लेख
राजनीति का धूसर और नत्थू की नियति
(‘लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने’ – रवि बुले)
- राजीव कुमार
ब्रिटिश परतन्त्रता से मुक्ति के लिए चले लम्बे संग्राम के दौरान हमारी राजनीतिक प्रक्रिया का विकास हुआ। लक्ष्य की एकता के बावजूद ऐतिहासिक विरोधाभासों तथा अलग–अलग सामाजिक रुझान एवं समूह की मौजूदगी के कारण इसके अन्दर अनेक धाराएँ उत्पन्न हो गयीं। स्वतन्त्रता की परिकल्पना में मौजूद आदर्श एवं व्यापक हित की अवधारणा को सत्ता-वर्चस्व की आकांक्षा एवं साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण से चुनौती मिलने लगी। इसकी परिणति देश–विभाजन के रूप में हुई। व्यापक भारतीय की परिकल्पना करने वाले के लिए आघात था, पर विभिन्न सत्ता–आकांक्षियों को यह सत्ता लाभ दे गयी। इस विभाजक परिणति ने सत्ता–विमर्श में उन्मादपूर्ण समूहीकरण को एक सफल हथियार के रूप में स्थापित कर दिया। यह विडम्बनापूर्ण स्थिति है, पर सत्य भी कि स्वातन्त्र्योत्तर दौर में इस प्रयोग को बार–बार दुहराया गया। समय के साथ हर दल, राजनीतिक समूह में विचारधारा के स्तर पर विचलन हुआ, सत्ताप्राप्ति केन्द्रीय लक्ष्य बन गया। कोई ‘हार्डकोर’ बना तो कोई ‘सॉफ्टकोर’, पर ध्रुवीकरण को अपने–अपने स्तर पर सबने साधने की कोशिश की। इस प्रक्रिया में अगर किसी की क्षति हुई तो सत्ता तक पहुँच से वंचित आम आदमी की। रवि बुले की कहानी ‘लापता नत्थू उर्फ दुनिया ना माने’ सत्ता एवं राजनीतिक–तन्त्र के इस धूसर चरित्र को उद्घाटित करती है।
‘लापता नत्थू उर्फ दुनिया ना माने’ निकट अतीत की एक घटना के इर्द–गिर्द बुनी गयी है तथा इसमें सत्ता–तन्त्र के अन्दर मूल्य, विचारधारा के पतन के साथ आम आदमी की बेबस विकल्पहीनता भी दर्शायी गयी है। कुछ वर्ष पूर्व प्रदीप दलवी का नाटक ‘मी नाथूराम गोडसे बोलतोय’ आया था, नाटक के पक्षधरों ने इसे अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता से जोड़ा था, जबकि विरोधियों ने इसे राष्ट्रनायक महात्मा गाँधी के अपमान के रूप में देखा।
यह कहानी इसी सन्दर्भ से आगे बढ़ती है और इस दौर की राजनीति में सफेद–स्याह का भेद मिटाकर जो नया पॉलिटक्स तैयार हो रहा है, उसे सामने लाती है। कहानी में सदाशिव राव काँग्रेसी हैं, जबकि समर्थभाऊ भाजपा के। दोनों रायों के प्रतिनिधि एवं समर्थकों के बीच तत्कालीन राजनीतिक परिदृश्य पर बहस चल रही है। ऊपर से यह बहस विचारधारा, मूल्य, आदर्श एवं आइकन के प्रति पक्षधरता से सराबोर है। लेकिन प्रश्न है कि बहस की यह कवायद अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के बरक्स राष्ट्रनायक की गरिमा की रक्षा के लिए है अथवा यह आवरण है, जिसके अन्दर सत्ता की लड़ाई चल रही है। थोड़ी कटुतापूर्ण थोड़ा दोस्ताना।
कहानी शिवाजी नगर में काँग्रेस दफ्तर कहलाने वाली जगह पर, जनसंघी और गाँधीवादी साथ अड्डे जमाते हैं, चाय–पान करते हैं और ताश फेंटते हैं। वहाँ गाँधी और हेडगेवार की तस्वीर प्राय: साथ टँगी रहती हैं इन सबके बीच आपसी घात–प्रतिघात भी चलता रहता है। नाटक समर्थक समर्थ भाऊ को इस नये ध्रुवीकरण से सत्ता की प्राप्ति नजर आती है, जबकि सदाशिव राव इसके कारण की तलाश में हैं।
दोनों गुटों का संघर्ष मूल्यगत न होकर, सत्ता–प्राप्ति के लिए है। दोनों की मंजिल एक है, उस ओर दोनों अपने–अपने रास्ते से बढ़ रहे हैं, पर ऊपर से समानान्तर दिखाई देने वाला यह रास्ता वास्तव में बलयकारी है, जो एक–दूसरे से मिलता है, एक–दूसरे को काटता है, एक–दूसरे से लिपटता है पर जब काटता है तब नत्थू जैसा व्यक्ति जो इस सत्ता–संघर्ष से बाहर का है, पर सत्ता से उसकी आकांक्षा जुड़ी हुई हे, इस संघर्ष का शिकार बनता है। सत्ता सदाशिव राव एवं समर्थ भाऊ के यहाँ अन्तराल से आती–जाती रहती है।
दरअसल, आज की राजनीतिक प्रक्रिया में ध्रुवीकरण हर राजनीतिक समूह का हथियार–सा बन गया है। सत्ता एक ही को मिलती है, लेकिन एक समूह के ध्रुवीकरण के विरुद्ध जो दूसरे समूह का ध्रुवीकरण होता है, वह सत्तावंचित राजनीतिक समूह के अस्तित्व को अक्षुण्ण रखता है। ‘लापता नत्थू उर्फ दुनिया ना माने’ में छत्रपति शिवाजी नगर में समाजकार ‘0% गोंड से 100%’ गाँधी और दूसरा ‘0% गाँधी एवं 100% गोंडसे’ बन जाता है। यह विभाजन सदाशिव राव एवं समर्थ भाऊ दोनों की राजनीति एवं महत्त्व को बनाये रखती है इस सबके बीच नत्थू जैसा आम आदमी पिस जाता है। दोनों दल उसका उपयोग अपने हित के अनुरूप करना चाहते हैं। सदाशिव राव उससे ‘मी नाथूराम गोडसे बोलतोय’ का प्रतिवाद तैयार करवाना चाहता है तो समर्थ भाऊ अपने नाट्यदल में खाली हुए जगह को उससे भरना चाहता है। और व्यक्ति अगर नाथू जैसे ढुलमुल चरित्र का है तो उसकी मेधा, भ्रम का ही शोषण नहीं होता उसका आप्राकृतिक दैहिक शोषण भी होता है।’ नत्थू के लिए छलनाएँ दोनों ओर से हैं। उसके उपयोग का प्रयास दोनों ओर से हो रहा है। जाहिर है कि इधर–उधर लुढ़कने के बाद अटकना किसी एक ओर ही है। इसकी सामाजिक प्रतिक्रिया होती है दूसरे पक्ष के निशाने पे आ जाना। ‘मी नाथूराम गोडसे बोलतोय’ के हिन्दी संस्करण के मंचन के दौरान हंगामा होता है, उसके बाद से नाथूराम गायब हो जाता है। उसे अननेचुरली सेक्सुअली एक्सप्लॉयट किया जाता है। कुछ बच्चे उसे पेड़ पर लटका पाते हैं।
यह कहानी हमारे राजनीतिक परिदृश्य एवं आम आदमी की नियति के स्तर पर लम्बे समय में बने एक किस्म के यथास्थितिवाद की ओर इशारा करती है। यह यथास्थितिवाद राजनीतिक प्रक्रिया में ध्रुवीकरण के तत्त्व की निरन्तर मौजूदगी के रूप में है तो दूसरी ओर आम आदमी के समक्ष मौजूद विकल्पहीनता की स्थिति के रूप में है। राजनीतिक प्रक्रिया में डटे पक्ष–प्रतिपक्ष, सत्ता–प्रतिरोध सबके चरित्र में आन्तरिक साक्ष्य हैं। शिवाजी नगर की दोनों राजनीतिक हस्ती – सदाशिव राव एवं समर्थ भाऊ के अन्दर प्रवेश करने पर पाते हैं कि दोनों के संवाद अलग–अलग हैं, पर सत्ता–प्रयास की शैली एक–सी है। नत्थू जैसे लोगों का शोषण दोनों ही करते हैं।
आम आदमी की विडम्बना यह होती है कि सत्ता के प्रभाव से वह निरपेक्ष नहीं हो सकता। सारे निर्णय वहीं लिये जाते हैं, शक्तियाँ वहीं केन्द्रित होती हैं। शोषण वहीं से होता है, रेबड़ियाँ भी वहीं से बाँटी जाती हैं। नत्थू जैसे आम आदमी के सामने रोजगार की समस्या है। इसके लिए वह सत्ता का फेवर चाहता है। उसका पतन इसी परिप्रेक्ष्य में होता है।
दरअसल, राजनीतिक प्रक्रिया व्यापक प्रभाव वाली निरन्तरता युक्त परिघटना है। कोई भी व्यक्ति अथवा समाज इसके प्रभाव से मुक्त हो ही नहीं सकता। नाटक का मंचन मुम्बई में हो रहा है, हंगामा संसद में, विक्षुब्ध शिवाजीनगर को किया जा रहा है पर जिन्दगी को अलविदा नाथूराम गाँधी को कहना पड़ता है जो कि मुम्बई, संसद, अटावा शिवाजीनगर-कहीं का भी एक बड़ा पक्ष नहीं है। अपनी ओर से उसकी भूमिका नहीं है। उसकी भूमिका सदाशिव राव एवं समर्थ भाऊ द्वारा तय कर दी जाती है और वह आसान शिकार बन जाता है।
इसी बिन्दु पर कहानी के दूसरे आयाम को भी उद्घाटित किया जाना आवश्यक है और वह है अपना पक्ष तय न कर पाने की नियति। यद्यपि नत्थू के पास बहुत हद तक विकल्पहीनता की स्थिति है, पर वह अपनी समस्या का सरल समाधान ढूँढ़ता है। उसमें आत्यन्तिक तात्कालिकता है इसी कारण सदाशिव राव तथा समर्थ भाऊ दोनों के निर्देश/प्रस्ताव को ठुकरा नहीं पाता। जब सदाशिव राव उसे गोडसे के नाटक का जवाब गाँधी के नाटक देने एवं इस नाटक को सनसनी खेज बना देने की बात करता है तो उसके मन में प्रश्न उठता है, ‘‘मैं समझ नहीं सका कि गाँधी के किसी भी नाटक में सनसनीखेज क्या हो सकता है!’’
लेकिन नौकरी की लालच उसकी प्रश्नवाचकता को मिटा देती है और वह सदाशिव राव भाऊ की इच्छा के अनुसार लिखना स्वीकार करता है। नत्थू का इस निर्णय पर पहुँचना एक ओर युवावर्ग की अवसरवादिता, राजनीतिक व्यवस्था के कुचक्र को सामने लाता है, वहीं अब तक की विकास–प्रक्रिया को भी प्रश्नांकित करता है, जिसमें आजादी के इतने वर्ष बाद भी हमारा समाज विभिन्न कुचक्रों की कठपुतली बनने को बाध्य है। पूरी व्यवस्था का स्वरूप ऐसा बन गया है जिसमें युवा या फिर आम आदमी में रीढ़ विहीनता तथा नेता (सत्ता) वर्चस्व की स्थिति में है। इस प्रक्रिया में वर्चस्वकारी शक्तियों का निर्देश आप्त वचन बन जाता है। यथार्थ की अवहेलना की जाती है, समाज को उन्मादग्रस्त किया जाता है, विचारधारा एवं मूल्य को विदाई दे दी जाती है। स्वार्थ सर्वोपरी हो जाता है इतिहास से छेड़छाड़ किया जाता है और अन्तत: सफेद एवं स्याह रंग घुलकर सिर्फ धूसर बच जाता है।
कहानी में सदाशिव राव के निर्देश पर नाथूराम गाँधी ‘मी नाथुराम गोडसे बोलतोय’ के जवाब में ‘मैं महात्मा गाँधी बोल रहा हूँ’ शीर्षक से नाटक लिखता है। यद्यपि उसके मन में अपने कृत्य पर प्रश्न उठता है कि क्या गाँधी स्वयं अपने को महात्मा कहते, लेकिन जिस सनसनीखेज के मानदण्ड पर वह चल रहा है उसमें अपने हर संशय को परे ढकेलता जाता है। वह अपने लिए बाजारवादी मानदण्ड को उपयुक्त पाता है।
और फिर बात अपनी तारीफ तक ही सीमित नहीं रहती, इतिहास को अपनी मर्जी से अपनी जरूरत के अनुसार बदल दिया जाता है। नाटक लिखने के लिए अध्ययन के क्रम में नत्थू, गाँधी एवं नेहरू के विरोधाभास की पहचान करता है, लेकिन इतिहास की यह वस्तुपरक व्याख्या शिवाजी नगर में चल रहे तत्कालीन राजनीति के मिजाज के अनुकूल नहीं हैं। सदाशिव राव की राजनीति को नाथूराम गोडसे के नये वर्जन से फर्क पड़ रहा है, इसलिए नाथूराम गाँधी जो नाटक लिखता है उसमें नाथूराम गोडसे के प्रकरण को ही खत्म कर देता है, ‘‘उनकी इच्छानुसार मैंने नाटक को सनसनी–खेज बना दिया था। ऐसा प्रतीकात्मक प्रयोग किया था, जो आज तक किसी नाटककार और फिल्मकार के दिमाग में नहीं आया होगा। इतिहासकार ने तो इसकी कल्पना तक नहीं की होगी। नाटक में मैंने नाथूराम को गोडसे की गोलियों से नहीं मरने दिया। गाँधी विरुद्ध गोडसे यह किस्सा ही खत्म। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी!’’
इस नाटक में इतिहास में बदलाव कर उसमें धार्मिकता की मिक्सिंग की जाती है। गाँधी को महादेव शंकर के अवतार के रूप में पेश किया जाता है तथा उनकी (गाँधी या महादेवशंकर की) मृत्यु के बाद मंच पर गणेश का प्रवेश होता है।
यहाँ पर रेखांकित किया जाना जरूरी है कि इस पूरे रचाव में इतिहास से रचनात्मक छूट नहीं ली गयी है, बल्कि इतिहास में अक्षम्य छेड़छाड़ की गयी है इसमें विरोधी पक्ष के ‘फेवर’ में हो रहे ध्रुवीकरण को ध्वस्त करने की तत्कालिक जरूरत के मद्देजगर एक तरह से ऐसे व्यक्ति को बरी किया जा रहा है, जिसका आशय किसी भी मायने में भुलाये जाने लायक है। इतना ही नहीं इससे एक विचारधारा के प्रतिगामी तत्त्वों को लेकर चल रही बहस ही खत्म हो जाती है साथ ही नवसृजित नाटक में जिस प्रकार गाँधी को भगवान शंकर से सम्बद्ध किया जा रहा है, वह हिन्दू मानसिकता का ध्रुवीकरण का ही प्रयास तो है।
लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने इस पूरी जटिल परिघटना को बड़े सरल रूप में सामने लाती है कहानी आज की राजनीतिक प्रक्रिया के मूलभूत चरित्र को सामने रखती है, जिसमें आदर्श, विचारधारा, पार्टीलाइन, उद्देश्य की कोई जगह नहीं है। राजनीति वर्चस्व स्थापित करने एवं लाभ के लेन–देन का खेल बनकर रह गयी है। यही आज की राजनीति का साध्य है, जिसमें साधन की शुचिता पर बहस ही खत्म हो गयी।
कहानी अपने सन्देश के साथ कथ्य के स्तर पर भी सफल है, खासकर जबकि इसमें निकट इतिहास की एक सन्दर्भ को सीधे–सीधे उठा लिया गया, फिर भी इसमें अखबारी बोरियत नहीं आयी है। पूरी कहानी में रोचकता बनी रहती है यही इसकी रचनात्मक सफलता है। (कथादेश, जून 2001)
(यह आलेख ‘संवेद’ के 71वें अंक (दिसंबर 2013) में प्रकाशित है।)
राजीव कुमार – युवा कथाकार।
भारतीय ज्ञानपीठ से एक कहानी संग्रह प्रकाशित।
पत्र–पत्रिकाओं में समीक्षाएँ प्रकाशित।मो. 999052454