लेख
आधुनिक कथा–साहित्य और बिहार का यथार्थ
- रमेश कुमार गुप्ता
जहाँ सबसे अधिक दमन होता है, मुक्ति की शुरुआत वहीं से होती है’,वरिष्ठ कथाकार एवं प्रतिष्ठित पत्रिका ‘हंस’ के सम्पादक ‘राजेन्द्र यादव’ के इस कथन से ही मैं अपनी बात शुरू करता हूँ कि यह जो हमारा बिहार है, वह हालिया विकास के बावजूद आज भी सामाजिक–राजनैतिक शोषण, उपेक्षा, घृणा, हिंसा, लूट, बदहाली, गरीबी एवं पिछड़ेपन का शिकार बना हुआ है, जिससे मुक्ति को लेकर बिहार के लोगों में एक गहरा आक्रोश, बेचैनी एवं खलबलाहट है । वैसे यहाँ सामाजिक न्याय एवं अधिकार की लड़ाई शुरू तो हुई थी, लेकिन वह भी अँधेरी गली में जाकर गुम हो गयी और उसका लाभ बिहार की विशाल उपेक्षित–वंचित आबादी को पूरी तरह मिल नहीं सका । ‘साहित्य’ का विद्यार्थी होने के नाते मैं अपनी बात साहित्य के माध्यम से ही रखना चाहूँगा । वैसे भी साहित्य अपने समय के समाज के यथार्थ की प्रतिच्छवि होता है और साथ ही वह अपने भीतर एक सुन्दर भविष्य का स्वप्न भी समेटे होता है । जहाँ तक साहिय की कथा–विधा का सवाल है, उसका उदय तो आधुनिक जीवन के यथार्थ की जटिलता को चित्रित करने के लिए ही हुआ, इसलिए आज हमारे बिहार का जो जटिल–यथार्थ हैय उसका वास्तविक चित्रण उसके कथा–साहित्य में हो रहा है । आज बिहार की जो सामाजिक–राजनैतिक दुरावस्था है और उससे मुक्ति को लेकर लोगों में जो गहरी छटपटाहट एवं बेचैनी है, उसको हमारा आधुनिक कथा–साहित्य बखूबी रेखांकित कर रहा है ।
आज की तारीख में बिहार के यथार्थ को चित्रित करती सबसे महत्त्वपूर्ण कहानी रेणु के बाद की पीढ़ी के बिहार के महत्त्वपूर्ण कथाकार रामधारी सिंह दिवाकर की कहानी ‘पब्लिक’ है जो बिहार के राजनैतिक चरित्र एवं हालात को उजागर करती है । यह कहानी यह दिखाती है कि बिहार में सामाजिक न्याय की लड़ाई के दौरान जो पिछड़ों का नया राजनैतिक नेतृत्व उभरा थाय वह व्यक्तिगत हित एवं लाभ के लिए कैसे उन्हीं तत्त्वों से हाथ मिला बैठाय जो सामाजिक न्याय की लड़ाई के विरोधी एवं सामंतवाद के पोषक थे । यह कहानी ईमानदारी से यह भी दिखाती है कि ‘जनता’ (पब्लिक) सिर्फ इस्तेमाल की चीज है, जिसे अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करके उसको मरने के लिए छोड़ दिया जाता है और वह ‘पब्लिक’ अपने का इस्तेमाल किया जाता देखने को अभिशप्त है । रामधारी सिंह दिवाकर की एक और उल्लेखनीय कहानी ‘रंडिया’ है, जो बिहार के समकालीन राजनैतिक एवं सामाजिक यथार्थ को बखूबी उजागर करती है । यह कहानी बिहार के स्थानीय निकायों में महिलाओं का आरक्षण के कारण नयी–पुरानी सामाजिक–राजनैतिक मानसिकता के टकराहट एवं द्वन्द्व की कहानी है । उसी तरह बिहार के वर्तमान यथार्थ को चित्रित करने वाला रामधारी सिंह दिवाकर का नया उपन्यास ‘दाखिल–खारिज’ है, जो वर्तमान बिहार के गाँव के परिवर्तित परिवेश एवं मानसिकता को रेखांकित करता है । रेणु के बाद बिहार के गाँव में कितना कुछ परिवर्तन आया है यह उपन्यास उसे बखूबी दिखाता है । रामधारी सिंह दिवाकर इसके पहले भी निरन्तर बिहार के सामाजिक यथार्थ को लेकर कई विश्लेषणपूर्ण कहानियाँ एवं उपन्यास लिखते रहे हैं । ‘माटी–पानी’ (कहानी) एवं ‘आग–पानी आकाश’ (उपन्यास) ऐसी ही कथा–रचनाएँ हैं, जिनमें उन्होंने दलितों–पिछड़ों के उभार एवं उनका समाज में उन्हीं प्रभु वर्ग में रूपान्तरण हो जाने की प्रक्रिया को जीवन्तता से चित्रित किया है, जिसके शोषण एवं वर्चस्व से लड़ते हुए वे उभरे हैं । ये कथा–रचनाएँ बिहार के समाज व राजनीति में पिछड़ों–दलितों की अस्मिता के उभार एवं उनके वर्तमान हश्र की गवाह हैं । एक तरह से ये बिहार के तत्कालीन सामाजिक यथार्थ की दस्तावेज हैं ।
यही नहीं आजादी के बाद के बिहार बदलते राजनैतिक परिदृश्य को उदाहृत करती एक और महत्त्वपूर्ण कथा–कृति है और वह है सामाजिक अन्तर्विरोधों के कथाकार प्रेम कुमार मणि का उपन्यास ‘ढलान’ जिसमें आजादी के बाद के बिहार के राजनैतिक–पटल पर सवर्णों के वर्चस्व के ढलान एवं पिछड़ों के उभार को पूरे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के साथ रेखांकित किया गया है । साथ ही इसमें भूदान–आन्दोलन के अन्तर्विरोधों को भी उद्घाटित किया गया है । एक तरह से ‘ढलान’ उपन्यास आजादी के बाद के बिहार के राजनैतिक–यथार्थ का जीवन्त दस्तावेज हैय जिसको पढ़कर हम बिहार के राजनैतिक विकास एवं द्वन्द्व को जान–समझ सकते हैं । सामाजिक–चेतना सम्पन्न कवि सुरेन्द्र स्निग्ध की औपन्यासिक कृति ‘छाड़न’ भी बिहार के कोसी–अंचल में सदियों से दमित शोषित पिछड़ों–दलितों के उभार की ऐतिहासिक प्रक्रिया को प्रयोगात्मक शैली में उद्घाटित करती है और साथ ही यह भी दिखाती है कि कैसे वह उभार एवं आन्दोलन गलत नेतृत्व के हाथों में चला गया ।
समकालीन हिन्दी कहानी में अपनी बहुयथार्थवादी कहानियों से गम्भीर उपस्थिति दर्ज कराने वाले कथाकार ‘अवधेश प्रीत’ की कहानी ‘ठिठोली’ भी एक प्रतीकात्मक–लोककथा शैली में बिहारी समाज में प्रभुत्वशाली वर्गों के वर्चस्व को चुनौती देते हुए प्रभुत्वहीन वर्गों के उभार को रेखांकित करती है । अवधेश प्रीत हमारे समय के एक महत्त्वपूर्ण कथाकार हैंय जिन्होंने विभिन्न सामाजिक–राजनैतिक यथार्थ पर कई महत्त्वपूर्ण कहानियाँ लिखी हैं । अवधेश प्रीत की ‘तालीम’ कहानी एक महत्त्वपूर्ण यथार्थपरक कहानी है । जो बिहार में दलितों–वंचितों के शिक्षा के प्रति समाज की सामंतवादी मानसिकता को उजागर करती है और यही नहीं दलितों के राजनैतिक नेतृत्व के सामंतवादी मानसिकता के हाथों बिक जाने को भी रेखांकित करती है, जो प्रकारान्तर से हमारे राजनैतिक नेतृत्व के भ्रष्ट होने को ही चिन्हित् करती है । यह कहानी हमारी जनता के संकल्प की भी कहानी है, जो विरोधों के बावजूद हारना नहीं जानती । इसी तरह ‘ग्रासरूट’ कहानी बिहार के राजनैतिक चरित्र (जिसमें वामपन्थी राजनैतिक चरित्र भी शामिल है) के भ्रष्ट या बिके होने को उजागर करती है । यह कहानी यह भी दिखाती है कि कैसे हमारा राजनैतिक नेतृत्व जनता को अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करके अपन हाल पर मरने के लिए छोड़ देता है । यानी जनता के दुख–दर्द पर अपनी राजनैतिक रोटी सेंकता है और फिर उसे भूल जाता है । यह कहानी अपने व्यापक फलक पर आजादी के बाद के भारतीय राजनैतिक चरित्र के भ्रष्ट हो जाने एवं दोहरे चरित्र को जीने को रेखांकित करती है । अवधेश प्रीत की ‘ग्रासरूट’, राजेन्द्र यादव के ‘उखड़े हुए लोग’ एवं मन्नू भंडारी के ‘महाभोज’ की ही अगली कड़ी है, जो तथाकथित प्रतिबद्ध राजनैतिक नेतृत्व के भ्रष्ट हो जाने को दिखाती है । यह कहानी है एक ही साथ कई स्तरों पर घटित होती है, यह जहाँ एक ओर वर्तमान राजनैतिक नेतृत्व के भ्रष्ट होने को रेखांकित करती है तो दूसरी ओर वर्तमान राजनैतिक नेतृत्व से जनता के मोहभंग को भी उजागर करती है और तीसरी ओर जनता की मुक्ति का भी संकेत करती है क्योंकि जब तक हम जनता का वर्तमान राजनैतिक नेतृत्व से मोहभंग नहीं होगाय तब तक जनता की मुक्ति का रास्ता नहीं खुलेगा । यहाँ अवधेश प्रीत की कहानी यह प्रश्न भी खड़ा करती है कि क्या सत्ता का एक विशिष्ट एवं प्रतिगामी चरित्र होता है, जहाँ वाम–दक्षिण किसी विचारधारा का व्यक्ति हो उसे भ्रष्ट होना ही है ? संजय कुन्दन की कहानी ‘मेरे सपने वापस करो’ भी इसी द्वन्द्व को उठाती है कि आखिर कोई व्यक्ति एक प्रतिबद्ध विचारधारा या आन्दोलन के लिए जीते–मरते कैसे सुविधावादी एवं भ्रष्ट हो जाता है और अपनी प्राथमिकता बदल बैठता है । यहाँ रामधारी सिंह दिवाकर की ‘पब्लिक’ कहानी का स्मरण हो आना स्वाभाविक हैय जो यह दिखाती है कि परस्पर–विरोधी वर्गहितों की राजनीति करने वाले भी सत्ता–सुविधा एवं स्वार्थ के लिए अपने से सम्बद्ध जनता की सारी आशाओं पर तुषारापात करते हुए एक–दूसरे से हाथ मिला बैठते हैं ।
बिहार के सामाजिक–राजनैतिक यथार्थ का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि जहाँ बिहार के बदलते सामाजिक–राजनैतिक परिदृश्य में दलितों–पिछड़ों का उभार हुआ है, वहीं समाज के सवर्ण वर्ग के आर्थिक दृष्टि से विपन्न व्यक्ति के अपने पुरातनवादी विचारों एवं संस्कारों से जूझने एवं उससे मुक्त होने की प्रक्रिया भी निरन्तर घटित हुई है और इसका सबसे महत्त्वपूर्ण गवाह प्रसिद्ध कथाकार–नाट्यकार हृषिकेश सुलभ की कहानी ‘पाड़े का पयान’ है, जो नब्बे के बाद के दौर में छपी एवं चर्चित हुई थी । इस कहानी में बड़ी बारीकी से यह दिखाया गया था कि पिछड़ों–वंचितों में राजनैतिक उभार के कारण सवर्ण वर्ग का व्यक्ति अपने को काफी उपेक्षित एवं अधिकारहीन महसूस कर रहा था और अपने अहं एवं जड़ संस्कारों से मुक्त नहीं हो पा रहा थाय परन्तु बदलते परिप्रेक्ष्य में अपने अस्तित्व–रक्षा के लिए उसे अपने अहं एवं संस्कारों से लड़ना पड़ता है और बदलते समय की सच्चाइयों को स्वीकारना पड़ता है । हृषिकेश सुलभ की ‘पाड़े का पयान’ मंडल के बाद के बिहारी समाज के यथार्थ का एक महत्त्वपूर्ण अनछुआ पहलू उजागर करती है । कमोबेश इसी जमीन की कहानी निम्नमध्यवर्गीय जीवन की विडम्बनाओं के कथाकार राजेन्द्र सिन्हा की ‘जाल’ है जिससे निम्नवित्तवर्गीय उस सवर्ण व्यक्ति की कहानी हैय जो सिर्फ अपने तथाकथित आभिजात्य (सामंती) वह भूमिहीन एवं निर्धन होता जाता है । एक समय स्थिति ऐसी आती है कि उसकी बेटी के विवाह में जूठे पत्तल उठाकर फेंकने वाला कोई दलित–मजदूर नहीं होता, अतएव उसे खुद जूठे पत्तल उठाकर फेंकना पड़ता है । यह कहानी तो यहीं खत्म हो जाती है, लेकिन वह गहरे संकेत छोड़ जाती है । वह संकेत है,व्यक्ति के अपने संस्कारों से मुक्त होने की । यहाँ ‘जाल’ कहानी के साथ ही ‘पाड़े का पयान’ कहानी को देखा–पढ़ा जा सकता है । जहाँ ‘जाल’ अपने रूढ़ संस्कारों के जाल में उलझे हुए व्यक्ति की मन:स्थिति और उस जाल से मुक्त होने की उसकी कोशिश को दिखाती है, वहीं ‘पाड़े का पयान’ भी उसी तरह अपने बद्ध संस्कारों से व्यक्ति को मुक्त होने की प्रक्रिया को दर्शाती है । निस्संदेह दोनों कहानियों के बिना बिहार के सामाजिक–यथार्थ को उसके पूरे सन्दर्भ में नहीं देखा–समझा जा सकता । वैसे हृषिकेश सुलभ ने बिहार के सामाजिक–राजनैतिक यथार्थ पर बूड़ा वंश कबीर का, व्यास ब्रह्म एवं वधस्थल से छलांग जैसी कई महत्त्वपूर्ण कहानियाँ लिखी हैं ।
बिहार में जो भूमि–संघर्ष एवं आन्दोलन है उसको लेकर बिहार के कई कथाकारों ने महत्त्वपूर्ण कथा–रचनाएँ की हैं । जिनमें हमारे समय के महत्त्वपूर्ण कथाकार ‘संजीव’ की कहानी ‘पूत! पूत! पूत!’ उल्लेखनीय है । यह कहानी यह दिखाती है कि बिहार की भूमि–संघर्ष एवं आन्दोलन कैसे जातीय संघर्ष एवं प्रतिहिंसा में बदल गये हैं । यह कहानी यह भी बताती है कि बिहारी (भारतीय) समाज में जाति (वर्ण) एक सच्चाई है, जिससे अन्तर्विरोधों को जाने–समझे बिना वर्ग के द्वन्द्व को नहीं समझा जा सकता और न ही उससे लड़ा ही जा सकता है । बिहारी (भारतीय) समाज में कई बार वर्ग–भिन्नता के बावजूद केवल जाति–मोह के आधार पर ही चीजों का समर्थन या विरोध तय किया जाता है । तभी तो बुरे–से–बुरे व्यक्ति को भी अपनी जाति–सम्प्रदाय के नाम पर वोट देकर लोग जीता देते हैं । रामधारी सिंह दिवाकर की कहानी ‘इस पार के लोग’ भी इसी बिहारी सामाजिक–यथार्थ की ओर संकेत करती है । मध्य बिहार के भूमि–संघर्ष पर ही नरेन की कहानी ‘कारतूस’ भी कई मायने में महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इस कहानी में वाम नेतृत्व के विचलन को दिखलाया गया है, जिसके चलते वाम–आन्दोलन अपने लक्ष्यों से भटक गया है । यह कहानी यह दिखाती है कि बिहार का जो भूमि संघर्ष एवं आन्दोलन है उसमें निचली पांत के जुझारू एवं समर्पित कार्यकर्त्ताओं की निष्ठा एवं विश्वास को नेतृत्व द्वारा कैसे छला या ठगा जा रहा है और उनको अकेले मरने के लिए छोड़ दिया जा रहा हैµविचारों की नकली कारतूस थमाकर । जयनन्दन की कहानी ‘विषवेल’ की म/य बिहार के जातीय–संघर्ष एवं हिंसा पर केन्द्रित कहानी है, जो यह बताती है कि हिंसा का कोई अन्त नहीं होता, इसलिए वह किसी समस्या का आखिरी समाधान नहीं । क्योंकि अंतत: मानवीय मूल्यों की ही विजय होनी है और हिंसा को हारना ही हैं । कमोबेश यह कहानियाँ बिहार के सामाजिक–यथार्थ का संधान करती उसकी समस्या की जड़ों को टटोलती एक सार्थक निदान ढूँढ़ने की कोशिश करती है ।
बिहार के सामाजिक यथार्थ की एक महत्त्वपूर्ण कहानी मध्यवर्गीय जीवन के विद्रूपताओं के कथाकार सन्तोष दीक्षित की ‘ग्राफ’ हैय जो बिहार के सामाजिक राजनैतिक विद्रूप–विकास का रूपक है । आजादी के बाद बिहार का जो विकास हुआ है, वह किस तरह की विद्रूपता का शिकार हुआ है यह कहानी प्रतीकात्मक ढंग से उजागर करती है । विकास का जो प्रचलित भौतिकवादी मॉडल हैय उसका अंधाधुंध अनुकरण हमारे समाज को कहाँ ले जा रहा है,सन्तोष दीक्षित की यह कहानी ‘विरुद्धों के सामंजस्य’ द्वारा दिखाती है । पत्रकारिता को कथा में रचनात्मक स्तर पर सम्भव करने वाले कथाकार हेमन्त की कहानी ‘क्रिमिनल रेस’ बिहार में अपराध एवं राजनीति के गठजोड़ एवं उसके प्रशासन में हस्तक्षेप को उद्घाटित करती है । वर्तमान बिहारी समाज में जो अपराध की प्रवृत्ति बढ़ी है और राजनैतिक नेतृत्व ने अपने स्वार्थ के लिए उसका इस्तेमाल किया है उसके चलते पूरे सिस्टम की कार्यप्रणाली खतरे में पड़ गयी है । यही नहीं यह कहानी यह भी दिखाती है कि बिहारी समाज में हर चीज को जाति के सन्दर्भ में देखा जाता है और उसी के आधार पर निष्कर्ष तय किए जाते हैं । हेमन्त की ‘हंस’ में ही प्रकाशित कहानी ‘वेटिंग फॉर पोस्टिंग की दास्तान’ भी बिहारी–समाज के ही एक यथार्थ को उजागर करती है और वह यथार्थ है,कार्य–संस्कृति के झोल का । यह बिहार ही है जहाँ फाइलों में मरा हुआ आदमी को जिन्दा मान लिया जाता है और जिन्दा आदमी को मरा हुआ घोषित कर दिया जाता है । यह बिहार ही है जिसके बारे में यह कहा जाता है कि यहाँ सब कुछ सम्भव है । यहाँ नियम बाद में बनता है और उसका काट पहले ढूँढ़ लिया जाता है,हेमन्त की यह कहानी इस यथार्थ को बखूबी दिखाती है ।
बिहारी समाज का एक महत्त्वपूर्ण यथार्थ धन कमाने की लालसा में यहाँ के कृषक–मजदूरों का पलायन है । बिहार के मजदूरों का पलायन और उसकी दुर्दशा को चित्रित करती बिहार के ही एक महत्त्वपूर्ण कथाकार अरुण प्रकाश की अपने समय की चर्चित कहानी ‘भैया एक्सप्रेस’ है, जो सम्भवत: इस विषय पर पहली कहानी है । यह कहानी यह दिखाती है कि कैसे बिहार का एक गरीब व्यक्ति अपने परिवार का भरण–पोषण के लिए रोजगार की तलाश में अपने गाँव–घर को छोड़कर बाहर पलायन करता है और वह परदेस में कैसी दुखद नियति को प्राप्त करता है । यदि किसी एक कृति से ही किसी रचनाकार को याद रखा जा सकता है तो निस्संदेह अरुण प्रकाश को उनकी अविस्मरणीय कहानी ‘भैया एक्सप्रेस’ के लिए याद रखा जाएगा । वैसे अरुण प्रकाश ने बिहार के एक विशिष्ट सामाजिक–यथार्थ ‘पकड़ुआ विवाह’ को केन्द्रित करके भी एक महत्त्वपूर्ण उपन्यास ‘कोंपल–कथा’ लिखा है । जिस यथार्थ पर सम्भवत% सबसे पहले जयनन्दन की ‘गिद्ध झपट्टा’ शीर्षक कहानी प्रकाशित हुईय जो इस समस्या की भीषणता को लेकर काफी चर्चा में रही । शैवाल की भी कहानी ‘दामुल’ जिस पर बिहारी फिल्मकार प्रकाश झा ने फिल्म भी बनाई बिहार के ही एक विशिष्ट सामाजिक–यथार्थ के चित्रण को लेकर काफी चर्चित हुई थी ।
यह तो दो–चार उदाहरण हैं इस तरह के अनगिनत उदाहरण हमारे आधुनिक हिन्दी कथा–साहित्य में भरा पड़ा है । बिहार के सामाजिक–राजनैतिक यथार्थ के विभिन्न आयामों (रूपों) को लेकर म/ाुकर सिंह, मिथिलेश्वर, विजयकान्त, चन्द्रकिशोर जायसवाल, चन्द्रमोहन प्रधान उषाकिरण खान, अनामिका, संजय सहाय, राकेश कुमार सिंह, संजय कुमार सिंह, संजीव ठाकुर, नीलिमा सिन्हा, नीलाक्षी सिंह, पूनम सिंह, गीताश्री, कविता, पंखुड़ी सिन्हा आदि ने तो कई महत्त्वपूर्ण कहानियाँ लिखी हैं जिन पर लेख की तात्कालिकता एवं सीमा के चलते यहाँ पर्याप्त चर्चा नहीं हो पा रही है ।
जैसा कि पाठकीयता के सन्दर्भ में यह कहा जाता है कि बिहार नहीं होता तो हिन्दी रचनाशीलता (साहित्य) इतनी सम्भव नहीं हो पाती । इससे यह भी जोड़ा जा सकता है कि यदि बिहार नहीं होता तो हिन्दी की ये कथा–रचनाएँ सम्भव नहीं हो पातीं और हिन्दी का कथा–साहित्य इतना विपुल एवं समृद्ध नहीं होता । यही नहीं हिन्दी कहानी में यथार्थ का इतना विविध आयाम बिहार के कारण ही सम्भव हुआ है । वैसे बिहार का यथार्थ इतना विशिष्ट एवं लाक्षणिक है कि उसमें बिना गहरे धंसे उसका सन्धान नहीं किया जा सकता,ये सभी कथा–रचनाएँ बिहार के यथार्थ में गहरे धंसकर ही सृजित हो पायी हैं । चाहे वह ‘पाड़े का पयान’ हो या ‘जाल’, ‘ग्रासरूट’ हो या ‘पब्लिक’ सब की सब बिहार के यथार्थ को प्रामाणिक ढंग से चित्रित करती हैं और न केवल चित्रित करती हैं वरन् उसे अतिक्रमित भी करती हैं । जिन्होंने एक ओर सामाजिक रूढ़ियों व संस्कारों से मोहभंग व मुक्ति को सम्भव किया है तो दूसरी ओर वर्तमान भ्रष्ट ढपोरशंखी राजनैतिक नेतृत्व से भी मोहभंग को रेखांकित किया है । यही नहीं बिहार की वर्तमान सामाजिक–राजनैतिक समस्या की कुंजी इन्हीं कथा–रचनाओं के भीतर छिपी हुई है जो हमें निरन्तर अभिप्रेरित करती हैं कि जब तक हम अपने रूढ़ियों व संस्कारों से मुक्त नहीं होंगे तथा वर्तमान भ्रष्ट राजनैतिक नेतृत्व से हमारा मोहभंग नहीं होगा तब तक हमारा और हमारे बिहार का कल्याण पूर्णत: सम्भव नहीं ।
रमेश कुमार गुप्ता : जन्म सातवें दशक के अन्त में । शिक्षा : एम–ए– (हिन्दी), पी–एच–डी– (कथाकार राजेन्द्र यादव), कृतियां : रचनाकार का समकालीन परिदृश्य एवं सृजन के सरोकार (शोध एवं आलोचना), ईश्वर किस चिड़िया का नाम है (शीघ्र प्रकाश्य कविता–संग्रह), सम्प्रति : बी–आर–ए– बिहार विश्वविद्यालय के रामदयालु सिंह महाविद्यालय में अ/यापन, संपर्क:919431670598