‘मृत्यु-संगीत’
- पल्लवी प्रसाद
यह फणीश्वरनाथ रेणु का जन्मशती वर्ष है और पूरी दुनिया कोविड नामक वैश्विक महामारी से जूझ रही है। जो आशंका मार्च महीने के आरम्भ से मेरे दिलोदिमाग पर दस्तक दे रही थी, वह अब मेरी चेतना के पट को भड़भड़ा रही है। क्या सर्वप्रिय लेखक रेणु और महामारियों व विभीषिकाओं का चोली-दामन का साथ है?
फणीश्वरनाथ रेणु द्वारा उनके साहित्य के ‘वॉर्प एण्ड वेफ़्ट’ अर्थात ताने-बाने में महामारियों व विभीषिकाओं के प्रकोप कुछ इस तरह बुने गये हैं मानो नेपथ्य में अनवरत बजता हुआ कोई मृत्यु-संगीत, जो सदा मद्धिम रहता है परन्तु यदा-कदा उच्श्रृंखल नाद कर उठता है। रेणु जैसे लोक-जीनियस के लिए यह स्वाभाविक है चूँकि उनका क्षेत्र महामारियों का उत्केंद्र रहा है। उत्तर बिहार हमेशा से प्राकृतिक आपदाओं का शिकार रहा है। रेणु की रचनाओं का लोक-समाज मलेरिया, काला आज़ार अथवा बाढ़-अकाल की चपेट में नियमित रूप से रहता है। लेखक हमें बताते हैं, कैसे उनके अँचल के गाँव देखते ही देखते श्मशान-भूमि में तब्दील हो जाया करते थे। इसके बावजूद, मानव की जिजीविषा इन त्रासदियों को मुँह चिढ़ाती है और मृत्यु की अवज्ञा में जीवन का राग-रँग जारी रहता है, वाद्य-यन्त्र बजते रहते हैं।
स्वास्थ्य मन्त्रालय, भारत सरकार के अनुसार वर्ष 1953 में, देश में साढ़े सात करोड़ मलेरिया के केस बने थे जिनमें से अस्सी हजार लोगों की मौत हो गयी थी। मलेरिया इस देश और खास कर बिहार प्रदेश का स्थानिक रोग रहा है। एक दौर वह भी रहा है जब बिहार प्रदेश की 30% जनता मलेरिया ग्रस्त हुआ करती थी। ये सरकारी आँकड़े हैं । यह काल रेणु का सृजनकाल भी है। रेणु अपनी रचना ‘ईश्वर रे, मेरे बेचारे…’ में लिखते हैं – ‘उन दिनों, कहते हैं, हमारे यहाँ के कौओं को भी मलेरिया बुखार हुआ करता था।’ रेणु मियाद के हिसाब से मलेरिया की विभिन्न किस्में बताते हैं और ‘पर्निसस मलेरिया’ के बारे में लिखते हैं, जिसमें हैजा जैसे लक्षण होते हैं और जो बिना मुहलत दिए, ‘पहलवान पट्ठा’ आदमी के प्राण फौरन हर लेता है। तब क्या अचरज है कि लेखक अपने उपन्यास ‘मैला आँचल’ में शिद्दत से मलेरिया के इलाज के शोध का आग्रह करते हैं? उनका नायक डॉक्टर प्रशान्त इसी शोध-कार्य को पूरा करने के लिए प्रदेश की राजधानी पटना छोड़ कर गाँव मेरीगंज आता है।
मलेरिया की तरह ही काला आज़ार बिहार प्रदेश, विशेष कर उत्तर बिहार का स्थानिक रोग है। काला आज़ार के लक्षण मलेरिया से मिलते-जुलते हैं। यहाँ तक कि पहले भूलवश इसे मलेरिया का ही एक प्रकार माना जाता था। किन्तु वैज्ञानिक शोध ने यह बात स्पष्ट कर दी कि काला आज़ार और मलेरिया दो अलग रोग हैं। काला आज़ार विश्व के कुछ देशों में ही पाया जाता है और वहाँ भी यह कुछ स्थानों तक ही सीमित है। काला आज़ार से प्रभावित देशों में भारत प्रमुख स्थान पर है। तथा भारत में काला आज़ार से प्रभावित 70% क्षेत्र बिहार प्रदेश में पड़ता है। काला आज़ार सूखा प्रभावित और जनसंख्या बहुल क्षेत्रों में पाया जाता है। ऐसी ही परती भूमि की अनुकथाएँ रेणु ने अपने उपन्यास ‘परती परिकथा’ में लिखी हैं। बिहार के अकाल और बाढ़ का आँखों देखा बयान वे अपने रिपोर्ताज ‘ऋणजल-धनजल’ में करते हैं। अपनी रचना ‘हड्डियों का पुल’ में लेखक वर्ष 1950 में उत्तर बिहार में आई बाढ़ के बाद पड़े अकाल और अन्न-संकट का विवरण देते हुए बताते हैं कि कैसे बाबू टोले के नये लड़के, चार मुट्ठी मकई के लावा के ‘कर्ज’ के सूद के रूप में बच्चियों और बुढ़ियों का शोषण करते हैं। रेणु महज कोई रचना नहीं रचते, वे अपने लोगों का वास्तविक आर्तनाद लिखते हैं। उनके ‘लोक’ के इस आर्तनाद ने न सिर्फ भौगोलिक सीमाएँ तोड़ीं हैं बल्कि वह वर्तमान और भविष्य के कालखंडों को भी गुंजायमान करता रहा है और करता रहेगा।
महामारी की मार वही जानता है जिसने उसका प्रकोप सहा हो। रेणु ने अपने अनुज की अकाल मृत्यु का दंश झेला और साथियों को महामारियों का ग्रास बनते हुए देखा। उन्होंने स्वयं अपने शैशवावस्था में रोग-बीमारी पर विजय पायी, शायद दैवीय कृपा के बल पर। अपनी रचना ‘हे ईश्वर! मेरे बेचारे…’ में वे लिखते हैं कि कैसे गाँव के आराध्य वट वृक्ष के तले उन्हें रख कर उनकी दादी ने उनके जीवन की मनौती माँगी थी। साथ ही वे लिखते हैं कि कैसे उनके गाँव में हर साल आसिन-कातिक के महीनों में मलेरिया महामारी का रूप धरता था। अगहन का महीना आते-आते, इस महामारी के दुष्परिणाम स्वरूप, फसल काटने के वक्त मजदूरों का कभी ऐसा अभाव पड़ जाता कि धान खेतों में झर जाते। फागुन के बाद जब उनका स्कूल खुलता तो उन्हें पता चलता कि उनके कितने ही प्यारे सहपाठी सदा के लिए इस संसार से विदा हो गये हैं। ऐसे में किसी के लिए जीते चले जाना कितना हृदय विदारक रहा होगा। लघु-उपन्यास ‘कितने चौराहे’ का मात्र एक अनुच्छेद लेखक के अँचल की व्यथा का सम्पूर्ण ब्यौरा देता है, कुछ इस प्रकार – ‘…फिर वही चक्र! ऋतुओं का, मौसम का, महीने का, दिन का!…स्कूल से हर साल एक दर्जन विद्यार्थी पास हो कर निकलते हैं। दो-तीन ऊँची पढ़ाई पढ़ने के लिए जाते हैं। बाकी इन्हीं अदालत, फौजदारी, रजिस्ट्री-ऑफिसों में किरानी, पेशकार, मुहर्रिर का पेशा शुरू कर देते हैं।
हर साल मलेरिया और काला आज़ार अनेक प्रतिभावान लड़कों को लीलते हैं।…महँगाई, अकाल, अनावृष्टि के मारे हुए किसानों पर जमींदारों का जोर-जुल्म, अत्याचार होता है! अदालत में कुर्क किए माल-मवेशी की नीलामी होती है। जमीनें छीनी जाती हैं। फसल लूटी जाती है। मुँह पर पट्टी बंधे गुलामों की टोली सिर झुका कर आगे बढ़ रही है…क्रूर नौकरशाही चाबुक फटकार कर पीटती है – जानवरों को।’ ये चन्द पंक्तियाँ, उत्तर बिहार के जन-जीवन की बहुआयामी विषमताओं का मानो समग्र हैं। इतना ही नहीं, रेणु का साहित्य सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों के प्रति सरकार की उदासीनता और अकर्मण्यता को बखूबी दर्ज करता है। यह सरकार चाहे अँग्रेज की रही हो अथवा आजादी के बाद स्वतन्त्र भारत की सरकार हो, हर सत्ता ने इस ग्राम्यवासी देश का दोहन किया और अपने कर्तव्यों की अनदेखी की है। गौरतलब बात यह है कि हमें रेणु के साहित्य में महामारियों अथवा विभीषिकाओं से पीड़ित ग्रामीण इलाकों में सरकार की तरफ से होने वाले राहत कार्यों का अथवा विनाश के रोकथाम के प्रयासों का नहीं के बराबर उल्लेख मिलता है। हालाँकि अपने लघु-उपन्यास ‘कितने चौराहे’ में भूकम्प-सम्बन्धी तथा रिपोर्ताज ‘ऋणजल धनजल’ में पटना में पुनपुन नदी में आई बाढ़ के सम्बन्ध में लेखक शहरों में होने वाले रिलीफ कार्य का जिक्र करते हैं। जो लेखक स्वयं महामारियों और मृत्यु के बीच जीवित बचा रहा और महान सृजन करता रहा, उसका आशावादी होना लाजिमी है। रेणु के उपन्यास और कहानियाँ हमें बताते हैं कि लेखक विज्ञानोन्मुख है। वह आशाएँ रखता है विज्ञान से, नहीं कि किसी सरकार से। रेणु आदर्शों को पोसते हैं। वे समाज के निन्दक नहीं, उसके चित्रकार हैं। शायद यही कारण है कि वे मृदु लिखते हैं।
रेणु से विपरीत, सुप्रसिद्ध व्यंगकार-लेखक हरिशंकर परसाई सीधे दु:खती रग पर उँगली रख देते हैं। परसाईं कहते हैं – “उन्होंने कहा, ‘इण्डिया इज़ ए ब्यूटिफुल कन्ट्री।’ और छुरी-काँटे से इण्डिया को खाने लगे। जब आधा खा चुके, तब देशी खाने वालों ने कहा – ‘अगर इण्डिया इतना खूबसूरत है तो बाकी हमें खा लेने दो। तुमने ‘इण्डिया’ खा लिया, बाकी बचा ‘भारत’ हमें खाने दो।’ यह बातचीत 1947 में हुई थी। हम लोगों ने कहा – अहिंसक क्रान्ति हो गयी। बाहर वालों ने कहा – यह ट्रांसफर ऑफ पावर है – सत्ता का हस्तांतरण। मगर सच पूछो तो यह ‘ट्रांसफर ऑफ डिश’ हुआ – थाली उनके सामने से इनके सामने आ गयी। वे देश को पश्चिमी सभ्यता के सलाद के साथ खाते थे, ये जनतन्त्र के अचार के साथ खाते हैं।” हम देखते हैं, कुछ ऐसा ही घटित होता है रेणु के उपन्यास ‘मैला आँचल’ में। देश आजाद होता है और महात्मा गाँधी की हत्या होती है। तहसीलदार विश्वनाथप्रसाद मल्लिक कॉंग्रेस से जुड़ने का निर्णय लेते हैं और अपनी जमींदारी से 100 बीघा जमीन भूमिहीनों को दान देते हैं। रेणु लिखते हैं कि तहसीलदार का हृदय-परिवर्तन होता है। देश सन् 1947 में आजाद हुआ, सन् 1948 में महात्मा गाँधी की हत्या हुई। वही काल था जिसमें कहीं, उपन्यास का क्लाईमैक्स स्थित है।
यह ध्यान देने वाली बात है कि बिहार में सन् 1950 में भूमि सुधार कानून लागू हो गया था। अर्थात तहसीलदार का यदि ‘हृदय-परिवर्तन’ न होता, तब भी उनकी जमीन सरकार द्वारा जब्त की जाती। रेणु चूँकि एक ‘पर्फेक्ट कथाकार’ हैं, वे कभी भी पाठक से उसकी आशा और आदर्शों को नहीं छीनते। इतिहास गवाह है कि आजादी के बाद राजा-रजवाड़ों व सामन्तों ने सत्ता का कायाकल्प किया। उनमें से कई ने भूमि-अधिकार त्यागने के एवज में राजनीति में सम्मानित स्थान पाया और उनके वारिस आज भी भारतीय राजनीति में सक्रीय हैं तथा प्रमुख भूमिकाएँ निभा रहे हैं। इस तरह अनेक सामन्त, समय के अनुसार स्वयं को ढालते हुए अर्थात खुद को ‘रिइंवेंट’ कर के राजनीतिज्ञ बन गये और सत्ता से जुड़े रहे। कई जगह पूर्व-राज्यों के प्रशासकीय कर्मचारियों को भी उनकी योग्यता के अनुरूप सरकारी पदों पर नियुक्त किया गया। इस तरह आजादी के तुरन्त बाद, देश में शासक वर्ग कमोबेशी वही बना रहा जो पहले था। वरना ‘बावनदास’ का यह हश्र क्यों होता? देश में सन् 1950 में संविधान लागू हुआ। भारतीय संविधान समय-समय पर आवश्यकता के अनुसार संशोधित किया जाता रहा है ताकि वह नागरिकों को समान सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक अधिकार ही नहीं बल्कि शिक्षा, रोजगार और उन्नति के समान अवसर भी प्रदान करे। इस प्रकार देश में वास्तविक प्रजातन्त्र, ‘पावर टू द पीपल’ को आने में समय लगा…लग रहा है।
उपन्यास ‘मैला आँचल’ की परिणति में हमें भावी समाज के सूत्र दृश्य होते हैं। तहसीलदार विश्वनाथप्रसाद मल्लिक से भिन्न, ठाकुर रामकिरपाल सिंह अपनी पारम्परिक धरोहर यानी जमीन और बाहुबल का संचय करते हैं। क्या वे उन लोगों में से नहीं, जो आने वाले दशकों में सीधे-सीधे जातीय और वर्ग संघर्षों में लिप्त हुए? उनकी बदौलत भारतीय राजनीति में बाहुबल का उदय हुआ। वहीं डॉक्टर प्रशान्त नागरीय चेतना वाले शिक्षित मध्यमवर्ग का प्रतिनिधित्व करते हुए प्रतीत होते हैं, जो सामाजिक संघर्षों से दूर है और स्व-केन्द्रित है। जैसे-जैसे समय गुजरता गया, भारतीय संविधान के तहत आरक्षण में बढ़ोतरी हुई और देश के विभिन्न वर्गों को पहले से बेहतर समान अवसर उपलब्ध हुए। खुली अर्थव्यवस्था, विज्ञान, तकनीक, विशेष कर कम्प्यूटर, इंटरनेट, सूचना प्रौद्योगिकी और इनके द्वारा सम्भव हुए आर्थिक वैश्विकरण के चलते भारतीय राजनीति में विकास के नारों ने जोर पकड़ा। हमने देखा है कि कैसे पिछले डेढ़ दशकों में सत्ता के पारम्परिक गढ़ टूटे हैं। उनका बाहुबल क्षीण हुआ है। एक राष्ट्र के रूप में, इधर हम विकास-पथ पर दृढ़ता से बढ़ रहे थे। हमें यह प्रतीत होने लगा था कि भविष्य हमारा होगा कि अनायास ही विश्व-भर के समीकरण गड़बड़ा गये। विश्व के सामने कोई अणु-बम या महायुद्ध नहीं बल्कि कोविड-19 नामक वायरस, एक जैविक चुनौती उपस्थित हुई है। चीन देश में पनपी यह छूत की बीमारी मानो विश्व का सर्वनाश करने के लिए प्रकट हुई है। ऐसी महामारी, जैसी न भूतो न भविष्यति!
रेणु का साहित्य मानव जाति का विजयगान है। वह परीक्षा की इस घड़ी में भी हमें प्रेरणा देता है। विकास और वैश्वीकरण के नतीजतन महामारी का भी वैश्वीकरण हुआ है। आज वैश्विक महामारी कोविड ने विश्व के अग्रगणी देशों में तबाही मचा दी है। तमाम विकसित देश और उनकी अर्थव्यवस्थाओं ने कोविड के सामने अपने घुटने टेक दिए हैं। हम घड़ी की टिक-टिक करती हुई सूइयों पर अपने ही लोगों की मौतें गिन रहे हैं – सैकड़ों, हजारों और फिर…? इन्टरनेट पर कोविड-ट्रैकर भारत के सभी राज्यों में कोविड पॉज़िटिव दिखा रहे हैं, मरीजों और मृतकों की संख्या पल-पल बढ़ रही है। भारत सरकार लड़ रही है, डॉक्टर-स्वास्थ्य कर्मचारी जूझ रहे हैं, पुलिस लॉकडाऊन का तामील करवा रही है, यातायात और यात्राएँ प्रतिबंधित हैं, बैंक व अन्य आवश्यक सेवाएँ जारी हैं, लोग सरकारी राहत कोष में तथा अन्यत्र दान कर रहे हैं, मजदूर व असंगठित क्षेत्रों में कार्यरत लोग बेरोजगार हैं, जरूरतमन्दों को राशन बाँटा जा रहा है, गरीबों के लिए लंगर खुले हैं, उनके जन-धन योजना बैंक एकाऊंट में राहत-राशि पहुँची है, जनता अपने घरों में बन्द है, पर्यावरण शुद्ध हो रहा है, वन्य पशु-पक्षी नगरों की सैर कर रहे हैं।
लॉकडाउन के सन्नाटे में भारतीय अर्थव्यवस्था की चूलों की चरमराहट हमें स्पष्ट सुनाई दे रही है। पूरा देश संघर्ष कर रहा है। परन्तु मौत मनुष्य को आती है, आशा अमर है। इस बुरे वक्त में सैकड़ों चुनौतियों और अपनी ही बुराइयों से भिड़ते हुए हम, हमारी सामाजिक एकता और सहकार, हर अन्याय को उजागर करती हमारी मीडिया, प्रत्येक शोषित के हक में अपनी आवाज़ उठाता सोशल मीडिया का फलक, आदी को यदि फणीश्वरनाथ रेणु आज देख पाते तो न जाने वे क्या सोचते और क्या लिखते? रेणु अवश्य देखते कि उनकी कहानी ‘पहलवान की ढोलक’ का लुट्टन सिंह पहलवान आज हर देशवासी के जेहन में जीवित हो उठा है। वह ढोल बजा रहा है और प्रलय को भगा रहा है। क्या आपको याद है? लुट्टन सिंह पहलवान अपनी चिता पर भी चित्त नहीं लेटा था। लुट्टन सिंह पहलवान ने कभी हार नहीं कुबूली!
लॉकडाऊन के इन सूने दिनों में, मैं दिवास्वप्न देखती हूँ कि सुबह की किरणों पर सवार हो, रेणु मेरी मेज पर उतरें। मैं लेखक संग ‘कटिंग’ चाय साझी करूँ। और उन्हें कागज और कलम बढ़ा कर कहूँ – “मैंने पढ़ा है कि आप सोने की कलम रखा करते थे। मेरे पास पाँच रुपये की जेल-पेन है। हमारे समय के नाम, वैश्विक महामारी कोविड की पराजय के लिए एक आस की कथा क्या नहीं लिखिएगा, सर? लिखिए न, प्लीज़।”
लेखिका अधिवक्ता और कथाकार हैं|
सम्पर्क- +918221048752, pallaviprasad7133@gmail.com
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