कथा-संवेद – 14
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कविता, आलोचना और कहानी के अहाते में समान अधिकार के साथ निरंतर आवाजाही करनेवाली चन्द्रकला त्रिपाठी का जन्म 5 जून 1954 को उत्तर प्रदेश के चंदौली जिला स्थित बहादुरपुर गाँव में हुआ। 1976 में दैनिक आज में प्रकाशित ‘इतिहास’ शीर्षक कविता से अपनी रचना यात्रा शुरू करनेवाली चन्द्रकला त्रिपाठी के दो कविता-संग्रह ‘वसंत के चुपचाप गुजर जाने पर’ और ‘शायद किसी दिन’, एक कथा डायरी ‘इस उस मोड़ पर’ तथा एक आलोचना पुस्तक ‘अज्ञेय और नई कविता’ प्रकाशित हैं।
किस्सागोई के रस में पगी कहानी ‘कच्ची हल्दी की गंध’ अपनी रोचक वर्णन शैली और ग्रामीण परिवेश के कारण सबसे पहले हमारा ध्यान खींचती है। गंध को केंद्र में रखकर हिन्दी और दुनिया की अलग-अलग भाषाओं में कई महत्वपूर्ण कहानियाँ लिखी गई हैं। खुशबू और सड़ांध के समानान्तर और बहुवर्णी अर्थ संदर्भों के साथ कच्ची हल्दी की गंध की सतत उपस्थिति के कारण यह कहानी गंध केन्द्रित कहानियों की उसी पांत में रखी जा सकती है। कमजोर और अकेले पड़ जाने वाले लोगों की जमीन को दबंगई के बल पर हड़प लेने की घटनाएँ समाज में हमेशा से घटित होती रही हैं। लेकिन पार्वती और अमला आजी जैसी मजबूत स्त्रियों की उपस्थति के कारण यह कहानी ग्रामीण पृष्ठभूमि में घटित एक अपराध कथा का रहस्योद्घाटन भर होकर नहीं रह जाती, बल्कि अपराध के विरुद्ध साहस, प्रतिरोध और संघर्ष के एक ऐसे बयान की तरह दर्ज होती है, जिसकी अनुगूंजें कहानी समाप्त होने के बाद भी हमारे भीतर बनी रहती हैं। दुष्कर्म के बाद पार्वती की हत्या के रहस्य से पर्दा उठाने के बावजूद यह कहानी जिस तरह अपने पाठकों को नई जिज्ञासाओं से भर देती है, उसमें इसके औपन्यासिक विस्तार की कई संभावनाएं अंतर्निहित हैं।
राकेश बिहारी
कच्ची हल्दी की गंध
चंद्रकला त्रिपाठी
आजकल कथा सुनने में सबकी रुचि घट रही है। अब यह साफ दिखने लगा है मगर वह क्या करे जिसे कथा कहे बिना चैन नहीं पड़ेगा।
इस कथा ने घुमड़ घुमड़ कर हलकान कर दिया है। आठ आठ हाथों से पकड़े है। मैं भी तो इसका आसान ठीहा ठहरी।
पूरा अंदेशा है कि बहुत से लोगों को इस कथा में आए जीवन ज़मीन का कुछ पता नहीं होगा। तफरीह के लिए गए हों घूमें हों तो और बात है वरना जिसे रिमोट एरिया कहते हैं न उस इलाके की बड़ी ख़तरनाक सी कहानी है यह और मज़ा देखिए कि अस्सी साल की अमला आजी इसकी हिरोइन बनती चली गईं। सच कह रहे हैं। किसी को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि बूढ़ा में इतना दम होगा, ऐसा हठ होगा और वो क्या कहते हैं जान दे देने का जज़्बा, वह होगा। जिसने सुना उसी ने मुंह बा दिया। कोई गिनती में नहीं लाता था अमला आजी को। वह गांव किनारे पड़ी एक छोटी सी गृहस्थी वाली अकेली बुढ़िया जिसके एक बेटी भर थी। पास के गांव में ब्याही बेटी जितना रख सकती थी खयाल रखती थी। आखिर अपना घर दुआर छोड़ कर यहां कैसे रहती। गांव के लोग बुढ़िया का ख्याल रखते थे। पांच बीघे का खेत रामसूरत के खेतों से लगा हुआ था। रामसूरत जो गांव में चारो तरफ सबका खेत लिखाने के फ़िराक में रहते थे बुढ़िया पर सीधे हांथ डालने में डरते थे। सच पूछा जाए तो यह खेत हथियाने में वे दूसरे तौर तरीकों से काम ले रहे थे। बहुत निडर आदमी थे अमीन जी, मने रामसूरत मगर बुढ़िया के सराप से बहुत डरते थे। मौक़े बेमौक़े अमला आजी अपना बत्तीसो दांत चियार के दिखा देतीं और सामने वाला सिहर उठता। कहते हैं आज उसके मुंह से कुछ निकला नहीं कि कल का सूरज उसे दिखा नहीं जिसके सात पुश्तों को तारने में उनसे कोई कोताही नहीं हुई।
अरे एक बात तो रह ही गई।
अब यह किस्सा है सिर्फ किस्सा।
किसी से यह मिल जाए तो बस एक संजोग समझिए।
संजोग की भी खूब कही। यह संजोग ही था न कि कोयराने के अंधेरे बजबजाते कीचड़ से गंधाते रास्ते को टटोल टटोल कर रामसूरत के घर रात की गवनई में आने वाली अमला आजी अचानक किसी से टकराई थी।
ताज़ा हल्दी तेल का भभका उनकी नाक में भर गया था।
गिरने से बची थीं वे।
खूब ज़ोर से बरसी भी थीं कि आन्हर हवे का रे!
वह जो भी था चुपचाप उस संकरी गली से उनसे टकराते हुए निकला था। कुछ नहीं कहा था उसने।
भला ऐसे बजबजाते संकरे रास्ते से जाने की ज़रुरत भी क्या थी। और अगर रात हो ही गई थी तो जाना ज़रुरी भी नहीं था। मगर आजी को तो छटपटी पड़ी थी। हल्दी मंटमंगरा और रात की गवनई के साथ साथ आज कोहबर की पतरी के भोज का भी आकर्षण था। जीभ बौराई हुई थी। ध्यान वहां पहुंच जाने पर लगा था मगर करती क्या। हालचाल लेने आया दामाद विदा लेने का नाम ही नहीं ले रहा था। अंत में उन्हें कहना पड़ा था कि अब सांझ बेर कहां लौटेगा वह। भोजन पानी का इंतजाम करने की बात कही उन्होंने तो वह खटिया से उठ बैठा। बोला कि नहीं, उसे रुकना नहीं है बल्कि बगल के गांव में कुछ काम भी है।
अपनी फटफटिया गूंजाता हुआ वह उधर गया और इधर अमला आजी ने अपनी बखरी में ताला लगाया। सोचा ज़रुर कि चलते हुए कोहराने भी देखती जाएं शायद कोई अभी बाकी हो गवनई में जाने से मगर फिर उन्हें लगा कि एक पहर रात बीत चुकी है। कौन जोहेगा उन्हें। बिमली तो आकर देख भी गई थी उनके दरवाजे पर ओठंगे पड़े पाहुन को।
इसीलिए उन्होंने यह रास्ता चुना था। बहुत नज़दीक का रास्ता था। नाक पर अंचरा रख कर सरपट पार कर लेती थीं हमेशा। अभी एक बार दिन में भी वे इसी रास्ते से गईं थीं तो ऐसी कोई बात नहीं थी। मगर उनसे टकरा कर बिपत की तरह से भाग जाने वाले उस आदमी की अफनाई हुई सांस और पसीने से महकती हुई कच्ची हल्दी तेल की गंध उन्हें भौंचक कर गई थी। वे उस टकराहट से हिल गई थीं और उनके मुंह से गालियां झर उठी थीं हमेशा की तरह – दहिजरा निर्बंसिया मुंहफुकौना …
और सबेरे का सबसे बड़ा हल्ला यह था कि पार्वती को कोई मार गया था।
गला रेता हुआ था।
घर ओसारा सब खून से सना मिला था।
जान बचाने की बहुत कोशिश की थी उस औरत ने।
अमला आजी ने सुना तो उनका कलेजा धंस उठा।
सहसा वो चमक पड़ीं।
आजी का कलेजा धड़ धड़ बजने लगा। गांव में सकता पड़ गया। पार्वती अभी कल ही तो अपने खेत का मुक़दमा जीती थी और आज।
हांथ पैर बेजान हो उठे अमला आजी के।
कातिक का भींगा हुआ सा सबेरा उनके छप्पर पर कांप रहा था।
उन्हे लग गया कि वे अब डर से मर जाएंगी।
वैसे आप चाहें तो कहानी यहीं खतम समझे मगर वैसे यह बाक़ी है।
जिसे रुची होगी वह हुंकारी मारेगा
आगे की कथा सुनिए आप लोग।
सच बात है अधूरी कथा सुनाने से बड़ा पाप कोई नहीं। मुझे भूलता नहीं है कि ये जो अमला आजी हैं न ये बिल्कुल काल्पनिक थोड़े ही हैं। गवनई में अगर इनके प्राण ऐसे बसते थे कि जिस घर से न्यौता भी न मिला होता उस घर भी गाने पहुंच जाती थीं। वैसे तो छोटे से गांव में उन्हें न्यौता न मिलने का ऐसा कोई कारण नहीं होना चाहिए था मगर अब जिसके दरवाजे पर खड़े होकर सरापी थीं वह भला किस जिगरे से उन्हें न्यौतता। मगर बुढ़िया सब भूलभाल कर उसके आंगन में बिराज जातीं और तब जो लहक कर गातीं कि चार गांव तक सुनाई देता।
गीतों के अलावा आजी किस्सों का भी ग़ज़ब खजाना थीं।
उनके किस्से सुना दूं न तो मार्खेज़ का जादुई यथार्थ फेल हो जाएगा।
मैंने अमला आजी का किस्सा और किरदार दोनों बताया था सबको।
सब भौचक होते।
ऐसा भी कोई हुआ है।
मैं कहती इससे अधिक मौलिक लोग पड़े हैं मगर कथाएं तो पैटर्न्स में घुस चुकी हैं न।
जहां ज़िंदगी कई कई बीहड़ रंगों में है वहां से हम छूट चुके हैं।
आजी के किस्सों में सबसे अधिक दुस्साहस और भय होता था। वे एक इंद्रजाली माहौल रचतीं और रात के जादू के कई कई रंग बतातीं।
हम लोगों को, यानि हमारे भाई बहनों में आजी की कथा में बसने का मौक़ा सबसे ज़्यादा ही मिलता था।
अक्सर हम आजी के ओसारे में सो जाते।
रात में नींद खुलती तो दीवार पकड़ कर छप्पर की ओर उठता सांप दिखने लगता या बाहर पकरी के गझिन पेड़ से टपक कर गिरता सारस।
आजी कहतीं- अरे ई कहानी नहीं है बचवा, सब इसी में रहते हैं।
एक दिन तो पाहुन के गोड़तारी आकर बइठ गई वह!
कौन आजी ?
हम पूछ बैठते
‘अरे वही चुड़इनियां; सबके नाक में दम किए है। जिधर देखो उधर ही पहुंच जाती है। ऊ तो पहुना समझ गए थे। ऐसा लात मारे कि पोखरिया में जाके गिरी वह ‘
तो हमारे लिए गांव की आबादी में ऐसे जीव जंतु चुड़ैल जिन्न भी हमसे यहां वहां मिल जाते थे।
हर चौरा चबूतरा की एक कहानी थी।
कहानी तो आजी की भी थी ही।
मुझे याद है वह अनोखी कहानी।
मगर अभी तो हम इस प्रसंग में बने रहें। आप सब तो इसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
तो आजी जब रामसूरत के आंगन में पहुंची उससे पहले उन्होंने उनके दरवाजे पर मची अफरातफरी को देख लिया था।
मर मेहमान सब चंचल हो उठे थे।
रामसूरत भींचे हुए गले से गुर्रा रहे थे।
आजी ठिठक गईं।
तब तक उन्होंने गवनई के लिए आई औरतों को घर से बाहर आते देखा।
“आज गाना कैंसल ” पिरितिया ने उन्हें टहोका मार कर बताया।
आजी भला कहां मानने वाली।
हल गई आंगन में।
बांस का मंडप जैसे अचानक बहुत सूना लग उठा था।
रोशनी में औरतों के चेहरे पर छपा हुआ सकता उनकी आंखों से छुपा नहीं।
रामसूरत बो फुसफुसाती हुई आई और माफी मांगती हुई बोली – “सबेरहीं बरात जानी है मावा! लल्लू के बाबू गुसिया रहे थे। क्या रात भर गवनई ठाने हो। भेली देकर सबको बिदा करो “
आजी का हाथ पकड़ कर उसने उन्हें बैठने को पीढ़ा दिया और पत्तल लगा कर ले आई।
यह कढी भात भी तो आजी की कमज़ोरी ठहरी।
आंगन ढ़ेर सारी रोशनी में चमक रहा था। लट्टुओं से फूटती पीली रोशनी में मंड़वे में बिखरे पीले चावल और पीले लग रहे थे। कलश पर जलता दिया और पीले ऐपन की छाप से फूटती वही गाढ़ी गंध। जौ के पिसान में हल्दी मिलाकर बनाए हुए चीकस की गंध भला आजी से कैसे अपरिचित होती। अपने ब्याह में तो वे पांच दिन इस गंध में बसी रह गई थीं।
ओसारे से लगे नहान घर से झर झर पानी बहने की आवाज़ आ रही थी।
मावा ने रामसूरत बो का हांथ पकड़ कर समझाया – ” रतिया को काहें नहा रहे हैं बचवा! ई बात ठीक नहीं है। कल बरात जाने से पहले नहछू नहान होने का पद है न बच्ची, रोकना चाहिए था तुम्हें “
रामसूरत बो का चेहरा धुआं धुआं हो उठा।
इधर उधर देखने लगीं वह।
रामसूरत कई बार कड़ी आंखों से मावा को देखते हुए गुजरे। उन्हें इस समय आजी का यहां होना सुहा नहीं रहा था।
मगर आजी पर कोई असर नहीं था।
एक टोह थी उनके मन में जो अब पक्की हो गई थी।
हां
पार्वती का खून सना शरीर गठरी होकर सिपाहियों के पैरों के पास पड़ा था।
पोस्ट मार्टम के लिए जा रही थी देह।
गांव जुटा था वहां।
इकलौते बेटे को खबर भेज दी गई थी। पट्टीदार जुट कर सारा कुछ देख सुन रहे थे।
सबकी हवाई उड़ी हुई थी।
कतल हुआ था कतल!
गांव में थाना पुलिस की नौबत आ गई थी।
सूंघने वाला कुत्ता खून के निशानों के पीछे-पीछे डंगरा रहा था।
सबेरे सबेरे रामसूरत के बेटे की बारात रवाना हो उठी थी
आजी के मन में आंधी चलने लगी थी। कलेजा काबू में नहीं आ रहा था। देह निचुड़ उठी। पहली बार हो रहा था यह कि वे ऐसे छटपटा उठी थीं। अन्याय पर सुलग उठने वाले उनके तपाक पर जैसे बरफ रख दिया गया था।
आपसे अब क्या बताएं कि आजी गांव के उसर बियाबान में उधिराए हुए पत्ते की तरह भटक रहीं थीं।
बात आगा पीछा सोचने की नहीं थी, बात पूरा समझने की भी थी।
घटनास्थल के चारो ओर फीता तान दिया गया था। पुलिस बार बार नज़दीक पहुंच जा रही भीड़ को खदेड़ रही थी। भीड़ में खड़ी औरतें बयान काढ़ कर ऐसे रो रहीं थीं कि छोटे बच्चों के रोने ने भी सुर पकड़ लिया था। घूरे पर हरियाए पाकड़ पर उतरे पक्षी तक बहुत बेचैन हो उठे थे। गूंग भटकैया पर खिला पीला कोमल फूल भी सदमें से कांप रहा था।
आजी ने सिपाहियों की मुस्तैदी देखा तो सिपाहियों ने भी आजी की दबंगई देख ली। उन्होंने चिल्लाने के लिए मुंह खोला ही था कि दरोगा ने उन्हें आने देने का इशारा किया था। आजी ने उसे आशीष से भर दिया और आंसुओं में बिखरती हुई सी वहां हल गईं।
पार्वती अकेली मुसम्मात थी। गोती दयादों से बंटवारा हो चुका था। ताल किनारे की धनगर खेती मिली थी उसे। अधिया बटाई पर खेती कराती। दस दर्जा पढ़ी हुई थी पार्वती इसलिए पति के मरने के बाद एवजी में पियून की नौकरी पा गई। नौकरी शहर के एक सरकारी कॉलेज में थी। वहीं उसने अपनी रिहाइश भी कर ली थी।
यहां गांव में बने घर पर ताला चढ़ा रहता। जब आती तब ताला खुलता। कल रात मुकदमे में जीत के बाद आई थी। मुकदमा राम सूरत से था। रामसूरत ने उसके धनहर खेत का एक बड़ा हिस्सा अपने खेत में मिला लिया था। उसके बटैया पर खेती करने वालों पर अक्सर असलहा लेकर लोगों को कुदा देते। गांव में उनकी इस दबंगई का कोई विरोध नहीं था। गांव वाले गम खा कर समझौता करने के लिए कहते। कहते कि अकेली हो किसके दम पर लड़ोगी। पार्वती कहती कि, ‘ न्याय के दम पर लड़ेगी ‘। पार्वती ने मुकदमा कर दिया था। और कल वह मुकदमा जीत गई थी।
देखो कि फैसला भी कब आया जब लल्लू घोड़ी चढ़ने वाले थे।
रामसूरत ने पार्वती को मिलाने के लिए बड़े उपाय किए थे। और जब वह नहीं मानी तो उसकी बदनामी पर तुल गए मगर पार्वती हमेशा डटी रही। उसका वकील भी डटा रहा। हालांकि भीतर ही भीतर गांव भी पार्वती के ही साथ था। पार्वती से सबको मोह माया थी। लालची और स्वार्थी औरत नहीं थी पार्वती। अपनी पुश्तैनी रिहाइश उसने अपने जेठ के हिस्से कर दी थी। एक पैसे का दावा वहां नहीं किया और मलहिया वाली अपनी जमीन के टुकड़े पर उसमें यह दो कमरे बनवाए थे। एक छोटा सा ठिकाना बारी फुलवारी से घिरा हुआ।
आजी ने उस बारी में हल कर देखा। फूल वैसे ही खिले हुए चमक रहे थे। तेज़ पड़ती धूप में भंटा टमाटर के पौधे कुम्हलाए ज़रुर थे। अजनबी लोगों के चलने से कुचली हुई दूब भी रोई रोई लग रही थी। संक्षिप्त से ओसारे के एक हिस्से में बनी रसोई का सब उल्टा पल्टा था और ताक पर मिठाई का एक अध खुला डिब्बा पड़ा था। पुलिस ने हर चीज़ घेर दी थी। अंदर एक कमरे में भीषण संघर्ष के निशान थे। ढेर सारा खून फैला था। और कमरे में वही गाढ़ी गंध थी, उसी हल्दी और तेल की। हर गंध पर भारी थी वह गंध।
सब कुछ पर उतराई हुई गाढ़ी गंध हल्दी तेल की।
अफना उठी आजी।
सांस लेना दूभर हुआ उनके लिए।
उनकी उपस्थिति के प्रति उन्मुख हुआ थाने का अमला भी अस्थिर हो उठा। सब कुछ इस बूढ़ी औरत के सामने उधड़ा पड़ा था। उधड़ी पड़ी थी एक औरत की देह। नुची हुई खून में डूबी।
खून से भरी वह घसीटी गई थी।
कलेजा धमधमा रहा था आजी का मगर इस बेरहम दृश्य में न जाने क्या था कि वह उनकी शिराओं में घुल रहा था। वे अचेत होने की हद तक बेध्यान थीं। उस स्त्री को अपने कलेजे में भर रहीं थीं वे। बुदबुदा रही थीं।
दरोगा उन्हें गहरे निरखता हुआ क़रीब आया, – कुछ कहना है माता जी!
सूनी आंखों से उसे देख उठी आजी। बोल पड़ीं – नियाव करे बचवा,नियाव करे ….’
दरोगा अब उन पर ध्यान देने लगा। निश्चिंत होकर कहिए माते बताइए आप। एकदम चिंता मत करिए न्याय होगा।
बचवा! कह कर फफक पड़ी आजी ढ़हने वाली थी कि वर्दी में कसी स्त्री ने आकर उन्हें संभाल लिया।
दरोगा रहा होगा आजी के दामाद की उम्र का। तीखी चमकती आंखों से वह चारों तरफ टोह ले रहा था। सिपाही उस छोटे से घर में हर चीज़ हर तफ़सील देख रहे थे। सूंघने वाला कुत्ता मंडराता हुआ घूमता आजी के पास भी आया फिर बाहर दौड़ गया। घटना के भीतर भरी हुई क्रूरता को समझने और फैसला लेने की ज़हमत अब पुलिसिया विभाग की थी।
बाहर अब एक छितराया हुआ हुजूम था। उसमें गांव की औरतें और वृद्ध ही थे। नौजवान जैसे कहीं भागे हुए थे। मलहिया का यह इलाका नदी से सटा हुआ था। बस्ती के अन्य घरों के मुकाबले यह एक खुली जगह में था और इसके सामने ही पंचायत का बड़ा बगीचा था, बंसवारी थी।
तिजहरिया हो गई थी जब पार्वती की देह गठरी होकर बाहर निकाली गई। आजी वहीं थीं। जैसे वह मरी हुई औरत उनसे कोई वायदा ले चुकी थी। सारे गर्द गुबार और भय में वे वहीं सब देखती रहीं। छोटी सी गृहस्थी के औंधे पड़े रंग की तस्वीर उनकी आत्मा में छप चुकी थी।
पोस्ट मार्टम के लिए ले जाई जाती उस देह के लिए उनका आर्तनाद जिसने सुना वहीं जम गया था। आते हुए आजी जिस रास्ते पर उतर कर आईं वह उनके घर का रास्ता नहीं था। खाले में उतरती हुई वे बसवारी में घुस गई। एक बीघा की उस सघन बसवारी में पानी से भरी हुई गड़हियों में पक्षी खेल रहे थे। हवा से हिलती हुई काई के ऊपर बांस की सूखी पत्तियां हलर रही थी। गड़ही पानी के सांपों का घर थी। पतले गहरे रंग वाले पानी के सांप सर्र सर्र पानी की सतह पर सरसराते। दिन दुपहरिया में गाय बकरी चराने वाले इस गहरी छाया में सुस्ताने चले आते थे। बसवारी में साही सियार और घड़रोज भी छुपे रहते।
अभी ही आजी को विशाल पीपल के नीचे की घनी झाड़ में हलचल सुनाई दी। वे निस्पंद सी उसे देखने लगीं। दरअसल वे कुछ भी नहीं देख रही थीं।
पार्वती की रक्तरंजित देह अपने सारे दुख के साथ उनके भीतर उतर चुकी थी। उसमें उन्हें हमेशा अपनी ही छाया दिखी थी। उसके साहस को वह बहुत महसूस करती थीं। रामसूरत ने जब अनाप शनाप फैला कर पंचाइत बैठाई थी, उस वक़्त गांव में नहीं थीं वे। पंचकोसी पर निकली थीं। पार्वती का बेटा उधार की साइकिल लेकर उन्हें खोज रहा था। उसकी साइकिल पर बैठ कर जब वे गांव पहुंची, फैसला हो चुका था। मलहिया का भैरो बेशर्मी से दांत निपोरता खड़ा था। पार्वती के साथ उसे देखने वाले कई बारी-बारी से वर्णन कर चुके थे। सब सुनता हुआ समाज ऐसे स्थिर था जैसे तस्वीर में हो।
गू भर दो इसके मुंह में, हरामजादी बस्सा गई है। ‘
गुर्रा रहा था रामसूरत।
सांप सूंघे उस समाज से वह उठने को था ही कि आजी ने उसके सारे हिसाब पर पानी फेर दिया। एक एक के घर को उधेड़ कर रख दिया बुढ़िया ने। रामसूरत गुंडई पर आ गए। उनके लठैत भी सुगबुगा उठे थे मगर हलचल मच गई थी। औरतें आगे आ गईं।
‘ आजी पर आंच आई तो मामला पलट जाएगा अमीन जी!’
सहम गए रामसूरत। अपनी दसों अंगुलियां फोड़ती आजी भैरो की ओर बढ़ी ही थीं कि उसकी मां घिघियाती हुई आजी के पैरों पर गिर पड़ी – ‘ मावा! तोहें तोरे सत की किरिया, सरापा मत, मत सरापा मोर पुरखिन! तोहरे दुआरे चेरी होय के बंन्ह जाब ‘
सब साफ हो गया था, दूध का दूध पानी का पानी हो गया।
पार्वती का बेटा आजी से चिपट कर बिलख उठा था।
कैसा सुघर जवान हुआ है वह लड़का।
कैसे सहेगा इस दुःख को।
आजी के बूढ़े स्तन जैसे अपनी नसों में कस गए। दूध उतर रहा हो उनमें जैसे।
आंसू से गढ़ुआई आंखों में एक निर्भीक निश्चय उग रहा था। बार बार अपनी अकेली जान की रक्षा के विचार से लड़ रही थीं।
चलते चलते उन्होंने दरोगा से कहा था कि वह उन्हें थाने बुला ले। उन्हें कोई बयान देना है। तिखारा था उसे उन्होंने कि ‘ बेर मत करना बचवा नहीं तो अनर्थ हो जाएगा। मुझे इस खून के निशान मालूम हैं ‘
वहां मौजूद सभी लोग इस बूढ़ी औरत के उन्माद भरे रवैए को अचरज से देख रहे थे। एक फुसफुसाहट भी मंडरा उठी थी।
शाम हो चुकी थी। बसवारी से निकल कर घर आने के बजाय आजी रामसूरत के घर के दरवाज़े पर खड़ी थीं। आज वहां उन्हें भीतर जाने से रोका गया। देखा उन्होंने, यह महेश पहलवान का छोटका लड़का था तीरथ।
आजी के चढ़े हुए चेहरे पर आंख गड़ाए वह उन्हें भीतर जाने से बरज उठा – सब सूतल बा मावा, जा घरे जा ‘
उसकी शामत आई थी कि वह उसने मावा को ठेलने में हांथ लगा दिया।
अब जो अमला आजी की चीत्कार फूटी तो दुआर पर बंधे मवेशी तक हिल गए।
वे महेश की सात पुश्तों को मिट्टी में मिला रही थीं। उनके आर्तनाद में कतली खूनी के निर्बंश हो जाने की दुहाई थी। हांथ उठा-उठा कर चिल्ला रही थीं वे कि जो मरी है उसका श्राप पूरे गांव पर है। अब धूर उड़ेगी। गिद्ध टूटेंगे सबके आंगन में। बचा सको तो बचा लो अपने को।
रामसूरत के आंगन में यह श्राप मंडरा रहा था। उसकी स्त्री फूट फूट कर रो रही थी। औरतें भय से मरी जा रही थीं और बच्चों का रोना भी समवेत होकर बढ़ता ही जा रहा था।
वकील आजी से यह कहने की ज़ुर्रत कर बैठा – ‘ बयान पर टिकी रहेंगी न, टूटेगीं तो नहीं ‘
तमक उठीं आजी – ‘ तू मुंहफुकौना बिक न जाए, तोर इमान न एहर ओहर हो, ई देख। फेर कुछ अइसन कहबे त कुल दंतवा तोर तोरे पेटवा में उतार देब ‘
आजी के दमाद ने वकील को आड़े ले जाकर समझाया। जितना ज़रुरी था उतना इतिहास भूगोल जानता था वह मगर आग फेंकती इस बुढ़िया का तपाक उसके लिए भी अचरज था।
रामसूरत के बेटे की बरात लौटने से पहले ही पुलिस ने उसके ख़ून सने कपड़े बरामद कर लिया था। आजी की गवाही ही नहीं थी निगरानी भी थी।
गांव पूरा पहले तो दुबका हुआ था मगर आजी घर-घर जाकर मंडराती रहीं।
उसकी निडर आवाज़ का ज़ोर घातक था।
पुख़्ता सबूत मिलता चला गया।
सूट-बूट में सजे लल्लू हथकड़ी में बंध गए थे। रामसूरत के चेहरे पर भी आग खेल रही थी।
आजी भी आर या पार खेल जाने के जोम में थी। चिल्ला रही थी – कोई अमरौती का घरिया पी कर नहीं आया है। सबको जवाब देना है, वहां जवाब देना है ‘
अदालत में लल्लू का वकील फंसाने पर तुला था। बात बदल बदल कर झुला रहा था आजी को – ‘माता जी आपने बताया कि बहुत अंधेरा था गली में ‘
आजी झिड़क उठीं उस-‘ बेर बेर पुछबे त का अजोर हो जाई ऊंहां ‘
रामसूरत के मुंह पर अंधेरा उतर आया था।
आजी अडिग रहीं। मट्ठे की तरह मथे हुए सवालों का सामना किया और पूछा – माई की उमर की औरत के साथ दुष्कर्म किया और घसीट-घसीट कर मारा वकील बाबू, सब त साबित हुआ कि नहीं, ई जान लो कि आंख ही नहीं नाक भी हमारी तेज है, बबुआ के देह में लगे हरदी तेल की बास मुझे कभी नहीं भूलेगी बचवा!
अरे ए जज बचवा! अइसहिं सब पापिन के बचावै खातिर कुर्सी मिली है का, कुछ तो दऊ से डरो। सब हिसाब इहैं देना है ‘
इकलौते लल्लू सुप्रीम कोर्ट से भी रिहाई नहीं पा सके थे।
आजी इस मामले के बाद थक गई थीं।
सब कहते कि उन्हें दुनिया उजड़ी हुई लगने लगी थी।
चंद्रकला त्रिपाठी
सम्पर्क : प्लॉट नं 59, लेन नं 8 ए, महामना पुरी कॉलोनी एक्सटेंशन, पोस्ट – बीएचयू, वाराणसी 221005
ईमेल- vntchandan@gmail.com
चित्रकार : सोनी पाण्डेय
ग्रामीण संवेदनाओं की कहानियों के लिए ख्यात सोनी पाण्डेय का जन्म 12-07-1975 को मऊ नाथ भंजन (उत्तर प्रदेश) में हुआ। 2014 में पहली बार ब्लॉग पर प्रकाशित ‘प्रतिरोध’ शीर्षक कहानी से अपनी कथा यात्रा शुरू करनेवाली सोनी पाण्डेय के दो कहानी-संग्रह ‘बलमा जी का स्टूडियो’ तथा ‘तीन लहरें, एक कविता संग्रह ‘मन की खुलती गिरहें’ और एक आलोचना-पुस्तक ‘निराला का कथा साहित्य: कथ्य और शिल्प’ प्रकाशित हैं।
बढ़िया कहानी – ऐसा जिगरा कहाँ सब में होता है.