‘भीत्ति चित्र की मयूरी’ और रेणु का सौंदर्यशास्त्र
फणीश्वरनाथ रेणु युगबोध से परिचालित और प्रेरित ऐसे कथाकार थे, जिनकी दृष्टि भारतीय समाज के यथार्थपरक संश्लिष्ट बिंबों पर केंद्रित थी।रेणु की लोक-संपृक्ति और लोक-चेतना यह चिन्ताकुलता भी सामने ला रही थी कि बदल रहे देश और समाज में जहाँ पूँजीवादी संस्कृति का महत्त्व और वर्चस्व बढ़ता जा रहा है, उसमें लोक-तत्वों के सौंदर्य की रक्षा कैसे हो सकेगी? उनके समक्ष वह बाज़ार भी था, जिसमें कलाकारों के क्रय-विक्रय की पूँजीवादी मानसिकता के कारण ऐसी परिस्थितियाँ निर्मितहो रही थीं, जिसमें भारतीय लोक-संस्कृति के वास्तविक सौंदर्य को बचाए रखने का संकट उत्पन्न हो रहा था। अमेरिका और रूस जैसे राष्ट्र भारतीय सांस्कृतिक तत्वों को भीउत्पादन के रूप में देखने लगे थे, जिनके द्वारा वे अपनी पूँजी के विस्तार का स्वप्न देखते थे तो कुछ भारतीय व्यापारी भी इसके द्वारा अपना हित साधने के लिए निरंतर प्रयत्न कर रहे थे।
रेणु दूरदर्शी थे। वेसमझ रहे थे कि भारतीय लोक सांस्कृतिक तत्वों को केवल अमेरिका और रूस जैसा राष्ट्र ही नहीं बल्कि दिल्ली जैसा महानगर भी उत्पादन के रूप में बाजार में उतारने के लिए उत्सुक है। दूसरी ओर वे यह भी देख रहे थे कि लोक-कलाओंमें इतिहास, परंपरा और संस्कृति को अक्षुण्ण रखने वाली ग्रामीण स्त्रियाँ‘स्वान्तः सुखाय’ के लिएभीत्तियों पर चित्रकारी करती हैं, जो बाजार की मानसिकता से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं। वे स्त्रियाँ न तो अपनी कला केआर्थिक मूल्यों से परिचित हैं और न ही वे यह जानती हैं कि इनका कितना अंतरराष्ट्रीयमहत्त्व है। रेणु ने अपनी अंतिम कहानी ‘भीत्ति चित्र की मयूरी’ की फुलपत्ती और उसकी माँ जैसे सिद्धहस्तकलाकारों की जर्जर आर्थिक स्थिति को दर्शाकर यह तो संकेत दे ही दिया है कि भारत के गाँव कला की दृष्टि से तो काफ़ी समृद्ध हैं, लेकिन उनकी कला का महत्त्व केवल विवाह या अन्य महोत्सवों तक ही सीमित रह जाता है। इस कहानी में सनातनप्रसाद जैसे पूँजीपति की मानसिकता कलाकारऔर कला दोनों के दोहन की ओर संकेत तो देती है लेकिन मानवीय और सामाजिक मूल्यों में निहित रेणु का सौंदर्यशास्त्र सनातन प्रसाद में ग्लानि के उन भावों कोसंचरित कर देता है, जिनसे वैचारिक परिष्कार की मनःस्थिति सामने आती है-“हाहाहाहा…बिकस्केल फोर्ट आर्ट इंडस्ट्री? हीहीही…इंडस्ट्री नगर में…तुम्हारी फैक्टरी में…फुलपत्ती और उसकी माँ का जिबह भोथरी छुरा से करेगा न? मधुबनी शैली का प्रमुख ज्ञाता, वक्ता, अधिकारी बनकर तू लोक-कल्याण वातावरण का पर्दा डालकर अपने प्राइवेट चैंबर में बैठा रहेगा और फुलपत्ती, उसकी माँ ही नहीं सैकड़ों की तादाद में तुम्हारे ‘स्लाटर-हाउस’ में जिबह होगी, चीखती रहेगी…”?पूँजीपतियों द्वारा कलाकारों के शोषण और दोहन की स्थितियाँ कोई नई नहीं हैं, लेकिन रेणु की यह मान्यता थी कि गाँवों एवं भारतीय संस्कृति का संवहन करने वाले कलाकारों के विकास और हित में ही भारत जैसे राष्ट्र की प्रगति संभव है।
आनन्द प्रकाश दीक्षित कहते हैं- “सौंदर्य नवीन ग्रंथियों का सृजन करता हुआ, संस्कार रूप ग्रंथियों को सुलझाता हुआ चलता है”। (सौंदर्य-तत्व, डॉ. सुरेन्द्रनाथ दास गुप्त, भूमिका, पृ. 43) यह बिल्कुल सत्य है लेकिन सौंदर्यानुभूति समय, मनुष्य और मनोविज्ञान सापेक्ष भी है। रेणु वैचारिक सौंदर्य की शक्ति को पहचानते थे। कला को वे काफ़ी पवित्र मानते थे। मानवीय सद्भावनाओं में भी उनका विश्वास था।‘भीत्ति चित्र की मयूरी’ कहानी मेंसनातन प्रसाद के इस आत्मधिक्कार में रेणु का ही सौंदर्यबोध है-“यह क्या कर रहा है तू? बलात्कार? कुमारी को अपवित्र करेगा तू? अपनी वासना पूरी करने के लिए कला का यह व्यापार”?
रेणु का सौंदर्यशास्त्र लोक-सापेक्ष है। मोहनपुर गाँव में फुलपत्ती और उसकी माँ जैसे मधुबनी चित्रकारी में कुशल कलाकार केवल‘स्वान्तः सुखाय’ के भाव से ही उत्सव आदि के समय भीत्तियों या द्वारोंपर मछलियों, मयूरी आदि कोचित्रांकित कर उनमें रंग भरते हैं, जिनसे परंपरा का निर्वाह होता है। रेणु साहित्य एवं कला को परंपरा, समाज और संस्कृति के सौंदर्य से युक्त करके देखते थे और उनकी रचनाओं का सौंदर्यशास्त्र भारतीय मूल्यों को सहेजकर रखने के प्रयास में निहित था। फुलपत्ती द्वार पर जो चित्रकारी करती है, उसमें मछली के रंग लाल हैं, क्योंकि चंद्रभागा नदी में जेठ-आसाढ़ में हजारों मछलियों के जीरे के कारण नदी की धारा लाल हो जाती है।चंद्रभागा नदी (बिहार के स्थानीय लोग इसे चनहा नदी भी कहते हैं।) का भी ऐतिहासिक और पौराणिक महत्त्व रहा है। यह नदी मिथिला एवं अंगदेश की सीमा तक प्रवाहित होती थीऔर बखरी नगर की जीवन-रेखा मानी जाती थीलेकिनआज यह सूख चुकी है और इस भूमि का उपयोग अन्य कार्यों में होने लगा है। रेणु की यही चिन्ताकुलता थी कि जिस तरह कंकरीट का जंगल फैलता जा रहा है और ऐतिहासिक और पौराणिक महत्त्व की चीजें भी उपेक्षित होकर नष्ट हो रही हैं, ऐसी स्थिति में लोक-सौंदर्य से युक्त ये चित्रकलाएँ भी बाज़ार में जाकर उपभोक्तावादी संस्कृति के अनुसार ढलकर अपना सांस्कृतिक सौंदर्य खो देंगी।जिस तरह स्थानीय लोग चुनावी दौर में हीचन्द्रभागा नदी के उद्धार का स्वप्न देखते हैं, उसी तरह लोक-कलाएँ भी उपभोक्तावाद के कारण सांस्कृतिक रंगों और सौंदर्य से विहीन होकर बाज़ार की राजनीति का शिकार होने से बच नहीं पायेंगी।
इसमें कोई दो मत नहीं है किदिल्ली जैसे महानगर ने फुलपत्ती और उसकी माँ जैसेकलाकारों को कला को साधन बनाकर जीविका चलाने के लिए गुंजाइश की थोड़ी-सी ज़मीन दे दी है और अपनी जर्जर आर्थिक स्थिति के कारण ये कलाकार भी महानगरों और शहरों की ओर आकर्षित हो रहे हैं। ‘भीत्ति चित्र की मयूरी’ कहानी में फुलपत्ती के मामा का यह कथन इसी को स्पष्ट करता है- “यहाँधरा ही क्या है? चार झोपड़े और दादा आदम के जमाने के पुराना चौबारा-चौखड़ा के मोह में क्यों पड़ी रहेगी दीदी? जब भगवान ने आँख खोलकर हेरा है तो शहर में क्यों नहीं रहेगी दीदी? पाँच सौ से नौ सौ तक की माहवारी और रहने के लिए लोहिया नगर की वैसी कोठी”। पररेणु का सौंदर्यबोध‘डीह’ को छोड़कर महानगर में पलायन को स्वीकार नहीं कर पाता है। फुलपत्ती की यह प्रतिबद्धता- “मैं कहती हूँ अपने बाप-दादे की डीह छोड़कर कहीं नहीं जा सकती मैं। मेरी लहाश ही निकलेगी इस घर से…हाँ…” में रेणु की प्रामाणिक अनुभूति है। कहा जाता है कि रेणु की सगी छोटी बहन महथी देवी आजीवन औराही हिंगना(रेणु के गाँव) में रहकरलोक-गीतों और कलाओं को संरक्षित करती रही थीं।वे लोक-कलाओं, संवेदनाओं और लोक-संस्कृति की अच्छी ज्ञाता भी थीं और रेणु ने ‘भीत्ति चित्र की मयूरी’कहानी उन्हीं से प्रेरित होकर लिखी थी।
शहरीकरण के कारण गाँवों से पलायन की समस्याकई तरह की आशंकाएँ भी सामने लाती हैं। इससे ग्रामीण सांस्कृतिक सौंदर्य के नष्ट हो जाने का रेणु का भय अकारण नहीं था।रेणु देख रहे थे कि गाँवों में न तो विकास के साधनहैं और न ही ऐसा कोई बाज़ार ही है, जहाँ कला के मूल्यों और कलाकार के महत्त्व को समझा जा सके। भारत की आज़ादी के बाद भी गाँव के उत्थान के प्रश्न क़ाग़जों तक ही सीमित रह गये। लेकिन रेणु न केवल लोक-संस्कृति की रक्षा के लिए कृतसंकल्प थे, अपितु उनका गाँधीवाद गाँवों के उत्थान में ही संपूर्ण देश का उत्थान देखता था-“इस बार गाँव का पूरा नाम छपा है अखबार में- मोहनपुर के मधुबनी आर्ट सेंटर के भवन के शिलान्यास के लिए देश के प्रसिद्ध चित्रकार हुसैन से अनुरोध किया गया है…”। अपनी‘डीह’ औऱ अपने गाँव को छोड़कर दिल्ली न जाने के लिए फुलपत्ती और फिर उसकी माँ की प्रतिबद्धता में रेणु का गाँवों के उत्थान का ही सौंदर्यशास्त्र है। फुलपत्ती की माँ यानी श्रीमती पन्नादेवी का अपनी मधुबनी चित्रकारी के नीचे अपने नाम के साथ गाँव का नाम लिखना रेणु के उस वैचारिक सौंदर्य को सामने लाता है, जिसमें गाँवअभिन्न अंग के रूप में व्यक्ति के साथ जुड़ा है और व्यक्ति के सुख-दुख, उत्थान-पतन और श्रेय के साथ उसकाअपना गाँव भी है। रेणु भारत माता के शस्य-श्यामल आँचल को गाँवों में देखते थे।उनके लिए गाँव केवल कृषि-संस्कृति के लिए ही महत्त्वपूर्ण नहीं था, बल्कि उनकी दृष्टि में यहाँ भारत की संस्कृति और परंपरा का सौंदर्य भी सर्वत्र बिखरा हुआ था।
फुलपत्ती के द्वाराअपने साथ विवाह प्रस्ताव को अस्वीकृत करने पर जब सनातन प्रसाद फुलपत्ती से पूछता है कि “आखिर वह कौन…कौन है वह सौभाग्यवान…”? तो रेणु नैरेटर बनकर कहते हैं-“फुलपत्ती ने भित्ति पर बने हुए सजे सँवरे कलंगी ऊँचा किये, पंख छत्राकार फैलाये, नाचते हुए मयूर की ओर अँगुली उठाई-वह वहाँ…वही… नाच रहा है जो। समझे”? नाचता हुआ मयूर यहाँ प्रतीक है भारतीय संस्कृति के उस सौंदर्य का, जिसमें आनंद, उल्लास और उमंग है।‘भीत्ति चित्र की मयूरी’ कहानी की फुलपत्ती अपनी‘डीह’ और लोक के सौंदर्य को समझती है। वह मोर के नाचने के संदर्भ में‘ऋत’ के सौंदर्य को भी जानती है, जो सनातन प्रसाद की उपभोक्तावादी दृष्टि नहीं समझ पाती।
सनातन प्रसाद जब मोहनपुर गाँव में ही ‘मधुबनी आर्ट सेंटर’ खोलने के प्रस्ताव को फुलपत्ती के समक्ष रखता है और इसके लिए वह विनम्रतापूर्वक उससे सहमति मांगता है तो रेणु कहते हैं-“सनातन को लगा-मयूरी हठात् पंख फैलाकर किलक उठी। केका ध्वनि से उसके अंदर का घनघोर ‘बिजूवन’ मुखरित हो उठा। आम के बाग में झूले पर बारहमासा गाती हुई लड़कियों के कंठ से निकली एक कड़ी-उसके मन के मेघाच्छादित आकाश में बहुत देर तक मंडराती रही, ‘बिजूवन कुहुक मयूष’…”। कालिदास सौंदर्य की जिस शक्ति को समझते थे, कथाकार रेणु को भी इसका एहसास था।रागात्मक सौंदर्य ने सनातन की आत्मा को परिशुद्ध कर दिया था।
भारत में वैसे जातिवाद की जड़ें आज भी काफ़ी गहरी हैं, लेकिन सन्1972 में लिखी गई कहानी ‘भीत्ति चित्र की मयूरी’ में रेणु जाति और बिरादरी की अपेक्षा गुणों और समृद्धि को महत्त्व देकर समाज के सौंदर्यशास्त्र को इस रूप में देखते हैं-“बिरादरी को कौन पूछता है आजकल। पूछा कि आदमी क्या है, हैसियत क्या है। एक बड़े आदमी का बेटा है। बाप अच्छी संपत्ति छोड़कर मरा है। बाप की बनाई कोठी है, मोटरगाड़ी है। साल में दस-बारह हज़ार रुपये कीतस्वीरें ही खरीदता है। पटना में लिखने-पढ़ने, नाचने-गाने और आँकनेवालों के बीच खूब बोलवाला है। कला अकादमी पटना का सेक्रेटरी है। और क्या चाहिए”?सनातन प्रसाद के मन में फुलपत्ती के लिए रागात्मक भावों को दर्शाकर यहाँ रेणु ने कला और गुणों के महत्त्व को सिद्ध किया है और फुलमत्ती की संकल्प-शक्ति को दृढ़ दिखलाकर उन्होंने कला और गाँव के विकास में स्त्री-शक्ति की आवश्यकता को प्रमाणित कर दिया है।
रेणु स्त्री-शक्ति को जानते थे, लेकिन स्त्रियों के कोमल मन के सौंदर्य को भी समझते थे। फुलपत्ती की दृढ़ता और संकल्प-शक्ति जिस वैचारिक सौंदर्य की सृष्टि करती है, उसमें तर्क, विवेक और गांभीर्य है। वह पढ़ी-लिखी नहीं है, लेकिन उसकी चारित्रिक दृढ़ता सनातन प्रसाद को निरूत्तर कर देती है- “आप क्या हमको-हम लोगों- को तस्वीर ही समझते हैं…?आप समझते हैं कि आप सब-कुछ खरीद सकते हैं”। यहाँ रेणु पूँजीवादी मानसिकता पर आघात करके मूल्यों के सौंदर्य की सृष्टि करते हैं।
भारतीय गाँवों के समाजोंका भी अपना अलग ही सौंदर्य है, जिसमें सादगी और सरलता तो है ही, पर यहाँ किसी तरह की घटना घटने पर या किसी अपरिचित व्यक्ति के आगमनसे उत्सुकता और कौतूहल का जो वातावरण निर्मित होता है, उसमें कथारस का आनंद भी मिलता है-“पटना से एक ‘जेंटलमैन बाबू’ आया है। फुलपतिया के हाथ की बनाई ‘लिखनी-पढ़नी’ देखकर कहता है, इसकी छापी खींचकर अमेरिका या रूस या न जाने कहाँ भेजेंगे…”।
रेणु शब्दों और बिंबों के सौंदर्य को भी समझते थे-“कहता है डबल बकसीस मिलेगा”।“मगर वह आदमी तो देखने में ठीक‘देसीवाली’ लगता है, ‘विलैती आदमी’ की तरह बिलरमुँहा नहीं”।
गाँव का सरल व्यक्ति यह तो जानता है कि विलायत का आदमी न केवल देखने में बिलार जैसा होता है, अपितु उसकी चालें भी उसी की तरह होती हैं, लेकिन वह देशी व्यक्ति पर विश्वास कर लेता है। इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है कि गरीबी की उर्वर भूमि परशोषण की मनोवृत्ति और सामंती मानसिकता अपनी अनुकूलता तलाश ही लेती है।‘भीत्ति चित्र की मयूरी’कहानी में जोखन चौधरी द्वारा प्रपंच करके मरचू महतो की दोनों भैंस खोलकर ले जाने की घटना गाँव में जो अविश्वास को जन्म देता है, वह सनातन प्रसाद को भी संदेह के घेरे में ले लेता है। तात्पर्य यह है कि समाज में अविश्वास, आशंका, संदेह आदिके भावों में वृद्धि के पीछे किसी मनुष्य का दुष्कृत्य रहता है जिससे सामाजिक सद्भावनाएँ, संतुलन और सामंजस्य के भाव कुप्रभावित होते हैं।
रेणु ने ‘भीत्ति चित्र की मयूरी’ कहानी में गाँव की परिवर्तित स्थिति के उस सौंदर्य का सामने रखा है, जिसमें आशा है, विश्वास है, कर्म है, श्रम है, संतुलन है और आनंद है। मोहनपुर गाँव के‘मधुबनी आर्ट सेंटर’ में पटना, दिल्ली और कोलकाता से चुनी हुई लड़कियों को ट्रेनिंग देने और गाँव एवं जिले की लड़कियों को मुफ्त में सिखाने से न केवल गाँव का आर्थिक विकास होगा, बल्कि देश के सांस्कृतिक सौंदर्य से विदेश भी परिचित और लाभान्वित होंगे। रेणु गाँव की सामूहिक शक्ति को देश की एकता की शक्ति के लिए महत्त्वपूर्ण मानते थे। गाँव, जिला, राज्य, देश और फिर विदेश तक की मधुबनी चित्रकारी की विकास-यात्रा का आरंभ जब “मोहनपुर गाँव की जै…जै” के समवेत स्वर से होता है तो इस जय जय कार के माध्यम से जो उदात्तता के भाव और वैचारिक सौंदर्य सामने आते हैं, उनमें ही रेणु का भारतीय जीवन-दर्शन संबंधी सौंदर्य शास्त्र समाहित दिखाई देता है।
रीता सिन्हा
जन्म:30.12.1965 बौंसी,बांका(बिहार)
‘पुनर्सृजनः अंतर्दृष्टि और यथार्थबोध’ (आलोचना), ‘डेस्कटॉप’ और ‘इनबॉक्स के अधूरे पन्ने’ (कहानी संग्रह) प्रकाशित। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित तथा पटना दूरदर्शन और आकाशवाणी से कहानियों, कविताओं का प्रसारण।
नई धारा रचना सम्मान (2016) और जेपी अंतरराष्ट्रीय एवार्ड (2017)
संप्रति- वर्द्धमान विश्वविद्यालय, पश्चिम बंगाल के स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग में प्राध्यापन।