लेख
राष्ट्रीय ज्ञान आयोग की सिफारिशें और भारतीय भाषाओं का भविष्य
- विवेक कुमार सिंह
21वीं सदी ज्ञान की सदी है । ज्ञानवान समाज ही आधुनिकता के दौड़ में अपनी रक्षा कर पाएगा । ज्ञान अब आर्थिक गतिविधियों के संसाधन के रूप में प्रयुक्त हो रहा है । जाहिर है ज्ञान संसाधन की प्रचुरता आर्थिक उन्नति की मूलभूत आवश्यकताओं में है । उत्तर–आधुनिक समाज में ज्ञान का आशय भी पूर्व निर्धारित है – पश्चिमी ज्ञान मीमांसा और तर्कणा के निकष के अनुरूप दी गयी शिक्षा । यह वर्चस्व कायम करने का नया रूप है । जाति और धर्म आधारित पदानुक्रम के आधार पर भारतीय परम्परा में वर्चस्व स्थापित करने की लम्बी परम्परा रही है । आधुनिक समाज में धर्म और जाति के पदानुक्रम ढीेल जरूर हुए, किन्तु उनकी क्षतिपूर्ति ज्ञान आधारित पदानुक्रम करती दिखायी दे रही है । ज्ञान की सुलभता समाज के सभी वर्र्गों के लिए एक समान नहीं है । 19वीं सदी में औपनिवेशिक प्राच्यविद्या के आरम्भ के साथ ही पश्चिमी विद्वानों ने यह स्थापित कर दिया था कि भारती चिन्तन और ज्ञान की सम्पूर्ण निधि पश्चिम के पुस्तकालयों के एक सेल्फ के बराबर भी नहीं है । तब राष्ट्रवाद की जोर मारती लहरों ने भारतीय मानस को प्रतिरोध के लिए प्रेरित किया था । अपनी भाषा, संस्कृति और सभ्यता के गौरव चिह्नों को सहेजने का प्रयत्न आरम्भ हुआ था । राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान यह प्रयत्न परवान चढ़ा । आजादी के बाद हमारे विकास के प्रतिमान पश्चिमी ज्ञान मीमांसा से प्रभावित जरूर थे, किन्तु ‘आत्म’ का निर्धारण ‘अन्य’ के बरअक्स ही था । वह ‘अन्य’ पश्चिमी सभ्यता ही थी । भूमण्डलीकरण के बाद ‘अन्य’ और ‘आत्म’ का विरोधाभास धीरे–धीरे सामंजस्य की रणनीति में बदलता चला गया । निश्चित रूप से ज्ञान समाज को देखने का हमारा नजरिया सामंजस्य की रणनीति का ही प्रतिफलन है ।
भारत जैसे विशाल देश में जहाँ 55 करोड़ आबादी 25 वर्ष से कम की है, ज्ञान की उपलब्धता का महत्त्व और अधिक बढ़ जाता है । सम्पूर्ण भारत का ज्ञान समाज में परिणत करने के लिए शिक्षा व्यवस्था में आमूल–चूल बदलाव की आवश्यकता महसूस की गयी ।पूर्व प्रधानमन्त्री डॉ– मनमोहन सिंह ने कहा था कि ‘‘अब समय आ गया है कि संस्थान निर्माण का दूसरा दौर शुरू किया जाये और शिक्षा, अनुसन्धान और क्षमता निर्माण के क्षेत्रों में उत्कृष्टता हासिल की जाये ।’’ (राष्ट्रीय ज्ञान आयोग, राष्ट्र के नाम प्रतिवेदन, पृ– 4) इन्हीं उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए डॉ– मनमोहन सिंह द्वारा सैम पित्रोदा की अध्यक्षता में जून, 2005 में राष्ट्रीय ज्ञान आयोग की स्थापना की गयी थी । आयोग में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों को सदस्य के रूप में शामिल किया गया । इनके नाम इस प्रकार हैं : सैम पित्रोदा (अध्यक्ष), डॉ– अशोक गाँगुली, डॉ– पी– बलराम, डॉ– जयती घोष, डॉ– दीपक नैय्यर, डॉ– नंदन नीलकनी, डॉ– सुजाता रामदोराई, और डॉ– अमिताभ मट्टू । जाहिर है ये सभी नाम अपने क्षेत्रों के विशेषज्ञ हैं । ज्ञान आयोग के विचारार्थ प्रमुख विषय है शिक्षा व्यवस्था में उत्कृष्टता लाना ताकि वह 21वीं शताब्दी में ज्ञान की चुनौतियों का सामना कर सके और ज्ञान के क्षेत्रों में भारत के स्पर्धात्मक लाभ में वृद्धि कर सके । आयोग ने ज्ञान से सम्बन्धित सभी पहलुओं पर विचार किया है । भाषा इसका अहम हिस्सा है इसलिए आयोग ने भाषा पर भी विचार किया है । उनकी भाषा–सम्बन्धी सिफारिशें गौर करने वाली हैं । हमारे विमर्श का केन्द्र भी यहाँ आयोग की भाषा–सम्बन्धी सिफारिशें हैं ।
भाषा सम्बन्धी सिफारिशें
ज्ञान आयोग का मानना है कि अँग्रेजी भाषा की समझ और उस पर मजबूत पकड़ उच्च शिक्षा, रोजगार की सम्भावनाओं और सामाजिक अवसरों की सुलभता तय करने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण है । आयोग का यह भी मानना है कि स्कूल से निकलने वाले जो बच्चे अँग्रेजी भाषा में पूरी तरह दक्ष नहीं होते वे उच्च शिक्षा के मामले में पिछड़ जाते हैं । जिन लोगों को अँग्रेजी का पर्याप्त ज्ञान नहीं होता उनके लिए हमारी प्रमुख शिक्षा संस्थानों में स्थान पाने के लिए मुकाबले में सफल होना बेहद मुश्किल होता है ।
आयोग का यह निष्कर्ष भारतीय शिक्षा जगत की वर्तमान स्थिति को रेखांकित करता है । हमारे अधिकांश उच्च शिक्षण संस्थानों में अँग्रेजी को ही प्रमुखता हासिल है । जहाँ भारतीय भाषाओं में अध्ययन–अध्यापन की व्यवस्था थी, धीरे–धीरे उनको भी समाप्त किया जा रहा है । विश्व भारती शान्ति निकेतन विश्वविद्यालय से में बाँग्ला का माध्यम समाप्त कर दिया गया है । शान्ति निकेतन में दाखिला चाहने वाले छात्रों को अब केवल अँग्रेजी को माध्यम के रूप में अपनाना होगा ।
सवाल उठता है ऐसी स्थिति में लोगों को क्या करना चाहिए ? आयोग ने अपने प्रतिवेदन में लिखा है ‘‘हमारे देश के लोग इस सच्चाई को समझते हैं । वे जानते हैं कि बेहतर जिन्दगी के अवसर पाने के लिए अँग्रेजी भाषा का ज्ञान बेहद जरूरी है । अब तक जो जानकारी उपलब्ध है, उससे पता लगता है कि माध्यम आय या कम आय वाले परिवार अपनी सीमित आमदनी का एक बहुत बड़ा हिस्सा अपने बच्चों को अपेक्षाकृत महँगे अँग्रेजी माध्यम के स्कूलों में भेजने पर खर्च करते हैं । ‘‘(आयोग का प्रतिवेदन, पृ– 28) अर्थात लोग जैसे भी हो बच्चों को अँग्रेजी में शिक्षा दिलवाने का प्रयत्न करते हैं । आयोग का मानना है कि इस प्रकार की शिक्षा को सर्वसुलभ बनाना चाहिए जिसका लाभ सभी लोग उठा सकें । आयोग के सदस्य नन्दन नीलकेनी अपनी पुस्तक ‘इमेजनिंग इण्डिया’ में लिखते हैं ‘‘सभी लोगों को चाहे उनकी आय का जो भी स्तर हो, उनकी पहुँच स्वास्थ्य सेवाओं, साफ पानी, आधारभूत संरचना, रोजगार एवं पूँजी, भरोसेमन्द सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था तथा अच्छे विद्यालय तक होनी चाहिए जहाँ उनके बच्चों को अँग्रेजी भाषा में शिक्षा दी जा सके ।’’(पृ– 22) आयोग बदले हुए माहौल में भारतीय समाज की आवश्यकताओं को रेखांकित करने का प्रयत्न कर रहा है, यह निश्चित रूप से सराहनीय कदम है । अवसर की समानता और सर्वसुलभता उसका मूलमन्त्र है ।
आयोग के भाषा–सम्बन्धी कुछ निष्कर्ष बरबस ही हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं । आयोग इस बात पर आश्चर्य व्यक्त करता है कि अँग्रेजी तक शताब्दी से पहले से हमारे शिक्षा व्यवस्था का अंग रही है, इसके बावजूद अँग्रेजी हमारे अधिकतर बच्चों की पहुँच से बाहर है, जिसके कारण सुविधाओं और अवसरों की सुलभता में बहुत अधिक असमानता है । आयोग ने यह भी माना है कि आज भी करीब एक प्रतिशत लोग ही अँग्रेजी को पहली भाषा तो क्या दूसरी भाषा के रूप में इस्तेमाल करते हैं । आज हमारे सामने सबसे बड़ा सवाल भी यही है कि औपचारिक रूप से अँग्रेजी शिक्षा की भारत में शुरुआत के डेढ़ सौ सालों के बाद भी एक प्रतिशत लोग इसे ठीक से अपना नहीं सके । यह लोगों की अक्षमता का प्रतीक है या इच्छा का । सबसे पहले हमें यही तय करना है । आज भी 99 प्रतिशत भारतीय अगर भारतीय भाषाओं में सहज महसूस करते हैं तो इसमें बुरा क्या है ? अपनी भाषा में बेहतर अभिव्यक्ति कर पाना मनुष्य का जन्मजात गुण है । जन्मजात प्रवृत्तियों के साथ छेड़–छाड़ करके एक अरब भारतीयों को अँग्रेजी सिखाने का अभियान शुरू करना प्राकृतिक शक्तियों के विरुद्ध संघर्ष आरम्भ करने जैसा प्रतीत होता है । मनुष्य की सफलता प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाने में है न कि संघर्ष करने में । कोशिश भारतीय भाषाओं में अध्ययन–अध्यापन और रोजगार की व्यवस्था होनी चाहिए न कि बदहाली का ठीकरा अँग्रेजी के अल्प ज्ञान पर फोड़ना चाहिए ।
आयोग की सिफारिशों के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि अँग्रेजी में सिद्धस्त नहीं होने को वह व्यक्ति और शिक्षा व्यवस्था की अक्षमता ही मानता है । इसलिए आयोग ने स्पष्ट रूप से लिखा है-‘‘अब समय आ गया है कि हम देश के लोगों, आम लोगों को स्कूलों में भाषा के रूप में अँग्रेजी पढ़ायें । अगर इस मामले में तुरन्त कार्रवाई शुरू कर दी जाये तो एक समाहित समाज की रचना करने और भारत को ज्ञानवान समाज बनाने में मदद मिलेगी ।’’ (प्रतिवेदन पृ– 28) अँग्रेजी का महत्त्व निर्विवाद है । विरोध अँग्रेजी का है भी नहीं । व्यक्ति जितनी भाषायें सीखता है उसके ज्ञान का क्षितिज उतना अधिक विकसित होता है । चिन्ताजनक है कि एक बार फिर भारतीय भाषाओं का वही हश्र होने जा रहा है जो राजभाषा बनने के बाद हिन्दी का हुआ । आयोग ने भारतीय भाषाओं के साथ अँग्रेजी पढ़ाने की बात कही है । अँग्रेजी के अध्ययन–अध्यापन की स्पष्ट रणनीति तय कर दी गयी है किन्तु भारतीय भाषाओं का जिक्र भर करके छोड़ दिया गया है । संविधान में भी हिन्दी के साथ अँग्रेजी के प्रयोग की बात कही गयी थी । परवर्ती काल में क्या हुआ यह तो इतिहास है ।
राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने राष्ट्र के नाम अपने प्रतिवेदन में कहा है कि पहली कक्षा से सभी बच्चों को अँग्रेजी की शिक्षा दी जाये । आयोग की सिफारिशों से पूर्व केवल नौ राज्यों (पूर्वोत्तर के छह राज्यों सहित) तथा तीन केन्द्र शासित प्रदेशों में पहली कक्षा से अंगेजी की शिक्षा दी जा रही थी । अब 25 राज्यों ने पहली कक्षा से अँग्रेजी में शिक्षा देना आरम्भ कर दिया है । मसला यह नहीं है कि अँग्रेजी शिक्षा दी जा रही है या नहीं । मूल मुद्दा है केन्द्र और राज्य सरकारों में यह आम सहमति बनती दिखायी दे रही है कि भारतीय भाषाओं में अध्ययन के कारण बच्चे पिछड़ते जा रहे हैं । इस आमसहमति पर पहुँचने से पहले कुछ तथ्यों पर ध्यान देना जरूरी है । भारत में अभी करीब 12 लाख विद्यालय हैं । जिसमें 90 प्रतिशत विद्यालयों का नियन्त्रण सरकारी हाथों में है ।
1999 में सरकारी स्कूलों पर किये गये एक सर्वेक्षण के मुताबिक नमूने के स्कूलों में केवल एक–चैथाई स्कूलों में कम–से–कम दो अध्यापक, प्रत्येक मौसम के अनुकूल दो क्लास रूम तथा कुछ शिक्षण सामग्री थी (राष्ट्रीय ज्ञान आयोग का प्रतिवेदन, पृ– 193) । अर्थात् 75 प्रतिशत स्कूलों में स्कूल होने की न्यूनतम सुविधायें भी नहीं थी । अन्वेषक के दौरे के समय एक–तिहाई मुख्य अध्यापक अनुपस्थित थे, एक–तिहाई स्कूलों में केवल एक अध्यापक उपस्थित था और लगभग आधे स्कूलों में शिक्षण–सम्बन्धी कोई गतिविधि नहीं थी । इन आँकड़ों को राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने स्वयं अपने प्रतिवेदन में पृष्ठ संख्या 193 पर उद्घृत किया है । ऐसे स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों के ज्ञान का स्तर कैसा होगा इसके लिए शोध करने की आवश्यकता नहीं है । चूँकि ये विद्यालय क्षेत्रीय भाषाओं के हैं इसलिए इसका ठीकरा क्षेत्रीय भाषाओं पर फोड़ा जा रहा है । जबकि सच्चाई ये है कि यहाँ शिक्षण–सम्बन्धी कोई गतिविधि है ही नहीं । नन्दन नीलकनी भी कुछ इसी तरह की राय रखते हैं । वे लिखते हैं, ‘‘अधिकांश अभिभावकों में इतना ही सामर्थ्य होता है कि वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेज सकें जो निम्न स्तर के होते हैं और जहाँ क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाई होती है ।’’ (इमेजनिंग इण्डिया, पृ– 22)
आयोग की सिफारिश है कि अँग्रेजी भाषी शिक्षकों की भारी आवश्यकता को पूरा करने के लिए अँग्रेजी भाषा में दक्ष और संवाद कौशल में प्रवीन स्नातकों को औपचारिक शिक्षक प्रशिक्षण देकर भर्ती किया जाना चाहिए । क्या ऐसा गम्भीर प्रयास भारतीय भाषाओं में पढ़ाने वाले शिक्षकों के लिए किया गया ? हम मानकर चलते हैं कि भारतीय भाषाओं में पढ़ने जैसा क्या है ?
शिक्षा पहले राज्य सूची का विषय था । 1967 मेें इसे समवर्ती सूची में डाल दिया गया । इन दिनों सम्पूर्ण शिक्षा–व्यवस्था के प्रति सरकारें अत्यन्त संवेदनशील हैं । 21 वीं सदी के भारत के लिए यह आशा की किरण हैै । किन्तु, शिक्षा–व्यवस्था में भारतीय भाषाओं के सिमटते स्थान से भाषाओं के भविष्य और समाज से उनके अन्तर्सम्बन्ध पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है । अन्यथा इन भाषाओं में संचित ज्ञान का असीमित स्रोत सूख जायेगा । राज्य सरकारें पहले कम–से–कम अपने राज्य की भाषाओं के पक्ष में खड़ी दिखाई देती थीं । धीरे–धीेरे उनके मानस में भी बदलाव आ रहा है । जाहिर है बदलाव की लहर अँग्रेजी के पक्ष में है । अक्तूबर माह में पटना में सम्पन्न नियोजन मेले में बिहार सरकार ने ऐलान किया कि प्रत्येक आई–टी–आई– (प्ज्प्) में अँग्रेजी के दो शिक्षकों की नियुक्ति की जायेगी । ताकि तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों के अँग्रेजी का स्तर ठीक किया जा सके । उप मुख्यमन्त्री ने बिहार के युवाओं से कहा कि अच्छी नौकरी चाहिये तो उन्हें अँग्रेजी व कम्प्यूटर का ज्ञान प्राप्त करना होगा ।(प्रभात खबर, दिनांक 01 नवम्बर, 2009) रोजगार दिलाने के सरकार के विशेष प्रयासों की जितनी प्रशंसा की जाये कम है । किन्तु, लगातार अँग्रेजी के यशोगान से अपनी भाषा के खिलाफ एक जनमत तैयार हो रहा है । ऐसी स्थितियाँ कमोबेश हर राज्य में बनती जा रही है । उत्तर प्रदेश सरकार ने ‘स्कूल रेडीनेस योजना’ के अन्तर्गत पूर्वी उत्तर प्रदेश के पाँच हजार छात्रों का चयन किया है । इस योजना में अँग्रेजी स्कूलों की तर्ज पर 4 से 6 वर्ष के बच्चों के लिए एल–के– जी– की पढ़ाई शुरू की जाएगी । अपने वाले दिनों में इस योजना को पूरे प्रदेश में लागू किया जायेगा । ये सरकारी मानस में बदलाव के सूत्र हैं जहाँ शिक्षा की समुचित व्यवस्था का आशय अँग्रेजी ज्ञान का स्तर है । खराब शिक्षा के लिए बदनाम सरकारी स्कूलों से लगता है स्वयं सरकारें अँग्रेजी के नाम पर अपना पीछा छुड़ाना चाहती हैं ।
आज जब अँग्रेजी सीखने–सिखाने के लिए इतनी हाय–तौबा मची हुई है तब भी भारतीयों के लिए अपनी भाषा में अध्ययन का क्या महत्त्व है यह संघ लोक सेवा आयोग की वार्षिक रिपोर्ट से जाना जा सकता है । हर वर्ष संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित होने वाली सिविल सेवा (मुख्य) परीक्षा में अँग्रेजी और भारतीय भाषाओं को माध्यम के रूप में अपनाने वाले छात्रों पर नजर डालें तो अलग तस्वीर सामने आती है । विज्ञान विषयों को चुनने वाले अधिकांश छात्रों ने माध्यम के रूप में अँग्रेजी को चुना था । किन्तु कला और मानविकी से सम्बन्धित विषयों के साथ परीक्षा में बैठने वाले अधिकांश छात्रों ने भारतीय भाषाओं को माध्यम के रूप चुना था । मानविकी और कला विषयों की पढ़ाई विश्वविद्यालय स्तर पर भारतीय भाषाओं में होती है । इतिहास में करीब 81 प्रतिशत, सामान्य अध्ययन में 45, भूगोल मेें 35 और दर्शनशास्त्र में 85 प्रतिशत छात्रों ने माध्यम के रूप में भारतीय भाषाओं को चुना जिसमें हिन्दी को प्रमुखता हासिल है । (58वीं 2007–2008 वार्षिक रिर्पार्ट, संघ लोक सेवा आयोग)
इन आँकड़ों से स्पष्ट है कि सुविधा और मौका मिलने पर आज भी छात्रों का बहुत बड़ा प्रतिशत भारतीय भाषाओं में स्वयं को अभिव्यक्त करना चाहता है ।
औद्योगिक वर्ग और भारतीय भाषाएँ
भारतीय उद्योग भाषा को किस नजरिये से देखता है यह जानना रोचक होगा । फिक्की के अध्ययन ‘इण्डिया रिसर्च एण्ड डेवलपमेण्ट 2005’ में कहा गया है कि ‘‘साइन्स एण्ड टेक्नोलॉजी (एस एण्ड टी) में उच्च दक्षता के अलावा भारत के वैश्विक केन्द्र बनने का एक प्रमुख कारण यहाँ के लोगों की अँग्रेजी भाषा में दक्षता है । विश्व में अँग्रेजी बोलने वाली जनशक्ति के मामले में भारत दूसरा सबसे बड़ा देश है । अधिकांश भारतीय शिक्षा संस्थानों में शिक्षा की मुख्य भाषा अँग्रेजी होने के कारण विद्यार्थी अँग्रेजी मे पारंगत होते हैं । इससे सीमापार के दूसरे देशों से सम्प्रषेण सरलता से और प्रभावी ढंग से होना सुनिश्चित हो जाता है । बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भी आसानी से भारतीय शोध एवं विकास केन्द्रों को अपने वैश्विक शोध एवं विकास टीमों में शामिल कर सकती हैं ।’’ (योजना, फरवरी 2006) इस अ/ययन में यह भी बताया गया है कि अमेरिका में डॉक्टरोें का 38 प्रतिशत, वैज्ञानिकों का 12 प्रतिशत, नासा में वैज्ञानिकों का 36 प्रतिशत, माइक्रोसॉफ्ट के कर्मचारियों का 34 प्रतिशत तथा इण्टेल में 20 प्रतिशत भारतीय योगदान दे रहे हैं । भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, दादा भाई नौरोजी या महात्मा गाँधी इन आँकड़ों को देखकर दुखी होते किन्तु फिक्की ने इनका प्रकाशन गर्व से किया है । उसने ऐसे उपाय सुझाये हैं जिससे अमेरिका जैसे देशों में भारतीय उपस्थिति को बढ़ाया जा सकता है साथ ही भारत में विदेशियों की जरूरतों के अनुरूप सस्ती शोध की सुविधायें उपलब्ध करा सकते हैं । सवाल है इस पर हमें कितना गर्व करना चाहिए । हमने सफलता का आशय अपनी सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं का अधिकाधिक निर्यात करना बना रखा है । इस बात की कोशिश करना बेमानी लगती है कि वैज्ञानिकों/ इंजीनियरोें को पैसा, प्रतिष्ठा और सुविधा विदेशों से ज्यादा भारत में देने की पहल की जाये । अन्तत: इनके बनाये सामानों के उपभोक्ता ऊँची कीमतों पर हम ही तो हैं । अपने देश में अवसर निर्मित करने के बजाय प्रतिभाओं का निर्यात करना ही हमें बेहतर लग रहा है । फिक्की ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट कहा है, ‘‘यूरोपीय आयोग के आकलन के अनुसार, यूरोपीय संघ के देशों को 2010 तक 7 लाख अतिरिक्त शोधकर्ताओं की आवश्यकता होगी । अमेरिका के शोध और विकास के मौजूदा कार्यबल के करीब 50 प्रतिशत लोग 2012 तक सेवानिवृत्त हो जाएँगे । यूरोप और अमेरिका में शोधकर्ताओं की इस कमी को विकासशील देशों के शोधकर्ताओं से ही पूरा किया जा सकता है । अतएव यह भारत के लिए बहुत बड़ा अवसर है ।’’ (योजना, फरवरी 2006) ऐसा लगता है नयी शिक्षा व्यवस्था में हमारा जोर प्रतिभाओं के निर्यात पर भी है ।
राष्ट्रीय ज्ञान आयोग समावेशी विकास के लिए पूरे देश को ज्ञान समाज में बदलना चाहता है । यह समय की माँग है और हमारे देश की जरूरत भी । आज भारतीय समाज एक साथ विकास की कई अवस्थाओं में हैं । केवल पश्चिमी मानकों के अनुरूप शिक्षा–व्यवस्था को ढालने की कोशिश से समाज का बड़ा तबका इसके लाभ से वंचित हो सकता है । हमें कोशिश करनी होगी कि नयी–व्यस्था का लाभ समाज के अन्तिम व्यक्ति तक पहुँच सके ।
विवेक कुमार सिंह : प्रबन्धक (राजभाषा), भारतीय स्टेट बैंक, फ्लैट संख्या–3/1/1, एस–बी–आई– कॉम्प्लैक्स, गोल्फ क्लब रोड, टालीगंज, कोलकाता–700033 (पश्चिम बंगाल) ।