जेपी आन्दोलन के ‘विद्रोही का अनशन’
भ्रष्टाचार हमारे लिए न तो कोई नया शब्द है और न ही कोई नयी चीज। यह देश नामक शरीर में रक्त की तरह प्रवाहित हो रहा है। अनैतिक आचरण ने देश को अंदर-ही-अंदर खोखला कर दिया है। ताज्जुब यह कि समय के साथ हम इसे स्वीकार भी कर चुके हैं। भ्रष्टाचार पर बातें करना, उसे खत्म करने के लिए कटिबद्ध होना हमारे जीवन का मुख्य उद्देश्य नहीं रहा। देश की दुर्दशा के लिए नेताओं को दो-चार गाली देकर हम उससे मुक्ति पा लेते हैं। लेकिन एक सजग साहित्यकार, एक प्रतिबद्ध कार्यकर्ता इतने भर से मुक्त नहीं हो पाता। वह भ्रष्टाचार को खत्म करना अपना दायित्व समझता है। अपना कर्तव्य। लेकिन विडम्बना यह कि समाज के लिए वह मनोरंजन और उपहास का पात्र है। उसकी सन्नद्धता को, विद्रोह को लोग यह कहकर हँसी में उड़ा देते हैं कि इनको कोई काम-धंधा नहीं है, इसलिए जहाँ देखो वहीं माजमा लगा देते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि ये अपना सारा काम-काज, घर-परिवार छोड़ देश के काम में लगे रहते हैं। पर इसके बदले देश से इन्हें मिलता क्या है? अपमान? गाली? बदमानी? उनकी कुर्बानियों को नजरअंदाज कर दिया जाता है। उनके कार्य को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है।
हमारे समय के प्रसिद्ध कथाकार शिवदयाल की ‘विद्रोही का अनशन’ एक ऐसी ही कहानी है। इस कहानी की पृषभूमि में अन्न हज़ारे का देशव्यापी भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन है। इस आन्दोलन से प्रभावित होकर जगत नारायण ‘विद्रोहीजी’ पटना में भ्रष्टाचार के खिलाफ अनिश्चितकालीन अनशन पर बैठते हैं। विद्रोही जी जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन से निकले हुए आन्दोलनकारी हैं। वे सन् 1973 में ‘लोकतन्त्र के लिए युवा’ के आह्वान पर पढ़ाई छोड़ देश के काम में लग गए थे। शुरू में जेपी आन्दोलन भ्रष्टाचार के विरोध में ही शुरू हुआ था। बाद में इस आन्दोलन का फलक बढ़ता गया, चीजें जुड़ती गईं। लेकिन 1973-74 और 2011 में बहुत फर्क आ गया है। पहले जहाँ आन्दोलनकारी को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था, आज वहीं उसे उपेक्षित किया जा रहा है। जगत नारायण जी जेपी आन्दोलन से निकले एक ऐसे कार्यकर्ता हैं, जो एक ही जीवन में दोनों कालों का फासला नाप लेते हैं। उन्हें 1973 का सम्मान भी मिलता है और 2011 की उपेक्षा भी। राजनीतिक दलों में भ्रष्टाचार के खात्मे के प्रति जो प्रतिबद्धतता दिखती है या जो दिखाई जाती है, वह एकदम नकली है। सच्चाई यह है कि इनकी बुनियाद ही भ्रष्टाचार पर टिकी हुई है। नेताओं की खरीद-बिक्री से लेकर ये न जाने और क्या-क्या हथकंडे अपना रहे हैं। इनके मन में न तो जनता के लिए कोई भाव है और न ही देश के लिए। देश और जनता इनके स्वार्थ सिद्धि के सिर्फ माध्यम भर हैं। लेकिन जेपी आन्दोलन के विद्रोही जी के लिए देश और जनता स्वार्थ सिद्धि के माध्यम नहीं हैं। उन्हें जहाँ भी मौका मिलता है, जहाँ कहीं भी थोड़ी-सी उम्मीद की किरण दिखती हैं, देश के लिए खड़े हो जाते हैं। उनके लिए देश सर्वोपरि है। आम जनता सबसे ऊपर है। लेकिन न तो देश उनकी खबर लेता है और न ही जनता। यहाँ तक की उनकी बिछाई हुई जमीन को भी राजनीतिक पार्टी वाले छिन लेते हैं। बीस लाख की आबादी वाले पटना शहर में उनके प्रति किसी की भी संवेदना नहीं दिखती और जिनकी दिखती है वे इतने भोले और सीधे हैं कि कुछ कर नहीं पाते। दो और दो को पाँच करने की कला में माहिर इस दुनिया से वे हार जाते हैं।
विद्रोही जी अकेले ही भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन पर बैठते हैं। मानो भ्रष्टाचार से सबसे अधिक नुकसान उन्हें ही हुआ हो। उस दानव ने सिर्फ उन्हें ही डसा हो। सड़क पर आने-जाने वाले लोग उन्हें आश्चर्य से देखते हैं। और देखें भी क्यों नहीं, ऐसे समय में जब भ्रष्टाचार हमारे दैनंदिक जीवन में शामिल है, उसके खिलाफ एक व्यक्ति अकेला लड़ने चल पड़ा है। उन्हें उम्मीद है कि इस लड़ाई में संघर्ष के दिनों के साथी उनका साथ देंगे। लेकिन उनके साथ ऐसा कुछ भी नहीं होता। क्यों नहीं होता? संघर्ष के दिनों में जेल जा चुके साथी उनसे क्यों नहीं जुड़ते? देश के ऊपर सबकुछ न्योछावर करने वाले अपने साथी को मैदान में अकेला क्यों छोड़ देते हैं? ऐसे तमाम प्रश्न मन में उठते हैं। इन सारे प्रश्नों के जवाब इसी कहानी में समाहित है। पहले आन्दोलनकारी की एक आवाज पर आम जनता सड़कों पर उतर आती थी, लेकिन आज स्थिति बदल गयी है, आज जनता को न तो नेताओं पर विश्वास है और न ही उसकी आवाज पर भरोसा। पहले ज्वलंत मुद्दे पर अलग-अलग संगठन एक हो उठते थे, लेकिन आज स्थिति यह कि एक ही मुद्दे पर एक ही पार्टी के लोग अलग-अलग विचार रखते हैं। सबसे अपने-अपने स्वार्थ हैं। इस चीज को हम शिवदयाल की कहानी में भी देखते हैं।
भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने के लिए वे जिन स्थानीय नेताओं से सम्पर्क करते हैं, वे उनका साथ नहीं देते। उन्हें गाली देते हैं। उन्हें मूर्ख और कमअक्ल कहते हैं। विद्रोही जी को इस बात पर घोर आश्चर्य होता है कि धीरे-धीरे देश की बागडोर अनुभवहीन लोगों के हाथों में चली जा रही है। ‘सार्वजनिक जीवक, आन्दोलन या संघर्ष की उनकी कोई पृष्ठभूमि’ नहीं है। स्थिति इतनी खराब है कि उन्हें अपने इतिहास का भी पता नहीं। सन् 1974 के आन्दोलन को वे ‘इमरजेंसी विरोधी आन्दोलन’ कहते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि ‘जेपी आन्दोलन इमरजेंसी विरोधी आन्दोलन नहीं था, बल्कि आन्दोलन कुचलने के लिए इमरजेंसी लगाई गयी थी’। इतिहास के साथ जो छेड़-छाड़ हो रहा है, उसे बदलने की जो साजिश रची जा रही है, वह किसी से छिपी नहीं। आज राजनीति की दुनिया में पढ़े-लिखे लोग आना पसन्द नहीं कर रहे। पुराने अनुभवी लोगों को जबरन हटाया जा रहा है और उनकी जगह लंपट और अनुभवहीन लोगों को महत्त्व दिया जा रहा है। इनकी प्राथमिकताएँ भिन्न हैं, सरोकार अलग हैं। इनका काम सिर्फ इतिहास से छेड़-छाड़ करना ही नहीं, सच्चे और प्रतिबद्ध लोगों के मनोबल को तोड़ना भी है। इनकी ही वजह से समाज सिकुड़ता चला गया। पहले जहाँ समाज के कुछ ‘सचेत, सुबुद्ध और संवेदनशील तथा साधन-सम्पन्न से युक्त नागरिक समाजसेवियों की जिम्मेदारियाँ उठाते थे’, अब बंद कर दिये हैं। ऐसा भी नहीं है कि समाज के ये धनाढ्य लोग मदद नहीं कर रहे, कर रहे हैं पर समाजसेवियों की नहीं, इन लंपटों की, जिनके हाथों में देश की बागडोर चली गयी है।
‘जात-बिरादरी की सीमा लाँघ चुके’ तथा उन्नीस महीने जेल की सजा काट चुके विद्रोही जी का जीवन बदल जाता है। आज पार्टी नहीं, उसके विचार नहीं बल्कि नेता ही सबकुछ हैं। विचारों के अवसान का समय है यह। विद्रोही जी जैसे बौद्धिक व्यक्ति को कोई भी पार्टी स्वीकार नहीं कर पाती। सबसे बड़ी विडम्बना यह कि ‘बौद्धिक’ की उपाधि देकर नए लोग उनसे पोस्टर लिखवाते हैं। पार्टी में बौद्धिक लोगों के लिए यही एक जगह बच गयी है। बुद्धिजीवी को कोई भी पार्टी स्वीकार नहीं कर पाती। उन्हें हमेशा इस बात का खतरा रहता है कि ये कब क्या बोल दें और उनकी कौन-सी बात लोगों पर असर का दे। जैसा कि हर सच्चे बुद्धिजीवी के साथ होता है विद्रोही जी के साथ भी हुआ, उन्होंने किसी दल की गुलामी स्वीकार नहीं की। ‘स्त्री चेतना और दलित चेतना के लिए जीवन का स्वर्णकाल गँवा देनेवाली’ उनकी पत्नी निशाजी ‘हेल्थ सेक्टर से जुड़कर नवजातों को पोलियों ड्राप्स पिलाने’ लगती हैं। जेपी आन्दोलन से निकले इन दोनों दंपति का जीवन बाद के दिनों में पूरी तरह से बदल जाता है। समय इन्हें आन्दोलनकारी से, कार्यकर्ता और कार्यकर्ता से लगभग भिखारी की स्थिति तक पहुँचा देता है।
कहानीकार ने कहानी में इस चीज को बड़ी खूबी के साथ दिखाया है कि कैसे एक जन-कल्याणकारी, देश-हितकारी बड़े आन्दोलन को कुछ लोग अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल कर लेते हैं। वे बड़ी चतुराई से आन्दोलन की बागडोर अपने हाथ में लेकर, इसका सारा श्रेया खुद बटोर लेते हैं। ‘आन्दोलन की जिस स्थानीय शाखा की उपेक्षा से आजिज़ आकार उन्होंने खुद आगे बढ़कर अकेले दम पर यह लड़ाई ठानी, अब विद्रोही जी को फख्र से अपना आदरणीय नेता-कार्यकर्ता बता रहा था।’ कुछ संवेदनशील लेकिन निष्क्रिय मित्रों को भी अपने पुराने साथी पर नाज हुआ। वे जो न कर सके, उसे विद्रोही जी ने कर दिखाया। ‘दूसरी ओर सक्रिय साथियों ने इसे कंपीटिटिव स्पिरिट में, यानी प्रतिद्वंदीतापूर्ण भावना के साथ लिया। कइयों के कलेजे पर साँप लोटने लगे— ‘विद्रोहीजिउवा तो खूब फुटेज खा रहा है ! मौका को खूब भंजाया है। आज तक ले ई कहाँ था?…
इन दूसरे प्रकार के लोगों में से कुछ ने निश्चय किया, वे अकेले विद्रोही जी को श्रेय लूटने नहीं देंगे। आखिर अब तक वे समाज के लिए मर-खप रहे हैं, उनका भी कुछ हक बनता है। उन्होंने अनशन कार्यक्रम में शामिल होने का एकतरफा निर्णय ले लिया।’ अनशन के तीसरे दिन प्रेमप्रकाश ने बड़ी चतुराई से आन्दोलन की बागडोर अपने हाथ में ले ली। वह मंच से इस तरह भाषण देता है, मानो उसी के नेतृत्व और मार्गदर्शन में सारा कार्यक्रम चल रहा है। उसके साथ मनमोहन और राधिका की जोड़ी भी है। इस प्रसंग को पढ़ते हुये अन्न हज़ारे और अरविंद केजरीवाल याद आते हैं। अन्न के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन का फायदा अरविंद केजरीवाल को मिला। दूसरे शब्दों में कहें तो प्रेमप्रकाश की तरह बड़ी चतुराई से अरविंद केजरीवाल ने आन्दोलन का उपयोग अपने हित में किया। संघर्ष के दिनों के साथियों को भी उसने छोड़ दिया। वर्तमान राजनीति की यह सबसे बड़ी सच्चाई है। प्रेमप्रकाश जैसे लोग विद्रोही जैसे आन्दोलनकारी के दम पर ही नेता बने घूम रहे हैं और विद्रोही जी जैसे लोग गुमनामी की किसी अँधेरी कोठरी में, अपने संघर्ष भरे दिन को याद करके जीवन बीता रहे हैं। उनके अवदानों को ‘हाईजैक’ कर लिया गया।
इस कहानी में शिवदयाल ने एक अच्छी चीज दिखाई है। वे इस बात पर बल देते हैं कि आन्दोलनकारी और समाजसेवी को भी जीने का हक है। कल्याण कहता है— ‘जीवित रहना, जीवन के लिए संघर्ष करते रहना भी मनुष्य का धर्म है सर ! जीवन जिजीविषा के बिना संभव नहीं !’ निशाजी बेटे की पढ़ाई के लिए चंदे के पैसे से फीस भरती हैं। यह बात विद्रोही जी को थोड़ी ठीक नहीं लगती, लेकिन निशाजी उन्हें समझाती हैं कि ‘सामाजिक कार्यकर्ता को भी सिर उठाकर जीने का हक है’। समाज का रवैया और भ्रष्ट नेताओं का सलूक उन्हें भी कलंकित कर देता है।
कहानी के अंत में मिडियावालों की भी खबर ली गयी है। पब्लिसिटी के लिए वे जीवित विद्रोही जी को मुर्दा बताकर खबर पर खबर चलाये जा रहे हैं। जिसके लिए विद्रोही जी अनशन पर बैठे हैं, वही जब उनका मज़ाक उड़ाते हैं तब उन्हें लगता है कि ‘काश वे बोडी ही होते’। जनता के व्यवहार को देखते हुये निश्चय करते हैं कि अगली सुबह वे अनशन समाप्त कर देंगे, लेकिन अगली सुबह अखबार में यह देखकर कि दिल्ली का आन्दोलन समाप्त हो गया और सरकार ने सारी माँगें मान ली है, वे दुने उत्साह से भर जाते हैं। वे सबकुछ भूलकर फिर से मीटिंग की तैयारी में जुट जाते हैं। यह देश के प्रति उनकी सच्ची प्रतिबद्धता है। ऐसे लोग जहाँ भी रहेंगे अपना विरोध दर्ज करते रहेंगे।
भ्रष्टाचार को लेकर हिन्दी में ऐसी कहानियाँ अब कम लिखी जाती हैं या नहीं लिखी जाती। विगत कुछ वर्षों में ऐसी कहानी मेरी नजर से नहीं गुजरी है। विद्रोही जी जैसे सामाजिक कार्यकर्ता न सिर्फ राजनीति से, बल्कि समाज और साहित्य से भी भुला दिए गए हैं। इन्हें उपेक्षित कर दिया गया है। ऐसे उपेक्षित समय में कहानीकार शिवदयाल विद्रोही जी जैसे व्यक्ति की शिनाख्त करते हैं। सिर्फ शिनाख्त ही नहीं किया है, बल्कि उनके संघर्ष के इतिहास को प्रस्तुत भी किया है।
कथाकार शिवदयाल के पास कहन की अद्भुत शैली है। कहानी के संवाद बहुत अच्छे बन पड़े हैं तथा व्यंग्य का मारक प्रयोग किया गया है। कहानी पढ़ते हुए आपको हँसी भी आएगी, लेकिन इस हँसी में ‘गम की दास्तान’ लिपटी हुई है। विद्रोही जी की एक लचारगी देखिए—जब मिडियावाले उन्हें मृत साबित करने पर तुल जाते हैं, तब वे दोनों हाथ उठाते हुए कहते हैं— ‘अभी हम जिन्दा हैं भाइयो-बहनो, जिन्दा हैं ! देखिए किस-किस तरह की अफवाहें उड़ाई जा रही हैं, लेकिन इससे हमारा मनोबल और ऊँचा होगा। हमारा आन्दोलन रुकने वाला नहीं है।’ उनके इस कथन पर, उनके जीवित होने के प्रमाण पर लोग हँस-हँसकर दोहरे हुए जाते हैं। उनके लिए यह मनोरंजन का विषय है। लेकिन उनके इस कथन में उनकी लचारगी और जनता की हँसी में देश की विडम्बना छिपी हुई है। विद्रोही जी जैसे आन्दोलनकारी के मनोबल को तोड़ने के लिए तरह-तरह के हथियार अपनाए जाते हैं, लेकिन जमीन से जुड़े ये कार्यकर्ता हार नहीं मानते। हर बार दूब की तरह उग जाते हैं। दोगुने हरियाली के साथ। चाहे जितनी बार काटो ये उग ही आएंगे। बंजर जमीन से भी अपने लिए थोड़ी-सी जीवन शक्ति सींच लेते हैं। निश्चित रूप से यह एक बेहतरीन कहानी है।
सुपरिचित युवा आलोचक (देवीशंकर अवस्थी सम्मान से सम्मानित)
सम्पर्क- +919681510596, pmrityunjayasha@gmail.com
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