कलाकार के मनोविज्ञान का दार्शनिक पक्ष (ठेस)
- मणीन्द्र नाथ ठाकुर
कहानी और उपन्यासों को कैसे पढ़ा जाना चाहिए इस विषय को लेकर हिन्दी साहित्य में और अधिक बहस की ज़रूरत है। इस बहस के अभाव के कारण ही हिन्दी साहित्य को सामाजिक अध्ययन के विद्वान ठीक से नहीं पढ़ पाते हैं। समाजशास्त्र में घटनाओं और संरचनाओं के कार्य-कारण सम्बन्धों की व्याख्या पर ज़्यादा ज़ोर रहता है। इसी के चलते मनुष्य के स्वभाव की गहराइयों और मानवीय संवेदनाओं के अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन कहीं पीछे छूट जाता है। साहित्य आमजन के लिए दर्शन का काम करता है। साहित्य मनुष्य के अन्तर्सम्बन्धों की कहानी तो होता ही है साथ ही उन कहानियों को आधार बना कर समाज को चिन्तन देने का काम भी करता है। जो कुछ मैं कह रहा हूँ यदि उसके प्रमाण को देखने का मन हो तो निर्मल वर्मा की कहानी ‘कौवा और काला पानी’ पर प्रसिद्ध दार्शनिक रामचन्द्र गाँधी का व्याख्यान सुनना चाहिए।
यह स्मृति-व्याख्यान इण्डिया इन्टरनेशनल सेन्टर के सभागार में भारत के विशिष्ट बुद्धिजीवियों के बीच दिया गया था। लेकिन इसकी प्रासंगिकता आमजन के लिए अधिक है। यदि रामू गाँधी आज होते तो रेणु जी के जन्म शताब्दी पर उनसे ‘ठेस’ कहानी के विश्लेषण का आग्रह किया जा सकता था और समारोह को किसी गाँव में आयोजित किया जाता ताकि कहानी का आनन्द वे लोग भी ले सकते जिनकी यह कहानी है। रामू गाँधी उस आम आदमी के दर्शन को सही-सही समझने में सक्षम थे जिसके रेणु जी चितेरे थे। उनके इस चित्र को समझ पाना और उसे ज्ञान की समझ तक ले जाने का काम केवल रामू गाँधी जैसे लोग ही कर सकते हैं।
दुनिया के बड़े दर्शनिकों के लिए आज चिन्तन का सबसे महत्त्वपूर्ण विषय क्या है? आपको जान कर आश्चर्य होगा कि अधिकांश दार्शनिक चेतना के स्वरूप को समझने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन मुझे लगता है उनके पास इस काम के लिए पर्याप्त बौद्धिक सामग्री उपलब्ध नहीं है। इसके पीछे एक कारण तो है प्रसिद्द दार्शनिक डेकार्त का दिया हुआ विचार कि मनुष्य का शरीर और ‘माइण्ड’ दो अलग-अलग चीजें हैं। मैं ‘माइण्ड’ शब्द का प्रयोग इसलिए कर रहा हूँ कि उसका हिन्दी रूपान्तरण ‘मन’ मुझे स्वीकार नहीं है। डेकार्त के इस सिद्धान्त ने पश्चिम में विज्ञान का ख़ूब विकास किया जिससे शरीर के एक-एक हिस्से का सूक्ष्मता से अध्ययन तो सम्भव हो पाया, लेकिन ‘माइण्ड’ के बारे में उनकी समझ अधूरी ही रह गयी।
उन्होंने इस अध्ययन के लिए पर्याप्त उपगम विकसित ही नहीं किया। इसके विपरीत भारत में शरीर की सूक्ष्मता का अध्ययन शायद न भी हुआ हो लेकिन शरीर से इतर हमारे पास जो कुछ भी है, यहाँ उसकी उसकी बारीक समझ है। इसलिए ‘मन’, अन्तर्मन, अन्तरात्मा, बुद्धि, चेतना, चित्त, अनेकानेक शब्द हैं। मैं अभी यह सब क्यों कह रहा हूँ? क्योंकि रेणु की इस कहानी में हमें मनुष्य के सूक्ष्म आयाम के कई परतों को समझने के उपागमों की एक झलक मिलती है। ठेस एक जटिल कहानी है और चेतना के कई स्तरों पर एक साथ चलती है। पश्चिम के किसी दार्शनिक को यदि इसका विश्लेषण करने को कहें तो वे उलझ जाएँगे। यह कहानी घटना प्रधान तो है लेकिन घटनाएँ तो स्वयं चेतना के स्तर पर चलती हैं।
‘सिरचन कलाकार जाति का है’, रेणु जी घोषणा करते हैं। हम सब जानते हैं कि कलाकार नामक कोई समाजिक-जाति नहीं है। यह मनुष्य का एक प्रकार है। क्या होता है कलाकार जाति का मनुष्य? वह अपने काम को कला समझता है, उसे काम नहीं समझता। कला तो मनुष्य के जीने की प्रक्रिया है, उसके होने की प्रक्रिया है, उसके अर्थोपार्जन का साधन नहीं है। एक समय की बात है, जर्मनी के एक प्रसिद्ध कलाकार फटेहाली में जी रहे थे। उनके पास एक आदमी आया और उनकी कलाकृतियों को ख़रीदने लगा। उसने कई कलाकृतियों का चयन किया। कलाकार को यह जानने की उत्सुकता हुई कि क्या सोच कर वह कलाकृतियाँ चुन रहा है। उसे पता चला कि वह आदमी उसके धनी भाई का मैनेजर है। बिना बताए उसका भाई उसकी बदहाली पर तरस खा कर सहायता करना चाहता है। मैनेजर अपने मालिक के लिए अनमने भाव से कलाकृतियों का चयन कर रहा है।
उसे कला की कोई पहचान नहीं है। कलाकार ने उसे अपनी कलाकृति बेचने से मना करते हुए कहा कि अपने मालिक को बता दे कि कलाकार को कला से जो कुछ मिलना था, उसे बनाने के क्रम में ही मिल गया। उससे ज़्यादा की उसे कोई ज़रूरत नहीं है और न ही उम्मीद। सिरचन ऐसा ही कलाकार है। उसका काम ही उसके होने का प्रमाण है। वह मज़दूर नहीं है। मज़दूर और कलाकार में अन्तर होता है। मार्क्स अपने काम, अपने समाज और अपने आप से जिस अलगाव की बात करते हैं वह मज़दूर की नियति है, कलाकार की नहीं। लोग उसे बेकार और बेगार समझते हैं। समय बदल गया है। उसके कला की कद्र कम हो गयी है। सिरचन को लोग मज़दूर समझने लगे हैं। इसी बात से सिरचन को ठेस लगती है। ठेस और चोट में भी एक अंतर है। ‘ठेस’ शुद्धरूप से अंगिका भाषा का शब्द है। चोट में शारीरिक दर्द होता है, लेकिन ‘ठेस’ एक अनुभूति है, यह मानसिक है। ठेस का दर्द कोई डाक्टर ठीक नहीं कर रकता है क्योंकि उसमें दिल टूटता है और ‘दिल के टूटने की कोई आवाज़ नहीं होती’।
दर्शन और अर्थशास्त्र के जो विद्वान मनुष्य के व्यक्तित्व को समझने की कोशिश कर रहे हैं, उनके लिए रेणु एक पहेली देते हैं। सिरचन आम आदमी की तरह लाभ-हानि को जोड़कर चलनेवाला आर्थिक मनुष्य क्यों नहीं है? मनुष्य का व्यक्तित्व केवल आर्थिक स्तर पर नहीं बनता है; केवल दिमाग़ के न्युरोन के कारण उसका स्वभाव नहीं बनता है। उसके पास एक मन है, अन्तर्मन है, आत्मा है, अन्तरात्मा है। मनुष्य को समझने के लिए इन सभी तत्त्वों को एक साथ समझ पाना किसी समाजशास्त्री के लिए सम्भव नहीं है। दार्शनिक यदि व्यक्त और अव्यक्त को समझ भी पाते हैं तो उनकी भाषा और उनकी अवधारणाएँ उनका साथ नहीं देतीं। यह तो जादू है साहित्यकार का और ख़ासकर रेणु का जो चीजों को समग्रता में देख पाते हैं। यदि कलाकार का मन लग रहा है तो कलाकृति सुन्दर बनती है और नहीं तो ‘सिरचन’ की उँगलियाँ चलती ही नहीं। उसका मन, प्राण सीधे उँगलियों को आदेश देते हैं। बीच में स्थूलरूप में उपस्थित सिरचन भी नहीं आता है।
लोग समझते हैं सिरचन खाने के लिए आता है। उससे काम करवाने के लिए अच्छे खाने का इन्तजाम ज़रूरी है, छापे वाली धोती ज़रूरी है। छापे वाली धोती सभ्रान्त लोग पहनते हैं। घी और मलाईदार खाना मज़दूरों को नसीब नहीं होता है। सिरचन को बुलाया जाना है तो पहले सोचना होगा कि ‘भोग’ क्या लगेगा। ‘भोग’ शब्द का उपयोग कमाल है। भोग जो भगवान को लगता है वही कलाकार के लिए भी चाहिए। ‘भोग’ में समर्पण है, श्रद्धा है। इसमें व्यंग्य और यथार्थ को एक साथ समेट लिया गया है।
लोग सिरचन को चटोर कहते हैं, लेकिन रेणु बखूबी बता जाते हैं कि लोग सिरचन को समझ ही नहीं पाते। खाना और धोती का लालच सिरचन को नहीं है, यह तो कलाकार को दिए जाने वाले सम्मान का प्रतीक मात्र है। रेणु कलाकार के मन की गति को भाँप जाते हैं और उससे चेहरे पर आनेवाले भावों को भी पहचानते हैं। और यह सबकुछ एक छोटे बच्चे द्वारा रेणु अपने पाठकों तक पहुँचाते हैं। मानो कहना चाह रहे हों कि मन की गहराई को, उसके भावों को समझने के लिए आपकी विद्वता काम नहीं आएगी, उसके लिए तो शुद्ध बालमन चाहिए। यह बात तार्किक बुद्धि से परे है, क्योंकि यह महसूसने की चीज़ है।
इस कहानी में पूरा खेल ही मनोभावों का है। शीतलपाटी कोई महँगी चीज़ नहीं है, लेकिन बेटी के ससुराल से उसी की माँग है और सिरचन के हाथ की ही बनी हुई होनी चाहिए। सिरचन इस बात से ही खुश है कि कोई उसके कला का इतना सम्मान करता है। सिरचन इस काम में मन प्राण लगाना चाहता है, लेकिन इसके लिए सम्मान ज़रूरी है। रेणु बिलकुल प्रेमचन्द की तरह नारी मन के अन्दर प्रवेश कर जाते हैं और ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार, क्रोध जैसे अनेक भावों को बखूबी उकेरते हैं। जैसे ही उसे सम्मान की कमी का भान होता है, सिरचन अपने आपको सम्भाल नहीं पाता और काम अधूरा छोड़ कर चला जाता है। रेणु एक अद्भुत कलाकार की तरह पाठकों को दुःख से मिश्रित ग़ुस्से के भाव में ले जाते हैं। उन्हें लगता है सिरचन को थोड़ा धैर्य रखना चाहिए। लेकिन रेणु कलाकार की जाति को उसकी पूर्णता में दिखाना चाहते हैं। वे पाठकों को कहानी के चरमोत्कर्ष का आनन्द लेने के लिए तैयार कर रहे हैं।
मानू पहली बार ससुराल जा रही है। उसके ससुराल से माँग थी सिरचन के चिक की। मानू के प्रति उसका ख़ास स्नेह था। काम उसके लिए अपने अस्तित्व को महसूस करने का माध्यम था। जब काम में मगन होता तो उसकी जीभ थोड़ी बाहर आ जाती। जो भी इस चित्रण को पढ़ता है रेणु की कला पर मुग्ध हो जाता है। मानू के लिए प्रेम और सिरचन के लगन से चिक अपने रंग में निखर रहा था। लेकिन जिन लोगों को इसकी सुन्दरता से ईर्ष्या हो रही थी, उनके लिए उसका यह लगन असह्य था। उनका प्रयास सफल रहा और सिरचन के दिल को ठेस लग गयी। उसका कलाकार बेज़ार होकर भावों के महासागर में खो गया।
तभी रेणु पाठकों को और गहरी पीड़ा देते हैं यह जानकारी देकर कि उसकी पत्नी तो मरी ही थी, उसके बच्चे भी मर गये थे। असल में सिरचन की बदहाली की कहानी समय के साथ कला का महत्त्व घटने का परिचायक थी। लेकिन उसका शुद्ध कलाकार अभी जिन्दा था। रेणु कहानी को अपने चरम पर ले जाते हैं। गरीब, बेज़ार सिरचन कहानी के अन्त में मानू बेटी के लिए मन प्राण से बनाया, शायद अपनी आख़िरी शीतलपाटी लेकर दौड़ता हुआ स्टेशन पहुँचता है और खुलती हुई गाड़ी में किसी तरह से शीतलपाटी मानू को दे पाता है। मानू रोती है, उसका भाई और सिरचन भी रोते हैं। उनके साथ के पाठकों की आँखें भी छलक जाती हैं। यही रेणु की सबसे बड़ी सफलता है।
रेणु यह अहसास दिला देते हैं कि ‘आदमी के अन्दर भी कई आदमी होता है’ और उसे तर्कों से नहीं समझा जा सकता है। उसका ज्ञान कला को करने और समझने के क्रम में होता है। बहुत से लोग इसे भाषा में पकड़ने की कोशिश करते हैं, लेकिन यह अनुभूति की चीज़ है और इसका ‘दर्शन’ होता है। दर्शन शब्द बहुत गहरा है। जैसे गाँधी को लोग देखने या सुनने नहीं जाते थे, बल्कि उनका दर्शन करने जाते थे। दर्शन में देखने, सुनने से ज़्यादा एक और बात होती है, अनुभव करने की। वैसे ही ‘ठेस’ में पाठक को भी कहानी के अन्त में कलाकार के स्वरूप का दर्शन होता है।
पश्चिम के बहुत से दार्शनिक जब मनुष्य के इस अन्तरतम रूप की तार्किक व्याख्या नहीं कर पाते तो कहानी और उपन्यास लिखते हैं। प्रसिद्ध दार्शनिक सार्त्र को ही ले लीजिये। कई जटिल ग्रन्थ लिखने के बाद अस्तितिववाद के अपने दर्शन को पूर्णता में समझाने के लिए उन्होंने ‘नौसिया’ नामक एक उपन्यास लिखा। इस उपन्यास का मुख्यपात्र अकेला होता और अपने अस्तित्व पर चिन्तन करता है, मानसिक तनाव से गुजरता है लेकिन फिर एक व्यक्ति से प्रभावित होता है, जिसके जीवन का उद्देश्य मानव सेवा है। नीत्से ने अपने उपन्यास ‘जरथुष्ट्र ने कहा था’ के माध्यम से अपने जटिल दर्शन को अभिव्यक्त किया है।
आक्स्फ़र्ड विश्वविद्यालय के दर्शन की प्राध्यापिका आइरिश मर्डाक ने तो शुद्ध दर्शन पर एक ही किताब लिखी है। बाकी केवल उपन्यास के माध्यम से ही अपने दर्शन को लोगों तक पहुँचाया है। शायद भारत में यह परम्परा नहीं है। दार्शनिक साहित्य नहीं लिखते हैं। लेकिन साहित्यकार दर्शन की खूब पकड़ रखते हैं। रेणु, प्रेमचन्द, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी और अज्ञेय अनेक ऐसे नाम हैं। रेणु इन सबमें अलग इसलिए हैं कि अज्ञेय या द्विवेदी जी की तरह उनके पात्र दार्शनिक होने का दावा नहीं करते। रेणु स्थापित करते हैं कि साधारण आदमी भी दार्शनिक है। उनका सिरचन ‘शेखर एक जीवनी’ के शेखर से कम नहीं है। उसकी तुलना केवल प्रेमचन्द के ‘मन्त्र’ कहानी के उस भगत से की जा सकती है जिसके लिए न चाहते हुए भी अपने इल्म का उपयोग लोककल्याण के लिए करना उसका स्वभाव है।
जो लोग रेणु के शहर पूर्णिया से हैं, उनके लिए यह मानना कठिन नहीं होगा कि रेणु के पात्र सजीव हैं। हर गाँव में एक सिरचन मिल सकता है आपको। रेणु के समय एक छोटा सा शहर था पूर्णिया। कचहरी के पास एक प्रेम होटल हुआ करता था। इलाहाबाद के सिविल लाईन की तरह यहाँ भी साहित्यकारों का जमघट लगता था। लक्ष्मी नारायण सुधांशु, सती नाथ भादुड़ी और भी कई लोग लम्बी बातचीत के लिए जमा होते थे। कल्पना कर सकते हैं कि सिरचन और ढोढ़ाइ के चरित मानस पर बातचीत होती होगी। कलाकार जाति के लोगों की खोज होती होगी। हाल तक शहर में एक आदमी था खुद को कलाकार कहता था। कोई काम नहीं करता था। शहर के रईस लोगों को लाटरी बेचता था। लोग कई गुना ज़्यादा क़ीमत देकर लाटरी ख़रीदते थे ताकि कलाकार को यह न लगे कि वह किसी की कृपा पर जी रहा है। मोहम्मद रफ़ी का गाना सुनाते थे और उन्हें भगवान का अवतार मानते थे। हर गाने के पीछे की कहानी भी बताते थे।
उनका मानना था कि कलाकार का शारीरिक श्रम करना कला की तौहीन है। उसके देखभाल का काम तो समाज का है। कई बार इस चक्कर में भूखे भी सोना पड़ता था। किसी से कुछ माँगते नहीं थे। उनके हिसाब से यह तो दायित्व कला के संरक्षकों का था कि वे समझें की कलाकार ने खाना खाया या नहीं। और अक्सर ऐसा होता भी था। कहते थे कि नफ़ीस चावल का भात, मूँग की दाल और आलू का चोखा उन्हें बेहद पसन्द था। ज़ाहिर था उन्हें होटलों में खाना नहीं खिलाया जा सकता था बल्कि उनके संरक्षक उन्हें ख़ास दावत देकर खाना खिलाया करते थे। सिरचन की तरह केवल खाना उन्हें पसन्द नहीं था। उनकी कला के सम्मान के साथ उन्हें खाना मिले तभी उन्हें मंज़ूर था।
रेणु कलाकार की जाति को पहचानते थे, पूर्णिया की मिट्टी की सुगन्ध से परिचित थे, सिरचनों के मन की बात समझते थे। यदि रेणु होते तो ऐसे लोगों की कहानी अनकही नहीं रहती। और उनके कहने का अन्दाज़ कुछ ऐसा होता कि हमें समाज की सामूहिक चेतना का आभास हो पाता। ‘ठेस’ इस सामूहिक चेतना में बदलाव की भी कहानी है। कलाकार के मज़दूर बन जाने की भी कहानी है। भारत के गाँवों में पूँजीवाद ने केवल आर्थिक नहीं बल्कि समाजिक और वैचारिक बदलाव भी लाये हैं। सिरचन पिछले ज़माने का आदमी है। मज़दूर नहीं बन सका और कलाकार की जाति को लोग समझ नहीं पाते हैं। रेणु इस बदलाव के दर्द को भी लोगों तक पहुँचाना चाहते हैं। इसलिए ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा कि इस कहानी के कई आयाम हैं। इन आयामों को सही ढंग से समझने के लिए साहित्य की आलोचना के उपकरणों को भी उन्नत करने की ज़रूरत है ताकि आलोचना रचना की गहराई में जा कर उसके वास्तविक पाठ से पाठकों को परिचित करा सके।
लेखक समाजशास्त्री और जे.एन.यू. में प्राध्यापक हैं|
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