लेख
‘छुट्टी के दिन का कोरस’
(‘फुर्सत’: मो. आरिफ)
- राहुल सिंह
‘फुर्सत’ निश्छल शिल्प की एक बेहद प्यारी–सी कहानी है। कुछ पाने की चाह में बहुत कुछ खोने की कहानी है। जिन्दगी की जरूरतों को पूरा कर सकने की जद्दोजहद में ‘किसी बड़ी ही खूबसूरत और कीमती चीज से लगातार बूँद–दर–बूँद महरूम होने की कहानी है।’ एकमुश्त जिन्दगी के हफ्तेवार जिन्दगी में तब्दील हो जाने की कहानी है। आदतों के मार्फत् और जरूरतों की वजह से जिन्दगी के बदल जाने की कहानी है। कहीं–न–कहीं यह हम सबकी कहानी है। वैसे कहानी महज इतनी है कि सुखलाल नामक किसी चपरासी की बीमारी से मौत के कारण नौकरीशुदा मानिक को एक दिन की छुट्टी नसीब हो जाती है। इतवार की अगली सुबह अनायास मिले अवकाश के दिन घटी छोटी–छोटी घटनाओं का जुटान भर है यह कहानी।
कहानी की बुनावट में कलाकारी नहीं है। एक परिप्रेक्ष्य के साथ कहानी शुरू होती है, जो बताती है कि जिन्दगी के किल्लतों और जिल्लतों को दूर करने के उपक्रम में जिंदगी के मायने किस कदर बदल गये हैं। जिन चीजों से हमारी जिन्दगी परिभाषित हुआ करती थी, आहिस्ता–आहिस्ता वे सारी चीजें हमारी जिन्दगी से नामालूम तरीके से विदा ले चुकी हैं। मसरुफियत ने फुर्सत के लम्हों को लील लिया है। और एक मायने में हम अपनी जिन्दगी से ही बेदखल हो गये हैं। कहानी इसी बेदखली को बेहद खामोशी से बिना किसी विमर्शगत शोर के उठाती है। ऐसा वह बिना किसी अतिरिक्त कोशिश के करती है, निपट और निरीह कहानी के धरातल से।
आमतौर पर रंगमंचों में तारी शुरुआती अँधेरे को बींधती हुई, एक मद्धिम–सी रोशनी जैसे उसे अपनी जद में ले लेती है और गहराती रोशनी के साथ चीजें आलोकित होनी शुरू हो जाती हैं। बस, वैसा ही कुछ इस कहानी में धीरे–धीरे प्रदीप्त होता है। बिखरी चीजें जीवन के सन्दर्भ बिन्दु के तौर पर एक–एक कर आनी शुरू होती हैं और उनसे नामालूम–सी जिन्दगी रोशन होने लगती है। कहानी एक मद्धिम–सी आँच में चढ़ी हांडी–सी है, उसकी अपनी एक मन्थर गति और लय है, जिसे पढ़कर महसूसा जा सकता है। फकत छुट्टी के दिन को एक खूबसूरत–सी कहानी में भी ढाला जा सकता है, इसका पता इस कहानी को पढ़कर लगता है।
शुरुआती हिस्से को छोड़ दें, जहाँ छुट्टी के आमद की रूपरेखा विकसित हो रही है, तो उसके बाद कहानी में दृश्यों की कई लड़ियों को एक के बाद एक बेहद करीने से पिरो दिया गया है। इस वजह से दृश्यात्मकता से यह पूरी तरह लबरेज है। असल बात यह है कि इन दृश्यों के केन्द्र में मानिक बाबू और उनकी पत्नी अनीता है। दोनों के बीच का जो ‘रसायन’ है, वह जबर्दस्त है। दोनों ने एक साझा लम्बा जीवन जिया है, इसे बताने के लिए मो. आरिफ अलग से कोई कूद–फाँद नहीं मचाते। उसे सूचना के धरातल तक नहीं लाते बल्कि उनके आचरणों के मार्फत इसको स्थापित करते हैं। लम्बे साहचर्य के दौरान अक्सरहाँ पति–पत्नी के मध्य संवाद की एक अनूठी भाषा विकसित हो जाती है जिसकी अपनी खूबसूरती होती है। मसलन मानिक बाबू जब अनीता से पूछते हैं कि,
‘‘सुनो, वो बेर की डालियाँ तुमने कटवायीं?’’
‘‘हां, क्यों?’’
‘‘नहीं मैंने उन्हें नहीं देखा सो पूछ रहा था।’’
‘‘छत पर कितने दिनों बाद गये आज?’’ स्वर में व्यंग्य साफ था। मैंने जवाब न देने में ही बुद्धिमानी समझी।
‘‘उसे कटे दो साल हो गये। वह नहाते–नहाते बोली।’’
‘‘मुझे नहीं बताया?’’
मग पटकने की आवाज आयी। मैं समझ गया। इस प्रश्न का उत्तर विस्तार से मिलनेवाला है। मैं जल्दी ही सीढ़ियों की ओर बढ़ गया
मानिक बाबू और अनीता दोनों सुगठित चरित्र के बतौर हमारे सामने आते हैं। उनकी अपनी ‘स्वभावगत निजतायें’ हैं। यह अकारण नहीं है कि अनीता मानिक बाबू को न सिर्फ शेखचिल्ली कहती है, बल्कि आगे इसका खुलासा भी होता है कि वह आखिरकर क्यों ऐसा कह रही थी। मानिक बाबू का स्वभावगत उत्साह के उलट अनीता में बेतकल्लुफी है और उसकी वाजिब वजहें हैं। उत्साह और बेतकल्लुफी कहानी में एक ‘कंट्रास्ट’ रचते हैं। पंक्तियों के बीच और नीचे उतरें तब जान पड़ता है कि अनीता की बेतकल्लुफी का सबब मानिक बाबू के स्वभाव और आदतें ही हैं। दोनों की आपसी समझदारी तगड़ी है। आपसी समझदारी के इन पलों को जिस खामोशी से आरिफ ने रच दिया है, वह प्रशंसनीय है। वे कहानी के कुछ खूबसूरत क्षणों में से हैं। उन क्षणों को सहजता से रच दिये जाने में ही कहानी की खूबसूरती बसती है।
कहानी में यह ध्यान दिये जाने लायक तथ्य यह है कि मानिक बाबू के जिन्दगी में नौकरीशुदा होने के बाद आये इतवारों में उनकी बेगम शामिल नहीं रही हैं। इतवार भी सप्ताह के छह दिनों के बाद का निपट सातवाँ दिन–भर ही रहा है। पूरी जिन्दगी गुजार देने के बाद भी एक किस्म का अपरिचय है। अपरिचय का यह भाव मानिक बाबू की ओर से है। छुट्टी के दिन उनकी जिज्ञासाओं की लम्बी फेहरिस्त से इस अजनबियत का अन्दाजा लगता है, जिसकी शुरुआत इस दृश्य से होती है कि ‘‘श्रीमती जी दाल बीन रही थी – शायद लंच में पकाने के लिए। हर मंडे साढ़े दस बजे तुम यही करती हो क्या? मैंने किचन टेबुल पर बैठते हुए कहा। श्रीमती जी समझ गयीं मेरी बात में कोई दम नहीं है। मेरी तरफ घूरकर फिर अपना काम करने लगीं।’’ या फिर उनका यह पूछना कि ‘‘तुम मंडे को रोज दोपहर में नहाती हो?’’ यह लगभग निर्मला पुतुल की कविता की उन पंक्तियों की याद दिलाता है कि ‘क्या तुम जानते हो, एक पुरुष से अलग, एक स्त्री का एकान्त।’ फिर कहानी के साथ मानिक बाबू की यह अजनबियत गाढ़ी होती जाती है, वह अनजान हैं मोहल्ले, पड़ोस और खुद उनके घर में आयी तब्दीलियों से। लेकिन हर बार उनके चैंकने में न तो कोई बनावट और न ही कहानीकार की कोई बुनावट ही नजर आती है। इस हद के बावजूद कि खुद को निहारते हुए ‘‘अचानक ध्यान आया पीठ में किसी जगह एक बड़ा–सा मस्सा हुआ करता था जो हाथ से आसानी में पकड़ आ जाता था। कहाँ खो गया?’’ खोये हुए मस्से की तलाश की मालूमात करने जब वे अपनी बीवी के पास पहुँचते हैं तो वह उन्हें बताती है कि वह पीठ पर नहीं गर्दन पर है। वही बताती है कि अम्मा जी कह रही थीं कि ठीक ऐसा ही उनके बाबूजी के गर्दन के पीछे था। और ठीक उसी जगह पर छोटू के भी हैं। इस पर मानिक बाबू पूछते हैं, ‘‘अच्छा तुम्हारे कहीं मस्सा है?’’ ‘‘कमर में तो है, अभी तक देखा नहीं क्या?’’
‘‘दिखाओ, दिखाओ।’’ मैंने दुलार बघारते हुए कहा। डर था कहीं फिर से शेखचिल्ली कहकर मुझे हतोत्साहित न कर दें। अब तक नजर नहीं पड़ी तो अब क्या देखेंगे! छोड़िए भागिए। दिखावटी प्रेम मुझे नहीं अच्छा लगता। उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा। साड़ी को कमर से हटाने लगीं। फिर धीरे से पेटीकोट को ढीला करके तनिक नीचे की ओर खींच दिया। मैं साँस थामे देख रहा था।
‘‘दिखाई पड़ा।’’ उन्होंने बेतकल्लुफी से कहा। वे मस्सा पर उँगली फेर रही थीं। कितनी सुन्दर कमर थी अनीता की! और ये मस्सा कैसे बचा रह गया था मुझसे? मैं टकटकी बाँधे देख रहा था अपनी पत्नी की अधखुली कमर को।
‘‘देखा कि नहीं? छूकर देख लीजिए। और अब कभी न भूलिएगा।’’
‘‘नहीं भूलूँगा।’’ मेरे मुँह से बहुत धीमे से निकला।
फिर मैं उन्हीं के बगल में लेट गया। उनके बालों से खेलने लगा। शैम्पू की गमक नाकों में झर रही थी। मैं उनके और करीब सट आया।
‘‘तुम्हारे बाल कितने सुन्दर हैं। मुलायम भी। एक भी नहीं पका।’’
‘‘क्या बात है? सूरज किधर से निकला है। मेरी इतनी फिकर क्यों हो रही है! मालती तिवारी के पकने शुरू हो गये क्या?’’ उन्होंने बड़ी निर्दयता से कहा।
कहानी का अपेक्षाकृत लम्बा हिस्सा उद्धृत करने का मकसद महज इतना था कि कहानी की उस टेक को सामने लाया जा सके जिसे इसकी केन्द्रीय संवेदना कह सकें। गाढ़ी प्रेम की यह कहानी अलग–अलग सन्दर्भों से होकर गुजरती है, पर इसकी बुनियादी टेक प्रेम ही है। प्रेम भी कैशोर्य या युवावस्था वाला नहीं, बल्कि ढलती उम्र का। यह उम्र की ढलान मंय प्रेम को बयाँ करती कहानी है। गृहस्थ प्रेम की यह अनूठी कहानी है। कहानी का आखिरी हिस्सा जिसमें मानिक बाबू अपनी ख्वाहिशों को बयाँ कर रहे है, वह किसी प्रार्थना की तरह है। बीती जिन्दगी को याद करने का जो तरीका है, उसमें एक गुजारी गयी साझी जिन्दगी है। पर दोनों के लिए उस जिन्दगी को परिभाषित करनेवाले लमहें अलग–अलग हैं, बावजूद इसके जिन्दगी साझी ही रही है। आरिफ छोटे–छोटे वाक्यों को इस्तेमाल करनेवाले कहानीकार हैं। यहाँ भी उन्होंने ऐसा ही किया है। मेरे लिए ऐसी कहानियों को पढ़ना वैसा ही सुख देता है, जैसे स्पेन के छोटे–छोटे ‘पासों’ से रची फुटबॉल की शैली को देखना। यह हम सबकी कहानी है, जो जिन्दगी की बुनियादी जरूरतों को जुटाने में कहीं–न–कहीं जिन्दगी से कटते चले गये। ‘फुर्सत’ निकालकर पढ़ी जाने लायक कहानी। इस गुजारिश के साथ कि एक बार तो पढ़ना बनता है। (वागर्थ, मई 2004)
(यह आलेख ‘संवेद’ के 71वें अंक (दिसंबर 2013) में प्रकाशित है।)
राहुल सिंह: प्रखर युवा आलोचक। विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में आलोचनात्मक लेखों का प्रकाशन। सम्प्रति – अध्यापन। सम्पर्क – मो. +919308990184