लेख
दलित व्यथा की कथा
- वैभव सिंह
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी आत्मकथा, कथा, कविता और आलोचना ग्रंथ से हिंदी लेखन में दलित चेतना के लिए रास्ता निर्मित किया है। आज बहुत सारे दलित लेखकों की रचनाएं सामने आ रही हैं पर करीब 25 साल पहले संभवतः स्थिति पूरी तरह भिन्न थी। उस समय हिंदी में दलित लेखन की नींव पड़नी थी और खुद दलित लेखकों के मन में अपने लेखन को लेकर अनिश्चय का भाव दिखता है। उसी समय वाल्मीकि दलित लेखन की पहली पीढ़ी के सशक्त प्रतिनिधि के रूप में उभरे थे। इसीलिए विभिन्न उलझने, अनिश्चय और डर उनके आत्मानुभवों के अनिवार्य हिस्से के रूप में व्यक्त हुए। अपनी आत्मकथा ‘जूठन’ की भूमिका में उन्होंने लिखा है- ‘इन अनुभवों को लिखने में कई प्रकार के खतरे थे। एक लंबी जद्दोजहद के बाद मैंने सिलसिलेवार लिखना शुरू किया। अपनी उपेक्षाओं और प्रताड़नाओं को एक बार फिर जीना पड़ा। उस दौरान गहरी मानसिक यंत्रणाएं मैंने भोगीं। स्वयं को परत दर परत उधेड़ते हुए लगा कि कितना दुखदाई है ये सब।’
उनकी कहानियों में दलित जीवन-चेतना का भी विस्तार और विकास होता रहा है। दलित लेखन को मुख्यतः आक्रोश का लेखन माना जाता है। इसीलिए कुछ दलित विचारकों ने आक्रोश को भी साहित्यशास्त्र के एक अलग रस के रूप में स्वीकार कराने की वकालत की है। आक्रोश का अर्थ केवल यह नहीं होता कि कथा में किसी दलित चरित्र को अनिवार्य रूप से आक्रोश से भरा, लड़ता हुआ चित्रित कर दें, बल्कि इसका अर्थ यह है कि दलितों की पीड़ा को समझने के लिए दलितों के दृष्टिकोण से यथार्थ की आलोचना की जाए। यथार्थ से पलायन के स्थान पर यथार्थ का चित्रण कर उसे बदला जाए। इस आक्रोश का यह अर्थ भी है कि दलित विरोधी सामाजिक परिवेश की क्रूरता को बिना हिचक के व्यक्त किया जाए।दलित लेखन ने रस और आनंद की धारणाओं को भी चुनौती दी है और उनका मानना है कि साहित्य का परंपरागत उपभोग करने वाला रसिक वर्ग दलित साहित्य या फिर स्त्रियों अथवा अश्वेतों के साहित्य के विकास की परिस्थितियों को समझने से हमेशा ही बचने का प्रयास करता रहा है। उसने साहित्य की कसौटियों पर भी वर्चस्व रखा और साहित्य के अनंतकालीन अनुकूलन को जारी रखने का प्रयत्न किया। दलित साहित्य केवल लिखा ही नहीं जाता है बल्कि साहित्य के मूल्यांकन संबंधी पुरानी समझ को लगातार चुनौती देता है। दलित लेखन अपने को वर्णाश्रम-जाति पर टिकी सामाजिक व्यवस्था में असुरक्षा महसूस करने के अनुभव से जोड़ता है। उसे लगता है कि असुरक्षा को खत्म करने में भारतीय लोकतंत्र भी तभी सफल होगा जब उस लोकतंत्र में दलितों का राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ेगा। लोकतंत्र को संकीर्णता से मुक्त कराने के कार्यभार को वह आगे बढ़कर ग्रहण करना चाहता है और साहित्य को भी उसी कार्यभार के अंग के रूप में देखना उसे कतई साहित्य-विरोधी गतिविधि नहीं लगती है। उसने साहित्य में सच्ची मानवीय संवेदना के अभाव की भी शिकायत की है या फिर उसकी मानवीय संवेदना की मौजूदा परिधि को नाकाफी माना है। इसीलिए वाल्मिकि ने लिखा- ‘दलित कहानी का उद्देश्य सामाजिक मूल्यों की स्थापना के साथ मानवीय संवेदनाओं की पुनःस्थापना भी है, जिसका अभाव साहित्य में परिलक्षित होता है।’ दलित लेखकों ने केवल साहित्यिक मान्यताओं से ही नहीं बल्कि प्रकाशन, पत्रिका, विश्वविद्यालय आदि के स्तर पर भी अपने संघर्ष को रेखांकित किया है। उन्होंने अपने लेखन को इतिहास व समाज बदलने वाले लेखन के रूप में पहचान कराने का प्रयास किया है और यह भी दावा किया है कि उनके लेखन के बारे में बहुत सारी संस्थाएं अगंभीरता तथा बचकानेपन का परिचय देती हैं। जैसे कि ‘अक्करमाशी’ नामक आत्मकथा लिखने वाले शरण कुमार लिंबाले ने हिंदी के प्रकाशकों पर भरपूर क्रोध जताया है। अपने प्रकाशक को मूर्ख कहा है क्योंकि उसने उनकी आत्मकथा को उपन्यास कहकर छापा और शरण कुमार लिंबाले को इसी वजह से लगता है कि मराठी की तुलना में हिंदी में उनकी आत्मकथा इसलिए पर्याप्त रूप से चर्चित न हो सकी क्योंकि उसे आत्मकथा के स्थान पर बताया गया।
वाल्मीकि ने गौकशी, बंधुआ लोकतंत्र,शवयात्रा, छतरी, सलाम, शाल का पेड़, मंगलवार, बपतिस्मा जैसी महत्त्वपूर्ण कथाओं की रचना की है। अच्छी बात यह है कि उन कथाओं का भाव-बोध नकली, दिखावटी या किताबी नहीं है। उनमें स्वानुभूति भी अन्य की पीड़ा के साथ मिलकर ज्यादा व्यापक हो गई है।चूंकि रचनाओं का स्रोत जीवन की सच्ची पीड़ा है और इसीलिए वह पीड़ा उनकी हर रचना में आग पैदा कर देती है। वे समाज तक पहुंचने का ऐसा सेतु हैं जो ऊबड़खाबड़ या कुरुचि से भरा नहीं बल्कि काफी सीमा तक व्यवस्थित हैजिसपर पाठक रूपी पथिक काफी आसानी से चलकर आगे बढ़ सकता है। कला के प्रति आग्रह का व्यक्त करना दलित लेखन की मूल स्थापना के खिलाफ रहा है। दलित लेखन कलावाद की बात सुनते ही भड़क उठता है और अपने समस्त अर्जित बुद्धिवाद का प्रयोग इस पर तेज प्रहार करने के लिए करने लगता है। पारंपरिक कला और सौंदर्यशास्त्र से अपनी दूरी को वह स्पष्ट तौर पर जताने में संकोच नहीं करता है। पर जो सजग दलित रचनाकार हैं उन्होंने कला को विरोध करते हुए भी उस विधा की बुनियादी शर्तों को समझने का प्रयास किया है, जिसका उपयोग वे करना चाहते थे। वाल्मिकी भी उन्हीं सजग रचनाकारों में हैं।
उदाहरण के लिए उनकी कहानी ‘गोकशी’ को लें जो आज का राजनीतिक माहौल पर एकदम सटीक टिप्पणी की तरह प्रतीत होती है। वर्तमान सरकार ने गोहत्या के विषय को जिस प्रकार से उठाया है, उसमें गाय किसी देवी-देवता या हिंदू धर्म का प्रतीक बनाने के स्थान पर अल्पसंख्यकों व दलितों के खिलाफ घृणा का प्रतीक बन गई है।पिछले दो साल में गोहत्या के मामले में उग्र भीड़ ने कई स्थानों पर दलितों व मुस्लिमों की हत्याएं कर दी हैं।यकीन नहीं आता कि आज के राजनीतिक माहौल पर सटीक ढंग से लागू होने वाली कहानी वाल्मिकी जी कई साल पहले ही लिख चुके थे।‘गोकशी’ नामक कहानी में गांव से मरे पशुओं की खाल उतारकर शहर के गोदाम में पहुंचाने वाले गरीब दलित व मुस्लिम की कथा है। ये वे गरीब-गुरबे हैं जों रोज मेहनत न करें तो भूखे मर जाएं। जब वे ट्रक में कुछ पशुओं की खाल ले जाते रहे होते हैं, तो ड्यूटी पर खड़ी पुलिस उनसे घूस मांगती है। घूस की मांगी गई रकम न चुकाने पर उनकी पिटाई करती है और बाद में वहीं से गुजर रहे हिंदू सेना के लोगों को सौंप देती है जो उन्हें फिर से पीट-पीटकर अधमरा कर देते हैं। बाद में तेजी से अफवाह फैल जाती है कि गाय की खाल की नाजायज ढंग से तस्करी हो रही थी। पुलिस थाने में उग्र भीड़ हमला कर पांचो दलित-मुस्लिम मजदूरों की हत्या कर देती है। भयानक बर्बरता पर लिखी कहानी अपने प्रभाव में इतनी मार्मिक और ह्रदय को झिंझोड़ देने वाली है कि इसके बाद यह प्रश्न ही उठाना बेकार हो जाता है कि कहानी में कला, रस, शिल्प की क्या विशेषता हैं। वाल्मीकि की अधिकांश कथाओं की यही विशेषता है कि जब तक कोई उसे न पढ़े तब तक तो वह विद्वतापूर्ण अदाओं के साथ कथा-शिल्प, कथा-प्रयोग, कथा की संप्रेषणीयता आदि की जटिल आलोचना संबंधी पदावली का प्रयोग करेगा। पर कहानी पढ़ते ही उसे लगने लगेगा कि वह खुद को आलोचक समझने के अहं में कहानी पर कितनी गलत कसौटियों को लागू करने की कोशिश कर रहा था।कहानी के बाहर रहकर कथा-आलोचना करने वाली बनावटी किस्म की निर्मम आलोचना पद्धति वहां काम नहीं आती है। दलित कथालेखन में दलितों का चित्रण दो प्रकार से हुआ है। एक ओर उन्हें बड़े बेबस, असहाय ढंग से अत्याचार का शिकार होते दिखाया गया है। यह प्रदर्शित किया गया है कि उनकी विनम्रता व सहन शक्ति उनके खिलाफ प्रयोग होती रही है और हिंसा पर आधारित जाति संरचना के मन में दलितों की विनम्रता के प्रति किसी प्रकार के सम्मान का भाव नहीं है। दूसरी ओर उन्होंने दलितों के उग्र प्रतिरोध और आक्रोश को भी दिखाया है।
उनकी एक और कहानी है ‘बंधुआ लोकतंत्र’। यह कहानी पंचायती राज लागू होने के बाद ग्रामीण स्तर पर दलितों को आरक्षण मिलने और उस आरक्षण के बावजूद गांव में उच्च जातियों के पारंपरिक वर्चस्व की निरंतरता को बयान करती है।एक ओर ‘जाति के राजनीतिकरण’ की परिस्थितियां तैयार हो रही हैं औरइस बारे में मशहूर चिंतक रजनी कोठारी ने कहा था कि यह काल ‘वास्तविक राजनीतिक अभिनेताओं’ के उभार का काल है।इसे जातिवादी राजनीति कहकर इसका तिरस्कार करने वाले अभिजन बुद्धिजीवियों के बारे में उन्होंने लिखा था- ‘राजनीति में जातिवाद का रोना रोने वाले भारतीय बुद्धिजीवी ऐसे हैं जो दरअसल एक ऐसी राजनीति की चाह से ग्रस्त हैं जिसका समाज में कोई आधार ही नहीं है।’
(रजनी कोठारीः राजनीति की किताब, पृः 192)
दूसरी ओर सत्ता पर काबिज पारंपरिक जातियां दलित उभार को हिंसक ढंग से रोकने की कोशिश कर रही हैं। इस हिंसा में सवर्ण जातियों के साथ दबंगी पिछड़ी जातियां भी गठजोड़ करने लगी हैं। प्रशासन और असामाजिक तत्व एकजुट होकर राजनीति में दलितों के प्रवेश को रोकने में लगे हैं। दलित जातियां चुनाव को केवल आर्थिक विकास और सामाजिक हैसियत बढाने के रूप में देखने के बजाय उसे सीधे-सीधे राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने के माध्यम के रूप में देखने लगी हैं। वे अब दर्शकदीर्घा में बैठकर लोकतंत्र का तमाशा देखने के लिए तैयार नहीं हैं। अपना ख्याल खुद रखने के सिद्धांत पर यकीन करने लगी हैं। लोकतंत्र में जाति का नए ढंग से जन्म होने लगा है पर विभिन्न प्रकार की सामाजिक हिंसाएं उसे रोकने की भी कोशिश कर रही है।बहुत सी सामाजिक रिपोर्टें बताती हैं कि गांवों में दलित आरक्षण लागू होने के बावजूद दलितों का सशक्तिकरण नहीं हो सका है। उन्हें पंचायत अधिकारियों या दबंग ऊंची जातियों के सामने सरपंच होने के बावजूद जमीन पर बैठना पड़ता है। उनके कामकाज में बाधा डाली जाती है या फिर उन्हें चुनाव जीतने के बावजूद ‘चार्ज’ लेने से रोका जाता है। कथा इसी विषय पर केंद्रित है जिसमें गांव में ऊंची जातियों और दलितो के मध्य पंचायत के चुनाव के कारण आर-पार की नौबत आ गई है। चौधरियों की दशकों से चली आती ग्रामीण सत्ता पर तब खतरा पैदा होने लगता है जब गांव की पंचायत को आरक्षित की श्रेणी में डाल दिया जाता है। चौधरियों के हाथ से सरपंची जाने लगती है तो वे बौखला जाते हैं। गांवों में राजनीति में हिंसा एक निर्णायक फैक्टर की तरह प्रयोग की जाती रही है और पारंपरिक उच्च जातियां इसके बगैर राजनीति की कल्पना भी नहीं कर पाती हैं। उनके पास मारपीट, विरोधी के घर में आग लगाना, दलित स्त्रियों से बलात्कार के पुराने अनुभव होते हैं और लोकतंत्र में वे अपने को संयमित तो करते हैं पर हिंसा करने के अपने अनुभव का बार-बार इस्तेमाल करते हैं। हिंसा का एक पैटर्न यह भी होता है कि वे दलितों को पुलिस से न्याय प्राप्त करने से भी वंचित करते हैं। स्थानीय थाने-पुलिस उनके प्रति कठोर बने रहते हैं। कहानी में गांव का दलित युवक रूपचंद किसी भी तरह चौधरियों की धौंस के आगे झुकता नहीं और अंततः वह निर्विरोध सरपंच निर्वाचित हो जाता है। पर गांव के डरे हुए, भयभीत दलित उसकी विजय का जश्न मनाने का साहस भी नहीं कर पाते। प्रायः पंचायत आरक्षण इसलिए भी नाकाम हो जाता है क्योंकि दलित परंपरा से ऊंची जातियों के खेत जोतते रहे हैं और उनके पास जमीन का मालिकाना हक नहीं होता है। सरपंच बनने के बावजूद उन्हें खेतीबाड़ी के लिए ऊंची जातियों के खेत का सहारा होता है। जातिगत वंचना और आर्थिक वंचना की दोहरी मार उन्हें दबंग जातियों के सामने खड़ा नहीं होने देती है। कहानी में दलित युवक संघर्ष कर सरपंच तो बन जाता है पर उसे खेती से वंचित होना पड़ता है। उसकी सरपंची पर गांव की ऊंची और पिछड़ी जातियां व्यंग्य करने लगती हैं। उसे पंचायत भवन नहीं घुसने दिया जाता है, हालांकि कागजों में सरपंच की जगह उसका नाम लिखकर सारे काम किए जाते रहते हैं। कथाकार के शब्दों में-
‘एक छोटे से गांव में अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए लोकतंत्र को बंधक बना लिया था। जिसे छुड़ाने के लिए रूपचंद अपने पूरे परिवार के साथ शहर की सड़कों पर भटक रहा था। दाने-दाने को मोहताज होकर वह भुखमरी की कगार पर पहुंच गया था। लोकतंत्र ने उसे सरपंच तो बना दिया था, पर सिर्फ कागजों पर।’
जाति व्यवस्था ने केवल बाह्य समाज ही नहीं बल्कि मनुष्य के पूरे अंतर्जगत को भी प्रभावित किया है। जाति ने हिंदू मानस की कंडीशनिंग इस तरह से की है कि हिंदू मानस दलितों के साथ क्रूरता को अमानवीय आचरण समझने के स्थान पर धर्म व्यवस्था के पालन के रूप में देखता है। अस्पृश्यता को ईश्वर की रचना के तौर पर स्वीकार कराया जाता रहा है। अस्पृश्यता के इस धार्मिक पक्ष को देखते हुए ही अंबेडकर को लगता था कि लाख प्रयत्न किए जाएं पर अस्पृश्यता की हिंदू धर्म से पूरी तरह से विदाई असंभव है। 1932 में लगभग निराशाजनक स्वर में उन्होंने लिखा था- ‘हिंदू धर्म में अस्पृश्यता भविष्य में भी जारी रहेगी क्योंकि इसे धर्म के साथ जोड़ा जाता है।’ यह बात उन्होंने गांधी के उस मत के खिलाफ जाकर कही थी जिसके अनुसार अस्पृश्यता धीमे-धीमें हिदू धर्म के भीतर से समाप्त हो जाएगी। अस्पृश्यता ने हिंदू समाज व्यवस्था के अभिन्न हिस्से के रूप में अपना स्थान बनाए रखा है और इस कारण अंबेडकर की जाति व्यवस्था को लेकर अंतर्दृष्टि ज्यादा विश्वसनीय और टिकाऊ भी साबित हुई है। भारत में कम्युनिस्ट पार्टियां भी भारत के मुख्य दल कांग्रेस की तरह जाति व्यवस्था के प्रश्न को मौलिक ढंग से हल करने के स्थान पर इस आशावाद की शिकार रहीं कि यह अपने आप लुप्त हो जाएगी। लुप्त नहीं होगी, तो भी इस सीमा तक क्षरित हो जाएगी कि उसे लेकर चिंतित रहने की ज्यादा जरूरत नहीं रहेगी। मार्क्सवादी इतिहासकार विपिन चंद्र ने लिखा है-
‘अपने डेढ़ सौ वर्षों के इतिहास में मार्क्सवाद जनतंत्र अथवा राष्ट्रवाद को भी समझने या उसे विश्लेषित करने में असफल रहा है। राज्य के बारे में इसके सिद्धांत वर्गों अथवा राजनीति के सहसंबंध, मध्यवर्ग की भूमिका, लिंगभेद की समस्या, नीतिशास्त्र अथवा नैतिकता की भूमिका और यहां तक कि धर्म आदि के बारे में इसके सिद्धांत बहुत ही प्रयोगात्मक, कामचलाऊ तथा पैबंदयुक्त है।’
(विपिन चंद्र- समकालीन भारत, पृ229)
देखा जा सकता है कि दूसरी समस्याओं कोबहुत अंतर्दृष्टिपूर्ण पद्धति से उठाते हुए विपिन चंद्र जैसे मार्क्सवादी इतिहासकार भी जाति के प्रश्न पर कम्युनिस्ट पार्टियों की आलोचना से अपने को अलग रखने का सचेत प्रयास करते हैं। इसे संयोग वही लोग मान सकते हैं जिन्हें यह नहीं पता है कि इतिहास के विशेष कालखंड में मार्क्सवादी विचारकों और मार्क्सवादी दलों की वैचारिक सीमाएं अलग नहीं बल्कि परस्पर पूरक होती हैं।
वाल्मीकि की कहानी में जाति व्यवस्था का मनुष्य के अंतःकरण पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव का भी सफल चित्रण किया है। कहानी में मनोविज्ञान, आंतरिक भाव-संवेदना की खोज करने वालों को यहां काफी सामग्री मिल सकती है। प्रेम, करुणा, लगाव, स्नेह और वफादारी जैसे मूल्य सार्वभौमिक होने के स्थान पर जाति व्यवस्था की संस्थानिक अमानवीयता के लगातार शिकार होते रहे हैं। उनकी कई कहानियां इसी विडंबना को चित्रित करती हैं कि दलित तो पुराने रिश्तों को ध्यान में रखकर सवर्ण के साथ मिलकर रहने को तैयार हैं लेकिन सवर्णों में दलितों के प्रति जो नफरत है, वह सामाजिक तानेबाने को तोड़ रही है। वाल्मीकि की कहानी है ‘रामेसरी अथकथा’। इस कहानी में एक प्रकाशक हैं सूर्यनाथ शर्मा। वे मानते हैं कि जाति को ध्यान में रखकर वे किताबें नहीं छापतें लेकिन उनके प्रकाशन से अधिकांश सवर्णों की पुस्तकें छपती रही हैं। उन्हीं के घर में रामेसरी नामक एक दलित स्त्री कई वर्ष से घरेलू काम करती रही है और शर्मा जी यह प्रदर्शित करते हैं कि वे उसकी जाति के कारण कोई भेदभाव नहीं करते हैं। यह दिखावा करना उनकी मजबूरी है ताकि रामेसरी के रूप में उन्हें घर में वफादार नौकरानी की सेवाएं मिलती रहीं। उन्हें पता है कि नीच जाति की स्त्री को थोड़ा बराबरी का दर्जा दे दो तो वह अहसान तले दब जाती है। रामेसरी भी इसी भ्रम की शिकार रहती है कि उसके साथ बराबरी का बर्ताव किया जा रहा है। लेकिन जब रामेसरी के घर में उसकी बेटी का विवाह होता है, तो शर्मा जी के परिवार के लोग वहां नहीं पहुंचते हैं। उन्हें भय होता है कि किसी दलित के घर के समारोह में शामिल होने से उनकी जाति के लोग नाराज हो जाएंगे। रामेसरी की सारी उम्मीदें भरभराकर टूट जाती हैं और बेटी की विदाई से ज्यादा तकलीफदेह उसे लगता है शर्मा जी के द्वारा दिखाई बेरुखी। कहानी के अंत में वह खाली पड़ी एक चारपाई पर निढाल होकर लुढ़क जाती है। उसका इस तरह से हताश होना वास्तव में दलितों के आक्रोशपूर्ण तर्क को ही वजन प्रदान करता है कि सवर्ण समाज जातिगतदुराग्रहों के कारण अपनी बुनियादी मानवता से भी समझौता करने से पीछे नहीं रहता है।वाल्मीकि ने केवल सवर्ण और दलितों के टकराव पर ही नहीं बल्कि दलितों के आपसी अंतर्विरोध पर भी ‘शवयात्रा’ जैसी कथा लिखी है जिसमें दलितों में ही चमार और बल्हार जाति के बीच मौजूद छूआछूत का संबंध व्यक्त होता है।गांव में ही चमार जाति के लोग अपनी से नीची बल्हार जाति के परिवार से दूरी रखते हैं और उस परिवार में होने वाली मृत्यु में शवयात्रा में भी नहीं जाते हैं।
जाति का यह वीभत्स यथार्थ न केवल मानवीय बराबरी का विरोध करता है बल्कि मानवीय बराबरी की संभावनाओं का भी उपहास उड़ाता है।उसका उपहास बहुत मौलिक किस्म का नहीं है बल्कि परंपरा-रिवाज पर टिकी समझ पर ही दयनीय ढंग सेनिर्भर है।वाल्मीकि ने इस विषमता के चित्रण करने के लिए दलितों के बच्चो, स्त्रियों, नौकरीपेशा वर्ग के लोगों, छात्रोंसभी के माध्यम से कथाएं रची हैं। उनमें शायद सबसे मार्मिक कथाएं बाल जीवन की हैं और दलित आत्मकथाओं में भी प्रायः बाल जीवन के दुःख-त्रासदी का विस्तार से चित्रण मिलता है। जूठन में वाल्मीकि ने भी द्रोणाचार्य रूपी मास्टरों की खबर ली है जो उन्हें चूहड़ा कहकर पढ़ने से रोकते थे। इसका कारण यह है कि मध्यवर्ग के दलित लेखक की दलित संवेदना की कहानी लिख रहे हैं और मध्यवर्ग में शामिल हो जाने के बाद बाल्यकाल के उत्पीड़न और व्यथा को वे बार-बार याद करते हैं। वाल्मिकी की आत्मकथा के प्रसंगों के साथ-साथ उनकी ‘छतरी’ नामक कहानी को इस संदर्भ में विशेष रूप से याद किया जा सकता है। इस कहानी में भी गांव है जिसमें हिंदू-मुसलमानों की साझी आबादी है। आठवीं में पढ़ने वाले बच्चे की स्कूल से लौटते समय जब किताबें भीग जाती हैं तो उसके लिए गरीब बाप छाते का प्रबंध करने की कोशिश करता है। गांव में छतरी बनाने वाले शौकत चाचा हैं, जो सस्ते में छाता बनाने के लिए तैयार हो जाते हैं। छतरी किसी तरह से तैयार हो भी जाती है और बच्चा उसे लेकर शान से स्कूल जाता है। पर वहां उसका सामना मास्टर ईश्वरचंद्र नामक सवर्ण अध्यापक से होता है जो अपने को दूसरों से अधिक देशभक्त बताते थे। लेखक के ही शब्दों में- ‘लोग उन्हें राष्ट्रभक्त कहते थे। जब भी मैंने उन्हें देखा, जोर-जोर से बोलते, देशप्रेम की ह्रास होती भावना पर कुढ़ते देखा।’वही देशभक्त अध्यापक अपने छात्रों को मा-बहन की गाली देकर पीटते भी थे। उसी अध्यापक ने बच्चे की नई छतरी को पीटने वाले डंडे की तरह इस्तेमाल कर उसे तोड़ दिया। बड़े शौक से बनवाई गई छतरी का टूटना बच्चे को भी तोड़ देता है। पूरी सभा में माखनलाल चतुर्वेदी की देशभक्ति की कविताएं पढ़ी जा रहीं थीं और दूसरी ओर 12-13 साल का दलित लड़का अपनी टूटी छतरी को देखकर रो रहा था। वाल्मीकि की ही एक कविता ‘शंबूक का कटा सिर’ भी बरबस याद आ जाती है। लेखक का व्यंग्य फिर से देखने लायक है-
‘पूरी सभा देशप्रेम में डूब चुकी थी, और मैं अपनी छतरी के तोड़ दिए जाने का मातम मना रहा था। सभा के लिए मेरी छतरी का टूटना अर्थहीन था। देशप्रेम के सामने छतरी एक नगण्य वस्तु थी। लेकिन मेरे लिए छतरी का टूट जाना सपने के टूट जाने जैसा था। मैंने मास्टर ईश्वरचंद्र की ओर देखा। वह शांत मुद्रा में कविता पर झूम रहा था।’
कहानी में समूचा दृश्य दलित संवेदना बनाम छद्म देशभक्ति में बदल जाता है। जिन्हें एक साधरण बच्चे के रोने और उसके सपने टूटने की परवाह नहीं है वे देशभक्ति की कविता के रस में सराबोर हुए जा रहे हैं। राष्ट्रीय गौरव पर झूमने वालों को मनुष्यता के लिए किसी प्रकार की फुर्सत नहीं है। राष्ट्र की कल्पित कथाएं जिंदगी में रोज घटित हो रही असल कथाओं के सीने पर चढ़ी हुई है। इन कथाओं से सहज ही यह चुभती हुई अंतर्दृष्टि जन्म लेती है किभारत में राष्ट्रवाद के प्रति सबसे अधिक मोह वे लोग उजागर करते रहे हैं जो जनविरोधी किस्म के संस्कारों से घिरे रहते हैं, जबकि भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में विकसित हुआ राष्ट्रवाद इससे पूरी तरह भिन्न था।
वाल्मीकि ने दलित जीवन के बाहर आदिवासियों और मुस्लिमों के जीवन पर भी कथा-रचनाएं कर यह साबित किया है कि उनका अनुभव संसार, दृष्टिकोण और रुचि व्यापक है। कुछ कथाओं में जरूर ऐसा लगता है कि उन्होंने समाचार पत्रों की खबर के आधार पर कहानी लिखने का प्रयास किया है। अखबारों में दलित उत्पीड़न की खबरे प्रकाशित होती रहती हैं और कथा शैली यह आभास कराती है कि उन्होंने उन्हीं खबरों से अपने अनुभव को जोड़कर कहानियां लिखी हैं। कुछ कहानियों में इसीलिए खबरों के जैसी ही जल्दबाजी, औचकपन और नर्वस संक्षिप्तता दिखती हैं। ऐसी कहानियों में चरित्रों पर घटनाएं हावी रहती हैं और कहानी बीच से ही टूटकर, हांफती हुई किसी पूर्वनिश्चित अंत पर जाकर जोर-जोर से सांस लेने लगती है।उनमेंयथार्थ के प्रति संवेदनशील दलित दृष्टि तो उभर आती है पर रचना अस्वाभाविक ढंग से दुर्बलता की शिकार हो जाती है। ऐसा अक्सर ही दलित रचनाकारों के साथ होता है कि वे रचना में समाज को स्वाभाविक ढंग से व्यक्त करने के स्थान पर लंबी छलांगें लगाने लगते हैं और रचनाएं किसी रफ ड्राफ्ट जैसी प्रतीत होने लगती हैं जिन्हें ठीक कर के दोबारा छपाया जा सकता था।लेकिन वाल्मीकि के यहां मौजूद अपवाद स्वरूप ऐसी कथाओं को अलग रखकर हम पूरे विश्वास के साथ कह सकते हैं कि उनकी कथाएं किसी भी महान हिंदी कथाकार की कथाओं से टक्कर ले सकती हैं। वे भारतीय समाज के सबसे वंचित लोगों की कथाएं हैं और उन वंचितोंकी कथाएं सबसे मजबूत तथा सबसे समर्थ कलम के जरिए व्यक्त हुई हैं।
संवेद जुलाई 2017 में प्रकाशित |
संवेद जुलाई 2017 में प्रकाशित |
जन्म- 4 सितम्बर 1974. उन्नाव (उ.प्र.) | पीएच.डी. तक की शिक्षा जवाहरलाल नेहरु विश्विद्यालय, नयी दिल्ली से | सम्पादन – अरुण कमल : सृजनात्मकता के आयाम, यशपाल के उपन्यास ‘दिव्या’ पर आलोचना के सीडी संस्करण का | सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लेखन और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सेमिनारों में भागीदारी | सम्मान – देवीशंकर अवस्थी आलोचना सम्मान, शिवकुमार मिश्र स्मृति सम्मान, स्पंदन आलोचना सम्मान | सम्प्रति – अम्बेदकर यूनिवर्सिटी, दिल्ली में अध्यापन |