमुच डाक्टर ‘माटी का महादेव’ है या उसके अन्दर भी किसी तरह की लालसा और वासना है? “…किसी स्त्री को प्रेमिका के रूप में कभी देखने की चेष्टा उसने नहीं की। वह मन ही मन बीमार हो गया था। एक जवान आदमी को शारीरिक भूख नहीं लगे तो वह निश्चित ही बीमार है अथवा ‘एब्नार्मल’ है।” रेणु उपन्यास में ही इस प्रश्न का हल दे देते हैं। कमली के प्यार ने प्रशांत को बदलना शुरू कर दिया है। अब वह भी “किसी की दुलार-भरी मीठी थपकियों के सहारे सो जाना चाहता है, गहरी नींद में खो जाना चाहता है। जिन्दगी की जिस डगर पर वह बेतहाशा दौड़ रहा था, उसके अगल-बगल, आस-पास, कहीं क्षण-भर सुस्ताने के लिए कोई छांव नहीं मिली। उसने किसी पेड़ की डाली की शीतल छाया की कल्पना भी नहीं की थी। जीवन की इस नई पगडंडी पर पाँव रखते ही उसे बड़े ज़ोरों की थकावट मालूम हो रही है। वह राह की खूबसूरती पर मुग्ध होकर छाँह में पड़ा नहीं रह सकेगा।…वह क्षण-भर सुस्ताने के लिए उदार छाया चाहता है। प्यार…!”[9]
डाक्टर को कमला का प्यार मिलता है। और धीरे-धीरे यह प्यार परवान चढ़ता है। जो हँसी-ठिठोली, छेड़-छाड़ थी वह धीरे-धीरे सांद्र और स्थिर प्यार के अनुभव में उतरती चली जाती है। जो नर अब तक अनजान बना हुआ था, प्यार को दिल और भावना से नहीं बल्कि बायोलॉजी के सिद्धांतों के सहारे हँसकर उड़ा देता था। प्यार के प्रबल आकर्षण से वह खिंचा चला आ रहा है – “नर और नारी के पवित्र आकर्षण की रुपहली डोरी लकपका रही है। नर आगे बढ़ता है…नारी को खींच लेता है…। बड़ी-बड़ी मद भारी आँखों की जोड़ी ने मुस्कुराकर कर पूछा, ‘आप…मेरी शिकायत बरदाश्त कर सकते हैं?’‘रोज तो कर रहा हूँ।’ दो लापरवाह आँखों ने मानों चुटकी ली, ‘कमली दवा नहीं पीती है। कमली रात में देर तक बैठ कर पढ़ती है…कमली पगली है।…पगली है कमली।…तू पगली है! तू मेरे पगली है! पागल-पगली…’
…अधरक मधु जब चाखन कान्ह
तोहार शपथ हम किछु यदि जानि!”[10]
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“कमली को डाक्टर ने अपनी बाँहों में जकड़ लिया है!…तीन बजे दिन में ही संथाली नाच देखने अस्पताल आई थी कमली! नाच खत्म हो गया, शाम हो गयी, उधर नौटंकी कब शुरू हुई, कब खत्म हुई, शायद दोनों में से कोई नहीं बता सकेगा।…जब बादल गरजे, बिजलियाँ चमकीं और हरहराकर वर्षा होने लगी तो कमली को डाक्टर ने अपनी बाँहों में जकड़ लिया। कमली ने बाँहें छुड़ाने की एक हल्की चेष्टा की।…संथाली नाच के माँदर और डिग्गा की ताल पर दोनों की धुकधुकी चल रही है।”[11]
रेणु ने बड़ी ही सरलता किन्तु साहस के साथ सामन्ती और पितृसत्ताक सामाजिक साँचे के विरुद्ध जाकर कमली और प्रशांत का मिलन दिखाया है। जिस समाज में स्त्री पर तरह-तरह से नियन्त्रण रखने के विधि-विधान लागू होते हों, उसके लिए अविवाहित यौन-संबन्ध की बात तो छोड़िए, एक पुरुष से मिलने-जुलने, बोलने-बतियाने को ही चरित्रहीनता मान लिया जाता हो, वहाँ रेणु की कमली कुँवारी माँ बनती है। अब तो समाज की नजर में उसका आँचल मैला हो गया – “दुधियावर्ण और सुडौल बाँहें, लम्बे-लम्बे बाल, सुगठित मांसपेशियाँ, गौर आँखों में यह क्या?…काँप जाती है माँ। यह क्या रे अभागी! हतभागिन! आँचल को मैला मत करना बेटी, दुहाई!”[12] पर तत्क्षण रेणु माँ को सहज भूमि पर लौटा लाते हैं। तुरन्त वह अपने को ठीक करती है कि, वह भी क्या सोच रही है। उसकी बेटी का प्यार अपवित्र और वासनाजनित नहीं है। वह तो ‘माँ कमला’ है। फिर अन्दर एक गहरी आश्वस्ति का भाव महसूस करती है और कहती है ‘मालूम होता है, तुम्हारा रोग उतारकर डाक्टर ने अपने ऊपर ले लिया है।’
सचुमुच, डाक्टर ने कमली के साथ-साथ इस इलाके के हर रोग को जैसे समझ लिया हो। “डाक्टर को सभी चीजें अब नयी लगती हैं। कोयल की कूक ने डाक्टर के दिल में कभी हूक पैदा नहीं की। किन्तु खेतों में गेहूँ काटते हुए मजदूरों की ‘चैती’ में आधी रात को कूकनेवाली कोयल के गले की मिठास का अनुभव वह करने लगा है :
सब दिन बोले कोयली भोर भिनसरवा…वा…वा
बैरिन कोयलिया, आजु बोले आधी रतिया हो रामा
सुतल पिया के जगावे हो रामा।”[13]
प्रशांत अब जाग गया है। प्यार ने प्रशांत को जीवन-रस के साथ यहाँ की माटी और मनुष्य से मोहब्बत करना सिखाया है। अब उसकी जिन्दगी का एक नया अध्याय शुरू हुआ है। जिन्दगी की इस नयी डगर पर चलते हुए मुड़कर देखने पर उसे दुनिया कितनी सुन्दर लगती है है – वह लोक कल्याण करना चाहता है। मनुष्य के जीवन को क्षय करने वाले रोगों के मूल का पता लगाकर नयी दावा का आविष्कार करेगा। रोग के कीड़े नष्ट हो जाएँगे इंसान स्वस्थ हो जाएगा। अपने पुत्र नीलोत्पल के पैदा हो जाने और कमली से विवाह के बाद वह ममता से कहता है – “ममता मैं फिर काम शुरू करूंगा –- यहीं इसी गाँव में। मैं प्यार की खेती करना चाहता हूँ।”[14] रूस के प्रसिद्ध आलोचक और किनतक मिखाइल बाख्तिन ने उपन्यास के नायक की विशेषता बताते हुए लिखा है – “यदि उपन्यास का नायक अपनी स्थिति में, अपनी नियति में पूरी तरह समा जात है तो उसकी छवि (इमेज) में मानवीय सार की बहुलता मूर्त हो जाती है।”[15]
आगे चलकर ‘परती परिकथा’ का नायक जितेंद्र इस स्वप्न को अपना स्वप्न बनाकर ‘लोक-संस्कृति मूलक समाज की स्थापना’ का यत्न करता है। यह दीगर बात है कि ‘परती परिकथा’ को ‘मैला आँचल’ की तरह का यश और महत्व नहीं मिल सका। पर, आश्चर्य और दुःख इस बात का है कि जाने क्यों इस मुख्य-कथा को आलोचना में जितनी जगह और जितना महत्व मिलना चाहिए, नहीं मिला। अगर इस प्रेम-कथा को हटाकर उपन्यास को पढ़ा जाय तो वह कितना नीरस, इकहरा और ठस्स यथार्थ वाला उपन्यास हो कर रह जाएगा। जीवन्तता और गत्यात्मकता के बिना यथार्थ का क्या महत्व।
काम : सतगुरु हो!
(लट धोए गइली हम बाबा की पोखरिया / पोखरी में चान केलि करे)
“बीजक से भी लछमी की देह की सुगन्ध निकलती है। इस सुगन्ध में एक नशा है। इस पोथी के हरेक पन्ने को लछमी की उँगलियों ने परस किया है…‘पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ पण्डित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का पढे सो पण्डित होय।’ लछमी को देखने से ही मन पवित्र हो जाता है।”[16]
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“बालदेव जी की सारी देह झन्न-झन्न कर रही है। कनपट्टी के पास लगता है तपाये हुए नमक की पोटली है।…कलेजा धड़-धड़ कर रहा है। लछमी की बाँह ठीक बलदेव की नाक से सट गयी थी। लछमी के रोम-रोम से पवित्र सुगन्धि निकलती है। चन्दन की तरह मनोहर शीतल गन्ध निकल रही है। बलदेव का मन इस सुगन्ध में हेलडूब (डूबना-उतराना) कर रहा है। वह लछमी को छोड़कर चन्ननपट्टी में कैसे रह सकेगा?…रूपमती, मायजी, लछमी।”[17]
लछमी के इसी रोम-रोम से पवित्र सुगन्धि फूटने वाली देह को किशोरावस्था से ही महन्थ सेवादास रौंदता है। उसके मरने के बाद उसका उत्तराधिकारी रामदास भी उसकी देह पर उसी तरह का अधिकार चाहता है। पर, लछमी से डरता भी है। इस भय के चलते अपनी काम-वासना को नियंत्रित करने की कोशिश भी करता है। पर नहीं कर पाता – “संतो हो, जिहिं अँगना नदिया बहे, सो कस मरै पियास! हो संतों, सो कस मारे पियास!…तन का ताप कभी-कभी मन को बड़ा बेचैन कर देता है।…महंथ रामदास जी धीरे से उठते हैं। दबे पाँव लछमी की कोठरी के पास जाते हैं। किवाड़ी खुली है? नहीं, बन्द है। महंथ साहब बाहर से भी किवाड़ की चिटकनी खोलना जानते हैं। पतली सी लकड़ी फँसाकर खोलते हैं।…‘रामदास हाथ छोड़ो।…तुम नरक की ओर पैर बढ़ा रहे हो। अब भी चेतो।…मैं तुम्हारी गुरुमाई हूँ रामदास!’‘कैसी गुरुमाई? तुम मठ की दासिन हो। महंथ के मरने के बाद नये महन्थ की दासी बनकर तुम्हें रहना होगा। तू मेरी दासिन है।’‘चुप कुत्ता!’ लछमी हाथ छुड़ाकर रामदास के मुँह पर ज़ोर से थप्पड़ लगाती है। दोनों पाँव को जरा मोड़कर, पूरी ताकत लगाकर रामदास की छाती पर मारती है। रामदास उलटकर गिर पड़ता है।…सतगुरु हो!”[18]
लछमी, कबीर मठ की एक स्त्री, मठ के महन्थ सेवादास की सेवा में बालपन से ही लगी हुई दासिन, जिसकी देह से सुगन्ध निकलती है और जिसको देख लेने मात्र से मन पवित्र हो जाता है, वहाँ भला पवित्रता की बनी-बनाई दूसरी मान्यताएँ क्योंकर टिक सकती हैं। ‘मैला आँचल’ की अन्तर्वस्तु को, थोड़ा ध्यान से, बाहरी परतों को हटाकर देखा जाय तो दिखेगा कि ‘मैला आँचल’ में पवित्र कुछ भी नहीं है। यहाँ पवित्रता, शुद्धता और नैतिकता को लागू करने का व्याकरण और शासित करने का शास्त्र आपको ढूँढे नहीं मिलेगा। सबकुछ भदेस है, देसज बनक में है –- प्रेम, काम (सेक्स), राजनीति, धर्म, मठ सब व्याकरणहीन।
पर, कुछ आलोचकों ने राजनीति के क्षरण और पतन को तो आज़ादी के बाद ‘स्वतन्त्रता समीक्षा’ के राष्ट्रीय रूपक मानकर ‘मैला आँचल’ को यथार्थवादी नजरिए से खूब महत्व दिया है। लेकिन, ग्रामीण सामाजिक जीवन-संरचना में यौन-सम्बन्धों के यथार्थ को व्यभिचार और पतन कहकर इस उपन्यास की खूब धज्जियाँ उड़ाई हैं। रेणु, यौन-सम्बन्धों के यथार्थ चित्रण में नैतिकता और अनैतिकता अथवा श्लीलता और अश्लीलता के पक्ष-विपक्ष में उपन्यास में नहीं जाते हैं। जो वास्तविक है, स्वाभाविक है उसको बिना किसी सेंसर के, सहज और स्वतः भाव से आने देते हैं। उपन्यास में गाँधीवादी चरित्र बावनदास द्वारा गाँधीवादी मान-मूल्यों की रक्षा में कुर्बान हो जाने के प्रसंग में रेणु जहाँ ‘गाँधीवाद’ के साथ दिखते हैं वहीं इसी बावनदास के अन्दर, एक जगह पर प्राकृतिक रूप से पैदा हुए ‘काम’ भावना के चित्रण के सहारे वह गाँधी के ब्रह्मचर्य के प्रयोग और मान्यता की जैसे खबर भी ले रहे हों।
प्रसंग है : पटना से काँग्रेस की तेजतर्रार महिला श्रीमती तारावती जी चंदनपट्टी (बालदेव जी का गाँव) आश्रम आई हुयी हैं। फागुन की दोपहरी। आश्रम के एक कोठरी में सो रही हैं। दरवाजे पर ड्यूटी के लिए बावनदास की तैनाती है। दरवाजे पर पर्दा लगा हुआ है। फगुनहट के झंकोरे से पर्दा कभ-कभी हट जा रहा है। एक दो बार बावनदास की नजर पलंग पर सोई हुई तारावती जी पर पड़ती है। उसका कलेजा धक्क कर उठता है। वह पर्दे के और करीब खिसक आता है और वहाँ से अन्दर झाँकने लगता है –- “…पलंग पर अलसायी सोयी हुई जवान औरत! बिखरे हुए घुँघराले बाल, छाती पर से सरकी हुई साड़ी, खद्दर की खुली हुई अँगिया!…बावन के पैर थरथराते हैं। वह आगे बढ़ना चाहता है। वह इस औरत के कपड़े को फाड़कर चित्थी-चित्थी कर देना चाहता है। वह अपने तेज़ नाखूनों से उसकी देह को चीर-फाड़ डालेगा। वह एक चीख सुनना चाहता है। वह अपने जबड़ों से पकड़कर उसे झकझोरेगा। वह मार डालेगा इस जवान गोरी औरत को। वह खून करेगा।…ऐं! सामने की खिड़की से कौन झाँकता है? गाँधी जी की तस्वीर? दीवार पर गाँधी जी की तस्वीर! हाथ जोड़कर हँस रहे हैं बापू!…बाबा! धधकती हुई आग पर एक घड़ा पानी। बाबा, छिमा! छिमा! दो घड़े पानी! दुहाई बापू! पानी, पानी पानी! शीतल जल! ठंडक…!”[19]
‘मैला आँचल’ पर व्यभिचार और अश्लीलता फैलाने के खूब आरोप लगे हैं। श्री लक्ष्मीनारायण भारतीय नाम के एक समीक्षक का तो आरोप है कि “ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ हर कोई एक दूसरे से फँसा हुआ है।’’ अथवा “हर टोला नियमित, व्यवस्थित और खुले रूप से अनैतिकता का अड्डा ही है क्या?”[20] रेणु ने सुश्री गौरा एम. ए. के नाम से एक लेख लिखकर ‘मैला आँचल’ पर लगाए गये सभी आरोपों का सिलसिलेवार जवाब दिया है। साहित्य में नैतिकता और अनैतिकता, श्लीलता और अश्लीतता के प्रश्न का जवाब देते हुए वह कहते हैं – “मेरी राय से सब लोग सहमत न होंगे। नैतिकता का अर्थ मेरे लिए बहुत व्यापक है, उस व्यापकता में यौन-नैतिकता का बड़ा गौण सथान है। नैतिक मूल्यों की चर्चा में मैं मानवीयता को सबसे अधिक महत्व देता हूँ, किसी सामाजिक, राजनीतिक या धार्मिक मतवाद पर अनावश्यक ध्यान नहीं देता। सारांश यह है कि नैतिकता के लिए अन्ध आग्रह मुझमें नहीं है। काला पर नैतिकता थोपना मैं अच्छी बात नहीं समझता। आस्कर वाइल्ड की तरह कला को नैतिकता-अनैतिकता से परे मानता हूँ अर्थात तटस्थ, यथार्थनुकारी एवं मर्यादित। स्पष्टतः यह मर्यादा कोई प्रिजुडिस्ट धर्मध्वजी या कुत्सित समाजशास्त्री नहीं नियत कर सकता।”[21] रेणु की यह समझ डॉ. राम मनोहर लोहिया की दृष्टि से संवलित है। कवि-आलोचक विजयदेव नारायण साही ने अपने एक लेख ‘साहित्यिक अश्लीलता का प्रश्न’[22] में इस दृष्टि को विस्तार दिया है।
वस्तुतः स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में काम (सेक्स) को परिभाषित और विश्लेषित करने की प्रायः दो-तीन दृष्टियाँ उपयोग में लायी जाती हैं – जैविक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक। जैविक नजरिए से स्त्री-पुरुष में ही नहीं सभी प्राणियों में यौन-आकर्षण नैसर्गिक है। सामाजिक नजरिए से ‘काम’ सम्बन्धों की परिभाषा सामाजिक विधि-निषेधों के अनुसार की जाती है। इसलिए, नैतिकता-अनैतिकता, श्लीलता-अश्लीलता के दायरे बने हैं। मनोवैज्ञानिक नजरिया जैविक दृष्टि के साथ मनुष्य के मन की स्थितियों, वासनाओं और ग्रंथियों का हवाला देता है। ‘मैला आँचल’ में प्रेम’ और ‘काम’ के वर्णन और चित्रण का मोटिव जब तक नहीं समझा जाएगा तब तक वह व्यभिचार फैलाने वाला ‘पाठ’ नजर आएगा। दरअसल, स्त्री की शुचिता, पवित्रता और सामाजिक नैतिकता की माँग शुद्धतावादी आग्रहों पर आधारित पुनरुत्थानवादी दृष्टि और विचार से संचालित होती है।
सर्जनात्मक तरीके से इसके विरुद्ध एक नहीं अनेक चरित्रों, प्रसंगों और घटनाओं को उपन्यास में ले आना सांस्कृतिक साम्राज्यवाद से संघर्ष करने जैसा है। उपन्यास के एक प्रसंग का उल्लेख इस सम्बन्ध में यहाँ जरूरी लगता है। उपन्यास में निम्न-वर्ग की एक चरित्र है, फुलिया। वह बाल विधवा है। गाँव के ही उच्च वर्ग के पात्र सहदेव मिसिर के साथ सहमति के साथ उसका शारीरिक प्रेम है। एक दूसरे चरित्र हैं खलासी जी। वह पुरैनिया (पूर्णिया) रेलवे स्टेशन पर खलासी का काम करते हैं। सरकारी आदमी हैं। बहुत गुणी आदमी हैं। पक्का ओझा हैं। चक्कर पूजते हैं। भूत-प्रेत को पेड़ में कांटी ठोंककर बस में करते हैं। बांझ-निपुत्तर औरतों को तुकताक (टोटका) कर के संतान का सुख देते हैं। सुरंगा-सदाब्रिज की प्रेमकथा को गा-गा कर सुनाते हैं। उनके गले में जादू है। मेरीगंज के तंत्रिमाटोली के महंगूदास की बेवा बेटी फुलिया को दिल दे बैठे हैं। उससे शादी करना चाहते हैं। उनकी इस कामना को पूरा करने में तंत्रिमाटोली की औरतों की सरदारिन रमजूदास की बीवी मदद करती है। बदले में वह खलासी जी को मूसती रहती है। खलासी जी भी उसकी खुशामद करते रहते हैं।
परम हंगूदास और उसकी औरत शादी के बारे में हाँ-ना कुछ भी नहीं बोलते हैं। पर आखिर में फुलिया का विवाह खलासी जी से हो जाता है – “फुलिया का चुमौना खलासी जी से हो गया है। खलासी जी बिदाई कराने के लिए आए थे। लेकिन फुलिया इस होली में जाने को तैयार नहीं हुई।…इस साल होली नैहर में ही मानने दो। अगले साल तो…।…फुलिया ने खलासी जी को मना लिया है। होली के लिए खलासी जी ने एक रुपया दिया है।…बेचारा सहदेव मिसिर इस बार किसके साथ होली खेलेगा? पिछले साल की बात याद आते ही फूलिए की देह सिहरने लगती है।…फुलिया की देह के पोर-पोर में मीठा दर्द फ़ेल रहा है। जोड़-जोड़ में दर्द मालूम होता है। कोई बाँहों में जकड़कर मरोड़े की जोड़ की हड्डियाँ पटपटाकर चटख उठें और दर्द दूर हो जाए।…सहदेव मिसिर को खबर भेज दें! लेकिन गाँव वाले?…ऊँह, होली में सब माफ है।”[23]
विवाह के बाद पति अपनी व्याहता को लिवा ले जाने आया है। पत्नी अपने पति से विवाह पूर्व के अपने एक हमराज़ अंगरसिया मर्द के साथ होली के बहाने कुछ और खेलने की कामना लिए जिद पर अड़ी है कि वह अभी नहीं जाएगी। और वह अपनी इस ज़िद को पूरा भी करती है। सहदेव मिसिर के साथ, एक तरह से पति से अनुमति लेकर पोर-पोर को सराबोर कर देने वाली होली खेलती है। ‘जेंडर’ आधारित अध्ययनों और विमर्शों में क्या किसी ने ‘मैला आँचल’ को अभी तक इस दृष्टि से पढ़ने और विवेचित करने की कोशिश की है?
प्रेम और काम को इसके पहली भी हिन्दी उपन्यासों का विषय बनाया गया है। पर उनमें से अधिकांश फ्रायड या युंग के मनोविश्लेषणवाद के सिद्धान्त को सिद्ध करने के प्रयोग हैं अथवा पाप और पुण्य की बाइनरी में आध्यात्मवादी दर्शन अथवा राजसी या जासूसी वातावरण में ऐतिहासिक रोमान। परंतु ‘मैला आँचल’ में प्रेम और काम की अभियक्ति इन सबसे अलग, एक नयी ज़मीन पर होती है। यहाँ जीवन का वास्तविक और स्वाभाविक रूप अपनी पूरी छटा के साथ मौजूद है। यहाँ न तो भावना का उदात्तीकरण है न ही यथार्थ का चीत्कार। सत्य के खोज की शुष्क तार्किकता की जगह बिना किसी बनाव-शृंगार के जीवन की भाव-प्रवण सरसता इसका प्राण है।
आत्मरति, अहं की चोटें, जटिल मनो-ग्रंथियां, नैतिकता-अनैतिकता की सामाजिक मान्यताएँ और मूल्य यहाँ आपको यहाँ ढूँढे नहीं मिलेंगे। इन सबको मुँह बिराने, चिढ़ाने, धता बताने और ढहाने का काम लोक में गहरे रची-बसी वह खुरदुरी और बेढब किन्तु संगीतमय भाषा और गीत हैं जिनका सृजनात्मक उपयोग रेणु करते हैं। रेणु ने प्रशांत और कमला के बीच प्रेम के जो उल्लासमय, जीवन्त और वासनामय चित्र खींचे हैं वे अत्यंत ही मनोहर, प्रकृतस्थ, वास्तविक किन्तु संयत और संभार के साथ हैं। इन चित्रों में कोई भद्र संस्कार जनित सेंसर नहीं है फिर भी पढ़ते हुए आप छि: छि: नहीं करते। वर्णन-चित्रों में एक सर्जनात्मक मर्यादा है।
इसके लिए रेणु भारतीय प्रेमाख्यानों, विद्यापति के गान, लोकगीतों की रसमय तान, कबीर के बीजक, शरतचन्द्र का रोमान, संथालों के नाच-गान सबकी मदद लेते हैं। दरअसल, ‘मैला आँचल’ को शुरू में ही कुछ आलोचकों द्वारा, जिस तरह से प्रेम के खुलेपन और यौन-सम्बन्धों की नैतिकता-अनैतिकता, श्लीलता-अश्लीलता के सवाल के घेरे में रखते हुए खारिज करने की कोशिश की गयी उसका असर यह हुआ कि उससे रक्षा के लिए उपन्यास के राजनीतिक और आंचलिक कथावस्तु को अत्यधिक महत्व दिया गया। उसे तरह-तरह से राजनीतिक व सामाजिक यथार्थ का उपन्यास सिद्ध किया गया। पर, दुर्भाग्य से मूल-कथा के रूप में इस प्रेम-कथा को हाशिये पर छोड़ दिया गया। यथार्थ को रोमान का प्रतिपक्ष मानने की सामान्य और मोटी समझ के तहत रोमान की जगह यथार्थ को महत्व दिया गया। ‘मैला आँचल’ यथार्थ की जड़ साधना और सिद्धि को तोड़ने वाला उपन्यास है। उसके रोमान में ही उसका यथार्थ संरचित है। यह उपन्यास ‘प्रेम’ और ‘काम’ सम्बन्धों में लिंग आधारित वर्चस्व और भेद को अपनी पूरी रचनात्मकता में बहुत ही सलीके से आलोचित करता है। अब तक इस दृष्टि से ‘मैला आँचल’ का ‘पाठ’ नहीं किया हुआ है। न तो साहित्य में और न ही समाजविज्ञान में। यह लेख ‘मैला आँचल’ को इस दृष्टि से पढ़े जाने की एक प्रस्तावना भर प्रस्तुत करता है।
लेखक प्राध्यापक, प्रसिद्ध आलोचक और ‘पक्षधर’ पत्रिका के सम्पादक हैं।
सम्पर्क- +919560236569, vinodtiwaridu@gmail.com
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संदर्भ व टिप्पणियाँ
[1]https://www.bbc.com/hindi/india/2013/11/131127_padma_renu_no_more_pk
[2]फणीशवरनाथ रेणु : सृजन और संदर्भ, संपादक-डॉ. अशोक कुमार आलोक,आधार प्रकाशन, पंचकूला, हरियाणा 1994, पृष्ठ – 397
[3]आलोचना पत्रिका के अंक-15 (1955) में प्रकाशित ‘मैला आँचल’ शीर्षक लेख । यह लेख मूल रूप से आकाशवाणी, पटना से प्रसारित हुआ था ।
[4]अधूरे साक्षात्कार – नेमिचन्द्र जैन, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1966, पृष्ठ – 39
[5]मैला आँचल – फणीशवरनाथ रेणु, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली (पेपरबैक्स,1984), पृष्ठ – 268
[6]वही, पृष्ठ – 51
[7]वही, पृष्ठ – 56
[8]वही, पृष्ठ – 68
[9]वही, पृष्ठ – 138
[10]वही, पृष्ठ – 213
[11]वही, पृष्ठ – 229
[12]वही, पृष्ठ – 240
[13]वही, पृष्ठ – 139
[14]वही, पृष्ठ – 312
[15]बीसवीं शताब्दी का साहित्य (खंड – 1) : साहित्य और सौंदर्यशास्त्र – संकलनकर्ता : ये. सीदोरोव, साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली के लिए रादुगा प्रकाशन, मास्को से प्रकाशित, पृष्ठ – 299
[16]वही, पृष्ठ – 48
[17]वही, पृष्ठ – 207
[18]वही, पृष्ठ – 115
[19]वही, पृष्ठ – 133
[20]मैला आँचल : वाद-विवाद और संवाद, संपादक : भारत यायावर, आधार प्रकाशन, पंचकूला, हरियाणा, पृष्ठ – 68
[21]वही, पृष्ठ – 72
[22]वर्धमान और पतनशील – विजयदेव नारायण साही, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली
[23]मैला आँचल – फणीशवरनाथ रेणु, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली (पेपरबैक्स,1984), पृष्ठ – 123
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