कथा संवेद – 5
इस कहानी को आप कथाकार की आवाज में नीचे दिये गये वीडियो से सुन भी सकते हैं :
विगत दो दशकों से आलोचना के क्षेत्र में सक्रिय वैभव सिंह का जन्म 4 सितम्बर 1974 को उन्नाव, उत्तर प्रदेश में हुआ। ‘इतिहास और राष्ट्रवाद’, ‘भारतीय उपन्यास और आधुनिकता’, ‘शताब्दी का प्रतिपक्ष’, ‘भारतः एक आत्मसंघर्ष’ तथा ‘कहानी: विचारधारा और यथार्थ’ इनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं। टेरी ईगलटन और पवन वर्मा की किताबों के हिन्दी अनुवाद के अतिरिक्त वैभव सिंह ने कुछ पुस्तकों के सम्पादन भी किए हैं और कथा-संवेद के इस अंक में पहली बार एक कहानीकार की तरह उपस्थित हो रहे हैं।
संसाधनों के इष्टतम उपयोग (Optimum Utilization of Resources) का सिद्धान्त नवउदारवादी प्रबन्धन नीतियों के साथ मिलकर जिस तरह अमानवीय होने की हद तक मनुष्यों का दोहन करता है, उसके कई उदाहरण भूमंडलोत्तर समय में आसानी से देखे जा सकते हैं। सुविधाजनक और परिष्कृत प्रौद्योगिकियों के आवरण में लिपटी नियंत्रण की तथाकथित आधुनिक प्रणालियाँ जिस चालाकी से वैयक्तिक स्वतन्त्रता और सांस्थानिक स्वायत्तता की सीमाओं का अतिक्रमण करती हैं, उसका सीधा शिकार समाज के आखिरी पायदान पर खड़ा व्यक्ति सबसे पहले होता है। वैभव सिंह की कहानी ‘मीना बाज़ार’ के हरेन्द्र बाबू की विडम्बनात्मक हरकतों में प्रबन्धन द्वारा आरोपित अमानवीय कार्य-संस्कृति से उत्पन्न तनावों को बहुत बारीकी से महसूस किया जा सकता है। मनुष्य और संवेदनाओं के मशीनीकरण से भी दो कदम आगे उनके प्रस्तरीकरण की जटिल प्रक्रिया को यह कहानी जिस कलात्मक मितव्ययिता और कहन की रोचक सहजता के साथ प्रस्तुत करती है, वह इधर की कहानियों में इसे विशिष्ट बनाता है। उत्पादों के प्रदर्शन हेतु उपयोग किए जानेवाले बेजान बुतों को यह कहानी मनुष्य की भीतरी कुंठा और संवेदनाओं के प्रस्तरीकरण के दोहरे प्रतीक की तरह खड़ा करती है। कथा-संरचना के अवयव किस तरह कहानी की अंतर्वस्तु, परिवेश और पात्रों के सूक्ष्मतम व्यवहारों में घुलेमिले होते हैं, उसे समझने के लिए इस कहानी में डूबना किसी रचनात्मक कार्यशाला का हिस्सा होने जैसा है।
राकेश बिहारी
चित्र: प्रवेश सोनी
मीना बाज़ार
वैभव सिंह
उस दुकान का नाम मीना बाज़ार था और उसके बाहर से ही रंगबिरंगी साड़ियों की दुनिया दिखाई देती थी। दुकान के बाहर बहुत हसीन और पतली-सुकोमल औरतों के बुत खड़े रहते थे जिनके बदन पर बहुत सुंदर साड़ियाँ सजी रहती थी। देखने वाले को समझ नहीं आता था कि वह उन हसीन बुतों को देख रहा है या फिर उनके निर्जीव लेकिन सुडौल बदन पर पहनाई गई खूबसूरत साड़ियों को। निर्जीव औरतों को भी बड़ी होशियारी से ढाला गया था। समाज में इतनी सुडौल कायाएं भले न हों पर फैशन की दुनिया में उनका होना जरूरी था। उस दुकान के सामने से गुजरने वाली लड़कियों-औरतों को वे किसी चुंबक की तरह अपने भीतर खींच लेती थीं। औरतें न चाहकर भी कुछ साड़ियाँ उलट-पलटकर चली आती थीं। अक्सर ही दुकान में जितनी भीड़ दिखती थी, उतनी साड़ियाँ नहीं बिकती थीं। शहर में इन दिनों शापिंग की संस्कृतिलोगों की खरीदारी की क्षमता से अधिक फलफूल रही थी। लोग बोरियत से बचने के लिए ताश, लूडो या अब तो मोबाइल गेम खेलने की बजाय दुकानों वाले इलाके में निकल जाते थे। दुकानदार परेशान रहते थे, पर उन्हें इसी भीड़ से कुछ ग्राहकों के निकल आने की उम्मीद रहती थी। इन्हीं में एक दुकान मीनाबाज़ार में हरेंद्र बाबू काम करते हैं। उनकी उम्र पचपन साल से थोड़ी अधिक या थोड़ी कम होगी। वह काउंटर पर खड़े होकर कस्टमर्स को जिनमें अधिकांशतः औरतें होती थीं, उन्हें साड़ियाँ दिखाते हैं। इस दुकान में काम करते-करते वह धैर्य की जिंदा मिसाल बन चुके हैं और किसी को धैर्य नामक शब्द की मूर्ति गढ़नी हो तो शायद वह हरेंद्र बाबू से ही मिलती-जुलती होगी। धैर्य की मूर्ति जैसे ही तटस्थ और खुद में सिमटे हुए।साड़ियाँ दिखाने का काम ही ऐसा है..सात समंदर से भी गहरे धैर्य वाला। पर बाहरी छवि के विपरीत हरेंद्र बाबू खुद को भीतर ही भीतर बहुत बिखरा हुआ और लस्तपस्त महसूस करते थे।
कल ही उनकी पत्नी जो, घर में बैठे बैठे कभी कभार कुछ पास की किराने की दुकान के लिए पैकेट बनाने का काम करती है, उनसे कह रही थी- ‘तुम साड़ियाँ दिखाते-दिखाते खुद एक साड़ी में बदल गये हो। तुम्हें पता भी नहीं लगता कि तुम्हें भी कितना खोला, पटका और तह लगाया जाता है रोज। पर उफ भी नहीं करते।’ हरेंद्र बाबू को अपनी तुलना साड़ियों से करना विचित्र लगा फिर धीरे-धीरे उन्हें लगा कि वह सचमुच साड़ियों के बीच रहते-रहते किसी जार्जेट-शिफान की साड़ी जैसे हो गये हैं, उन्हें भी खुद को कितनी बार तह लगाकर संभालना पड़ता है, वरना उनका मन भी तो खुलकर अक्सर ही बिखर जाता है।
पति की तुलना साड़ियों से कर उनकी पत्नी हंस दी थी। हरेंद्र बाबू की खुशकिस्मती थी कि उनकी बीबी जिन्दगी की लाख मुसीबतों के बीच हंसमुख थी। वह अक्सर कहती थी कि यह हंसमुखपन की आदत उसे अपनी बुआ से मिली है जो जब भी घर आती थीं तो घर भर में चहचहाती फिरती थीं। हालांकि उनके पति चिड़चिड़े थे और अक्सर घर से गायब रहते थे पर उनकी हंसी पर कभी फर्क नहीं पड़ा। उसे उन बुआ के कानों की बालियाँ और उनकी हंसी दोनों इतनी पसंद थीं कि वह चाहती थी कि वह भी उन्हीं के जैसी हो जाए। बाद में उनका ट्रांसफर हो गया तो वह हमेशा के लिए बहुत दूर चली गयीं पर उनकी याद उसे अब भी आती है। उनकी याद में जीते-जीते भी वह बुआ जैसी ही बनती रहीं धीरे-धीरे।
पर हरेंद्र बाबू की समस्याएं लगातार बढ़ती जा रही थीं। वह जिस दुकान में पिछले सत्ताइस बरस से काम कर रहे थे, उसका मालिक तीन साल पहले मर गया था। मालिक पुराने जमाने का सुस्त, आराम से चलने वाला आदमी थी। उसमें एक ही बुराई थी कि वह दुकान बंद करने के बाद दुकान में बैठकर शराब पीता था और औरतों के बारे में बहुत अश्लील बातें करता था जिसमें हरेंद्र बाबू को भी शामिल कर लेता था। पर अच्छी आदत यह थी कि वह शराब के नशे के अलावा बाकी समय दुनिया का सबसे सज्जन और शरीफ इंसान नजर आता था। वह समाज के उन शरीफों जैसा शरीफ था जो खुराफात का सुरक्षित मौका मिलने के अलावा कभी अपनी शराफत पर आँच नहीं आने देते हैं। अपनी शराफत को खूबसूरत गुलदस्ते की तरह कमरे में सजाकर रखते हैं।
मालिक की मौत के बाद हरेंद्र बाबू की आंखों के सामने दुकान में बहुत सारे बदलाव होने लगे। मालिक का बेटा अब नए जमाने के हिसाब से दुकान को चलाना चाहता था। उसने दुकाने में लाखों रुपये लगाकर उसे ठीक कराया। लकड़ी का भारी काम कराया और दुकान के आगे खूबसूरत जिस्म वाली औरतों के बुत लाकर रख दिए। उन बुतों की साड़ियाँ रोज बदलने और उन्हें सजाने-संवारने का काम करने के लिए उसने एक अलग से आदमी रख लिया। वह आदमी रोजाना उनपर साड़ियाँ पहनाने के नाम पर उन्हें निर्वस्त्र करने का आनंद लेता है, या फिर सचमुच साड़ियाँ पहनाता है, यह अभी तक समझ नहीं आया था।
छह महीने पहले अचानक ही दुकानों में सीसीटीवी कैमरे लगने लगे। हरेंद्र बाबू और दुकान के बाकी बारह कर्मचारी घबरा गये। दुकान के सबसे पुराने कर्मचारी थे राजेंद्र शर्मा जी। लगभग पैंतीस साल से लगे हुए थे यहीं। वे पंजाब के एक छोटे कस्बे से भागकर आए थे और एक बार आए तो यहीं के होकर रह गये। उन्होंने मजाक में कह दिया- ‘ये कैमरे हमारा काम खराब ज्यादा करेंगे। हर वक्त सिर पर कोई चीज बिठाने से वैसे ही आदमी परेशान रहेगा।’ उनकी यह बात दुकान के नए मालिक को चुभ गई और लगभग डपटते हुए कहा- ‘शर्मा जी..जरा अपना ख्याल रखिए। चीजों में अड़ंगा डालने में आपका ही नुकसान है..।’ उसके बाद बिचारे शर्मा जी ऐसा सकपकाए कि लगभग गूंगे हो गये। जो बातें पहले हंसकर आराम से कहते थे, उन्हें भी अब इशारों में बताने लगे। पहले कोई चाय पीने के बारे में पूछता था तो जोर से, गला साफकर बोलते थे- ‘अरे चाय पिये बगैर काम चलता है?’
अब वे केवल चोर नजरों से अगल बगल देखते और फिर धीरे से सिर हिला देते।
नए मालिक प्रभाष शर्मा ने, जो पुराने मृत मालिक का बड़ा बेटा था, बताया-
‘अबसे दुकान की हर चीज मेरी निगाह में रहेगी। मुझे नया वर्क कल्चर विकसित करना है ताकि दुकान में ग्राहकों को सौ प्रतिशत संतुष्टि मिल सके। ये सब पुराने तरीके अब नए जमाने में नहीं चलेंगे। अब बहुत चुस्त दुरुस्त रहने का वक्त है।’
हरेंद्र बाबू पिछले कुछ दिनों से देख रहे थे कि दुकान में सबकुछ बदल रहा है। अभी दो दिन पहले ही वे साड़ियों के काउंटर के स्टूल पर बैठकर फोन पर बात कर रहे थे तो नया मालिक आया और बोला-
‘सुनिए, आप फोन मत देखा कीजिए काम के समय।’
हरेंद्र बाबू ने उसे फटी-फटी निगाहों से देखा। फिर चुप्पी साध गये। सत्ताइस साल में उन्हें कभी इस तरह की आपत्तियों का सामना नहीं करना पड़ा था। पुराने मालिक कभी चाय पीने या बाहर हवा खाने जाने पर भी कुछ नहीं बोलते थे। कभी कुछ कहना भी हुआ था तो कहते थे-
‘क्या हरेंद्र बाबू सब ठीक तो है!’
उनके इस वाक्य ‘ठीक तो है’ को सब लोग उनकी हल्की-फुल्की नाराजगी की तरह लेते थे। बाकी के कर्मचारी भी अब इसी तरह की रोकटोक के शिकार हो रहे थे। पुराने मालिक खुद भी कुर्सी पर बैठे रहते थे और अक्सर कहा करते थे- बरकत तो भगवान की देन है और भगवान उसी से खुश रहता है जो दूसरों को खुश रखता है।
अगले दिन हरेंद्र बाबू दुकान में आए। अपने काउंटर पर गये और रोज की तरह काम करने लगे। साड़ियों को क्रम में लगाने, उनकी कीमतों वाली पर्ची को चेक करने तथा काउंटर को पोंछने में जुटे रहे।
तभी उनके पास प्रभाष आया और बोला- ‘हरेंद्र बाबू, अबसे आप लोग तब तक स्टूल पर न बैठा कीजिए जब तक दुकान में एक भी ग्राहक है। मुझे अच्छा नहीं लगता कि काउंटर पर औरते साड़ी देखें और आप लोग नीचे स्टूल पर बैठ जाएं।’
पचपन साल की उम्र में उन्हें किसी तीस साल के नौजवान से इस सख्त लहजे में डांट सुनना अच्छा नहीं लगा पर किसी कड़वी दवा की तरह गटक गये। उन्होंने जोर से अपनी दाएं हाथ के अंगूठे को बाकी उंगलियों से मसला ताकि वह इस बात को बर्दाश्त कर लें। अंगूठे की पीड़ा को महसूस कर दिल की पीड़ा को नजरअंदाज करने की यह उनकी निरर्थक चेष्टा थी।
फिर उसने उंगली दिखाकर कहा-
‘वो देखिए सीसीटीवी भी लगवा दिया है अब तो। मुझे सब दिखता रहता है कि कौन अपना काम अधिक ईमानदारी से कर रहा है।’
उसने ईमानदारी शब्द का ऐसे इस्तेमाल किया जैसे ईमानदारी का मतलब होता है मशीन बन जाना। या ईमानदारी का मतलब होता है कि काम करते-करते सिर फोड़ लेना। यह नए जमाने की ईमानदारी थी जिसमें बेईमानी करना जायज था, पर किसी का खून निचोड़ लेना ईमानदारी थी। बड़ी बेईमानी करने के लिए बड़े ईमानदार लोगों की जरूरत थी।हरेंद्र बाबू उन लोगों में थे जो दूसरों के लिए तो रास्ते में आए पत्थर को हटा सकते थे, पर खुद किस पत्थर से चोट खाने पर दर्द सहना जानते थे। दिन बीतते रहे और दुकान का हुलिया बदलता रहा।
वह शायद मई का गर्मियों से भरा कोई दिन था। कोई ऐसा दिन जिसमें सबकुछ बहुत सामान्य होता है, न किसी बड़े नेता की मत्यु होती है, न कोई सरकार बनती-बिगड़ती है और न टीवी पर भारत के महाशक्ति बन जाने का कोई नया ताजा दावा सामने आता है।वह चुपचाप नई आई साड़ियों की गिनती कर उन्हें सामने की अलमारी में सजाने में लगे थे। अपना ब्लड-शुगर लेवल उन्होंने इस बीच लाख चिंताओं के बावजूद चेक नहीं कराया था। दुकान में भीड़ बढ़ रही थी। त्यौहारों का मौसम तो नहीं था, पर शादियों का मौसम जोरों से चल रहा था। तीन औरतें दुकान में घुसीं जिनमें एक ने काला चश्मा लगा रखा था। हरेंद्र बाबू को कभी समझ नहीं आया कि खरीदारी करने वाली औरतें दुकान में भी काला चश्मा क्यों पहने रहती हैं। वे उनके काउंटर पर आकर दक्षिण भारत की प्रिंटेड किनारी वाली साड़ियों को दिखाने को कहने लगीं।
हरेंद्र बाबू फुर्ती से साड़ियाँ उनके सामने फैलाने लगे। बीच-बीच में आवाजें- ये नहीं..वो वाली..वो वाली नहीं..वो वाली..। सारी बातें मानते हुए अपना काम करते रहे। उन औरतों ने लगभग दो घंटे तक साड़ियाँ देखीं और तीन साड़ियाँ पसंद कर बिल बनवाने चली गयीं। हरेंद्र बाबू बार-बार साइड में रखे स्टूल को देख रहे थे, और उन्हें इंतजार था कि कब औरतें जाएं और वे थोड़ा आराम कर लें। ऊपर सीसीटीवी उन्हें घूर रहा था और उन्हें लग रहा था कि उनकी हर सांस को गिनकर मालिक के पास हिसाब दे रहा है। उन्हें सीसीटीवी को फोड़ देने का मन किया, पर सत्ताइस साल की नौकरी की चिंता उनके साहस पर हावी हो गई। ग्राहक सामने के ऊंचे सोफे पर बैठ सकता था पर नए नियम के अनुसार हरेंद्र बाबू को इसकी इजाजत नहीं थी। लगभग दो घंटे तक खड़े रहने के कारण उन्हें बेचैनी सी हो रही थी। उनके पैरों में भारीपन सा था, पर वे मन ही मन सोच लेते थे कि इन औरतों के जाते ही दस मिनट बैठ सकेंगे। पर उनकी किस्मत..। उन औरतों के जाने के बाद कुछ कस्टमर और पहुंच गये। उन्होंने फिर से मशीन की तरह उनके सामने साड़ियाँ उलटना पलटना शुरू कर दिया। उनकी कीमतें बताते रहे। अब जो महिला आई थी, उसके साथ एक गुस्सैल सा आदमी भी था।
वह अपने साथ ही महिला को डांटकर कहता था- ‘तुम्हें कुछ पसंद भी आता है। अभी पचास साड़ियाँ देखकर कहोगी कि मुझे कुछ पसंद नहीं आया। कहीं और चलो।’
हरेंद्र बाबू को हल्की सी हंसी आई। उन्हें लगा कि साड़ियाँ देखने के लिए कभी आदमियों को साथ नहीं लाना चाहिए। अब खड़े-खड़े ढाई घंटे बीत गये थे। सीसीटीवी खामोशी से उनकी हर हरकत को नोट कर रहा था। जैसे कोई जिंदा बम सिर पर लटका हो। उनका बैठने वाला स्टूल भी अब उनकी थकान देखकर थका हुआ लग रहा था। हरेंद्र बाबू को धैर्य रखना पड़ रहा था। उन्हें फिर पुराने मालिक की याद आई जो रोज नहीं पर अक्सर पूछ लेते थे-
‘कोई परेशानी तो नहीं है, घर में सब ठीक है?’
अब तो उन्हें लगा कि घर और परेशानी का हालचाल उनसे किसी ने कई महीने से नहीं पूछा है। वे आते हैं, काम करते हैं, सीसीटीवी को मन ही मन गाली बकते हैं और चले जाते हैं।अनुशासन के शासन ने सारे कर्मचारियों की हंसी और हल्के-फुल्के मजाक छीन लिए हैं। अभी पिछले हफ्ते ही उनका बड़ा मन था कि वह दुकाने के कैशियर के काउंटर पर बैठनी वाली मिसेज निशा अवस्थी के पास जाएं और उनसे कहें- ‘मैडम आपने लड़के की शादी कर दी और बताया तक नहीं।’
पर वह अपनी इच्छा दबा गये क्योंकि नए मालिक को पसंद नहीं था लोग किसी से बात करें, साथ में बैठें और बाहर भी मिले जुलें। उन्होंने ह्यूमेन रिसोर्स के कोर्स में पढ़ा था कि इंसान की उत्पादकता बढ़ाने के लिए उसे नया काम ही नहीं सिखाना होता है बल्कि पुराने काम भी नए ढंग से करने के लिए प्रेरित करना होता है। इसलिए उन्होंने सीसीटीवी का पहरा पूरी दुकाने पर बिठा दिया था ताकि वे देख सकें कि पुराने कर्मचारी अपना पुराना काम नए ढंग से कर रहे हैं कि नहीं। वो नया ढंग जो उन्होंने सिखाया है।
उधर, हरेंद्र बाबू को सपने आते तो दिखता कि वह किसी घाटी में उतर रहे हैं और आसमान पर बहुत सारे सीसीटीवी चीलों की तरह मंडरा रहे हैं और चीख रहे हैं। वह दुकान में साड़ियाँ दिखाते हुए अक्सर बोलते थे-
‘मैडम हम सत्ताइस बरस से यही काम कर रहे हैं। आप बेफिक्र होकर साड़ी ले जाओ…हम यहीं बैठे हैं।’
पर उन्होंने महसूस किया है कि अपने इस तकियाकलामनुमा वाक्य को कुछ महीने से बोल ही नहीं रहे हैं। पुराने मालिक के समय जो बात खरीदारों के सामने गर्व से कहते थे, अब लगता है कि वही बात भूलते जा रहे हैं। अब उन्हें सत्ताइस बरस से काम करने की बात में कोई गर्व नहीं महसूस होता था।लगभग साढ़े तीन घंटे तक खड़े रहने के बाद उस दिन तो हरेंद्र बाबू थककर ऐसा चूर हुए कि उन्हें लगा कि साड़ियाँ उड़कर कहीं किसी समंदर में जा गिरी हैं और वे भी उन्हीं के साथ वहीं डूब रहे हैं। काफी देर तक उन्होंने मन में आते चक्कर, थकान और बेचैनी से खुद को संभाला, पर अंत में उनकी हिम्मत जवाब दे गई। साड़ियाँ छोड़कर ‘धम्’ से स्टूल पर बैठ गये। अभी भी काउंटर पर कुछ औरतें थीं, पर वे टस से मस नहीं हुए। फिर सीसीटीवी पर उनकी निगाह गई तो बिजली की फुर्ती से उछलकर खड़े हो गये, जैसे करेंट लग गया हो। फिर किसी तरह से खड़े-खड़े साडियाँ पलटते, लगाते रहे पर उनकी थकान बढ़ती रही। लोगों के आने-जाने का तांता लगा था। वह मन ही मन प्रार्थना करते कि इस काउंटर पर किसी को मत भेजना पर भगवान ने हमेशा की तरह प्रार्थनाओं को अनसुना कर दिया। लोग आते जा रहे थे।
फिर उनके मुंह से अजीब वाक्य निकलने लगे। एक औरत से बोले- ‘ये साड़ी तो तीन हजार की है..पर क्या हुआ.. खरीदो या न खरीदो..तुम्हारी मर्जी।’ औरत को अजीब लगा और वह उठकर चली गई।
फिर उन्होंने दूसरी से कहा- ‘ये वाली तो उड़ीसा सिल्क है, पर इधर की औरतों पर अच्छी नहीं लगेगी। क्या करना पहनकर इसे।’ वह औरत भी उन्हें कुछ देर देखती रही, फिर वह भी चली गई।’
फिर एक तीसरी औरत से कहा- ‘साड़ी के तो जमाने चले गये..अब तो भागना दौड़ना है, पुराना फैशन है साड़ी पहनना।’
वह औरत भी यह कहकर चली गई- ‘क्या बकवास करता है ये आदमी! लगता है मीनाबाज़ार में लोग काम नहीं करना चाहते।’
हरेंद्र बाबू को खुद नहीं पता चल रहा था कि वह क्यों और क्या बोल रहे हैं। सीसीटीवी को देखकर सोचते कि वह यह भी तो नोट कर रहा होगा कि उनके काउंटर से सब ग्राहक भाग रहे हैं। पर उन्हें लगा कि वहअब जो सोच रहे हैं, जो कह रहे हैं और जो महसूस कर रहे हैं, उसमें सारा संबंध बिगड़ चुका है। उन्होंने एक साड़ी को उठाया और उसे तह लगाने की जगह जमीन पर फेंक दिया। उन्हें लगा कि उनका तरीका काम कर रहा है। अब काउंटर खाली हो गया है। अब बैठ सकेंगे। अब चकराते सिर को आराम दे सकेंगे और सीसीटीवी की निगाहों में खुद को बेगुनाह साबित कर सकेंगे। पर उनकी बदकिस्मती से चार औरतों का झुंड फिर उन्हीं के काउंटर की ओर बढ़ता नजर आया। सिल्क साड़ी दिखाने का उनका हुनर आज उनपर भारी पड़ रहा था। अब उनकी हिम्मत जवाब दे गई। उन्होंने औरतों के आगे हाथ जोड़ लिया। मुंह से घिघियाई से आवाज निकली-
‘आप कहीं और जाओ…पंद्रह मिनट दे दो बस…केवल पंद्रह मिनट…’
उन औरतों को समझ नहीं आया कि हुआ क्या।
उधर हरेंद्र बाबू ने सीसीटीवी को देखा और फिर घिघियाते हुए बोले—
‘कुछ देर बैठ जाने दो वरना आज ही मर जाऊंगा…बस कुछ देर…वहां जाओं…वहां जाओ।’ वह दूसरे काउंटर पर जाने का इशारा कर रहे थे। कहते-कहते धड़ाम से जमीन पर गिर पड़े। सामने साड़ियाँ फैली थीं, स्टूल और सीसीटीवी उन्हें देखे जा रहे थे और उन्हें लग रहा था कि नया मालिक जोर से चिल्ला रहा है—
‘कैसे-कैसे लोग यहां भरे पड़े हैं। कोई काम तो करना ही नहीं चाहता। सबको आधे घंटे की खाने की छुट्टी देता हूं। फिर भी सबको आराम करना है यहां…दुकान पर ताला नहीं लगने दूंगा…कल से सबकी छुट्टी…’
हरेंद्र बाबू जमीन पर गिरकर जोर-जोर से सांस ले रहे थे पर दुकान का कोई व्यक्ति उनके पास दौड़कर नहीं आया। सब सीसीटीवी के डर से अपनी जगहों पर खड़े कामों में चुपचाप मशगूल थे।हरेंद्र बाबू उठने की कोशिश कर रहे थे, बार-बार उन्हें सीसीटीवी ही नजर आ रहा था… दुकान की मेज पकड़कर उठना चाह रहे थे पर उन्हें लगा कि उनकी देह से सारा खून सूख चुका है, दिल जोर से धड़क रहा है, पैर सुन्न पड़ रहे हैं और आँखों के आगे एक धुंधलका सा फैलरहा है…
आज सामने की बुत पर पीली साड़ी थी…कोने पर लगे आदमक़द आईने में उसकी एक धुंधलाती सी तस्वीरकौंधी…उन्हें लगा कि वह मौन बुत हिला, पीछे मुड़कर देखा और अचानक ही जैसे उनकी पत्नी की शक्ल में बदल गया… और अब वह उन्हीं की तरफ चली आ रही है…। सीसीटीवी वैसे ही उन्हें घूरे जा रहा है, उनकी एक-एक गतिविधि को दुकान का मालिक देख रहा है और उनके कानों में उनके ही कातर शब्द गूंज रहे हैं- सत्ताइस बरस से…सत्ताइस बरस से…। ये शब्द हवा में चिड़ियों की तरह उड़ते और कोई कैमरे की शक्ल वाला खूंखार बाज उन्हें झपट जाता।
वैभव सिंह
विगत दो दशकों से आलोचना के क्षेत्र में सक्रिय वैभव सिंह का जन्म 4 सितम्बर 1974 को उन्नाव, उत्तर प्रदेश में हुआ। ‘इतिहास और राष्ट्रवाद’, ‘भारतीय उपन्यास और आधुनिकता’, ‘शताब्दी का प्रतिपक्ष’, ‘भारतः एक आत्मसंघर्ष’ तथा ‘कहानी: विचारधारा और यथार्थ’ इनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं। टेरी ईगलटन और पवन वर्मा की किताबों के हिन्दी अनुवाद के अतिरिक्त वैभव सिंह ने कुछ पुस्तकों के सम्पादन भी किये हैं।
सम्पर्क +919711312374, vaibhav.newmail@gmail.com
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चित्रकार : प्रवेश सोनी
चित्रकला और साहित्य दोनों ही क्षेत्रों में समान रूप से सक्रिय प्रवेश सोनी का जन्म 12 अक्तूबर 1967 को हुआ।
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रेखाचित्र, कविता और कहानियाँ प्रकाशित।
पुस्तकों के आवरण के लिए पेंटिंग।
संपर्क: praveshsoni.soni@gmail.com
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