फणीश्वर नाथ रेणु

ग्रामीण संवेदना के कथाकार

 

आंचलिकता का नाम सुनते ही फणीश्वर नाथ रेणु का नाम सहज ही स्मरण हो आता है। प्रसिद्ध आंचलिक उपन्यास ‘मैला आंचल’ के रचयिता फणीश्वर नाथ रेणु हिन्दी के जाने-माने साहित्यकार हैं। ग्रामीण अंचल की बात तो हिन्दी के अन्य अनेक साहित्यकारों ने अपने साहित्य में की है लेकिन फणीश्वर नाथ रेणु का ढंग ही अलग है, उनकी शैली या शिल्प, या विशुद्ध रूप में कहें तो उन्होंने अपने साहित्य में कथ्य और शिल्प की सभी औपचारिकताओं से परे, पात्रों की उनकी वास्तविक जमीन, क्षेत्र, लोकसमाज या आँचल पर रखकर ही उनके बारे में लिखा है, इसके लिए उन्होंने ग्रामीण अंचल की ठेठ लोकल भाषा का प्रयोगकिया है, उनकी यही विशेषता उनको हिन्दी साहित्य के दूसरे साहित्यकारों से अलग करती है। मैला आंचल के साथ-साथ परती परी कथा, तीसरी कसम, ठुमरी ,पंचलाइट, ठेस, लाल पान की बेगम, रसप्रिया आदि उनकी अनेक रचनाएँ हिन्दी साहित्य की महत्त्वपूर्ण कड़ी हैं।

बिहार के मैथिल ग्रामीण अंचल में जन्मे फणीश्वर नाथ रेणु ग्रामीण जीवन की नस-नस से परिचित थे। ग्रामीण लोगों की छोटी-छोटी खुशियाँ, मन-मुटाव, ईर्ष्या-द्वेष, जीवन-मूल्य, रहन-सहन, संस्कृति, रीति-रिवाज, संस्कार, मान-मर्यादा, रिश्ते-नातों का बंधन, ग्रामीण लोकभाषा, किसानी-संघर्ष आदि को लेकर उनका ज्ञान और अनुभव असीम है। शायद इसलिए अज्ञेय ने रेणु जी को “धरती का धनी” कहा है। रेणु के साहित्य का अध्ययन करने के उपरांत निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि वे ग्रामीण संवेदना के लेखक हैं। रेणु से पहले उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द के साहित्य में भी हमें इसी ग्रामीण संवेदना के दर्शन होते हैं उन्होंने अपनी कहानियों और उपन्यासों में किसानों की समस्याओं का बड़ी बारीकी से उल्लेख किया है। प्रेमचन्द की ही तरह रेणु ने भी बिहार के ग्रामीण लोक कीघटनाओं को अपनी रचनाओं का कथानक बनाया है। इस दृष्टि से रेणु प्रेमचन्द की परम्परा के लेखक प्रतीत होते हैं क्योंकि “प्रेमचन्द और रेणु दोनों के पात्र निम्नवर्गीय हरिजन, किसान, लोहार, बढ़ई, चर्मकार, कर्मकार आदि हैं। ”154 लेकिन ग्रामीण तो ग्रामीण है, किसान तो किसान है, चाहे फिर वह देश के किसी भी कोने का हो, समस्याएं तो सबकी एक जैसी ही हैं। रेणु के बारे में निर्मल वर्मा लिखते हैं- “बिहार के छोटे भूखंड की हथेली पर उन्होंने समूचे उत्तर भारत के किसान की नियति रेखा को उजागर किया है। ”154

कहानी की सबसे बड़ी विशेषता होती है कि पाठक कहानी के साथ एक जुडाव महसूस करें, वह उसमें खो जाए, एक बार कहानी को पढ़ना शुरू करे तो पढ़ता चला जाए। उसका साधारणीकरण हो जाए, पाठक भूल जाए कि वह कौन है? रेणु की कहानियों को पढ़ते समय भी पाठक के साथ ऐसा ही होता है। उनकी कहानियों का ग्रामीण परिवेश कमाल का है, पाठक कब उस परिवेश का हो जाता है उसे पता ही नहीं चलता। गाँव की छोटी-छोटी घटनाओं से पूरी कहानी का कथ्य गढ़ा जाता है। ग्रामीण परिवेश और लोक भाषा को लेकर तो रेणु जी का साहित्य जगत में कोई सानी नहीं है। ‘पंचलाइट’ कहानी को ही देख लीजिये, इसमें महतो टोली के पंचों द्वारा पेट्रोमैक्स (इसे गाँव के लोग पंचलाइट कहते हैं) खरीदने की छोटी-सी घटना है, कहने को यह छोटी सी घटना है लेकिन गाँव वालो के लिए यह दिन किसी उत्सव से कम नहीं है, पूरा दिन गाँव में पंचलाइट के सिवा कोई दूसरी बात नहीं करता इस तरहपूरा कथानक इस घटना पर केन्द्रित है। पंचों द्वारा पूरे पंद्रह महीने तक पैसे जमा करने के उपरांत इसको ख़रीदा गया है, इसको खरीदना गांववासियों के लिए कोई सामान्य और आसान काम नहीं है,इसलिए पंचलाइट को खरीदने के लिए सभी पंचों का जाना, पूजा की सामग्री खरीदना, लेकर दिन दहाड़े लौट आना, और फिर “आगे पंचायत का छड़ीदार पंचलाइट का डिब्बा माथे पर लेकर और उसके पीछे सरदार दीवान और पंच वैगरह।”

किसी को हाथ से छूने न देना आदि सभी बातें ग्रामीणों के मन में जो पंचलाइट का महत्त्व है, उसको ही रेखांकित करती हैं। जब फुटंगी ने पंचलाइट को पंचलाइट न कहकर लालटेन कह दिया तब तो पंचों को पंचलाइट का यह अपमान बर्दास्त ही नहीं होता, “……देखते नहीं हैं, पंचलैट है। वामन टोली के लोग ऐसे ही ताव करते हैं अपने घर की ढिबरी को भी बिजली-बत्ती कहेंगे और दूसरों के पंचलैट को लालटेन!” पंचलाइट को देखने के लिए बच्चे-बूढ़े, औरतें अर्थात पूरा गाँव इकठ्ठा हो जाता है, दीवान जी गाँव वालो को बताते हैं कि दुकानदार उनको महंगे दामों में पंच लाईट बेचना चाहता था लेकिन उसने दुकानदार से मोल-भाव को लेकर बहुत बहस की और पंचलाइट का डिब्बा भी साथ लेकर लेकिन उनकी पंचायत में किसी को भी पंचलाइट को जलाना नहीं आता जिसको आता है उसको पंचायत ने सिनेमा का गाना गाने के कारन हुक्का-पानी बंद किया हुआ है। दूसरी पंचायत के व्यक्ति से पंचलाइट जलवाना उनकी इज्जत के खिलाफ है। इस प्रकार कहानी में ग्रामीण समाज के भोलेपन और सरलता के ऐसे अनेक प्रसंग है जिनको पढ़कर गांववासियों के भोलेपन पर हंसी भी आती है और दया भी।

ग्रामीण परिवेश की दृष्टि से ‘लाल पान की बेगम’ कहानी भी कम नहीं है, इसका परिवेश भी गाँव का ही है। यह स्त्री केन्द्रित कहानी है। कहानी की मुख्य पात्र जो स्त्री है उसको पूरी कहानी में उसके अपने नाम से कोई नहीं पुकारता बल्कि बिरजू की माँ के नाम से ही संबोधित किया जाता है, जैसे उसका अपना कोई नाम ही नहीं है,ऐसा लेखक ने ग्रामीण परिवेश और वातावरण को ध्यान में रखकर ही किया है, क्योंकि गाँव में विवाहित स्त्री को उनके बच्चों के नाम के साथ माँ शब्द लगाकर ही आवाज दी जाती है। बिरजू की माँ का पड़ोसिन मखानी फुआ और जंगी की पुतो हूँ से कहा-सुनी, सात साल के बिरजू का तमाचे खा कर आँगन में लोट-लोट कर सारी देह पर मिट्टी मलना, और जब कहानी के आरंभ में हीपड़ोसिन मखानी फुआ का पुकार कर “क्यों बिरजू की माँ, नाच देखने नहीं जाएगी क्या?” कहना पाठकों के सामने गाँव के परिवेश को सजीव बना देता है, कहानी में घटना क्रम के नाम पर यही है कि आठ दिन पहले से ही बिरजू के बाप ने बिरजू की माँ को बैलगाड़ी में बिठाकर बलरामपुर का नाच दिखाने का वादा किया हुआ है और यह बात बिरजू की माँ ने अपने मुंह से अड़ोस-पड़ोस में सबको बात रखी है। आज वो दिन आ गया है, सुबह से ही बिरजू की माँ इसकी तैयारी में लगी है लेकिन बिरजू के बाप को बैलगाड़ी लाने में देर हो जाती है तो बिरजू की माँकिस तरफ परेशान होकर पति को तरह तरह से मन ही मन उलाहने देना, अपने दैनिक जीवन के छोटे-मोटे अभावों के लिए बिरजू के बाप को कोसना, बच्चों को भी पिता से न बात करने की सीख देना, और अंत में बिरजू के बाप का बिरजू की माँ को जाने के लिए मना लेना, बिरजू की माँ का सब मन-मुटाव भूल, सबको गाड़ी में बिठाकर नाच दिखाने लेकर जाना आदि, न जाने कितनी छोटी-छोटी बाते हैं जो पाठक को ग्रामीण समाज के यथार्थ से जोड़ती हैं। लेखक की यही विशेषता उनकोग्रामीण संवेदना का लेखक मानने के लिए मजबूर करती है।

इसी तरह ‘तीसरी कसम’ या ‘मारे गये गुलफाम’ कहानी का मुख्य पात्र हिरामन भी गाँव का रहने वाला है, उसका भोलापन और प्रेमी-मन पाठकों को खूब प्रभावित करता है। हिरामन गाँव का एक गरीब, ईमानदार और नेक इंसान है, जो अपने भाई और भाभी के साथ रहता है, उसके पास एक बैलगाड़ी है, यही उसकी आजीविका का साधन है। गरीब होने पर भी वह रुपए -पैसे का छल या लालच नहीं करता, अपनी जहाँ भी नियम-कानून की बात आती हैतो छल-कपट की दुनिया से अनजान हिरामन कसम खा लेता है कि आगे से वह ये काम नहीं करेगा। कंपनी की औरत हीराबाई को लेकर उसकी निश्छल प्रेम भावना किसी भी पाठक भावविभोर कर सकने में समर्थ है। फणीश्वर नाथ रेणु की यह कहानी बहुत प्रसिद्ध हुई और इस कहानी पर तीसरी कसम नामक फिल्म भी बनी।

रेणु की दूसरी कहानियों की तरह ‘ठेस’ और ‘पुरानी कहानी नया पाठ’ में भी ग्रामीण आंचल की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक समस्याओं, परिवेश और मूल्यों का चित्रण हुआ है। ‘ठेस’ एक चरित्र प्रधान कहानी है। कहानी के कथानक का ताना-बाना एक कुशल कारीगर के मान-सम्मान, कला के प्रति उसका समर्पण, सामाजिक सम्बन्धों का दबाव, आर्थिक स्थिति आदि को लेकर बुना गया है जबकि “पुरानी कहानी नया पाठ” रिपोर्ताज में रेणु ने बिहार की कोसी नदी में आई बाढ़ का मार्मिक दृश्य प्रस्तुत किया है। ‘ठेस’ कहानी के केंद्र में बिना मजदूरी के पेट भात पर तन्मयता से अपना काम करने वाला कारीगर ‘सिरचन’ और उच्च घराने का एक संयुक्त परिवार है। कहानी के आरम्भ में लेखक ने जिस तरह से सिरचन के चरित्र का वर्णन है उससे लगता है कि वह बेकार, बेगार, मुफ्तखोर, चटोर, कामचोर, आरामपरस्त व्यक्ति है। लगता है जैसे उसकी काम में कोई दिलचस्पी नहीं है- “खेती-बारी के समय, गाँव के किसान सिरचन की गिनती नहीं करते। लोग उसको बेकार ही नहीं, ‘बेगार’ समझते हैं। इसलिए, खेत-खलिहान की मजदूरी के लिए कोई नहीं बुलाने जाता है सिरचन को। क्या होगा, उसको बुला कर? दूसरे मजदूर खेत पहुँच कर एक-तिहाई काम कर चुकेंगे, तब कहीं सिरचन राय हाथ में खुरपी डुलाता दिखाई पड़ेगा – पगडंडी पर तौल तौल कर पाँव रखता हुआ, धीरे-धीरे। मुफ्त में मजदूरी देनी हो तो और बात है। “लेकिन जैसे-जैसे कहानी की कथा का विस्तार होता है वैसे-वैसे संवेदनशील पाठक की धारणा सिरचन को लेकर बदलने लगती है, पाठक को सिरचन का भोलापन भाने लगता है, कथा के अंत तक आते-आते पाठक के मन में सिरचन को लेकर गहरी संवेदना पैदा होने लगती है। क्योंकि कला की कद्र करने वाले लोग गाँव में अब नहीं रहे और सिरचन को अपना भरण-पोषण करने के लिए वो काम करना पड़ रहा है जो उसने पहले नहीं किया। वो एक कलाकार है, खेती-बाड़ी के काम में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है।

एक समय ऐसा था, जब सिरचन की गाँव में तूती बोलती थी। चिक, रंगीन शीतलपाटी, मोढ़े आदि बनाने के लिए सिरचन जैसा सधा हुआ कारीगर गाँव में दूसरा नहीं था। आस-पास के बड़े-बड़े घरानों के लोग अपनी लारी लेकर उसको काम के लिए बुलाने आते थे- “…अरे, सिरचन भाई! अब तो तुम्हारे ही हाथ में यह कारीगरी रह गई है सारे इलाके में। एक दिन भी समय निकाल कर चलो। “जितनी सफाई सिरचन के हाथ में थी वह किसी दूसरे कारीगर के हाथ में नहीं- “मोथी घास और पटरे की रंगीन शीतलपाटी, बाँस की तीलियों की झिलमिलाती चिक, सतरंगे डोर के मोढ़े, भूसी-चुन्नी रखने के लिए मूँज की रस्सी के बड़े-बड़े जाले, हलवाहों के लिए ताल के सूखे पत्तों की छतरी-टोपी तथा इसी तरह के बहुत-से काम हैं, जिन्हें सिरचन के सिवा गाँव में और कोई नहीं जानता। “उससे अपना काम कराने के लिए लोग उसकी खुशामद करते थे। काम शुरू होने से पहले ही उसके आवभगत का इंतजाम किया जाता था, लेखक बताता है- “मेरी माँ जब कभी सिरचन को बुलाने के लिए कहती, मैं पहले ही पूछ लेता, ‘भोग क्या क्या लगेगा?”

सिरचन बहुत स्वाभिमानी कलाकार है, जहाँ उसके स्वाभिमान को ठेस पहुंचती है वहीँ वह काम करना छोड़ देता है और निर्भयता से कह उठता है –‘किसी दुसरे से करवा लीजिये काम’ जो सिरचन के काम की कीमत और उसके उसूलों को जानते हैं, वे सिरचन की कद्र करते है, सिरचन भी ऐसे लोगों की इज्जत करता है और उनके प्रति अपने कर्तव्य-बोध को समझता है। यही कारण है कि सिरचन चाची द्वारा किये गये अपमान का घूँट पी कर भी मानू का दिल न तोड़ सका। अपने दिल को ठेस लगने पर भी उसने बिना कोई दाम लिए वह सब बना कर दिया जिसे वह ससुराल ले जाना चाहती थी। मानू कोअपने हाथ से खूबसूरत शीतलपाटी व चिक बनाकरचलती ट्रेन में पहुंचाना सिरचन के कर्तव्य बोध या प्रतिबद्धता को ही दर्शाता है।

गाँव में एक वर्ग ऐसा भी है जो सिरचन जैसे कारीगरको छोटी जात का मानते हुए उसकेकाम को मुफ्त में कराया जाने वाला काम समझता है, दुःख इस बात का है कि ये लोग बड़ी-बड़ी हवेलियों में रहने वाले हैं। जबकि सिरचन अपनाकाम पूरी लगन और ईमानदारी से करता था, बदले में उसे अच्छा भोग मिल जाये बस वह यही चाहता है। परन्तु भोजन में किसी तरह की कंजूसी या कोई ओंछी बात स्वाभिमानी, ईमानदार, जिद्दी स्वभाव वाले और अपने मान के प्रति सजग सिरचन को बिलकुल पसंद नहीं है।  वह मेहनती है लेकिन चुप रहने वाला कारीगर नहीं है- “सिरचन मुँहजोर है, कामचोर नहीं। “ऐसे लोगों को वह मुंहतोड़ जवाब देता है- ‘बड़ी बात ही है बिटिया! बड़े लोगों की बस बात ही बड़ी होती है। नहीं तो दो-दो पटेर की पटियों का काम सिर्फ खेसारी का सत्तू खिला कर कोई करवाए भला? यह तुम्हारी माँ ही कर सकती है बबुनी!”लेखक कहानी के माध्यम से बताना चाहता है कि एक गरीब और मेहनती कलाकार भी संवेदनशील होता है, उसके भी कुछ मानवीय मूल्य और जीवन सिद्धांत होते हैं, छोटी बात कहने पर उसके दिल, मान-सम्मान को भी ठेस पहुंचती है।

कहानी में प्रयुक्त आंचलिक भाषा कहानी के कथ्य व ग्रामीण परिवेश के सौन्दर्य और रोचकता को बनाये रखने में सहायक सिद्ध हुई है। “रेणु का पाठक कहानी पढ़ता नहीं, देखता है। एक-एक ध्वनि, एक-एक रंग को महज महसूस करता हुआ उसे जीता है…..। ”155 कहानी की बुनावट में एक नये तरीके का सौंदर्य हैं। रेणु जी की ‘ठेस’ कहानी को अपने समय का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज माना जा सकता है। औद्योगिकीकरण के कारण कारीगरों की क्या हालत हो गई थी, ये इस कहानी से पता चलता है। पुरानी पारंपरिक कलाओं के मिटते वजूद और इन कलाकारों की आर्थिक स्थिति व कलाकार के एकाकी जीवन की समस्या को रेणु ने इस कहानी में रखा है।

फणीश्वरनाथ रेणु ने ‘पुरानी कहानी : नया पाठ’ रिपोर्ताज के रूप में प्रस्तुत किया है। कोसी नदी में बार-बार बाढ़ आने से आस-पास का क्षेत्र आर्थिक रूप से उभर नहीं पाता है। गांववासियों की दुर्दशा का कारण बाढ़ और स्थानीय नेता जनसेवक शर्मा है। कोसी नदी में बाढ़ आना पुरानी बात है लेकिन आजादी के बाद गाँव वाले सरकारी सहायता की उम्मीद करते हैं लेकिन आजाद भारत में भी गाँव वासियों की वही दुर्दशा होती है जो पहले होती थी- “कहानी का पुरानापन यह है कि शताब्दियों से कोसी की तट भूमि में पड़ने वाला क्षेत्र अतिवृष्टि और बाढ़ से आहत होता आया है। कहानी का नया पाठ शुरू होता है स्वतंत्रता के बाद आयी भयंकर बाढ़ से। ”166 अत: कहानी पुरानी है कि इस क्षेत्र में बाढ़े आती रहती हैं और नया पाठ यह है कि आजादी के बाद राजनीति और जनसेवा के नाम पर जैसी लूट-खसोट हो रही है वैसी पहले भी नहीं होती थी। बेचारे गाँव वाले अगर प्रकृति की मार से अपने-आप को बचाते हैं तो ये नेता उनको मरने के लिए मजबूर कर देते हैं। रेणु ने इस कहानी में ऐसे निर्दयी, स्वार्थी और भ्रष्ट नेताओं की पोल खोली है जो चाहते हैं कि बाढ़ से अधिक से अधिक गाँव जलमग्न हो और वे रिलीफ फंड के वितरण में धांधली कर लाभ कमायें, उनको बाढ़ से होने वाले जन-धन के नुक्सान की कोई परवाह नहीं है।

गांववासी हर छोटी-बड़ी नदी को कोसी कहते हैं और कोसी में बाढ़ आना कोई नई बात नहीं है। शताब्दियों से इस क्षेत्र में कभी अकाल तो कभी बाढ़ आती रहती हैं, प्रत्येक वर्ष गाँव वालों को इस बाढ़ रूपी दानव से लड़ना पड़ता है अर्थात यह पुरानी कहानी है। जब बंगाल की खाड़ी में तूफान उठता है और बाढ़ का खतरा एक नहीं सैकड़ों गाँवों के वासियों के सिर पर मंडराने लगता है, तब उस खतरनाक समय को गाँव के मनुष्य ही नहीं छोटे-बड़े पशु-पक्षी भी भांप लेते हैं। गाँव का पूरा जन-जीवन भयातुर और आतंकित है, रेणु ने इसे डिप्रेशन की स्थिति कहा है- “बंगाल की खाड़ी में डिप्रेशन – तूफान – उठा! हिमालय की किसी चोटी का बर्फ पिघला और तराई के घनघोर जंगलों के ऊपर काले-काले बादल मँडराने लगे। दिशाएँ साँस रोके मौन-स्तब्ध!कारी-कोसी के कछार पर चरते हुए पशु-गाय,बैल-भैंस- नदी में पानी पीते समय कुछ सूँघ कर, आतंकित हुए। एक बूढ़ी गाय पूँछ उठा कर आर्तनाद करती हुई भागी। बूढ़े चरवाहे ने नदी के जल को गौर से देखा। चुल्लू में लिया – कनकन ठंडा! सूँघा – सचमुच, गेरुआ पानी!”गेरुआ पानी अर्थात पहाड़ का पानी – बाढ़ का पानी?”

परन्तु अब देश आजाद हो गया है। अब सरकार अपनी है। लोगों को उम्मीद है स्थानीय नेता उनकी मदद करेंगे, सरकार पर दबाव बनाकर बाँध बनवाएंगे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, स्थानीय नेता जन सेवक शर्मा गाँव वासियों के दुःख-दर्द को बिल्कुल नहीं समझता। वह भ्रष्टाचारी है और बाढ़ जैसी भयंकर आपदा का आना उसके लिए सपना सच होने जैसा है- “बाढ़ आने से इस क्षेत्र के पराजित उम्मीदवार, पुराने जनसेवक जी का सपना सच हुआ। “ यह जनसेवक जो अपने आपको जनता का सेवक मानता है, सत्ता की कुर्सी तक पहुँचने के लिए बाढ़ को अपनी सीडी बनाता है- “कोसका मैया ने उन्हें फिर जनसेवा का ‘औसर’ दिया है। …जै हो, जै हो! इस बार भगवान ने चाहा तो वे विरोधी को पछाड़ कर दम लेंगे। “ “सुनो। मैंने कितने बाढ़ग्रस्त गाँवों के बारे में लिखा था? पचास? उसको डेढ़ सौ कर दो। …ज्यादा गाँव बाढ़ग्रस्त होगा तो रिलीफ भी ज्यादा-ज्यादा मिलेगा, इस इलाके को। “

बाढ़ से पहले और बाढ़ के बाद के समय को जिस तरह से लेखक ने संस्मरण-रूप में सुनाया है वह अविस्मरणीय है। पाठक की आँखों के सामने बाढ़ के बाद का दृश्य सजीव हो उठा है- “अब मृदंग-झाँझ नहीं, गीत नहीं-सिर्फ हाहाकार!किंतु नौजवान लोग जीवट के साथ जुटे हुए हैं, मचान बाँध रहे हैं, केले के पौधों को काट कर ‘बेड़ा’ बना रहे हैं। …जब तक साँस, तब तक आस!
‘ओंसरे पर पानी आ गया!’
‘बछरू बहा जा रहा है। धरो – पकड़ो-पकड़ो!’
‘किसका घर गिरा?’
‘मड़ैया में कमर-भर पानी!’
‘ताड़ के पेड़ पर कौन चढ़ रहा है?’
‘घर में पानी घुस गया है। अरे बाप!’
‘छप्पर पर चढ़ जा!”

रेणु ने इन पंक्तियों में सटीक आंचलिक शब्दों का प्रयोग किया है। यही रेणु की भाषा की विशेषता है। जनसेवक सरकार की ओंर से मिली मदद राशि में से भी अपनी कमाई करना चाहता है- “चीनी आक्रमण के समय भी भाषण देने और फंड वसूलने में वह पीछे रह गये। और, इस बार भी?” इतना ही नहीं वह बाँध कटवाकर लोगों की समस्या को और गंभीर बना देता है। -“’यह जो बरदाहा-बाँध बना है पिछले साल, इसके कारण इस कस्बा रामपुर पर भी इस बार खतरा है। पानी को निकास नहीं मिला तो कल सुबह तक ही-हो सकता है – पानी यहाँ के गाड़ीवान टोला तक ठेल दे!’गाड़ीवान टोले के कर्मठ कार्यकर्ताओं ने एक-दूसरे की ओंर देखा। आँखों-ही-आँखों में गुप्त कार्रवाई करने का प्रस्ताव पास हो गया। दूसरे ही दिन सुबह को संवाददाता ने संवाद भेजा – ‘आज रात बरदाहा-बाँध टूट जाने के कारण करीब डेढ़ सौ गाँव फिर डूबे…। “

विडम्बना यह है कि बाढ़ के कारण जिनके घर बह गये, जिन लोगों का नुकसान हुआ, उसकी भरपाई करने की बजाय बाढ़-पीड़ितों को हिरासत में लिया जाता है। अखबारों में घांघली की खबरें छपती हैं, बाढ़ के कारणों की पड़ताल भी की जाती है, कोई पी.डब्ल्यू. डी. के इंजीनियरों को, कोई सरकार के अकर्मण्य कर्मचारियों को, कोई पड़ोसी राज्य के अधिकारियों को बाढ़ का असली कारण मानते हैं। एक अखबार बाढ़ को ‘मैनमेड’ बताते हैं- ‘पड़ोसी राज्य नहीं, पड़ोसी राष्ट्र के कर्णधारों ने ही हमें डुबाया है। ‘ बरदाहा-बाँध टूटने की जिम्मेदारी चूहों पर पड़ी। चूहों ने बाँध में असंख्य ‘माँद’ खोल कर जर्जर कर दिया था – एक ही साल में। “स्वार्थी नेताओं को गाँव वासियों के दुःख-दर्द को समझना चाहिए था लेकिन नहीं समझा। जनसेवा के नाम पर देश को लूटने वाले ये नेता बस सत्ता हथियाने और अपनी तिजोरी भरना जानते है। देश से इनको कोई लेना-देना नहीं हैं। यही है आज के नेताओं का पाक-साफ़ चरित्र। स्वतंत्रता के बाद आयी इस भंयकर बाढ़ ने समसायिक राजनीति की स्वार्थन्धता और बाढ़ के कारण जनता की दुर्दशा की पोल खोल दी है। – “सुभ-लाभ’ का ऐसा अवसर बार-बार नहीं आता। चीनी आक्रमण के समय वे हाथ मल कर रह गये। …यह अकाल का हल्ला चल ही रहा था कि भगवान ने बाढ़ भेज दिया। दरवाजे के पास तक आई हुई गंगा में कौन नहीं हाथ धोएगा भला! उनके गोदाम खाली हो गये, रातों-रात बही-खाते दुरुस्त!” यही से कहानी का नया पाठ शुरू होता है। रेणु ने इस रिपोर्ताज को ‘पुरानी कहानी : नया पाठ’ जो नाम दिया है वह उचित और सार्थक है। इस प्रकार कहा जा सकता है रेणु की कहानियों में ग्रामीण अंचल का जीवन साकार हो उठा है। उनके साहित्य को आंचलिकता का पर्याय कहना अतिश्योक्ति नहीं है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची:

१ पंचलाइट , फणीश्वर नाथ रेणु

२ लाल पान की बेगम , फणीश्वर नाथ रेणु

तीसरी कसम , फणीश्वर नाथ रेणु

४ ठेस, फणीश्वर नाथ रेणु

५ पुरानी कहानी: नया पाठ, फणीश्वरनाथ रेणु

६ फणीश्वरनाथ रेणु की श्रेष्ठ कहानियाँ, भारत यायावर

७ रेणु रचना संचयन : , सं. भारत यायावर

८ रेणु की कहानियों में चरित्र-चित्रण

९ हिन्दी के आंचलिक उपन्यास , डॉ. विमल शंकर नागर

samved संवेद

अनिता देवी 

शिक्षा : बी.ए., बी.एड., एम.ए., पीएच.डी।

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, आलेख, कविता, कहानी और संस्मरण प्रकाशित, नाटक और रंगमंच एवं भाषा से जुड़े विषयों में विशेष रूचि।

पुस्तक: जयशंकर प्रसाद के नाटकों में युगीन चेतना, प्रेमचंद उपन्यास संबंधी निबंध, हिंदी भाषा और उसकी लिपि का इतिहास, नजीर अकबराबादी रचनावली (तीन खंडों में), भारतीय एवं पाश्चात्य रंगमंच सिद्धांत प्रकाशित।

संप्रति: सहायक प्रोफेसर, हिंदी विभाग, मैत्रेयी कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) दिल्ली।

सम्पर्क: +919899840037, anita.bsd@gmail.com

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साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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